विरासत
देवराज दिनेश
*
आह्वान
ध्यान से सुनें राष्ट्र-संतान, राष्ट्र का मंगलमय आह्वान.
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र पर घिरी आपदा डेक,सजग हों युग के भामाशाह
दान में दे अपना सर्वस्व और पूरी कर मन की चाह
राष्ट्र के रक्षा के हित आज,खोल दो अपना कोष कुबेर
नहीं तो पछताओगे मीत,हो गई अगर तनिक भी देर
समझकर हमें निहत्था,प्रबल शत्रु ने हम पर किया प्रहार
किन्तु अपना तो यह आदर्श,किसी का रखते नहीं उधार
हमें भी ब्याज सहित प्रतिउत्तर उनको देना है तत्काल
शीघ्र अपनानी होगी शिव को रिपु के नरमुंडों की माल
राष्ट्र को आज चाहिए वीर, वीर भी हठी हमीर समान .
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र के कण-कण में आज उठ रही गर्वीली आवाज़
वक्ष पर झेल प्रबल तूफान शत्रु पर हमें गिरानी गाज
देश की सीमाओं पर पागल कौवे मचा रहे हैं शोर
अभी देगा उनको झकझोर,बली गोविन्द सिंह का बाज
किया था हमने जिससे नेह,दिया था जिसको अपना प्यार
बना वह आस्तीन का सांप,हमीं पर आज कर रहा वार
समझ हमको उन्मत्त मयूर,मगन-मन देख नृत्य में लीन
किया आघात,न उसको ज्ञात,सांप है मोरों का आहार
राष्ट्र चाहेगा जैसा,वैसा हीं अब हम देंगे बलिदान .
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र को चाहिए देवी कैकेयी का अदम्य उत्साह
धूरी टूटे रण की,दे बाँह, पराजय को दे जय की राह
राष्ट्र को आज चाहिए गीता के नायक का वह उद्घोष
मोह ताज हर अर्जुन के मानस-पट पर लहराए आक्रोश
आधुनिक इन्द्र कर रहा आज राष्ट्र हित इंद्रधनुष निर्माण
यही है धर्म बनें हम इंद्रधनुष की प्रत्यंचा के बाण
इन्द्र-धनु रूपी प्रबल एकता की सतरंगी छवि को देख
शत्रु के माथे पर भी आज खिंच रही है चिंता की रेख
राष्ट्र को आज चाहिए एकलव्य से साधक निष्ठावान.
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र को आज चाहिए चंद्रगुप्त की प्रबल संगठन-शक्ति
राष्ट्र को आज चाहिए अपने प्रति राणाप्रताप की शक्ति
राष्ट्र को आज चाहिए रक्त, शत्रु का हो या अपना रक्त
राष्ट्र को आज चाहिएभक्त, भक्त भी भगतसिंह के भक्त
राष्ट्र को आज चाहिए फिर बादल जैसे बालक रणधीर
राष्ट्र की सुख-समृद्धि ले आयें,तोड़ रिपु कारा की प्राचीर
और बूढ़े सेनानी गोरा की वह गर्व भरी हुंकार
शत्रु के छूट जाये प्राण, अगर दे मस्ती से ललकार
राष्ट्र को आज चाहिए फिर अपना अल्हड़ टीपू सुल्तान
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
आज अनजाने में ही प्रबल शत्रु ने करके वज्र प्रहार
हमारे जनमानस की चेतना के खोल दिये हैं द्वार
राष्ट्र-हित इससे पहले कभी न जागी थी ऐसी अनुरक्ति
संगठित होकर रिपु से आज बात कर रही हमारी शक्ति
प्रतापी शक्तिसिंह भी देश-द्रोह का जामा आज उतार
राष्ट्र की तूफानी लहरों में करता है गति का संचार
आज फिर नूतन हिंदुस्तान लिख रहा है अपना इतिहास.
राष्ट्र के पन्ने-पन्ने पर अंकित अपना अदम्य विश्वास .
-----------------------------
मत कहना
मैं तेरे पिंजरे का तोता
तू मेरे पिंजरे की मैना
यह बात किसी से मत कहना।
*
मैं तेरी आंखों में बंदी
तू मेरी आंखों में प्रतिक्षण
मैं चलता तेरी सांस–सांस
तू मेरे मानस की धड़कन
मैं तेरे तन का रत्नहार
तू मेरे जीवन का गहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
हम युगल पखेरू हंस लेंगे
कुछ रो लेंगे कुछ गा लेंगे
हम बिना बात रूठेंगे भी
फिर हंस कर तभी मना लेंगे
अंतर में उगते भावों के
जलजात किसी से मत कहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
क्या कहा! कि मैं तो कह दूंगी!
कह देगी तो पछताएगी
पगली इस सारी दुनियां में
बिन बात सताई जाएगी
पीकर प्रिये अपने नयनों की बरसात
विहंसती ही रहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
हम युगों युगों के दो साथी
अब अलग अलग होने आए
कहना होगा तुम हो पत्थर
पर मेरे लोचन भर आए
पगली इस जग के अतल–सिंधु मे
अलग अलग हमको बहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 16 अगस्त 2021
विरासत देवराज दिनेश
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विरासत
बुधवार, 28 अप्रैल 2021
विरासत : अमीर खुसरो
विरासत : अमीर खुसरो
ग़ज़ल : फ़ारसी + हिंदुस्तानी
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, दुराये नैना बनाये बतियां ।
किताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान, न लेहो काहे लगाये छतियां ।।
शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ।।
यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियां ।।
चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान हमेशा गिरयान, बे इश्क़ आं मेह ।
न नींद नैना, ना अंग चैना ना आप आवें, न भेजें पतियां ।।
बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर कि दाद मारा, फरेब खुसरौ ।
सपेत मन के, दराये राखूं जो जाये पांव, पिया के खटियां ।
(स्रोत : ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल -अमीर ख़ुसरो)
*
अर्थ :
मुझ गरीब की बदहाली को नज़रंदाज़ न करो - नयना चुरा के और बातें बना के अब जुदा रहने की सहन शक्ति नहीं है ( नदारम ) मेरी जान , मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते हो?
जुदाई की रातें लम्बी जुल्फों की तरह लम्बी हैं और मिलन का दिन उम्र की तरह छोटी सखी , प्रियतम को न देखूं तो कैसे अँधेरी रातें काटूं (मेरी जिंदगी उसी से रोशन है)
यकायक , दो जादू भरी आँखें सैकड़ों ( ब सद ) तिलिस्म ( फरेबम ) करके दिल से (अज ) सुख चैन ( तस्कीं ) ले उड़ीं ( बाबुर्द ) किसे इस बात की फ़िक्र पड़ी है कि प्यारे पिया को हमारी ये बातें ( चैन उड़ा लेने वाली ) जा के सुनाए ( ताकि उन्हें पता तो चले )
जैसे शमा जलती है जैसे हर ज़र्रा विस्मित है वैसे ही मैं भी इस चाँद (मह ) का सूरज (मेहर) आखिर बन ही गया (बगश्तम) अर्थात जैसे शमा जलती है हर जर्रा विस्मित व बेचैन है वैसी ही खुद को जला देने वाली अत्यंत तेज़ आग मुझे भी आखिर ( प्यार की ) लग ही गयी न आँखों में नींद है न अंगों को चैन , न आप आते हैं न ही आप के पत्र आते हैं
उसे ही हक है कि मिलन ( विसाल ) का दिन तय करे या फरेब करे , तब तक तक मन के भेद अन्दर ही रखूँ ( दो तरफ़ा -प्यार का या नहीं ) जब तक की दिलबर का पता नहीं मिल जाता ( खतियाँ ) .
नुसरत फ़तेह अली खान ने गाया है :
सपीत मन के, दराये राखूं, जो जाये पांव, पिया के खतियां
मन के सफ़ेद मोती , बचा के रखूं ,जब तक कि दिलबर का पता नहीं मिल जाता ( खतियाँ ) .
गुलज़ार ने चलचित्र गुलामी में लिखा है -
जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश , बेहाल-ए -हिजरा बेचारा दिल है सुनाई देती है जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है
जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश = गरीब की बदहाली पर रंजिश न करो
*
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अमीर खुसरो,
विरासत
शनिवार, 17 अप्रैल 2021
विरासत : गोपाल प्रसाद व्यास
विरासत :
कोरोना काल में आराम करने के फायदे जानिए हास्यावतार गोपाल प्रसाद व्यास से
* जन्म १३ फ़रवरी १९१५
* निधन २८ मई २००५
*जन्म स्थान महमदपुर, जिला मथुरा, उ. प्र ।
विविध शलाका सम्मान से सम्मानित।
कविता
* आराम करो , आराम करो *
एक मित्र बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
कोरोना काल में आराम करने के फायदे जानिए हास्यावतार गोपाल प्रसाद व्यास से
* जन्म १३ फ़रवरी १९१५
* निधन २८ मई २००५
*जन्म स्थान महमदपुर, जिला मथुरा, उ. प्र ।
विविध शलाका सम्मान से सम्मानित।
कविता
* आराम करो , आराम करो *
एक मित्र बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
*
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है
आराम सुधा की एक बूँद, तन का दुबलापन खोती है
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है
आराम सुधा की एक बूँद, तन का दुबलापन खोती है
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
*
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में
जीवन-जागृति में क्या रक्खा, जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ
दीप जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ
मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
*
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में
जीवन-जागृति में क्या रक्खा, जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ
दीप जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ
मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
*
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आराम करो,
गोपाल प्रसाद व्यास,
विरासत
शनिवार, 5 दिसंबर 2020
विरासत : विष्णु शर्मा कृत पंचतंत्र से कहानी 'एक और एक ग्यारह'
विरासत :
विष्णु शर्मा कृत पंचतंत्र से कहानी 'एक और एक ग्यारह'
*
एक बार की बात हैं कि बनगिरी के घने जंगल में एक उन्मुत्त हाथी ने भारी उत्पात मचा रखा था। वह अपनी ताकत के नशे में चूर होने के कारण किसी को कुछ नहीं समझता था। बनगिरी में ही एक पेड़ पर एक चिड़िया व चिड़े का छोटा-सा सुखी संसार था। चिड़िया अंडों पर बैठी नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चों के निकलने के सुनहरे सपने देखती रहती। एक दिन क्रूर हाथी गरजता, चिंघाडता पेड़ों को तोड़ता-मरोड़ता उसी ओर आया। देखते ही देखते उसने चिड़िया के घोंसले वाला पेड़ भी तोड डाला। घोंसला नीचे आ गिरा। अंडे टूट गए और ऊपर से हाथी का पैर उस पर पड़ा।
चिड़िया और चिड़ा चीखने चिल्लाने के सिवा और कुछ न कर सके। हाथी के जाने के बाद चिड़िया छाती पीट-पीटकर रोने लगी। तभी वहां कठफोडवी आई। वह चिड़िया की अच्छी मित्र थी। कठफोडवी ने उनके रोने का कारण पूछा तो चिड़िया ने अपनी सारी कहानी कह डाली। कठफोडवी बोली 'इस प्रकार ग़म में डूबे रहने से कुछ नहीं होगा। उस हाथी को सबक सिखाने के लिए हमे कुछ करना होगा।'
चिड़िया ने निराशा दिखाई 'हम छोटे-मोटे जीव उस बलशाली हाथी से कैसे टक्कर ले सकते हैं?'
कठफोडवी ने समझाया 'एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। हम अपनी शक्तियां जोडेंगे।'
'कैसे?' चिड़िया ने पूछा।
'मेरा एक मित्र वींआख नामक भंवरा हैं। हमें उससे सलाह लेनी चाहिए।' चिड़िया और कठफोडवी भंवरे से मिली। भंवरा गुनगुनाया 'यह तो बहुत बुरा हुआ। मेरा एक मेंढक मित्र हैं आओ, उससे सहायता मांगे।'
अब तीनों उस सरोवर के किनारे पहुंचे, जहां वह मेंढक रहता था। भंवरे ने सारी समस्या बताई। मेंढक भर्राये स्वर में बोला 'आप लोग धैर्य से जरा यहीं मेरी प्रतीक्षा करें। मैं गहरे पाने में बैठकर सोचता हूं।'
ऐसा कहकर मेंढक जल में कूद गया। आधे घंटे बाद वह पानी से बाहर आया तो उसकी आंखे चमक रही थी। वह बोला 'दोस्तो! उस हत्यारे हाथी को नष्ट करने की मेरे दिमाग में एक बडी अच्छी योजना आई हैं। उसमें सभी का योगदान होगा।'
मेंढक ने जैसे ही अपनी योजना बताई, सब खुशी से उछल पड़े। योजना सचमुच ही अदभुत थी। मेंढक ने दोबारा बारी-बारी सबको अपना-अपना रोल समझाया।
कुछ ही दूर वह उन्मत्त हाथी तोड़फोड़ मचाकर व पेट भरकर कोंपलों वाली शाखाएं खाकर मस्ती में खडा झूम रहा था। पहला काम भंवरे का था। वह हाथी के कानों के पास जाकर मधुर राग गुंजाने लगा। राग सुनकर हाथी मस्त होकर आंखें बंद करके झूमने लगा।
तभी कठफोडवी ने अपना काम कर दिखाया। वह आई और अपनी सुई जैसी नुकीली चोंच से उसने तेजी से हाथी की दोनों आंखें बींध डाली। हाथी की आंखे फूट गईं। वह तडपता हुआ अंधा होकर इधर-उधर भागने लगा।
जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, हाथी का क्रोध बढता जा रहा था। आंखों से नजर न आने के कारण ठोकरों और टक्करों से शरीर जख्मी होता जा रहा था। जख्म उसे और चिल्लाने पर मजबूर कर रहे थे।
चिड़िया कॄतज्ञ स्वर में मेंढक से बोली 'बहिया, मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूंगी। तुमने मेरी इतनी सहायता कर दी।'
मेंढक ने कहा 'आभार मानने की ज़रुरत नहीं। मित्र ही मित्रों के काम आते हैं।'
एक तो आंखों में जलन और ऊपर से चिल्लाते-चिंघाड़ते हाथी का गला सूख गया। उसे तेज प्यास लगने लगी। अब उसे एक ही चीज़ की तलाश थी, पानी। मेंढक ने अपने बहुत से बंधु-बांधवों को इकट्ठा किया और उन्हें ले जाकर दूर बहुत बडे गड्ढे के किनारे बैठकर टर्राने के लिए कहा। सारे मेंढक टर्राने लगे। मेंढक की टर्राहट सुनकर हाथी के कान खडे हो गए। वह यह जानता था कि मेंढक जल स्त्रोत के निकट ही वास करते हैं। वह उसी दिशा में चल पड़ा। टर्राहट और तेज होती जा रही थी। प्यासा हाथी और तेज भागने लगा।
जैसे ही हाथी गड्ढे के निकट पहुंचा, मेंढकों ने पूरा ज़ोर लगाकर टर्राना शुरू किया। हाथी आगे बढा और विशाल पत्थर की तरह गड्ढे में गिर पडा, जहां उसके प्राण पखेरु उडते देर न लगे इस प्रकार उस अहंकार में डूबे हाथी का अंत हुआ।
सीख -- 1. एकता में बल हैं। 2. अहंकारी का देर या सबेर अंत होता ही हैं।
चिप्पियाँ Labels:
एक और एक ग्यारह,
कहानी,
पंचतंत्र,
विरासत,
विष्णु शर्मा
विरासत : कहानी ग्यारह वर्ष का समय रामचंद्र शुक्ल
विरासत : कहानी
ग्यारह वर्ष का समय
रामचंद्र शुक्ल
*
दिन-भर बैठे-बैठे मेरे सिर में पीड़ा उत्पन्न हुई : मैं अपने स्थान से उठा और अपने एक नए एकांतवासी मित्र के यहाँ मैंने जाना विचारा। जाकर मैंने देखा तो वे ध्यान-मग्न सिर नीचा किए हुए कुछ सोच रहे थे। मुझे देखकर कुछ आश्चर्य नहीं हुआ; क्योंकि यह कोई नई बात नहीं थी। उन्हें थोड़े ही दिन पूरब से इस देश मे आए हुआ है। नगर में उनसे मेरे सिवा और किसी से विशेष जान-पहिचान नहीं है; और न वह विशेषत: किसी से मिलते-जुलते ही हैं। केवल मुझसे मेरे भाग्य से, वे मित्र-भाव रखते हैं। उदास तो वे हर समय रहा करते हैं। कई बेर उनसे मैंने इस उदासीनता का कारण पूछा भी; किंतु मैंने देखा कि उसके प्रकट करने में उन्हें एक प्रकार का दु:ख-सा होता है; इसी कारण मैं विशेष पूछताछ नहीं करता।
मैंने पास जाकर कहा, "मित्र! आज तुम बहुत उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर तक घूम आवें। चित्त बहल जाएगा।"
वे तुरंत खड़े हो गए और कहा, "चलो मित्र, मेरा भी यही जी चाहता है मैं तो तुम्हारे यहाँ जानेवाला था।"
हम दोनों उठे और नगर से पूर्व की ओर का मार्ग लिया। बाग के दोनों ओर की कृषि-सम्पन्न भूमि की शोभा का अनुभव करते और हरियाली के विस्तृत राज्य का अवलोकन करते हम लोग चले। दिन का अधिकांश अभी शेष था, इससे चित्त को स्थिरता थी। पावस की जरावस्था थी, इससे ऊपर से भी किसी प्रकार के अत्याचार की संभावना न थी। प्रस्तुत ऋतु की प्रशंसा भी हम दोनों बीच-बीच में करते जाते थे।
अहा! ऋतुओं में उदारता का अभिमान यही कर सकता है। दीन कृषकों को अन्नदान और सूर्यातप-तप्त पृथिवी को वस्त्रदान देकर यश का भागी यही होता है। इसे तो कवियों की ‘कौंसिल’ से ‘रायबहादुर’ की उपाधि मिलनी चाहिए। यद्यपि पावस की युवावस्था का समय नहीं है; किंतु उसके यश की ध्वजा फहरा रही है। स्थान-स्थान पर प्रसन्न-सलिल-पूर्ण ताल यद्यपि उसकी पूर्व उदारता का परिचय दे रहे हैं।
एतादृश भावों की उलझन में पड़कर हम लोगों का ध्यान मार्ग की शुद्धता की ओर न रहा। हम लोग नगर से बहुत दूर निकल गए। देखा तो शनै:-शनै: भूमि में परिवर्तन लक्षित होने लगा; अरुणता-मिश्रित पहाड़ी, रेतीली भूमि, जंगली बेर-मकोय की छोटी-छोटी कण्टकमय झाड़ियाँ दृष्टि के अंतर्गत होने लगीं। अब हम लोगों को जान पड़ा कि हम दक्षिण की ओर झुके जा रहे हैं। संध्या भी हो चली। दिवाकर की डूबती हुई किरणों की अरुण आभा झाड़ियों पर पड़ने लगी। इधर प्राची की ओर दृष्टि गयी; देखा तो चंद्रदेव पहिले ही से सिंहासनारूढ़ होकर एक पहाड़ी के पीछे से झाँक रहे थे।
अब हम लोग नहीं कह सकते कि किस स्थान पर हैं। एक पगडण्डी के आश्रय अब तक हम लोग चल रहे थे, जिस पर उगी हुई घास इस बात की शपथ खा के साक्षी दे रही थी कि वर्षों से मनुष्यों के चरण इस ओर नहीं पड़े हैं। कुछ दूर चलकर यह मार्ग भी तृण-सागर में लुप्त हो गया। ‘इस समय क्या कर्तव्य है?’ चित्त इसी के उत्तर की प्रतीक्षा में लगा। अंत में यह विचार स्थिर हुआ कि किसी खुले स्थान से चारों ओर देखकर यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है कि हम लोग अमुक स्थान पर हैं।
दैवात् सम्मुख ही ऊँची पहाड़ी देख पड़ी, उसी को इस कार्य के उपयुक्त स्थान हम लोगों ने विचारा। ज्यों-त्यों करके पहाड़ी के शिखर तक हम लोग गए। ऊपर आते ही भगवती जन्हू-नन्दिनी के दर्शन हुए। नेत्र तो सफल हुए। इतने में चारुहासिनी चंद्रिका भी अट्टहास करके खिल पड़ी। उत्तर-पूर्व की ओर दृष्टि गई। विचित्र दृश्य सम्मुख उपस्थित हुआ। जाह्नवी के तट से कुछ अंतर पर नीचे मैदान में, बहुत दूर, गिरे हुए मकानों के ढेर स्वच्छ चंद्रिका में स्पष्ट रूप से दिखाई दिए।
मैं सहसा चौंक पड़ा और ये शब्द मेरे मुख से निकल पड़े, "क्या यह वही खँडहर है जिसके विषय में यहाँ अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं?" चारों ओर दृष्टि उठाकर देखने से पूर्ण रूप से निश्चय हो गया कि हो न हो, यह वही स्थान है जिसके संबंध में मैंने बहुत कुछ सुना है। मेरे मित्र मेरी ओर ताकने लगे। मैंने संक्षेप में उस खँडहर के विषय में जो कुछ सुना था, उनसे कह सुनाया। हम लोगों के चित्त में कौतूहल की उत्पत्ति हुई; उसको निकट से देखने की प्रबल इच्छा ने मार्गज्ञान की व्यग्रता को हृदय से बहिर्गत कर दिया। उत्तर की ओर उतरना बड़ा दुष्कर प्रतीत हुआ, क्योंकि जंगली वृक्षों और कण्टकमय झाड़ियों से पहाड़ी का वह भाग आच्छादित था। पूर्व की ओर से हम लोग सुगमतापूर्वक नीचे उतरे। यहाँ से खँडहर लगभग डेढ़ मील प्रतीत होता था। हम लोगों ने पैरों को उसी ओर मोड़ा; मार्ग में घुटनों तक उगी हुई घास पग-पग पर बाधा उपस्थित करने लगी; किंतु अधिक विलम्ब तक यह कष्ट हम लोगों को भोगना न पड़ा; क्योंकि आगे चलकर फूटे हुए खपड़ैलों की सिटकियाँ मिलने लगीं; इधर-उधर गिरी हुई दीवारें और मिट्टी के ढूह प्रत्यक्ष होने लगे। हम लोगों ने जाना कि अब यहीं से खँडहर का आरंभ है। दीवारों की मिट्टी से स्थान क्रमश: ऊँचा होता जाता था, जिस पर से होकर हम लोग निर्भय जा रहे थे। इस निर्भयता के लिए हम लोग चंद्रमा के प्रकाश के भी अनुगृहीत हैं। सम्मुख ही एक देव मंदिर पर दृष्टि जा पड़ी, जिसका कुछ भाग तो नष्ट हो गया था, किंतु शेष प्रस्तर-विनिर्मित होने के कारण अब तक क्रूर काल के आक्रमण को सहन करता आया था। मंदिर का द्वार ज्यों-का-त्यों खड़ा था। किवाड़ सट गए थे। भीतर भगवान् भवानीपति बैठे निर्जन कैलाश का आनंद ले रहे थे, द्वार पर उनका नंदी बैठा था। मैं तो प्रणाम करके वहाँ से हटा, किंतु देखा तो हमारे मित्र बड़े ध्यान से खड़े हो, उस मंदिर की ओर देख रहे हैं और मन-ही-मन कुछ सोच रहे हैं। मैंने मार्ग में भी कई बेर लक्ष्य किया था कि वे कभी-कभी ठिठक जाते और किसी वस्तु को बड़ी स्थिर दृष्टि से देखने लगते। मैं खड़ा हो गया और पुकारकर मैंने कहा, "कहो मित्र! क्या है? क्या देख रहे हो?"
मेरी बोली सुनते ही वे झट मेरे पास दौड़ आए और कहा, "कुछ नहीं, यों ही मंदिर देखने लग गया था।" मैंने फिर तो कुछ न पूछा, किंतु अपने मित्र के मुख की ओर देखता जाता था, जिस पर कि विस्मय-युक्त एक अद्भुत भाव लक्षित होता था। इस समय खँडहर के मध्य भाग में हम लोग खड़े थे। मेरा हृदय इस स्थान को इस अवस्था में देख विदीर्ण होने लगा। प्रत्येक वस्तु से उदासी बरस रही थी; इस संसार की अनित्यता की सूचना मिल रही थी। इस करुणोत्पादक दृश्य का प्रभाव मेरे हृदय पर किस सीमा तक हुआ, शब्दों द्वारा अनुभव करना असम्भव है।
कहीं सड़े हुए किवाड़ भूमि पर पड़े प्रचण्ड काल को साष्टांग दण्डवत् कर रहे हैं, जिन घरों में किसी अपरिचित की परछाईं पड़ने से कुल की मर्यादा भंग होती थी, वे भीतर से बाहर तक खुले पड़े हैं। रंग-बिरंगी चूड़ियों के टुकड़े इधर-उधर पड़े काल की महिमा गा रहे हैं। मैंने इनमें से एक को हाथ में उठाया, उठाते ही यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि "वे कोमल हाथ कहाँ हैं जो इन्हें धारण करते थे?"
हा! यही स्थान किसी समय नर-नारियों के आमोद-प्रमोद से पूर्ण रहा होगा और बालकों के कल्लोल की ध्वनि चारों ओर से आती रही होगी, वही आज कराल काल के कठोर दाँतों के तले पिसकर चकनाचूर हो गया है! तृणों से आच्छादित गिरी हुई दीवारें, मिट्टी और ईंटों के ढूह, टूटे-फूटे चौकठे और किवाड़ इधर-उधर पड़े एक स्वर से मानो पुकार के कह रहे थे - ‘दिनन को फेर होत, मेरु होत माटी को,’ प्रत्येक पार्श्व से मानो यही ध्वनि आ रही थी। मेरे हृदय में करुणा का एक समुद्र उमड़ा जिसमें मेरे विचार सब मग्न होने लगे।
मैं एक स्वच्छ शिला पर, जिसका कुछ भाग तो पृथ्वीतल में धँसा था, और शेषांश बाहर था, बैठ गया। मेरे मित्र भी आकर मेरे पास बैठे। मैं तो बैठे-बैठे काल-चक्र की गति पर विचार करने लगा; मेरे मित्र भी किसी विचार ही में डूबे थे; किंतु मैं नहीं कह सकता कि वह क्या था। यह सुंदर स्थान इस शोचनीय और पतित दशा को क्योंकर प्राप्त हुआ, मेरे चित्त में तो यही प्रश्न बार-बार उठने लगा; किंतु उसका संतोषदायक उत्तर प्रदान करने वाला वहाँ कौन था? अनुमान ने यथासाध्य प्रयत्न किया, परंतु कुछ फल न हुआ। माथा घूमने लगा। न जाने कितने और किस-किस प्रकार के विचार मेरे मस्तिष्क से होकर दौड़ गए।
हम लोग अधिक विलम्ब तक इस अवस्था में न रहने पाए। यह क्या? मधुसूदन! यह कौन-सा दृश्य है? जो कुछ देखा, उससे अवाक् रह गया! कुछ दूर पर एक श्वेत वस्तु इसी खँडहर की ओर आती देख पड़ी! मुझे रोमांच हो आया; शरीर काँपने लगा। मैंने अपने मित्र को उस ओर आकर्षित किया और उँगली उठा के दिखाया। परंतु कहीं कुछ न देख पड़ा; मैं स्थापित मूर्ति की भाँति बैठा रहा। पुन: वही दृश्य! अबकी बार ज्योत्स्नालोक में स्पष्ट रूप से हम लोगों ने देखा कि एक श्वेत परिच्छद धारिणी स्त्री एक जल-पात्र लिए खँडहर के एक पार्श्व से होकर दूसरी ओर वेग से निकल गई और उन्हीं खँडहरों के बीच फिर न जाने कहाँ अंतर्धान हो गई। इस अदृष्टपूर्व व्यापार को देख मेरे मस्तिष्क में पसीना आ गया और कई प्रकार के भ्रम उत्पन्न होने लगे। विधाता! तेरी सृष्टि में न-जाने कितनी अद्भुत–अद्भुत वस्तु मनुष्य की सूक्ष्म विचार-दृष्टि से वंचित पड़ी हैं। यद्यपि मैंने इस स्थान विशेष के संबंध में अनेक भयानक वार्ताएँ सुन रखी थीं, किंतु मेरे हृदय पर भय का विशेष संचार न हुआ। हम लोगों को प्रेतों पर भी इतना दृढ़ विश्वास न था; नहीं तो हम दोनों का एक क्षण भी उस स्थान पर ठहरना दुष्कर हो जाता। रात्रि भी अधिक व्यतीत होती जाती थी। हम दोनों को अब यह चिंता हुई कि यह स्त्री कौन है? इसका उचित परिशोध अवश्य लगाना चाहिए।
हम दोनों अपने स्थान से उठे और जिस ओर वह स्त्री जाती हुई देख पड़ी थी उसी ओर चले। अपने चारों ओर प्रत्येक स्थान को भली प्रकार देखते, हम लोग गिरे हुए मकानों के भीतर जा-जा के श्रृगालों के स्वच्छंद विहार में बाधा डालने लगे। अभी तक तो कुछ ज्ञात न हुआ। यह बात तो हम लोगों के मन में निश्चय हो गई थी कि हो न हो, वह स्त्री खँडहर के किसी गुप्त भाग में गई है। गिरी हुई दीवारों की मिट्टी और ईंटों के ढेर से इस समय हम लोग परिवृत्त थे। बाह्य जगत् की कोई वस्तु दृष्टि के अंतर्गत न थी। हम लोगों को जान पड़ता था कि किसी दूसरे संसार में खड़े हैं। वास्तव में खँडहर के एक भयानक भाग में इस समय हम लोग खड़े थे। सामने एक बड़ी ईंटों की दीवार देख पड़ी जो औरों की अपेक्षा अच्छी दशा में थी। इसमें एक खुला हुआ द्वार था। इसी द्वार से हम दोनों ने इसमें प्रवेश किया। भीतर एक विस्तृत आँगन था जिसमें बेर और बबूल के पेड़ स्वच्छन्दतापूर्वक खड़े उस स्थान को मनुष्य-जाति-संबंध से मुक्त सूचित करते थे। इसमें पैर धरते ही मेरे मित्र की दशा कुछ और हो गई और वे चट बोल उठे, "मित्र ! मुझे ऐसा जान पड़ता है कि जैसे मैंने इस स्थान को और कभी देखा हो, यही नहीं कह सकता, कब। प्रत्येक वस्तु यहाँ की पूर्व परिचित-सी जान पड़ती है।" मैं अपने मित्र की ओर ताकने लगा। उन्होंने आगे कुछ न कहा। मेरा चित्त इस स्थान के अनुसंधान करने को मुझे बाध्य करने लगा। इधर-उधर देखा तो एक ओर मिट्टी पड़ते-पड़ते दीवार की ऊँचाई के अर्धभाग तक वह पहुँच गई थी। इस पर से होकर हम दोनों दीवार पर चढ़ गए। दीवार के नीचे दूसरे किनारे में चतुर्दिक वेष्टित एक कोठरी दिखाई दी; मैं इसमें उतरने का यत्न करने लगा। बड़ी सावधानी से एक उभड़ी हुई ईंट पर पैर रखकर हम दोनों नीचे उतर गये। यह कोठरी ऊपर से बिलकुल खुली थी, इसलिए चंद्रमा का प्रकाश इसमें बेरोक-टोक आ रहा था। कोठरी के दाहिनी ओर एक द्वार दिखाई दिया, जिसमें एक जीर्ण किवाड़ लगा हुआ था, हम लोगों ने निकट जाकर किवाड़ को पीछे की ओर धीरे से धकेला तो जान पड़ा कि वे भीतर से बंद हैं।
मेरे तो पैर काँपने लगे। पुन: साहस को धारण कर हम लोगों ने किवाड़ के छोटे-छोटे रन्ध्रों से झाँका तो एक प्रशस्त कोठरी देख पड़ी। एक कोने में मंद-मंद एक प्रदीप जल रहा था जिसका प्रकाश द्वार तक न पहुँचता था। यदि प्रदीप उसमें न होता तो अंधकार के अतिरिक्त हम लोग और कुछ न देख पाते।
हम लोग कुछ काल तक स्थिर दृष्टि से उसी ओर देखते रहे। इतने में एक स्त्री की आकृति देख पड़ी जो हाथ में कई छोटे पात्र लिए उस कोठरी के प्रकाशित भाग में आयी। अब तो किसी प्रकार का संदेह न रहा। एक बेर इच्छा हुई कि किवाड़ खटखटाएँ, किंतु कई बातों का विचार करके हम लोग ठहर गये। जिस प्रकार से हम लोग कोठरी में आए थे, धीरे-धीरे उसी प्रकार नि:शब्द दीवार से होकर फिर आँगन में आए। मेरे मित्र ने कहा, "इसका शोध अवश्य लगाओ कि यह स्त्री कौन है?" अंत में हम दोनों आड़ में, इस आशा से कि कदाचित् वह फिर बाहर निकले, बैठे रहे। पौन घण्टे के लगभग हम लोग इसी प्रकार बैठे रहे। इतने में वही श्वेतवसनधारिणी स्त्री आँगन में सहसा आकर खड़ी हो गई, हम लोगों को यह देखने का समय न मिला कि वह किस ओर से आयी।
उसका अपूर्व सौंदर्य देखकर हम लोग स्तम्भित व चकित रह गए। चंद्रिका में उसके सर्वांग की सुदंरता स्पष्ट जान पड़ती थी। गौर वर्ण, शरीर किंचित क्षीण और आभूषणों से सर्वथा रहित; मुख उसका, यद्यपि उस पर उदासीनता और शोक का स्थायी निवास लक्षित होता था, एक अलौकिक प्रशांत कांति से देदीप्यमान हो रहा था। सौम्यता उसके अंग-अंग से प्रदर्शित होती थी। वह साक्षात देवी जान पड़ती थी।
कुछ काल तक किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर स्तब्ध लोचनों से उसी ओर हम लोग देखते रहे; अंत में हमने अपने को सँभाला और इसी अवसर को अपने कार्योपयुक्त् विचारा। हम लोग अपने स्थान पर से उठे और तुरंत उस देवीरूपिणी के सम्मुख हुए। वह देखते ही वेग से पीछे हटी। मेरे मित्र ने गिड़गिड़ा के कहा, "देवि ! ढिठाई क्षमा करो। मेरे भ्रमों का निवारण करो।" वह स्त्री क्षण भर तक चुप रही, फिर स्निग्ध और गंभीर स्वर से बोली, "तुम कौन हो और क्यों मुझे व्यर्थ कष्ट देते हो?" इसका उत्तर ही क्या था? मेरे मित्र ने फिर विनीत भाव से कहा, "देवि! मुझे बड़ा कौतूहल है – दया करके यहाँ का सब रहस्य कहो।
इस पर उसने उदास स्वर से कहा, "तुम हमारा परिचय लेके क्या करोगे? इतना जान लो कि मेरे समान अभागिनी इस समय इस पृथ्वी मण्डल में कोई नहीं है।"
मेरे मित्र से न रहा गया; हाथ जोड़कर उन्होंने फिर निवेदन किया, "देवि ! अपने वृत्तान्त से मुझे परिचित करो। इसी हेतु हम लोगों ने इतना साहस किया है। मैं भी तुम्हारे ही समान दुखिया हूँ। मेरा इस संसार में कोई नहीं है।" मैं अपने मित्र का यह भाव देखकर चकित रह गया।
स्त्री ने करुण-स्वर से कहा, "तुम मेरे नेत्रों के सम्मुख भूला-भुलाया मेरा दु:ख फिर उपस्थित करने का आग्रह कर रहे हो। अच्छा बैठो।"
मेरे मित्र निकट के एक पत्थर पर बैठ गये। मैं भी उन्हीं के पास जा बैठा। कुछ काल तक सब लोग चुप रहे, अंत में वह स्त्री बोली -
"इसके प्रथम कि मैं अपने वृत्तान्त से तुम्हें परिचित करूँ, तुम्हें शपथपूर्वक यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि तुम्हारे सिवा यह रहस्य संसार में और किसी के कानों तक न पहुँचे। नहीं तो इस स्थान पर रहना दुष्कर हो जाएगा और आत्महत्या ही मेरे लिए एकमात्र उपाय शेष रह जाएगा।"
हमलोगों के नेत्र गीले हो आये। मेरे मित्र ने कहा, "देवि ! मुझसे तुम किसी प्रकार का भय न करो; ईश्वर मेरा साक्षी है।"
स्त्री ने तब इस प्रकार कहना आरम्भ किया –
"यह खँडहर जो तुम देखते हो, आज से 11 वर्ष पूर्व एक सुंदर ग्राम था। अधिकांश ब्राह्मण-क्षत्रियों की इसमें बस्ती थी। यह घर जिसमें हम लोग बैठे हैं चंद्रशेखर मिश्र नामी एक प्रतिष्ठित और कुलीन ब्राह्मण का निवास-स्थान था। घर में उनकी स्त्री और एक पुत्र था, इस पुत्र के सिवा उन्हें और कोई संतान न थी। आज ग्यारह वर्ष हुए कि मेरा विवाह इसी चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र के साथ हुआ था।"
इतना सुनते ही मेरे मित्र सहसा चौंक पड़े, "हे परमेश्वर! यह सब स्वप्न है या प्रत्यक्ष?" ये शब्द उनके मुख से निकले ही थे कि उनकी दशा विचित्र हो गयी। उन्होंने अपने को बहुत सँभाला – और फिर सँभलकर बैठे, वह स्त्री उनका यह भाव देखकर विस्मित हुई और उसने पूछा, "क्यों, क्या है?"
मेरे मित्र ने विनीत भाव से उत्तर दिया, "कुछ नहीं, यों ही मुझे एक बात का स्मरण आया। कृपा करके आगे कहो।"
स्त्री ने फिर कहना आरम्भ किया - "मेरे पिता का घर काशी में ... मुहल्ले में था। विवाह के एक वर्ष पश्चात् ही इस ग्राम में एक भयानक दुर्घटना उपस्थित हुई, यहीं से मेरे दुर्दमनीय दु:ख का जन्म हुआ। संध्या को सब ग्रामीण अपने-अपने कार्य से निश्चिन्त होकर अपने-अपने घरों को लौटे। बालकों का कोलाहल बंद हुआ। निद्रादेवी ने ग्रामीणों के चिंता-शून्य हृदयों में अपना डेरा जमाया। आधी रात से अधिक बीत चुकी थी; कुत्ते भी थोड़ी देर तक भूँककर अंत में चुप हो रहे थे। प्रकृति निस्तब्ध हुई; सहसा ग्राम में कोलाहल मचा और धमाके के कई शब्द हुए। लोग आँखें मींचते उठे। चारपाई के नीचे पैर देते हैं तो घुटने भर पानी में खड़े!! कोलाहल सुनकर बच्चे भी जागे। एक-दूसरे का नाम ले-लेकर लोग चिल्लाने लगे। अपने-अपने घरों में से लोग बाहर निकलकर खड़े हुए। भगवती जाह्नवी को द्वार पर बहते हुए पाया!! भयानक विपत्ति! कोई उपाय नहीं। जल का वेग क्रमश: अधिक बढ़ने लगा। पैर कठिनता से ठहरते थे। फिर दृष्टि उठाकर देखा, जल ही जल दिखाई दिया। एक-एक करके सब सामग्रियाँ बहने लगीं। संयोगवश एक नाव कुछ दूर पर आती देख पड़ी। आशा! आशा!! आशा !!!
"नौका आयी, लोग टूट पड़े और बलपूर्वक चढ़ने का यत्न करने लगे। मल्लाहों ने भारी विपत्ति सम्मुख देखी। नाव पर अधिक बोझ होने के भय से उन्होंने तुरंत अपनी नाव बढ़ा दी। बहुत-से लोग रह गए। नौका पवनगति से गमन करने लगी। नौका दूसरे किनारे पर लगी। लोग उतरे। चंद्रशेखर मिश्र भी नाव पर से उतरे और अपने पुत्र का नाम लेके पुकारा। कोई उत्तर न मिला। उन्होंने अपने साथ ही उसे नाव पर चढ़ाया था, किंतु भीड़-भाड़ नाव पर अधिक होने के कारण वह उनसे पृथक हो गया था; मिश्रजी बहुत घबराए और तुरंत नाव लेकर लौटे। देखा, बहुत-से लोग रह गए थे; उनसे पूछ-ताछ किया। किसी ने कुछ पता न दिया। निराशा भयंकर रूप धारण करके उनके सामने उपस्थित हुई।"
"संध्या का समय था; मेरे पिता दरवाजे पर बैठे थे। सहसा मिश्र जी घबराए हुए आते देख पड़े। उन्होंने आकर आद्योपरान्त पूर्वोल्लिखित घटना कह सुनाई, और तुरंत उन्मत्त की भाँति वहाँ से चल दिए। लोग पुकारते ही रह गए। वे एक क्षण भी वहाँ न ठहरे। तब से फिर कभी वे दिखाई न दिए। ईश्वर जाने वे कहाँ गये! मेरे पिता भी दत्तचित होकर अनुसंधान करने लगे। उन्होंने सुना कि ग्राम के बहुत-से लोग नाव पर चढ़-चढ़कर इधर-उधर भाग गए हैं। इसलिए उन्हें आशा थी। इस प्रकार ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कई मास व्यतीत हो गए। अब तक वे समाचार की प्रतीक्षा में थे और उन्हें आशा थी; किंतु अब उन्हें चिता हुई। चंद्रशेखर मिश्र का भी तब से कहीं कुछ समाचार मिला। जहाँ-जहाँ मिश्र जी का संबंध था, मेरे पिता स्वयं गए; किंतु चारों ओर से निराश लौटे; किसी का कुछ अनुसंधान न लगा। एक वर्ष बीता, दो वर्ष बीते, तीसरा वर्ष आरम्भ हुआ। पिता बहुत इधर-उधर दौड़े, अंत में ईश्वर और भाग्य के ऊपर छोड़कर बैठ रहे। तीसरा वर्ष भी व्यतीत हो गया।
"मेरी अवस्था उस समय 14 वर्ष की हो चुकी थी; अब तक तो मैं निर्बोध बालिका थी। अब क्रमश: मुझे अपनी वास्तविक दशा का ज्ञान होने लगा। मेरा समय भी अहर्निश इसी चिंता में अब व्यतीत होने लगा। शरीर दिन-पर-दिन क्षीण होने लगा। मेरे देवतुल्य पिता ने यह बात जानी। वे सदा मेरे दु:ख भुलाने का यत्न करते रहते थे। अपने पास बैठाकर रामायण आदि की कथा सुनाया करते थे। पिता अब वृद्ध होने लगे; दिवारात्रि की चिंता ने उन्हें और भी वृद्ध बना दिया। घर के समस्त कार्य-संपादन का भार मेरे बड़े भाई के ऊपर पड़ा। उनकी स्त्री का स्वभाव बड़ा क्रूर था। कुछ दिन तक तो किसी प्रकार चला। अंत में वह मुझसे डाह करने लगी और कष्ट देना प्रारम्भ किया, मैं चुपचाप सब सहन करती थी। धीरे-धीरे आश्वास-वाक्य के स्थान पर वह तीक्ष्ण वचनों से मेरा चित्त् अधिक दु:खाने लगी। यदि कभी मैं अपने भाई से निवेदन करती तो वे भी कुछ न बोलते; आनाकानी कर जाते और मेरे पिता की, वृद्धावस्था के कारण, कुछ नहीं चल सकती थी। मेरे दु:ख को समझने वाला वहाँ कोई नहीं देख पड़ता था। मेरी माता का पहिले ही परलोकवास हो चुका था। मुझे अपनी दशा पर बड़ा दु:ख हुआ। हा! मेरा स्वामी यदि इस समय होता तो क्या मेरी यही दशा होती? पिता के घर क्या इन्हीं वचनों द्वारा मेरा सत्कार किया जाता। यही सब विचार करके मेरा हृदय फटने लगता था। अब क्रमश: मेरा हृदय मेघाच्छन्न होने लगा। मुझे संसार शून्य दिखाई देने लगा। एकांत में बैठकर मैं अपनी अवस्था पर अश्रुवर्षण करती। उसमें भी यह भय लगा रहता कि कहीं भौजाई न पहुँच जाए। एक दिन उसने मुझे इसी अवस्था में पाया तो तुरंत व्यंग्य-वचनों द्वारा आश्वासन देने लगी। मेरा शोकार्त्त हृदय अग्निशिखा की भाँति प्रज्वलित हो उठा; किंतु मौनावलम्बन के सिवा अन्य उपाय ही क्या था? दिन-दिन मुझे यह दु:ख असह्य होने लगा। एक रात्रि को मैं उठी। किसी से कुछ न कहा और सूर्योदय के प्रथम ही अपने पिता का गृह मैंने परित्याग किया।
"मैं अब यह नहीं कह सकती कि उस समय मेरा क्या विचार था। मुझे एक बेर अपने पति के स्थान को देखने की लालसा हुई। दु:ख और शोक से मेरी दशा उन्मत्त की-सी हो गई थी। संसार में मैंने दृष्टि उठा के देखा तो मुझे और कुछ न दिखलाई दिया। केवल चारों ओर दु:ख! सैकड़ों कठिनाइयाँ झेलकर अंत में मैं इस स्थान तक आ पहुँची। उस समय मेरी अवस्था केवल 16 वर्ष की थी। मैंने इस स्थान को उस समय भी प्राय: इसी दशा में पाया था। यहाँ आने पर मुझे कई चिह्न ऐसे मिले, जिनसे मुझे यह निश्चय हो गया कि चंद्रशेखर मिश्र का घर यही है। इस स्थान को देखकर मेरे आर्त्त हृदय पर बड़ा कठोर आधात पहुँचा।"
इतना कहते-कहते हृदय के आवेग ने शब्दों को उसके हृदय ही में बंदी कर रखा; बाहर प्रकट होने न दिया। क्षणिक पर्यंत वह चुप रही; सिर नीचा किए भूमि की ओर देखती रही। इधर मेरे मित्र की दशा कुछ और ही हो रही थी; लिखित चित्र की भाँति बैठे वे एकटक ताक रहे थे; इंद्रियाँ अपना कार्य उस समय भूल गयी थीं। स्त्री ने फिर कहना आरम्भ किया –
"इस स्थान को देख मेरा चित्त बहुत दग्ध हुआ। हा! यदि ईश्वर चाहता तो किसी दिन मैं इसी गृह की स्वामिनी होती। आज ईश्वर ने मुझको उसे इस अवस्था में दिखलाया। उसके आगे किसका वश है? अनुसंधान करने पर मुझे दो कोठरियाँ मिलीं जो सर्वप्रकार से रक्षित और मनुष्य की दृष्टि से दुर्भेद्य थीं। लगभग चारों ओर मिट्टी पड़ जाने के कारण किसी को उनकी स्थिति का संदेह नहीं हो सकता था। मुझे बहुत-सी सामग्रियाँ भी इनमें प्राप्त हुईं जो मेरी तुच्छ आवश्यकता के अनुसार बहुत थीं। मुझे यह निर्जन स्थान अपने पिता के कष्टागार से प्रियतम प्रतीत हुआ। यहीं मेरे पति के बाल्यावस्था के दिन व्यतीत हुए थे। यही स्थान मुझे प्रिय है। यहीं मैं अपने दु:खमय जीवन का शेष भाग उसी करुणालय जगदीश्वर की, जिसने मुझे इस अवस्था में डाला, आराधना में बिताऊँगी। यही विचार मैंने स्थिर किया। ईश्वर को मैंने धन्यवाद दिया, जिसने ऐसा उपयुक्त स्थान मेरे लिए ढूँढ़कर निकाला। कदाचित् तुम पूछोगे कि इस अभागिनी ने अपने लिए इस प्रकार का जीवन क्यों उपयुक्त विचारा? तो उसका उत्तर है कि यह दुष्ट संसार भाँति-भाँति की वासनाओं से पूर्ण है, जो मनुष्य को उसके सत्य-पथ से विचलित कर देती हैं। दुष्ट और कुमार्गी लोगों के अत्याचार से बचा रहना भी कठिन कार्य है।"
इतना कहके वह स्त्री ठहर गयी। मेरे मित्र की ओर उसने देखा। वे कुछ मिनट तक काष्ठपुत्तलिका की भाँति बैठे रहे। अंत में एक लंबी ठंडी साँस भर के उन्होंने कहा, "ईश्वर ! यह स्वप्न है या प्रत्यक्ष?" स्त्री उनका यह भाव देख-देखकर विस्मित हो रही थी। उसने पूछा, "क्यों ! कैसा चित्त है?" मेरे मित्र ने अपने को सँभाला और उत्तर दिया, "तुम्हारी कथा का प्रभाव मेरे चित्त पर बहुत हुआ है; कृपा करके आगे कहो।"
स्त्री ने कहा, "मुझे अब कुछ कहना शेष नहीं है। आज पाँच वर्ष मुझे इस स्थान पर आए हुए; संसार में किसी मनुष्य को आज तक यह प्रकट नहीं हुआ। यहाँ प्रेतों के भय से कोई पदार्पण नहीं करता; इससे मुझे अपने को गोपन रखने में विशेष कठिनता नहीं पड़ती। संयोगवश रात्रि में किसी की दृष्टि यदि मुझ पर पड़ी भी तो चुड़ैल के भ्रम से मेरे निकट तक आने का किसी को साहस न हुआ। यह आज प्रथम ऐसा संयोग उपस्थित हुआ है; तुम्हारे साहस को मैं सराहती हूँ और प्रार्थना करती हूँ कि तुम अपने शपथ पर दृढ़ रहोगे। संसार में अब मैं प्रकट होना नहीं चाहती; प्रकट होने से मेरी बड़ी दुर्दशा होगी। मैं यहीं अपने पति के स्थान पर अपना जीवन शेष करना चाहती हूँ। इस संसार में अब मैं बहुत दिन न रहूँगी।"
मैंने देखा, मेरे मित्र का चित्त भीतर-ही-भीतर आकुल और संतप्त हो रहा था; हृदय का वेग रोककर उन्होंने प्रश्न किया, "क्यों ! तुम्हें अपने पति का कुछ स्मरण है?"
स्त्री के नेत्रों से अनर्गल वारिधारा प्रवाहित हुई। बड़ी कठिनतापूर्वक उसने उत्तर दिया, "मैं उस समय बालिका थी। विवाह के समय मैंने उन्हें देखा था। वह मूर्ति यद्यपि मेरे हृदय–मंदिर में विद्यमान है; प्रचण्ड काल भी उसको वहाँ से हटाने में असमर्थ है।"
मेरे मित्र ने कहा, "देवि ! तुमने बहुत कुछ रहस्य प्रकट किया; जो कुछ शेष है उसका वर्णन कर अब मैं इस कथा की पूर्ति करता हूँ।"
स्त्री विस्मयोत्फुल्ल लोचनों से मेरे मित्र की ओर निहारने लगी। मैं भी आश्चर्य से उन्हीं की ओर देखने लगा। उन्होंने कहना आरम्भ किया –
"इस आख्यायिका में यही ज्ञात होना शेष है कि चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र की क्या दशा हुई। चंद्रशेखर मिश्र और उनकी पत्नी क्या हुए। सुनो, नाव पर मिश्र जी ने अपने पुत्र को अपने साथ ही बैठाया। नाव पर भीड़ अधिक हो जाने के कारण वह उनसे पृथक् हो गया। उन्होंने समझा कि वह नाव ही पर है; कोई चिंता नहीं। इधर मनुष्यों की धक्का-मुक्की से वह लड़का नाव पर से नीचे जा रहा। ठीक उसी समय मल्लाह ने नाव खोल दी। उसने कई बेर अपने पिता को पुकारा; किंतु लोगों के कोलाहल में उन्हें कुछ सुनाई न दिया। नाव चली गयी। बालक वहीं खड़ा रह गया और लोग किसी प्रकार अपना-अपना प्राण लेके इधर-उधर भागे। नीचे भयानक जलप्रवाह; ऊपर अनन्त आकाश। लड़के ने एक छप्पर को बहते हुए अपनी ओर आते देखा; तुरंत वह उसी पर बैठ गया। इतने में जल का एक बहुत ऊँचा प्रबल झोंका आया। छप्पर लड़के सहित शीघ्र गति से बहने लगा। वह चुपचाप मूर्तिवत् उसी पर बैठा रहा। उसे यह ध्यान नहीं कि इस प्रकार कै दिन तक वह बहता गया। वह भय और दुविधा से संज्ञाहीन हो गया था। संयोगवश एक व्यापारी की नाव, जिस पर रूई लदी थी, पूरब की ओर जा रही थी। नौका का स्वामी भी बजरे ही पर था। उसकी दृष्टि उस लड़के पर पड़ी। वह उसे नाव पर ले गया। लड़के की अवस्था उस समय मृतप्राय थी। अनेक यत्न के उपरांत वह होश में लाया गया। उस सज्जन ने लड़के की नाव पर बड़ी सेवा की। नौका बराबर चलती रही; बीच में कहीं न रुकी; कई दिनों के उपरांत कलकत्ते पहुँची।
"वह बंगाली सज्जन उस लड़के को अपने घर पर ले गया और उसे उसने अपने परिवार में सम्मिलित किया। बालक ने अपने माता-पिता के देखने की इच्छा प्रकट की। उसने उसे बहुत समझाया और शीघ्र अनुसंधान करने का वचन दिया। लड़का चुप हो रहा।
"इसी प्रकार कई मास व्यतीत हो गए। क्रमश: वह अपने पास के लोगों में हिल-मिल गया। बंगाली महाशय के एक पुत्र था। दोनों में भ्रातृ–स्नेह स्थापित हो गया। वह सज्जन उस लड़के के भावी हित की चेष्टा में तत्पर हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थापित किए हुए एक अँग्रेजी स्कूल में अपने पुत्र के साथ-साथ उसे भी वह शिक्षा देने लगा। क्रमश: उसे अपने घर का ध्यान कम होने लगा। वह दत्तचित्त होकर शिक्षा में अपना सारा समय देने लगा। इसी बीच कई वर्ष व्यतीत हो गए। उसके चित्त में अब अन्य प्रकार के विचारों ने निवास किया। अब पूर्व परिचित लोगों के ध्यान के लिए उसके मन में कम स्थान शेष रहा। मनुष्य का स्वभाव ही इस प्रकार का है। नौ वर्ष का समय निकल गया।
"इसी बीच में एक बड़ी चित्ताकर्षक घटना उपस्थित हुई। बंगदेशी सज्जन के उस पुत्र का विवाह हुआ। चंद्रशेखर का पुत्र भी उस समय वहाँ उपस्थित था। उसने सब देखा; दीर्घकाल की निद्रा भंग हुई। सहसा उसे ध्यान हो आया, ‘मेरा भी विवाह हुआ है; अवश्य हुआ है।’ उसे अपने विवाह का बारम्बार ध्यान आने लगा। अपनी पाणिग्रहीता भार्या का भी उसे स्मरण हुआ। स्वदेश में लौटने को उसका चित्त आकुल होने लगा। रात्रि-दिन इसी चिंता में व्यतीत होने लगे।
हमारे कतिपय पाठक हम पर दोषारोपण करेंगे कि ‘हैं! न कभी साक्षात् हुआ, न वार्तालाप हुआ, न लंबी-लंबी कोर्टशिप हुई; यह प्रेम कैसा?’ महाशय, रुष्ट न हूजिये। इस अदृष्ट प्रेम का धर्म और कर्तव्य से घनिष्ठ संबंध है। इसकी उत्पत्ति केवल सदाशय और नि:स्वार्थ हृदय में ही हो सकती है। इसकी जड़ संसार के और प्रकार के प्रचलित प्रेमों से दृढ़तर और अधिक प्रशस्त है। आपको संतुष्ट करने को मैं इतना और कहे देता हूँ कि इंग्लैंड के भूतपूर्व प्रधानमंत्री लार्ड बेकन्सफील्ड का भी यही मत था।
"युवक का चित्त अधिक डाँवाडोल होने लगा। एक दिन उसने उस देवतुल्य सज्जन पुरुष से अपने चित्त की अवस्था प्रकट की और बहुत विनय के साथ विदा माँगी। आज्ञा पाकर उसने स्वदेश की ओर यात्रा की, देश में आने पर उसे विदित हुआ कि ग्राम में अब कोई नहीं है। उसने लोगों से अपने पिता-माता के विषय में पूछताछ किया। कुछ थोड़े दिन हुए वे दोनों इस नगर में थे; और अब वे तीर्थ-स्थानों में देशाटन कर रहे हैं। वह अपनी धर्मपत्नी के दर्शनों की अभिलाषा से सीधे काशी गया। वहाँ तुम्हारे पिता के घर का वह अनुसंधान करने लगा। बहुत दिनों के पश्चात् तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता से उसका साक्षात् हुआ, जिससे तुम्हारे संसार से सहसा लोप हो जाने की बात ज्ञात हुई। वह निराश होकर संसार में घूमने लगा।"
इतना कहकर मेरे मित्र चुप हो रहे। इधर शेष भाग सुनने को हम लोगों का चित्त ऊब रहा था; आश्चर्य से उन्हीं की ओर हम ताक रहे थे। उन्होंने फिर उस स्त्री की ओर देखकर कहा, "कदाचित् तुम पूछोगी, कि इस समय अब वह कहाँ है? यह वही अभागा मनुष्य तुम्हारे सम्मुख बैठा है।"
हम दोनों के शरीर में बिजुली-सी दौड़ गयी; वह स्त्री भूमि पर गिरने लगी; मेरे मित्र ने दौड़कर उसको सँभाला। वह किसी प्रकार उन्हीं के सहारे बैठी। कुछ क्षण के उपरांत उसने बहुत धीमे स्वर से मेरे मित्र से कहा, "अपना हाथ दिखाओ।"
उन्होंने चट अपना हाथ फैला दिया, जिस पर एक काला तिल दिखाई दिया। स्त्री कुछ काल तक उसी की ओर देखती रही; फिर मुख ढाँपकर सिर नीचा करके बैठी रही। लज्जा का प्रवेश हुआ। क्योंकि यह एक हिंदू-रमणी का उसके पति के साथ प्रथम संयोग था।
आज इतने दिनों के उपरांत मेरे मित्र का गुप्त रहस्य प्रकाशित हुआ। उस रात्रि को मैं अपने मित्र का खँडहर में अतिथि रहा। सवेरा होते ही हम सब लोग प्रसन्नचित्त नगर में आए।
रचना वर्ष १९०३
*
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कहानी
ग्यारह वर्ष का समय,
रामचंद्र शुक्ल,
विरासत
सोमवार, 12 अक्टूबर 2020
विरासत : सब बुझे दीपक जला लूँ महीयसी महादेवी वर्मा
विरासत :
सब बुझे दीपक जला लूँ
महीयसी महादेवी वर्मा
*
सब बुझे दीपक जला लूं
घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं
क्षितिज कारा तोडकर अब
गा उठी उन्मत आंधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास तन्मय तडित बांधी,
धूल की इस वीणा पर मैं तार हर त्रण का मिला लूं!
भीत तारक मूंदते द्रग
भ्रान्त मारुत पथ न पाता,
छोड उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता
उंगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूं!
लय बनी मृदु वर्तिका
हर स्वर बना बन लौ सजीली,
फैलती आलोक सी
झंकार मेरी स्नेह गीली
इस मरण के पर्व को मैं आज दीवाली बना लूं!
देखकर कोमल व्यथा को
आंसुओं के सजल रथ में,
मोम सी सांधे बिछा दीं
थीं इसी अंगार पथ में
स्वर्ण हैं वे मत कहो अब क्षार में उनको सुला लूं!
अब तरी पतवार लाकर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना
ज्वार की तरिणी बना मैं इस प्रलय को पार पा लूं!
आज दीपक राग गा लूं!
***
महीयसी महादेवी वर्मा
*
सब बुझे दीपक जला लूं
घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं
क्षितिज कारा तोडकर अब
गा उठी उन्मत आंधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास तन्मय तडित बांधी,
धूल की इस वीणा पर मैं तार हर त्रण का मिला लूं!
भीत तारक मूंदते द्रग
भ्रान्त मारुत पथ न पाता,
छोड उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता
उंगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूं!
लय बनी मृदु वर्तिका
हर स्वर बना बन लौ सजीली,
फैलती आलोक सी
झंकार मेरी स्नेह गीली
इस मरण के पर्व को मैं आज दीवाली बना लूं!
देखकर कोमल व्यथा को
आंसुओं के सजल रथ में,
मोम सी सांधे बिछा दीं
थीं इसी अंगार पथ में
स्वर्ण हैं वे मत कहो अब क्षार में उनको सुला लूं!
अब तरी पतवार लाकर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना
ज्वार की तरिणी बना मैं इस प्रलय को पार पा लूं!
आज दीपक राग गा लूं!
***
चिप्पियाँ Labels:
महादेवी वर्मा,
विरासत
बुधवार, 23 सितंबर 2020
विरासत तुलसीदास - 'निराला'
विरासत
तुलसीदास
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
१
१
भारत के नभ के प्रभापूर्य
शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;
उर के आसन पर शिरस्त्राण
शासन करते हैं मुसलमान;
है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल।
२
शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;
उर के आसन पर शिरस्त्राण
शासन करते हैं मुसलमान;
है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल।
२
शत-शत शब्दों का सांध्य काल
यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल
छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर;
आया पहले पंजाब प्रान्त,
कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत,
क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।
३
यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल
छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर;
आया पहले पंजाब प्रान्त,
कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत,
क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।
३
मोगल-दल बल के जलद-यान,
दर्पित-पद उन्मद पठान
बहा रहे दिग्देशज्ञान, शर-खरतर,
छाया ऊपर घन-अन्धकार--
टूटता वज्र यह दुर्निवार,
नीचे प्लावन की प्रलय-धार, ध्वनि हर-हर।
४
दर्पित-पद उन्मद पठान
बहा रहे दिग्देशज्ञान, शर-खरतर,
छाया ऊपर घन-अन्धकार--
टूटता वज्र यह दुर्निवार,
नीचे प्लावन की प्रलय-धार, ध्वनि हर-हर।
४
रिपु के समक्ष जो था प्रचण्ड
आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड;
निश्चल अब वही बुँदेलखण्ड, आभा गत,
निःशेष सुरभि, कुरबक-समान
संलग्न वृन्त पर, चिन्त्य प्राण,
बीता उत्सव ज्यों, चिन्ह म्लान छाया श्लथ।
५
आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड;
निश्चल अब वही बुँदेलखण्ड, आभा गत,
निःशेष सुरभि, कुरबक-समान
संलग्न वृन्त पर, चिन्त्य प्राण,
बीता उत्सव ज्यों, चिन्ह म्लान छाया श्लथ।
५
वीरों का गढ़, वह कालिंजर,
सिंहों के लिए आज पिंजर
नर हैं भीतर बाहर किन्नर-गण गाते
पीकर ज्यों प्राणों का आसव
देखा असुरों ने दैहिक दव,
बन्धन में फँस आत्मा-बांधव दुख पाते।
६
सिंहों के लिए आज पिंजर
नर हैं भीतर बाहर किन्नर-गण गाते
पीकर ज्यों प्राणों का आसव
देखा असुरों ने दैहिक दव,
बन्धन में फँस आत्मा-बांधव दुख पाते।
६
लड़-लड़ जो रण बाँकुरे, समर,
हो शायित देश की पृथ्वी पर,
अक्षर, निर्जर, दुर्धर्ष, अमर, जगतारण
भारत के उर के राजपूत,
उड़ गये आज वे देवदूत,
जो रहे शेष, नृपवेश सुत-बन्दीगण।
७
हो शायित देश की पृथ्वी पर,
अक्षर, निर्जर, दुर्धर्ष, अमर, जगतारण
भारत के उर के राजपूत,
उड़ गये आज वे देवदूत,
जो रहे शेष, नृपवेश सुत-बन्दीगण।
७
यों मोगल-पद-तल प्रथम तूर्ण
सम्बद्ध देश-बल चूर्ण-चूर्ण
इसलाम कलाओं से प्रपूर्ण जन-जनपद
संचित जीवन की क्षिप्रधार,
इसलाम - सागराभिमुख पार,
बहती नदियाँ, नद जन-जन हार वंशवद।
८
सम्बद्ध देश-बल चूर्ण-चूर्ण
इसलाम कलाओं से प्रपूर्ण जन-जनपद
संचित जीवन की क्षिप्रधार,
इसलाम - सागराभिमुख पार,
बहती नदियाँ, नद जन-जन हार वंशवद।
८
अब धौत धरा खिल गया गगन,
उर-उर को मधुर तापप्रशमन
बहती समीर, चिर-आलिंगन ज्यों उन्मन।
झरते हैं शशधर से क्षण-क्षण
पृथ्वी के अधरों पर निःश्वन
ज्योतिर्मय प्राणों के चुम्बन, संजीवन
९
उर-उर को मधुर तापप्रशमन
बहती समीर, चिर-आलिंगन ज्यों उन्मन।
झरते हैं शशधर से क्षण-क्षण
पृथ्वी के अधरों पर निःश्वन
ज्योतिर्मय प्राणों के चुम्बन, संजीवन
९
भूला दुख, अब सुख-स्वरित जाल
फैला-यह केवल-कल्प काल--
कामिनी-कुमुद-कर-कलित ताल पर चलता
प्राणों की छबि मृदु-मन्द-स्पन्द,
लघु-गति, नियमित-पद, ललित छन्द
होगा कोई, जो निरानन्द, कर मलता।
१०
फैला-यह केवल-कल्प काल--
कामिनी-कुमुद-कर-कलित ताल पर चलता
प्राणों की छबि मृदु-मन्द-स्पन्द,
लघु-गति, नियमित-पद, ललित छन्द
होगा कोई, जो निरानन्द, कर मलता।
१०
सोचता कहाँ रे, किधर कूल
कहता तरंग का प्रमुद फूल
यों इस प्रवाह में देश मूल खो बहता
छल-छल-छल कहता यद्यपि जल,
वह मन्त्र मुग्ध सुनता कल-कल
निष्क्रिय शोभा-प्रिय कूलोपल ज्यों रहता।
११
कहता तरंग का प्रमुद फूल
यों इस प्रवाह में देश मूल खो बहता
छल-छल-छल कहता यद्यपि जल,
वह मन्त्र मुग्ध सुनता कल-कल
निष्क्रिय शोभा-प्रिय कूलोपल ज्यों रहता।
११
पड़ते हैं जो दिल्ली-पथ पर
यमुना के तट के श्रेष्ठ नगर,
वे हैं समृद्धि की दूर-प्रसर माया में;
यह एक उन्ही में राजापुर,
है पूर्ण, कुशल, व्यवसाय-प्रचुर,
ज्योतिश्चुम्बिनी कलश-मधु-उर छाया में।
१२
यमुना के तट के श्रेष्ठ नगर,
वे हैं समृद्धि की दूर-प्रसर माया में;
यह एक उन्ही में राजापुर,
है पूर्ण, कुशल, व्यवसाय-प्रचुर,
ज्योतिश्चुम्बिनी कलश-मधु-उर छाया में।
१२
युवकों में प्रमुख रत्न-चेतन
समधीत - शास्त्र - काव्यालोचन
जो, तुलसीदास, वही ब्राह्मण-कुल-दीपक;
आयत-दृग, पुष्ट देह, गत-भय,
अपने प्रकाश में निःसंशय
प्रतिभा का मन्द-स्मित परिचय, संस्मारक;
१३
समधीत - शास्त्र - काव्यालोचन
जो, तुलसीदास, वही ब्राह्मण-कुल-दीपक;
आयत-दृग, पुष्ट देह, गत-भय,
अपने प्रकाश में निःसंशय
प्रतिभा का मन्द-स्मित परिचय, संस्मारक;
१३
नीली उस यमुना के तट पर
राजापुर का नागरिक मुखर
क्रीड़ितवय-विद्याध्ययनान्तर है संस्थित;
प्रियजन को जीवन चारु, चपल
जल की शोभा का-सा उत्पल,
सौरभोत्कलित अम्बर-तल, स्थल-स्थल, दिक-दिक।
१४
राजापुर का नागरिक मुखर
क्रीड़ितवय-विद्याध्ययनान्तर है संस्थित;
प्रियजन को जीवन चारु, चपल
जल की शोभा का-सा उत्पल,
सौरभोत्कलित अम्बर-तल, स्थल-स्थल, दिक-दिक।
१४
एक दिन सखागण संग, पास,
चल चित्रकूटगिरी, सहोच्छवास,
देखा पावन वन, नव प्रकाश मन आया;
वह भाषा-छिपती छवि सुन्दर
कुछ खुलती आभा में रँगकर,
वह भाव कुरल-कुहरे-सा भरकर भाया।
१५
चल चित्रकूटगिरी, सहोच्छवास,
देखा पावन वन, नव प्रकाश मन आया;
वह भाषा-छिपती छवि सुन्दर
कुछ खुलती आभा में रँगकर,
वह भाव कुरल-कुहरे-सा भरकर भाया।
१५
केवल विस्मित मन चिन्त्य नयन;
परिचित कुछ, भूला ज्यों प्रियजन-
ज्यों दूर दृष्टि की धूमिल-तन तट-रेखा,
हो मध्य तरंगाकुल सागर,
निःशब्द स्वप्नसंस्कारागर;
जल में अस्फुट छवि छायाधर, यों देखा।
१६
परिचित कुछ, भूला ज्यों प्रियजन-
ज्यों दूर दृष्टि की धूमिल-तन तट-रेखा,
हो मध्य तरंगाकुल सागर,
निःशब्द स्वप्नसंस्कारागर;
जल में अस्फुट छवि छायाधर, यों देखा।
१६
तरु-तरु वीरुध्-वीरुध् तृण-तृण
जाने क्या हँसते मसृण-मसृण,
जैसे प्राणों से हुए उऋण, कुछ लखकर;
भर लेने को उर में, अथाह,
बाहों में फैलाया उछाह;
गिनते थे दिन, अब सफल-चाह पल रखकर।
१७
जाने क्या हँसते मसृण-मसृण,
जैसे प्राणों से हुए उऋण, कुछ लखकर;
भर लेने को उर में, अथाह,
बाहों में फैलाया उछाह;
गिनते थे दिन, अब सफल-चाह पल रखकर।
१७
कहता प्रति जड़ "जंगम-जीवन!
भूले थे अब तक बन्धु, प्रमन?
यह हताश्वास मन भार श्वास भर बहता;
तुम रहे छोड़ गृह मेरे कवि,
देखो यह धूलि-धूसरित छवि,
छाया इस पर केवल जड़ रवि खर दहता।"
१८
भूले थे अब तक बन्धु, प्रमन?
यह हताश्वास मन भार श्वास भर बहता;
तुम रहे छोड़ गृह मेरे कवि,
देखो यह धूलि-धूसरित छवि,
छाया इस पर केवल जड़ रवि खर दहता।"
१८
"हनती आँखों की ज्वाला चल,
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"
१९
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"
१९
"फिर असुरों से होती क्षण-क्षण
स्मृति की पृथ्वी यह, दलित-चरण;
वे सुप्त भाव, गुप्ताभूषण अब हैं सब
इस जग के मग के मुक्त-प्राण!
गाओ-विहंग! -सद्ध्वनित गान,
त्यागोज्जीवित, वह ऊर्ध्व ध्यान, धारा-स्तव।"
२०
स्मृति की पृथ्वी यह, दलित-चरण;
वे सुप्त भाव, गुप्ताभूषण अब हैं सब
इस जग के मग के मुक्त-प्राण!
गाओ-विहंग! -सद्ध्वनित गान,
त्यागोज्जीवित, वह ऊर्ध्व ध्यान, धारा-स्तव।"
२०
"लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!
२१
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!
२१
"अब स्मर के शर-केशर से झर
रँगती रज-रज पृथ्वी, अम्बर;
छाया उससे प्रतिमानस-सर शोभाकर;
छिप रहे उसी से वे प्रियतमम
छवि के निश्छल देवता परम;
जागरणोपम यह सुप्ति-विरम भ्रम, भ्रम भर।"
२२
रँगती रज-रज पृथ्वी, अम्बर;
छाया उससे प्रतिमानस-सर शोभाकर;
छिप रहे उसी से वे प्रियतमम
छवि के निश्छल देवता परम;
जागरणोपम यह सुप्ति-विरम भ्रम, भ्रम भर।"
२२
बहकर समीर ज्यों पुष्पाकुल
वन को कर जाती है व्याकुल,
हो गया चित्त कवि का त्यों तुलकर, उन्मन;
वह उस शाखा का वन-विहग
छोड़ता रंग पर रंग-रंग पर जीवन।
२३
वन को कर जाती है व्याकुल,
हो गया चित्त कवि का त्यों तुलकर, उन्मन;
वह उस शाखा का वन-विहग
छोड़ता रंग पर रंग-रंग पर जीवन।
२३
दूर, दूरतर, दूरतम, शेष,
कर रहा पार मन नभोदेश,
सजता सुवेश, फिर-फिर सुवेश जीवन पर,
छोड़ता रंग फिर-फिर सँवार
उड़ती तरंग ऊपर अपार
संध्या ज्योति ज्यों सुविस्तार अम्बर तर।
२४
कर रहा पार मन नभोदेश,
सजता सुवेश, फिर-फिर सुवेश जीवन पर,
छोड़ता रंग फिर-फिर सँवार
उड़ती तरंग ऊपर अपार
संध्या ज्योति ज्यों सुविस्तार अम्बर तर।
२४
उस मानस उर्ध्व देश में भी
ज्यों राहु-ग्रस्त आभा रवि की
देखी कवि ने छवि छाया-सी, भरती-सी--
भारत का सम्यक देशकाल;
खिंचता जैसे तम-शेष जाल,
खींचती, बृहत से अन्तराल करती-सी।
२५
ज्यों राहु-ग्रस्त आभा रवि की
देखी कवि ने छवि छाया-सी, भरती-सी--
भारत का सम्यक देशकाल;
खिंचता जैसे तम-शेष जाल,
खींचती, बृहत से अन्तराल करती-सी।
२५
बँध भिन्न-भिन्न भावों के दल
क्षुद्र से क्षुद्रतर, हुए विकल;
पूजा में भी प्रतिरोध-अनल है जलता;
हो रहा भस्म अपना जीवन,
चेतना-हीन फिर भी चेतन;
अपने ही मन को यों प्रति मन है छलता।
२६
क्षुद्र से क्षुद्रतर, हुए विकल;
पूजा में भी प्रतिरोध-अनल है जलता;
हो रहा भस्म अपना जीवन,
चेतना-हीन फिर भी चेतन;
अपने ही मन को यों प्रति मन है छलता।
२६
इसने ही जैसे बार-बार
दूसरी शक्ति की की पुकार--
साकार हुआ ज्यों निराकार, जीवन में;
यह उसी शक्ति से है वलयित
चित देश-काल का सम्यक् जित,
ऋतु का प्रभाव जैसे संचित तरु-तन में!
२७
दूसरी शक्ति की की पुकार--
साकार हुआ ज्यों निराकार, जीवन में;
यह उसी शक्ति से है वलयित
चित देश-काल का सम्यक् जित,
ऋतु का प्रभाव जैसे संचित तरु-तन में!
२७
विधि की इच्छा सर्वत्र अटल;
यह देश प्रथम ही था हत-बल;
वे टूट चुके थे ठाट सकल वर्णों के;
तृष्णोद्धत, स्पर्धागत, सगर्व
क्षत्रिय रक्षा से रहित सर्व;
द्विज चाटुकार, हत इतर वर्ग पर्णों के।
२८
यह देश प्रथम ही था हत-बल;
वे टूट चुके थे ठाट सकल वर्णों के;
तृष्णोद्धत, स्पर्धागत, सगर्व
क्षत्रिय रक्षा से रहित सर्व;
द्विज चाटुकार, हत इतर वर्ग पर्णों के।
२८
चलते फिरते पर निस्सहाय,
वे दीन, क्षीण कंकालकाय;
आशा-केवल जीवनोपाय उर-उर में;
रण के अश्वों से शस्य सकल
दलमल जाते ज्यों, दल के दल
शूद्रगण क्षुद्र-जीवन-सम्बल, पुर-पुर में।
२९
वे दीन, क्षीण कंकालकाय;
आशा-केवल जीवनोपाय उर-उर में;
रण के अश्वों से शस्य सकल
दलमल जाते ज्यों, दल के दल
शूद्रगण क्षुद्र-जीवन-सम्बल, पुर-पुर में।
२९
वे शेष-श्वास, पशु, मूक-भाष,
पाते प्रहार अब हताश्वास;
सोचते कभी, आजन्म ग्रास द्विजगण के
होना ही उनका धर्म परम,
वे वर्णाधम, रे द्विज उत्तम,
वे चरण-चरण बस, वर्णाश्रम-रक्षण के!
३०
पाते प्रहार अब हताश्वास;
सोचते कभी, आजन्म ग्रास द्विजगण के
होना ही उनका धर्म परम,
वे वर्णाधम, रे द्विज उत्तम,
वे चरण-चरण बस, वर्णाश्रम-रक्षण के!
३०
रक्खा उन पर गुरू-भार, विषम
जो पहला पद, अब मद-विष-सम;
द्विज लोगों पर इस्लाम-क्षम वह छाया,
जो देशकाल को आवृत कर
फैली है सूक्ष्म मनोनभ पर,
देखी कवि ने समझा अब-वर, क्या माया।
३१
जो पहला पद, अब मद-विष-सम;
द्विज लोगों पर इस्लाम-क्षम वह छाया,
जो देशकाल को आवृत कर
फैली है सूक्ष्म मनोनभ पर,
देखी कवि ने समझा अब-वर, क्या माया।
३१
इस छाया के भीतर है सब,
है बँधा हुआ सारा कलरव,
भूले सब इस तम का आसव पी-पीकर।
इसके भीतर रह देश-काल
हो सकेगा न रे मुक्त-भाल,
पहले का सा उन्नत विशाल ज्योतिःसर।
३२
है बँधा हुआ सारा कलरव,
भूले सब इस तम का आसव पी-पीकर।
इसके भीतर रह देश-काल
हो सकेगा न रे मुक्त-भाल,
पहले का सा उन्नत विशाल ज्योतिःसर।
३२
दीनों की भी दुर्बल पुकार
कर सकती नहीं कदापि पार
पार्थिवैश्वर्य का अन्धकार पीड़ाकर,
जब तक कांक्षाओं के प्रहार
अपने साधन को बार-बार
होंगे भारत पर इस प्रकार तृष्णापर।
३३
कर सकती नहीं कदापि पार
पार्थिवैश्वर्य का अन्धकार पीड़ाकर,
जब तक कांक्षाओं के प्रहार
अपने साधन को बार-बार
होंगे भारत पर इस प्रकार तृष्णापर।
३३
सोचा कवि ने, मानस-तरंग,
यह भारत-संस्कृति पर सभंग
फैली जो, लेती संग-संग, जन-गण को;
इस अनिल-वाह के पार प्रखर
किरणों का वह ज्योतिर्मय घर,
रविकुल-जीवन-चुम्बनकर मानस-धन जो।
३४
है वही मुक्ति का सत्य रूप,
यह कूप-कूप भव-अन्ध कूप;
वह रंक, यहाँ जो हुआ भूप, निश्चय रे।
चाहिए उसे और भी और,
फिर साधारण को कहाँ ठौर?
जीवन के जग के, यही तौर हैं जय के।
३५
यह भारत-संस्कृति पर सभंग
फैली जो, लेती संग-संग, जन-गण को;
इस अनिल-वाह के पार प्रखर
किरणों का वह ज्योतिर्मय घर,
रविकुल-जीवन-चुम्बनकर मानस-धन जो।
३४
है वही मुक्ति का सत्य रूप,
यह कूप-कूप भव-अन्ध कूप;
वह रंक, यहाँ जो हुआ भूप, निश्चय रे।
चाहिए उसे और भी और,
फिर साधारण को कहाँ ठौर?
जीवन के जग के, यही तौर हैं जय के।
३५
करना होगा यह तिमिर पार-
देखना सत्य का मिहिर-द्वार-
बहना जीवन के प्रखर ज्वार में निश्चय-
लड़ना विरोध से द्वन्द्व-समर,
रह सत्य-मार्ग पर स्थिर निर्भर-
जाना, भिन्न भी देह, निज घर निःसंशय।
३६
देखना सत्य का मिहिर-द्वार-
बहना जीवन के प्रखर ज्वार में निश्चय-
लड़ना विरोध से द्वन्द्व-समर,
रह सत्य-मार्ग पर स्थिर निर्भर-
जाना, भिन्न भी देह, निज घर निःसंशय।
३६
कल्मषोत्सार कवि के दुर्दम
चेतनोर्मियों के प्राण प्रथम
वह रुद्ध द्वार का छाया-तम तरने को--
करने को ज्ञानोद्धत प्रहार--
तोड़ने को विषम वज्र-द्वार;
उमड़े भारत का भ्रम अपार हरने को।
३७
चेतनोर्मियों के प्राण प्रथम
वह रुद्ध द्वार का छाया-तम तरने को--
करने को ज्ञानोद्धत प्रहार--
तोड़ने को विषम वज्र-द्वार;
उमड़े भारत का भ्रम अपार हरने को।
३७
उस क्षण, उस छाया के ऊपर,
नभ-तम की-सी तारिका सुघर;
आ पड़ी, दृष्टि में, जीवन पर, सुन्दरतम
प्रेयसी, प्राणसंगिनी, नाम
शुभ रत्नावली-सरोज-दाम
वामा, इस पथ पर हुई वाम सरितोपम।
३८
नभ-तम की-सी तारिका सुघर;
आ पड़ी, दृष्टि में, जीवन पर, सुन्दरतम
प्रेयसी, प्राणसंगिनी, नाम
शुभ रत्नावली-सरोज-दाम
वामा, इस पथ पर हुई वाम सरितोपम।
३८
'जाते हो कहाँ?' तुले तिर्यक्
दृग, पहनाकर ज्योतिर्मय स्रक्
प्रियतम को ज्यों, बोले सम्यक् शासन से;
फिर लिये मूँद वे पल पक्ष्मल--
इन्दीवर के-से कोश विमल;
फिर हुई अदृश्य शक्ति पुष्कल उस तन से।
३९
दृग, पहनाकर ज्योतिर्मय स्रक्
प्रियतम को ज्यों, बोले सम्यक् शासन से;
फिर लिये मूँद वे पल पक्ष्मल--
इन्दीवर के-से कोश विमल;
फिर हुई अदृश्य शक्ति पुष्कल उस तन से।
३९
उस ऊँचे नभ का, गुंजनपर,
मंजुल जीवन का मन-मधुकर,
खुलती उस दृग-छवि में बँधकर, सौरभ को
बैठा ही था सुख से क्षण-भर,
मुँद गये पलों के दल मृदुतर,
रह गया उसी उर के भीतर, अक्षम हो।
४०
मंजुल जीवन का मन-मधुकर,
खुलती उस दृग-छवि में बँधकर, सौरभ को
बैठा ही था सुख से क्षण-भर,
मुँद गये पलों के दल मृदुतर,
रह गया उसी उर के भीतर, अक्षम हो।
४०
उसके अदृश्य होते ही रे,
उतरा वह मन धीरे-धीरे,
केशर-रज-कण अब हैं हीरे-पर्वतचय;
यह वही प्रकृति पर रूप अन्य;
जगमग-जगमग सब वेश वन्य;
सुरभित दिशि-दिशि, कवि हुआ धन्य, मायाशय।
४१
उतरा वह मन धीरे-धीरे,
केशर-रज-कण अब हैं हीरे-पर्वतचय;
यह वही प्रकृति पर रूप अन्य;
जगमग-जगमग सब वेश वन्य;
सुरभित दिशि-दिशि, कवि हुआ धन्य, मायाशय।
४१
यह श्री पावन, गृहिणी उदार;
गिरि-वर उरोज, सरि पयोधार;
कर वन-तरु; फैला फल निहारती देती;
सब जीवों पर है एक दृष्टि,
तृण-तृण पर उसकी सुधा-वृष्टि,
प्रेयसी, बदलती वसन सृष्टि नव लेती।
४२
गिरि-वर उरोज, सरि पयोधार;
कर वन-तरु; फैला फल निहारती देती;
सब जीवों पर है एक दृष्टि,
तृण-तृण पर उसकी सुधा-वृष्टि,
प्रेयसी, बदलती वसन सृष्टि नव लेती।
४२
ये जिस कर के रे झंकृत स्वर
गूँजते हुए इतने सुखकर,
खुलते खोलते प्राण के स्तर भर जाते;
व्याकुल आलिंगन को, दुस्तर,
रागिनी की लहर गिरि-वन-सर
तरती जो ध्वनित, भाव सुन्दर कहलाते।
४३
गूँजते हुए इतने सुखकर,
खुलते खोलते प्राण के स्तर भर जाते;
व्याकुल आलिंगन को, दुस्तर,
रागिनी की लहर गिरि-वन-सर
तरती जो ध्वनित, भाव सुन्दर कहलाते।
४३
यों धीरे-धीरे उतर-उतर
आया मन निज पहली स्थिति पर;
खोले दृग, वैसी ही प्रान्तर की रेखा;
विश्राम के लिए मित्र-प्रवर
बैठे थे ज्यों, बैठे पथ पर;
वह खड़ा हुआ, त्यों ही रहकर यह देखा।
४४
आया मन निज पहली स्थिति पर;
खोले दृग, वैसी ही प्रान्तर की रेखा;
विश्राम के लिए मित्र-प्रवर
बैठे थे ज्यों, बैठे पथ पर;
वह खड़ा हुआ, त्यों ही रहकर यह देखा।
४४
फिर पंचतीर्थ को चढ़े सकल
गिरिमाला पर, हैं प्राण चपल
सन्दर्शन को, आतुर-पद चलकर पहुँचे।
फिर कोटितीर्थ देवांगनादि
लख सार्थक-श्रम हो विगत-व्याधि
नग्न-पद चले, कंटक, उपाधि भी, न कुँचे।
गिरिमाला पर, हैं प्राण चपल
सन्दर्शन को, आतुर-पद चलकर पहुँचे।
फिर कोटितीर्थ देवांगनादि
लख सार्थक-श्रम हो विगत-व्याधि
नग्न-पद चले, कंटक, उपाधि भी, न कुँचे।
४५
आये हनुमद्धारा द्रुततर,
झरता झरना वीर पर प्रखर,
लखकर कवि रहा भाव में भरकर क्षण-भर;
फिर उतरे गिरि, चल किया पार
पथ-पयस्विनी सरि मृदुल धार;
स्नानान्त, भजन, भोजन, विहार, गिरि-पद पर।
झरता झरना वीर पर प्रखर,
लखकर कवि रहा भाव में भरकर क्षण-भर;
फिर उतरे गिरि, चल किया पार
पथ-पयस्विनी सरि मृदुल धार;
स्नानान्त, भजन, भोजन, विहार, गिरि-पद पर।
४६
कामदागिरि का कर परिक्रमण
आये जानकी-कुण्ड सब जन;
फिर स्फटिकशिला, अनसूया-वन सरि-उद्गम,
फिर भरतकूप, रह इस प्रकार,
कुछ दिन सब जन कर वन-विहार
लौटे निज-निज गृह हृदय धार छवि निरुपम।
४७
आये जानकी-कुण्ड सब जन;
फिर स्फटिकशिला, अनसूया-वन सरि-उद्गम,
फिर भरतकूप, रह इस प्रकार,
कुछ दिन सब जन कर वन-विहार
लौटे निज-निज गृह हृदय धार छवि निरुपम।
४७
प्रेयसी के अलक नील, व्योम;
दृग-पल कलंक--मुख मंजु सोम;
निःसृत प्रकाश जो, तरुण क्षोम प्रिय तन पर;
पुलकित प्रतिपल मानस-चकोर
देखता भूल दिक् उसी ओर;
कुल इच्छाओं का वही छोर जीवन भर।
दृग-पल कलंक--मुख मंजु सोम;
निःसृत प्रकाश जो, तरुण क्षोम प्रिय तन पर;
पुलकित प्रतिपल मानस-चकोर
देखता भूल दिक् उसी ओर;
कुल इच्छाओं का वही छोर जीवन भर।
४८
जिस शुचि प्रकाश का सौर-जगत्
रुचि-रुचि में खुला, असत् भी, सत्,
वह बँधा हुआ है एक महत् परिचय से;
अविनश्वर वही ज्ञान भीतर,
बाहर भ्रम, भ्रमरों को, भास्वर
वह रत्नावली-सूत्रधार पर आशय से।
४९
रुचि-रुचि में खुला, असत् भी, सत्,
वह बँधा हुआ है एक महत् परिचय से;
अविनश्वर वही ज्ञान भीतर,
बाहर भ्रम, भ्रमरों को, भास्वर
वह रत्नावली-सूत्रधार पर आशय से।
४९
देखता, नवल चल दीप युगल
नयनों के, आभा के कोमल;
प्रेयसी के, प्रणय के, निस्तल विभ्रम के,
गृह की सीमा के स्वच्छभास--
भीतर के, बाहर के प्रकाश,
जीवन के, भावों के विलास, शम-दम के।
५०
नयनों के, आभा के कोमल;
प्रेयसी के, प्रणय के, निस्तल विभ्रम के,
गृह की सीमा के स्वच्छभास--
भीतर के, बाहर के प्रकाश,
जीवन के, भावों के विलास, शम-दम के।
५०
पर वही द्वन्द्व के कारण,
बन्ध की श्रृंखला के धारण,
निर्वाण के पथिक के वारण, करुणामय;
वे पलकों के उस पार, अर्थ
हो सका न, वे ऐसे समर्थ;
सारा विवाद हो गया व्यर्थ, जीवन-क्षय।
५१
बन्ध की श्रृंखला के धारण,
निर्वाण के पथिक के वारण, करुणामय;
वे पलकों के उस पार, अर्थ
हो सका न, वे ऐसे समर्थ;
सारा विवाद हो गया व्यर्थ, जीवन-क्षय।
५१
उस प्रियावरण प्रकाश में बँध,
सोचता, "सहज पड़ते पग सध;
शोभा को लिये ऊर्ध्व औ अध घर बाहर
यह विश्व, सूर्य, तारक-मण्डल,
दिन, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष चपल;
बँध गति-प्रकाश में बुद्ध सकल पूर्वापर।"
५२
सोचता, "सहज पड़ते पग सध;
शोभा को लिये ऊर्ध्व औ अध घर बाहर
यह विश्व, सूर्य, तारक-मण्डल,
दिन, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष चपल;
बँध गति-प्रकाश में बुद्ध सकल पूर्वापर।"
५२
"बन्ध के बिना कह, कहाँ प्रगति ?
गति-हीन जीव को कहाँ सुरति ?
रति-रहित कहाँ सुख केवल क्षति-केवल क्षति;
यह क्रम विनाश इससे चलकर
आता सत्वर मन निम्न उतर;
छूटता अन्त में चेतन स्तर, जाती मति।"
५३
गति-हीन जीव को कहाँ सुरति ?
रति-रहित कहाँ सुख केवल क्षति-केवल क्षति;
यह क्रम विनाश इससे चलकर
आता सत्वर मन निम्न उतर;
छूटता अन्त में चेतन स्तर, जाती मति।"
५३
"देखो प्रसून को वह उन्मुख !
रँग-रेणु-गन्ध भर व्याकुल-सुख,
देखता ज्योतिमुखः आया दुख पीड़ा सह।
चटका कलि का अवरोध सदल,
वह शोधशक्ति, जो गन्धोच्छल,
खुल पड़ती पल-प्रकाश को, चल परिचय वह।"
५४
रँग-रेणु-गन्ध भर व्याकुल-सुख,
देखता ज्योतिमुखः आया दुख पीड़ा सह।
चटका कलि का अवरोध सदल,
वह शोधशक्ति, जो गन्धोच्छल,
खुल पड़ती पल-प्रकाश को, चल परिचय वह।"
५४
"जिस तरह गन्ध से बँधा फूल,
फैलता दूर तक भी समूल;
अप्रतिम प्रिया से, त्यों दुकूल-प्रतिभा में
मैं बँधा एक शुचि आलिंगन,
आकृति में निराकार, चुम्बन;
युक्त भी मुक्त यों आजीवन, लघिमा में।"
फैलता दूर तक भी समूल;
अप्रतिम प्रिया से, त्यों दुकूल-प्रतिभा में
मैं बँधा एक शुचि आलिंगन,
आकृति में निराकार, चुम्बन;
युक्त भी मुक्त यों आजीवन, लघिमा में।"
५५
सोचता कौन प्रतिहत चेतन-
वे नहीं प्रिया के नयन, नयन;
वह केवल वहाँ मीन-केतन, युवती में;
अपने वश में कर पुरुष देश
है उड़ा रहा ध्वज-मुक्तकेश;
तरुणी-तनु आलम्बन-विशेष, पृथ्वी में?
५६
वे नहीं प्रिया के नयन, नयन;
वह केवल वहाँ मीन-केतन, युवती में;
अपने वश में कर पुरुष देश
है उड़ा रहा ध्वज-मुक्तकेश;
तरुणी-तनु आलम्बन-विशेष, पृथ्वी में?
५६
वह ऐसी जो अनुकूल युक्ति,
जीव के भाव की नहीं मुक्ति;
वह एक भुक्ति, ज्यों मिली शुक्ति से मुक्ता;
जो ज्ञानदीप्ति, वह दूर अजर,
विश्व के प्राण के भी ऊपर;
माया वह , जो जीव से सुघर संयुक्ता।
५७
जीव के भाव की नहीं मुक्ति;
वह एक भुक्ति, ज्यों मिली शुक्ति से मुक्ता;
जो ज्ञानदीप्ति, वह दूर अजर,
विश्व के प्राण के भी ऊपर;
माया वह , जो जीव से सुघर संयुक्ता।
५७
मृत्तिका एक कर सार ग्रहण
खुलते रहते बहुवर्ण, सुमन,
त्यों रत्नावली-हार में बँध मन चमका,
पाकर नयनों की ज्योति प्रखर,
ज्यों रविकर से श्यामल जलधर,
बह वर्णों के भावों से भरकर दमका।
५८
खुलते रहते बहुवर्ण, सुमन,
त्यों रत्नावली-हार में बँध मन चमका,
पाकर नयनों की ज्योति प्रखर,
ज्यों रविकर से श्यामल जलधर,
बह वर्णों के भावों से भरकर दमका।
५८
वह रत्नावली नाम-शोभन
पति-रति में प्रतन, अतः लोभन
अपरिचित-पुण्य अक्षय क्षोभन धन कोई,
प्रियकरालम्ब को सत्य-यष्टि,
प्रतिभा में श्रद्धा की समष्टि;
मायामन में प्रिय-शयन व्यष्टि भर सोयी:-
५९
पति-रति में प्रतन, अतः लोभन
अपरिचित-पुण्य अक्षय क्षोभन धन कोई,
प्रियकरालम्ब को सत्य-यष्टि,
प्रतिभा में श्रद्धा की समष्टि;
मायामन में प्रिय-शयन व्यष्टि भर सोयी:-
५९
लखती ऊषारुण, मौन, राग,
सोते पति से वह रही जाग;
प्रेम के फाग में आग त्याग की तरुणा;
प्रिय के जड़ युग कूलों को भर
बहती ज्यों स्वर्गंगा सस्वर;
नश्वरता पर अलोक-सुघर दृक्-करुणा।
६०
सोते पति से वह रही जाग;
प्रेम के फाग में आग त्याग की तरुणा;
प्रिय के जड़ युग कूलों को भर
बहती ज्यों स्वर्गंगा सस्वर;
नश्वरता पर अलोक-सुघर दृक्-करुणा।
६०
धीरे-धीर वह हुआ पार
तारा-द्युति से बँध अन्धकार;
एक दिन विदा को बन्धु द्वार पर आया;
लख रत्नावली खुली सहास;
अवरोध-रहित बढ़ गयी पास;
बोला भाई, हँसती उदास तू छाया-
६१
तारा-द्युति से बँध अन्धकार;
एक दिन विदा को बन्धु द्वार पर आया;
लख रत्नावली खुली सहास;
अवरोध-रहित बढ़ गयी पास;
बोला भाई, हँसती उदास तू छाया-
६१
"हो गयी रतन, कितनी दुर्बल,
चिन्ता में बहन, गयी तू गल
माँ, बापूजी, भाभियाँ सकल पड़ोस की
हैं विकल देखने को सत्वर
सहेलियाँ सब, ताने देकर
कहती हैं, बेचा वर के कर, आ न सकी"
६२
चिन्ता में बहन, गयी तू गल
माँ, बापूजी, भाभियाँ सकल पड़ोस की
हैं विकल देखने को सत्वर
सहेलियाँ सब, ताने देकर
कहती हैं, बेचा वर के कर, आ न सकी"
६२
"तुझसे पीछे भेजी जाकर
आयीं वे कई बार नैहर;
पर तुझे भेजते क्यों श्रीवरजी डरते ?
हम कई बार आ-आकर घर
लौटे पाकर झूठे उत्तर;
क्यों बहन, नहीं तू सम, उन पर बल करते ?
६३
आयीं वे कई बार नैहर;
पर तुझे भेजते क्यों श्रीवरजी डरते ?
हम कई बार आ-आकर घर
लौटे पाकर झूठे उत्तर;
क्यों बहन, नहीं तू सम, उन पर बल करते ?
६३
"आँसुओं भरी माँ दुख के स्वर
बोलीं, रतन से कहो जाकर,
क्या नहीं मोह कुछ माता पर अब तुमको ?
जामाताजी वाली ममता
माँ से तो पाती उत्तमता।"
बोले बापू, योगी रमता मैं अब तो-
६४
बोलीं, रतन से कहो जाकर,
क्या नहीं मोह कुछ माता पर अब तुमको ?
जामाताजी वाली ममता
माँ से तो पाती उत्तमता।"
बोले बापू, योगी रमता मैं अब तो-
६४
"कुछ ही दिन को हूँ कल-द्रुम;
छू लूँ पद फिर कह देना तुम।"
बोली भाभी, लाना कुंकुम-शोभा को;
फिर किया अनावश्यक प्रलाप,
जिसमें जैसी स्नेह की छाप !
पर अकथनीय करुणा-विलाप जो माँ को।
६५
छू लूँ पद फिर कह देना तुम।"
बोली भाभी, लाना कुंकुम-शोभा को;
फिर किया अनावश्यक प्रलाप,
जिसमें जैसी स्नेह की छाप !
पर अकथनीय करुणा-विलाप जो माँ को।
६५
"हम बिना तुम्हारे आये घर,
गाँव की दृष्टि से गये उतर;
क्यों बहन, ब्याह हो जाने पर, घर पहला
केवल कहने को है नैहर?-
दे सकता नहीं स्नेह-आदर?-
पूजे पद, हम इसलिए अपर?" उर दहला
६६
गाँव की दृष्टि से गये उतर;
क्यों बहन, ब्याह हो जाने पर, घर पहला
केवल कहने को है नैहर?-
दे सकता नहीं स्नेह-आदर?-
पूजे पद, हम इसलिए अपर?" उर दहला
६६
उस प्रतिमा का, आया तब खुल
मर्यादागर्भित धर्म विपुल,
धुल अश्रु-धार से हुई अतुल छवि पावन,
वह घेर-घेर निस्सीम गगन
उमड़े भावों के घन पर घन,
फैला, ढक सघन स्नेह-उपवन, वह सावन।
६७
मर्यादागर्भित धर्म विपुल,
धुल अश्रु-धार से हुई अतुल छवि पावन,
वह घेर-घेर निस्सीम गगन
उमड़े भावों के घन पर घन,
फैला, ढक सघन स्नेह-उपवन, वह सावन।
६७
बोली वह, मृदु-गम्भीर-घोष,
"मैं साथ तुम्हारे, करो तोष।"
जिस पृथ्वी से निकली सदोष वह सीता,
अंक में उसी के आज लीन-
निज मर्यादा पर समासीन;
दे गयी सुहृद् को स्नेह-क्षीण गत गीता।
"मैं साथ तुम्हारे, करो तोष।"
जिस पृथ्वी से निकली सदोष वह सीता,
अंक में उसी के आज लीन-
निज मर्यादा पर समासीन;
दे गयी सुहृद् को स्नेह-क्षीण गत गीता।
६८
बोला भाई, तो "चलो अभी,
अन्यथा, न होंगे सफल कभी
हम, उनके आ जाने पर, जी यह कहता।
जब लौटें वह, हम करें पार
राजापुर के ये सभी मार्ग, द्वार।"
चल दी प्रतिमा। घर अन्धकार अब बहता।
६९
अन्यथा, न होंगे सफल कभी
हम, उनके आ जाने पर, जी यह कहता।
जब लौटें वह, हम करें पार
राजापुर के ये सभी मार्ग, द्वार।"
चल दी प्रतिमा। घर अन्धकार अब बहता।
६९
लेते सौदा जब खड़े हाट,
तुलसी के मन आया उचाट;
सोचा, अबके किस घाट उतारें इनको;
जब देखो, तब द्वार पर खड़े
उधार लाये हम, चले बड़े !
दे दिया दान तो अड़े पड़े अब किनको ?
७०
तुलसी के मन आया उचाट;
सोचा, अबके किस घाट उतारें इनको;
जब देखो, तब द्वार पर खड़े
उधार लाये हम, चले बड़े !
दे दिया दान तो अड़े पड़े अब किनको ?
७०
सामग्री ले लौटे जब घर,
देखा नीलम-सोपानों पर
नभ के चढ़ती आभा सुन्दर पग धर-धर;
श्वेत, श्याम, रक्त, पराग-पीत,
अपने सुख से ज्यों सुमन भीत;
गाती यमुना नृत्यपर, गीत कल-कल स्वर।
७१
देखा नीलम-सोपानों पर
नभ के चढ़ती आभा सुन्दर पग धर-धर;
श्वेत, श्याम, रक्त, पराग-पीत,
अपने सुख से ज्यों सुमन भीत;
गाती यमुना नृत्यपर, गीत कल-कल स्वर।
७१
देखा वह नहीं प्रिया जीवन;
नत-नयन भवन, विषण्ण आँगन;
आवरण शून्य वे बिना वरण-मधुरा के
अपहृत-श्री सुख-स्नेह का सद्य,
निःसुरभि, हत, हेमन्त-पद्म !
नैतिक-नीरस, निष्प्रीति, छद्म ज्यों, पाते।
७२
नत-नयन भवन, विषण्ण आँगन;
आवरण शून्य वे बिना वरण-मधुरा के
अपहृत-श्री सुख-स्नेह का सद्य,
निःसुरभि, हत, हेमन्त-पद्म !
नैतिक-नीरस, निष्प्रीति, छद्म ज्यों, पाते।
७२
यह नहीं आज गृह, छाया-उर,
गीति से प्रिया की मुखर, मधुर;
गति-नृत्य, तालशिंजित-नूपुर चरणारुण;
व्यंजित नयनों का भाव सघन
भर रंजित जो करता क्षण-क्षण;
कहता कोई मन से, उन्मन, सुर रे, सुन।
७३
गीति से प्रिया की मुखर, मधुर;
गति-नृत्य, तालशिंजित-नूपुर चरणारुण;
व्यंजित नयनों का भाव सघन
भर रंजित जो करता क्षण-क्षण;
कहता कोई मन से, उन्मन, सुर रे, सुन।
७३
वह आज हो गयी दूर तान,
इसलिए मधुर वह और गान,
सुनने को व्याकुल हुए प्राण प्रियतम के;
छूटा जग का व्यवहार - ज्ञान,
पग उठे उसी मग को अजान,
कुल-मान-ध्यान श्लथ स्नेह-दान-सक्षम से।
७४
इसलिए मधुर वह और गान,
सुनने को व्याकुल हुए प्राण प्रियतम के;
छूटा जग का व्यवहार - ज्ञान,
पग उठे उसी मग को अजान,
कुल-मान-ध्यान श्लथ स्नेह-दान-सक्षम से।
७४
मग में पिक-कुहरिल डाल,
हैं हरित विटप सब सुमन - माल,
हिलतीं लतिकाएँ ताल-ताल पर सस्मित।
पड़ता उन पर ज्योतिः प्रपात,
हैं चमक रहे सब कनक-गात,
बहती मधु-धीर समीर ज्ञात, आलिंगित।
हैं हरित विटप सब सुमन - माल,
हिलतीं लतिकाएँ ताल-ताल पर सस्मित।
पड़ता उन पर ज्योतिः प्रपात,
हैं चमक रहे सब कनक-गात,
बहती मधु-धीर समीर ज्ञात, आलिंगित।
७५
धूसरित बाल-दल, पुण्य-रेणु,
लख चरण-वारण-चपल धेनु,
आ गयी याद उस मधुर-वेणु-वादन की;
वह यमुना-तट, वह वृन्दावन,
चपलानन्दित यह सघन गगन;
गोपी-जन-यौवन-मोहन-तन वह वन-श्री।
७६
लख चरण-वारण-चपल धेनु,
आ गयी याद उस मधुर-वेणु-वादन की;
वह यमुना-तट, वह वृन्दावन,
चपलानन्दित यह सघन गगन;
गोपी-जन-यौवन-मोहन-तन वह वन-श्री।
७६
सुनते सुख की वंशी के सुर,
पहुँचे रत्नधर रमा के पुर;
लख सादर उठी समाज श्वशुर-परिजन की;
बैठाला देकर मान-पान;
कुछ जन बतलाये कान-कान;
सुन बोली भाभी, यह पहचान रतन की !
७७
पहुँचे रत्नधर रमा के पुर;
लख सादर उठी समाज श्वशुर-परिजन की;
बैठाला देकर मान-पान;
कुछ जन बतलाये कान-कान;
सुन बोली भाभी, यह पहचान रतन की !
७७
जल गये व्यंग्य से सकल अंग,
चमकी चल-दृग ज्वाला-तरंग,
पर रही मौन धर अप्रसंग वह बाला;
पति की इस मति-गति से मरकर,
उर की उर में ज्यों, ताप-क्षर,
रह गयी सुरभि की म्लान-अधर वर-माला।
७८
चमकी चल-दृग ज्वाला-तरंग,
पर रही मौन धर अप्रसंग वह बाला;
पति की इस मति-गति से मरकर,
उर की उर में ज्यों, ताप-क्षर,
रह गयी सुरभि की म्लान-अधर वर-माला।
७८
बोली मन में होकर अक्षम,
रक्खो, मर्यादा पुरुषोत्तम !
लाज का आज भूषण, अक्लम, नारी का;
खींचता छोर, यह कौन ओर
पैठा उनमें जो अधम चौर ?
खुलता अब अंचल, नाथ, पौर साड़ी का !
७९
रक्खो, मर्यादा पुरुषोत्तम !
लाज का आज भूषण, अक्लम, नारी का;
खींचता छोर, यह कौन ओर
पैठा उनमें जो अधम चौर ?
खुलता अब अंचल, नाथ, पौर साड़ी का !
७९
कुछ काल रहा यों स्तब्ध भवन,
ज्यों आँधी के उठने का क्षण;
प्रिय श्रीवरजी को जिवाँ शयन करने को
ले चली साथ भावज हरती
निज प्रियालाप से वश करती,
वह मधु-शीकर निर्झर झरती झरने को।
८०
ज्यों आँधी के उठने का क्षण;
प्रिय श्रीवरजी को जिवाँ शयन करने को
ले चली साथ भावज हरती
निज प्रियालाप से वश करती,
वह मधु-शीकर निर्झर झरती झरने को।
८०
जेंए फिर चल गृह के सब जन,
फिर लौटे निज-निज कक्ष शयन;
प्रिय-नयनों में बँध प्रिया-नयन चयनोत्कल
पलकों से स्फरित, स्फुरित-राग
सुनहला भरे पहला सुहाग,
रग-रग से रँग रे रहे जाग स्वप्नोत्पल।
८१
फिर लौटे निज-निज कक्ष शयन;
प्रिय-नयनों में बँध प्रिया-नयन चयनोत्कल
पलकों से स्फरित, स्फुरित-राग
सुनहला भरे पहला सुहाग,
रग-रग से रँग रे रहे जाग स्वप्नोत्पल।
८१
कवि-रुचि में घिर छलकता रुचिर,
जो, न था भाव वह छवि का स्थिर-
बहती उलटी ही आज रुधिर-धारा वह,
लख-लख प्रियतम-मुख पूर्ण-इन्दु
लहराया जो उर मधुर सिन्धु,
विपरीत, ज्वार, जल-विन्दु-विन्दु द्वारा वह।
८२
जो, न था भाव वह छवि का स्थिर-
बहती उलटी ही आज रुधिर-धारा वह,
लख-लख प्रियतम-मुख पूर्ण-इन्दु
लहराया जो उर मधुर सिन्धु,
विपरीत, ज्वार, जल-विन्दु-विन्दु द्वारा वह।
८२
अस्तु रे, विवश, मारुत-प्रेरित,
पर्वत-समीप आकर ज्यों स्थित
घन-नीलालका दामिनी जित ललना वह;
उन्मुक्त-गुच्छ चक्रांक-पुच्छ,
लख नर्तित कवि-शिखि-मन समुच्च
वह जीवन की समझा न तुच्छ छलना वह।
८३
पर्वत-समीप आकर ज्यों स्थित
घन-नीलालका दामिनी जित ललना वह;
उन्मुक्त-गुच्छ चक्रांक-पुच्छ,
लख नर्तित कवि-शिखि-मन समुच्च
वह जीवन की समझा न तुच्छ छलना वह।
८३
बिखरी छूटी शफरी-अलकें,
निष्पात नयन-नीरज पलकें,
भावातुर पृथु उर की छलकें उपशमिता,
निःसम्बल केवल ध्यान-मग्न,
जागी योगिनी अरूप-लग्न,
वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता।
८४
निष्पात नयन-नीरज पलकें,
भावातुर पृथु उर की छलकें उपशमिता,
निःसम्बल केवल ध्यान-मग्न,
जागी योगिनी अरूप-लग्न,
वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता।
८४
कुछ समय अनन्तर, स्थित रहकर,
स्वर्गीयाभा वह स्वरित प्रखर
स्वर में झर-झर जीवन भरकर ज्यों बोली;
अचपल ध्वनि की चमकी चपला,
बल की महिमा बोली अबला,
जागी जल पर कमला, अमला मति डोली-
८५
स्वर्गीयाभा वह स्वरित प्रखर
स्वर में झर-झर जीवन भरकर ज्यों बोली;
अचपल ध्वनि की चमकी चपला,
बल की महिमा बोली अबला,
जागी जल पर कमला, अमला मति डोली-
८५
"धिक धाये तुम यों अनाहूत,
धो दिया श्रेष्ठ कुल-धर्म धूत,
राम के नहीं, काम के सूत कहलाये !
हो बिके जहाँ तुम बिना दाम,
वह नहीं और कुछ-हाड़, चाम !
कैसी शिक्षा, कैसे विराम पर आये !"
८६
धो दिया श्रेष्ठ कुल-धर्म धूत,
राम के नहीं, काम के सूत कहलाये !
हो बिके जहाँ तुम बिना दाम,
वह नहीं और कुछ-हाड़, चाम !
कैसी शिक्षा, कैसे विराम पर आये !"
८६
जागा, जागा संस्कार प्रबल,
रे गया काम तत्क्षण वह जल,
देखा, वामा वह न थी, अनल-प्रतिमा वह;
इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान,
हो गया भस्म वह प्रथम भान,
छूटा जग का जो रहा ध्यान, जड़िमा वह।
८७
रे गया काम तत्क्षण वह जल,
देखा, वामा वह न थी, अनल-प्रतिमा वह;
इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान,
हो गया भस्म वह प्रथम भान,
छूटा जग का जो रहा ध्यान, जड़िमा वह।
८७
देखा, शारदा नील-वसना
हैं सम्मुख स्वयं सृष्टि-रशना,
जीवन-समीर-शुचि-निःश्वसना, वरदात्री,
वाणी वह स्वयं सुवदित स्वर
फूटी तर अमृताक्षर-निर्झर,
यह विश्व हंस, हैं चरण सुघर जिस पर श्री।
८८
हैं सम्मुख स्वयं सृष्टि-रशना,
जीवन-समीर-शुचि-निःश्वसना, वरदात्री,
वाणी वह स्वयं सुवदित स्वर
फूटी तर अमृताक्षर-निर्झर,
यह विश्व हंस, हैं चरण सुघर जिस पर श्री।
८८
दृष्टि से भारती से बँधकर
कवि उठता हुआ चला ऊपर;
केवल अम्बर-केवल अम्बर फिर देखा;
धूमायमान वह घूर्ण्य प्रसर
धूसर समुद्र शशि-ताराहर,
सूझता नहीं क्या ऊर्ध्व, अधर, क्षर रेखा।
८९
कवि उठता हुआ चला ऊपर;
केवल अम्बर-केवल अम्बर फिर देखा;
धूमायमान वह घूर्ण्य प्रसर
धूसर समुद्र शशि-ताराहर,
सूझता नहीं क्या ऊर्ध्व, अधर, क्षर रेखा।
८९
चमकी तब तक तारा नवीन,
द्युति-नील-नील, जिसमें विलीन
हो गयीं भारती, रूप-क्षीण महिमा अब;
आभा भी क्रमशः हुई मन्द,
निस्तब्ध व्योम-गति-रहित छन्द;
आनन्द रहा, मिट गये द्वन्द्व, बन्धन सब।
९०
द्युति-नील-नील, जिसमें विलीन
हो गयीं भारती, रूप-क्षीण महिमा अब;
आभा भी क्रमशः हुई मन्द,
निस्तब्ध व्योम-गति-रहित छन्द;
आनन्द रहा, मिट गये द्वन्द्व, बन्धन सब।
९०
थे मुँदे नयन, ज्ञानोन्मीलित,
कलि में सौरभ ज्यों, चित में स्थित;
अपनी असीमता में अवसित प्राणाशय;
जिस कलिका में कवि रहा बन्द,
वह आज उसी में खुली मन्द,
भारती-रूप में सुरभि-छन्द निष्प्रश्रय।
९१
कलि में सौरभ ज्यों, चित में स्थित;
अपनी असीमता में अवसित प्राणाशय;
जिस कलिका में कवि रहा बन्द,
वह आज उसी में खुली मन्द,
भारती-रूप में सुरभि-छन्द निष्प्रश्रय।
९१
जब आया फिर देहात्मबोध,
बाहर चलने का हुआ शोध,
रह निर्विरोध, गति हुई रोध-प्रतिकूला,
खोलती मृदुल दल बन्द सकल
गुदगुदा विपुल धारा अविचल
बह चली सुरभि की ज्यों उत्कल, निःशूला-
९२
बाहर चलने का हुआ शोध,
रह निर्विरोध, गति हुई रोध-प्रतिकूला,
खोलती मृदुल दल बन्द सकल
गुदगुदा विपुल धारा अविचल
बह चली सुरभि की ज्यों उत्कल, निःशूला-
९२
बाजीं बहती लहरें कलकल,
जागे भावाकुल शब्दोच्छल,
गूँजा जग का कानन-मण्डल, पर्वत-तल
सूना उर ऋषियों का ऊना
सुनता स्वर, हो हर्षित, दूना,
आसुर भावों से जो भूना, था निश्चल।
९३
जागे भावाकुल शब्दोच्छल,
गूँजा जग का कानन-मण्डल, पर्वत-तल
सूना उर ऋषियों का ऊना
सुनता स्वर, हो हर्षित, दूना,
आसुर भावों से जो भूना, था निश्चल।
९३
जागो, जागो आया प्रभात,
बीती वह, बीती अन्ध रात,
झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वाचल
बाँधो, बाँधो किरणें चेतन,
तेजस्वी, है तमजिज्जीवन,
आती भारत की ज्योर्धन महिमाबल।
९४
बीती वह, बीती अन्ध रात,
झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वाचल
बाँधो, बाँधो किरणें चेतन,
तेजस्वी, है तमजिज्जीवन,
आती भारत की ज्योर्धन महिमाबल।
९४
होगा फिर से दुर्धर्ष समर
जड़ से चेतन का निशिवासर,
कवि का प्रति छवि से जीवनहर, जीवन भर
भारती इधर, हैं उधर सकल
जड़ जीवन के संचित कौशल
जय इधर, ईश, हैं उधर सबल माया-कर।
९५
जड़ से चेतन का निशिवासर,
कवि का प्रति छवि से जीवनहर, जीवन भर
भारती इधर, हैं उधर सकल
जड़ जीवन के संचित कौशल
जय इधर, ईश, हैं उधर सबल माया-कर।
९५
हो रहे आज जो खिन्न-खिन्न
छुट-छुटकर दल से भिन्न-भिन्न
वह अकल-कला, गह सकल छिन्न, जोड़ेगी,
रवि-कर ज्यों विन्दु-विन्दु जीवन
संचित कर करता है वर्षण,
लहरा भव-पादप, मर्षण-मन मोड़ेगी।
९६
छुट-छुटकर दल से भिन्न-भिन्न
वह अकल-कला, गह सकल छिन्न, जोड़ेगी,
रवि-कर ज्यों विन्दु-विन्दु जीवन
संचित कर करता है वर्षण,
लहरा भव-पादप, मर्षण-मन मोड़ेगी।
९६
देश-काल के शर से बिंधकर
यह जागा कवि अशेष-छविधर
इनका स्वर भर भारती मुखर होयेंगी
निश्चेतन, निज तन मिला विकल,
छलका शत-शत कल्मष के छल
बहतीं जो, वे रागिनी सकल सोयेंगी।
९७
यह जागा कवि अशेष-छविधर
इनका स्वर भर भारती मुखर होयेंगी
निश्चेतन, निज तन मिला विकल,
छलका शत-शत कल्मष के छल
बहतीं जो, वे रागिनी सकल सोयेंगी।
९७
तम के अमार्ज्य रे तार-तार
जो, उन पर पड़ी प्रकाश-धार
जग-वीणा के स्वर के बहार रे, जागो
इस कर अपने कारुणिक प्राण
कर लो समक्ष देदिप्यमान-
दे गीत विश्व को रुको, दान फिर माँगो।
९८
जो, उन पर पड़ी प्रकाश-धार
जग-वीणा के स्वर के बहार रे, जागो
इस कर अपने कारुणिक प्राण
कर लो समक्ष देदिप्यमान-
दे गीत विश्व को रुको, दान फिर माँगो।
९८
क्या हुआ कहाँ, कुछ नहीं सुना,
कवि ने निज मन भाव में गुना,
साधना जगी केवल अधुना प्राणों की,
देखा सामने, मूर्ति छल-छल
नयनों में छलक रही, अचपल,
उपमिता न हुई समुच्च सकल तानों की।
९९
कवि ने निज मन भाव में गुना,
साधना जगी केवल अधुना प्राणों की,
देखा सामने, मूर्ति छल-छल
नयनों में छलक रही, अचपल,
उपमिता न हुई समुच्च सकल तानों की।
९९
जगमग जीवन का अन्त्य भाष-
जो दिया मुझे तुमने प्रकाश,
अब रहा नहीं लेशावकाश रहने का
मेरा उससे गृह के भीतर,
देखूँगा नहीं कभी फिरकर,
लेता मैं, जो वर जीवन-भर बहने का।
१००
जो दिया मुझे तुमने प्रकाश,
अब रहा नहीं लेशावकाश रहने का
मेरा उससे गृह के भीतर,
देखूँगा नहीं कभी फिरकर,
लेता मैं, जो वर जीवन-भर बहने का।
१००
चल मन्द चरण आये बाहर,
उर में परिचित वह मूर्ति सुघर
जागी विश्वाश्रय महिमाधर, फिर देखा-
संकुचित, खोलती श्वेत पटल
बदली, कमला तिरती सुख-जलष
प्राची-दिगन्त-उर में पुष्कल रवि-रेखा।
समाप्त
उर में परिचित वह मूर्ति सुघर
जागी विश्वाश्रय महिमाधर, फिर देखा-
संकुचित, खोलती श्वेत पटल
बदली, कमला तिरती सुख-जलष
प्राची-दिगन्त-उर में पुष्कल रवि-रेखा।
समाप्त
रविवार, 16 अगस्त 2020
विरासत देवराज दिनेश
विरासत
देवराज दिनेश
*
आह्वान
देवराज दिनेश
*
आह्वान
ध्यान से सुनें राष्ट्र-संतान, राष्ट्र का मंगलमय आह्वान.
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र पर घिरी आपदा डेक,सजग हों युग के भामाशाह
दान में दे अपना सर्वस्व और पूरी कर मन की चाह
राष्ट्र के रक्षा के हित आज,खोल दो अपना कोष कुबेर
नहीं तो पछताओगे मीत,हो गई अगर तनिक भी देर
समझकर हमें निहत्था,प्रबल शत्रु ने हम पर किया प्रहार
किन्तु अपना तो यह आदर्श,किसी का रखते नहीं उधार
हमें भी ब्याज सहित प्रतिउत्तर उनको देना है तत्काल
शीघ्र अपनानी होगी शिव को रिपु के नरमुंडों की माल
राष्ट्र को आज चाहिए वीर, वीर भी हठी हमीर समान .
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
दान में दे अपना सर्वस्व और पूरी कर मन की चाह
राष्ट्र के रक्षा के हित आज,खोल दो अपना कोष कुबेर
नहीं तो पछताओगे मीत,हो गई अगर तनिक भी देर
समझकर हमें निहत्था,प्रबल शत्रु ने हम पर किया प्रहार
किन्तु अपना तो यह आदर्श,किसी का रखते नहीं उधार
हमें भी ब्याज सहित प्रतिउत्तर उनको देना है तत्काल
शीघ्र अपनानी होगी शिव को रिपु के नरमुंडों की माल
राष्ट्र को आज चाहिए वीर, वीर भी हठी हमीर समान .
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र के कण-कण में आज उठ रही गर्वीली आवाज़
वक्ष पर झेल प्रबल तूफान शत्रु पर हमें गिरानी गाज
देश की सीमाओं पर पागल कौवे मचा रहे हैं शोर
अभी देगा उनको झकझोर,बली गोविन्द सिंह का बाज
किया था हमने जिससे नेह,दिया था जिसको अपना प्यार
बना वह आस्तीन का सांप,हमीं पर आज कर रहा वार
समझ हमको उन्मत्त मयूर,मगन-मन देख नृत्य में लीन
किया आघात,न उसको ज्ञात,सांप है मोरों का आहार
राष्ट्र चाहेगा जैसा,वैसा हीं अब हम देंगे बलिदान .
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
वक्ष पर झेल प्रबल तूफान शत्रु पर हमें गिरानी गाज
देश की सीमाओं पर पागल कौवे मचा रहे हैं शोर
अभी देगा उनको झकझोर,बली गोविन्द सिंह का बाज
किया था हमने जिससे नेह,दिया था जिसको अपना प्यार
बना वह आस्तीन का सांप,हमीं पर आज कर रहा वार
समझ हमको उन्मत्त मयूर,मगन-मन देख नृत्य में लीन
किया आघात,न उसको ज्ञात,सांप है मोरों का आहार
राष्ट्र चाहेगा जैसा,वैसा हीं अब हम देंगे बलिदान .
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र को चाहिए देवी कैकेयी का अदम्य उत्साह
धूरी टूटे रण की,दे बाँह, पराजय को दे जय की राह
राष्ट्र को आज चाहिए गीता के नायक का वह उद्घोष
मोह ताज हर अर्जुन के मानस-पट पर लहराए आक्रोश
आधुनिक इन्द्र कर रहा आज राष्ट्र हित इंद्रधनुष निर्माण
यही है धर्म बनें हम इंद्रधनुष की प्रत्यंचा के बाण
इन्द्र-धनु रूपी प्रबल एकता की सतरंगी छवि को देख
शत्रु के माथे पर भी आज खिंच रही है चिंता की रेख
राष्ट्र को आज चाहिए एकलव्य से साधक निष्ठावान.
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
धूरी टूटे रण की,दे बाँह, पराजय को दे जय की राह
राष्ट्र को आज चाहिए गीता के नायक का वह उद्घोष
मोह ताज हर अर्जुन के मानस-पट पर लहराए आक्रोश
आधुनिक इन्द्र कर रहा आज राष्ट्र हित इंद्रधनुष निर्माण
यही है धर्म बनें हम इंद्रधनुष की प्रत्यंचा के बाण
इन्द्र-धनु रूपी प्रबल एकता की सतरंगी छवि को देख
शत्रु के माथे पर भी आज खिंच रही है चिंता की रेख
राष्ट्र को आज चाहिए एकलव्य से साधक निष्ठावान.
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र को आज चाहिए चंद्रगुप्त की प्रबल संगठन-शक्ति
राष्ट्र को आज चाहिए अपने प्रति राणाप्रताप की शक्ति
राष्ट्र को आज चाहिए रक्त, शत्रु का हो या अपना रक्त
राष्ट्र को आज चाहिएभक्त, भक्त भी भगतसिंह के भक्त
राष्ट्र को आज चाहिए फिर बादल जैसे बालक रणधीर
राष्ट्र की सुख-समृद्धि ले आयें,तोड़ रिपु कारा की प्राचीर
और बूढ़े सेनानी गोरा की वह गर्व भरी हुंकार
शत्रु के छूट जाये प्राण, अगर दे मस्ती से ललकार
राष्ट्र को आज चाहिए फिर अपना अल्हड़ टीपू सुल्तान
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
राष्ट्र को आज चाहिए अपने प्रति राणाप्रताप की शक्ति
राष्ट्र को आज चाहिए रक्त, शत्रु का हो या अपना रक्त
राष्ट्र को आज चाहिएभक्त, भक्त भी भगतसिंह के भक्त
राष्ट्र को आज चाहिए फिर बादल जैसे बालक रणधीर
राष्ट्र की सुख-समृद्धि ले आयें,तोड़ रिपु कारा की प्राचीर
और बूढ़े सेनानी गोरा की वह गर्व भरी हुंकार
शत्रु के छूट जाये प्राण, अगर दे मस्ती से ललकार
राष्ट्र को आज चाहिए फिर अपना अल्हड़ टीपू सुल्तान
राष्ट्र को आज चाहिए दान , दान में नवयुवकों के प्राण.
आज अनजाने में ही प्रबल शत्रु ने करके वज्र प्रहार
हमारे जनमानस की चेतना के खोल दिये हैं द्वार
राष्ट्र-हित इससे पहले कभी न जागी थी ऐसी अनुरक्ति
संगठित होकर रिपु से आज बात कर रही हमारी शक्ति
प्रतापी शक्तिसिंह भी देश-द्रोह का जामा आज उतार
राष्ट्र की तूफानी लहरों में करता है गति का संचार
आज फिर नूतन हिंदुस्तान लिख रहा है अपना इतिहास.
राष्ट्र के पन्ने-पन्ने पर अंकित अपना अदम्य विश्वास .
-----------------------------
मत कहना
मैं तेरे पिंजरे का तोता
तू मेरे पिंजरे की मैना
यह बात किसी से मत कहना।
*
मैं तेरी आंखों में बंदी
तू मेरी आंखों में प्रतिक्षण
मैं चलता तेरी सांस–सांस
तू मेरे मानस की धड़कन
मैं तेरे तन का रत्नहार
तू मेरे जीवन का गहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
हम युगल पखेरू हंस लेंगे
कुछ रो लेंगे कुछ गा लेंगे
हम बिना बात रूठेंगे भी
फिर हंस कर तभी मना लेंगे
अंतर में उगते भावों के
जलजात किसी से मत कहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
क्या कहा! कि मैं तो कह दूंगी!
कह देगी तो पछताएगी
पगली इस सारी दुनियां में
बिन बात सताई जाएगी
पीकर प्रिये अपने नयनों की बरसात
विहंसती ही रहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
हम युगों युगों के दो साथी
अब अलग अलग होने आए
कहना होगा तुम हो पत्थर
पर मेरे लोचन भर आए
पगली इस जग के अतल–सिंधु मे
अलग अलग हमको बहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
***
हमारे जनमानस की चेतना के खोल दिये हैं द्वार
राष्ट्र-हित इससे पहले कभी न जागी थी ऐसी अनुरक्ति
संगठित होकर रिपु से आज बात कर रही हमारी शक्ति
प्रतापी शक्तिसिंह भी देश-द्रोह का जामा आज उतार
राष्ट्र की तूफानी लहरों में करता है गति का संचार
आज फिर नूतन हिंदुस्तान लिख रहा है अपना इतिहास.
राष्ट्र के पन्ने-पन्ने पर अंकित अपना अदम्य विश्वास .
-----------------------------
मत कहना
मैं तेरे पिंजरे का तोता
तू मेरे पिंजरे की मैना
यह बात किसी से मत कहना।
*
मैं तेरी आंखों में बंदी
तू मेरी आंखों में प्रतिक्षण
मैं चलता तेरी सांस–सांस
तू मेरे मानस की धड़कन
मैं तेरे तन का रत्नहार
तू मेरे जीवन का गहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
हम युगल पखेरू हंस लेंगे
कुछ रो लेंगे कुछ गा लेंगे
हम बिना बात रूठेंगे भी
फिर हंस कर तभी मना लेंगे
अंतर में उगते भावों के
जलजात किसी से मत कहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
क्या कहा! कि मैं तो कह दूंगी!
कह देगी तो पछताएगी
पगली इस सारी दुनियां में
बिन बात सताई जाएगी
पीकर प्रिये अपने नयनों की बरसात
विहंसती ही रहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
*
हम युगों युगों के दो साथी
अब अलग अलग होने आए
कहना होगा तुम हो पत्थर
पर मेरे लोचन भर आए
पगली इस जग के अतल–सिंधु मे
अलग अलग हमको बहना!
यह बात किसी से मत कहना!!
***
चिप्पियाँ Labels:
देवराज दिनेश,
विरासत
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020
विरासत : दिनकर
विरासत : दिनकर
(२३-९-१९०८ सिमरिया, बेगूसराय - २४-४-१९७४)
(२३-९-१९०८ सिमरिया, बेगूसराय - २४-४-१९७४)
काव्य संग्रह : प्रणभंग १९२९, रेणुका १९३५, हुंकार १९३८, रसवंती १९३९, द्वन्द्गीत १९४०, कुरुक्षेत्र १९४६, धूपछाँह १९४६, सामधेनी १९४७, बापू १९४७, इतिहास के आंसू १९५१, धूप और धुआँ १९५१, रश्मिरथी १९५४, नीम के पत्ते १९५४, दिल्ली १९५४, नीलकुसुम १९५५, सूरज का ब्याह १९५५, नए सुभाषित १९५७,सीपी और शंख १९५७, परशुराम की प्रतीक्षा १९५७, कविश्री १९५७, कोयला और कवित्व १९६४, मृत्तितिलक १९६४, हारे को हरिनाम १९७०। अनुवाद : आत्मा की आँखें - डी. एच. लारेंस १९६४। खंड काव्य : उर्वशी १९६१। रचना संग्रह : चक्रवाल १९५६, सपनों का धुंआ, रश्मिमला, भग्नवीणा, समर निंद्य है, समानांतर, अमृत मंथन, लोकप्रिय दिनकर १९६०, दिनकर की सूक्तियाँ १९६४, दिनकर के गीत १९७३, संचयिता १९७३। बाल काव्य : चाँद का कुरता, नमन करून मैं, सूरज का ब्याह, चूहे की दिल्ली यात्रा, मिर्च का मजा। प्रतिनिधि रचनाएँ : सिंहासन खली करो की जनता आती है, जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे, परंपरा, परिचय, दिल्ली, झील, वातायन, समुद्र का पानी, कृष्ण की चेतावनी, ध्वज वंदना, आग की भीख, बालिका से वधु, जियो अय हिंदुस्तान, कुंजी, परदेशी, एक पात्र, एक विलुप्त कविता, गाँधी, आशा का दीपक, कलम आज उनकी जय बोल, शक्ति और क्षमा, हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों, गीत-अगीत, लेन-देन, निराशावादी, रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, लोहे के मर्द, विजयी के सदृश जियो रे, समर शेष है, पढ़क्कू की सूझ, वीर, मनुष्यता, पर्वतारोही, करघा, चाँद एक दिन, भारत, भगवन के डाकिए, भारत, जनतंत्र का जन्म, शोक की संतान, जब आग लगे, पक्षी और बादल, राजा वसंत वर्ष ऋतुओं की रानी, मेरे नगपति! मेरे विशाल!, लोहे के पेड़ हरे होंगे, सिपाही, रोटी और स्वाधीनता, अवकाशवाली सभ्यता, व्याल-विजय, माध्यम, स्वर्ग, कलम या कि तलवार, हमारे कृषक।
*
वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की ?
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की ?
और तब सम्मान से जाते गिने
नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
देश की इज्जत बचाने के लिए
या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।
नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
देश की इज्जत बचाने के लिए
या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।
ईश जानें, देश का लज्जा विषय
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र ,भूखे बालक अकुलाते हैं;
माँ की हड्डी से चिपक ,ठिठुर जाड़ो की रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा-वसन बेच,जब ब्याज चुकाये जाते हैं;
मालिक जब -फुलेलों पर,पानी सा द्रव्य बहाते हैं।
माँ की हड्डी से चिपक ,ठिठुर जाड़ो की रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा-वसन बेच,जब ब्याज चुकाये जाते हैं;
मालिक जब -फुलेलों पर,पानी सा द्रव्य बहाते हैं।
'जब तक मनुज मनुज का
यह सुख-भाग नहीं सम होगा।
शमित न होगा कोलाहल,
संघर्ष नहीं कम होगा।
यह सुख-भाग नहीं सम होगा।
शमित न होगा कोलाहल,
संघर्ष नहीं कम होगा।
लोहे के पेड़ हरे होंगे
गान प्रेम का गाता चल
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर
आंसू के कण बरसाता चल।
गान प्रेम का गाता चल
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर
आंसू के कण बरसाता चल।
'ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है;
अपना सुख उसने अपने भुज बल से पाया है।
मनुज नहीं लाया है;
अपना सुख उसने अपने भुज बल से पाया है।
दिनकर जी ने जनजागरण को प्रखर करने का काम किया।उनकी कविताओं में ओज, तेज है,अग्नि समान तीव्र ताप है।उसमें यौवन का हुंकार है,नव निर्माण की भावना है,कर्म का सन्देश है,आशावाद के स्वर हैं,दिनकर जी अद्वितीय हैं।
शुक्रवार, 7 जून 2013
virasat: geet naman karoon.. som thakur
विरासत :
गीत -
सौ सौ नमन करूँ...
सोम ठाकुर
*
सागर पखारे गंगा शीश चढ़ाए नीर,
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
उत्तर मन मोहे, दक्षिण में रामेश्वर,
पूरब पूरी बिराजे, पच्छिम धाम द्वारका सुन्दर।
जो न्हावै मथुरा जी-कासी छूटै लख चौरासी-
कान्हा रास रचै में जमुना के तीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
फूटें रंग भोर के वन में, खोलें गंध किवरियाँ,
हरी झील में दिप-दिप तैरें मछली सी किन्नरियाँ।
लहर-लहर में झेलम झूलै, गाये मीठी लोरी-
परबत के पीछे सोहे नित चंदा सो कश्मीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
चैत चाँदनी हँसे पूस में, पछुवा तन-मन परसै,
जेठ तपै झरती गिरिजा सी, सावन अमृत बरसै।
फागुन फर-फर भावै ऐंसी के सैयां पिचकारी-
आँगन भीजै, तन-मन भीजै औ' पचरंगी चीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
फूटें-फरें मटर की घुटियाँ, धरने झरें झरबेरी,
मिले कलेऊ में बाजरा की रोटी, मठा-महेरी।
बेटा मांगे गुड की डेली, बिटिया चना-चबेना-
भाभी मांगें खट्टी अमिया, भैया रस की खीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
रजा बिकें टका में भैया ऐसो देस हमारो,
सबकें पालनहारो सुत पै खुद चलवावै आरो।
लछमन जागें सारी रैना, सिया तपाएं रसोई-
वल्कल तन पर बाँधे सोहें जटा-जूट रघुवीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
मंगल भवन अमंगलहारी के जस तुलसी गावैं,
सूरदास काउ स्याम रंगो मन अनत कहै सुख पावै।
हँस कें पिए गरल को प्यालो प्रेम-दीवानी मीरां-
ज्यों की त्यों धर दई चदरिया, कह गै दास कबीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
नित रसखान पठान गाये ब्रिज की लीला लासानी,
रौशन सिंह के संग देंय अशफाकुल्ला क़ुर्बानी।
चार हांथ धरती पुतर है शाह ज़फर की काया-
गाये कन्हैया को बालापन जनकवि मियाँ नजीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
लाली अभी न छूटी भैया, अभी न मेद न भूले,
बियर लाडले सीना ताने फांसी ऊपर झूले।
गोलाबर सी नंगी पीठें बंधी तोप के आगे-
आन्गारण में कौंधी सन सत्तावन की शमशीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
ऐसो कछू करौ मिल-जुल कें, ऐसो कछू बिचारो,
फहर-फहर फहराय तिरंगो पहियों चक्करबारो।
कहूं न अचरा अटके याको कहूं न पिचै अंगुरिया
दूर करो या धरती मैया के माथे की पीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
गीत -
सौ सौ नमन करूँ...
सोम ठाकुर
*
सागर पखारे गंगा शीश चढ़ाए नीर,
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
उत्तर मन मोहे, दक्षिण में रामेश्वर,
पूरब पूरी बिराजे, पच्छिम धाम द्वारका सुन्दर।
जो न्हावै मथुरा जी-कासी छूटै लख चौरासी-
कान्हा रास रचै में जमुना के तीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
फूटें रंग भोर के वन में, खोलें गंध किवरियाँ,
हरी झील में दिप-दिप तैरें मछली सी किन्नरियाँ।
लहर-लहर में झेलम झूलै, गाये मीठी लोरी-
परबत के पीछे सोहे नित चंदा सो कश्मीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
चैत चाँदनी हँसे पूस में, पछुवा तन-मन परसै,
जेठ तपै झरती गिरिजा सी, सावन अमृत बरसै।
फागुन फर-फर भावै ऐंसी के सैयां पिचकारी-
आँगन भीजै, तन-मन भीजै औ' पचरंगी चीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
फूटें-फरें मटर की घुटियाँ, धरने झरें झरबेरी,
मिले कलेऊ में बाजरा की रोटी, मठा-महेरी।
बेटा मांगे गुड की डेली, बिटिया चना-चबेना-
भाभी मांगें खट्टी अमिया, भैया रस की खीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
रजा बिकें टका में भैया ऐसो देस हमारो,
सबकें पालनहारो सुत पै खुद चलवावै आरो।
लछमन जागें सारी रैना, सिया तपाएं रसोई-
वल्कल तन पर बाँधे सोहें जटा-जूट रघुवीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
मंगल भवन अमंगलहारी के जस तुलसी गावैं,
सूरदास काउ स्याम रंगो मन अनत कहै सुख पावै।
हँस कें पिए गरल को प्यालो प्रेम-दीवानी मीरां-
ज्यों की त्यों धर दई चदरिया, कह गै दास कबीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
नित रसखान पठान गाये ब्रिज की लीला लासानी,
रौशन सिंह के संग देंय अशफाकुल्ला क़ुर्बानी।
चार हांथ धरती पुतर है शाह ज़फर की काया-
गाये कन्हैया को बालापन जनकवि मियाँ नजीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
लाली अभी न छूटी भैया, अभी न मेद न भूले,
बियर लाडले सीना ताने फांसी ऊपर झूले।
गोलाबर सी नंगी पीठें बंधी तोप के आगे-
आन्गारण में कौंधी सन सत्तावन की शमशीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
*
ऐसो कछू करौ मिल-जुल कें, ऐसो कछू बिचारो,
फहर-फहर फहराय तिरंगो पहियों चक्करबारो।
कहूं न अचरा अटके याको कहूं न पिचै अंगुरिया
दूर करो या धरती मैया के माथे की पीर
मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर
सौ-सौ नमन करूँ मैं भैया सौ-सौ नमन करूँ...
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सोमवार, 3 जून 2013
virasat veeron ka kaisa ho basant subhadra kumari chauhan
विरासत :
वीरों का कैसा हो बसंत
सुभद्रा कुमारी चौहान
सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। १९०४ में
इलाहाबाद जिले के निहालपुर ग्राम में जन्मीं सुभद्रा खंडवा के ठाकुर
लक्ष्मण सिंह से विवाहोपरांत जबलपुर में रहीं। उन्होंने १९२१ के असहयोग
आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। नागपुर में गिरफ्तारी देकर वे असहयोग
आन्दोलन में गिरफ्तार पहली महिला सत्याग्रही बनीं. वे दो
बार १९२३ और १९४२ में गिरफ्तार होकर जेल भी गयीं। उनकी अनेकों रचनाएं आजादी
के पूर्व के दिनों की तरह आज भी उसी प्रेम और उत्साह से पढी जाती हैं।
"सेनानी का स्वागत", "वीरों का कैसा हो वसंत" और "झांसी की रानी" उनकी
ओजस्वी वाणी के जीवंत उदाहरण हैं। वे जितनी वीर थीं उतनी ही दयालु भी थीं।
वे लोकप्रिय विधायिका भी रहीं। १५ फरवरी १९४८ में एक कार दुर्घटना के बहाने से ईश्वर ने इस
महान कवयित्री और वीर स्वतन्त्रता सेनानी को हमसे छीन लिया। प्रस्तुत है
सुभद्रा कुमारी चौहान की मर्मस्पर्शी रचना, "जलियाँवाला बाग में वसंत"
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।
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virasat
शुक्रवार, 31 मई 2013
virasat: bachpan -subhadra kumari chauhan
विरासत : बचपन
सुभद्रा कुमारी चौहान
*
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया, ले गया तू जीवन की सबसे मस्त ख़ुशी मेरी
चिंतारहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय-स्वच्छंद
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी
बनी हुई थी वहाँ झोपड़ी और चीथड़ों में रानी
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे?
बड़े-बड़े मोती से आँसू जयमाला पहनाते थे
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आई मुझको उठा लिया
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम गीले गालों को सुखा दिया
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे
धुली हुई मुस्कान देखकर सबके चेहरे चमक उठे
यह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमंग रंगीली थी
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल-छबीली थी
दिल में एक चुभन सी थी यह दुनिया अलबेली थी
मन में एक पहेली थी मैं सबके बीच अकेली थी
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं
प्यारी, प्रीतम की रंग-रलियों की स्मृतियाँ भी न्यारी हैं
माना मैंने युवा काल का जीवन खूब निराला है
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है
किन्तु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना
आ जा बचपन एक बार फिर दे दे अपनी निर्म, शांति
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति
वह भोली सी मधुर सरलता, वह प्यारा जीवन निष्पाप
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
नन्दन वन सी फूल उठी यह छोटी सी कुटिया मेरी
'माँ माँ' कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा
मुँह पर थी आल्हाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा
मैंने पूछा यह क्या लाई? बोल उठी वह- "माँ काओ"
हुआ प्रफुल्लित ह्रदय खुशी से मैंने कहा "तुम्हीं खाओ"
पाया मैंने बचपन फिर से प्यारी बेटी बन आया
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझमें नवजीवन आया
मैं भी उसके साथ खेलती-खाती हूँ, तुतलाती हूँ
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ
जिसे खोजती थी बचपन से अब जाकर उसको पाया
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया
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