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सोमवार, 28 सितंबर 2020

पुरोवाक : तुम्हें मेरी कसम - धर्मेंद्र आज़ाद

पुरोवाक्
"तुम्हें मेरी कसम" समय-साक्षी कविताएँ 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सृष्टि में मानव के विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पड़ाव वाक् शक्ति से परिचित होना है। कंठ के वाक्-सामर्थ्य का आभास होते ही मानव ने निरंतर प्रयास कर ध्वनियों में भेद करना, उनके प्रभाव को स्मृति कोष में संचित कर उनसे घटनाओं का पूर्वानुमान करना, विविध मनस्थितियों को व्यक्त करना सीखा। अनुभूत को अभिव्यक्त करते समय 'कम से कम में' 'अधिक से अधिक' कहने की चाह ने पूर्ण वाक्य के स्थान पर संक्षिप्त कथन, कहे को स्मरण रख सकने के लिए सरस बनाने हेतु समान उच्चारण के शब्दों का चयन, कहे हुए को शत्रु न समझ सकें इसलिए प्रतीकों में बात कहने, प्रिय को प्रसन्न करने के लिए कोमलकांत पदावली का प्रयोग आदि चरणों ने काव्य रचना को महत्वपूर्ण ही नहीं, अपरिहार्य भी बना दिया। वेद पूर्व काल में ही कविता आम जनों से लेकर विदवज्जनों तक के बीच में रच-बस चुकी थी और उसे कहने, स्मरण रखने और समझने में सहायक मान लिया गया था। कविता में ध्वनि खंडों की आवृत्ति ने छंदों को जन्म दिया। समान पदभार, गति-यति और पदांत योजना ने गीत, मुकतक, मुक्तिका (ग़ज़ल, गीतिका, तेवरी, अनुगीत, सजल) आदि विधा-वैविध्य का विकासकर पिंगल शास्त्र को इतनी प्रतिष्ठा दी कि आचार्य पिंगल, आचार्य भरत और आचार्य नंदिकेश्वर अमर हो गए। इनमें से आचार्य नंदिकेश्वर नर्मदा तट पर जबलपुर में निर्मित बरगी बाँध के समीपवर्ती ग्राम के निवासी थे जो बाँध की झील में डूब गया। आचार्य नन्दिकेश्वर द्वारा पूजित शिवलिंग को एक पहाड़ी पर शिवालय बनाकर प्रतिष्ठित कर दिया गया है। इसलिए निर्विवाद है कि नर्मदांचल में काव्य रचना का संस्कार आदिकाल से पुष्ट होता रहा है। 
कवि पूर्व-वर्तमान तथा भविष्य में एक साथ जीते हुए काव्य रचना करता है इसलिए उसे त्रिकालदर्शी कहा जा सकता है। वह यथार्थ के संग कल्पित-अकल्पित का संयोग कर काव्य रचता है, इसलिए उसे अपनी काव्य सृष्टि का ब्रह्मा कहा जाता है। विज्ञान के हर बढ़ते चरण के साथ साहित्य और कविता पर समाप्ति का खतरा अनुभव किया जाता है किंतु 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं.....' अपितु अधिकाधिक मजबूत होती जाती है। अद्यतन अन्तर्जाल (इंटरनेट), चलभाष (मोबाइल) आदि के विकास के साथ साहित्य और पुस्तक संस्कृति पर खतरे की बात खूब की गयी किंतु दिन-ब-दिन नए कवि जन्म ले रहे हैं और अधिकाधिक संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। किसी समय वर्षों में एक पुस्तक की एक प्रति तैयार होती थी, अब हर दिन लाखों पुस्तकें छप रही हैं। विस्मय यह कि विपुल लेखन निरंतर होने पर भी नवता नष्ट नहीं हुई, न कभी होगी। हर नया कवि अपनी अनुभूतियों को भिन्न विधि से व्यक्त करता है। श्रोता और पाठक उसे भिन्न-भिन्न अर्थों में सुन-पढ़-ग्रहण कर प्रतिक्रिया देता है। कहते हैं 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि।' 
कवि कुल के युवा सदस्य धर्मेन्द्र तिजोड़ीवाले 'आजाद' माँ सरस्वती के दरबार में भाव पुष्पों की थाली 'तुम्हें मेरी कैसम' सजाकर पूजार्चन हेतु प्रस्तुत हैं। प्रकाशकों के अनुसार काव्य संकलन सबसे कम बिकते हैं तथापि कविता लिखने, पढ़ने और सुननेवाले सर्वाधिक हैं। इसका कारण केवल यह है कि कविता मनुष्य के मन के निकट है जबकि गद्य मस्तिष्क के। मनुष्य ने पहले गद्य लिखा या पद्य इसका उत्तर पहले मुर्गी हुई या अंडा की तरह अनुत्तरित है। मैं नवजात शिशु में इसका उत्तर खोजता हूँ जो कोई भाषा-बोली, शब्द, धर्म, लिंग, क्षेत्र, दल या मनुष्य को बाँटनेवाला विचार नहीं जानता। वह जानता है तो ममता, प्यार और अपनत्व। यही कविता का मूल है। 
आदिकवि वाल्मीकि ने मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का बहेलिये द्वारा वध किये जाने पर उसकी संगिनी का करुण क्रंदन सुन, करुणा पूर्ण ह्रदय से पहली कविता कही। फारस में इसी प्रसंग का रूपांतरण कर शिकारी द्वारा मृगशावक का वध किये जाने पर हिरणी का क्रंदन सुनकर ग़ज़ल कही जाने का मिथक गढ़ा गया और 'गज़ाला चश्म' को ग़ज़ल के साथ जोड़ दिया गया। शैली ने लिखा 'अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस विच टैल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट'। कविवर सुमित्रनंदन पंत ने कहा 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'। गीतकार शैलेंद्र के शब्दों में 'हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं'। आज़ाद तबीयत आदमी अपने तक सीमित नहीं रह पाता, वह औरों के सुख से सुखी और दुःख में दुखी हो, यह स्वाभाविक है। 
बुंदेलखंड में कहा जाता है किसी के सुख में सम्मिलित न हो सको तो कोई बात नहीं पर दुःख में अवश्य सहभागी हो। काव्य संकलन 'मीत मेरे' में मेरी कविता सुख-दुःख की पंक्तियाँ है- 
सुख 
आदमी को बाँटता है। 
मगरूर बनाता है 
परिवेश से काटता है। 
दुःख आदमी को जोड़ता है, 
दिल से मिलने के लिए 
दिल दौड़ता है। 
फिर क्यों, क्यों हम
दुःख से दूर भागते हैं?
सुख की भीख माँगते हैं?
काश! सुख को 
दुःख की तरह बाँट पाते, 
काश! दुःख को 
सुख की तरह चाह पाते,
अपनी मुस्कान दे 
औरों के आँसू पी पाते, 
आदमी तो हैं, 
इंसान बनकर जी पाते। 
बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब 'आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना'। धर्मेंद्र की कवितायेँ आदमी से इंसान होने के बीच की जीवन यात्रा के बीच हुई अनुभूतियों की अभिव्यक्तियाँ हैं। 'हाँ, ये इन दिनों की ही बात है' शीर्षक रचना 'स्व' और 'सर्व' को ही समेटे है। 
यहाँ एक बाग़-बगीचा था 
जिसे सबने मिलके ही सींचा था। 
न तो रंग थे, न ही नाम थे 
न खुदा, ईसा, न ही राम थे 
सभी गुल ही एक समान थे 
सभी एक दूजे की जान थे
काश! यह यह 'था', 'है' हो सके। 
धर्मेंद्र अनुभूति के श्रम गहनतन स्तर पर जो अनुभव करते हैं, वही कहते हैं- 
'प्यार के बदले में प्यार चाहना भी प्यार नहीं' 
यह पंक्ति सूक्ति की तरह चिरस्मरणीय है। प्यार केवल 'देने' का नाम है, 'चाहना' प्यार को दूषित कर देता है-
जैसे करते हो प्यार रब को मुझे ऐसे करो 
जैसे माँ करती है दुलार, मुझे वैसे करो 
बच्चन के के गीत की पंक्ति है 'मगर मैं हूँ कि सब कुछ जानकर अनजान बनता हूँ', धर्मेंद्र की अनुभूति है-
जानता हूँ एक पत्थर है जिसे मैं पूजता हूँ 
उसके घर में रौशनी करने स्वयं तिल-तिल जला हूँ 
दीप उसके दर जलाया है हमेशा शुद्ध घी का
और उसके भोग की खातिर कभी भूखा रह हूँ 
जखन पर मरहम लगाने आये वो या फिर न आये 
तो क्या उसके सामने ये दिल सिसकना छोड़ देगा 
'पिता' शीर्षक रचना गागर में सागर की तरह है जिसमें माँ केवल उपस्थित नहीं है, एक पंक्ति में ही माँ का पूरा अस्तित्व ही समाहित हो गया है। 'बंद संदूक' और 'खाली बंदूक' जितना पिता के विषय में कहते हैं, उससे अधिक 'राधा से अधिक दीवानापन' माँ के विषय में कह देता है। यह सामर्थ्य सहज नहीं होती। 
बंद पड़ा संदूक पिता 
इक खाली बंदूक पिता 
दिल उनका है इक कविता 
हर इक झुर्री एक कहानी 
जाने ऐसा क्या है उनमें 
माँ राधा से बड़ी दीवानी 
शनि सिंगणापुर गाँव में लोह घरों में ताले नहीं लगाते, यह अतीत की बात है। अब हमारा समाज पढ़-लिखकर सभ्य हो गया है, अब बैंक की तिजोरियाँ और ए टी एम भी सुरक्षित नहीं हैं। कवि की कामना 'विगत' को 'आगत' बनाना चाहती है- 
दरवाजे हों भी तो ताले या दीवार न हो 
ऐसी दुनिया, ऐसा घर या ऐसी रीत रचो 
कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की कालजयी रचना है गीतफरोश - 'मैं गीत बेचता हूँ जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ'। धर्मेंद्र 'गीतों के सौदागर' हैं -
दुःख इसका लें, उसका भी लें 
खुशियाँ देकर आँसू पी लें 
भीड़ भरी दुनिया में साथी 
हम वो हैं जो तनहा जी लें 
सागर हैं फिर भी गागर हैं 
हम गीतों के सौदागर हैं 
सियासत उन्हीं का खून चूसती है जो उसे जन्म देते हैं। धर्मेंद्र प्रचलित शब्दों को अप्रचलित अर्थों में उपयोग कर पाते हैं या यूँ कहें कि सामान्य शब्दों से नव अर्थों की प्रतीति करा पाते हैं। यह कमाल दुष्यंत कुमार ने बखूबी किया- 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो / ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं।' आपातकाल के दौर में सेंसर से बचकर ऐसे पंक्तियाँ वह सब कह सकीं जो इनका सामान्य अर्थ नहीं है। 'बुद्ध मुस्कुराये' में धर्मेंद्र ने बुद्ध, पाकिस्तान आदि शब्दों का प्रयोग भिन्नार्थों में किया है- 
अप्पने-अपने स्वारथ से ही 
घर-घर पाकिस्तान बनाये 
बुद्ध मंद-मंद मुस्काये.... 
.... हिरोशिमा-नागासाकी के 
जब दोनों को सपने आये 
ताजमहल में हाथ मिलाये 
लेकिन ह्रदय नहीं मिल पाये 
फिर गुर्राये 
समकालिक सियासत पर तीक्ष्ण व्यंग्य काबिले-तारीफ़ है। यह पूरी रचना अपने समय का जीवित दस्तावेज है। ओ राधे, चल सको तो चलो, लड़की के सपने, आखिरकार, किराये का घर, लोकतंत्र में हनुमान आदि कवितायें समय और सत्ता की विद्रूपता को निष्पक्षता और निर्ममता सहित उद्घाटित करती हैं। 
ईश्वर के पास, साक्षात्कार, आहट, साहस, गीता, रोशनी, ऊँचा, गंदगी, यादों की देह, लड़की के बारे में, धुआँ, संघर्ष, बेटियाँ जानती है जैसी लघ्वाकारी रचनाएँ आइना हैं जिनमें कवि के आज़ाद ख्यालों के नाक-नक्श देखे जा सकते हैं। इन रचनाओं में अन्तर्निहित तीखापन और बेबाकी मंटो की याद दिलाता है- 
किसी साक्षात्कार में 
एक औरत से 
दनादन सवाल पूछे गये 
नौकरी क्यों करना चाहती हो?
आपके पतिदेव क्या करते हैं?
धर्म राजनीति शिक्षा साहित्य 
न्याय और इतिहास के अलावा 
दुनिया के बारे में क्या जानती हो?
जवाब में उसने बटनें खोलीं 
नाडा खोला 
और अचानक नंगी हो गई। 
एक बानगी और देखें -
कण-कण में नहीं है ईश्वर 
अगर होता तो 
टट्टी पेशाब में भी होता 
और नहीं होता अगर 
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा चर्च 
जैसी जगहों में तो नहीं ही होता। 
इस रचना का अंत भी चौंकाता और सोचने के लिए विवश करता है- 
समझ से परे है 
मेरा हर एक विचार 
कठोर नास्तिकता के बावजूद 
ईश्वर के पक्ष में क्यों है?
कहना न होगा कि ये रचनाएँ कवि को एक वर्ग विशेष के आक्रोश का पात्र बना सकती हैं। इस समय ऐसी रचनाएँ लिखने और प्रकाशित करने के अपने खतरे हैं लेकिन खतरों से खेले बिना कवि धर्म का निर्वहन हो भी नहीं सकता। 'आज़ाद' तबियत कवि 'आज़ाद' रहे बिना समय का सत्य कह भी नहीं सकता। 
संकलन में ४७ गीतों के साथ ४२ गज़लें भी सम्मिलित हैं। इन्हें समान रचनाकाल के आधार पर एक संकलन में सँजोया गया है। लोक साहित्य के समतुकांती दोहड़ों, साखियों और संस्कृत के श्लोकों में प्रयुक्त ध्वनि-खण्डों के आधार पर अरबी-फ़ारसी में समभारिक ध्वनिखंड रखकर बनाये गए रुक्नों और बह्रों का प्रयोग करते ग़ज़ल लिखी गयी। मुगलों आक्रांताओं और सैनिकों के बीच सैन्य शिविरों में आरंभ हुई बातचीत में उनके देशों तथा भारत के पश्चिमी सीमान्त क्षेत्रों की भाषाओँ के सम्मिलन से लश्करी  का जन्म हुआ जो क्रमशः उर्दू और रेख़्ता के रूप में विकसित हुई। 
कुछ लोगों के मतानुसार अरब में ग़ज़ल नामक एक कवि था जिसने अपनी आयु प्रेम और मस्ती में बिता दी। उसकी प्रेमपरक कविताएँ ग़ज़ल कहलाईं (हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना)। अन्य मतानुसार ग़ज़ल को  अरब में अरबी-फ़ारसी 'कसीदा' लघु प्रेम गीत की तश्बीब (शुरुआत)  को तग़ज़्ज़ुल (ग़ज़ल) कहा गया (यदा कदा, डॉ. बाबू जोसेफ-स्टीव विंसेंट, पृ. ५)। ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ 'औरतों से बातें करना' (शमीमे बलाग़त, पृ. ४), 'जवानी का हाल बयान करना' (सरवरी, जदीद उर्दू शायरी पृ. ४८), 'इश्क़ व् जवानी का ज़िक्र' (कादिरी, तारीखो तनक़ीद, पृ. १०१), 'दिलवरों की बात (डॉ. सैयद ज़ाफ़र, तनक़ीद और अंदाज़े नज़र, पृ. १४४), 'नाज़ुक खयाली  का जरिआ' (तनक़ीद क्या है, पृ. १३३), मजे की चीज (डॉ. सैयद अब्दुल्ला) है। आरंभ में खुसरो, सरवरी आदि ग़ज़ल का  उर्दू में, एक फ़ारसी में लिखते थे।  जिस ग़ज़ल में खयालात व जज़्बात  औरतों की तरफ से हो उसे रेख़्ती (शमीमे बलाग़त पृ. ४८) कहा गया। 
एक अन्य मत के अनुसार ग़ज़ल शब्द की उत्पत्ति ग़िज़ाला अर्थात हिरनी से हुई (नरेश नदीम, उर्दू कविता और छंद शास्त्र, पृ. १५)।गज़ाला-चश्मी (प्रेमिका से बातचीत) को भी ग़ज़ल कहा गया। भारत में मिथुनरत नर क्रौंच का बहेलिये द्वारा वध होने पर क्रौंची का विलाप सुनकर आदिकवि वाल्मीकि के मुख से निकली पंक्तियों से काव्योत्पत्ति मान्य है। अरब के रेगिस्तान में क्रौंच नहीं मिलता। इसलिए हिरनी के बच्चे का वध होने पर उसके मुख से निकली चीत्कार को ग़ज़ल की उत्पत्ति बता दिया गया। कुछ लोगों के ख़याल में छंद और तुक की पाबंदी ग़ज़ल के पाँव में पड़ी बेड़ियाँ हैं (उर्दू काव्यशास्त्र में काव्य का स्वरूप, डॉ. रामदास नादार, पृ. ९५)। उस्ताद शायरों मिर्ज़ा ग़ालिब ने ग़ज़ल को  'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' विशेषणों से नवाज़ा (ऑफ़ एन्ड ऑन, अंग्रेजी ग़ज़ल संग्रह, अनिल जैन, पृ. १६ )। कालांतर में ग़ज़ल ने इश्क़े मज़ाजी (लौकिक प्रेम) के साथ-साथ इश्के-हक़ीक़ी (अलौकिक प्रेम) को भी आत्मसात कर लिया।  
इस पृष्ठ भूमि में धर्मेंद्र की ग़ज़लें न तो विषय, न लय दृष्टि से उर्दू ग़ज़ल हैं। हिंदी ग़ज़ल  पर प्रथम शोध करनेवाले डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के अनुसार साठोत्तरी उर्दू ग़ज़ल वास्तव में हिंदुस्तानी ग़ज़ल है (हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास, डॉ . रोहिताश्व अस्थाना, पृ. १५)। फ़िराक गोरखपुरी ग़ज़ल को 'असंबद्ध कविता और समर्पणवादी मिज़ाज की' मानते हैं (उर्दू भाषा और साहित्य, रघुपति सहाय फ़िराक, पृ. ३५०-३५१)।कबीर प्रथम हिंदी ग़ज़लकार हैं। हिंदी ग़ज़ल का वैशिष्ट्य देशज शब्दों व हिंदी छंदों का समावेशन है। हिंदी ग़ज़ल हिंदी व्याकरण और पिंगल को अपनाती है। तदनुसार ङ, ञ, ड, ड़, ण, ऋ आदि वर्णों तथा क्त, ख्य, ज्ञ, च्छ, ट्य, ठ्य , त्य, क्त, क्ष, त्र, आदि संयुक्ताक्षरों का प्रयोग करती है। ज़हीर कुरैशी के अनुसार 'हिंदी प्रकृति की ग़ज़ल आम आदमी की जनवादी (भीड़वादी नहीं) अभिव्यक्ति है (हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास, डॉ . रोहिताश्व अस्थाना, पृ. १५८)। शिवओम अंबर के अनुसार 'समसामयिक हिंदी ग़ज़ल भाषा के भोजपत्र पर लिखी हुई विप्लव की अग्निऋचा है'। डॉ. उर्मिलेश हिंदी ग़ज़ल में 'हिंदी की आत्मा' की उपस्थिति आवश्यक मानते हैं कुंवर बेचैन इसे 'जागरण के बाद उल्लास' कहते हैं। वस्तुत: आनुभूतिक तीव्रता और संगीतात्मकता हिंदी ग़ज़ल के प्राण हैं। हिंदी ग़ज़ल शिल्प पक्ष पर ग़ज़लपुर, नव ग़ज़लपुर तथा गीतिकायनम नामित तीन शोध कृतियों के कृतिकार सागर मीरजापुरी ग़ज़ल को मुक्तिका, मतला को उदयिका, मकता को अंतिका, काफिया को तुकांत, रदीफ़ को पदांत कहते हैं। मूलत: संस्कृत कालांतर में हिंदी छंदों आधार पर बनी फ़ारसी रुक्नों और बह्रों का खुलासा सृजन -आर. पी. शर्मा 'महरिष', संवेदनाओं के क्षितिज -रसूल अहमद साग़र, ग़ज़ल ज्ञान -रामदेव लाल विभोर आदि अनेक पुस्तकों में किया गया है। हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका, गीतिका, सजल, तेवरी, अनुगीत आदि नाम हैं। धर्मेंद्र हिंदी ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल ही कहते हैं।
बाईस मात्रिक महारौद्र जातीय कुंडल छंद में कही ग़ज़ल में धर्मेंद्र संगत का असर उदयिका में बताते हैं-
मटर के साथ में गर घास-फूस सिंचता है
चने के साथ में 'आज़ाद' घुन भी पिसता है।
प्रथम द्विपदी में उपनाम का प्रयोग, वह भी शब्द कोशीय अर्थ में करना गज़लकार की सामर्थ्य का साक्ष्य है।
सत्रह मात्रिक महासंस्कारी जातीय छंद में कहन की सादगी देखते ही बनती है -
दोष उनका भी तो बराबर था
क्यों मुझे ही मिली सजा तन्हा
मैं तुम्हें साथ ले नहीं सकता
जब गया आदमी गया तनहा
धर्मेंद्र गहरे सवाल भी मासूमियत से पूछते हैं-
पास मेरे हल नहीं इस बात का
प्रेम से क्यों पेट यह भरता नहीं?
पौराणिक पात्रों के माध्यम से कम शब्दों में अधिक अर्थ की अभिव्यक्ति देखें -
दोस्तो घर में विभीषण की तरह जो लोग हैं
राज की बातों से उनको बेखबर रक्खा करो
सुना है राम होता है 'धरम' आराम में लेकिन
वो दिल बीमार करने का कभी मौका नहीं देते
व्यंजना शक्ति का कमाल देखिये -
दोस्ती है ये ऐतबार करें
एक दूजे पे आओ वार करें
अब तो दुश्मन भी दुआ देते हैं
क्या हुई मुझसे खता याद नहीं       
'तुम्हें मेरी कसम' की रचनाएँ पाठक को चिंतन-मनन प्रेरित करेंगी। ये रचनाएँ गुदगुदाती नहीं तिलमिलाती हैं, यह तिलमिलाहट बदलाव की मानसिकता को जन्म देने में समर्थ हो, यही कामना है। 
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संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४ , ईमेल salil.sanjiv@gmail.com   




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