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बुधवार, 7 जून 2017

sagar sikata seep















चित्र पर रचना
** सिकता, सागर, सीप **
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सिकता हूँ वसुधा की बिटिया मेरी गोदी में सागर.
मेरे आँचल में नद-निर्झर जिनसे भरते घट-गागर.
अहं शिलाओं का खंडित हो मुझको देता जन्म रहा.
गले लगाते रही पंक मैं पंकज जग ने तभी गहा.
मेरी संतानें घोंघे हैं सीपी जिनका कड़ा कवच.
मोती-मुक्ता पलते जिनमें शंख न मनु से पाते बच.
बच्चे फैला पैर बनाते घरघूला मैं मुस्काती.
छोटी हरकत बड़े बड़ों की देख कहूँ सच दुःख पाती.
लोभ तुम्हारा दंशित करता,खोद-बेचते करते लोभ.
भवन बना संतोष न पाते, कभी न जाता मन का क्षोभ.
थपक-थपक सागर की लहरें, मुझे सांत्वना देती हैं.
तुम मनुजों सी नहीं स्वार्थी, दाम न कुछ भी लेती हैं.
दिनकर आता, खूब तपाता, चन्दा शीतल करता है.
क्रीडा करती शुभ्र ज्योत्सना, रूप देख शशि मरता है.
प्रकृति-पुत्र हम,नियति नटी के, ऋतु-चक्रों अनुसार ढलें.
मनुज सीख ले, प्रकृति वक्ष पर निज हित हेतु न दाल दले.
मलिन न सिकता-सलिल को करे, स्वच्छ रखे सारे जग को.
पर्यावरण न दूषितकर, मंगल जगती का तनिक करे.
***

मंगलवार, 8 मार्च 2011

एक कविता महिला दिवस पर : धरती संजीव 'सलिल'

एक कविता महिला दिवस पर :
                                                                                             
धरती

संजीव 'सलिल'
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..

**************

बुधवार, 19 मई 2010

रचना प्रति रचना : ...क्या कीजे? --महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’, संजीव 'सलिल'

रचना प्रति रचना 
 वरिष्ठ और ख्यातिलब्ध शायर श्री महेश चन्द्र गुप्त 'खलिश' रचित यह ग़ज़ल ई-कविता के पृष्ठ पर प्रकाशित हुई. इसे पढ़कर हुई प्रतिक्रिया प्रस्तुत हैं. जो अन्य रचनाकार इस पर लिखेंगे वे रचनाएँ और प्रतिक्रियाएँ भी यहाँ प्रकाशित होंगी. उद्देश्य रचनाधर्मिता और पठनीयता को बढाकर रचनाकारों को निकट लाना मात्र है.
 जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे ईकवितामई २०१० 
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे
जब हार गए हों  मैदाँ में, शमशीरी दम-खम क्या कीजे
दुनिया में अकेले आए थे, दुनिया से अकेले जाना है
दुनिया की राहों में पाया हमराह नहीं ग़म क्या कीजे
बिठला कर के अपने दिल में हम उनकी पूजा करते हैं
वो समझें हमको बेगाना, बतलाए कोई हम क्या कीजे
दिल में तो उनके नफ़रत है पर  मीठी बातें करते हैं
वो प्यार-मुहब्बत के झूठे लहराएं परचम, क्या कीजे
क्या वफ़ा उन्हें मालूम नहीं, बेवफ़ा हमें वो कहते हैं
सुन कर ऐसे इल्ज़ाम ख़लिश जब आँखें हों नम क्या कीजे

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
*
मुक्तिका:
...
क्या कीजे?
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे?

सब भुला खलिश, आ नेह-नर्मदा से चुल्लू भर जल पीजे.

दे बदी का बदला नेकी से, गम के बदले में खुशी लुटा.
देता है जब ऊपरवाला, नीचेवाले से क्या लीजे?

दुनियादारी की वर्षा में तू खुद को तर मत होने दे.
है मजा तभी जब प्यार-मुहब्बत की बारिश में तू भीजे.

जिसने बाँटा वह ज्यों की त्यों चादर निर्मल रख चला गया.
जिसने जोड़ा वह चिंता कर अंतिम दम तक मुट्ठी मीजे.

सागर, नदिया या कूप न रीता कभी पिलाकर जल अपना.
मत सोच 'सलिल' किसको कितना कब-कब कैसे या क्यों दीजे?
*