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रविवार, 11 अक्टूबर 2015

lekh: vaidik kaal men maans bhakshan

विशेष आलेख:
क्या वेदों में पशुबलि, मांसाहार आदि का विधान है?
- विवेक आर्य 

वेदों के विषय में सबसे अधिक प्रचलित अगर कोई शंका है तो वह हैं कि क्या वेदों में पशुबलि, माँसाहार आदि का विधान है?
इस लेख के माध्यम से आप इन प्रश्नों का उत्तर सहजता से पा सकते हैं।
*
वैदिक का ल में पशु मांस भक्षण की भ्रान्ति के होने के कुछ कारण है। सर्वप्रथम तो पाश्चात्य विद्वानों जैसे मैक्समुलर[i], ग्रिफ्फिथ[ii] आदि द्वारा यज्ञों में पशुबलि, माँसाहार आदि का विधान मानना, द्वितीय मध्य काल के आचार्यों जैसे सायण[iii], महीधर[iv] आदि का यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करना, तीसरा ईसाईयों, मुसलमानों आदि द्वारा माँस भक्षण के समर्थन में वेदों कि साक्षी देना[v], चौथा साम्यवादी अथवा नास्तिक विचारधारा[vi] के समर्थकों द्वारा सुनी-सुनाई बातों को बिना जाँचें बार बार रटना।

किसी भी सिद्धांत अथवा किसी भी तथ्य को आँख बंद कर मान लेना बुद्धिमान लोगों का लक्षण नहीं है। हम वेदों के सिद्धांत कि परीक्षा वेदों कि साक्षी द्वारा करेगे जिससे हमारी भ्रान्ति का निराकरण हो सके। 

शंका 1 क्या वेदों में मांस भक्षण का विधान हैं?

उत्तर:- वेदों में मांस भक्षण का स्पष्ट निषेध किया गया हैं। अनेक वेद मन्त्रों में स्पष्ट रूप से किसी भी प्राणि को मारकर खाने का स्पष्ट निषेध किया गया हैं। जैसे: 

= हे मनुष्यों ! जो गौ आदि पशु हैं वे कभी भी हिंसा करने योग्य नहीं हैं - यजुर्वेद १।१

= जो लोग परमात्मा के सहचरी प्राणी मात्र को अपनी आत्मा का तुल्य जानते हैं अर्थात जैसे अपना हित चाहते हैं वैसे ही अन्यों में भी व्रतते हैं-यजुर्वेद ४०। ७

= हे दांतों तुम चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ। तुम्हारे लिए यही रमणीय भोज्य पदार्थों का भाग हैं । तुम किसी भी नर और मादा की कभी हिंसा मत करो।- अथर्ववेद ६।१४०।२

= वह लोग जो नर और मादा, भ्रूण और अंड़ों के नाश से उपलब्ध हुए मांस को कच्चा या पकाकर खातें हैं, हमें उनका विरोध करना चाहिए- अथर्ववेद ८।६।२३

= निर्दोषों को मारना निश्चित ही महापाप है, हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार। -अथर्ववेद १०।१।२९

इन मन्त्रों में स्पष्ट रूप से यह सन्देश दिया गया हैं कि वेदों के अनुसार मांस भक्षण निषेध हैं। 

शंका २ क्या वेदों के अनुसार यज्ञों में पशु बलि का विधान है?

यज्ञ की महता का गुणगान करते हुए वेद कहते है कि सत्यनिष्ठ विद्वान लोग यज्ञों द्वारा ही पूजनीय परमेश्वर की पूजा करते है।[vii]

यज्ञों में सब श्रेष्ठ धर्मों का समावेश होता है। यज्ञ शब्द जिस यज् धातु से बनता है उसके देवपूजा, संगतिकरण और दान है। इसलिए यज्ञों वै श्रेष्ठतमं कर्म[viii] एवं यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म[ix] इत्यादि कथन मिलते है। यज्ञ न करने वाले के लिए वेद कहते है कि जो यज्ञ मयी नौका पर चढ़ने में समर्थ नहीं होते वे कुत्सित, अपवित्र आचरण वाले होकर यही इस लोक में नीचे-नीचे गिरते जाते है।[x] 

एक और वेद यज्ञ कि महिमा को परमेश्वर की प्राप्ति का साधन बताते है दूसरी और वैदिक यज्ञों में पशुबलि का विधान भ्रांत धारणा मात्र है। यज्ञ में पशु बलि का विधान मध्य काल की देन है। प्राचीन काल में यज्ञों में पशु बलि आदि प्रचलित नहीं थे। मध्यकाल में जब गिरावट का दौर आया तब मांसाहार, शराब आदि का प्रयोग प्रचलित हो गया। सायण, महीधर आदि के वेद भाष्य में मांसाहार, हवन में पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदि का वध करने की अनुमति थी जिसे देखकर मैक्समुलर , विल्सन[xi] , ग्रिफ्फिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों से मांसाहार का भरपूर प्रचार कर न केवल पवित्र वेदों को कलंकित किया अपितु लाखों निर्दोष प्राणियो को मरवा कर मनुष्य जाति को पापी बना दिया। मध्य काल में हमारे देश में वाम मार्ग का प्रचार हो गया था जो मांस, मदिरा, मैथुन, मीन आदि से मोक्ष की प्राप्ति मानता था। आचार्य सायण आदि यूँ तो विद्वान थे पर वाम मार्ग से प्रभावित होने के कारण वेदों में मांस भक्षण एवं पशु बलि का विधान दर्शा बैठे। निरीह प्राणियों के इस तरह कत्लेआम एवं भोझिल कर्मकांड को देखकर ही महात्मा बुद्ध[xii] एवं महावीर ने वेदों को हिंसा से लिप्त मानकर उन्हें अमान्य घोषित कर दिया जिससे वेदों की बड़ी हानि हुई एवं अवैदिक मतों का प्रचार हुआ जिससे क्षत्रिय धर्म का नाश होने से देश को गुलामी सहनी पड़ी। इस प्रकार वेदों में मांसभक्षण के गलत प्रचार के कारण देश की कितनी हानि हुई इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। एक ओर वेदों में जीव रक्षा और निरामिष भोजन का आदेश है तो दूसरी ओर उसके विपरीत उन्हीं वेदों में पशु आदि कि यज्ञों में बलि तर्क संगत नहीं लगती है। स्वामी दयानंद[xiii] ने वेदभाष्य में मांस भक्षण ,पशुबलि आदि को लेकर जो भ्रान्ति देश में फैली थी उसका निवारण कर साधारण जनमानस के मन में वेद के प्रति श्रद्दा भाव उत्पन्न किया। वेदों में यज्ञों में पशु बलि के विरोध में अनेक मन्त्रों का विधान है जैसे:-

यज्ञ के विषय में अध्वर शब्द का प्रयोग वेद मन्त्रों में हुआ है जिसका अर्थ निरुक्त[xiv] के अनुसार हिंसा रहित कर्म है। 

हे ज्ञान स्वरुप परमेश्वर, तू हिंसा रहित यज्ञों (अध्वर) में ही व्याप्त होता है और ऐसे ही यज्ञों को सत्य निष्ठ विद्वान लोग सदा स्वीकार करते है। -ऋग्वेद 1/1 /4 

यज्ञ के लिए अध्वर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद 1/1/8, ऋग्वेद 1/14/21,ऋग्वेद 1/128/4 ऋग्वेद 1/19/1,, ऋग्वेद 3/21/1, सामवेद 2/4/2, अथर्ववेद 4/24/3, अथर्ववेद 1/4/2 इत्यादि मन्त्रों में इसी प्रकार से हुआ है। अध्वर शब्द का प्रयोग चारों वेदों में अनेक मन्त्रों में होना हिंसा रहित यज्ञ का उपदेश है। 

हे प्रभु! मुझे सब प्राणी मित्र की दृष्टि से देखे, मैं सब प्राणियों को मित्र कि प्रेममय दृष्टि से देखूं , हम सब आपस में मित्र कि दृष्टि से देखें।- यजुर्वेद 36 /18

यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म के नाम से पुकारते हुए उपदेश है कि पशुओं कि रक्षा करे। - यजुर्वेद 1 /1 

पति पत्नी के लिए उपदेश है कि पशुओं कि रक्षा करे। - यजुर्वेद 6/11 

हे मनुष्य तुम दो पैर वाले अर्थात अन्य मनुष्यों एवं चार पैर वाले अर्थात पशुओं कि भी सदा रक्षा कर। - यजुर्वेद 14 /8

चारों वेदों में दिए अनेक मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञों में हिंसा रहित कर्म करने का विधान है एवं मनुष्य का अन्य पशु पक्षियों कि रक्षा करने का स्पष्ट आदेश है।

शंका 3 क्या वेदों में वर्णित अश्वमेध, नरमेध, अजमेध, गोमेध में घोड़ा, मनुष्य, गौ कि यज्ञों में बलि देने का विधान नहीं है ? मेध का मतलब है मारना जिससे यह सिद्ध होता है?

उत्तर: मेध शब्द का अर्थ केवल हिंसा नहीं है. मेध शब्द के तीन अर्थ है १. मेधा अथवा शुद्ध बुद्धि को बढ़ाना २. लोगो में एकता अथवा प्रेम को बढ़ाना ३. हिंसा। इसलिए मेध से केवल हिंसा शब्द का अर्थ ग्रहण करना उचित नहीं है। 

जब यज्ञ को अध्वर अर्थात ‘हिंसा रहित‘ कहा गया है, तो उस के सन्दर्भ में ‘ मेध‘ का अर्थ हिंसा क्यों लिया जाये? बुद्धिमान व्यक्ति ‘मेधावी‘ कहे जाते है और इसी तरह, लड़कियों का नाम मेधा, सुमेधा इत्यादि रखा जाता है, तो क्या ये नाम क्या उनके हिंसक होने के कारण रखे जाते है या बुद्धिमान होने के कारण?

अश्वमेध शब्द का अर्थ यज्ञ में अश्व कि बलि देना नहीं है अपितु शतपथ १३.१.६.३ और १३.२.२.३ के अनुसार राष्ट्र के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किये जाने वाले सभी कार्य “अश्वमेध” है[xv]। 

गौ मेध का अर्थ यज्ञ में गौ कि बलि देना नहीं है अपितु अन्न को दूषित होने से बचाना, अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, सूर्य की किरणों से उचित उपयोग लेना, धरती को पवित्र या साफ़ रखना -‘गोमेध‘ यज्ञ है। ‘ गो’ शब्द का एक और अर्थ है पृथ्वी। पृथ्वी और उसके पर्यावरण को स्वच्छ रखना ‘गोमेध’ कहलाता है।[xvi] 

नरमेध का अर्थ है मनुष्य कि बलि देना नहीं है अपितु मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके शरीर का वैदिक रीति से दाह संस्कार करना नरमेध यज्ञ है। मनुष्यों को उत्तम कार्यों के लिए प्रशिक्षित एवं संगठित करना नरमेध या पुरुषमेध या नृमेध यज्ञ कहलाता है।

अजमेध का अर्थ बकरी आदि कि यज्ञ में बलि देना नहीं है अपितु अज कहते है बीज, अनाज या धान आदि कृषि की पैदावार बढ़ाना है। अजमेध का सिमित अर्थ अग्निहोत्र में धान आदि कि आहुति देना है।[xvii]

शंका 4: यजुर्वेद मन्त्र 24/29 में हस्तिन आलभते अर्थात हाथियों को मारने का विधान है?

समाधान :- ’लभ्’ धातु से बनने वाला आलम्भ शब्द का अर्थ मारना नहीं अपितु अच्छी प्रकार से प्राप्त करना , स्पर्श करना या देना होता है। हस्तिन शब्द का अर्थ अगर हाथी ले तो इस मंत्र में राजा को अपने राज्य के विकास हेतु हाथी आदि को प्राप्त करना, अपनी सेनाओं को सुदृढ़ करना बताया गया है। यहाँ पर हिंसा का कोई विधान नहीं है।

पारस्कर सूत्र 2 /2 /16 में कहा गया है कि आचार्य ब्रह्मचारी का आलम्भ अर्थात ह्रदय का स्पर्श करता है। यहाँ पर आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया है। 

पारस्कर सूत्र 1 /8 /8 में ही आया है कि वर वधु के दक्षिण कंधे के ऊपर हाथ ले जाकर उसके ह्रदय का स्पर्श करे। यहाँ पर भी आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया है। 

अगर यहाँ पर आलम्बन शब्द का अर्थ मरना ग्रहण करे तो यह कैसे युक्तिसंगत एवं तर्क संगत सिद्ध होगा? इससे सिद्ध होता हैं कि आलम्भ शब्द का अर्थ ग्रहण करना, प्राप्त करना अथवा स्पर्श करना है।

शंका 5 : वेद, ब्राह्मण एवं सूत्र ग्रंथों में संज्ञपन शब्द आया है जिसका अर्थ पशु को मारना है ?

समाधान:- संज्ञपन शब्द का अर्थ है ज्ञान देना दिलाना तथा मेल कराना है। 

अथर्ववेद 6/10/14-15 में लिखा है कि तुम्हारे मन का ज्ञानपूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो, तुम्हारे हृदयों का ज्ञान पूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो। 

इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण 1/4 में एक आख्यानिका है जिसका अर्थ है- मैं वाणी तुझ मन से अधिक अच्छी हूँ, तू जो कुछ मन में चिंतन करता है मैं उसे प्रकट करती हूँ, मैं उसे अच्छी प्रकार से दूसरों को जतलाती हूँ (संज्ञपयामी)

संज्ञपन शब्द का मेल के स्थान पर हिंसापरक अर्थ करना अज्ञानता का परिचायक है।

शंका 6 : वेदों में गोघ्न अर्थात गायों के वध करने का आदेश है। 

समाधान : गोघ्न शब्द में हन धातु का प्रयोग है जिसके दो अर्थ बनते है हिंसा और गति। गोघ्न में उसका गति अथवा ज्ञान, गमन, प्राप्ति विषयक अर्थ है। मुख्य भाव यहाँ प्राप्ति का है, अर्थात जिसे उत्तम गौ प्राप्त कराई जाये।

हिंसा के प्रकरण में वेद का उपदेश गौ कि हत्या करने वाले से दूर रहने का है। 

ऋग्वेद 1 /114 /10 में लिखा है जो गोघ्न - गौ कि हत्या करनेवाला है अह नीच पुरुष है , वह तुमसे दूर रहे। 

वेदों के कई उदाहरणों से पता चलता है कि ‘हन्’ का प्रयोग किसी के निकट जाने या पास पहुंचने के लिए भी किया जाता है उदहारण में अथर्ववेद 6 /101 /1 में पति को पत्नी के पास जाने का उपदेश है। इस मंत्र का यह अर्थ कि पति पत्नी के पास जाये उचित प्रतीत होता हैं नाकि पति द्वारा पत्नी को मारना उचित सिद्ध होता हैं। इसलिए हनन का केवल हिंसा अर्थ गलत परिपेक्ष में प्रयोग करना भ्रम फैलाने के समान है।

शंका 7 - वेदों में अतिथि को भोजन में गौ आदि का मांस पका कर खिलाने का आदेश है। 

समाधान- ऋग्वेद के मंत्र 10 /68 /3 में अतिथिनीर्गा: का अर्थ अतिथियों के लिए गौए किया गया हैं जिसका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के आने पर गौ को मारकर उसके मांस से उसे तृप्त किया जाता था। 

यहाँ पर जोभ्रम हुआ है उसका मुख्य कारण अतिथिनी शब्द को समझने कि गलती के कारण हुआ है। यहाँ पर उचित अर्थ बनता है ऐसी गौएं जो अतिथियों के पास दानार्थ लाई जायें, उन्हें दान कि जायें। Monier Williams ने भी अपनी संस्कृत इंग्लिश शब्दकोश में अतिथिग्व का अर्थ "To whom guests should go " (P.14) अर्थात जिसके पास अतिथि प्रेम वश जायें ऐसा किया है। श्री Bloomfield ने भी इसका अर्थ "Presenting cows to guests" अर्थात अतिथियों को गौएं भेंट करनेवाला ही किया है। अतिथि को गौ मांस परोसना कपोलकल्पित है।[xviii]

शंका 8 - वेदों में बैल को मार कर खाने का आदेश है। 

समाधान- यह भी एक भ्रान्ति है कि वेदों में बैल को खाने का आदेश है। वेदों में जैसे गौ के लिए अघन्या अर्थात न मारने योग्य शब्द का प्रयोग है उसी प्रकार से बैल के लिए अघ्न्य शब्द का प्रयोग है। 

यजुर्वेद 12/73 में अघन्या शब्द का प्रयोग बैल के लिए हुआ है। इसकी पुष्टि सायणाचार्य ने काण्वसंहिता में भी कि है।

इसी प्रकार से अथर्ववेद 9/4/17 में लिखा है कि बैल सींगों से अपनी रक्षा स्वयं करता है, परन्तु मानव समाज को भी उसकी रक्षा में भाग लेना चाहिए। 

अथर्ववेद 9/4/19 मंत्र में बैल के लिए अधन्य और गौ के लिए अधन्या शब्दों का वर्णन मिलता है। यहाँ पर लिखा है कि ब्राह्मणों को ऋषभ (बैल) का दान करके यह दाता अपने को स्वार्थ त्याग द्वारा श्रेष्ठ बनाता है। वह अपनी गोशाला में बैलों और गौओं कि पुष्टि देखता है। 

अथर्ववेद 9/4/20 मंत्र में जो सत्पात्र में वृषभ (बैल) का दान करता है उसकी गौएं संतान आदि उत्तम रहती है। 

इन उदहारणों से यह सिद्ध होता है कि गौ के साथ साथ बैल कि रक्षा का वेद सन्देश देते है।

शंका 9 - वेद में वशा / वंध्या अर्थात वृद्ध गौ अथवा बैल (उक्षा) को मारने का विधान है। 

समाधान- शंका का कारण ऋग्वेद 8/43/11 मंत्र के अनुसार वन्ध्या गौओं कि अग्नि में आहुति देने का विधान बताया गया है। यह सर्वथा अशुद्ध है। 

इस मंत्र का वास्तविक अर्थ निघण्टु 3 /3 के अनुसार यह है कि जैसे महान सूर्य आदि भी जिसके प्रलयकाल में (वशा) अन्न व भोज्य के समान हो जाते है। इसका शतपथ 5/1/3 के अनुसार अर्थ है पृथ्वी भी जिसके (वशा) अन्न के समान भोज्य है ऐसे परमेश्वर कि नमस्कार पूर्वक स्तुतियों से सेवा करते है। 

वेदों के विषय में इस भ्रान्ति के होने का मुख्य कारण वशा, उक्षा, ऋषभ आदि शब्दों के अर्थ न समझ पाना है। 

यज्ञ प्रकरण में उक्षा और वशा दोनों शब्दों के औषधि परक अर्थ का ग्रहण करना चाहिए, जिन्हें अग्नि में डाला जाता है।

सायणाचार्य एवं मोनियर विलियम्स के अनुसार उक्षा शब्द के सोम, सूर्य, ऋषभ नामक औषधि है। 

वशा शब्द के अन्य अर्थ अथर्ववेद 1/10/1 के अनुसार ईश्वरीय नियम वा नियामक शक्ति है। शतपथ 1/8/3/15 के अनुसार वशा का अर्थ पृथ्वी भी है / अथर्ववेद 20/103/15 के अनुसार वशा का अर्थ संतान को वश में रखने वाली उत्तम स्त्री भी है। इस सत्यार्थ को न समझ कर वेद मन्त्रों का अनर्थ करना निंदनीय है।

शंका 10-वेदादि धर्म ग्रंथों में माष शब्द का उल्लेख हैं जिसका अर्थ मांस खाना है। 

समाधान- माष शब्द का प्रयोग ‘माषौदनम्‘ के रूप में हुआ है। इसे बदल कर किसी मांसभक्षी ने मांसौदनम् अर्थ कर दिया है। यहाँ पर माष एक दाल के समान वर्णित है। इसलिए यहाँ मांस का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आयुर्वेद (सुश्रुत संहिता शरीर अध्याय २) गर्भवती स्त्रियों के लिए मांसाहार को सख्त मना करता है और उत्तम संतान पाने के लिए माष सेवन को हितकारी कहता है। इससे क्या स्पष्ट होता है। यही कि माष शब्द का अर्थ मांसाहार नहीं अपितु दाल आदि को खाने का आदेश है। फिर भी अगर कोई माष को मांस ही कहना चाहे, तब भी मांस को निरुक्त 4/1/3 के अनुसार मनन साधक, बुद्धि वर्धक और मन को अच्छी लगने वाली वास्तु जैसे फलका गूदा , खीर आदि कहा गया है। प्राचीन ग्रंथों में मांस अर्थात गूदा खाने के अनेक प्रमाण मिलते है जैसे चरक संहिता देखे में आम्रमांसं (आम का गूदा) , खजूरमांसं (खजूर का गूदा), तैत्तरीय संहिता २.३२.८ (दही, शहद और धान) को मांस कहा गया है। 

इससे यही सिद्ध होता है कि वेदादि शास्त्रों में जहाँ पर माष शब्द आता है अथवा मांस के रूप में भी जिसका प्रयोग हुआ है उसका अर्थ दाल अथवा फलों का मध्य भाग अर्थात गूदा है।

शंका 11- वेदों में यज्ञ में घोड़े कि बलि देने का और घोड़े का मांस पकाने का वेदों में आदेश है। 

समाधान- यजुर्वेद के 25 अध्याय में सायण, महीधर, उव्वट, ग्रिफ्फिथ, मैक्समुलर आदि ने अश्व हिंसापरक अर्थ किये है। इसका मुख्य कारण वाजिनम् शब्द के अर्थ को न समझना है। वाजिनम् का अश्व के साथ साथ अन्य अर्थ है शूर, बलवान, गतिशील और तेज। 

यजुर्वेद के 25/34 मंत्र का अर्थ करते हुए सायण लिखते है कि अग्नि से पकाए, मरे हुए तेरे अवयवों से जो मांस- रस उठता है वह वह भूमि या तृण पर न गिरे, वह चाहते हुए देवों को प्राप्त हो। 

इस मंत्र का अर्थ स्वामी दयानंद वेद भाष्य में लिखते है - हे मनुष्य जो ज्वर आदि से पीड़ित अंग हो उन्हें वैद्य जनों से निरोग कराना चाहिए क्यूंकि उन वैद्य जनों द्वारा जो औषध दिया जाता है वह रोगीजन के लिए हितकारी होता है एवं मनुष्य को व्यर्थ वचनों का उच्चारण न करना चाहिए, किन्तु विद्वानों के प्रति उत्तम वचनों का ही सदा प्रयोग करना चाहिए। 

अश्व कि हिंसा के विरुद्ध यजुर्वेद 13/47 मंत्र का शतपथकार ने पृष्ठ 668 पर अर्थ लिखा हैं कि अश्व कि हिंसा न कर। 

यजुर्वेद 25/44 के यज्ञ में घोड़े कि बलि के समर्थन में अर्थ करते हुए सायण लिखते है कि हे अश्व ! तू अन्य अश्वों कि तरह मरता नहीं क्यूंकि तुझे देवत्व प्राप्ति होगी और न हिंसित होता है क्यूंकि व्यर्थ हिंसा का यहां अभाव है। प्रत्यक्ष रूप में अवयव नाश होते हुए ऐसा कैसे कहते हो? इसका उत्तर देते है कि सुंदर देवयान मार्गों से देवों को तू प्राप्त होता है, इसलिए यह हमारा कथन सत्य है। 

इस मंत्र का स्वामी दयानंद अर्थ करते है कि जैसे विद्या से अच्छे प्रकार प्रयुक्त अग्नि, जल, वायु इत्यादि से युक्त रथ में स्थित हो के मार्गों से सुख से जाते है, वैसे ही आत्मज्ञान से अपने स्वरुप को नित्य जान के मरण और हिंसा के डर को छोड़कर दिव्य सुखों को प्राप्त हो। 

पाठक स्वयं विचार करे कहाँ स्वामी दयानंद द्वारा किया गया सच्चा उत्तम अर्थ और कहा सायण आदि के हिंसापरक अर्थ। दोनों में आकाश-पाताल का भेद है। ऐसा ही भेद वेद के उन सभी मन्त्रों में है जिनका अर्थ हिंसापरक रूप में किया गया है अत: वे मानने योग्य नहीं है।

शंका 12 - क्या वेदों के अनुसार इंद्र देवता बैल खाता है?

समाधान - इंद्र द्वारा बैल खाने के समर्थन में ऋग्वेद 10/28/3 और 10/86/14 मंत्र का उदहारण दिया जाता है। यहाँ पर वृषभ और उक्षन् शब्दों के अर्थ से अनभिज्ञ लोग उनका अर्थ बैल कर देते है। ऋग्वेद में लगभग 20 स्थलों पर अग्नि को, 65 स्थलों पर इंद्र को, 11 स्थलों पर सोम को, 3 स्थलों पर पर्जन्य को, 5 स्थलों पर बृहस्पति को, 5 स्थलों पर रूद्र को वृषभ कहा गया है[xix]। व्याख्याकारों के अनुसार वृषभ का अर्थ यज्ञ है। 

उक्षन् शब्द का अर्थ ऋग्वेद में अग्नि, सोम, आदित्य, मरुत आदि के लिए प्रयोग हुआ है। 

जब वृषभ और उक्षन् शब्दों के इतने सारे अर्थ वेदों में दिए गये है तब उनका व्यर्थ ही बैल अर्थ कर उसे इंद्र को खिलाना युक्तिसंगत एवं तर्कपूर्ण नहीं है। 

इसी सन्दर्भ में ऋग्वेद में इंद्र के भोज्य पदार्थ निरामिष रुपी धान, करम्भ, पुरोडाश तथा पेय सोमरस है नाकि बैल को बताया गया हैं।[xx]

शंका 13 - वेदों में गौ का क्या स्थान है ?

समाधान- यजुर्वेद 8/43 में गाय का नाम इडा, रन्ता, हव्या, काम्या, चन्द्रा, ज्योति, अदिति, सरस्वती, महि, विश्रुति और अध्न्या[xxi] कहा गया है। स्तुति कि पात्र होने से इडा, रमयित्री होने से रन्ता, इसके दूध कि यज्ञ में आहुति दी जाने से हव्या, चाहने योग्य होने से काम्या, ह्रदय को प्रसन्न करने से चन्द्रा, अखंडनीय होने से अदिति, दुग्ध वती होने से सरस्वती, महिमशालिनी होने से महि, विविध रूप में श्रुत होने से विश्रुति तथा न मारी जाने योग्य होने से अधन्या[xxii] कहलाती है[xxiii]

अघन्या शब्द में गाय का वध न करने का सन्देश इतना स्पष्ट है कि विदेशी लेखक भी उसे भली प्रकार से स्वीकार करते है।[xxiv]

हे गौओ, तुम पूज्य हो, तुम्हारी पूज्यता मैं भी प्राप्त करूं। - यजुर्वेद 3/20

मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूं कि तू बेचारी बेकसूर गाय कि हत्या मत कर, वह अदिति हैं काटने-चीरने योग्य नहीं है। - ऋग्वेद 8/101/15

उस देवी गौ को मनुष्य अल्प बुद्धि होकर मारे-काटे नहीं। - ऋग्वेद 8/101/16

निरपराध कि हत्या बड़ी भयंकर होती है, अत: तू हमारे गाय,घोड़े और पुरुष को मर मार। - अथर्ववेद 10/1/29

गौएं वधशाला में न जाएं। - ऋग्वेद 6/28/4

गाय का वध मत कर। - यजुर्वेद 13/43

वे लोग मुर्ख है जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते है। - अथर्ववेद 7/5/5

इसके अतिरिक्त भी वेदों में अनेक मंत्र गौ रक्षा के लिए दिए गये है। पाठक विचार करे कि जब वेदों में गौ रक्षा कि इतनी स्पष्ट साक्षी है ,तब उन्हीं वेदों में यज्ञ में पशु हिंसा का सन्देश कैसे हो सकता है।

शंका 14 - वेदों में गौ हत्या करने वाले के लिए क्या विधान हैं?

समाधान- वेदों में गाय हत्यारे के लिए कठिन से कठिन दंड का विधान है। 

जो गौ हत्या करने वाला हो उसे मृत्यु दंड दिया जाये। - यजुर्वेद 30/18 

हे गौऔ ! तुम प्रजाओं से सम्पन्न होकर उत्तम घास वाले चरागाहों में विचरो। सुखपूर्वक जिनसे जल पिया जा सके ऐसे जलाशयों में से शुद्ध जल को पियो। चोर और घातक तुम्हारा स्वामी न बने, क्रूर पुरुष का शास्त्र भी तुम्हारे ऊपर न गिरे।- अथर्ववेद 4/21/7 

गौ हत्या करने वाले के लिए स्पष्ट कहा गया है कि यदि तू हमारे गाय, घोड़े आदि पशुओं कि हत्या करेगा तो हम तुझे सीसे कि गोली से उड़ा देंगे। - अथर्ववेद 1/16/4 

वेदों में गौ हत्या पर मृत्यु दंड का विधान होने के बाद भी मध्य काल में यज्ञों में पशु बलि का प्रचलित होने का कारण राजाओं द्वारा संस्कृत एवं वेद ज्ञान से अनभिज्ञ होना था। दंड देने का कर्त्तव्य राजाओं का है जब राजा को ही यह नहीं सिखलाया गया कि गौ हत्यारे को क्या दंड दे तो वह कैसे दंड देते? इसके विपरीत यह बताया गया कि होम में बलि दिया गया पशु स्वर्ग को जाता है।[xxv] 

इन प्रमाणों से यही सिद्ध होता हैं कि यज्ञ में किसी भी पशु कि बलि का कोई भी विधान वेदों के सत्य उपदेश के अनुकूल नहीं है एवं जो कुछ भी मध्य काल में प्रचलित हुआ वह वेदों के मनमाने अर्थ करने से हुआ हैं जोकि त्यागने योग्य है। 

आधुनिक भारत में सायण, महीधर आदि भारतीय आचार्यों, मैक्समुलर, विल्सन, ग्रिफ्फिथ आदि के प्रचलित वेद भाष्यों को जब स्वामी दयानंद ने सत्य अर्थ कि दृष्टि से विश्लेषण किया तब उन्होंने पाया वेदों के भाष्यों में वेदों कि मूल भावना के विपरीत मनमाने अर्थ निकाले गये है। एक और भारतीय आचार्य वाममार्ग के प्रभाव में आकर वेदों को मांसभक्षण का समर्थक घोषित करने पर उतारू थे दूसरी और विदेशी चिंतक अपनी मतान्धता के जोश में वेदों के स्वार्थपूर्ति के लिए निंदक अर्थ निकाल रहे थे जिससे कि वेदों के प्रति भारतीय जनमानस में श्रद्धा समाप्त हो जाये और उनका मार्ग प्रशस्त हो सके। धन्य हैं स्वामी दयानंद जिन्होंने अपनी दूर दृष्टि से इस षडयन्त्र को न केवल पकड़ लिया अपितु निराकरण के लिए वेदों को उचित भाष्य भी किया। हम सभी को स्वामी जी के इस उपकार का आभारी होना चाहिए।

-------------------------------------------------------------------------------                                          सन्दर्ख; [i] Vedic Hymns - Maxmuller Part 1(1891) Part 2 (1897)  [ii] The Rig Vedas –Ralph T H Griffith 1896 [iii] ऋग्वेद भाष्य - सायणाचार्य [iv] यजुर्वेद भाष्य- महीधर [v] The Brahma Samaj and Arya samaj in the bearing of Christianity:- A study of Indian Theism by Frank Lillingston (1901), On the Religion and Philosophy of the Hindus by Henry Thomas Colebrooke (1858), Chips from a German Woodshop by Frederick Maxmuller (1875). [vi] The Myth of the Holy Cow- D.N.Jha(2002)/ पवित्र गाय का मिथक डी.न.झा (2004) [vii] ऋग्वेद 10/90/16 [viii] शतपथ 1/7/3/5 [ix] तैतरीय संहिता 3/2/1/4 [x] ऋग्वेद 10/44/6, अथर्ववेद 20/94/6 [xi] Refer to Journal of the Asiatic society of Bengal and Indo Aryans by Rajender Lal Mitra 1891 [xii] Buddha, by denying the authority of the Veda, became a Heretic. Refer Page 300 ,Chips from a German Workshop, Volume 2 by Maxmuller [xiii] ऋग्वेद भाष्य, यजुर्वेद भाष्य - स्वामी दयानंद 
[xiv] अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरतीहिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध:- निरुक्त 2/7 , 1/8 [xv] अश्वमेध यज्ञ में पशु बलि निषेध के सम्बन्ध में महाभारत के प्रमाण 

१. एक बार इंद्र ने एक विस्तृत यज्ञ रचाया। ऋत्विजों ने उस यज्ञ में पशु बलि के निमित पशुओं का संग्रह किया। पशुओं के आलम्बन के समय, ऋषियों ने पशुओं को दीन भाव युक्त देखकर इंद्र के समीप जाकर कहा कि हे इंद्र ! यज्ञ कि यह विधि शुभ नहीं है। आप महान धर्म करने के अभिलाषी हुए है, परन्तु आप इसे विशेष रूप से नहीं जानते। क्यूंकि पशुओं से यज्ञ करना विधि विहित नहीं है। जब हिंसा धर्म रूप से वर्णित ही नहीं है, तब आपका हिंसा मय यज्ञ धर्म युक्त कैसे होगा? इसलिए आपका यह समारम्भ धर्मोपघातक है। हे इंद्र, यदि आप धर्म कि अभिलाषा करते है तो ऋत्विगन, आगम (वेद और ब्राह्मण) के अनुसार आपका यज्ञ करे। आपको इस विधि द्वष्ट यज्ञ के द्वारा ही महान धर्म होगा। हे इंद्र! आप हिंसा त्याग कर, तीन वर्षों के पुराने बीजों से ही यज्ञ कीजिये। - महाभारत अश्वमेध पर्व 91 अध्याय। 

२. लोभी, लालची और नास्तिक लोगों ने जोकि वेदों के अभिप्राय को नहीं जानते जूठ को सत्य रूप से वर्णित किया है। परन्तु जो सत्पुरुषों के मार्ग के अनुगामी है वे तो बिना हिंसा के ही यज्ञ करते है। वे वनस्पति, औषधि, फलों तथा मूलों से यज्ञ करते है। - महाभारत शांतिपर्व मोक्ष धर्म 264 अध्याय। 

३. जिनकी कोई मर्यादा नहीं, जो स्वयं मूढ़, नास्तिक, संशयात्मा और छली कपटी है। उन्होंने स्वयं यज्ञ में हिंसा का वर्णन किया है। धर्मात्मा मनु ने तो सब कामों में अहिंसा धर्म कहा है। परन्तु मनुष्य व्यवहारों में तथा वेदों में अपने काम वश ही हिंसा करते है। - महाभारत शांतिपर्व मोक्ष धर्म 266 अध्याय। 

४. यज्ञ और यूप के बहाने ने मनुष्य यदि वृथा मांस खाते है तो यह धर्म प्रशंसित नहीं है। सुरा, मछली, मांस, आसव और कृशरोधन- इनका खाना पीना धूर्तों ने चलाया है, वेदों में इनका जिक्र तक नहीं है। धूर्तों ने, गर्व, अज्ञान, लोभ तथा लालच से यह सब कल्पित कर लिया है। ब्राह्मण लोग सब यज्ञों में विष्णु कि पूजा करते है। और दूध, फल तथा वेदों में वर्णित वृक्षों द्वारा ही उस यज्ञ को करने का विधान है। - महाभारत शांतिपर्व मोक्ष धर्म 266 अध्याय। 

इस प्रकार से अनेक उदहारण महाभारत में मिलता हैं जिनका विवरण जानने के लिए प्रसिद्द वैदिक विद्वान एवं अथर्ववेद भाष्यकार श्री विश्वनाथ जी विद्यालंकार जी द्वारा लिखित पुस्तक वैदिक पशु यज्ञ मीमांसा के 12 वें प्रकरण को देख सकते है। 

[xvi] सन्दर्भ - निघण्टू 1 /1, शतपथ 13/15/3 
[xvii] सन्दर्भ - महाभारत शांतिपर्व 337/4-5 [xviii] इस भ्रान्ति का कारण मैकडोनाल्ड (वैदिक माइथोलॉजी पृष्ठ 145 ) एवं कीथ (दी रिलिजन एंड दी फिलोसोफी ऑफ़ दी वेदास एंड उपनिषदस ) द्वारा अतिथिग्व शब्द का अर्थ अतिथियों के लिए गोवध करना बताया जाना हैं जिसका समर्थन काणे (हिस्ट्री ऑफ़ धर्म शास्त्र भाग 2 पृष्ठ 749-56 ) ने भी किया है। [xix] सन्दर्भ आर्ष ज्योति- रामनाथ वेदालंकार पृष्ठ 223 [xx] ऋग्वेद 3/52/1 [xxi] अघन्या शब्द के वेदों में सन्दर्भ -अथर्ववेद 7/73/11 अथवा अथर्ववेद 9/10/20, ऋग्वेद 4/1/6, ऋग्वेद 7/68/9 [xxii][xxii] अघन्य (अवध्य) शब्द का प्रयोग ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में बैल के 4 बार हुआ हैं एवं अघन्या (अवध्या) का प्रयोग गाय के अर्थ में 42 हुआ है। सन्दर्भ -अघन्या शब्द का उल्लेख करने वाले वैदिक अवतरणों के हवाले - काणे (हिस्ट्री ऑफ़ धर्म शास्त्र भाग 2 पृष्ठ 772-773 ) 
[xxiii] वैदिक पर्यावाची कोष निघंटु में गाय की 21 संज्ञाएं दी गई है। [xxiv] Rigveda 9/1/9 - Inviolable milch-kine round about him blend for Indra's drink, The fresh young Soma with their milk-Rig Veda, tr. by Ralph T.H. Griffith [1896] [xxv] एक तर्क इस वाक्य के खंडन में प्रसिद्ध  है कि अगर होम में मारा गया पशु स्वर्ग को जाता है तब तो यजमान अपने पिता को मारकर क्यूँ न सीधे स्वर्ग भेज दे?
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बुधवार, 28 जनवरी 2015

kruti charcha: hiran sugandhon ke

कृति चर्चा: 
हिरण सुगंधों के: नवगीत का नवान्तरण    
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: हिरण सुगंधों के, नवगीत संग्रहआचार्य भगवत दुबे, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, २००४, पृष्ठ १२१, १२०/-, अनुभव प्रकाशन ई २८ लाजपत नगर साहिबाबाद २०१००५ वार्ता ०१२० २६३०६९९ / २६३५२७७] 


विश्व वांग्मय के आदिग्रंथ ‘ऋग्वेद’ में गिर, गिरा, गातु, गान आदि नामों से जिस गीति विधा को संबोधित किया गया है वह पद्य के पुरातन, मौलिक, भाव प्रवण, कलात्मक, लोकप्रिय तथा उर्वरतम छांदस सृजन पथ पर पग रखते हुए वर्तमान में ‘नवगीत’ नाम से अभिषिक्त lहै। गीत का उद्भव ऋग्वेद से सहस्त्रों वर्ष पूर्व जलप्रवाह की कलकल, पंछियों की कलरव, मेघों की गर्जन आदि सुनते आदिम मनुष्य की गुनगुनाहट से हुआ होगा। प्रस्फुटित होते सुमन-गुच्छ, कुलांचे भरते मृग वृन्द, नीलाभ नभ का विस्तार नापते खगगण और मंद-मंद प्रवाहित होते पुरवैया के झोंके मनुष्य के अंतस का साक्षात् स्वर्गिक अनंग से कराया होगा और उसके कंठ से अनजाने ही निनादित हो उठी होगी नाद-ब्रम्ह की प्रतीति से ऊर्जस्वित स्वर लहरी। आरंभ में यह इस स्वर लहरी में समाहित ‘हिरण सुगंधों के’ शब्दभेदी बाण की तरह खेत-खलिहान, पनघट-चौपाल, आँगन-दालान में कुलांचे भरते भरते रहे पर सभ्यता के विस्तार के साथ भाषिक-पिंगलीय अनुशासन में कैद होकर आज इस नवगीत संग्रह की शक्ल में हमारे हाथ में हैं। 

सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में जन्मे-बढ़े विविध विधाओं में गत ५ दशकों से सृजनरत वरिष्ठ रचनाधर्मी आचार्य भगवत दुबे रचित ‘हिरण सुगंधों के’ के नवगीत किताबी कपोल कल्पना मात्र न होकर डगर-डगर में जगर-मगर करते अपनों के सपनों, आशाओं-अपेक्षाओं, संघर्षों-पीडाओं के जीवंत दस्तावेज हैं। ये नवगीत सामान्य ग्राम्य जनों की मूल मनोवृत्ति का दर्पण मात्र नहीं हैं अपितु उसके श्रम-सीकर में अवगाहन कर, उसकी संस्कृति में रचे-बसे भावों के मूर्त रूप हैं। इन नवगीतों में ख्यात समीक्षक नामवर सिंह जी की मान्यता के विपरीत ‘निजी आत्माभिव्यक्ति मात्र’ नहीं है अपितु उससे वृहत्तर आयाम में सार्वजनिक और सार्वजनीन यथार्थपरक सामाजिक चेतना, सामूहिक संवाद तथा सर्वहित संपादन का भाव अन्तर्निहित है। इनके बारे में दुबे जी ठीक ही कहते हैं:
‘बिम्ब नये सन्दर्भ पुराने
मिथक साम्यगत लेकर
परंपरा से मुक्त
छान्दसिक इनका काव्य कलेवर
सघन सूक्ष्म अभिव्यक्ति दृष्टि
सारे परिदृश्य प्रतीत के
पुनः आंचलिक संबंधों से
हम जुड़ रहे अतीत के’

अतीत से जुड़कर वर्तमान में भविष्य को जोड़ते ये नवगीत रागात्मक, लयात्मक, संगीतात्मक, तथा चिन्तनात्मक भावभूमि से संपन्न हैं। डॉ. श्याम निर्मम के अनुसार: ‘इन नवगीतों में आज के मनुष्य की वेदना, उसका संघर्ष और जीवन की जद्दोजहद को भली-भांतिदेखा जा सकता है। भाषा का नया मुहावरा, शिल्प की सहजता और नयी बुनावट, छंद का मनोहारी संसार इन गीतों में समाया है। आम आदमी का दुःख-दर्द, घर-परिवार की समस्याएँ, समकालीन विसंगतियाँ, थके-हांरे मन का नैराश्य और स्न्वेदान्हीनाता को दर्शाते ये नवगीत नवीन भंगिमाओं के साथ लोकधर्मी, बिम्बधर्मी और संवादधर्मी बन पड़े हैं।’

महाकाव्य, गीत, दोहा, कहानी, laghukatha, gazal, आदि विविध विधाओं की अनेक कृतियों का सृजन कर राष्ट्रीय ख्याति अर्जित्कर चुके आचार्य दुबे अभंव बिम्बों, सशक्त लोक-प्रतीकों, जीवंत रूपकों, अछूती उपमाओं, सामान्य ग्राम्यजनों की आशाओं-अपेक्षाओं की रागात्मक अभिव्यक्ति पारंपरिक पृष्ठभूमि की आधारशिला पर इस तरह कर सके हैं कि मुहावरों का सटीक प्रयोग, लोकोक्तियों की अर्थवत्ता. अलंकारों का आकर्षण इन नवगीतों में उपस्थित सार्थकता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, बेधकता तथा रंजकता के पंचतत्वों के साथ समन्वित होकर इन्हें अर्थवत्ता दे सका है

आम आदमी का दैनंदिन दुःख-सुख इन नवगीतों का उत्स और लक्ष्य है। दुबे जी के गृहनगर जबलपुर के समीप पतित पावनी नर्मदा पर बने बरगी बाँध के निर्माण से डूब में आयी जमीन गंवा चुके किसानों की व्यथा-कथा कहता नवगीत पारिस्थितिक विषमता व पीड़ा को शब्द देता है:

विस्थापन कर दिया बाँध ने
ढूंढें ठौर-ठिकाना
बिके ढोर-डंगर, घर-द्वारे
अब सbbब कुछ अनजाना
बाड़ी, खेत, बगीचा डूबे
काटा आम मिठौआ
उड़ने लगे उसी जंगल में
अब काले कौआ

दुबे जी ने अपनी अभिव्यक्ति के लिये आवश्यकतानुसार नव शब्द भी गढ़े हैं:

सीमा कभी न लांघी हमने
मानवीय मरजादों की
भेंट चाहती है रणचंडी
शायद अब दनुजादों की

‘साहबजादा’ शब्द की तर्ज़ पर गढ़ा गया शब्द ‘दनुजादा’ अपना अर्थ आप ही बता देता है। ऐसे नव प्रयोगों से भाषा की अभिव्यक्ति ही नहीं शब्दकोष भी समृद्ध होता है।

दुबे जी नवगीतों में कथ्य के अनुरूप शब्द-चयन करते हैं: खुरपी से निन्वारे पौधे, मोची नाई कुम्हार बरेदी / बिछड़े बढ़ई बरौआ, बखरी के बिजार आवारा / जुते रहे भूखे हरवाहे आदि में देशजता, कविता की सरिता में / रेतीला पड़ा / शब्दोपllल मार रहा, धरती ने पहिने / परिधान फिर ललाम, आयेगी क्या वन्य पथ से गीत गाती निर्झरा, ओस नहाये हैं दूर्वादल / नीहारों के मोती चुगते / किरण मराल दिवाकर आधी में परिनिष्ठित-संस्कारित शब्दावली, हलाकान कस्तूरी मृग, शीतल तासीर हमारी है, आदमखोर बकासुर की, हर मजहबी विवादों की यदि हवा ज़हरी हुई, किन्तु रिश्तों में सुरंगें हो गयीं में उर्दू लफ्जों के सटीक प्रयोग के साथ बोतलें बिकने लगीं, बैट्समैन मंत्री की हालत, जब तक फील्डर जागें, सौंपते दायित्व स्वीपर-नर्स को, आवभगत हो इंटरव्यू में, जीत रिजर्वेशन के बूते आदि में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग जिस सहजता से हुआ है, वह दुबेजी के सृजन सामर्थ्य का प्रमाण है।

गीतों के छांदस विधान की नींव पर आक्रामक युगबोधी तेवरपरक कथ्य की दीवारें, जन-आकांक्षाओं के दरार तथा जन-पीडाओं के वातायन के सहारे दुबे जी इन नवगीतों के भवन को निर्मित-अलंकृत करते हैं। इन नवगीतों में असंतोष की सुगबुगाहट तो है किन्तु विद्रोह की मशाल या हताशा का कोहरा कहीं नहीं है। प्रगतिशीलता की छद्म क्रन्तिपरक भ्रान्ति से सर्वथा मुक्त होते हुए भी ये नवगीत आम आदमी के लिये हितकरी परिवर्तन की चाह ही नहीं मांग भी पूरी दमदारी से करते हैं। शहरी विकास से क्षरित होती ग्राम्य संस्कृति की अभ्यर्थना करते ये नवगीत अपनी परिभाषा आप रचते हैं। महानगरों के वातानुकूलित कक्षों में प्रतिष्ठित तथाकथित  पुरोधाओं द्वारा घोषित मानकों के विपरीत ये नवगीत छंद व् अलंकारों को नवगीत के विकास में बाधक नहीं साधक मानते हुए पौराणिक मिथकों के इंगित मात्र से कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिव्यक्त कर pathakpathakपाठक के चिंतन-मनन की आधारभूमि बनाते हैं। प्रख्यात नवगीतकार, समीक्षक श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार: ‘अन्र्क गीतकारों ने अपनी रचनाओं में लोक जीवन और लोक संस्कृति उअताराने की कोशिश पहले भी की है तथापि मेरी जानकारी में जीतनी प्रचुर और प्रभूत मात्रा में भगवत दुबे के गीत मिलते हैं उतने प्रमाणिक गीत अन्य दर्जनों गीतकारों ने मिलकर भी नहीं लिखे होंगे।’

हिरण सुगंधों के के नवगीत पर्यावरणीय प्रदूषण और सांस्कृतिक प्रदूषण से दुर्गंधित वातावरण को नवजीवन देकर सुरभित सामाजिक मर्यादों के सृजन की प्रेरणा देने में समर्थ हैं। नयी पीढ़ी इन नवगीतों का रसास्वादन कर ग्राम-नगर के मध्य सांस्कृतिक राजदूत बनने की चेतना पाकर अतीत की विरासत को भविष्य की थाती बनाने में समर्थ हो सकती है।


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मंगलवार, 27 जनवरी 2015

kruti charcha: waqt adamkhor- madhukar ashthana

कृति चर्चा: 
वक्त आदमखोर: सामयिक वैषम्य का दस्तावेज़    
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: वक्त आदमखोर, नवगीत संग्रहमधुकर अष्ठाना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, १९९८, पृष्ठ १२६, नवगीत १०१, १५०/-, अस्मिता प्रकाशन, इलाहाबाद] 

साहित्य का लक्ष्य सबका हित साधन ही होता है, विशेषकर दीन-हीन-कमजोर व्यक्ति का हित। यह लक्ष्य विसंगतियों, शोषण और अंतर्विरोधों के रहते कैसे प्राप्त हो सकता है? कोई भी तंत्र, प्रणाली, व्यवस्था, व्यक्ति समूह या दल प्रकृति के नियमानुसार दोषों के विरोध में जन्मता, बढ़ता, दोषों को मिटाता तथा अंत में स्वयं दोषग्रस्त होकर नष्ट होता है। साहित्यकार शब्द ब्रम्ह का आराधक होता है, उसकी पारदर्शी दृष्टि अन्यों से पहले सत्य की अनुभूति करती है। उसका अंतःकरण इस अभिव्यक्ति को सृजन के माध्यम से उद्घाटित कर ब्रम्ह के अंश आम जनों तक पहुँचाने के लिये बेचैन होता है। सत्यानुभूति को ब्रम्हांश आम जनों तक पहुँचाकर साहित्यकार व्यव्ष्ठ में उपजी गये सामाजिक रोगों की शल्यक्रिया करने में उत्प्रेरक का काम करता है। 

विख्यात नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना अपनी कृति ‘वक्त आदमखोर’ के माध्यम से समाज की नब्ज़ पर अँगुली रखकर तमाम विसंगतियों को देख-समझ, अभिव्यक्तकर उसके निराकरण का पथ संधानने की प्रेरणा देते हैं। श्री पारसनाथ गोवर्धन का यह आकलन पूरी तरह सही है: ‘इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूते शब्द विन्यास, मौलिक उद्भावनाएँ, यथार्थवादी प्रतीक, अनछुए बिम्बों का संयोजन, मुहावरेदारी तथा देशज शब्दों का संस्कारित प्रयोग उन्हें अन्य रचनाकारों से पृथक पहचान देने में समर्थ है।

नवगीतों में प्रगतिवादी कविता के कथ्य को छांदस शिल्प के साथ अभिव्यक्त कर सहग ग्राह्य बनाने के उद्देश्य को लेकर नवगीत रच रहे नवगीतकारों में मधुर अष्ठाना का सानी नहीं है। स्वास्थ्य विभाग में सेवारत रहे मधुकर जी स्वस्थ्य समाज की चाह करें, विसंगतियों को पहचानने और उनका निराकरण करने की कामना से अपने नवगीतों के केंद्र में वैषम्य को रखें यह स्वाभाविक है। उनके अपने शब्दों में ‘मानवीय संवेदनाओं के प्रत्येक आयाम में विशत वातावरण से ह्त्प्रह्ब, व्यथित चेतना के विस्फोट ने कविताओं का आकार ग्रहण कर लिया.... भाषा का कलेवर, शब्द-विन्यास, शिल्प-शैली तथा भावनाओं की गंभीरता से निर्मित होता है... इसीलिए चुस्त-दुरुस्त भाषा, कसे एवं गठे शब्द-विन्यास, पूर्व में अप्रयुक्त, अनगढ़-अप्रचलित सार्थक शब्दों का प्रयोग एवं देश-kaalkaalकाल-परिस्थिति के अनुकूल आंचलिक एवं स्थानीय प्रभावों को मुखरित करने की कोशिश को मैंने प्रस्तुत गीतों में प्राथमिकता देकर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।’

मधुकर जी की भाषा हिंदी-उर्दू-देशज मिश्रित है। ‘तन है वीरान खँडहर / मन ही इस्पात का नगर, मजबूरी आम हो गयी / जिंदगी हराम हो गयी, कदम-कदम क्रासों का सिलसिला / चूर-चूर मंसूबों का किला, प्यासे दिन हैं भूखी रातें / उम्र कटी फर्जी मुस्काते, टुकड़े-टुकड़े अपने राम रह गये / संज्ञाएँ गयीं सर्वनाम रह गये, जीवन भर जो रिश्ते ढोये हैं / कदम-कदम पर कांटे बोये हैं, प्याली में सुबह ढली, थाली में दोपहर / बुझी-बुझी आँखों में डूबे शामो-सहर, जीवन यों तो ठहर गया है / एक और दिन गुजर गया है, तर्कों पर लाद जबर्दस्तियाँ / भूल गयीं दीवारें हस्तियाँ आदि पंक्तियाँ pathakको आत्म अनुभूत प्रतीत होती हैं। इन नवगीतों में कहीं भी आभिजात्यता को ओढ़ने या संभ्रांतता को साध्य बताने की कोशिश नहीं है। मधुकर जी को भाषिक टटकापन तलाशकर आरोपित नहीं करना पड़ता। उन्हें सहज-साध्य मुहावरेदार शब्दावली के भाव-प्रवाह में संस्कृतनिष्ठ, देशज, ग्राम्य और उर्दू मिश्रित शब्द अपने आप नर्मदा के सलिला-प्रवाह में उगते-बहते कमल दल और कमल पत्रों की तरह साथ-साथ अपनी जगह बनाकर सुशोभित होते जाते हैं। निर्मम फाँस गड़ी मुँहजोरी / तिरस्कार गढ़ गया अघोरी, जंगली विधान की बपौती / परिचय प्रतिमान कहीं उड़ गये / भकुआई भीड़ है खड़ी, टुटपुंजिया मिन्नतें तमाम / फंदों में झूलें अविराम, चेहरों को बाँचते खड़े / दर्पण खुद टूटने लगे आदि पंक्तियों में दैनंदिन आम जीवन में प्रयुक्त होते शब्दों का सघन संगुफन द्रष्टव्य है। भाषी शुद्धता के आग्रही भले ही इन्हें पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें किन्तु नवगीत का पाठक इनमें अपने परिवेश को मुखर होता पाकर आनंदित होता है। अंग्रेजी भाषा से शिक्षित शहरी नयी पीढ़ी के लिए इनमें कई शब्द अपरिचित होंगे किन्तु उन्हें  शब्द भण्डार बढ़ाने का सुनहरा अवसर इन गीतों से मिलेगा, आम के आम गुठलियों के दाम...

मधुकर जी इन नवगीतों में सामयिक युगबोधजनित संवेदनाओं, पारिस्थितिक वैषम्य प्रतिबिंबित करती अनुभूतियों, तंत्रजनित विरोधाभासी प्रवृत्तियों तथा सतत ध्वस्त होते मानव-मूल्यों से उत्पन्न तनाव को केंद्र में रखकर अपने चतुर्दिक घटते अशुभ को पहचानकर उद्घाटित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। उनकी इस प्रवृत्ति पर आनंद-मंगल, शुभ, उत्सव, पर्व आदि की अनदेखी और उपेक्षा करने का आरोप लगाया जा सकता है किन्तु इन समसामयिक विद्रूपताओं की उपस्थिति और प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। घर में अपनों के साथ उत्सव मनाकर आनंदमग्न होने के स्थान पर किसी अपरिचित की आँखों के अश्रु पोछने का प्रयास अनुकरणीय ही हो सकता है।

मधुकर जी के इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूता शब्द चयन, मौलिक सोच, यथार्थवादी प्रतीक, अछूता बिम्ब संयोजन, देशज-परिनिष्ठित शब्द प्रयोग, म्हावारों और कहावतों की तरह सरस लच्छेदार शब्दावली, सहज भाव मुद्रा, स्पष्ट वैषम्य चित्रण तथा तटस्थ-निरपेक्ष अभिव्यक्ति उनकी पहचान स्थापित करती है। नवगीत की प्रथम कृति में ही मधुकर जी परिपक्व नवगीतकार की तरह प्रस्तुत हुए हैं। उन्हें विधा के विधान, शिल्प, परिसीमाओं, पहुच, प्रभाव तथा वैशिष्ट्य की पूर्ण जानकारी है। उनकी शब्द-सामर्थ्य, रूपक गढ़न-क्षमता, नवोपमायें खोजन एकी सूक्ष्म दृष्टि, अनुभूत और अनानुभूत दोनों को समान अंतरंगता से अभिव्यक्त कर सकने की कुशलता एनी नवगीतकारों से अलग करती है। अपने प्रथम नवगीत संग्रह से ही वे नवगीत की दोष-अन्वेषणी प्रवृत्ति को पहचान कर उसका उपयोग लोक-हित के लिए करने के प्रति सचेष्ट प्रतीत होते हैं।

मधुकर जी muktikगजल (muktikamuktikaमुक्तिका) तथा लोकभाषा में काव्य रचना में निपुण हैं। स्वाभाविक है कि गजलgazal में मतला (आरम्भिका) लेखन का अभ्यास उनके नवगीतों में मुखड़ों तथा अंतरों को अधिकतर द्विपंक्तीय रखने के रूप में द्रष्टव्य है। अंतरों की पंक्तियाँ लम्बी होने पर उन्हें चार चरणों में विभक्त किया गया है। अंतरांत में स्थाई या टेक के रूप में कहीं-कहीं २-२ पंक्तियाँ का प्रयोग किया गया है।

मधुकर जी की कहाँ की बानगी के तौर पर एक नवगीत देखें:

पत्थर पर खींचते लकीरें
बीत रहे दिन धीरे-धीरे

चेहरे पर चेहरे, शंकाओं की बातें
शीतल सन्दर्भों में दहक रही रातें
धारदार पल अंतर चीरें

आँखों में तैरतीं अजनबी कुंठायें
नंगे तारों पर फिर जिंदगी बिठायें
अधरों पर अनगूंजी पीरें

बार-बार सूरज की लेकर कुर्बानी
सुधियों की डोर कटी, डूबी नादानी
स्याह हैं चमकती तस्वीरें

एक सौ एक नवगीतों की यह माला रस वैविध्य की दृष्टि से निराश करती है। मधुकर जी लिखते हैं: ‘ इंद्रढनुष में सातों सरगम लहरायें / लहरों पर गंध तिरे पाले छितरायें’ (चुभो न जहरीले डंक) किन्तु संग्रह के अधिकाँश नवगीत डंक दंशित प्रतीत होते हैं। मधुकर जी के साथ इस नवगीत कुञ्ज में विचरते समय कलियों-कुसुमों के पराग की अभिलाषा दुराशा सिद्ध होने पर भी गुलाब से लेकर नागफनी और बबूलों के शूलों की चुभन की प्रतीति और उस चुभन से मुक्त होकर फूलों की कोमलता का स्पर्श पाने की अनकही चाह pathak को बांधे रखती है। नवगीत की यथार्थवादी भावधारा का प्रतिनिधित्व करति यह कृति पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।

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kruti charcha: galiyare gandh ke - संजीव

कृति चर्चा: 
गलियारे गंध के: प्रणयपरक नवगीत नर्मदा  
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: गलियारे गंध के, नवगीत संग्रहडॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, १९९८, पृष्ठ ८४, नवगीत ६५, ७०/-, कलरव प्रकाशन, १२४७/८६ शांति नगर, त्रि नगर दिल्ली ११००३५] 

हिंदी गीतिकाव्य को छायावाद के वायवी भाव जगत से ठोस यथार्थ की धरती पर ले जाने के लिये नयी कविता ने अंतर्विरोध, वैषम्यता और विसंगतिजनित विडम्बनाओंसे जनाक्रोश को उभाड़ने के लिये शोषण तथा दीनता का अतिरेकी चित्रण चित्रण किया किन्तु काव्यात्मक स्तरहीनता तथा नीरसता के कारण वह वर्ग विशेष तक सीमित रह गया। परम्परागत गीतिकाव्य तथा छन्दहीन कविता के एकांगी सृजन से उपजे शून्य को सरसता, गेयता, लयात्मकता, भावप्रवणता, फैंटेसीपरक बिम्ब संयोजन तथा हृदग्राही रूपकों से भरने में नवगीत सफल हुआ। नवगीत की सृजन धारा में पारंपरिक छान्दसिक लयबद्धता तथा यथार्थवादी छन्दहीन कविता के दो किनारों के मध्य आम आदमी के संकल्पों, आशाओं, अपेक्षाओं, सपनों, संघर्षों, आशा-निराशा और उपलब्धियों की सलिल-तरंगें जैसे-जैसे प्रवाहित होती गयीं, नवगीत का कलकल निनाद जन-मन को रसानंदित करने में सफल होता गया। 

नवगीत के अंकुर की जड़ें ज़मने पर उसका पल्लवित, पुष्पित और फलित होना स्वाभाविक है। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ के प्रणयपरक नवगीतों का संग्रह ‘गलियारे गंध के’ सुवासित नवगीत पुष्पों की ऐसी अंजुरी है जो काव्य रसिकों को मोगरे की भीनी-भीनी सुरभि की तरह मुग्ध और आनंदित करती है, जिसे बार-बार पाने और पीने का मन करता है। इन नवगीतों में एक ओर परिपक्व-उत्कृष्ट कव्यशास्त्रीयता अन्तर्निहित है तो दूसरी ओर नितांत वैयक्तिक प्रणयाभिव्यक्ति में सामाजिक अनुभूतियों की गंगो-जमुनी छवि और छटा काय-छाया की तरह दृष्टव्य है। श्रेष्ठ भाव सम्प्रेषण, उत्तम काव्यत्व, सरस लयात्मकता, छान्दसिक नैपुण्य तथा  भाषिक प्रांजलता के पंचतत्व इस संग्रह को पढ़ने ही नहीं इसके गीतों को गुनगुनाने के निकष पर भी खरा सिद्ध करते हैं:

तन की पोथी पर महाकाव्य
तुम भी बाँचो
मैं भी बाँचूं
शब्दों का अर्थ न करें वरण
यह लिपि का कैसा धुंधलापन
आदिम गंधों से भरी पवन
हृत चेतन करती मन कानन
यह सृजन तन्त्र
यह संविधान
तुम भी जांचो
मैं भी जाँचूं

‘संविधान’ शब्द का यह प्रयोग चौंकाने के साथ-साथ डॉ. यायावर की नव दृष्टिपरक भाषिक सामर्थ्य का भी परिचायक है।

ये नवगीत प्रमाणित करते हैं कि अभिव्यक्ति में उक्ति-वैचित्र्य, जीवंत बिम्ब-प्रेक्षण तथा प्रतीकों का अभिनव रूपायन डॉ, यायावर का वैशिष्ट्य है। ये नवगीत pathak को चाक्षुस तथ मानसिक दोनों धरातलों पर रसानन्दित करने में समर्थ हैं:

हर बार समय लिख देता है
मस्तक पर
अग्नि परीक्षा क्यों?
क्यों अधरों पर लिख दिया ‘तृषा’
इस प्राण-पटल पर ‘आकर्षण’
मोती के भाग्य लिखा ‘बिंधना’
सीपी को सौंपा ‘खालीपन’
मेघों को तड़प-तड़प गलना
चातक को
विकल प्रतीक्षा क्यों? 

दिनोंदिन अधिकाधिक निर्मम होते परिवेश, मूल्यों का लाक्षागृह बनता समाज, चतुर्दिक पीड़ा के तांडव नर्तन से उपजी असंतुष्टि, सार्वजनिक जीवन में उमडत मिथ्या का तूफ़ान, तंत्र में दम तोड़ते सत्य की निरीहता, पुरस्कृत होने के लोभ में अस्मिता नीलाम करती कलमें, स्वानुशासन को कापुरुषता मनाने की प्रवृत्ति, अनाचार को घटते देखके अनदेखा करने की कायरता आदि से उपजा आक्रोश व घृणा सर्वस्व को नष्ट करने को औचित्यपूर्ण बताये- यह दृष्टि और राह यायावर को मान्य नहीं है। वे तमाम विसंगतियों, विद्रूपताओं और विषमताओं के बाद भी तिमिर पर उजास की जयजयकार देख सकने की सामर्थ्य रखते हैं:

निर्मम पैसों से कुचले जाते हों
जब भोले दिवास्वप्न
हम-तुम मिलकर
कैसे कोई इतिहास लिखें?
जब रिश्ते ही संत्रास लिखें
हम-तुम
अपना अनुबंध लिखें
ये अधर गीत-गोविंद लिखें

मन का ययाति न अतृप्त रहे
प्रतिबंध-गंध परिसुप्त रहे
तन भोजपत्र बन जाए अमर
लिख जाए तरल गीतों के स्वर
चिर मिलन कामना
तृप्त बनें 
ये अधर गीत-गोविंद लिखें

शब्दों को मूलार्थ के साथ-साथ लाक्षणिक अर्थ में प्रयोग करने में यायावर जी सिद्धहस्त हैं। अर्जुन, शकुंतला, ययाति, तथागत, सुजाता, पुरुरवा, राधा-माधव, रति-अनंग, अहल्या, मीरा, श्याम, सुकरात, वृन्दावन, पनघट, वंशीवट, गगरी, यमुना तट, गोकुल, कण्वाश्रम, खाजिराहो, होरी, गोदान, लक्ष्मण रेखा, क्रौंच मिथुन, मृग मरीचिका, सागर मंथन आदि शब्दों लाक्षणिक प्रयोग नवगीतों को भावार्थ की दृष्टि से संपन्न बना सका है। ऐसे प्रयोग नवगीतों के चटव में चार चाँद लगाते हैं।

डॉ. यायावर ने नवगीतों को शिकायत पुस्तिका बनाने के स्थान पर लालित्यमय रस-कोष बनाया है। महारास, आलिंगन, परिरम्भण, चुम्बन, मिथुन, पीयूष कलश, मदिराघट, तृषा, तृप्ति, प्रणय पूजा, कामना, वर्जना, समर्पण, प्रणय पिपासा, प्राण यजन, देह धर्म, रस समाधि, वर्जित फल. आदिम युग जैसे शब्द इन नवगीतों में पूर्ण अस्मिता और अर्थवत्ता के साथ प्रतिष्ठित ही नहीं हैं अपितु नवगीतों में प्राण भी फूँक सके हैं। इन नवगीतों को भाषिक सांस्कारिकता अद्भुत है:

सरिता का तट वह मुक्त-पवन
संग्रथित उँगलियाँ भुज-बंधन
तुलसी-दल जैसे अधर
वक्ष पर लिखें प्रणय
जब देह-धर्म के साथ
हुआ जग पूर्ण विलय
रस की समाधि में विस्मृत क्षण
अनियंत्रित पल

डॉ. यायावर युगीन विसंगतियों की अनदेखी नहीं करते किन्तु उन्हें उद्घाटित करने के लिये नागफनी का फसल नहीं उअगते, गुलाबों की क्यारी सजाते हैं:

पतझर से जीते बार-बार 
हारे मन के मधुमासों से
संदेहों की चौखट पर
हम फिर ठगे गये विश्वासों से

‘कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और’ की तरह नवगीतकारों में डॉ. यायावर का किसी बात की कहने का अपना अलग अंदाज़ है। नवगीत की भाषा और अभिव्यक्ति का तरीका ही नवगीतकार की पहचान स्थापित करती है। नवगीत रचना में लालित्य, चारुत्व, सौष्ठव, तथा कोमलता ही उसे नयी कविता से पृथक करती है। नयी कविता से प्रभावित नवगीतकारों में शैल्पिक भिन्नता तो होती है किन्तु कथ्य नयी कविता से सादृश्य रखने के कारण उनकी अभिव्यक्ति में भाषिक सौष्ठव की श्रेष्ठता कम ही मिलाती है किन्तु डॉ. यायावर नवगीतों में भाषा में प्राण फूँकते दिखते हैं। उन्होंने गीत विधा में ही डी. लिट्. उपाधि प्राप्त की है। स्वाभाविक है की वे गीत रचना के तत्वों, विधान, प्रक्रिया तथा प्रभावों पर पूर्ण अधिकार रखें।

डॉ. यायावर के ये प्रणयपरक नवगीत प्रकृति से एकाकारित प्रतीत होते हैं। इस गीतों में पवन, लहर, ज्वार, सिन्धु, सागर, यमुना तट, प्रभंजन, शंख, सीप, घोंघे, मोती, सरिता, मीन, चाँद, चाँदनी, नील गगन, धरा, गृह, सूर्य, नक्षत्र, नभ गंगा, प्रभाकर, समीर, मरुस्थल, कूप आदि के साथ मधुवन, चन्दन वन, महुआ वन, कुञ्ज, मौलश्री, बरगद, नीम, नागफनी, बेला, कचनार, कल्प वृक्ष, वंशी वट, बबूल, बांस, कांस, पीपल, तुलसी, गुलमोहर, हरसिंगार, सोनजुही, शतदल, गुलाब, अमलतास, मेंहदी, माधवी, शेफाली, पलाश, पल्लव, आम, कदंब ही नहीं कस्तूरी मृग, कामधेनु, शृगाल, मर्कट, सर्प, नाग, हिरण, विहाग, कपोत, चकवा, चकवी, चिड़िया, पाखी, तोता, मैना, मोर, कोयल, गौरैया, सारस. खंजन, कागा, हीरामन, तितलियाँ, मधुप और पखावज, मृदंग, वीणा, ढोल, बीन, बांसुरी, वंशी, शहनाई और इकतारा भी हैं। उत्सवधर्मी भारतीय जन मानस की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए इनसे बेहतर अन्य शब्द नहीं हो सकते।
इस नवगीत संग्रह का वैशिष्ट्य हन्दी के शुद्ध-सहज रूप का व्यवहार करना है। पूरें संग्रह मेंकहीं भी अनावश्यक हिंदीतर शब्द का प्रयोग नहीं है। परिनिष्ठित हिंदी में रचित हर नवगीत मन-वीणा को झंकृत कर आन्नद मग्न करता है। छंदानुशासन में कसे-सजे-संवरे ये नवगीत नव्ये नवगीतकारों के लिये पठनीय हे इन्हीं अनुकरणीय भी हैं। इस नवगीतों को  काव्य-दोषों से मुक्त रखने के प्रति यायावर जी सजग रहे हैं। एक नवगीत के छंद विधान और मात्रा संतुलन का आनंद लें:

हो गयीं                             ५     
दिशायें मौन                          ८
कहा संकेतों ने                       ११
घेरा पूरा वट वृक्ष भयानक प्रेतों ने       २४ 
बढ़ गयी                             ५
अबोधित एक भीड़                     ११
मर्कट के                             ६
हाथों बया-नीड़                        १०
स्वप्नों को दी आवाज़ किन्हीं अनिकेतों ने  २४
यह अंतर्ज्योति                         ९
न हो मलीन                           ७
सूखे तट पर                           ८
आ गयी मीन                          ८
संकेत दिया है घातक के अभिप्रेतों ने      २४

‘गलियारे गंध के’ नवगीतो का एक विशिष्ट संग्रह है जिसके सही गीत प्रणय परकता से सराबोर होने पर भी शील तथा श्लील से युक्त स्वानुशासित हैं। इन नवगीतों की प्रांजल भाषा लालित्य तथा चारूत्व से मन मोहती है। यह कृति गीतानंद मात्र नहीं देती अपितु भाषा संस्कारित करने में भी समर्थ है।


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