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मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

muktika

मुक्तिका 
*
मैं समय हूँ, सत्य बोलूँगा. 
जो छिपा है राज खोलूँगा.
*
अनतुले अब तक रहे हैं जो
बिना हिचके उन्हें तोलूँगा.
*
कालिया है नाग काला धन
नाच फन पर नहीं डोलूँगा.
*
रूपए नकली हैं गरल उसको
मिटा, अमृत आज घोलूँगा
*
कमीशनखोरी न बच पाए
मिटाकर मैं हाथ धो लूँगा
*
क्यों अकेली रहे सच्चाई?
सत्य के मैं साथ हो लूँगा
*
ध्वजा भारत की उठाये मैं
हिन्द की जय 'सलिल' बोलूँगा
***

www.divyanarmada.in
#हिंदी_ब्लॉगर 

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

muktak

मुक्तक:
दूर रहकर भी जो मेरे पास है.
उसी में अपनत्व का आभास है..
जो निपट अपना वही तो ईश है-
क्या उसे इस सत्य का अहसास है
*
भ्रम तो भ्रम है, चीटी हाथी, बनते मात्र बहाना.
खुले नयन रह बंद सुनाते, मिथ्या 'सलिल' फ़साना..
नयन मूँदकर जब-बज देखा, सत्य तभी दिख पाया-
तभी समझ पाया माया में कैसे सत्पथ पाना..
*
भीतर-बाहर जाऊँ जहाँ भी, वहीं मिले घनश्याम.
खोलूँ या मूंदूं पलकें, हँसकर कहते 'जय राम'..
सच है तो सौभाग्य, अगर भ्रम है तो भी सौभाग्य-
सीलन, घुटन, तिमिर हर पथ दिखलायें उमर तमाम..
*
l'******
१-८-२०१६
http://divyanarmada.blogspot.in
salil.sanjiv@gmail.com
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#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

एक गीत : होता है... __ संजीव 'सलिल'

एक गीत                                                                                       
होता है...
संजीव 'सलिल'
*
जाने ऐसा क्यों होता है?
जानें ऐसा यों होता है...
*
गत है नीव, इमारत है अब,
आसमान आगत की छाया.
कोई इसको सत्य बताता,
कोई कहता है यह माया.

कौन कहाँ कब मिला-बिछुड़कर?
कौन बिछुड़कर फिर मिल पाया?
भेस किसी ने बदल लिया है,
कोई न दोबारा मिल पाया.

कहाँ परायापन खोता है?
कहाँ निजत्व कौन बोता है?...
*
रचनाकार छिपा रचना में
ज्यों सजनी छिपती सजना में.
फिर मिलना छिपता तजना में,
और अकेलापन मजमा में.

साया जब  धूमिल हो जाता.
काया का पाया, खो जाता.
मन अपनों को भूल-गँवाता,
तन तनना तज, झुक तब पाता.

साँस पतंग, आस जोता है.
तन पिंजरे में मन तोता है... 
*
जो अपना है, वह सपना है.
जग का बेढब हर नपना है.
खोल, मूँद या घूर, फाड़ ले,
नयन-पलक फिर-फिर झपना है.

हुलस-पुलक मत हो उदास अब.
आएगा लेकर उजास रब.
एकाकी हो बात जोहना,
मत उदास हो, पा हुलास सब.

मिले न जो हँसता-रोता है.
मिले न जो जगता-सोता है...
*****************