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सोमवार, 30 सितंबर 2024

सितंबर ३०, मुक्तिका, राम, चंद्र मंत्र, रावण ​वध, दशहरा, दहेज़,

सलिल सृजन सितंबर ३०
*
एक दोहा
अमिधा हो या लक्षणा, बिना व्यंजना सून
दोहे में हो व्यंजना, रसानन्द हो दून
३०.९.२०२०
दोहे दहेज़ पर
*
लें दहेज़ में स्नेह दें, जी भरकर सम्मान
संबंधों को मानिए, जीवन की रस-खान
*
कुलदीपक की जननी को, रखिए चाह-सहेज
दान ग्रहण कर ला सके, सच्चा यही दहेज
*
तीसमारखां गए थे, ले बाराती साथ
जीत न पाए हैं किला, आए खाली हाथ
*
शत्रुमर्दिनी अकेली, आयी बहुत प्रबुद्ध
कब्ज़ा घर भर पर किया, किया न लेकिन युद्ध
*
जो दहेज की माँग कर, घटा रहे निज मान
समझें जीवन भर नहीं, पाएँगे सम्मान
३०-९-२०१८
***
​​: शोध :
रावण ​वध ​की तिथि दशहरा ​नहीं​
*
रावण ब्राम्हण था जिसके वध से लगे ब्रम्ह हत्या के पाप हेतु सूर्यवंशी राम को प्रायश्चित्य करना पड़ा था। रावण वध के बाद उसकी अंत्येष्टि उसके अनुज विभीषण ने की थी, राम ने नहीं। रामलीला के बाद राम के बाण से रावण का दाह संस्कार किया जाना तथ्यात्मक रूप से पूरी तरह गलत, अप्रामाणिक और अस्वीकार्य है। रावण का जन्म दिल्ली के समीप एक गाँव में हुआ, सुर तथा असुर मौसेरे भाई थे जिन्होंने दो भिन्न संस्कृतियों और राज सत्ताओं को जन्म दिया। उनमें वैसा ही विकराल युद्ध हुआ जैसा द्वापर में चचेरे भाइयों कौरव-पांडव में हुआ, उसी तरह एक पक्ष से सत्ता छिन गई। पदम पुराण, पातालखंड ​के अनुसार युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक ८७ दिन तक था। संग्राम के मध्य विविध कारणों से १५ दिन युद्ध बंद रहा। ​इस महासंग्राम​ का समापन लंकाधिराज रावण के संहार से हुआ। राम द्वारा रावण वध क्वार सुदी दशमी को नहीं चैत्र बदी चतुर्दशी को किया गया था।

ऋषि आरण्यक द्वारा सत्योद्घाटन- ​
पद्मपुराण​, पाताल खंड में श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग में अश्व रक्षा के लिए जा रहे शत्रुध्न ऋषि आरण्यक के आश्रम में ​पहुँचकर, परिचय देकर प्रणाम करते ​हैं। शत्रुघ्न को गले से लगाकर प्रफुल्लित आरण्यक ऋषि बोले- ''गुरु का वचन सत्य हुआ। सारुप्य मोक्ष का समय आ गया।'' उन्होंने गुरू लोमश द्वारा पूर्णावतार राम के माहात्म्य ​के उपदेश ​का उल्लेख कर बताया ​कि गुरु ने कहा ​था कि जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा ​आश्रम में आयेगा, रामानुज शत्रुघ्न से भेंट होगी। वे तुम्हें राम के पास ​पहुँचा देंगे। ऋषि आरण्यक रामनाम की महिमा के साथ नर रूप में राम के जीवन वृत्त को तिथिवार उद्घाटित करते हैं- ''जनकपुरी में धनुष यज्ञ में राम-लक्ष्मण के साथ विश्वामित्र का पहुँचना​,​ राम द्वारा धनुष-भंग, राम-सीता विवाह ​आदि प्रसंग सुनाते हुए आरण्यक ने बताया विवाह के समय राम ​१५ वर्ष के और सीता ​६ वर्ष की ​थीं। विवाहोपरांत वे ​१२ वर्ष अयोध्या में रहे,​ २७ वर्ष की आयु में राम के अभिषेक की तैयारी हुई मगर रानी कैकेई द्वारा राम वनवास का वर ​माँगने पर सीता व लक्ष्मण के साथ श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास में जाना पड़ा।

वनवास में राम प्रारंभिक ३ दिन जल पीकर रहे, चौथे दिन से फलाहार लेना शुरू किया। ​पाँचवे दिन वे चित्रकूट पहुँचे। श्री राम ​ने ​चित्रकूट में​ १२ वर्ष ​प्रवास किया। ​१३ वें वर्ष के प्रारंभ में ३९ वर्षीय राम, लक्ष्मण और ३० वर्षीय सीता के साथ पंचवटी पहुँचे और शूर्प​णखा को कुरूप किया। माघ कृष्ण अष्टमी को वृन्द मुहूर्त में लंकाधिराज दशानन ने साधुवेश में सीता हरण किया। श्रीराम व्याकुल होकर सीता की खोज में लगे रहे। जटायु का उद्धार व शबरी मिलन के बाद ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे, सुग्रीव से मित्रता कर बालि का बध किया।​ बाल्मीकि रामायण, राम चरित मानस तथा अन्य ग्रंथों के अनुसार राम ने वर्षाकाल में चार माह ऋष्यमूक पर्वत पर ​बिताए थे। ​मानस में श्री राम लक्ष्मण से कहते हैं-
'​घन घमंड गरजत चहु ओरा। प्रियाहीन डरपत मन मोरा।।'

आषाढ़ सुदी एकादशी से चातुर्मास प्रारंभ हुआ। शरद ऋतु के उत्तरार्द्ध यानी कार्तिक शुक्लपक्ष से वानरों ने सीता की खोज आरंभ की गई। समुद्र तट पर कार्तिक शुक्ल नवमी को संपाति नामक गिद्ध ने बताया कि सीता लंका की अशोक वाटिका में हैं। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थानी) को हनुमान ने ​सागर पार किया और रात में लंका प्रवेश कर सीता की खोज-बीन ​आरम्भ की।कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अशोक वाटिका में शिंशुपा वृक्ष पर छिप गये और माता सीता को रामकथा सुनाई। कार्तिक शुक्ल तेरस को अशोक वाटिका विध्वं​सकर, उसी दिन अक्षय कुमार का वध किया। कार्तिक शुक्ल चौदस को मेघनाद के ब्रह्मपाश में ​बँधकर दरबार में गए और लंकादहन किया। हनुमानजी ​ने ​कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को वापसी में समुद्र पार किया। प्रफुल्लित वानर​ दल ​ने नाचते​-​गाते ​५ दिन मार्ग में लगाये और अगहन कृष्ण षष्ठी को मधुवन में आकर वन ध्वंस किया हनुमान की अगवाई में सभी वानर अगहन कृष्ण सप्तमी को श्रीराम के समक्ष पहुँचे, हाल-चाल दिये। मानस के अनुसार श्री राम ने सुग्रीव से कहा- 'अब विलंब केहि कारन कीजे, तुरन कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे'।

यात:, अगहन कृष्ण अष्टमी ​उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र विजय मुहूर्त में श्रीराम ने वानरों के साथ दक्षिण दिशा को कूच किया और ​७ दिन में किष्किंधा से समुद्र तट पहुँचे। अगहन शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक विश्राम किया। अगहन शुक्ल चतुर्थ को रावणानुज श्रीरामभक्त विभीषण शरणागत हुआ। अगहन शुक्ल पंचमी को समुद्र पार जाने के उपायों पर चर्चा हुई। सागर से मार्ग ​की ​याचना में श्रीराम ने अगहन शुक्ल षष्ठी से नवमी तक ​४ दिन उपवास किया। नवमी को अग्निवाण का संधान हुआ तो रत्नाकर प्रकट हुए और सेतुबंध का उपाय सुझाया। अगहन शुक्ल दशमी से तेरस तक ​४ दिन में श्रीराम सेतु बनकर तैयार हुआ।

अगहन शुक्ल चौदस को श्रीराम ने समुद्र पार सुवेल पर्वत पर प्रवास किया, अगहन शुक्ल पूर्णिमा से पौष कृष्ण द्वितीया तक ​३ दिन में वानरसेना सेतुमार्ग से समुद्र पार कर पाई। पौष कृष्ण तृतीया से दशमी तक एक सप्ताह लंका का घेराबंदी चली। पौष कृष्ण एकादशी को ​रावण के गुप्तचर ​सुक​-​सारन ​वानर वेश धारण कर ​वानर सेना में घुस आए। पौष कृष्ण द्वादशी को वानरों की गणना हुई और ​उन्हें ​पहचान कर​ ​पकड़ा गया और शरणागत होने पर श्री राम द्वारा अभयदान दिया। पौष कृष्ण तेरस से अमावस्या तक रावण ने गोपनीय ढंग से सैन्याभ्यास किया।

​श्री राम द्वारा शांति-प्रयास का अंतिम उपाय करते हुए ​पौष शुक्ल प्रतिपदा को अंगद को दूत बनाकर भेजा गया।​ ​अंगद के विफल लौटने पर ​पौष शुक्ल द्वितीया से युद्ध आरंभ हुआ। अष्टमी तक वानरों व राक्षसों में घमासान युद्ध हुआ। पौष शुक्ल नवमी को मेघनाद द्वारा राम लक्ष्मण को नागपाश में ​जकड़ दिया गया। श्रीराम के कान में कपीश द्वारा पौष शुक्ल दशमी को गरुड़ मंत्र का जप किया गया, पौष शुक्ल एकादशी को गरुड़ का प्राकट्य हुआ और उन्होंने नागपाश काटकर राम-लक्ष्मण को मुक्त किया। पौष शुक्ल द्वादशी को ध्रूमाक्ष्य बध, पौष शुक्ल तेरस को कंपन बध, पौष शुक्ल चौदस से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक ३ दिनों में कपीश नील द्वारा प्रहस्तादि का वध किया गया।

माघ कृष्ण द्वितीया से राम-रावण में विकराल युद्ध प्रारम्भ हुआ। माघ कृष्ण चतुर्थी को रावण को भागना पड़ा। रावण ने माघ कृष्ण पंचमी से अष्टमी तक ​४ दिन में कुंभकरण को जगाया। माघ कृष्ण नवमी से शुरू हुए युद्ध में छठे दिन चौदस को कुंभकरण को श्रीराम ने मार गिराया। कुंभकरण वध पर माघ कृष्ण अमावस्या को शोक में रावण द्वारा युद्ध विराम किया गया। माघ शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक युद्ध में विसतंतु आदि ​५ राक्षसों का वध हुआ। माघ शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक युद्ध में अतिकाय मारा गया। माघ शुक्ल अष्टमी से द्वादशी तक युद्ध में निकुम्भ-कुम्भ ​वध, माघ शुक्ल तेरस से फागुन कृष्ण प्रतिपदा तक युद्ध में मकराक्ष वध हुआ।

फागुन कृष्ण द्वितीया को लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध प्रारंभ हुआ। फागुन कृष्ण सप्तमी को लक्ष्मण मूर्छित हुए, उपचार आरम्भ हुआ। इस घटना के कारण फागुन कृष्ण तृतीया से सप्तमी तक ​५ दिन युद्ध विराम रहा। फागुन कृष्ण अष्टमी को वानरों ने यज्ञ विध्वंस किया, फागुन कृष्ण नवमी से फागुन कृष्ण तेरस तक चले युद्ध में लक्ष्मण ने मेघनाद को मार गिराया। इसके बाद फागुन कृष्ण चौदस को रावण की यज्ञ दीक्षा ली और फागुन कृष्ण अमावस्या को युद्ध के लिए प्रस्थान किया।
फागुन शुक्ल प्रतिपदा से पंचमी तक भयंकर युद्ध में अनगिनत राक्षसों का संहार हुआ। फागुन शुक्ल षष्ठी से अष्टमी तक युद्ध में महापार्श्व आदि का राक्षसों का वध हुआ। फागुन शुक्ल नवमी को पुनः लक्ष्मण मूर्छित हुए, सुखेन वैद्य के परामर्श पर हनुमान द्रोणागिरि लाये और लक्ष्मण पुनः चैतन्य हुए।

राम-रावण युद्ध फागुन शुक्ल दशमी को पुनः प्रारंभ हुआ। फागुन शुक्ल एकादशी को मातलि द्वारा श्रीराम को विजयरथ दान किया। फागुन शुक्ल द्वादशी से रथारूढ़ राम का रावण से तक ​१८ दिन युद्ध चला। ​अंतत:, ​चैत्र कृष्ण चौदस को दशानन रावण मौत के घाट उतारा गया।

युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक ​८७ दिन​ युद्ध ​(७२ दिन​ ​युद्ध, ​१५ दिन ​​युद्ध विराम​)​ चला और श्रीराम विजयी हुए। चैत्र कृष्ण अमावस्या को विभीषण द्वारा रावण का दाह संस्कार किया गया।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नव संवत्सर) से लंका में नए युग का प्रारंभ हुआ। चैत्र शुक्ल द्वितीया को विभीषण का राज्याभिषेक किया गया। अगले दिन चैत्र शुक्ल तृतीया का सीता की अग्निपरीक्षा ली गई और चैत्र शुक्ल चतुर्थी को पुष्पक विमान से राम, लक्ष्मण, सीता उत्तर दिशा में ​उड़कर, चैत्र शुक्ल पंचमी को भरद्वाज ​ऋषि ​के आश्रम में पहुँचे। चैत्र शुक्ल षष्ठी को नंदीग्राम में राम-भरत मिलन हुआ। चैत्र शुक्ल सप्तमी को अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक किया गया। यह पूरा आख्यान ऋषि आरण्यक ने शत्रुघ्न को सुनाया। फिर शत्रुघ्न ने आरण्यक को अयोध्या पहुँचाया, जहाँ अपने आराध्य पूर्णावतार श्रीराम के सान्निध्य में ब्रह्मरंध्र द्वारा सारूप्य मोक्ष पाया।

यह निर्विवाद है कि दशहरा को रावण वध तथा दीपावली को श्री राम के अयोध्या लौटने पर प्रजा द्वारा दीप पर्व मनाए जाने की लोक धारणा मिथ्या, अप्रामाणिक और निराधार है। ​इस धारणा के प्रचलित होने का कारण वाराणसी से गंगा नदी के पार स्थित रामनगर, वाराणसी में रामलीला के मंचन की परंपरा है। यह राम लीला १८३० में काशी नरेश महाराजा उदित नारायण सिंह द्वारा पंडित लक्ष्मी नारायण पांडे के परिवार (रामनगर की रामलीला के वर्तमान व्यास जी) की मदद से शुरू की गई थी। उनके उत्तराधिकारी महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह के शासनकाल के दौरान राम लीला की लोकप्रियता अतिशय बढ़ गई और दर्शक संख्या एक लाख तक होती थी।रामनगर रामलीला ३१ दिनों में आयोजित की जाती थी, जहाँ रामचरितमानस का संपूर्ण पाठ किया जाता था। यह अपने भव्य सेट, संवाद और दृश्य तमाशे के लिए जाना जाता था। 

इस काल में नव दुर्गा से दीपावली तक विद्यालयों में शासकीय अवकाश हुआ करता था। नवदुर्गा पर्व का आरंभ आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से होकर समापन आश्विन शुक्ल  दशमी को होता है। कार्तिक मास अमावस्या को दीवाली होती है। नव दुर्गा और राम लीला का समायोजन करते हुए विजय दशमी पर रावण वध की प्रथा आरंभ हुई होगी जो रूढ़ हो गई। यदि दशहरे पर रावण वध और दीपावली पर अयोध्या प्रवेश को सही मानें तो प्रश्न यह है कि इस अवधि में राम क्या करते रहे। क्या राम लंका से पुष्पक विमान द्वारा न आकर पैदल अयोध्या लौटे? ऐसा होता तो रावणजयी राम के वापसी यात्रा पथ का उल्लेख मिलता, जो नहीं है। भरत द्वारा १४ वर्ष पूर्ण होते ही राम के न लौटने पर प्राण त्यागने का संकल्प किया गया था, इसलिए राम को उस अवधि के पूर्व अयोध्या लौटना ही था। ऐसी स्थिति में दशहरे से दीवाली के बीच के १९ दिन राम क्या करते रहे? 
अत:, यह सुनिश्चित है कि न तो रावण वाढ दशहरे को हुआ, न राम दीवाली पर अयोध्या लौटे।    

​***
सामयिक कविता: फेर समय का
*
फेर समय का ईश्वर को भी बना गया- देखो फरियादी.
फेर समय का मनुज कर रहा निज घर की खुद ही बर्बादी..
फेर समय का आशंका, भय, डर सारे भारत पर हावी.
फेर समय का चैन मिला जब सुना फैसला, हुई मुनादी..
फेर समय का कोई न जीता और न हारा कोई यहाँ पर.
फेर समय का वहीं रहेंगे राम, रहे हैं अभी जहाँ पर..
फेर समय का ढाँचा टूटा, अब न दुबारा बन पायेगा.
फेर समय का न्यायालय से खुश न कोई भी रह पायेगा..
फेर समय का यह विवाद अब लखनऊ से दिल्ली जायेगा.
फेर समय का आम आदमी देख ठगा सा रह जायेगा..
फेर समय का फिर पचास सालों तक यूँ ही वाद चलेगा?
फेर समय का नासमझी का चलन देश को पुनः छलेगा??
फेर समय का नेताओं की फितरत अब भी वही रहेगी.
फेर समय का देश-प्रेम की चाहत अब भी नहीं जगेगी..
फेर समय का जातिवाद-दलवाद अभी भी नहीं मिटेगा.
फेर समय का धर्म और मजहब में मानव पुनः बँटेगा..
फेर समय का काले कोटोंवाले फिर से छा जायेंगे.
फेर समय का भक्तों से भगवान घिरेंगे-घबराएंगे..
फेर समय का सच-झूठे की परख तराजू तौल करेगी.
फेर समय का पट्टी बाँधे आँख ज़ख्म फिर हरा करेगी..
फेर समय का ईश्वर-अल्लाह, हिन्दू-मुस्लिम एक न होंगे.
फेर समय का भक्त और बंदे झगड़ेंगे, नेक न होंगे..
फेर समय का सच के वधिक अवध को अब भी नहीं तजेंगे.
फेर समय का छुरी बगल में लेकर नेता राम भजेंगे..
फेर समय का अख़बारों-टी.व्ही. पर झूठ कहा जायेगा.
फेर समय का पंडों-मुल्लों से इंसान छला जायेगा..
फेर समय का कब बदलेगा कोई तो यह हमें बताये?
फेर समय का भूल सियासत काश ज़िंदगी नगमे गाये..
फेर समय का राम-राम कह गले राम-रहमान मिल सकें.
फेर समय का रसनिधि से रसलीन मिलें रसखान खिल सकें..
फेर समय का इंसानों को भला-बुरा कह कब परखेगा?
फेर समय का गुणवानों को आदर देकर कब निरखेगा?
फेर समय का अब न सियासत के हाथों हम बनें खिलौने.
फेर समय का अब न किसी के घर में खाली रहें भगौने..
फेर समय का भारतवासी मिल भारत की जय गायें अब.
फेर समय का हिन्दी हो जगवाणी इस पर बलि जाएँ सब..
***
शुभकामना
विजयदशमी पर हम जीत सकें निज मन को
देश-धर्म के शत्रु हनें पल-पल निर्भय हो
रचें पंक्तियाँ ऐसी हों नव ऊर्जा वाहक
नमन मातु को करें जगतवाणी हिंदी हो
३०.९.२०१७
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कार्य शाला
निम्न पंक्ति से सोरठा पूरा करें
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मेरे प्यासे नैन, रात-रात भर जागते -मिथलेश बड़गैयां
मिलें नैन से नैन, सोचे दिल धड़कनें गिन -संजीव
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मिले न मन को चैन, मीठी वाणी सुने बिन
कटे न काटे रैन, प्रभु सुमिरन कर निरंतर
३०.९.२०१६
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दोहा
सज्जन के सत्संग को, मान लीजिये स्वर्ग
दुर्जन से पाला पड़े, जितने पल है नर्क
*
मिले पूर्णिमा में शशि-किरणों के संग खीर
स्वर्गोपम सुख पा 'सलिल', तज दे- धर मत धीर
*
आँखों में सपने हसीं, अधरों पर मुस्कान
सुख-दुःख की सीमा नहीं, श्रम कर हों गुणवान
३०.९.२०१५
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चंद्र मंत्र
चंद्र देव को भी प्रत्यक्ष भगवान माना जाता है। अमावस्या को छोड़कर चंद्रदेव अपनी सोलह कलाओं परिपूर्ण होकर साक्षात दर्शन देते हैं। सोमवार चंद्रदेव का दिन है।
चंद्रमा से शुभ फल प्राप्त करने के लिए इस दिन खीर जरूर खाना चाहिए। यदि कुंडली में चंद्र नीच का हो तो सफेद कपड़े पहनना चाहिए और श्वेत चंदन का तिलक लगाना चाहिए।
चंद्रमा का रत्न मोती है। चंद्र रत्न मोती को चांदी की अंगूठी में जड़वा कर कनिष्ठिका अंगुली में पहनना चाहिए। शीत से पीड़ित होने पर गले में मोतीयुक्त चांदी का अर्धचंद्र लॉकेट पहनने से फायदा होता है।
चंद्र मंत्र -
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव सम्भवम ।
नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुट भूषणं ।।
ॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:।।
ॐ ऐं क्लीं सोमाय नम:।
ॐ भूर्भुव: स्व: अमृतांगाय विदमहे कलारूपाय धीमहि तन्नो सोमो प्रचोदयात्।
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दोहा सलिला:
राम सत्य हैं, राम शिव.......
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राम सत्य हैं, राम शिव, सुन्दरतम हैं राम.
घट-घटवासी राम बिन सकल जगत बेकाम..
वध न सत्य का हो जहाँ, वही राम का धाम.
अवध सकल जग हो सके, यदि मन हो निष्काम..
न्यायालय ने कर दिया, आज दूध का दूध.
पानी का पानी हुआ, कह न सके अब दूध..
देव राम की सत्यता, गया न्याय भी मान.
राम लला को मान दे, पाया जन से मान..
राम लला प्रागट्य की, पावन भूमि सुरम्य.
अवधपुरी ही तीर्थ है, सुर-नर असुर प्रणम्य..
शुचि आस्था-विश्वास ही, बने राम का धाम.
तर्क न कागज कह सके, कहाँ रहे अभिराम?.
आस्थालय को भंगकर, आस्थालय निर्माण.
निष्प्राणित कर प्राण को, मिल न सके सम्प्राण..
मन्दिर से मस्जिद बने, करता नहीं क़ुबूल.
कहता है इस्लाम भी, मत कर ऐसी भूल..
बाबर-बाकी ने कभी, गुम्बद गढ़े- असत्य.
बनीं बाद में इमारतें, निंदनीय दुष्कृत्य..
सिर्फ देवता मत कहो, पुरुषोत्तम हैं राम.
राम काम निष्काम है, जननायक सुख-धाम..
जो शरणागत राम के, चरण-शरण दें राम.
सभी धर्म हैं राम के, चाहे कुछ हो नाम..
पैगम्बर प्रभु के नहीं, प्रभु ही हैं श्री राम.
पैगम्बर के प्रभु परम, अगम अगोचर राम..
सदा रहे, हैं, रहेंगे, हृदय-हृदय में राम.
दर्शन पायें भक्तजन, सहित जानकी वाम..
रामालय निर्माण में, दें मुस्लिम सहयोग.
सफल करें निज जन्म- है, यह दुर्लभ संयोग..
पंकिल चरण पखार कर, सलिल हो रहा धन्य.
मल हर निर्मल कर सके, इस सा पुण्य न अन्य..
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तरही मुक्तिका ३ :
क्यों है?
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??
थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??
गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??
नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??
उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज रोती है बिलख, हाय ये मंजर क्यों है?
३०.९.२०१०
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रविवार, 29 सितंबर 2024

सितंबर २९, बुंदेली, प्रभा, मुक्तक, राम, समय, भवानी छंद, हरिहर झा, एकाग्रता, ध्यान

सलिल सृजन सितंबर २९ 

विमर्श : एकाग्रता और ध्यान
लोग एकाग्रता (Concentration) को ध्यान (Meditation) समझ लेते हैं, जबकि दोनों अलग है। अधिकांश लोग ध्यान नहीं, एकाग्रता का ही अभ्यास करते हैं। किसी संगीत को सुनना, किसी बिंदु पर मन को केंद्रित करना, किसी प्रकाश पर मन को टिकाना, ये सब एकाग्रता है, ध्यान नहीं है। योग ८ अंगों में छठवाँ अंग होता है धारणा। धारणा के अंतर्गत ही एकाग्रता आता है। उसके बाद योग का सातवाँ अंग है ध्यान।
सब तरफ से मन को हटाकर एक बिंदु पर एकत्र करन एकाग्रता है। ध्यान वह स्थिति है जहाँ मन होता ही नहीं, सिर्फ जागरूकता होती है। ध्यान में आप मन के पार चले जाते हैं। एकाग्रता का अभ्यास भी बुरा नहीं है, जिन्हें अपनी याददाश्त बढ़ानी हैं, जो बहुत ज्यादा सोचते हैं, बहुत जगह जिनका मन भटकता है उनके लिए एकाग्रता ठीक है पर एकाग्रता को ही ध्यान मान लेना गलत है।
त्राटक, मंत्र जप, नाम जप, विशेष ध्वनि, प्रतिमा, चित्र आदि पर मन को एकाग्र कर देना एकाग्रता है। आप एकाग्रता को समझना चाहते हैं तो टॉर्च की रौशनी से समझे। जैसे टॉर्च की रौशनी एक दिशा में जाती है वैसे ही एकाग्रता की एक दिशा होती है। एक दिशा में केंद्रित हो जाना, टॉर्च की लाइट के समान एकाग्रता है। कमरे में लगा बल्ब है ध्यान के समान, सब तरफ प्रकाशित कुछ भी अँधेरा नहीं। उस रोशनी से पूरा कमरा प्रकाशित होता है। जब आप पूरी तरह से प्रकाशित और जागरूक हो जाते हैं, जब आप शुद्ध चेतन परमात्मा से जुड़ जाते हैं, वह हो गया ध्यान। चेतना की अवस्था जहाँ पर मन ना हो, वह है ध्यान। अक्सर लोग एकाग्रता का अभ्यास ध्यान समझ करते रहते हैं और परिणाम न मिलने पर निराश होते रहते हैं। ध्यान और एकाग्रता में भेद है। एकाग्रता को ही ध्यान मानकर लोग ध्यान के लाभ से वंचित रह जाते हैं। जब तक आप वास्तव में ध्यान में नही जाएँगे, आप ध्यान के लाभ कैसे ले सकते हैं?
गहरे ध्यान में क्या होता है...
जब हम गहरे ध्यान में प्रवेश करते हैं तो भीतर की सारी ऊर्जा, सहस्त्रार चक्र पर आकर स्थिर हो जाती है। तब परम शांति और आनंद की वर्षा प्रारंभ हो जाती है। समय का बोध समाप्त हो जाता है और व्यक्ति मन के पार अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है। न तो भूतकाल के विचार आते है, न तो कोई भविष्य की चिंता सताती है। इस स्थिति में व्यक्ति वर्तमान के एक-एक क्षण का आनंद लेता है।
गहरे ध्यान में जैसे ही निर्विचार स्थिति आती है, हमारी ऊर्जा नीचे के चक्रों को शुद्ध करते हुए सहस्त्रार की तरफ गति करती है। लगातार इस स्थिति में बने रहने से चक्रों का असंतुलन भी दूर होने लगता है और चक्रों की शुद्धि भी प्रारंभ हो जाती है। पर कितने दिन में कोई चक्र संतुलन को प्राप्त करेगा या चक्र जाग्रत हो उठेगा ये कहना कठिन है क्योंकि हर किसी के चक्र का असंतुलन और अशुद्धि अलग अलग होती है।
प्राण अनसुने नाद से आपूरित हो उठते हैं। रोआं-रोआं आनंद की पुलक में कांपने लगता है। जगत प्रकाश-पुंज मात्र प्रतीत होता है। इंद्रियों के लिए अनुभूतियों के द्वार खुल जाते हैं। प्रकाश में सुगंध आती है। सुगंध में संगीत सुनाई पड़ता है। संगीत में स्वाद आता है। स्वाद में स्पर्श मालूम होता है। तर्क की सभी कसौटियां टूट जाती हैं। कुछ भी समझ में नहीं आता है और फिर भी सब सदा से जाना हुआ मालूम होता है। कुछ भी कहा नहीं जाता है और फिर भी सब जीभ पर रखा प्रतीत होता है। विगत जन्मों के भेद खुलने लगते हैं, चारों ओर से दिव्यता का प्रकाश आने लगता है। ऐसा व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ऊर्जा का स्तर, उसका आभा मंडल उसके मन के विचार भी देख सकता है। इस अवस्था को शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता, क्योंकि ये शब्दातीत अवस्था है, जिसने इसे पाया वो इसे शब्दों में ढालने में असमर्थ ही रहा है, ये अनुभव तो इस अवस्था में पहुंच कर ही हो सकते हैं।
ध्यान की पूर्णता समाधि के द्वार खोल देती है। ध्यानी व्यक्ति हजारों में अलग पहचान आ जाता है। उसकी ऊर्जा और आकर्षण अनायास ही लोगों को आकर्षित कर जाते हैं। ऐसे व्यक्ति की वाणी में परम शांति और शब्दों के बीच के मौन को भी सुना जा सकता है। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य मात्र से ही ऊर्जा और दिव्यता का अनुभव होने लगता है। ऐसा व्यक्ति नींद में भी जागृत रहता है और उसकी कार्यक्षमता सामान्य लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जाती है। ऐसा व्यक्ति मानव से महामानव की श्रेणी में आ जाता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तो प्रकाशित कर ही लेता है, दूसरों के जीवन को प्रकाशित करने का सामर्थ्य भी प्राप्त कर लेता है। ऐसा व्यक्ति साधक नहीं रह जाता, सिद्ध हो जाता है।
***
नवगीत
*
बाबूजी!
धीरे चलना
राह विराजी भवानी
तुम्हें रहीं हैं टेर।
भोग लगाकर पुण्य लो,
करो न नाहक देर।।
अनदेखा कर तुम इन्हें
खुद को
मत छलना
मैडम जी!
धीरे चलना
मुझे देखकर जान लो,
कितना हुआ विकास?
हूँ शोषण की गवाही
मुझसे दूर उजास
हाथ बढ़ाकर चाहती
मैं आगे बढ़ना
अफसर जी!
धीरे चलना
मेरा जनक न पूछो
है तुम सा ही सभ्य
जननी भी तुम सी ही
नहीं अप्राप्य-अलभ्य
मूर्ति न; जीवित पूजो
धुला मुझे पलना
नेता जी!
धीरे चलना
२९-९-२०१९
***
कृति चर्चा:
नवगीतीय परिधान में 'फुसफुसाते वृक्ष कान में'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: फुसफुसाते वृक्ष कान में, नवगीत संग्रह, हरिहर झा, प्रथम संस्करण २०१८, आई एस बी एन ९७८-९३-८७६२२-९०-६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १६५, मूल्य ३५०/-, अयन प्रकाशन, १/२० महरौली नई दिल्ली ११००३०, चलभाष ९८१८९८८६१३]
*
विश्ववाणी हिंदी ने देववाणी संस्कृत से विरासत में प्राप्त व्याकरण व पिंगल को देश-काल-परिस्थितियों और मानवीय आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित-संवर्धित करते हुए पुरातन विधाओं को नव रूपाकार देकर ग्राह्य बनाये रखने का जो सारस्वत अनुष्ठान सतत सम्पादित किया है उसकी गीत विधायी प्राप्ति नवगीत है। लोकमांगल्य के गिरि शिखर से सतत प्रवाहित पारंपरिक साहित्यिक गीत, लोकगीत और जनगीत की त्रिवेणी ने विसंगतियों की शिलाओं, विडंबनाओं के गव्हरों और सामाजिक संघर्षों के रेगिस्तानों को पार करते हुए कलकल निनादिनी नर्मदा के निर्मल प्रवाह की तरह जनहितैषिणी होकर नवगीत विशेषण को शिरोधार्य किया जो रूढ़ होकर संज्ञा रूप मे व्यवहृत हो रहा है।
नवगीत के उद्गम और तत्कालीन मान्यताओं को पत्थर की लकीर मानकर परिवर्तनों को नकारने और हेय सिद्ध करने के आदी संकीर्णतावादी इन नवगीतों का छिन्द्रान्वेषण कर स्वीकारने में हिचकें तो भी यह सत्य नकारा नहीं जा सकता कि नवगीत दिनानुदिन नई-नई भावमुद्राएँ धारणकर नव आयामों में खुद को स्थापित करता जा रहा है। हरिहर जी के नवगीत मुखड़ों-अंतरों में युगीन यथार्थ को पिरोते समय पारंपरिक बिंबों, प्रतीकों और मिथकों से मुक्त रहकर अपनी राह आप बनाते हैं। 'आइना दिखाती' शीर्षक नवगीत का मुखड़ा 'तूफान, दे थपकी सुलाये, / डर लगे तो क्या करें? /विष में बुझे सब तीर उर को / भेद दें तो क्या करें?' आम आदमी के सम्मुख पल-पल उपस्थित होती किंकर्तव्यविमूढ़ता को इंगित करता है।
स्वराज्य के संघर्ष और उसके बाद के परिदृश्य में लोकतंत्र में 'लोक' के स्थान पर 'लोभ',प्रजातंत्र में 'प्रजा' के स्थान पर 'सत्ता', गणतंत्र में 'गण' के स्थान पर 'तंत्र' को देखकर दिन-ब-दिन मुश्किल होती जाती जिन्दगी की लड़े में हारता सामान्य नागरिक सोचने के लिए विवश है- 'उलट गीता कैसे हुई, / अर्जुन उधर सठिया रहे / भ्रमित है धृतराष्ट्र क्यों / संजय इधर बतिया रहे / दौड़ते टीआरपी को, / बेचते ईमान।' (सुर्ख़ियों में कहाँ दिखती, खग-मृग की तान।) खग-मृग के माध्यम से जन-जीवन से गुम होती 'तान' अर्थात आनंद को बखूबी संकेतित किया है कवि ने। अर्जुन, धृतराष्ट्र और संजय जैसे पौराणिक चरित्रों को आधुनिक परिवेश में चिन्हित कर सकना हरिहर जी के चिंतन सामर्थ्य का परिचायक है। 'वो बहेलिया' शीर्षक नवगीत में एक और उदाहरण देखें- 'दुर्योधन का अहंकार तू / डींग मारता ऊँची ऊँची, है मखौलिया।' मिथकों के प्रयोग कवि को प्रिय हैं क्योंकि वे 'कम शब्दों में अधिक' कह पाते हैं- 'जीवन जैसे खुद ब्रह्मा ने / दुनिया नई रची / राह नई, गली अंधियारी / मन में कहाँ बची/ तमस भले ही हो ताकतवर, / कभी न दाल गले। / किसने इंद्र वरुण अग्नि को, / आफत में डाला / सौलह हजार ललनाओं पर / संकट का जाला / नरकासुर का दर्प दहाड़ा / शक्ति का आभास / दुर्गति रावण जैसी ही तो / बोलता इतिहास / ज्योत जली, यह देखा / अचरज़ लौ की छाँव तले।'
अपसंस्कृति की शिकार नई पीढ़ी पर व्यंग्य करता कवि अंगरेजी के वर्चस्व को घातक मानता है- 'चोंच कहाँ, / चम्मच से तोते सीख गये खाना। / भूले सब संस्कार, समझ, / फूहड़ता की झोली / गम उल्लास निकलते थे, / बनी गँवारू बोली / गिटपिट अब चाहें, / अँगरेजी, में गाल बजाना।' जन-जीवन में व्यवस्था और शांति का केंद्र नारी अपनी भूमिका के महत्व को भुलाकर घर जोड़ने की जगह तोड़ने की होड़ में सम्मिलित दिखती है- ' रतनारी आँखे मौन, / ज्यों निकले अंगार / कुरूप समझे सबको / किये सोला सिंगार। पल में बुद्ध बन जाती ..... पल में होती क्रुद्ध / आलिंगन अभिसार, / लो तुरत छिड़ गया युद्ध / रूठी फिर तो खैर नहीं, / विकराल रूपा जोगन' स्वाभाविक ही है कि ऐसे दमघोंटू वातावरण में कुछ लिखना दुष्कर हो जाए- ' गलघोटूँ कुछ हवा चली,/ रोये कलि, ऊँघे बगिया / चूम लिया दौड़ फूलों को, / काँटा तो ठहरा ठगिया/ दरार हर छन्द में पाऊँ सुधि न पाये क्यों रचयिता / कैसे लिखूँ मैं कविता।'
पारिस्थितिक विषमताओं के घटाटोप अँधेरे में भे एकवि निराश नहीं होता। वह 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की विरासत का वाहक है, उजियारे की किरण खोज ही लेता है- 'नन्हा बालक या नन्ही परी / भाये कचोरी या मीठी पुरी / लुभाती बोली में कहे मम्मी / रबड़ी बनी है यम्मी यम्मी / घर में कितना उजाला है / फरिश्ता आने वाला है। अपने कष्टों को भूलकर अन्यों की पीड़ा कम करने को जीवनोद्देश्य मनेवाली भारतीय संस्कृति इन गीतों में यत्र-तत्र झलकती है- 'भूख लगी, / मिले न रोटी / घास हरी चरते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं। / मिली बिछावट काँटों की / लगी चुभन कुछ ऐसे / फूल बिछाते रहे, दर्द / छूमंतर सब कैसे / भूले पीड़ा , औरों का संकट हर लेते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं।'
कबीर ने अपने समय का सच बयान करते हुए कहा था- 'यह चादर सुर नर मुनि ओढ़ी / ओढ़ के मैली कीन्ही चदरिया / दास कबीर जतन से ओढ़ी / ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।' हरिहर जी 'मैली हो गई बहुत चदरिया' कहते हुए कबीर को फिर-फिर जीते हैं। कबीर और लोई के मतभेद जग जाहिर हैं। कवि इसी परंपरा का वाहक है। देखें- घर में भूख नहीं होती, / किस-किस के संग खाते हो?/ / चादर अपनी मैली करके / नाम कबीरा लेते हो?' स्त्री-विमर्श के इस दौर में पुरुष-विमर्श के बिना पुरुषों की दुर्दशा हकीकतबयानी है- 'मैं झाँसी की रानी बन कर/ तुम्हें मजा चखाऊँगी / दुखती रग पर हाथ रखूँ / हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी / पति-परमेश्वर समझ लिया,/ पुरूष-प्रभुता के रोगी! / सारी अकड़ एक मिनिट में / टाँय टाँय यह फिस होगी / तो सुनो किट्टी-पार्टी है कल / तुम बच्चों को नहलाना।' स्त्री-पुरुष जीवन-रथ के दो पहिए हैं। दोनों को पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन मिल-जुलकर करना होता है। बच्चों की देखभाल की सहज प्रक्रिया को सबक सिखाने की तरह प्रयोग किया जाना ठीक नहीं प्रतीत होता। 'हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी' में 'के' का प्रयोग अनावश्यक है जो कथ्य को शिथिल करता है।
सामाजिक वैषम्य और दहेज़ की कुरीति पर हरिहर जी ने प्रबल आघात किया है। "खुलने लगी कलाई तो क्या, बना रहेगा पुतला? / तू इतना तो बतला / तृष्णा मिटे कहाँ मृगजल से, माँगी एक पिटारी / टपके लार ससुर, देवर की, दर्द सहे बेचारी / रोती बहना, आँख फेर ली, खून हुआ क्यों पतला तू इतना तो बतला ...... ’धनिया’ आँसू पोछ न पाये, खून पिलाये ’होरी’ / श्वेत वस्त्र में दिखे न काले, धन से भरी तिजोरी / जाला करतूतों का फिर क्यों, दिखे दूर से उजला / तू इतना तो बतला।'
'समय का फेर' सब कुछ बदल देता है। 'हरि'-'हर' से बढ़कर समय के परिवर्तन का साक्षी और कौन हो सकता है? 'पोथियाँ बहुत पढ़ ली / जग मुआ, आ गई कंप्यूटरी आभा। / ज्ञान सरिता प्रवाह खलखल, जरूरी होता उसे बहना / लौ दिये की, / चाहे कभी ना, बंद तालों में जकड़ रहना / वेद ऋषियों के हुये प्राचीन / दौर अणु का कर गये ‘भाभा’। / पूर्वजों ने, / तीक्ष्ण बुद्धि से, / कैसे किया, समुद्र का मंथन / जाना पार सागर, / पाप क्यों? क्यों चाहिये किसका समर्थन / चाँद, मंगल जा रही दुनिया / राह में क्यों बन रहे खंभा।'
निरानान्दित होते जाते जीवन में आनद की खोज कवि की काव्य-रचना का उद्देश्य है। वह कहता है- 'पंडिताई में नहीं अध्यात्म, झांके ह्रदय में, फकीर /“चोंचले तो चोंचले, नहीं धर्म”, माथा फोड़ता कबीर / मूर्ख ना समझे, ईश तक पहुँचे, चाहे यज्ञ या अजान / भगवत्कृपा जिसे मिली बस, खुल गई अंदरूनी आँख / चक्र की जीवन्त ऊर्जा तक पहुँचने मिल गई लो पाँख / नाद अनहद सुन सके, तैयार हैं, भीतर खड़े जो कान।'
इन गीति रचनाओं में विचार तत्व की प्रबलता ने गीत के लालित्य को पराभूत सा कर दिया है, फलत: गीतों की गेयता क्षीण हुई है। गीत और छंद का चोली-दामन का साथ है। भारत में नवगीतों में पारंपरिक छंदों और लोकगीतों की लय के प्रयोग का चलन बढ़ा है। 'काल है संक्रांति का' में पारंपरिक छंदों के यथेष्ट प्रयोग के बाद कई नए-पुराने नवगीतकार छंदों के प्रति आकर्षित हुए हैं। नवगीतों में नए छंदों का प्रयोग और कई छंदों को एक साथ मिलकर उपयोग किया जाना भी सर्व मान्य है। हरिहर जी ने शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हुए छंद को अपनी भूमिका आप तय करने दी है। मात्रिक या वर्णिक छंद के बंधनों को गौड़ मानते हुए, कथ्य को प्रस्तुत करने के प्रति अधिक संवेदनशील रहे हैं। समतुकांती पंक्तियों से लयबद्धता में सहायता मिली है। कवि की कुशलता यह है कि वह छंद को यथावत रखने के स्थान पर कथ्य की आवश्यकता के अनुसार ढालता है। इन नवगीतों की रचना किसी एक छंद के विधानानुसार न होकर मुखड़े और अंतरे में भिन्न-भिन्न और कहीं-कहीं मुखड़े में भी एकाधिक छन्दों के संविलयन से हुई है।
नवगीत की नवता कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर होती है। हरिहर जी ने दोनों पैमानों पर अपनी निजता स्थापित की है। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, सरल-सहज बोधगम्य शब्दावली, मुहावरेदार कहन और सांकेतिक शैली हरिहर जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है। सुदूर आस्ट्रेलिया में रहकर भी देश के अंदरूनी हालात से पूरी तरह अवगत रहकर उन पर सकारात्मक तरीके से सोचना और संतुलित वैचारिक अभिव्यक्ति इन नवगीतों को पठनीयता और प्रासंगिकता से संपन्न करती है। सोने की चिड़िया भारत हो जाए, जय हो हिंदी भाषा की, इंद्रधनुषी रंग मचलते, दो इन्हें सम्मान, कच्ची कोंपल की लाचारी, दर्द भारी सिसकी है, मन स्वयं बारात हुआ, निहारिकाओं ने खेल ली होली, कौन जाने शाप किसका, शहर में दीवाली, साथ नीम का, उपलब्धि, दुल्हन का सपना, बदरी डोल रही वायदों की पतंग आदि रचनाएँ समय साक्षी हैं।
इंग्लैंड निवासी विदुषी उषा राजे सक्सेना जी ने कुछ नवगीतों की पृष्ठभूमि में पुरुष की शोषक, लोभी, कामी प्रवृत्ति और स्त्री-अपराधों की उपस्थिति अनुभव की है किन्तु मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि रचनाकार ने दैनंदिन जीवन में होती कहा-सुनी को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। इन रचनाओं में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी नहीं परिपूरक के रूप में शब्दित हैं।
कृत्या पत्रिका की संपादिका रति सक्सेना जी ने हरिहर जी का मूल स्वर वैचारिकता मानते हुए, अतीत की उपस्थिति को वर्तमान पर भरी पड़ते पाया है। सुरीलेपन और कठोरता की मिश्रित अभिव्यक्ति इन रचनाओं में होना सहज स्वाभाविक है चूँकि जीवन धूप-छाँव दोनों को पग-पग पर अपने साथ पाता है। लन्दन निवासी तेजेंद्र शर्मा जी अपने चतुर्दिक घटती, कही-सुनी जाती बातों को इन गीतों में पाकर अनुभव करते हैं कि जैसे यह तो हमारे ही जीवन पर लिखी गयी है। स्वयं गीतकार अपनी रचनाओं में वामपंथी रुझान की अनुपस्थिति से भीगी है तथा इस कसौटी पर की जाने वाली आलोचना के प्रति सजग रहते हुए भी उसे व्यर्थ मानता है। वह पूरी ईमानदारी से कहता है "प्रवासी साहित्य पर जो आक्षेप लगाये जाते हैं, उन पर टिप्पणी करने की अपेक्षा अर्धसत्य से भी सत्य को निकाल कर उससे मार्गदर्शन लेना मैं अधिक उचित समझता हूँ।" मैंने इन गीतों में शैल्पिकता पर कथ्य की भैव्यक्ति को वरीयता दी जाना अनुभव किया है। वैचारिक प्रतिबद्धता किसी विधागत रचना को कुंद करती है। हरिहर जी अपने नाम के अनुरूप बंधनों की जड़ता को तोड़ते हुए सहज प्रवाहित सलिला की तरह इन रचनाओं में अपने आप को प्रवाहित होने देते हैं।
प्रवासी भारतीयों द्वारा रचे जा रहे साहित्य विशेषत: गद्य साहित्त्य में विदेशी परिवेश प्राय: मिलता है। हरिहर जी पूरी तरह भारत में ही केन्द्रित रहे हैं। आशा है उनका अगला काव्य संग्रह रचनाओं में आस्ट्रेलिया को भी भारतीय पाठकों तक पहुँचेगा। वैश्विक समरसता के लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने के साथ-साथ पड़ोसी के आँगन की हवा लेते रहना भी आवश्यक है। इससे हरिहर जी के नवगीतों में शेष से भिन्नता तथा ताज़गी मिलेगी। लयबद्धता और गेयता के लिए छांदस लघु पंक्तियाँ लम्बी पंक्तियों की तुलना में अधिक सहज होती हैं।
***
हिंदी में नए छंद : १.
पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय भवानी छंद
*
प्रात: स्मरणीय जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छंद प्रभाकर के पश्चात हिंदी में नए छंदों का आविष्कार लगभग नहीं हुआ। पश्चातवर्ती रचनाकार भानु जी के ग्रन्थ को भी आद्योपांत कम ही कवि पढ़-समझ सके। २-३ प्रयास भानु रचित उदाहरणों को अपने उदाहरणों से बदलने तक सीमित रह गए। कुछ कवियों ने पूर्व प्रचलित छंदों के चरणों में यत्किंचित परिवर्तन कर कालजयी होने की तुष्टि कर ली। संभवत: पहली बार हिंदी पिंगल की आधार शिला गणों को पदांत में रखकर छंद निर्माण का प्रयास किया गया है। माँ सरस्वती की कृपा से अब तक ३ मात्रा से दस मात्रा तक में २०० से अधिक नए छंद अस्तित्व में आ चुके हैं। इन्हें सारस्वत सभा में प्रस्तुत किया जा रहा है। आप भी इन छंदों के आधार पर रचना करें तो स्वागत है। शीघ्र ही हिंदी छंद कोष प्रकाशित करने का प्रयास है जिसमें सभी पूर्व प्रचलित छंद और नए छंद एक साथ रचनाविधान सहित उपलब्ध होंगे।
भवानी छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदादि या पदांत: यगण।
सूत्र: य, यगण, यमाता, १२२।
उदाहरण:
सुनो माँ!
गुहारा।
निहारा,
पुकारा।
*
न देखा
न लेखा
कहीं है
न रेखा
कहाँ हो
तुम्हीं ने
किया है
इशारा
*
न पाया
न खोया
न फेंका
सँजोया
तुम्हीं ने
दिया है
हमेशा
सहारा
*
न भोगा
न भागा
न जोड़ा
न त्यागा
तुम्हीं से
मिला है
सदा ही
किनारा
***
दोहा सलिला
*
श्याम-गौर में भेद क्या, हैं दोनों ही एक
बुद्धि-ज्ञान के द्वैत को, मिथ्या कहे विवेक
*
राम-श्याम हैं एक ही, अंतर तनिक न मान
परमतत्व गुणवान है, आदिशक्ति रसखान
*
कृष्ण कर्म की प्रेरणा, राधा निर्मल नेह
सँग अनुराग-विराग हो, साधन है जग-देह
*
कण-कण में श्री कृष्ण हैं, देख सके तो देख
करना काम अकाम रह, खींच भाग्य की रेख
*
मुरलीधर ने कर दिया, नागराज को धन्य
फण पर पगरज तापसी, पाई कृपा अनन्य
*
आत्म शक्ति राधा अजर, श्याम सुदृढ़ संकल्प
संग रहें या विलग हों, कोई नहीं विकल्प
*
हर घर में गोपाल हो, मातु यशोदा साथ
सदाचार बढ़ता रहे, उन्नत हो हर माथ
*
मातु यशोदा चकित चित, देखें माखनचोर
दधि का भोग लगा रहा, होकर भाव विभोर
*
***
एकाक्षरी दोहा:
आनन्दित हों, अर्थ बताएँ
*
की की काकी कूक के, की को काका कूक.
काका-काकी कूक के, का के काके कूक.
*​
एक द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
यह द्विपदी अश्वावतारी जातीय बीर छंद में है
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल-
पीकर जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
***
राम दोहावली
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
त्याग-ओज कैकेई माँ, कौसल्या वनवास
दशरथ इन्द्रिय, सुमित्रा है कर्तव्य-उजास
*
संयम-नियम समर्पिता, सीता-तनया हास
नेह-नर्मदा-सलिल है, सरयू प्रभु की ख़ास
*
वध न अवध में सत्य का, होगा मानें आप
रामालय हित कीजिए, राम-नाम का जाप
२९-९-२०१८
***
मुक्तक
सम्मिलन साहित्यकारों का सुफलदायी रहे
सत्य-शिव-सुन्दर सुपथ हर कलम आगे बढ़ गहे
द्वन्द भाषा-बोलिओं में, सियासत का इष्ट है-
शारदा-सुत हिंद-हिंदी की सतत जय-जय कहे
*
नेह नर्मदा तीर पधारे शब्ददूत हिंदी माँ के
अतिथिदेव सम मन भाते हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
भाषा, पिंगल शास्त्र, व्याकरण हैं त्रिदेवियाँ सच मानो
कथ्य, भाव, रस देव तीन हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
*
अक्षर सुमन, शब्द-हारों से, पूजन भारत माँ का हो
गीतों के बन्दनवारों से, पूजन शारद माँ का हो
बम्बुलियाँ दस दिश में गूँजें, मातु नर्मदा की जय-जय
जस, आल्हा, राई, कजरी से, वंदन हिंदी माँ का हो
*
क्रांति का अभियान हिंदी विश्ववाणी बन सजे
हिंद-हिंदी पर हमें अभिमान, हिंदी जग पुजे
बोलियाँ-भाषाएँ सब हैं सहोदर, मिलकर गले -
दुन्दुभी दस दिशा में अब सतत हिन्दी की बजे
*
कोमल वाणी निकल ह्रदय से, पहुँच ह्रदय तक जाती है
पुलक अधर मुस्कान सजाती, सिसक नीर बरसाती है
वक्ष चीर दे चट्टानों का, जीत वज्र भी नहीं सके-
'सलिल' धार बन नेह-नर्मदा, जग की प्यास बुझाती है
२९-९-२०१८
***
कार्य शाला
कुंडलिया = दोहा + रोला
*
दर्शन लाभ न हो रहे, कहाँ लापता हूर? १.
नज़र झुकाकर देखते, नहीं आपसे दूर। २.
नहीं आपसे दूर, न लेकिन निकट समझिए १.
उलझ गयी है आज पहेली विकट सुलझिए
'सलिल' नहीं मिथलेश कृपा का होता वर्षण
तो कैसे श्री राम सिया का करते दर्शन?
२९-९-२०१६
***
गीत
*
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
*
तिमिर का नहीं भय, रवि-रश्मि अक्षय
शशि पूर्णिमा का, आभामयी- जय!
करो कल्पना की किरण का कलेवा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*
बजा श्वास वीणा, आशा की सरगम
सफल साधना हो, अंतर हो पुरनम
पुष्पा कुसुम ले, करूँ वंदना नित
सुषमा सुमन की, उठाये न डेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*
प्रणव नाद गूँजे, मन में निरंतर
करे प्रार्थना मन, संध्या सुमिरकर
'सलिल' भारती की सृजन आरती हो
जग में, यही कल प्रभु ने उकेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
२९-९-२०१५
***
बुंदेली गीत:
पोछो हमारी कार.....
*
ड्राइव पे तोहे लै जाऊँ,
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़,
कहे जग
-
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार..... *
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
*
बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे बलमा अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, करो न रार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
२९-९-२०१०
*

शनिवार, 28 सितंबर 2024

सितंबर २८, नवगीत, पुरखे, चित्र अलंकार, दोहा,

सलिल सृजन सितंबर २८
*
नवगीत
तुम्हें प्रणाम
*
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।

*
सूक्ष्म काय थे,
चित्र गुप्त रख, विधि बन
सृष्टि रची अंशों से।
नाद-ताल-ध्वनि, सुर-सरगम
व्यापे वंशों में।
अणु-परमाणु-विषाणु
विष्णु हो धारे तुमने।
कोष-वृद्धि कर
'श्री' पाई है।
जल-थल-नभ पर
कीर्ति-पताका
फहराई है।
बन श्रद्धा-विश्वास
व्याप्त हो हर कंकर में।
जननी-जनक देखते हम
गौरी-शंकर में।
पंचतत्व तुम
नाम अनाम।
मेरे पुरखों!
सतत प्रणाम।
*
भूत-अभूत तुम्हीं ने
नाते, बना निभाए।
पैर जमीं पर जमा
धरा को थे छू पाए।
द्वैत दिखा,
अद्वैत-पथ वरा।
कहा प्रकृति ने
मनुज हो खरा।
लड़े, मर-मिटे
असुर और सुर।
मिलकर जिए
किंतु वानर-नर।
सेतुबंध कर मिटा दूरियाँ
काम करे रहकर निष्काम।
मेरे पुरखों!
विनत प्रणाम।
*
धरा-पुत्र हे!
प्रकृति-मित्र हे!
गही विरासत,
हाय! न हमने।
चूक करी
रौंदा प्रकृति को।
अपनाया मोहक विकृति को।
आम न रहकर
'ख़ास' हो रहे।
नाश बीज का
अपने हाथों आप बो रहे।
खाली हाथों जाना फिर भी
जोड़ मर रहे
विधि है वाम।
मेरे पुरखों!
अगिन प्रणाम।।
***
चिंतन
दुर्गा पूजा
*
बचपन में सुना था ईश्वर दीनबंधु है, माँ पतित पावनी हैं।
आजकल मंदिरों के राजप्रासादों की तरह वैभवशाली बनाने और सोने से मढ़ देने की होड़ है। माँ दुर्गा को स्वर्ण समाधि देने का समाचार विचलित कर गया। इतिहास साक्षी है देवस्थान अपनी अकूत संपत्ति के कारण ही लूट को शिकार हुए। मंदिरों की जमीन-जायदाद पुजारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दी।
सनातन धर्म कंकर कंकर में शंकर देखता है।
वैष्णो देवी, विंध्यवासिनी, कामाख्या देवी अादि प्राचीन मंदिरों में पिंड या पिंडियाँ ही विराजमान हैं।
परम शक्ति अमूर्त ऊर्जा है किसी प्रसूतिका गृह में उसका जन्म नहीं होता, किसी श्मशान घाट में उसका दाह भी नहीं किया जा सकता।
थर्मोडायनामिक्स के अनुसार इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायड, कैन ओनली बी ट्रांसफार्म्ड।
अर्थात ऊर्जा का निर्माण या विनाश नहीं केवल रूपांतरण संभव है।
ईश्वर तो परम ऊर्जा है, उसकी जयंती मनाएँ तो पुण्यतिथि भी मनानी होगी।
निराकार के साकार रूप की कल्पना अबोध बालकों को अनुभूति कराने हेतु उचित है किंतु मात्र वहीं तक सीमित रह जाना कितना उचित है?
माँ के करोड़ों बच्चे महामीरी में रोजगार गँवा चुके हैं, अर्थ व्यवस्था के असंतुलन से उत्पादन का संकट है, सरकारें जनता से सहायता हेतु अपीलें कर रही हैं और उन्हें चुननेवाली जनता का अरबों-खरबों रुपया प्रदर्शन के नाम पर स्वाहा किया जा रहा है।
एक समय प्रधान मंत्री को अनुरोध पर सोमवार अपराह्न भोजन छोड़कर जनता जनार्दन ने सहयोग किया था। आज अनावश्यक साज-सज्जा छोड़ने के लिए भी तैयार न होना कितना उचित है?
क्या सादगीपूर्ण सात्विक पूजन कर अपार राशि से असंख्य वंचितों को सहारा दिया जाना बेहतर न होगा?
संतानों का घर-गृहस्थी नष्ट होते देखकर माँ स्वर्णमंडित होकर प्रसन्न होंगी या रुष्ट?
दुर्गा सप्तशती में महामारी को भी भगवती कहा गया है। रक्तबीज की तरह कोरोना भी अपने अंश से ही बढ़ता है। रक्तबीज तभी मारा जा सका जब रक्त बिंदु का संपर्क समाप्त हो गया। रक्त बिंदु और भूमि (सतह) के बीच सोशल कॉन्टैक्ट तोड़ा था मैया ने। आज बेटों की बारी है। कोरोना वायरस और हवा, मानवांग या स्थान के बीच सोशल कॉन्टैक्ट तोड़कर कोरोना को मार दें। यह न कर कोरोना के प्रसार में सहायक जन देशद्रोही ही नहीं मानव द्रोही भी हैं। उनके साथ कानून वही करे जो माँ ने शुंभ-निशुंभ के साथ किया। कोरोना को मानव बम बनाने की सोच को जड़-मूल से ही मिटाना होगा।
२-४-२०२०
***
: अलंकार चर्चा १३ :
चित्रमूलक अलंकार
काव्य रचना में समर्थ कवि ऐसे शब्द-व्यवस्था कर पाते हैं जिनसे निर्मित छंदों को विविध आकृतियों चक्र, चक्र-कृपाण, स्वस्तिक, कामधेनु, पताका, मंदिर, नदी, वृक्ष आदि चित्रों के रूप में अंकित किया सकता है.
कुछ छंदों को किसी भी स्थान से पढ़ा जा सकता है औए उनसे विविध अन्य छंद बनते चले जाते हैं. इस वर्ग के अंतर्गत प्रश्नोत्तर, अंतर्लिपिका, बहिर्लिपिका, मुकरी आदि शब्द चमत्कारतयुक्त काव्य रचनाएँ समाहित की जा सकती हैं.
चित्र काव्य का मुख्योद्देश्य मनोरंजन है. इसका रसात्मक पराभव नगण्य है. इस अलंकार में शब्द वैचित्र्य और बुद्धिविलास के तत्व प्रधान होते हैं.
शोध लेख:
चित्र मूलक अलंकार और चित्र काव्य
हिंदी साहित्य में २० वीं सदी तक चित्र काव्य का विस्तार हुआ. चित्र काव्य के अनेक भेद-विभेद इस कालखण्ड में विकसित हुए. प्राचीन काव्य ग्रंथों में इनका व्यवस्थित उल्लेख प्राप्त है. सामंतवादी व्यवस्था में राज्याश्रय में चित्र अलंकार के शब्द-विलास और चमत्कार को विशेष महत्व प्राप्त हुआ. फलत: उत्तरमध्ये काल और वर्तमान काल के प्रथम चरण में समस्यापूर्ति का काव्य विधा के रूप में प्रचलन और लोकप्रियता बढ़ी. इस तरह के काव्य प्रकार ऐसे समाज में हो रचे, समझे और सराहे जाना संभव है जहाँ पाठक/श्रोता/काव्य मर्मज्ञ को प्रचुर समयवकाश सुलभ हो.
चित्र अलंकार सज्जित काव्य एक प्रकट का कलात्मक विनोद और कीड़ा है. शब्द=वर्ण क्रीड़ा के रूप में ही इसे देखा-समझा-सराहा जाता रहा. संगीत के क्षेत्र में गलेबाजी को लेकर अनेक भाव-संबद्ध अनेक चमत्कारिक पद्धतियाँ और प्रस्तुतियाँ विकसित हुईं और सराही गयीं. इसी प्रकार काव्य शास्त्र में चित्रात्मक अलंकार का विकास हुआ.
चित्र काव्य को १. भाव व्यंजना, २. वास्तु - विचार निरूपण तथा ३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा के दृष्टिकोण से परखा जा सकता है.
१. भाव व्यंजना:
भाव व्यंजना की दृष्टि से चित्र काव्य / चित्र अलंकार का महत्त्व न्यून है. भावभिव्यंजना चित्र रहित शब्द-अर्थ माध्यम से सहज तथा अधिक सारगर्भित होती है. शब्द-चित्र, चैत्र काव्य तथा चित्र अलंकार जटिल तथा गूढ़ विधाएँ हैं. रस अथवा भाव संचार के निकष पर शब्द पढ़-सुन कर उसका मर्म सरलता से ग्रहण किया जा सकता है. यहाँ तक की चक्षुहीन श्रोता भी मर्म तक पहुँच सकता है किन्तु चित्र काव्य को ब्रेल लिपि में अंकित किये बिना चक्षुहीन उसे पढ़-समझ नहीं सकता। बघिर पाठक के लिए शब्द या चित्र देखकर मर्म समान रूप से ग्रहण किया जा सकता है.
२. वास्तु - विचार निरूपण:
निराकार तथा जटिल-विशाल आकारों का चित्रण संभव नहीं है जबकि शब्द प्रतीति करने में समर्थ होते हैं. विपरीत संश्लिष्ट आकारों को शब्द वर्णन कठिन पर चित्र अधिक स्पष्टता से प्रतीति करा सकता है. बाल पाठकों के लिए अदेखे आकारों तथा वस्तुओं का ज्ञान चित्र काव्य बेहतर तरीके से करा सकता है. ज्यामितीय आकारों, कलाकृतियों, शिल्प, शक्य क्रिया आदि की बारीकियाँ एक ही दृश्य में संचारित कर सकता है जबकि शब्द काव्य को वर्णन करने में अनेक काव्य पंक्तियाँ लग सकती हैं.
३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा:
चित्र अलंकारों तथा चित्र काव्य का मूल अधिक रहा है. स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ प्रतिपादित करने के असाधारण शक्ति प्रदर्शन की तरह असाधारण बौद्धिक क्षमता दिखने की वृति चित्रात्मकता के मूल में रही है. चित्र अलंकार तथा चित्र काव्य का प्रयोग करने में समर्थ जन इतने कम हुए हैं कि स्वतंत्र रूप से इसकी चर्चा प्रायः नहीं होती है.
मम्मट आदि संस्कृत काव्याचार्यों ने तथा उन्हीं के स्वर में स्वर मिलते हुई हिंदी के विद्वानों ने चित्र काव्य को अवर या अधम कोटि का कहा है. जीवन तथा काव्य की समग्रता को ध्यान में रखते हुए ऐसा मत उचित नहीं प्रतीत होता. संभव है कि स्वयं प्रयोग न कर पाने की अक्षमता इस मत के रूप में व्यक्त हुई हो. चित्र काव्य में बौद्धिक विलास ही नहीं बौद्धिक विकास की भी संभावना है. चित्र काव्य का एक विशिष्ट स्थान तथा महत्व स्वीकार किये जाने पर रचनाकार इसका अभ्यास कर दक्षता पाकर रचनाकर्म से वर्ग विशेष के ही नहीं सामान्य श्रोताओं-पाठकों को आनंदित कर सकते हैं.
४. नव प्रयोग:
जीवन में बहुविध क्रीड़ाओं का अपना महत्व होता है उसी तरह चित्र काव्य का भी महत्त्व है जिसे पहचाने जाने की आवश्यकता है. पारम्परिक चित्र काव्यलंकारों और उपादानों के साथ बदलते परिवेश तथा वैज्ञानिक उपकरणों ने चित्र काव्य को नये आयाम कराकर समृद्ध किया है. काव्य पोस्टर, चित्रांकन, काव्य-चलचित्र आदि का प्रयोग कर चित्र काव्य के माध्यम से काव्य विधा का रसानंद श्रवण तथा पठन के साथ दर्शन कर भी लिया जा सकेगा. नवकाव्य तथा शैक्षिक काव्य में चित्र काव्य की उपादेयता असंदिग्ध है. शिशु काव्य ( नर्सरी राइम) का प्रभाव तथा ग्रहण-सामर्थ्य में चित्र काव्य से अभूतपूर्व वृद्धि होती है. चित्र काव्य को मूर्तित कर उसे अभिनय विधा के साथ संयोजित किया जा सकता है. इससे काव्य का दृश्य प्रभाव श्रोता-पाठक को दर्शक की भूमिका में ले आता है जहाँ वह एक साथ श्रवणेंद्रिय दृश्येन्द्रित का प्रयोग कर कथ्य से अधिक नैकट्य अनुभव कर सकता है.
चित्र काव्य को रोचक, अधिक ग्राह्य तथा स्मरणीय बनाने में चित्र अलंकार की महती भूमिका है. अत: इसे हे, न्यून या गौड़ मानने के स्थान पर विशेष मानकर इस क्षेत्र के समर्थ रचनाकारों को प्रत्साहित किया जाना आवश्यक है. चित्र काव्य कविता और बच्चों, कम पढ़े या कम समझदार वर्ग के साथ विशेषज्ञता के क्षेत्रों में उपयोगी और प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकता है.
इस दृष्टि से अभिव्यक्ति विश्वम ने २०१४ में लखनऊ में संपन्न वार्षिकोत्सव में उल्लेखनीय प्रयोग किये हैं. श्रीमती पूर्णिमा बर्मन, अमित कल्ला, रोहित रूसिया आदि ने नवगीतों पर चित्र पोस्टर, गायन, अभिनय तथा चलचित्रण आदि विधाओं का समावेश किया. आवश्यक है कि पुरातन चित्र काव्य परंपरा को आयामों में विकसित किया जाए और चित्र अलंकारों रचा, समझ, सराहा जाए.
यहाँ हमारा उद्देश्य काव्य का विश्लेषण नहीं, चित्र अलंकारों से परिचय मात्र है. कुछ उदाहरण देकर इस प्रसंक का पटाक्षेप करते हैं:
उदाहरण:
१. धनुर्बन्ध चित्र: देखें संलग्न चित्र १.
मन मोहन सों मान तजि, लै सब सुख ए बाम
ना तरु हनिहैं बान अब, हिये कुसुम सर बाम
देखें संलग्न चित्र १.
२. गतागति चित्र: देखें संलग्न चित्र २.
(उल्टा-सीधा एक समान). प्रत्येक पंक्ति का प्रथमार्ध बाएं से दायें तथा उत्तरार्ध दायें से बाएं सामान होता है तथापि पूरी पंक्ति बाएं से दायें पढ़ने पर अर्थमय होती है.
की नी रा न न रा नी की.
सो है स दा दास है सो.
मो हैं को न न को हैं मो.
ती खे न चै चै न खे ती.
३. ध्वज चित्र: देखें संलग्न चित्र ३.
भोर हुई सूरज किरण, झाँक थपकति द्वार
पुलकित सरगम गा रही, कलरव संग बयार
चलो हम ध्वज फहरा दें.
संग जय हिन्द गुँजा दें.
*
भोर हुई
सूरज किरण
झाँक थपकती द्वार।
पुलकित सरगम गा रही
कलरव संग बयार।।
चलो
हम
ध्वज
फहरा
दें।
संग
जय
हिन्द
गुँजा
दें।
४. चित्र: देखें संलग्न चित्र ४.
हिंदी जन-मन में बसी, जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर छा रहा कैसा अद्भुत नूर
जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित संतूर
अंग्रेजी-प्रेमी कुढ़ें, देख रहे हैं घूर
हिंदी जग-भाषा बने, विधि को है मंजूर
हिंदी-प्रेमी हो रहे, 'सलिल' हर्ष से चूर
हिंदी
जन-मन में बसी
जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित संतूर
ज कै
ग सा
वा अ
णी ॐ द
प भु
र त
छा नू
रहा र।
अंग्रेजी - प्रेमी कुढ़ें , देख रहे हैं घूर
हिंदी जग - भाषा बने , विधि को है मंजूर
हिंदी - प्रेमी हो रहे , 'सलिल' हर्ष से चूर
५. लगभग ५००० सम सामयिक काव्य कृतियों में से केवल एक में मुझे चित्र मूलक लंकार का प्रभावी प्रयोग देखें मिल. यह महाकाव्य है महाकवि डॉ. किशोर काबरा रचित 'उत्तर भागवत'. बालक कृष्ण तथा सुदामा आदि शिक्षा ग्रहण करने के लिये महाकाल की नगरी उज्जयिनी स्थित संदीपनी ऋषि के आश्रम में भेजे जाते हैं. मालव भूमि के दिव्य सौंदर्य तथा महाकाल मंदिर से अभिभूत कृष्ण द्वारा स्तुति-जयकार प्रसंग चित्र मूलक लंकार द्वारा वर्णित है.
देखें संलग्न चित्र ५.
मालव पठार!
मालव पठार!!
सतपुड़ा, देवगिरि, विंध्य, अरवली-
नगराजों से झिलमिल ज्योतित
मुखरित अभिनन्दित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
चंबल, क्षिप्रा, नर्मदा और
शिवना की जलधाराओं से
प्रतिक्षण अभिसिंचित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
दशपुर, उज्जयिनी, विदिशा, धारा-
आदि नगरियों के जन-जन से
प्रतिपल अभिवन्दित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
***
नवगीत:
संजीव
*
समय-समय की बलिहारी है
*
सौरभ की सीमा बाँधी
पर दुर्गंधों को
छूट मिली है.
भोर उगी है बाजों के घर
गिद्धों के घर
साँझ ढली है.
दिन दोपहरी गर्दभ श्रम कर
भूखा रोता,
प्यासा सोता.
निशा-निशाचर भोग भोगकर
भत्ता पाता
नफरत बोता.
तुलसी बिरवा त्याज्य हुआ है
कैक्टस-नागफनी प्यारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
शूर्पणखायें सज्जित होकर
जनप्रतिनिधि बन
गर्रायी हैं.
किरण पूर्णिमा की तम में घिर
कुररी माफिक
थर्रायी हैं.
दरबारी के अच्छे दिन है
मन का चैन
आम जन खोता.
कुटी जलाता है प्रदीप ही
ठगे चाँदनी
चंदा रोता.
शरद पूर्णिमा अँधियारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
ओम-व्योम अभिमंत्रित होकर
देख रहे
संतों की लीला.
भस्मासुर भी चंद्र-भाल पर
कर धर-भगा
सकल यश लीला.
हरि दौड़ें हिरना के पीछे
होश हिरन,
सत-सिया गँवाकर.
भाषा से साहित्य जुदाकर
सत्ता बेचे
माल बना कर.
रथ्या से निष्ठा हारी है
समय-समय की बलिहारी है
***
मुक्तक:
हर रजनी हो शरद पूर्णिमा, चंदा दे उजियाला
मिले सफलता-सुयश असीमित, जीवन बने शिवाला
देश-धर्म-मानव के आयें काम सार्थक साँसें-
चित्र गुप्त उज्जवल अंतर्मन का हो दिव्य निराला
२८-९-२०१५
***
दोहा सलिला:
पितृ-स्मरण
*
पितृ-स्मरण कर 'सलिल', बिसर न अपना मूल
पितरों के आशीष से, बनें शूल भी फूल
*
जड़ होकर भी जड़ नहीं, चेतन पितर तमाम
वंश-वृक्ष के पर्ण हम, पितर ख़ास हम आम
*
गत-आगत को जोड़ता, पितर पक्ष रह मौन
ज्यों भोजन की थाल में, रहे- न दिखता नौन
*
पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़े, वंश वृक्ष अभिराम
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़े, पाने लक्ष्य ललाम
*
कल के आगे विनत हो, आज 'सलिल' हो धन्य
कल नत आगे आज के, थाती दिव्य अनन्य
*
जन्म अन्न जल ऋण लिया, चुका न सकते दाम
नमन न मन से पितर को, किया- विधाता वाम
*
हमें लाये जो उन्हीं का, हम करते हैं दाह
आह न भर परवाह कर, तारें तब हो वाह
२८-९-२०१३
*