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शुक्रवार, 6 मार्च 2015

kruti charcha; navgeet ke naye pratimaan radheshyam bandhu -sanjiv


कृति चर्चा:
नवगीत के नये प्रतिमान : अनंत आकाश अनवरत उड़ान 

चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
 
[कृति विवरण: नवगीत के नये प्रतिमान, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी जेकेट युक्त, वर्ष २०१२, पृष्ठ ४६४, मूल्य ५००/-, प्रकाशक कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, नवगीतकार संपर्क ९८६८४४४६६६, rsbandhu2@gmail.com]

समकालिक हिंदी काव्य के केंद्र में आ चुका नवगीत अपनी विकास यात्रा के नव पड़ावों की ओर पग रखते हुए नव छंद संयोजन से लोक धुनों और लोक गीतों की ओर कदम बढ़ा रहा है. बटोही, कजरी, आल्हा. पंथी आदि सहोदरों से गले मिलकर सहज उल्लास के स्वर गुंजाने लगा है. छायावाद की अमूर्तता और साम्यवादी प्रगतिवाद के भटकाव से निकलकर नवगीत जन-मन की व्यथा, जन-जीवन की छवि तथा जनाशाओं का उल्लास लोक में चिरकाल से व्याप्त शब्दों, धुनों, गीतों में ढालकर व्यक्त करने की ओर प्रयाण कर चुका है. विशिष्ट शब्दावली, छंद पंक्तियों में गति-यति स्थलों पर पंक्ति परिवर्तन कर नव छंद रचने के व्यामोह से मुक्त होकर नवगीत अब अपनी अस्मिता की खोज में अपनी जमीन में जमी जड़ों की ओर जा रहा है जो निराला की दिशा थी. 

नवगीत को हिंदी समालोचना के दिग्गजों द्वारा अनदेखा किया जाने के बावजूद वह जनवाणी बनकर उनके कानों में प्रविष्ट हो गया है. फलतः, नवगीत के मूल्यांकन के गंभीर प्रयास हो रहे हैं. नवगीत की नवता-परीक्षण के प्रतिमानों के अन्वेषण का दुरूह कार्य सहजता से करने का पौरुष दिखाया है श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार राधेश्याम बंधु ने. नवगीत के नये प्रतिमानों पर चर्चा करता सम्पादकीय खंड आलोचना और सौन्दर्य बोध, वस्तुवादी वर्गीय चेतना और उसका यथार्थवाद, प्रयोगवाद और लोकधर्मी प्रयोग, इतिहासबोध: उद्भव और विकास, लोकचेतना और चुनौतियाँ, नये रूप और वस्तु की प्रासंगिकता, छंद और लय की प्रयोजनशीलता, मूल्यान्वेषण की दृष्टि और उसका समष्टिवाद, वैज्ञानिक और वैश्विक युगबोध, सामाजिक चेतना और जनसंवादधर्मिता, वैचारिक प्रतिबद्धता और जनचेतना तथा जियो और जीने दो आदि बिन्दुओं पर केन्द्रित है. यह खंड कृतिकार के गहन और व्यापक अध्ययन-मनन से उपजे विचारों के मंथन से निसृत विचार-मुक्ताओं से समृद्ध-संपन्न है. 

परिचर्चा खंड में डॉ. नामवर सिंह, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. नित्यानंद तिवारी, डॉ. मैनेजर पाण्डेय, डॉ. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह, डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ. विमल, रामकुमार कृषक जैसे विद्वज्जनों ने हिचकते-ठिठकते हुए ही सही नवगीत के विविध पक्षों का विचारण किया है. यह खंड अधिक विस्तार पा सकता तो शोधार्थियों को अधिक संतुष्ट कर पाता. वर्तमान रूप में भी यह उन बिन्दुओं को समाविष्ट किये है जिनपर भविष्य में प्रासाद निर्मित किये का सकते हैं. 

sसमीक्षात्मक आलेख खंड के अंतर्गत डॉ. शिव कुमार मिश्र ने नवगीत पर भूमंडलीकरण के प्रभाव और वर्तमान की चुनौतियाँ, डॉ. श्री राम परिहार ने नवगीत की नयी वस्तु और उसका नया रूप, डॉ. प्रेमशंकर ने लोकचेतना और उसका युगबोध, डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी ने गीत प्रगीत और नयी कविता का सच्चा उत्तराधिकारी नवगीत, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ ने सामाजिक चेतना और चुनौतियाँ, डॉ. भारतेंदु मिश्र ने आलोचना की असंगतियाँ, डॉ. सुरेश उजाला ने विकास में लघु पत्रिकाओं का योगदान, डॉ. वशिष्ठ अनूप ने नईम के लोकधर्मी नवगीत, महेंद्र नेह ने रमेश रंजक के अवदान, लालसालाल तरंग ने कुछ नवगीत संग्रहों, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ ने गीत-नवगीत की तुलनात्मक रचनाशीलता तथा डॉ. राजेन्द्र गौतम ने नवगीत के जनोन्मुखी परिदृश्य पर उपयोगी आलेख प्रस्तुत किये हैं. 

विराsसत खंड में निराला जी, माखनलाल जी, नागार्जुन जी, अज्ञेय जी, केदारनाथ अग्रवाल जी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी, धर्मवीर भारती जी, देवेन्द्र कुमार, नईम, डॉ. शंभुनाथ सिंह, रमेश रंजक तथा वीरेंद्र मिश्र का समावेश है. यह खंड नवगीत के विकास और विविधता का परिचायक है. 
’नवगीत के हस्ताक्षर’ तथा ‘नवगीत के कुछ और हस्ताक्षर’ खंड में लेखक ने ७० तथा ६० नवगीतकारों को बिना किसी पूर्वाग्रह के उन प्रमुख नवगीतकारों को सम्मिलित किया है जिनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ उसके पढ़ने में आ सकीं. ऐसे खण्डों में नाम जोड़ने की गुंजाइश हमेशा बनी रह सकती है. इसके पूरक खंड भी हो सकते हैं और पुस्तक के अगले संस्करण में संवर्धन भी किया जा सकता है. 

बंधु जी नवगीत विधा से लम्बे समय से जुड़े हैं. वे नवगीत विधा के उत्स, विकास, वस्तुनिष्ठता, अवरोधों, अवहेलना, संघर्षों तथा प्रमाणिकता से सुपरिचित हैं. फलत: नवगीत के विविध पक्षों का आकलन कर संतुलित विवेचन, विविध आयामों का सम्यक समायोजन कर सके हैं. सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उनका निष्पक्ष और निर्वैर्य होना. व्यक्तिगत चर्चा में भी वे इस कृति और इसमें सम्मिलित अथवा बारंबार प्रयास के बाद भी असम्मिलित हस्ताक्षरों के अवदान के मूल्यांकन प्रति समभावी रहे हैं. इस सारस्वत अनुष्ठान में जो महानुभाव सम्मिलित नहीं हुए वे महाभागी हैं अथवा नहीं स्वयं सोचें और भविष्य में ऐसे गंभीर प्रयासों के सहयोगी हों तो नवगीत और सकल साहित्य के लिये हितकर होगा. 

डॉ. शिवकुमार मिश्र ने ठीक ही कहा है: ‘डॉ. राधेश्याम बंधु का यह प्रयास नवगीत को उसके समूचे विकासक्रम, उसकी मूल्यवत्ता और उसकी संभावनाओं के साथ समझने की दिशा में एक स्तुत्य प्रयास माना जायेगा.’ कृतिकार जानकारी और संपर्क के आभाव में कृति में सम्मिलित न किये जा सके अनेक हस्ताक्षरों को जड़ते हुए इसका अगला खंड प्रकाशित करा सकें तो शोधार्थियों का बहुत भला होगा. 

‘नवगीत के नये प्रतिमान’ समकालिक नवगीतकारों के एक-एक गीत तो आमने लाता है किन्तु उनके अवदान, वैशिष्ट्य अथवा न्यूनताओं का संकेतन नहीं करता. सम्भवत: यह लेखक का उद्देश्य भी नहीं है. यह एक सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह उपयोगी है. इसकी उपयोगिता में और अधिक वृद्धि होती यदि परिशिष्ट में अब तक प्रकाशित प्रमुख नवगीत संग्रहों तथा नवगीत पर केन्द्रित समलोचकीय पुस्तकों के रचनाकारों, प्रकाशन वर्ष, प्रकाशक आदि तथा नवगीतों पर हुए शोधकार्य, शोधकर्ता, वर्ष तथा विश्वविद्यालय की जानकारी दी जा सकती. 
ग्रन्थ का मुद्रण स्पष्ट, आवरण आकर्षक, बँधाई मजबूत और मूल्य सामग्री की प्रचुरता और गुणवत्ता के अनुपात में अल्प है. पाठ्यशुद्धि की ओर सजगता ने त्रुटियों के लिये स्थान लगभग नहीं छोड़ा है.

बुधवार, 4 मार्च 2015

kruti charcha: nadiyaan kyon chup hain, radheshyam bandhu -sanjiv

कृति चर्चा :
‘नदियाँ क्यों चुप हैं?’ विसंगतियों पर आस्था का जयघोष
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विववरण: नदियाँ क्यों चुप हैं?, नवगीत संग्रह, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, पृष्ठ ११२, मूल्य १५०/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेटयुक्त, वर्ष २०११, कोणार्क प्रकाशन, बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, संपर्क: ९८६८४४४६६६, rsbandhrsbandhu2@gmail.com] 
.
                       दादी सी दुबली, गरीब हैं नदियाँ बहुत उदास
        सबकी प्यास बुझातीं, उनकी कौन बुझाये प्यास?
.
                       जब सारा जल
                       जहर हो रहा नदियाँ क्यों चुप हैं?
.

उक्त २ उद्धरण श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार राधेश्याम बंधु के चिन्तनपरक नवगीतों में अन्तर्निहित संतुलित, समन्वित, विचारधारा के संकेतक हैं कि उनकी सोच एकांगी नहीं है, वे विसंगति और विडम्बना के दोनों पक्षों का विचार कर नीर-क्षीर प्रवृत्ति परक नवगीत रचते हैं, उनका आग्रह ‘कला’ को साध्य मानने के प्रति कम तथा ‘कथ्य’ को साध्य मानने के प्रति अधिक है. वे नवगीत में छंद की अंतर्व्याप्ति के पक्षधर हैं. उनके अपने शब्दों में: ‘मनुष्य ने जब भी अपनी अन्तरंग अनुभूतियों की अनुगूंज अपने मन में सुननी चाही, तो उसे सदैव गीतात्मक प्रतीति की अनुगूंज ही सुनाई पड़ी. वहाँ विचार या विमर्श का कोई अस्तित्व नहीं होता. हम चाहे जितने आधुनिकता या उत्तर आधुनिकता के रंग में रंग जाएँ, हम अपने सांस्कृतिक परिवेश और लोकचेतना के सौन्दर्यबोध से कभी अलग नहीं हो सकते. इतिहास साक्षी है कि  जब भी हर्ष, विषद या संघर्ष की अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता हुई तो लयात्मक छान्दस कविता ही उसके लिये माध्यम बनी. आदि कवि बाल्मीकि से लेकर निराला तक के कविता के इतिहास पर यदि हम दृष्टि डालें तो हम पायेंगे कि इतने लम्बे कालखंड में छन्दस काव्य का ही सातत्य विद्यमान है. वह चाहे ऋचा हो या झूले का गीत हो.’

इस संग्रह के गीत कथ्य की दृष्टि से नवगीत (२७) तथा जनगीत (१५) में वर्गीकृत हैं किन्तु उनमें पर्यावरण के प्रति चिंता सर्वत्र दृष्टव्य है. प्रदूषण प्राकृतिक पर्यावरण में हो अथवा सामाजिक पर्यावरण में वह बंधु जी को क्लेश पहुँचाता है. इस संग्रह का वैशिष्ट्य एक पात्र को विविध रूपकों में ढाल कर उसके माध्यम से विसंगतियों और विडम्बनाओं का इंगित करना है. चाँदनी, नदी, आदि के माध्यम से कवि वह सब कहता है जो सामान्य जन अनुभव करते हैं पर अभिव्यक्त नहीं कर पाते:

यहाँ ‘नदी’ जलधार मात्र नहीं है, वह चेतना की संवाहक प्रतीक है, वह जीवन्तता की पर्याय है:

संसद की
राशन की नदियाँ
किस तहखाने में खो जाती?
.
प्यासी नदी
रेत पर तड़पे
अब तो बादल आ
.
कैसे दिन
आये रिश्तों की
नदिया सूख गयी.
.
पाषाणों
में भी हमने
नदिया की तरज जिया.

मानव जीवन में खुशहाली के लिये हरियाली और छाँव आवश्यक है:

फिर-फिर
जेठ तपेगा आँगन
हरियल पेड़ लगाये रखना
विश्वासों के
हरसिंगार की
शीतल छाँव बचाये रखना

बादल भी विसंगतियों का वाहक है:

राजा बन बादल जुलूस में   
हठी पर आते
हाथ हिलाकर प्यासी जनता
को हैं बहलाते
.
फिर-फिर
तस्कर बादल आते
फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती
.
जब बादल बदल गए तो चांदनी कैसे अपनी मर्यादा में रहे:
कभी उतर आँगन में
निशिगंधा चूमती
कभी खड़ी खिड़की पर
ननदी सी झाँकती

निराश न हों, कहते हैं आशा पर आकाश थमा है. कालिमा कितनी भी प्रबल क्यों न हो जाए चाँदनी अपनी धवलता से निर्मलता का प्रसार करेगी ही:

उतरेगी
दूधिया चाँदनी
खिड़की जरा खुली रहने दो
.
कठिनाई यह है कि बेचारी चाँदनी के लिये इंसान ने कहीं स्थान ही नहीं छोड़ा है:

पत्थर के
शहरों में अब तो
मिलती नहीं चाँदनी है
बातूनी
चंचल बंगलों में
दिखती नहीं चाँदनी है
.

इस जीवन शैली में किसी को किसी के लिये समय नहीं है और चाँदनी नाउम्मीद हुई जाती है:

लेटी है बेचैन चाँदनी  
पर आँखों में नींद कहाँ?
आँखें जब रतजगा करें तो
सपनों की उम्मीद कहाँ?रिश्तों की
उलझी अलकें भी
कोई नहीं सँवार रहा
.
नाउम्मीदी तो किसी समस्या का हल हो नहीं सकती. कोशिश किये बिना कोई समाधान नहीं मिलता. इसलिए चाँदनी लगातार प्रयासरत रहती है:
रिश्तों की
उलझन को
सुलझाती चाँदनी
एकाकी
जीना क्या
समझाती चाँदनी
.

बंधु जी विसंगतियों का संकेतन स्पष्टता से करते हैं:
चाँदनी को
धूप मैं, कैसे कहूँ
वह भले ही तपन का अहसास दे?
.
नारी है
चाँदनी प्यार की
हर घर की मुस्कान
फिर भी
खोयी शकुंतला की
अब भी क्यों पहचान?
.
कम भले हो
तन का आयतन
प्यार का घनत्व कम न हो
.
अपनेपन की कोमल अनुभूति को समेटे कवि प्यार दो या न दो / प्यार से टेर लो, मौन / तुम्हारा इतना मादक / जब बोलोगे तब क्या होगा, धुप बनी / या छाँव बनो / हम तुम्हें खोज लेंगे, शब्दों / के पंख उड़ चले / चलो चलें सपनों के गाँव, चलो बचा लें / महुआवाले / रिश्तों का अहसास आदि में रूमानियत उड़ेलते हुए नवगीत ओ क्लिष्ट शब्दों और जटिल अनुभूतियों से भरनेवाले कला के पक्षधरों को अपनी सरलता-सहजता से निरुत्तरित करते हैं.

जनगीतों में बन्धु जी मनुष्य की अस्मिता के संरक्षण हेतु कलम चलाते हैं: 

आदमी कुछ भी नहीं
फिर भी वतन की आन है
हर अँधेरी झोपड़ी का
वह स्वयं दिनमान है
जब पसीने की कलम से
वक्त खुद गीता लिखे
एक ग्वाला भी कभी
बनता स्वयं भगवान् है.
.
भारत में श्रम की प्रतिष्ठा तथा मूल्यांकन न होना पूँजी के असमान वितरण का कारण है. बंधु जी को श्रम ही अँधेरा मिटाकर उजाला करने में समर्थ प्रतीत होता है:

उगा
सूर्य श्रम का
अँधेरा मिटेगा
गयी धुंध दुःख की
उजाला हँसेगा
.
वे इंसान की प्रतिष्ठा भगवान से भी अधिक मानते हैं:

रहने दो इंसान
ही मुझे, मुझको मत देवता बनाओ.

नवगीतों में छंद को अनावश्यक माननेवाले संकीर्ण दृष्टि संपन्न अथवा छंद का पूर्णरूपेण पालन न कर सकनेवाले मूर्धन्यों को छोड़ दें तो नवगीत के प्रेमी इन नवगीतों का स्वागत मात्र नहीं करेंगे अपितु इनसे प्रेरणा भी ग्रहण करेंगे. अवतारी, महाभागवत आदि छंदों का प्रयोग करने में बंधु जी सिद्धहस्त हैं. वे शब्द चयन में प्रांजलता को वरीयता देते हैं, हिंदीतर शब्दों का प्रयोग न्यूनतम करते हैं. विवेच्य संकलन के नवगीत लोकमानस में अपना स्थान बनाने में समर्थ हैं, यही कवि का साध्य है.
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

स्मरण: महीयसी महादेवी वर्मा शीतल छाँव बचाये रखना -- राधेश्याम बन्धु

स्मरण: महीयसी महादेवी वर्मा   
शीतल छाँव बचाये रखना                                                   

राधेश्याम बन्धु


फिर-फिर जेठ तपेगा                                                                                             
आँगन, हरियल पेड लगाये रखना,                                                                  
विश्वासों के हरसिंगार
की शीतल छाँव बचाये रखना।
हर यात्रा खो गयी तपन में,
सड़कें छायाहीन हो गयीं,
बस्ती-बस्ती लू से झुलसी,
गलियां सब गमगीन हो गयीं।
थका बटोही
लौट न जाये, सुधि की जुही खिलाये रखना।

मुरझाई रिश्तों की टहनी
यूँ संशय की उमस बढ़ी है,
भूल गये पंछी उड़ना भी
यूँ राहों में तपन बढ़ी है।
घन का मौसम
बीत न जाये, वन्दनवार सजाये रखना।

गुलमोहर की छाया में भी
गर्म हवा की छुरियाँ चलतीं,
तुलसीचौरा की मनुहारें
अब कोई अरदास न सुनतीं।
प्यासे सपने
लौट न जायें, दृग का दीप जलाये रखना।
-०००-

-राधेश्याम बन्धु