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सोमवार, 10 नवंबर 2025

नवंबर १०, अगहन, विश्व विज्ञान दिवस, हाइबन, ताँका, सेदोका, चोका, ककुप, माहिया, कहमुकरी, जनक

 सलिल सृजन नवंबर १०

*
विश्व विज्ञान दिवस
संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने १० नवंबर २००१ से समाज में विज्ञान की भूमिका और लोगों को अधिक वैज्ञानिक मुद्दों पर सक्रिय रूप से बहस करने हेतु विश्व विज्ञान दिवस मनाना आरंभ किया है। शांति और विकास के लिए विश्व विज्ञान दिवस का विचार पहली बार १९९९ में हंगरी के बुडापेस्ट में आयोजित विश्व विज्ञान सम्मेलन के दौरान प्रस्तावित किया गया था। यह दिन हमारे दैनिक जीवन में विज्ञान के महत्व और प्रासंगिकता को रेखांकित करता है। शांति और विकास के लिए छात्रों को विज्ञान के क्षेत्र में नवीनतम विकास के बारे में जानकारी देना इस दिवस का उद्देश्य है। यह हमारी समझ को व्यापक बनाने और इस समाज को अधिक टिकाऊ बनाने में वैज्ञानिकों की भूमिका को भी रेखांकित करता है। वर्ष २०२४ का विषय "विज्ञान के माध्यम से समुदायों को सशक्त बनाना" (काल्पनिक विषय) है। यह दिन वैश्विक चुनौतियों को हल करने, स्थिरता को बढ़ावा देने और अधिक न्यायसंगत दुनिया बनाने के लिए विज्ञान की शक्ति पर जोर देता है। इसका लक्ष्य विज्ञान और समाज के बीच की खाई को पाटना है, जिससे वैज्ञानिक ज्ञान सभी के लिए सुलभ, प्रासंगिक और लाभकारी बन सके। शांति और विकास के लिए विश्व विज्ञान दिवस का विषय है 'विज्ञान क्यों महत्वपूर्ण है - मस्तिष्कों को जोड़ना और भविष्य को सशक्त बनाना'। हम अपने लेखन को विज्ञानपरक बाँके नई पीढ़ी के लिए उपयोगी और प्रासंगिक बनाने की चुनौती को स्वीकार करें।
***
अगहन का गीत
० क्वाँरा क्वाँर विरह का मारा कातिक छठ मैया को पूजे प्रीत कामना अदहन होती अगहन में शहनाई गूँजे . गिव अप लिव इन, डालो फेरे कोहबर में मिल देखो ख्वाब बेगम हो बेगम से मिलकर खुद नवाब हो जाओ जनाब राह न कोई दूजी सूझे अगहन में शहनाई गूँजे ० थर्मामीटर के पारे सी बढ़ती-घटती पर पल ठंड भू मैया की एक न सुनती ठंडी हवा छोकरी बंड सूरज को उपचार न सूझे अगहन में शहनाई गूँजे ० टी.वी.- टी.वी. चर्चा भारी टुरियाँ जीतीं किरकिट मैच गेंद जुही की बिजुरी घाईं पकड़ चमेली ने लौ कैच बल्लेबाजी कोऊ न बूझे अगहन में शहनाई गूँजे १०.११.२०२५ ०००
हाइबन
*
'विश्वैक नीड़म्' (संसार एक घोंसला है), 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (पृथ्वी एक कुटुंब है) आदि अभिव्यक्तियाँ भारतीय मनीषा की उदात्तता की परिचायक हैं। विश्ववाणी हिंदी इसी पृष्ठभूमि में विश्व की हर भाषा-बोली के शब्दों और साहित्य को गले लगाती है। हिंदी साहित्य लेखन को मुख्यत: गद्य-पद्य दो वर्गों में रखे जाने के साथ ही दोनों मिलाकर अथवा दोनों विधाओं के गुण-धर्म युक्त साहित्य रचा जाता रहा है। 'गद्य ग़ीत', 'अगीत' आदि ऐसी ही काव्य-विधाएँ हैं। गद्य गीत वह गद्य है जिसमें आंशिक गीतात्मकता हो। अगीत ऐसे गीत हैं जिनमें गीत के बंधन शिथिल कर आंशिक गद्यात्मकता को आत्मसात किया गया हो। इन दोनों विधाओं की रचनाएँ कथ्यानुसार आकार ग्रहण करती हैं। हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका, स्नैर्यू आदि काव्य विधाएँ हिंदी में ग्रहण की जा चुकी हैं। जापानी काव्य विधा 'हाईकु' के रचना विधान (तीन पंक्तियों में ५-७-५ उच्चार) में पद्य-गद्य का मिश्रित रूप है 'हाइबन'।
डॉ. हरदीप कौर संधू के अनुसार- ''हाइबन' जापानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है 'काव्य-गद्य'। हाइबन गद्य तथा काव्य का संयोजन है। १७ वीं शताब्दी के कवि बाशो ने इस विधा का आरंभ १६९० में आपने एक दोस्त को खत में सफरनामा /डायरी के रूप में 'भूतों वाली झोंपड़ी' लिखकर किया। इस खत के अंत में एक हाइकु लिखा गया था। हाइबन की भाषा सरल, मनोरंजक तथा बिंबात्मक होती है। इस में आत्मकथा, लेख , लघुकथा या यात्रा का ज़िक्र आ सकता है। पुरातन समय में हाइबन एक सफरनामे या डायरी के रूप में लिखी जाता था। यात्रा करने के बाद बौद्ध भिक्षु पूरी दिनचर्या को वार्ता के रूप में लिख लेता था और अंत में एक हाइकु भी''
चढ़ती लाली
पत्ती -पत्ती बिखरा
सुर्ख गुलाब।
(यह हाइकु विकलांग बच्चों के माता -पिता के मन की दशा को ब्यान करता है। इन बच्चों की जिंदगी तो अभी शुरू ही हुई है अभी तो दिन चढ़ा ही है। सूर्य की लालिमा ही दिखाई दे रही है…मगर सुर्ख गुलाब …ये बच्चे …पत्ती-पत्ती हो बिखर भी गए। इनको तमाम जिंदगी इनके माता -पिता ही सँभालेंगे। स्कूल ऑफ़ स्पेशल एजुकेशन -"चिल्ड्रन विथ स्पेशल नीड्स "… का अनुभव ब्यान करता )
कुछ और उदाहरण-
बहती हवा
लाई धूनी की गंध
देव द्वार से।
(अभी अभी बाहर टहलने निकली तो वातावरण में धूप अगरबत्ती फूल सबका मिला जुला गंध बहुत ही मोहक लगा.... लेकिन कहीं पास में ना तो कोई माता पंडाल है और ना कोई मन्दिर है)
*
अट्टा जो मिले
ढूँढें झिर्री जीवन
रश्मि हवा भी
(अगर जोड़ते है इसे एक लड़की के अरमानों से...जिसकी गरीब मोहब्बत की झोपड़ी को कुचल कर उसके ऊपर बना दिया गया है... एक महल... उसे थमा दिया गया है सोने का एक महल... जिसमे कैद है वो... अपने अरमानों के साथ... नहीं है एक धड़कता दिल जो बन सके एक झरोखा... उसकी कैद जिन्दगी में... जिससे आ सके थोड़ी सी रोशनी और खुली हवा...चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें है... जिनसे टकराकर दुआएँ भी लौट जाती हैं ... हैं तो बस दीवारें और अँधेरा ... और ढूँढती रहती है वो एक झरोखा... उन दीवारों में)
*
नभ बिछुड़ा
बेसहारों का आस
उडु भू संगी ।
*
कुछ अन्य जापानी काव्य विधाएँ-
हाइकु (३ पंक्तियों में ५-७-५ उच्चार) भूल न जाना / झाड़ियों में खिले ये / बेर के फूल -बाशो
. नश्वर संसार में / छोटी सी चिड़िया भी / बनाती है नीड़ -इस्सा
. मंदिर के घंटे पर चुपचाप सोई है एक तितली -बुसोन
.
आकाश बड़ा
हौसला हारिल का
उससे बड़ा -नलिनिकान्त
. ईंट-रेत का
मंदिर मनहर
देव लापता -संजीव वर्मा 'सलिल' .
जेरीली हवा
हमनेज करीदी
अबे भुगतां -मालवी हाइकु, ललिता रावल
*
ताँका (५ पंक्तियों में ५-७-५-७-७ उच्चार)
जापानी काव्य विधा ताँका (短歌) को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान प्रसिद्धि मिली। इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ।[1] इसकी संरचना ५+७+५+७+७=३१ वर्णों से होती है। एक कवि प्रथम ५+७+५=१७ भाग की रचना करता था तो दूसरा कवि दूसरे भाग ७+७ की पूर्त्ति के साथ शृंखला को पूरी करता था। फिर पूर्ववर्ती ७+७ को आधार बनाकर अगली शृंखला में ५+७+५ यह क्रम चलता; फिर इसके आधार पर अगली शृंखला ७+७ की रचना होती थी। इस काव्य शृंखला को रेंगा कहा जाता था।
इस प्रकार की शृंखला सूत्रबद्धता के कारण यह संख्या १०० तक भी पहुँच जाती थी। ताँका पाँच पंक्तियों और ५+७+५+७+७=३१ वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव है। इसमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इसकी पहली तीन पंक्तियाँ कोई स्वतन्त्र हाइकु है। इसका अर्थ पहली से पाँचवीं पंक्ति तक व्याप्त होता है।
ताँका का शाब्दिक अर्थ है लघुगीत अथवा छोटी कविता। लयविहीन काव्यगुण से शून्य रचना छन्द का शरीर धारण करने मात्र से ताँका नहीं बन सकती। साहित्य का दायित्व बहुत व्यापक है। अत: ताँका को किसी विषय विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता।
रो रही रात
बुला रही चाँद को
तारों को भी
डरती- सिसकती
अमावस्या है आज - डॉ. अनीता कपूर
.
मदन गंध
कहाँ से आ रही है?
तुम आए क्या?
महके हैं
घर-आँगन मेरे -आचार्य भगवत दुबे
.
मन बैरागी
हुआ है आज बागी
तुम्हें देख के
बुनता नए स्वप्न
जीन की आस जागी -मंजूषा 'मन'
*
सेदोका (६ पंक्तियों में ५-७-७, ५-७-७ उच्चार)
जापान में ८वीं सदी में प्रचलित रहा छंद जिसमें प्रेमी या प्रेमिका को सम्बोधित कर ५-७-७, ५-७-७ दो अधूरी काव्य रचनाएँ (प्रश्नोत्तर / संवाद भी) संगुफित होती हैं। इसे कतौता (katauta = kah-tah-au-tah) कहते हैं। इसमें विषयवस्तु, ३८ वर्ण, पंक्ति संख्या या तुक बंधन रूढ़ नहीं होता। सेदोका का वैशिष्ट्य संवेदनशीलता है।
ले जाओ सब
वो जो तुमने दिया
शेष को बचाना है
सँभालने में
आधी चुक गई हूँ
भ्रम को हटाना है -डॉ. अनीता कपूर .
क्या पूछते हो रास्ता जाता कहाँ है? बताऊँ सच सुनो। जाता नहीं है रास्ता कोई कहीं भी हमेशा जाते हमीं। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चोका
चोका उच्चार पर आधारित उच्च स्वर में गाई जाने वाली एक लम्बी कविता (नज़्म) है। चुका में ५ और ७ वर्णों के क्रम में यथा ५+७+५ +७+५+ ....... पंक्तियों को व्यवस्थित करते हैं और अन्त में एक ताँका अर्थात ७ वर्ण की एक और पंक्ति जोड़ देते हैं। इसमें पंक्ति संख्या या विषय बंधन नहीं है।
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे । -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' *
हाइगा (चित्र कविता)
एक छोटा लड़का जिसे हाइगा के लिए मार्गदर्शन दिया जा रहा है।
हाइगा शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है 'हाइ' और 'गा'। हाइ शब्द का अर्थ है हाइकु और 'गा' का तात्पर्य है चित्र। इस प्रकार हाइगा का अर्थ है चित्रों के समायोजन से वर्णित किया गया हाइकु। वास्तव में हाइगा’ जापानी पेण्टिंग की एक शैली है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-’चित्र-कविता’। हाइगा की शुरुआत १७ वीं शताब्दी में जापान में हुई। तब हाइगा रंग-ब्रुश से बनाया जाता था।
*
भारतीय लघु काव्य विधाएँ
ककुप
मिल पौधे लगाइए
वसुंधरा हरी-भरी बनाइये
विनाश को भगाइए
*
माहिया
फागों की तानों से
मन से मन मिलते
मधुरिम मुस्कानों से
*
जनक छंद (३ पंक्तियाँ १३-१३-१३ मात्राएँ)
सबका सबसे हो भला
सभी सदा निर्भय रहें
हो मन का शतदल खिला
.
कहमुकरी
सृष्टि रचे प्रभु खेल कर रहा
नित्य अशुभ-शुभ मेल कर रहा
रसवर्षा ही है अरमान
आसमान है?, नहिं अभियान
***
यह भी खूब रही
सुहागरात में आलू भूनना
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कवि कब क्या कर बैठे, कोई नहीं कह सकता। कवी होता ही है अपने मन का मालिक, धुन का पक्का, प्रचलित नियमें-क़ायदों-मूल्यों को तहस-नहस कर अपनी तरह से जीवन जीनेवाला, सारी वर्जनाओं को ठेंगा दिखानेवाला, 'मेरी मुर्गी की एक टाँग' को माननेवालावाला।
विश्वास न हो तो पढ़िए एक रोचक प्रसंग सोवियत रूस के सुप्रसिद्ध कवि ओसिप मन्देलश्ताम और उसकी पत्नी चित्रकार नाद्या हाज़िना का, कैसे उन दोनों ने मनाई सुहागरात।
मिख़ाइल मठ के बाहर बने बाज़ार से उन्होंने एक-एक पैसे वाली दो नीली अँगूठियाँ ख़रीद लीं, पर वे अँगूठियाँ उन्होंने एक-दूसरे को पहनाई नहीं। मन्देलश्ताम ने वह अँगूठी अपनी जेब में ठूँस ली और नाद्या हाज़िना ने उसे अपने गले में पहनी ज़ंजीर में पिरो लिया।
मन्देलश्ताम ने इस अनोखी शादी के मौक़े पर शरबती आँखों वाली अपनी अति सुन्दर व आकर्षक प्रेमिका को उसी बाज़ार से एक उपहार भी ख़रीदकर भेंट किया। यह उपहार था - लकड़ी की एक हस्तनिर्मित ख़ूबसूरत कँघी, जिस पर लिखा हुआ था - 'ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे।' हनीमून की जगह मन्देलश्ताम नाद्या को द्नेपर नदी में नौका-विहार के लिए ले गए और उसके बाद नदी किनारे बने कुपेचिस्की बाग़ में अलाव जलाकर उसमें आलू भून-भून कर खाते हुए दोनों ने अपने विवाह की सुहागरात मनाई।
***
मुक्तिका
(१४ मात्रिक मानव जातीय छंद, यति ५-९)
मापनी- २१ २, २२ १ २२
*
आँख में बाकी न पानी
बुद्धि है कैसे सयानी?
.
है धरा प्यासी न भूलो
वासना, हावी न मानी
.
कौन है जो छोड़ देगा
स्वार्थ, होगा कौन दानी?
.
हैं निरुत्तर प्रश्न सारे
भूल उत्तर मौन मानी
.
शेष हैं नाते न रिश्ते
हो रही है खींचतानी
.
देवता भूखे रहे सो
पंडितों की मेहमानी
.
मैं रहूँ सच्चा विधाता!
तू बना देना न ज्ञानी
१०.१०.२०१८
***
मुक्तिका
छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष छंद
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
*
मीत था जो गीत सारे ले गया
ख्वाब देखे जो हमारे ले गया
.
दर्द से कोई नहीं नाता रखा
वस्ल के पैगाम प्यारे ले गया
.
हारने की दे दुहाई हाय रे!
जीत के औज़ान न्यारे ले गया
.
ताड़ मौका वार पीछे से किया
फोड़ आँखें अश्क खारे ले गया
.
रात में अच्छे दिनों का वासता
वायदों को ही सकारे ले गया
.
बोल तो जादूगरी कैसे करी
पूर्णिमा से ही सितारे ले गया
.
साफ़ की गंगा न थोड़ी भी कहीं
गंदगी जो थी किनारे ले गया
१०.११.२०१८
***
दोहा सलिला
स्वास्थ्य संपदा है सलिल, सचमुच ही अनमोल
वह खाएँ जो पच सके, रखें याद यह बोल
*
अदरक थोड़ी चूसिये, अजवाइन के साथ
हो खराश से मुक्ति तब, कॉफ़ी भी लें साथ
*
मिश्र न हो सुख-दुख अगर, जीवन हो रसहीन.
बने 'सलिल' रसखान यदि, रहे सदा रसलीन.
*
मन प्रशांत हो तो करे, पूर्ण शक्ति से काम.
मन अशांत हो यदि 'सलिल', समझें विधना वाम.
*
सुख पाने के हेतु कर, हर दिन नया उपाय.
मन न पराजित हो 'सलिल', कभी न हो निरुपाय.
*
अदरक थोड़ी चूसिये, अजवाइन के साथ
हो खराश से मुक्ति जब, कॉफ़ी प्याला हाथ
१०.११.२०१७
***
मुक्तक
कविता उबालें, भूनें, तलें तो, धोना न भूलें यही प्रार्थना है
छौंकें-बघारें तो हो आंच मद्दी, जला दिल न लेना यही कामना है
जो चटनी सी पीसो तो मिर्ची भी डालो, मगर हो न ज्यादा खटाई तनिक हो
पुदीना मिला लो, ढेली हो गुड़ की, चटखारे लेना सफल साधना है
***
षट्पदी
संजीवनी मिली कविता से सतत चेतना सक्रिय है
मौन मनीषा मधुर मुखर, है, नहीं वेदना निष्क्रिय है
कभी भावना, कभी कामना, कभी कल्पना साथ रहे
मिली प्रेरणा शब्द साधना का चेतन मन हाथ गहे
व्यक्त तभी अभिव्यक्ति करो जब एकाकार कथ्य से हो
बिम्ब, प्रतीक, अलंकारों से रस बरसा नव बात कहो
१०.११.२०१६
***
दोहा दीप
*
अच्छे दिन के दिए का, ख़त्म हो गया तेल
जुमलेबाजी हो गयी, दो ही दिन में फेल
*
कमल चर गयी गाय को, दुहें नितीश कुमार
लालू-राहुल संग मिल, खीर रहे फटकार
*
बड़बोलों का दिवाला, छुटभैयों को मार
रंग उड़े चेहरे झुके, फीका है त्यौहार
*
मोदी बम है सुरसुरी, नितिश बाण दमदार
अमित शाह चकरी हुए, लालू रहे निहार
*
पूँछ पकड़ कर गैर की, बिसरा मन का बैर
मना रही हैं सोनिया, राहुल की हो खैर
*
शत्रु बनाकर शत्रु को, चारों खाने चित्त
हुए, सुधारो भूल अब. बात बने तब मित्त
*
दूर रही दिल्ली हुआ, अब बिहार भी दूर
हारेंगे बंगाल भी, बने रहे यदि सूर
*
दीवाला तो हो गया, दिवाली से पूर्व
नर से हार नरेंद्र की, सपने चकनाचूर
*
मीसा से विद्रोह तब, अब मीसा से प्यार
गिरगिट सम रंग बदलता, जब-तब अजब बिहार
***
दोहा:
दया उसी पर कीजिए, जो मन से विकलांग
तन तो माटी में मिले, कोई रचा ले स्वांग
*
माटी है तो दीप बन, पी जा सब अँधियार
इंसां है तो ते सीप सम, दे मुक्ता हर बार
*
व्यर्थ पटाखे फोड़कर, क्यों करता है शोर
मौन-शांति की राह चल, ऊगे उज्जवल भोर
***
लघु कथा:
चन्द्र ग्रहण
*
फेसबुक पर रचनाओं की प्रशंसा से अभिभूत उसने प्रशंसिका के मित्रता आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। एक दिन सन्देश मिला कि वह प्रशंसिका उसके शहर में आ रही है और उससे मिलना चाहती है। भेंट के समय आसपास के पर्यटन स्थलों का भ्रमण करने का प्रस्ताव उसने सहज रूप से स्वीकार कर लिया। नौकाविहार आदि के समय कई सेल्फी भी लीं प्रशंसिका ने। लौटकर वह प्रशंसिका को छोड़ने उसके कमरे में गया ही था की कमरे के बाहर भाग-दौड़ की आवाज़ आई और जोर से दरवाजा खटखटाया गया।
दरवाज़ा खोलते ही कुछ लोगों ने उसेउसे घेर लिया। गालियाँ देते हुए, उस पर प्रशंसिका से छेड़छाड़ और जबरदस्ती के आरोप लगाये गए, मोबाइल की सेल्फ़ी और रात के समय कमरे में साथ होना साक्ष्य बनाकर उससे रकम मांगी गयी, उसका कीमती कैमरा और रुपये छीन लिए गए। किंकर्तव्यविमूढ़ उसने इस कूटजाल से टकराने का फैसला किया और बात मानने का अभिनय करते हुए द्वार के समीप आकर झटके से बाहर निकलकर द्वार बंद कर दिया अंदर कैद हो गई प्रशंसिका और उसके साथी।
तत्काल काउंटर से उसने पुलिस और अपने कुछ मित्रों से संपर्क किया। पुलिसिया पूछ-ताछ से पता चला वह प्रशंसिका इसी तरह अपने साथियों के साथ मिलकर भयादोहन करती थी और बदनामी के भय से कोई पुलिस में नहीं जाता था किन्तु इस बार पाँसा उल्टा पड़ा और उस चंद्रमुखी को लग गया चंद्रग्रहण।
***
नवगीत:
बतलाओ तो
*
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
औंधे मुँह गिर पड़े हैं
वाग्मी जुमलेबाज।
तक्षशिला पर हो गया
फिर तिकड़म का राज।
संग सुशासन-घुटाले
करते बंदरबाँट।
मीसा सत्ता की सगी
हक़ छीने किस व्याज?
बिसर गयी सिद्धांत सब
हाय! सियासत आज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
केर-बेर के साथ पर
गर्व करें या लाज?
बेच-खरीद उसूल कह
खुद पर करते नाज।
बड़बोला हर शख्श है
कोई न जिम्मेदार।
दइया रे! हो गया है
आज कोढ़ संग खाज।
रक्षक बने कपोत के
क्रूर-शिकारी बाज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
अफसर हैं प्यारे इन्हें
चाहें करें न काज।
रैंक-पेंशन बन गिरी
अफसरियत पर गाज।
जनगण का शोषण करें
बढ़ा-थोपकर टैक्स।
सब्जी-दाल विलासिता
दूभर हुआ अनाज।
चाह एक न्यूज शीश पर
हो सत्ता का ताज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
१०.११.२०१५
***
नवगीत:
मौन सुनो सब, गूँज रहा है
अपनी ढपली
अपना राग
तोड़े अनुशासन के बंधन
हर कोई मनमर्जी से
कहिए कैसे पार हो सके
तब जग इस खुदगर्जी से
भ्रान्ति क्रांति की
भारी खतरा
करे शांति को नष्ट
कुछ के आदर्शों की खातिर
बहुजन को हो कष्ट
दोष व्यवस्था के सुधारना
खुद को उसमें ढाल
नहीं चुनौती अधिक बड़ी क्या
जिसे रहे हम टाल?
कोयल का कूकना गलत है
कहे जा रहा
हर दिन काग
संसद-सांसद भृष्ट, कुचल दो
मिले न सहमत उसे मसल दो
पिंगल के भी नियम न माने
कविपुंगव की नयी नसल दो
गण, मात्रा,लय,
यति-गति तज दो
शब्दाक्षर खुद
अपने रच लो
कर्ता-क्रिया-कर्म बंधन क्यों?
ढपली ले,
जो चाहो भज लो
आज़ादी है मनमानी की
हो सब देख निहाल
रोक-टोक मत
कजरी तज
सावन में गायें फाग
१०.११.२०१४
***

सोमवार, 28 अप्रैल 2025

अप्रैल २८, पूर्णिका, शारदा, सॉनेट, गीत गोविंद, कोरोना, चोका, दोहा, नवगीत, मुक्तिका

सलिल सृजन अप्रैल २८
*
पूर्णिका 
वंदना 
शारद वंदन
अर्पित चंदन
भव बाधा हर
मेटो क्रंदन
हर पर्वत पर 
हो वन नंदन
मातु! सलिल का
कर दुख भंजन
शब्द ब्रह्म भज
हरषे जन जन
*
पूर्णिका
हुई भोर दिनकर की जय कह
काव्य सरित में खुश रहकर बह
कर न ईर्ष्या-द्वेष किसी से
सुधियों से नित शक्ति नवल गह
संबंधों की तुरप चदरिया
तुरप सरीखे ही उनको तह
जितनी चादर पाई तूने
उतनी में ही तू सीमित रह
अरमानों के आसमान में
भर उड़ान, मत नाकामी सह
निंदक को रख निकट बावले
झूठ प्रशंसा सुनकर मत ढह
मात वही तो दे पाता है
जो आगे बढ़ता है सह शह
जोड़ जरूरत से ज्यादा मत
छूटे सारा ठाठ समझ यह
जैसी करनी वैसी भरनी
'सलिल' दाह दे, फिर खुद भी दह
२८.४.२०२५
०००
सॉनेट
सुधि वातायन
सुधि वातायन से जब हेरूँ,
झलक तुम्हारी पड़े दिखाई,
पलक झपकते मति चकराई,
कहीं न दिखते ज्यों पग फेरूँ।
विरह विकल हो खोजूँ टेरूँ,
सुधि सलिला विहँसी लहराई,
कली मोगरा की मुस्काई,
सिकता पर प्रिय नाम उकेरूँ।
जहँ देखूँ तहँ तुम ही तुम हो,
नयन भीगते अधर लरजते,
वाक् छंद रच पुलकित होती।
कौन कह रहा है तुम गुम हो,
सुमिरन करने से तुम मिलते,
सुधि नव फसलें लुक-छिप बोती।
२८.४.२०२४
•••
विमर्श : भोजन करिये बाँटकर
ऋग्वेद निम्नानुसार बाँटकर भोजन करने को कहता है-
१. जमीन से चार अंगुल भूमि का
२. गेहूँ के बाली के नीचे का पशुओं का
३. पहले पेड़ की पहली बाली अग्नि की
४. बाली से गेहूं अलग करने पर मूठ्ठी भर दाना पंछियो का
५. गेहूं का आटा बनाने पर मुट्ठी भर आटा चीटियो का
६. फिर आटा गूथने के बाद चुटकी भर गुथा आटा मछलियो का
७. फिर उस आटे की पहली रोटी गौमाता की
८. पहली थाली घर के बुज़ुर्ग़ो की और फिर हमारी
९. आखिरी रोटी कुत्ते की
***
दोहा अठपदी :
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजाकर, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत माँ का ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
भारत माँ को सुहाती, लालित्यमय बिंदी
जनगण जिव्हा विराजती, विश्ववाणी हिंदी
२८-४-२०२१
***
विमर्श : 'श्री'
*
'श्री' पूरे ब्रह्मांड की प्राण-शक्ति है। श्री = शोभा, लक्ष्मी और कांति।
श्रीयुत का मतलब प्राणयुक्त है। 'श्री' का शब्द का सबसे पहले उपयोग ऋग्वेद में हुआ है। जो 'श्री' युक्त है उसका निरंतर विकास होगा, वह समृद्ध और सुखी होगा। ईश्वर श्री से ओतप्रोत है। परमात्मा को वेद में अनंत श्री वाला कहा गया है।
मनुष्य अनंत-धर्मा नहीं है, वह असंख्य श्री वाला तो नहीं हो सकता है, लेकिन पुरुषार्थ से ऐश्वर्य हासिल करके वह श्रीमान बन सकता है। जो पुरुषार्थ नहीं करता, वह श्रीमान कहलाने का अधिकारी नहीं है।
वर्तमान में सम्मानित या बड़े के नाम के पूर्व श्री लगाया जाता है। यह शिष्टाचार मात्र है।
स्वर्गीय यानी जो दिवंगत हो गए, जिनकी देह नहीं है, जिनका ईश्वर में लय हो गया हो उन्हें स्वर्गीय या स्मरणीय कह सकते हैं पर उनके नाम के आगे 'श्री' लगाया जाना अनुपयुक्त है। दिवंगत का न तो विकास संभव है न वह समृद्ध या सुखी हो सकता है। इसलिए दिवंगतों के नाम के पूर्व श्री या श्रीमती नहीं लगाना चाहिए।
***
गीत गोविंद : जयदेव
*
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ग्रहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुमं राधमाधवयोर्जयंति यमुनाकूले रह: केलय:।।
*
नील गगन पर श्यामल बादल, वन्य भूमि पर तिमिर घना है।
संध्या समय भीति भव; राधा एकाकी; घर दूर बना है।।
नंद कहें 'घर पहुँचाओ' सुन, राधा-माधव गये कुंज में-
यमुना तट पर केलि करें, जग माया-ब्रह्म सुस्नेह सना है।।
*
वाग्देवताचरितचित्रितचित्तसद्मापद्मावतीचरणचारण चक्रवर्ती।
श्रीवासुदेवरतिकेलिकथासमेतंमेतं करोति जयदेवकवि: प्रबंधम्।।
यदिहरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकांतपदावलीं श्रणु तदा जयदेवसरस्वतीम्।।
*
वाग्देव चित्रित करें चित लगा, कमलावती पद-दास चक्रधारी।
श्री वासुदेव की सुरति केलि कथा, जयदेव कवि प्रबंध रच बखानी।।
यदि मन में हरि सुमिरन की है चाह, यदि कौतूहल जानें कला विलास।
सुनें सुमधुरा कोमलकांत पदावलि, जयदेव सरस्वती संग लिये हुलास।।
*
भावानुवाद : संजीव
***
कोरोना की जयकार करो
*
कोरोना की जयकार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
*
घरवाले हो घर से बाहर
तुम रहे भटकते सदा सखे!
घरवाली का कब्ज़ा घर पर
तुम रहे अटकते सदा सखे!
जीवन में पहली बार मिला
अवसर घर में तुम रह पाओ
घरवाली की तारीफ़ करो
अवसर पाकर सत्कार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
जैसी है अपनी किस्मत है
गुणगान करो यह मान सदा
झगड़े झंझट बहसें छोडो
पाई जो उस पर रहो फ़िदा
हीरोइन से ज्यादा दिलकश
बोलो उसकी हर एक अदा
हँस नखरे नाज़ उठाओ तुक
चरणों कर झुककर शीश धरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
झाड़ू मारो, बर्तन धोलो
फिर चाय-नाश्ता दे बोलो
'भोजन में क्या तैयार करूँ'
जो कहें बना षडरस घोलो
भोग लगाकर ग्रहण करो
परसाद' दया निश्चय होगी
झट दबा कमर पग-सेवा कर
उनके मन की हर पीर हरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
२८-४-२०२०
***
छंद सलिला
जापानी वार्णिक छंद चोका :
*
चोका एक अपेक्षाकृत लम्बा जापानी छंद है।
जापान में पहली से तेरहवीं सदी में महाकाव्य की कथा-कथन की शैली को चोका कहा जाता था।
जापान के सबसे पहले कविता-संकलन 'मान्योशू' में २६२ चोका कविताएँ संकलित हैं, जिनमें सबसे छोटी कविता ९ पंक्तियों की है। चोका कविताओं में ५ और ७ वर्णों की आवृत्ति मिलती है। अन्तिम पंक्तियों में प्रायः ५, ७, ५, ७, ७ वर्ण होते हैं
बुन्देलखण्ड के 'आल्हा' की तरह चोका का गायन या वाचन उच्च स्वर में किया जाता रहा है। यह वर्णन प्रधान छंद है।
जापानी महाकवियों ने चोका का बहुत प्रयोग किया है।
हाइकु की तरह चोका भी वार्णिक छंद है।
चोका में वर्ण (अक्षर) गिने जाते हैं, मात्राएँ नहीं।
आधे वर्ण को नहीं गिना जाता।
चोका में कुल पंक्तियों का योग सदा विषम संख्या में होता है ।
रस लीजिए कुछ चोका कविताओं का-
*
उर्वी का छौना
डॉ. सुधा गुप्ता
*
चाँद सलोना
रुपहला खिलौना
माखन लोना
माँ का बड़ा लाडला
सब का प्यारा
गोरा-गोरा मुखड़ा
बड़ा सजीला
किसी की न माने वो
पूरा हठीला
‘बुरी नज़र दूर’
करने हेतु
ममता से लगाया
काला ‘दिठौना’
माँ सँग खेल रहा
खेल पुराना
पेड़ों छिप जाता
निकल आता
किलकता, हँसता
माँ से करे ‘झा’
रूप देख परियाँ
हुईं दीवानी
आगे-पीछे डोलतीं
करे शैतानी
चाँदनी का दरिया
बहा के लाता
सबको डुबा जाता
गोल-मटोल
उजला, गदबदा
रूप सलोना
नभ का शहज़ादा
वह उर्वी का छौना
***
ये दु:ख की फ़सलें
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
*
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे ।
***
पड़ोसी मोना
मनोज सोनकर
*
आँखें तो बड़ी
रंग बहुत गोरा
विदेशी घड़ी
कुत्ते बहुत पाले
पड़ोसी मोना
खुराक अच्छी डालें
आजादी प्यारी
शादी तो बंधन
कहें कुंवारी
अंग्रेज़ी फ़िल्में लाएं
हिन्दी कचरा
खूब भुनभुनाएं
ब्रिटेन भाए
बातचीत उनकी
घसीट उसे लाए
***
पेड़ निपाती
सरस्वती माथुर
*
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पत्ते फिर फूटेंगे ।
***
विछोह घडी
भावना कुँवर
*
बिछोह -घड़ी
सँजोती जाऊँ आँसू
मन भीतर
भरी मन -गागर।
प्रतीक्षारत
निहारती हूँ पथ
सँभालूँ कैसे
उमड़ता सागर।
मिलन -घड़ी
रोके न रुक पाए
कँपकपाती
सुबकियों की छड़ी।
छलक उठा
छल-छल करके
बिन बोले ही
सदियों से जमा वो
अँखियों का सागर।
-0-
***
मुक्तिका
चाँदनी फसल..'
*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
***
द्विपदी
*
शूल दें साथ सदा फिर भी बदनाम हुए
फूल दें साथ छोड़ फिर भी सुर्खरू क्यों हैं?
*
२८-४-२०१५
***
गीत:
यह कैसा जनतंत्र...
संजीव
*
यह कैसा जनतंत्र कि सहमत होना, हुआ गुनाह ?
आह भरें वे जो न और क़ी सह सकते हैं वाह...
*
सत्ता और विपक्षी दल में नेता हुए विभाजित
एक जयी तो कहे दूसरा, मैं हो गया पराजित
नूरा कुश्ती खेल-खेलकर जनगण-मन को ठगते-
स्वार्थ और सत्ता हित पल मेँ हाथ मिलाये मिलते
मेरी भी जय, तेरी भी जय, करते देश तबाह...
*
अहंकार के गुब्बारे मेँ बैठ गगन मेँ उड़ते
जड़ न जानते, चेतन जड़ के बल जमीन से जुड़ते
खुद को सही, गलत औरों को कहना- पाला शौक
आक्रामक भाषा ज्यों दौड़े सारमेय मिल-भौंक
दूर पंक से निर्मल चादर रखिए सही सलाह...
*
दुर्योधन पर विदुर नियंत्रण कर पायेगा कैसे?
शकुनी बिन सद्भाव मिटाये जी पाएगा कैसे??
धर्मराज की अनदेखी लख, पार्थ-भीम भी मौन
कृष्ण नहीं तो पीर सखा की न्यून करेगा कौन?
टल पाए विनाश, सज्जन ही सदा करें परवाह...
*
वेश भक्त का किंतु कुदृष्टि उमा पर रखे दशानन
दबे अँगूठे के नीचे तब स्तोत्र रचे मनभावन
सच जानें महेश लेकिन वे नहीं छोड़ते लीला
राम मिटाते मार, रहे फिर भी सिय-आँचल गीला
सत को क्यों वनवास? असत वाग्मी क्यों गहे पनाह?...
*
कुसुम न काँटों से उलझे, तब देव-शीश पर चढ़ता
सलिल न पत्थर से लडता तब बनकर पूजता
ढाँक हँसे घन श्याम, किन्तु राकेश न देता ध्यान
घट-बढ़कर भी बाँट चंद्रिका, जग को दे वरदान
जो गहरे वे शांत, मिले कब किसको मन की थाह...
***
दोहा दुनिया
बात से बात
*
बात बात से निकलती, करती अर्थ-अनर्थ
अपनी-अपनी दृष्टि है, क्या सार्थक क्या व्यर्थ?
*
'सर! हद सरहद की कहाँ?, कैसे सकते जान?
सर! गम है किस बात का, सरगम से अनजान
*
'रमा रहा मन रमा में, बिसरे राम-रमेश.
सब चाहें गौरी मिले, हों सँग नहीं महेश.
*
राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
*
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही?, करले इसका लेख..
*
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
*
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
*
'डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज मचाए शोर..'
*
'एक-एक कर बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत.'.
*
'कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछे प्रश्न मन, उत्तर पाया मौन.'.
*
तनखा ही तन खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम.
*
२८-४-२०१४
***
नवगीत: मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, आभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल परस नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
***
नव गीत:
झुलस रहा गाँव..... ...
*
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा माल में नक़ल..
गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..
'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
***
एक चैट चर्चा:
Sanjay bhaskar:
AAP YE DEKHEN CHOTI SI RACHNAAA:
'जारी है अभी सिलसिला सरहदों पर.'
मैं:
'हद सर करती है हमें, हद को कैसे सर करें,
कोई यह बतलाये?' 'रमे रमा में सब मिले,
राम न चाहे कोई.
'सलिल' राम की चाह में
काम बिसर गयो मोई'.
Sanjay: 'ARE WAAAAHHHHH'
मैं:
राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
***
कार्यशाला - काव्य प्रश्नोत्तर
संजय:
'आप तो गुरु हो.'
मैं:
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख
चाह कहाँ कितनी रही, करले इसका लेख..'
Sanjay:
'बढ़िया'
मैं:
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल।
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
Sanjay:
'क्या बात है लाजवाब।'
मैं:
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब।
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.एक दोहा
*
जय हो सदा नरेन्द्र की, हो भयभीत सुरेन्द्र.
साधन बिन कर साधना, भू पर आ देवेंद्र
*
तनखा तन को खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम..
***
कुण्डलिनी :
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजा दे, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत मान ता ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
२८-४-२०१०
***

शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

हाइबन, हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका, हाइगा, ककुप, माहिया, जनक छंद, कहमुकरी, मुक्तिका, दोहा, गीत, लघुकथा


***
हाइबन
*
'विश्वैक नीड़म्' (संसार एक घोंसला है), 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (पृथ्वी एक कुटुंब है) आदि अभिव्यक्तियाँ भारतीय मनीषा की उदात्तता की परिचायक हैं। विश्ववाणी हिंदी इसी पृष्ठभूमि में विश्व की हर भाषा-बोली के शब्दों और साहित्य को गले लगाती है। हिंदी साहित्य लेखन को मुख्यत: गद्य-पद्य दो वर्गों में रखे जाने के साथ ही दोनों मिलाकर अथवा दोनों विधाओं के गुण-धर्म युक्त साहित्य रचा जाता रहा है। 'गद्य ग़ीत', 'अगीत' आदि ऐसी ही काव्य-विधाएँ हैं। गद्य गीत वह गद्य है जिसमें आंशिक गीतात्मकता हो। अगीत ऐसे गीत हैं जिनमें गीत के बंधन शिथिल कर आंशिक गद्यात्मकता को आत्मसात किया गया हो। इन दोनों विधाओं की रचनाएँ कथ्यानुसार आकार ग्रहण करती हैं। हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका, स्नैर्यू आदि काव्य विधाएँ हिंदी में ग्रहण की जा चुकी हैं। जापानी काव्य विधा 'हाईकु' के रचना विधान (तीन पंक्तियों में ५-७-५ उच्चार) में पद्य-गद्य का मिश्रित रूप है 'हाइबन'।
डॉ. हरदीप कौर संधू के अनुसार- ''हाइबन' जापानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है 'काव्य-गद्य'। हाइबन गद्य तथा काव्य का संयोजन है। १७ वीं शताब्दी के कवि बाशो ने इस विधा का आरंभ १६९० में आपने एक दोस्त को खत में सफरनामा /डायरी के रूप में 'भूतों वाली झोंपड़ी' लिखकर किया। इस खत के अंत में एक हाइकु लिखा गया था। हाइबन की भाषा सरल, मनोरंजक तथा बिंबात्मक होती है। इस में आत्मकथा, लेख , लघुकथा या यात्रा का ज़िक्र आ सकता है। पुरातन समय में हाइबन एक सफरनामे या डायरी के रूप में लिखी जाता था। यात्रा करने के बाद बौद्ध भिक्षु पूरी दिनचर्या को वार्ता के रूप में लिख लेता था और अंत में एक हाइकु भी''
चढ़ती लाली
पत्ती -पत्ती बिखरा
सुर्ख गुलाब।
(यह हाइकु विकलांग बच्चों के माता -पिता के मन की दशा को ब्यान करता है। इन बच्चों की जिंदगी तो अभी शुरू ही हुई है अभी तो दिन चढ़ा ही है। सूर्य की लालिमा ही दिखाई दे रही है…मगर सुर्ख गुलाब …ये बच्चे …पत्ती-पत्ती हो बिखर भी गए। इनको तमाम जिंदगी इनके माता -पिता ही सँभालेंगे। स्कूल ऑफ़ स्पेशल एजुकेशन -"चिल्ड्रन विथ स्पेशल नीड्स "… का अनुभव ब्यान करता )
कुछ और उदाहरण-
बहती हवा
लाई धूनी की गंध
देव द्वार से।
(अभी अभी बाहर टहलने निकली तो वातावरण में धूप अगरबत्ती फूल सबका मिला जुला गंध बहुत ही मोहक लगा.... लेकिन कहीं पास में ना तो कोई माता पंडाल है और ना कोई मन्दिर है)
*
अट्टा जो मिले
ढूँढें झिर्री जीवन
रश्मि हवा भी
(अगर जोड़ते है इसे एक लड़की के अरमानों से...जिसकी गरीब मोहब्बत की झोपड़ी को कुचल कर उसके ऊपर बना दिया गया है... एक महल... उसे थमा दिया गया है सोने का एक महल... जिसमे कैद है वो... अपने अरमानों के साथ... नहीं है एक धड़कता दिल जो बन सके एक झरोखा... उसकी कैद जिन्दगी में... जिससे आ सके थोड़ी सी रोशनी और खुली हवा...चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें है... जिनसे टकराकर दुआएँ भी लौट जाती हैं ... हैं तो बस दीवारें और अँधेरा ... और ढूँढती रहती है वो एक झरोखा... उन दीवारों में)
*
नभ बिछुड़ा
बेसहारों का आस
उडु भू संगी ।
*
कुछ अन्य जापानी काव्य विधाएँ-
हाइकु (३ पंक्तियों में ५-७-५ उच्चार) भूल न जाना / झाड़ियों में खिले ये / बेर के फूल -बाशो
. नश्वर संसार में / छोटी सी चिड़िया भी / बनाती है नीड़ -इस्सा
. मंदिर के घंटे पर चुपचाप सोई है एक तितली -बुसोन
.
आकाश बड़ा
हौसला हारिल का
उससे बड़ा -नलिनिकान्त
. ईंट-रेत का
मंदिर मनहर
देव लापता -संजीव वर्मा 'सलिल' .
जेरीली हवा
हमनेज करीदी
अबे भुगतां -मालवी हाइकु, ललिता रावल
*
ताँका (५ पंक्तियों में ५-७-५-७-७ उच्चार)
जापानी काव्य विधा ताँका (短歌) को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान प्रसिद्धि मिली। इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ।[1] इसकी संरचना ५+७+५+७+७=३१ वर्णों से होती है। एक कवि प्रथम ५+७+५=१७ भाग की रचना करता था तो दूसरा कवि दूसरे भाग ७+७ की पूर्त्ति के साथ शृंखला को पूरी करता था। फिर पूर्ववर्ती ७+७ को आधार बनाकर अगली शृंखला में ५+७+५ यह क्रम चलता; फिर इसके आधार पर अगली शृंखला ७+७ की रचना होती थी। इस काव्य शृंखला को रेंगा कहा जाता था।
इस प्रकार की शृंखला सूत्रबद्धता के कारण यह संख्या १०० तक भी पहुँच जाती थी। ताँका पाँच पंक्तियों और ५+७+५+७+७=३१ वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव है। इसमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इसकी पहली तीन पंक्तियाँ कोई स्वतन्त्र हाइकु है। इसका अर्थ पहली से पाँचवीं पंक्ति तक व्याप्त होता है।
ताँका का शाब्दिक अर्थ है लघुगीत अथवा छोटी कविता। लयविहीन काव्यगुण से शून्य रचना छन्द का शरीर धारण करने मात्र से ताँका नहीं बन सकती। साहित्य का दायित्व बहुत व्यापक है। अत: ताँका को किसी विषय विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता।
रो रही रात
बुला रही चाँद को
तारों को भी
डरती- सिसकती
अमावस्या है आज - डॉ. अनीता कपूर
.
मदन गंध
कहाँ से आ रही है?
तुम आए क्या?
महके हैं
घर-आँगन मेरे -आचार्य भगवत दुबे
.
मन बैरागी
हुआ है आज बागी
तुम्हें देख के
बुनता नए स्वप्न
जीन की आस जागी -मंजूषा 'मन'
*
सेदोका (६ पंक्तियों में ५-७-७, ५-७-७ उच्चार)
जापान में ८वीं सदी में प्रचलित रहा छंद जिसमें प्रेमी या प्रेमिका को सम्बोधित कर ५-७-७, ५-७-७ दो अधूरी काव्य रचनाएँ (प्रश्नोत्तर / संवाद भी) संगुफित होती हैं। इसे कतौता (katauta = kah-tah-au-tah) कहते हैं। इसमें विषयवस्तु, ३८ वर्ण, पंक्ति संख्या या तुक बंधन रूढ़ नहीं होता। सेदोका का वैशिष्ट्य संवेदनशीलता है।
ले जाओ सब
वो जो तुमने दिया
शेष को बचाना है
सँभालने में
आधी चुक गई हूँ
भ्रम को हटाना है -डॉ. अनीता कपूर .
क्या पूछते हो रास्ता जाता कहाँ है? बताऊँ सच सुनो। जाता नहीं है रास्ता कोई कहीं भी हमेशा जाते हमीं। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चोका
चोका उच्चार पर आधारित उच्च स्वर में गाई जाने वाली एक लम्बी कविता (नज़्म) है। चुका में ५ और ७ वर्णों के क्रम में यथा ५+७+५ +७+५+ ....... पंक्तियों को व्यवस्थित करते हैं और अन्त में एक ताँका अर्थात ७ वर्ण की एक और पंक्ति जोड़ देते हैं। इसमें पंक्ति संख्या या विषय बंधन नहीं है।
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे । -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' *
हाइगा (चित्र कविता)
एक छोटा लड़का जिसे हाइगा के लिए मार्गदर्शन दिया जा रहा है।
हाइगा शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है 'हाइ' और 'गा'। हाइ शब्द का अर्थ है हाइकु और 'गा' का तात्पर्य है चित्र। इस प्रकार हाइगा का अर्थ है चित्रों के समायोजन से वर्णित किया गया हाइकु। वास्तव में हाइगा’ जापानी पेण्टिंग की एक शैली है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-’चित्र-कविता’। हाइगा की शुरुआत १७ वीं शताब्दी में जापान में हुई। तब हाइगा रंग-ब्रुश से बनाया जाता था।
*
भारतीय लघु काव्य विधाएँ
ककुप
मिल पौधे लगाइए
वसुंधरा हरी-भरी बनाइये
विनाश को भगाइए
*
माहिया
फागों की तानों से
मन से मन मिलते
मधुरिम मुस्कानों से
*
जनक छंद (३ पंक्तियाँ १३-१३-१३ मात्राएँ)
सबका सबसे हो भला
सभी सदा निर्भय रहें
हो मन का शतदल खिला
.
कहमुकरी
सृष्टि रचे प्रभु खेल कर रहा
नित्य अशुभ-शुभ मेल कर रहा
रसवर्षा ही है अरमान
आसमान है?, नहिं अभियान
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यह भी खूब रही
सुहागरात में आलू भूनना
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कवि कब क्या कर बैठे, कोई नहीं कह सकता। कवी होता ही है अपने मन का मालिक, धुन का पक्का, प्रचलित नियमें-क़ायदों-मूल्यों को तहस-नहस कर अपनी तरह से जीवन जीनेवाला, सारी वर्जनाओं को ठेंगा दिखानेवाला, 'मेरी मुर्गी की एक टाँग' को माननेवालावाला।
विश्वास न हो तो पढ़िए एक रोचक प्रसंग सोवियत रूस के सुप्रसिद्ध कवि ओसिप मन्देलश्ताम और उसकी पत्नी चित्रकार नाद्‍या हाज़िना का, कैसे उन दोनों ने मनाई सुहागरात।
मिख़ाइल मठ के बाहर बने बाज़ार से उन्होंने एक-एक पैसे वाली दो नीली अँगूठियाँ ख़रीद लीं, पर वे अँगूठियाँ उन्होंने एक-दूसरे को पहनाई नहीं। मन्देलश्ताम ने वह अँगूठी अपनी जेब में ठूँस ली और नाद्या हाज़िना ने उसे अपने गले में पहनी ज़ंजीर में पिरो लिया।
मन्देलश्ताम ने इस अनोखी शादी के मौक़े पर शरबती आँखों वाली अपनी अति सुन्दर व आकर्षक प्रेमिका को उसी बाज़ार से एक उपहार भी ख़रीदकर भेंट किया। यह उपहार था - लकड़ी की एक हस्तनिर्मित ख़ूबसूरत कँघी, जिस पर लिखा हुआ था - 'ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे।' हनीमून की जगह मन्देलश्ताम नाद्या को द्‍नेपर नदी में नौका-विहार के लिए ले गए और उसके बाद नदी किनारे बने कुपेचिस्की बाग़ में अलाव जलाकर उसमें आलू भून-भून कर खाते हुए दोनों ने अपने विवाह की सुहागरात मनाई।
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मुक्तिका
(१४ मात्रिक मानव जातीय छंद, यति ५-९)
मापनी- २१ २, २२ १ २२
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आँख में बाकी न पानी
बुद्धि है कैसे सयानी?
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है धरा प्यासी न भूलो
वासना, हावी न मानी
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कौन है जो छोड़ देगा
स्वार्थ, होगा कौन दानी?
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हैं निरुत्तर प्रश्न सारे
भूल उत्तर मौन मानी
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शेष हैं नाते न रिश्ते
हो रही है खींचतानी
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देवता भूखे रहे सो
पंडितों की मेहमानी
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मैं रहूँ सच्चा विधाता!
तू बना देना न ज्ञानी
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संजीव, १०.१०.२०१८
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मुक्तिका
छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष छंद
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
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मीत था जो गीत सारे ले गया
ख्वाब देखे जो हमारे ले गया
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दर्द से कोई नहीं नाता रखा
वस्ल के पैगाम प्यारे ले गया
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हारने की दे दुहाई हाय रे!
जीत के औज़ान न्यारे ले गया
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ताड़ मौका वार पीछे से किया
फोड़ आँखें अश्क खारे ले गया
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रात में अच्छे दिनों का वासता
वायदों को ही सकारे ले गया
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बोल तो जादूगरी कैसे करी
पूर्णिमा से ही सितारे ले गया
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साफ़ की गंगा न थोड़ी भी कहीं
गंदगी जो थी किनारे ले गया
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संजीव, १०.११.२०१८
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दोहा सलिला
स्वास्थ्य संपदा है सलिल, सचमुच ही अनमोल
वह खाएँ जो पच सके, रखें याद यह बोल
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अदरक थोड़ी चूसिये, अजवाइन के साथ
हो खराश से मुक्ति तब, कॉफ़ी भी लें साथ
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मिश्र न हो सुख-दुख अगर, जीवन हो रसहीन.
बने 'सलिल' रसखान यदि, रहे सदा रसलीन.
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मन प्रशांत हो तो करे, पूर्ण शक्ति से काम.
मन अशांत हो यदि 'सलिल', समझें विधना वाम.
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सुख पाने के हेतु कर, हर दिन नया उपाय.
मन न पराजित हो 'सलिल', कभी न हो निरुपाय.
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अदरक थोड़ी चूसिये, अजवाइन के साथ
हो खराश से मुक्ति जब, कॉफ़ी प्याला हाथ
१०.११.२०१७
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मुक्तक
कविता उबालें, भूनें, तलें तो, धोना न भूलें यही प्रार्थना है
छौंकें-बघारें तो हो आंच मद्दी, जला दिल न लेना यही कामना है
जो चटनी सी पीसो तो मिर्ची भी डालो, मगर हो न ज्यादा खटाई तनिक हो
पुदीना मिला लो, ढेली हो गुड़ की, चटखारे लेना सफल साधना है
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षट्पदी
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संजीवनी मिली कविता से सतत चेतना सक्रिय है
मौन मनीषा मधुर मुखर, है, नहीं वेदना निष्क्रिय है
कभी भावना, कभी कामना, कभी कल्पना साथ रहे
मिली प्रेरणा शब्द साधना का चेतन मन हाथ गहे
व्यक्त तभी अभिव्यक्ति करो जब एकाकार कथ्य से हो
बिम्ब, प्रतीक, अलंकारों से रस बरसा नव बात कहो
१०.११.२०१६
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दोहा दीप
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अच्छे दिन के दिए का, ख़त्म हो गया तेल
जुमलेबाजी हो गयी, दो ही दिन में फेल
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कमल चर गयी गाय को, दुहें नितीश कुमार
लालू-राहुल संग मिल, खीर रहे फटकार
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बड़बोलों का दिवाला, छुटभैयों को मार
रंग उड़े चेहरे झुके, फीका है त्यौहार
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मोदी बम है सुरसुरी, नितिश बाण दमदार
अमित शाह चकरी हुए, लालू रहे निहार
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पूँछ पकड़ कर गैर की, बिसरा मन का बैर
मना रही हैं सोनिया, राहुल की हो खैर
*
शत्रु बनाकर शत्रु को, चारों खाने चित्त
हुए, सुधारो भूल अब. बात बने तब मित्त
*
दूर रही दिल्ली हुआ, अब बिहार भी दूर
हारेंगे बंगाल भी, बने रहे यदि सूर
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दीवाला तो हो गया, दिवाली से पूर्व
नर से हार नरेंद्र की, सपने चकनाचूर
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मीसा से विद्रोह तब, अब मीसा से प्यार
गिरगिट सम रंग बदलता, जब-तब अजब बिहार
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दोहा:
दया उसी पर कीजिए, जो मन से विकलांग
तन तो माटी में मिले, कोई रचा ले स्वांग
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माटी है तो दीप बन, पी जा सब अँधियार
इंसां है तो ते सीप सम, दे मुक्ता हर बार
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व्यर्थ पटाखे फोड़कर, क्यों करता है शोर
मौन-शांति की राह चल, ऊगे उज्जवल भोर
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लघु कथा:
चन्द्र ग्रहण
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फेसबुक पर रचनाओं की प्रशंसा से अभिभूत उसने प्रशंसिका के मित्रता आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। एक दिन सन्देश मिला कि वह प्रशंसिका उसके शहर में आ रही है और उससे मिलना चाहती है। भेंट के समय आसपास के पर्यटन स्थलों का भ्रमण करने का प्रस्ताव उसने सहज रूप से स्वीकार कर लिया। नौकाविहार आदि के समय कई सेल्फी भी लीं प्रशंसिका ने। लौटकर वह प्रशंसिका को छोड़ने उसके कमरे में गया ही था की कमरे के बाहर भाग-दौड़ की आवाज़ आई और जोर से दरवाजा खटखटाया गया।
दरवाज़ा खोलते ही कुछ लोगों ने उसेउसे घेर लिया। गालियाँ देते हुए, उस पर प्रशंसिका से छेड़छाड़ और जबरदस्ती के आरोप लगाये गए, मोबाइल की सेल्फ़ी और रात के समय कमरे में साथ होना साक्ष्य बनाकर उससे रकम मांगी गयी, उसका कीमती कैमरा और रुपये छीन लिए गए। किंकर्तव्यविमूढ़ उसने इस कूटजाल से टकराने का फैसला किया और बात मानने का अभिनय करते हुए द्वार के समीप आकर झटके से बाहर निकलकर द्वार बंद कर दिया अंदर कैद हो गई प्रशंसिका और उसके साथी।
तत्काल काउंटर से उसने पुलिस और अपने कुछ मित्रों से संपर्क किया। पुलिसिया पूछ-ताछ से पता चला वह प्रशंसिका इसी तरह अपने साथियों के साथ मिलकर भयादोहन करती थी और बदनामी के भय से कोई पुलिस में नहीं जाता था किन्तु इस बार पाँसा उल्टा पड़ा और उस चंद्रमुखी को लग गया चंद्रग्रहण।
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नवगीत:
बतलाओ तो
*
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
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औंधे मुँह गिर पड़े हैं
वाग्मी जुमलेबाज।
तक्षशिला पर हो गया
फिर तिकड़म का राज।
संग सुशासन-घुटाले
करते बंदरबाँट।
मीसा सत्ता की सगी
हक़ छीने किस व्याज?
बिसर गयी सिद्धांत सब
हाय! सियासत आज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
केर-बेर के साथ पर
गर्व करें या लाज?
बेच-खरीद उसूल कह
खुद पर करते नाज।
बड़बोला हर शख्श है
कोई न जिम्मेदार।
दइया रे! हो गया है
आज कोढ़ संग खाज।
रक्षक बने कपोत के
क्रूर-शिकारी बाज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
अफसर हैं प्यारे इन्हें
चाहें करें न काज।
रैंक-पेंशन बन गिरी
अफसरियत पर गाज।
जनगण का शोषण करें
बढ़ा-थोपकर टैक्स।
सब्जी-दाल विलासिता
दूभर हुआ अनाज।
चाह एक न्यूज शीश पर
हो सत्ता का ताज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
१०.११.२०१५

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नवगीत:

मौन सुनो सब, गूँज रहा है
अपनी ढपली
अपना राग
तोड़े अनुशासन के बंधन
हर कोई मनमर्जी से
कहिए कैसे पार हो सके
तब जग इस खुदगर्जी से
भ्रान्ति क्रांति की
भारी खतरा
करे शांति को नष्ट
कुछ के आदर्शों की खातिर
बहुजन को हो कष्ट
दोष व्यवस्था के सुधारना
खुद को उसमें ढाल
नहीं चुनौती अधिक बड़ी क्या
जिसे रहे हम टाल?
कोयल का कूकना गलत है
कहे जा रहा
हर दिन काग
संसद-सांसद भृष्ट, कुचल दो
मिले न सहमत उसे मसल दो
पिंगल के भी नियम न माने
कविपुंगव की नयी नसल दो
गण, मात्रा,लय,
यति-गति तज दो
शब्दाक्षर खुद
अपने रच लो
कर्ता-क्रिया-कर्म बंधन क्यों?
ढपली ले,
जो चाहो भज लो
आज़ादी है मनमानी की
हो सब देख निहाल
रोक-टोक मत
कजरी तज
सावन में गायें फाग
१०.११.२०१४
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