दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
सोमवार, 1 मार्च 2021
लघुकथा
चित्र अलंकार: झंडा
फागुन
होली पर छंद
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
पिचकारी ले राम जी, करते खूब धमाल।।
चले आओ गले मिल लो, पुलक इस साल होली में
भुला शिकवे-शिकायत, लाल कर दें गाल होली में
बहाकर छंद की सलिला, भिगा दें स्नेह से तुमको
खिला लें मन कमल अपने, हुलस इस साल होली में
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नहीं माया की गल पाई है अबकी दाल होली में
नहीं अखिलेश-राहुल का सजा है भाल होली में
अमित पा जन-समर्थन, ले कमल खिल रहे हैं मोदी
लिखो कविता बने जो प्रेम की टकसाल होली में
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ईंट पर ईंट हो सहयोग की इस बार होली में
लगा सरिए सुदृढ़ कुछ स्नेह के मिल यार होली में
मिला सीमेंट सद्भावों की, बिजली प्रीत की देना
रचे निर्माण हर सुख का नया संसार होली में
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न छीनो चैन मन का ऐ मेरी सरकार होली में
न रूठो यार लगने दो कवित-दरबार होली मे
मिलाकर नैन सारी रैन मन बेचैन फागुन में
गले मिल, बाॅंह में भरकर करो सत्कार होली में
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करो जब कल्पना कवि जी रॅंगीली ध्यान यह रखना
पियो ठंडाई, खा गुझिया नशीली होश मत तजना
सखी, साली, सहेली या कि कवयित्री सुना कविता
बुलाती लाख हो, सॅंग सजनि के साजन सदा सजना
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हुरियारों पे शारद मात सदय हों, जाग्रत सदा विवेक रहे
हैं चित्र जो गुप्त रहे मन में, साकार हों कवि की टेक रहे
हर भाल पे, गाल पे लाल गुलाल हो शोभित अंग अनंग बसे
मुॅंह काला हो नापाकों का, जो राहें खुशी की छेंक रहे
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नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी मोहे बरजो न राधिका
आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो मुॅंह ही न फेर ले साॅंसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाॅंवरे से साॅंवरे की कामना भी बाॅंवरी
बैन से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका
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लाल-पीले गाल, नीली नाक, माथा कच हरा, श्याम ठोड़ी, श्वेत केशों की छटा है मोहती
दंत हैं या दामिनी है, कौन कहें देख हँसी, फागुनी है सावनी भी, छवि-छटा सोहती
कहे दोहा पढ़े हरिगीतिका बौरा रही है, बाल शशि देख शशिमुखी,मुस्कुरा रही
झट बौरा बढ़े गौरा को लगाने रंग जब, चला पिचकारी गोरी रंग बरसा गई
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१-३-२०१८
देवकी नन्दन 'शांत'
जन्म दिवस पर शत अभिनन्दन
अर्पित अक्षत कुंकुम चन्दन
*
जन्म दिवस पर दीप जलाओ, ज्योति बुझाना छोडो यार
केक न काटो बना गुलगुले, करो स्नेहियों का सत्कार
शीश ईश को प्रथम नवाना, सुमति-धर्म माँगो वरदान
श्रम से मुँह न चुराना किंचित, जीवन हो तब ही रसखान
आलस से नित टकराना है, देना उसे पटककर मात
अन्धकार में दीप जलना, उगे रात से 'सलिल' प्रभात
*
शांत जी की एक रचना
दीपक बन जाऊँ या फिर मैं दीपक की बाती बन जाऊँ
दीपक बाती क्या बनना है दिपती लौ घी की बन जाऊँ
दीपक बाती घृत-युत लौ से अन्तर्मन की ज्योति जलाकर
मन-मन्दिर में बैठा सोचूँ, पूजा की थाली बन जाऊँ
पूजा की थाली की शोभा अक्षत चन्दन सुमन सुगंधित
खुशबू चाह रही है मैं भी शीतल चन्दन सी बन जाऊँ
शीतल चन्दन की खुशबू में रंगों का इक इन्द्रधनुष है
इन्द्रधनुष की है अभिलाषा तान मैं सरगम की बन जाऊँ
सरगम के इन ‘शान्त’ सुरों में मिश्रित रागों का गुंजन है
तान कहे मैं भी कान्हा के अधरों की वंशी बन जाऊँ
— देवकी नन्दन ‘शान्त’
नवगीत
संजीव
.
ठेठ जमीनी जिंदगी
बिता रहा हूँ
ठाठ से
.
जो मन भाये
वह लिखता हूँ.
नहीं और सा
मैं दीखता हूँ.
अपनी राहें
आप बनाता.
नहीं खरीदा,
ना बिकता हूँ.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
.
कलकल बहता
निर्मल रहता.
हर मौसम की
यादें तहता.
पत्थर का भी
वक्ष चीरता-
सुख-दुःख सम जी,
नित सच कहता.
जीने खातिर
हँस मरता हूँ.
अश्रु पोंछकर
मैं तरता हूँ.
खेत गोड़ता झूमता
दूर रहा हूँ
खाट से.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
.
रासो गाथा
आल्हा राई
पंथी कजरी
रहस बधाई.
फाग बटोही
बारामासी
ख्याल दादरा
गरी गाई.
बनरी सोहर
ब्याह सगाई.
सैर भगत जस
लोरी भाई.
गीति काव्य मैं, बाँध मुझे
मत मानक की
लाट से.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
***
लेख: ईसुरी की अलौकिक फाग नायिका रजऊ और बुन्देली परम्पराएँ
गंग छंद
गंग छंद
संजीव
*
लक्षण: जाति आंक, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ९, चरणान्त गुरु गुरु
लक्षण छंद:
नयना मिलाओ, हो पूर्ण जाओ,
दो-चार-नौ की धारा बहाओ
लघु लघु मिलाओ, गुरु-गुरु बनाओ
आलस भुलाओ, गंगा नहाओ
उदाहरण:
१. हे गंग माता! भव-मुक्ति दाता
हर दुःख हमारे, जीवन सँवारो
संसार की दो खुशियाँ हजारों
उतर आस्मां से आओ सितारों
ज़न्नत ज़मीं पे नभ से उतारो
हे कष्टत्राता!, हे गंग माता!!
२. दिन-रात जागो, सीमा बचाओ
अरि घात में है, मिलकर भगाओ
तोपें चलाओ, बम भी गिराओ
सेना अकेली न हो सँग आओ
३. बचपन हमेशा चाहे कहानी
हँसकर सुनाये अपनी जुबानी
सपना सजायें, अपना बनायें
हो ज़िंदगानी कैसे सुहानी?
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
१-३-२०१४
होली नज़ीर अकबराबादी
होली प्रसंग;
कृष्ण चिंतन ४
शनिवार, 27 फ़रवरी 2021
नवगीत
शोक समाचार
मुक्तक मंज़िल
मुक्तक
हम मतवाले पग पगडंडी पर रख झूमे।
बाधाओं को जय कर लें मंज़िल पग चूमे।।
कंकर को शंकर कर दें हम रखें हौसला-
मेहनत कोशिश लगन साथ ले सब जग घूमे।।
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मंज़िल की मत फ़िक्र करो हँस कदम बढ़ाओ।
राधा खुद आए यदि तुम कान्हा बन जाओ।।
शिव न उमा के पीछे जाते रहें कर्मरत-
धनुष तोड़ने काबिल हो तो सिय को पाओ।।
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यायावर राही का राहों से याराना।
बिना रुके आगे, फिर आगे, आगे जाना।।
नई चुनौती नित स्वीकार उसे जय करना-
मंज़िल पर पग धर झट से नव मंज़िल वरना।।
*
काव्य मंजरी छंद राज की जय जय गाए।
काव्य कामिनी अलंकार पर जान लुटाए।।
रस सलिला में नित्य नहा, आनंद पा-लुटा-
मंज़िल लय में विलय हो सके श्वास सिहाए।।
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मंज़िल से याराना अपना।
हर पल नया तराना अपना।।
आप बनाते अपना नपना।
पूरा करें देख हर सपना।।
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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021
Lord Siva
नवगीत कुमार रवींद्र
ये रचना कुमार रवींद्र की अन्तिम दो रचनाओं में से एक है जिसे मैं उनके मित्रों के अवलोकनार्थ डाल रही हूँ। यह रचना २२ दिसम्बर को लिखी गई है। - सरला रवीन्द्र
गीत हम वही हैं
गीत
हम वही हैं

































































