गीत:
पहले जीभर.....
संजीव 'सलिल'
*
पहले जीभर लूटा उसने,
फिर थोड़ा सा दान कर दिया.
जीवन भर अपमान किया पर
मरने पर सम्मान कर दिया.....
*
भूखे को संयम गाली है,
नंगे को ज्यों दीवाली है.
रानीजी ने फूँक झोपड़ी-
होली पर भूनी बाली है..
तोंदों ने कब क़र्ज़ चुकाया?
भूखों को नीलाम कर दिया??
*
कौन किसी का यहाँ सगा है?
नित नातों ने सदा ठगा है.
वादों की हो रही तिजारत-
हर रिश्ता निज स्वार्थ पगा है..
जिसने यह कटु सच बिसराया
उसका काम तमाम कर दिया...
*
जो जब सत्तासीन हुआ तब
'सलिल' स्वार्थ में लीन हुआ है.
धनी अधिक धन जोड़ रहा है-
निर्धन ज्यादा दीन हुआ है..
लोकतंत्र में लोभतंत्र ने
खोटा सिक्का खरा कर दिया...
**********
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 22 नवंबर 2010
गीत: पहले जीभर..... संजीव 'सलिल'
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शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010
नवगीत: महका... महका... --------- संजीव 'सलिल'
नवगीत:
महका... महका...
संजीव 'सलिल'
*
महका... महका...
मन-मन्दिर रख सुगढ़-सलौना
चहका...चहका...
*
आशाओं के मेघ न बरसे,
कोशिश तरसे.
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घरसे..
बासन माँजे, कपड़े धोये,
काँख-काँखकर.
समझ न आये पर-सुख से
हरषे या तरसे?
दहका...दहका...
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका...लहका...
*
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाये?
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताये?
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी,
आँखें चमकें.
कहाँ जाएगी मंजिल?
सपने हों न पराये.
बहका...बहका..
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका...
*
महका... महका...
संजीव 'सलिल'
*
महका... महका...
मन-मन्दिर रख सुगढ़-सलौना
चहका...चहका...
*
आशाओं के मेघ न बरसे,
कोशिश तरसे.
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घरसे..
बासन माँजे, कपड़े धोये,
काँख-काँखकर.
समझ न आये पर-सुख से
हरषे या तरसे?
दहका...दहका...
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका...लहका...
*
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाये?
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताये?
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी,
आँखें चमकें.
कहाँ जाएगी मंजिल?
सपने हों न पराये.
बहका...बहका..
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका...
*
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शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
सामयिक कविता : है बुरा हाल मंहगाई की मार है ---प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
सामयिक कविता :
देश दिखता मुझे बहुत बीमार है...........
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
*
है बुरा हाल मंहगाई की मार है, देश दिखता मुझे बहुत बीमार है।
गांव की हर गली झोपडी है दुखी, भूख से बाल-बच्चों में चीत्कार है।
*
शांति उठ सी गई आज धरती से है, लोग सारे ही व्याकुल है बेचैन हैं
पेट की आग को बुझाने की फिकर में, सभी जन सतत व्यस्त दिन रैन है।
जो जहाँ भी है उलझन में गंभीर है, आयें दिन बढती जाती नई पीर है।
रोजी रोटी के चक्कर में है सब फंसे, साथ देती नहीं किंतु तकदीर है।
प्रदर्शन है कहीं, कहीं हड़ताल है, कहीं करफ्यू कहीं बंद बाजार है।
लाठियाँ, गोलियाँ औ‘ गिरफ्तारियाँ, जो जहाँ भी है भड़भड़ से बेजार है।
*
समझ आता नहीं, क्यों ये क्या हो रहा, लोग आजाद हैं डर किसी को नहीं।
मानता नहीं कोई किसी का कहा, जिसे जो मन में आता है करता वहीं।
बातों में सब हुये बड़े होषियार है, सिर्फ लेने को हर लाभ आगे खड़े।
किंतु सहयोग और समझारी भुला, स्वार्थ हित सिर्फ लड़ने को रहते अड़े है।
आदमी खो चुका आदमियत इस तरह, कहीं कोई न दिखता समझदार है,
जैसे रिष्ता किसी का किसी से नहीं, जिसे देखो वो लड़ने को तैयार है।
*
समझते लोग कम है नियम कायदे, देखते सभी अपने ही बस फायदे,
राजनेताओं को याद रहते नहीं, कभी जनता से जो भी किये वायदे।
चाह उनकी हैं पहले सॅंवर जाये घर, देशहित की किसी को नहीं कोई फिकर,
बढ़ रही है समस्यायें नित नई मगर, रीति और नीति में कोई न दिखता असर।
घूंस लेना औ‘ देना चलन बन गई, सीधा- सच्चा जहाँ जो हैं लाचार है।
रोज घपले घोटाले है सरकार में, किंतु होता नहीं कोई उपचार है।
*
योजनायें नई बनती है आयें दिन, किंतु निर्विघ्न होने न पातीं सफल।
बढ़ता जाता अंधेरा हर एक क्षेत्र में, डर है शायद न हो घना और ज्यादा कल।
सिर्फ आशा है भगवान से, उठ चुका आपसी प्रेम सद्भाव विष्वास है।
देष की दुर्दशा देख होता है दुख, जिसका उज्जवल रहा पिछला इतिहास है।
आज की रीति हुई काम जिससे बने, कहा जाता उसी को सदाचार है।
जो निरूपयोगी उसका तिरस्कार है, आज का ‘विदग्ध‘ यह ही सुसंस्कार है।
*
कल क्या होगा यह कहना बहुत ही कठिन है, कोई भी नहीं दिखता खबरदार है
जिसे देखों जहाँ देखों, वह ही वहाँ कम या ज्यादा बराबर गुनहगार है।
--- ओ.बी. 11 एम.पी.ई.बी. कालोनी, रामपुर, जबलपुर म.प्र.
********************
देश दिखता मुझे बहुत बीमार है...........
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
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है बुरा हाल मंहगाई की मार है, देश दिखता मुझे बहुत बीमार है।
गांव की हर गली झोपडी है दुखी, भूख से बाल-बच्चों में चीत्कार है।
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शांति उठ सी गई आज धरती से है, लोग सारे ही व्याकुल है बेचैन हैं
पेट की आग को बुझाने की फिकर में, सभी जन सतत व्यस्त दिन रैन है।
जो जहाँ भी है उलझन में गंभीर है, आयें दिन बढती जाती नई पीर है।
रोजी रोटी के चक्कर में है सब फंसे, साथ देती नहीं किंतु तकदीर है।
प्रदर्शन है कहीं, कहीं हड़ताल है, कहीं करफ्यू कहीं बंद बाजार है।
लाठियाँ, गोलियाँ औ‘ गिरफ्तारियाँ, जो जहाँ भी है भड़भड़ से बेजार है।
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समझ आता नहीं, क्यों ये क्या हो रहा, लोग आजाद हैं डर किसी को नहीं।
मानता नहीं कोई किसी का कहा, जिसे जो मन में आता है करता वहीं।
बातों में सब हुये बड़े होषियार है, सिर्फ लेने को हर लाभ आगे खड़े।
किंतु सहयोग और समझारी भुला, स्वार्थ हित सिर्फ लड़ने को रहते अड़े है।
आदमी खो चुका आदमियत इस तरह, कहीं कोई न दिखता समझदार है,
जैसे रिष्ता किसी का किसी से नहीं, जिसे देखो वो लड़ने को तैयार है।
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समझते लोग कम है नियम कायदे, देखते सभी अपने ही बस फायदे,
राजनेताओं को याद रहते नहीं, कभी जनता से जो भी किये वायदे।
चाह उनकी हैं पहले सॅंवर जाये घर, देशहित की किसी को नहीं कोई फिकर,
बढ़ रही है समस्यायें नित नई मगर, रीति और नीति में कोई न दिखता असर।
घूंस लेना औ‘ देना चलन बन गई, सीधा- सच्चा जहाँ जो हैं लाचार है।
रोज घपले घोटाले है सरकार में, किंतु होता नहीं कोई उपचार है।
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योजनायें नई बनती है आयें दिन, किंतु निर्विघ्न होने न पातीं सफल।
बढ़ता जाता अंधेरा हर एक क्षेत्र में, डर है शायद न हो घना और ज्यादा कल।
सिर्फ आशा है भगवान से, उठ चुका आपसी प्रेम सद्भाव विष्वास है।
देष की दुर्दशा देख होता है दुख, जिसका उज्जवल रहा पिछला इतिहास है।
आज की रीति हुई काम जिससे बने, कहा जाता उसी को सदाचार है।
जो निरूपयोगी उसका तिरस्कार है, आज का ‘विदग्ध‘ यह ही सुसंस्कार है।
*
कल क्या होगा यह कहना बहुत ही कठिन है, कोई भी नहीं दिखता खबरदार है
जिसे देखों जहाँ देखों, वह ही वहाँ कम या ज्यादा बराबर गुनहगार है।
--- ओ.बी. 11 एम.पी.ई.बी. कालोनी, रामपुर, जबलपुर म.प्र.
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pro c.b. shrivastav 'vidagdh'
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
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