छंद सलिला:
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आल्हा या वीर छन्द अर्ध सम मात्रिक छंद है जिसके हर पद (पंक्ति) में क्रमशः १६-१६ मात्राएँ, चरणान्त क्रमशः दीर्घ-लघु होता है. यह छंद वीर रस से ओत-प्रोत होता है. इस छंद में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रचुरता से प्रयोग होता है.
सोलह-पंद्रह यति रखे, आल्हा मात्रिक छंद
ओज-शौर्य युत सवैया, दे असीम आनंद
गुरु-गुरु लघु हो विषम-सम, चरण-अंत दें ध्यान
जगनिक आल्हा छंद के, रचनाकार महान
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़.
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
महाकवि जगनिक रचित आल्हा-खण्ड इस छंद का कालजयी ग्रन्थ है जिसका गायन समूचे बुंदेलखंड, बघेलखंड, रूहेलखंड में वर्ष काल में गाँव-गाँव में चौपालों पर होता है. प्राचीन समय में युद्धादि के समय इस छंद का नगाड़ों के साथ गायन होता था जिसे सुनकर योद्धा जोश में भरकर जान हथेली पर रखकर प्राण-प्रण से जूझ जाते थे. महाकाव्य आल्हा-खण्ड में दो महावीर बुन्देल युवाओं आल्हा-ऊदल के पराक्रम की गाथा है. विविध प्रसंगों में विविध रसों की कुछ पंक्तियाँ देखें:
पहिल बचनियां है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ.
आजु बाघ कल बैरी मारउ, मोर छतिया कै डाह बुझाउ.. ('मोर' का उच्चारण 'मुर' की तरह)
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय.
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि मर जाय..
टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडौगढ़ बरगद की डार.
आधी रतिया की बेला में, खोपड़ी कहे पुकार-पुकार.. ('खोपड़ी' का उच्चारण 'खुपड़ी')
कहवाँ आल्हा कहवाँ मलखे, कहवाँ ऊदल लडैते लाल. ('ऊदल' का उच्चारण 'उदल')
बचि कै आना मांडौगढ़ में, राज बघेल जिए कै काल..
अभी उमर है बारी भोरी, बेटा खाउ दूध औ भात.
चढ़ै जवानी जब बाँहन पै, तब के दैहै तोके मात..
एक तो सूघर लड़कैंयां कै, दूसर देवी कै वरदान. ('सूघर' का उच्चारण 'सुघर')
नैन सनीचर है ऊदल के, औ बेह्फैया बसे लिलार..
महुवरि बाजि रही आँगन मां, जुबती देखि-देखि ठगि जाँय.
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय..
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