मुक्तिका:
कौन चला वनवास रे जोगी?
संजीव 'सलिल'
*
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कौन चला वनवास रे जोगी?
अपना ही विश्वास रे जोगी.
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बूँद-बूँद जल बचा नहीं तो
मिट न सकेगी प्यास रे जोगी.
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भू -मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी.
*
फिक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
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गीता वह कहता हो जिसकी
श्वास-श्वास में रास रे जोगी.
*
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
*
माली बाग़ तितलियाँ भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
*
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों हुआ उदास रे जोगी.
*
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
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राग-तेल, बैराग-हाथ ले
रब का 'सलिल' खवास रे जोगी.
*
नेह नर्मदा नहा 'सलिल' सँग
तब ही मिले उजास रे जोगी.
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010
मुक्तिका: कौन चला वनवास रे जोगी? -- संजीव 'सलिल'
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शनिवार, 11 सितंबर 2010
मुक्तिका: डाकिया बन वक़्त... --- संजीव 'सलिल'
डाकिया बन वक़्त...
संजीव 'सलिल'
*
*
सुबह की ताज़ी हवा मिलती रहे तो ठीक है.
दिल को छूता कुछ, कलम रचती रहे तो ठीक है..
बाग़ में तितली - कली हँसती रहे तो ठीक है.
संग दुश्वारी के कुछ मस्ती रहे तो ठीक है..
छातियाँ हों कोशिशों की वज्र सी मजबूत तो-
दाल दल मँहगाई थक घटती रहे तो ठीक है..
सूर्य को ले ढाँक बादल तो न चिंता - फ़िक्र कर.
पछुवा या पुरवाई चुप बहती रहे तो ठीक है..
संग संध्या, निशा, ऊषा, चाँदनी के चन्द्रमा
चमकता जैसे, चमक मिलती रहे तो ठीक है..
धूप कितनी भी प्रखर हो, रूप कुम्हलाये नहीं.
परीक्षा हो कठिन पर फलती रहे तो ठीक है..
डाकिया बन वक़्त खटकाये कभी कुंडी 'सलिल'-
कदम तक मंजिल अगर चलती रहे तो ठीक है..
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Acharya Sanjiv Salil
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