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शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

muktak salila:

मुक्तक सलिला:



बसाया ही नहीं है घर कि जगत अपना है
अधूरा ही रहे जो देखा नहीं सपना है
बाँह में और कोई, चाह में हो और कोई
तुम्हारा होगा हमारा नहीं ये नपना है
*
प्यास औरों की बुझाई है, सदा तृप्त किया
इसलिए तो हुए पूज्य ताल, नदी, कुँआ
बुझाई प्यास सदा हमने भी तो औरों की
मिला न श्रेय क्यों सबने हमें बदनाम किया?
*
देह को बेचता किसान और श्रमिक भी है
देह का दान कर शहीद हुआ सैनिक है
देह का दान किया हमने, भोग सबने किया-
पूज्य हम भी हैं, प्रथा यह सुरों की दैविक है
*
मृदा भी देहरी की सत्य कहें पावन है
शक्ति-आराधकों के लिए यही भावन है 
तंत्र की साधना हमारे बिन नहीं होती
न पूजता जो उजड़ता, न मिलता सावन है
*
हमें है गर्व कमाया हुआ ही खाया है
कभी न घपले-घुटालों में नाम आया है
न नकली माल बनाया, न मिलावट की है
दिया संतोष, तभी दाम थोड़ा पाया है
*
मिटी गृहस्थी तभी जब न तालमेल रहा
दोष क्यों हमको?, प्रीत-दिए में न तेल रहा
हमने सौदों को निभाया ईमानदारी से
प्यार तुमने न किया, ज़िंदगी से खेल किया
*
कहा वारांगना, वैश्या या तवायफ तुमने
बाई, रथ्या से नहीं दिल को लगाया तुमने
सेक्सवर्कर ने तुम्हें सुख दिया हमेशा पर-
वह भी इंसान है, अनुमान न पाया तुमने
*

laghukatha:

लघुकथा: 

नीले सियार के घर में उत्सव था। उसने अतिउत्साह में पड़ोस के सियार को भी न्योता भेज दिया। 

शेर को आश्चर्य हुआ कि उसके टुकड़ों पर पलनेवाला उससे दगाबाजी करनेवाले को आमंत्रित कर रहा है। 

आमंत्रित सियार को पिछली भेंट याद आयी. जब उसने विदेश में वक्तव्य दिया था: 'शेर को जंगल में अंतर्राष्ट्रीय देखरेख में चुनाव कराने चाहिए'। सियार लोक में आपके विरुद्ध आंदोलन, फैसले और दहशतगर्दी पर आपको क्या कहना है? किसी ने पूछा तो उसे दुम दबाकर भागना पड़ा था।    

'शेर तो शेरों की जमात का नेता है, सियार उसे अपना नुमाइंदा नहीं मानते' आमंत्रणकर्ता सियार बोला तो केले खा रहे बंदरों ने तुरंत चैनलों पर बार-बार यही राग अलापना शुरू कर दिया।  

'हम सियार तो नीले सियार को अपने साथ बैठने लायक भी  नहीं मानते, नेता कैसे हो सकता है वह हमारा?' युवा सियार ने पूछा। 

'सूरज पर थूकने से सूरज मैला नहीं होता, अपना ही मुँह गन्दा होता है' भालू  ने कहा

'जानवरों के बीच नफरत फ़ैलाने और दूरियाँ बढ़ानेवाले इन बिकाऊ बंदरों पर कार्यवाही हो, बे सर पैर की बातों को चैनलों पर बार-बार दिखाकर खरबों रुपयों का समय और दर्शकों का समय बर्बाद करने का हक़ इन्हें किसने दिया?'  भीड़ को गरम होता देखकर बंदर और सियार ने सरकने में ही भलाई समझी। 

***

muktak salila:

मुक्तक;

चाँद एकाकी नहीं, चांदनी सदा संग है
लगे तारों के बिना, रंग में जैसे भंग है
पूछिए नील गगन से वो परेशां क्यों है?
साथ देती न दिशाएं इसी से तंग है
*
सेहरा में जो भटका उसने राह बनाई
शूलों पर फूलों ने जीत सदा ही पाई
गम-विष को रख कंठ पुजे जग में शिवशंकर-
शोर प्रदूषण सन्नाटे ने मुक्ति दिलाई
*
कितने ही हुदहुद नीलोफर आएँ-जाएँ
देव-दनुज के समर कभी थमने ना पाएँ
सिंह सदृश मानव जिजीविषा हार न माने
 इंदु-सूर्य की दसों दिशाएँ जय-जय गाएँ
*
आनंद ही आनंद है चारों ओर देखिए
गीत ग़ज़ल दोहों में आत्मानंद लेखिए
हवा हो या पानी हो कोई फर्क क्यों करे?
भाव-रस चिरंतन में मग्न रहें रेखिए
*
'मैं' ने मैं और मैं में फर्क किया ही क्यों?
तू-तू मैं-मैं जैसा तर्क किया ही क्यों?
खुद से आँख मिलाई आयी हँसी खुद पर
स्वर्ग सरीखे जग को नरक कहा ही क्यों??
*
दिया न बुझता जैसे का तैसा रहता
जलती-बुझती बाती, मौन न कुछ कहता
तेल भरा हो या रीता हो, गिला नहीं
हो प्रकाश या तिमिर संत सम चुप सहता
*
नमन ओझा को लता पर जो खिलाता फूल है
वह तरा जो पा सका प्रभु के चरण की धूल है
धूप हो या तिमिर, सुख या दुःख सहो संमभाव से-
हुआ जो संजीव उसको चुभ न पता शूल है
*
कल के आलिंगन में कल है
वही सफल जो पाता कल है
किलकिल कभी करो क्यों?हँस लो
सृष्टि समूची प्रभु की कल है
(कल=विगत, आगत, शांति, यंत्र)
*
दल कोई भी हो नेता तो छलता ही है
सत्ता का सपना आँखों में पलता ही है
सुख-सुविधा संसद में मिल बढ़वाते रहते-
दाल देश की छाती पर वह दलता तो है
*
 


रिश्ता क्या है तुमसे मेरा

तुमने मुझसे प्रश्न किया है रिश्ता क्या है तुमसे मेरा
सच पूछो तो इसी प्रश्न ने मुझको भी आ आ कर घेरा
 
तुम अपनी वैयक्तिक सीमा के खींचे घेरे में बन्दी
मैं गतिमान निरन्तर, पहिया अन्तरिक्ष तक जाते रथ का
तुम हो सहज व्याख्य निर्देशन बिन्दु बिन्दु के दिशाबोध का
लक्ष्यहीन दिग्भ्रमित हुआ मैं यायावर हूँ भूला भटका
 
तुम अंबर की शुभ्र ज्योत्सना, मैं कोटर में बन्द अँधेरा
सोच रहा हूँ मैं भी जाने तुमसे क्या है रिश्ता मेरा
 
तुम प्रवाहमय रस में डूबी, मधुशाला की एक रुबाई
मैं अतुकान्त काव्य की पंक्ति, जो रह गई बिना अनुशासन
मैं कीकर के तले ऊँघता जेठ मास का दिन अलसाया
तुम अम्बर की हो वह बदली, जो लाकर बरसाती सावन
 
तुम संध्या का नीड़, और मैं जगी भोर का उजड़ा डेरा
प्रश्न तुम्हारा कायम ही है तुमसे क्या है रिश्ता मेरा
 
लेकिन फिर भी कोई धागा, जोड़े हुए मुझे है तुमसे
हम वे पथिक पंथ टकराये हैं जिनके आ एक मोड़ पर
एक अजाना सा आकर्षण हमें परस्पर खींच रहा है
समझा नहीं, कोशिशें की हैं गुणा भाग कर घटा जोड़ कर
 
प्रश्न यही दोहराता आकर हर दिन मुझसे नया सवेरा
जो तुमने पूछा है रिश्ता क्या है तुमसे बोलो मेरा

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

navgeet

नवगीत:
सांध्य सुंदरी
तनिक न विस्मित
न्योतें नहीं इमाम

जो शरीफ हैं नाम का
उसको भेजा न्योता
सरहद-करगिल पर काँटों की
फसलें है जो बोता

मेहनतकश की
थकन हरूँ मैं
चुप रहकर हर शाम

नमक किसी का, वफ़ा किसी से
कैसी फितरत है
दम कूकुर की रहे न सीधी
यह ही कुदरत है

खबरों में
लाती ही क्यों हैं
चैनल उसे तमाम?

साथ न उसके मुसलमान हैं
बंदा गंदा है
बिना बात करना विवाद ही
उसका धंधा है

थूको भी मत
उसे देख, मत
करना दुआ-सलाम
***

muktak:


मुकतक:

कल्पना की अल्पना तो डालिए
दीप उस पर उमंगों का बालिए
अँधेरों की फ़िक्र किंचित मत करें-
उजाले को सदा मन में पालिए

हुद्हुदों-
नीलोफरों से जूझिऐ
कल हो न हो 
*




navgeet:

नवगीत:

राष्ट्रलक्ष्मी!
श्रम सीकर है
तुम्हें समर्पित

खेत, फसल, खलिहान
प्रणत है
अभियन्ता, तकनीक
विनत है

बाँध-कारखाने
नव तीरथ
हुए समर्पित 

कण-कण, तृण-तृण
बिंदु-सिंधु भी
भू नभ सलिला
दिशा, इंदु भी

सुख-समृद्धि हित
कर-पग, मन-तन
समय समर्पित

पंछी कलरव
सुबह दुपहरी
संध्या रजनी
कोशिश ठहरी

आसें-श्वासें
झूमें-खांसें
अभय समर्पित

शैशव-बचपन
यौवन सपने
महल-झोपड़ी
मानक नापने
 
सूरज-चंदा
पटका-बेंदा
मिलन समर्पित

navgeet:

नवगीत:

हर चेहरा है
एक सवाल

शंकाकुल मन
राहत चाहे
कहीं न मिलती.
शूल चुभें शत
आशा की नव
कली न खिलती

प्रश्न सभी
देते हैं टाल

क्या कसूर,
क्यों व्याधि घेरती,
बेबस करती?
तन-मन-धन को
हानि अपरिमित
पहुँचा छलती

आत्म मनोबल
बनता ढाल

मँहगा बहुत
दवाई-इलाज
दिवाला निकले
कोशिश करें
सम्हलने की पर
पग फिर फिसले

किसे बताएं
दिल का हाल?

***
संजीवनी अस्पताल, रायपुर
२९-१०-२०१४ 

dwipadiyaan:

द्विपदियाँ: 

इस दिल की बेदिली का आलम न पूछिए 
तूफ़ान सह गया मगर क़तरे में बह गया 

दिलदारों की इस बस्ती में दिलवाला बेमौत मारा 
दिल के सौदागर बन हँसते मिले दिलजले हमें यहाँ 

दिल पर रीझा दिल लेकिन बिल देख नशा काफूर हुआ 
दिए दिवाली के जैसे ही बुझे रह गया शेष धुँआ 

दिलकश ने ही दिल दहलाया दिल ले कर दिल नहीं दिया
बैठ है हर दिल अज़ीज़ ले चाक गरेबां नहीं सिया 
*

lekh: manav bhasha -pro. mahaveer sharan jain

मानव भाषा का निर्माण एवं विकास

प्रोफेसर महावीर सरन जैन

जिस प्रकार बहुत से पशु-पक्षी आवाज़ों के द्वारा संप्रेषण करते हैं उसी प्रकार आदिम अवस्था में मनुष्य भी प्राकृत एवं सहज अनिच्छायत्त (Involuntary) आवाज़ों के द्वारा ही संप्रेषण करता होगा। इस संदर्भ में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि मनुष्य इन सहज स्नायविक आवाज़ों से भिन्न ‘भाषा’ का निर्माण करने में किस प्रकार समर्थ हो सका ? भाषाविज्ञान में भाषा से अर्थ मानव भाषा से ही लिया जाता है। चॉम्स्की ने यह प्रतिपादित किया है कि केवल मनुष्य में ही अन्तर्जात गुण होते हैं जिसके कारण वह जिस भाषा-परिवेश में पलता और बड़ा होता है, उस भाषा को सीख लेता है। पशु पक्षी कुछ ध्वनियों का उच्चारण करना तो सीख लेते हैं किन्तु भाषा नहीं सीख पाते।

सन् 1960 ईस्वी तक के भाषावैज्ञानिक भाषा पर विचार करते समय भाषा की उत्पत्ति के सिद्धांतों पर बहस करते रहते थे। जब हम सन् 1958-59 में हिन्दी में एम. ए. की उपाधि के लिए अध्ययन कर रहे थे, भाषाविज्ञान के पाठ्यक्रम का आरम्भ ´भाषा की उत्पत्ति' से होता था। भाषा की उत्पत्ति के विभिन्न मत अथवा सिद्धांत पढ़ाए जाते थे। ये थे –
1. देवी उत्पत्ति का सिद्धांत
2. अनुकरणमूलकता का सिद्धांत
3. अनुरणनमूलकता का सिद्धांत
4. मनोराग व्यंजक शब्द मूलकता का सिद्धात
5. श्रम परिहरण मूलकता का सिद्धांत
6. धातु सिद्धांत
7. सामाजिक निर्णय मूलकता का सिद्धांत

उपर्युक्त सिद्धात भाषा की उत्पत्ति की प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक व्याख्या नहीं कर पाते। देवी उत्पत्ति का सिद्धांत केवल अंध श्रद्धा पर आधारित है। बच्चा भाषा सीखने के अन्तर्जात गुण लेकर भले ही जन्म लेता हो मगर वह कोई भाषा लेकर पैदा नहीं होता। जिस भाषा-समाज में उसका पालन पोषण होता है वह उस समाज की भाषा अर्जित करता है। अनुरणन के आधार पर कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति मानी जा सकती है। संसार की भाषाओं में अनुकरणमूलक शब्द मिलते हैं। उदाहरण के लिए बिल्ली के लिए 'म्याऊँ´, कुत्ते के भौंकने के लिए 'भौं भौं´। मगर इस प्रकार के शब्दों की संख्या बहुत सीमित होती है। अनुरणनमूलक शब्दों की संख्या भी बहुत सीमित है। उदाहरण के लिए इस सिद्धांत के प्रवर्तक प्रतिपादित करते हैं कि पेड़ से कोई डाली गिरी होगी तो 'खट´ की आवाज हुई होगी अथवा लकड़ी में आग लगी होगी तो 'चट´ की आवाज हुई होगी और इन आवाजों के आधार पर मनुष्य ने 'खटखटाना´ तथा 'चटकना´ जैसे शब्द बनाए होंगे। इन दोनों सिद्धांतों की सीमा के बारे में आगे अपेक्षाकृत अधिक विस्तार से चर्चा की जाएगी। मनोराग व्यंजक शब्द के सिद्धांत के प्रवर्तकों का दावा है कि आवेश, विस्मय, हर्ष, पीड़ा आदि मनोभावों को व्यक्त करने के लिए ध्वनियाँ सहज रूप से निकल जाती हैं। चिल्लाने की आवाज, अट्टहास की आवाज के आधार पर निर्मित शब्द इसके उदाहरण हैं। श्रम परिहरण मूलकता के सिद्धांत के प्रवर्तक कहते हैं कि जब व्यक्ति मेहनत का काम करते हैं तो उनके मुख से अनायास आवाज निकल जाती है। बोझा उठाने वाले मजदूर, डोली ढोने वाले कहार, कपड़ो को पत्थर पर मार मारकर धोने वाले धोबी, गाँवों में चक्की पर आटा पीसने वाली महिलाएँ आदि के द्वारा अपने श्रममूलक कार्यों को सम्पन्न करते समय निकलने वाली आवाजें इसके उदाहरण हैं। इस सिद्धांत के मानने वालों का दावा है कि इन आवाजों के आधार पर शब्दों का निर्माण हुआ। धातु सिद्धांत का प्रतिपादन सबसे पहले जर्मन विद्वान प्रोफेसर हैज ने किया। इनके बाद भारोपीय-परिवार की संस्कृत, ग्रीक एवं लैटिन आदि भाषाओं के आधार पर मैक्समूलर ने प्रतिपादित किया कि मनुष्य ने 400- 500 धातुओं का निर्माण किया और बाद में इन्हीं धातुओं से शब्दों का विकास हुआ। इस मत को आगे बढ़ाने का काम अलैक्जेन्डर जॉन्सन ने किया। भारोपीय परिवार की आदिम भाषा पर विचार करते हुए उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की विभिन्न उच्चारण-स्थानों से निकलने वाली ध्वनियों से आरम्भ होने वाली धातुओं में अर्थ संगति मिलती है। उदाहरण के लिए उन्होंने प्रतिपादित किया कि जिन धातुओं का आरम्भ ओष्ठ्य ध्वनियों से होता है उनसे बनने वाले शब्दों का अर्थ बोलना, दबाना, बाहर निकालना होता है। इसी प्रकार जिन धातुओं का आरम्भ दन्त्य ध्वनियों से होता है उनसे बनने वाले शब्दों का अर्थ स्पर्श करना, ग्रहण करना, फैलना होता है।

उपर्युक्त सभी सिद्धांतों की सीमाएँ हैं। कुछ सिद्धांत भाषाओं के कुछ सीमित शब्दों के निर्माण की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हैं। धातु सिद्धांत तथा इस सिद्धांत को विकसित करने वाले विद्वानों ने केवल भारोपीय परिवार की कुछ भाषाओं के आधार पर अपने सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। संसार की समस्त भाषाओं में धातु मूलक क्रियाओं के लिए हमें समान शब्द प्राप्त नहीं होते।

सामाजिक निर्णय के सिद्धांत के प्रवर्तकों का मत है कि सामाजिक निर्णय से भाषा की सृष्टि हुई। समाज के सदस्यों ने मिलजुलकर किसी वस्तु को कोई नाम दे दिया और वह शब्द उस वस्तु का वाचक बन गया। यह सिद्धांत अन्य मतों की अपेक्षा संगत है। इससे शब्द एवं अर्थ के सम्बंध की यादृच्छिकता पर प्रकाश पड़ता है।

प्रस्तुत लेख में हम इस सम्बंध में विचार करेंगे कि मनुष्य ही भाषा का निर्माण एवं विकास करने में किन कारणों से समर्थ हो सका। हम "भाषा की उत्पत्ति" के सीमित एवं अधिकांशतः काल्पनिक सिद्धांतों के स्थान पर "भाषा के निर्माण एवं विकास" पर विचार करेंगे।

मानव जाति में प्राकृत प्रवृत्तियों की अपेक्षा अर्जित प्रतिभा अधिक होती हैं। मानव जाति ने इन्हीं अनुकरण और प्रयोग की प्रवृत्तियों के कारण खाना बनाना और पेट भरना, घर बनाना और बसना, कपड़ा बनाना और पहनना सीखा। विश्व में प्रत्येक जाति के खाने, कपड़े और आवास की अपनी निजी विशेषताएँ होती हैं, किन्तु फिर भी यदि हम चाहें तो उनसे वस्तुगत तादात्म्य कर सकते हैं।

‘भाषा’ सीखने की इच्छा करने से नहीं, ‘सीखने’ से आती है। इसका आधार अधिक मानसिक, अमूर्त, निजी एवं कुशल-अभ्यास-परक होता है। मैं हिन्दी बोलता हूँ, दूसरा व्यक्ति तमिल बोलता है। ऐसी स्थिति में मुझे यदि पहले से तमिल भाषा नहीं आती तो मैं न तो तमिल भाषा समझ सकता हूँ और न बिना अभ्यास के उसे सीख सकता हूँ।

मनुष्य ने जब समाज में रहना सीखा होगा तथा किसी वस्तु को उसके प्रतीक रूप शब्द से पुकारने की प्रक्रिया अपनाई होगी, उसी दिन उसने भाषा निर्माण की नींव रखी होगी। इस प्रकार भाषा के शब्द सहज स्नायविक नहीं है। इनकी निर्मिति का रहस्य व्यक्ति के द्वारा उच्चरित रूपों की परम्परित अभिव्यक्ति तथा समाज के अन्य सदस्यों की उन्हें उसी परम्परित अर्थ में ग्रहण करने की स्वीकृति में निहित है। एक बच्चे के द्वारा निर्मित शब्द आज भी इसी प्रक्रिया से उस समाज के भाषा कोष के अंग बन जाते हैं। हार्न की ध्वनि को किसी बच्चे ने ही बार-बार ‘पों-पों’ से पुकारा होगा तथा उनका यह परम्परित उच्चारण ही समाज में स्वीकृति पाकर सामाजिक संप्रेषण का वाहक बना होगा।

यह बात पहले कही जा चुकी है कि जिस प्रकार बहुत से पशु-पक्षी आवाज़ों के द्वारा संप्रेषण करते हैं उसी प्रकार आदिम अवस्था में मनुष्य भी प्राकृत एवं सहज अनिच्छायत्त (Involuntary) आवाज़ों के द्वारा ही संप्रेषण करता होगा। इस संदर्भ में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि मनुष्य इन सहज स्नायविक आवाज़ों से भिन्न ‘भाषा’ का निर्माण करने में किस प्रकार समर्थ हो सका ? इस सम्बन्ध में मनुष्य की सामाजिक जीवन की आवश्यकता एवं प्रतीकात्मकता का विकास करने की क्षमता के अतिरिक्त मनुष्य एवं मनुष्येतर प्राणियों की शारीरिक बनावट (ध्वनि उच्चारण के अवयव एवं श्रवण क्षमता) एव मानसिक विकास के सम्बन्ध में विचार करना भी प्रासंगिक एवं सार्थक है।

मनुष्य एवं मनुष्येतर प्राणियों की शारीरिक बनावट (ध्वनि उच्चारण के अवयव एवं श्रवण क्षमता):

पशु-पक्षियों में भी ध्वनि उत्पादन एवं श्रवण की क्षमताएँ होती हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि बहुत से पशु-पक्षी ध्वनि उत्पादन करने में अधिक दक्ष होते हैं तो बहुत से ध्वनि सुनते में। यह हमारा नित्य प्रतिदिन का अनुभव है कि हमारे घरों में तोता ध्वनि उत्पादन में अधिक प्रवीण होता है तो कुत्ता ध्वनि सुनने में। मनुष्य की दक्षता ध्वनि श्रवण में भी है तथा ध्वनि उत्पादन में भी। इस दृष्टि से मानव वागेन्द्रियों में घोष-तन्त्री के प्रकार्य एवं जिहृा की गतिशील स्थितियों तथा कर्णकुहर की शारीरिक संरचना का मानवेतर प्राणियों के तत्सम्बन्धित शारीरिक अवयवों की संरचना एवं प्रकार्य के तुलनात्मक अध्ययन से बहुत उपयोगी सूत्र ढूँढे जा सकते हैं। इस दिशा में प्राणी-वैज्ञानिकों एवं भाषा-वैज्ञानिकों को मिलकर कार्य सम्पन्न करना चाहिए।

मनुष्य एवं मनुष्येतर प्राणियों का मानसिक विकास:

केवल ध्वनि उत्पादन एवं श्रवण-क्षमता ही नहीं, मनुष्य में शब्दों को याद रखने की भी अद्भुत क्षमता है। वाक् अवयवों के परस्पर सहयोग मूलक संचालन के लिए मस्तिष्क प्रकार्य करता है। इस दृष्टि से मनुष्य अपने मानसिक विकास के कारण विविध शब्दों की स्मृतियाँ संचित रखता है तथा उसी के कारण सीमित ध्वनियों के द्वारा निर्मित हजारों लाखों शब्दों को सही रूप में उच्चरित कर पाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि शरीर-विज्ञान की दृष्टि से बिना प्रयास के अनिच्छायत्त ध्वनियों के उच्चारण की क्रिया मस्तिष्क के मेरूशीर्ष (Medulla Oblongata) के द्वारा संचालित होती है, किन्तु सायास स्वेच्छाकृत ध्वनियों के उच्चारण का नियन्त्रण एवं संचालन प्रमस्तिष्क (Cerebrum) के चेष्टा क्षेत्र (Motor or Excitable-area) के वाक् चेष्टा क्षेत्र (Motor Speech Centre) द्वारा होता है। यह क्षेत्र अग्रपिण्ड लहरिका (Convolution) के पश्चिम प्रान्त के महाविदर (Fissure of Sylvius) की अग्रिम शाखा के पास स्थित है। इसको ब्रोका केन्द्र (Broca Centre) के नाम से भी पुकारा जाता है। यह विभिन्न वाक् अवयवों की विभिन्न गतियों का मध्यस्थ नियन्त्रण करता है तथा उनकी कार्य विधि एवं क्रमबद्धता का सहयोग मूलक संचालन करता है।

शारीरिक दृष्टि से तोता आदि कुछ पक्षियों को छोड़कर शेष मानवेतर पशु-पक्षी बिना प्रयास के अनिच्छायत ध्वनियों का ही उच्चारण कर पाते हैं, सायास स्वेच्छाकृत ध्वनियों का उच्चारण नहीं कर पाते। यह भी शोध का विषय है कि मनुष्य एवं मनुष्येतर प्राणियों के प्रमस्तिष्क में शारीरिक भिन्नता एवं उसके प्रकार्य का अनुपात कितना है ?

इतना अवश्य निश्चित है कि मनुष्य में प्रमस्तिष्क का विकास अन्य प्राणियों से अधिक हुआ है, और इसी कारण वह सायास स्वेच्छाकृत प्रतिक्रिया का अधिक प्रयोग करता है। मनुष्य में सहज शक्तियाँ जितनी हैं उनसे सहज गुनी शक्तियों का विकास उसने स्वंय किया है। इन्हीं कारणों से वह प्राकृत आवाज़ करने तक ही सीमित नहीं रहा, सायास बोली जाने वाली भाषा का निर्माण एवं विकास कर सकने में समर्थ सिद्ध हो सका। घोष-तन्त्री को विभिन्न स्थितियों में नियंत्रित कर उसने ध्वनियों को अघोष सघोष के भेदक रूप में बोलना सीखा। नियंत्रित सुरों एवं सुर लहर के विभिन्न स्तरों का प्रयोग करना सीखा। जिहृा को विविध स्थितियों में ले जाकर विविध स्थानों से ध्वनियों का उच्चारण करना सीखा। नॉम चॉम्सकी भाषिक क्षमता को मनुष्य की मानसिक प्रतिभा से जोड़ते हैं तथा भाषिक-क्षमता एवं भाषिक-निष्पादन में अन्तर करते हैं। भाषिक-क्षमता मनुष्य मात्र की मानसिक प्रतिभा से सम्बद्ध है जिससे कोई भी मनुष्य संसार की किसी भी भाषा को सीख लेता है जबकि मनुष्येतर प्राणी नहीं सीख पाते।


संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि मनुष्य के बच्चे का मस्तिष्क एक कोरी स्लेट की तरह नहीं होता जिस पर उसके द्वारा सीखी गई बात अंकित होती चली जाए अपितु उसके मस्तिष्क में कुछ गुणसूत्र जन्मजात होते हैं। इसी विचार को स्टीवन ऑर्थुर पिन्कर (Steven Arthur Pinker) ने आगे बढ़ाया है।


मनुष्य जाति और प्रतीकात्मकता का विकास:

उच्चारण की इन शक्तियों के विकास के अतिरिक्त अपने सामाजिक जीवन की आवश्यकता के अनुरूप वह विभिन्न पदार्थों, वस्तुओं, व्यक्तियों, दृश्यों, स्थितियों, मनोभावों को सीमित ध्वनियों के परस्पर संयोग एवं उनके विभिन्न परिवर्तनों के द्वारा निर्मित अलग-अलग शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त कर सकने में समर्थ हो सका। इस प्रकार वह अलग-अलग वस्तुओं को प्रतीक शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त कर सकने में समर्थ हो सका।

भाषा में निरर्थक ध्वनियों का उच्चारण नहीं किया जाता। भाषा के अन्तर्गत ध्वनियों से निर्मित शब्द सार्थक होते हैं। भाषा का निर्माण जिन लघुतम इकाईयों से होता है, वे स्वयं अर्थहीन होती हैं। उनका कोई अर्थ नहीं होता। यह भाषा का वैशिष्ट्य है कि अर्थहीन इकाईयों के विशेष क्रम से मिलने पर सार्थक उच्चार खण्ड निर्मित हो जाते हैं। ‘‘भाषा में शब्द का प्रयोग अर्थ बतलाने के लिए ही होता है।’’ भाषा का अर्थ प्रतीकात्मक होता है। दूसरे शब्दों में भाषा के शब्द एवं वाक्य सहज स्नायविक प्रतिक्रिया करने वाले न होकर बाधित उत्तेजक होते हैं।

भाषा के शब्द चिह्न (Sign) नहीं, प्रतीक (Symbol) हैं। चिह्न का वस्तु से स्वाभाविक सम्बन्ध होता है। यह वस्तु के लक्षण का चिह्न प्रकट होता है। प्रतीक में प्रतीकार्थ वस्तु का कोई प्राकृत लक्षण नहीं होता। प्रतीक का अपनी वस्तु से माना हुआ सम्बन्ध होता है। सहज स्नायविक आवाज़ें प्रतीक नहीं है, क्योंकि ये प्राकृत हैं, सहज हैं, मानी हुई नहीं। इसके विपरीत भाषा के शब्द वस्तु के वाचक हैं। जिस वस्तु के लिए जो शब्द जिस भाषा समाज द्वारा मान लिया जाता है उस भाषा समाज के भाषा-भाषी उस वस्तु को उस शब्द से पुकारने के अभ्यस्त हो जाते हैं। चिह्न इसी कारण प्राकृत एवं स्वाभाविक होता है, किन्तु प्रतीक अर्जित एवं मान्य होता है।

जिस दिन मनुष्य ने किसी घटना, परिस्थिति अथवा मनोभाव को अभिव्यक्त करने के लिए उसके किसी दूसरे संकेत को मान लिया होगा, उस दिन प्रतीकात्मकता का जन्म हुआ होगा। जब उसने किसी बात को याद रखने के लिए अपने परिधान में गाँठ बाँधी होगी अथवा संख्या को याद रखने के लिए लकीरें खींची होंगी अथवा अपनी झोपड़ी को याद रखने के लिए उसके बाहर कोई चित्र बनाया होगा उसी समय प्रतीकात्मकता का जन्म हुआ होगा। किसी एक वस्तु को किसी दूसरी वस्तु के द्वारा प्रकट करने के लिए याद्दच्छिक रूप से अपनायी गयी प्रक्रिया ही प्रतीकात्कता है। हायकवर ने मनुष्य जगत की विशिष्टता बताते हुए लिखा है कि जब कभी दो अथवा अधिक मनुष्य परस्पर विचारों का संवहन करते हैं तो वे परस्पर समझौते के द्वारा किसी भी वस्तु को किसी भी वस्तु के लिए मान लेते हैं।

मनुष्य को सामाजिक संप्रेषण एवं सामाजिक विकास के लिए प्रतीकात्मकता की आवश्यकता पड़ी जिसके कारण मनुष्य खाने, देखने एवं चलने जैसी मूल क्रियाओं के समान प्रतीकों का निर्माण करने में समर्थ हो सका। यह मनुष्य के मानसिक जगत की आधारभूत प्रक्रिया है तथा सभ्यता के विकास के साथ यह प्रक्रिया अनवरत बढ़ती रही है।

भाषा के शब्द प्रतीक हैं। इस कारण अर्थवान उच्चरित खंडों का अपने वाच्य से प्राकृत सम्बन्ध न होकर याद्दच्छिक सम्बन्ध होता है।यादृच्छिकता का अर्थ है अपनी इच्छा से माना हुआ सम्बन्ध। शब्द द्वारा हमें उस पदार्थ या भाव का बोध होता है जिससे वह सम्बद्ध हो चुका होता है। शब्द स्वयं पदार्थ नहीं है। हम किसी वस्तु को उसके जिस नाम से पुकारते हैं उस नाम एवं वस्तु में परस्पर कोई प्राकृत एवं समवाय सम्बन्ध नहीं होता। उनका सम्बन्ध स्वेच्छाकृत मान्य होता है। इसी कारण भाषा का शब्द स्वतः स्फूर्त नहीं होता। हम समाज में रहकर भाषा को सीखते हैं।

एक समाज किसी वस्तु के लिए जिस नाम की स्वीकृति दे देता हैं वही नाम उस समाज में उस वस्तु के लिए प्रयुक्त होने लगता है। यही कारण है कि एक ही वस्तु के अलग-अलग भाषाओं में प्रायःभिन्न वाचक मिलते हैं। यदि शब्द एवं वस्तु का प्राकृत एवं समवाय सम्बन्ध होता तो संसार भर की भाषाओं में एक वस्तु का एक ही वाचक होता। हम जानते हैं कि ऐसा नहीं है। एक ही वस्तु को अनेक नामों से पुकारा जाता है। यथा - ' हिन्दी में, जिसे कुत्ता कहते हैं उसको अंग्रेजी में ‘डॉग' (dog) ; चीनी में ‘गोऊ’(gou) ; इटैलियन में ‘कैने’(cane) ; स्पेनिश में ‘पेरो’ (perro) ; जर्मन में ‘हुण्ड’(Hund) ; तथा रूसी में सुबाका(sobaka) कहते हैं।

भारतीय भाषाओं मे भी एक ही पदार्थ के अनेक वाचक मिल जाते हैं-हिन्दी के गेहूँ को पंजाबी में कणक, गुजराती में धउँ, बंगला एवं असमियों में गम अथवा गाम कहते हैं। हिन्दी की आँख मराठी में डोला, तमिल में कणमणि , कन्नड़ में पापे बोली जाती है। गर्दन को पंजाबी में धौण, मराठी में मानू, असमिया में दिङि, उडि़या में बेक तथा तमिल एवं मलयालम में कलुत्तुँ कहते हैं। हिन्दी में भोजन करते हैं, मराठी गुजराती में जेवण या जमण करते हैं। इसके विपरीत एक ही शब्द विभिन्न भाषाओं में भिन्न-भिन्न अर्थों में भी प्रयुक्त होता है।

शब्दअर्थभाषा का नाम
मृग
मृग
हिरण
सामान्य पशु
हिन्दी
दक्षिणी भाषाओं में
शिक्षा
शिक्षा
सिखाना
ताड़ना
हिन्दी
मराठी
अनर्गल
अनर्गल
निरर्थक
धाराप्रवाह
हिन्दी
तेलुगु
बाड़ी
बाड़ी
बगीचा
घर
हिन्दी
बांग्ला

‘‘इस प्रकार वस्तुओं में ऐसी कोई स्वाभाविक बात नहीं होती जो उन्हें निर्धारित नाम प्रदान करे। नाम तो लोगों द्वारा परस्पर सहमति से अथवा परम्परा से स्वीकृत अर्थ में चला आया होता है।’’

शब्द एवं अर्थ की याद्दच्छिकता के बारे में कुछ विद्वानों ने प्रश्वाचक चिह्न लगाया है। इनके मतानुसार आज भले ही शब्द एवं अर्थ का सम्बन्ध याद्दच्छिक हो तथापि भाषा व्यंजक अर्थों की वस्तुओं अथवा क्रियाओं की ध्वनियों के आधार पर किया गया। पेड़ से पत्ते गिरने पर हुई ‘पत्’ ध्वनि को सुनकर गिरने के अर्थ में ‘पत्’ धातु का निर्माण हुआ।तदनन्तर ‘पत्’ से ‘पत्ता’ ‘पतन’ ‘पतित’ आदि शब्द बने। इस दृष्टि से शब्द एवं अर्थ का आधार याद्दच्छिक न होकर ‘ध्वन्यात्मक साम्यता’ प्रतीत होता है।यह सत्य है कि अनुकरणमूलक एवं अनुरणनमूलक शब्दों का निर्माण उनकी वाच्य वस्तुओं से उत्पन्न प्राकृतिक ध्वनियों के अनुकरण अथवा उनके अनुरणन के आधार पर होता है। ‘म्याऊँ, ‘भों-भों’, ‘हिनहिनाहट’, ‘काँव-काँव’, ‘टर्र-टर्र’, ‘चर-चर’, ‘टिक-टिक’, ‘भोंपू’, ‘फटफटिया’, आदि अनुकरणमूलक शब्दों तथा ‘कल-कल’, ‘खट-खट’, ‘झर-झर’, ‘तड़तड़’, ‘साँय-साँय’, ‘भड़भड़’, आदि अनुरणनमूलक शब्दों में यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है।इस सम्बन्ध में हम पूर्व में यह उल्लेख कर चुके हैं कि किसी भी भाषा में इस प्रकार के शब्दों की संख्या अत्यन्त सीमित एवं अल्प होती है। इस कारण इनके आधार पर शब्द एवं अर्थ की याद्दच्छिकता का सामान्य नियम खण्डित नहीं होता।इसके अतिरिक्त केवल ध्वनि करने वाली वस्तुओं का ही नामकरण उनकी ध्वन्यात्मकता का आधार लेकर हो सकता है; भावनाओं, विचारों, एवं शेष पदार्थों का नामकरण इस आधार पर सम्भव नहीं है।

भाषाओं में अनुकरणमूलक शब्द मिलते-जुलते अवश्य हो सकते हैं, प्रायः वही नहीं होते। पेड़ से पत्ते तो सभी स्थानों पर गिरते हैं किन्तु संस्कृत में गिरने के अर्थ में ‘पत्’ धातु है किन्तु अंग्रेजी में ´Fall' है। इसी प्रकार हिन्दी में कुत्ते का भौंकना ‘भों-भों है, अंग्रेजी में 'Bow-wow´ है।

इस प्रकार वस्तु की ध्वनि को किसी भाषा का कोई व्यक्ति अपनी विशिष्ट मनोवैज्ञानिक स्थिति में सुनकर उसके आधार पर शब्द का निर्माण करता है तथा उसे उस अर्थ में बार-बार प्रयोग करता है। जब उस शब्द को उस अर्थ में भाषा समाज की मान्यता प्राप्त हो जाती है तभी वह शब्द के वाक् धरातल से ऊपर उठकर ‘भाषा’ की शब्दावली का अंग बन पाता है।ध्वनि करने वाली वस्तुओं के आधार पर निर्मित होने वाले शब्द भी याद्दच्छिक प्रक्रिया से सर्वथा पृथक नहीं किए जा सकते। इन शब्दों के अर्थ सम्बन्ध को ‘अर्थ-याद्दच्छिक’ कहा जा सकता है।

शब्द एवं अर्थ के याद्दच्छिक सम्बन्ध का अभिप्राय यह है कि पुरानी पीढ़ी ध्वनिक्रमों से निर्मित शब्दों की मान्य अर्थवत्ता को अपने भाषा समाज की नई पीढ़ी को प्रदान करती है। भाषा समाज की नयी पीढ़ी शब्दों के अर्थ को पुरानी पीढ़ी के संसर्ग से प्राप्त करती रहती है। इस प्रकार भाषा की याद्दच्छिकता का अभिप्राय यह है कि भाषा सामाजिक वस्तु है। समाज में शब्दों के परम्परित अर्थ मे प्रयुक्त होते रहने के कारण हमें शब्द एवं अर्थ का सम्बन्ध नित्य एवं समवाय प्रतीत होता है, तत्त्वतः शब्द एवं अर्थ का सम्बन्ध नित्य तथा समवाय नहीं है। शब्द वस्तु को प्रकट नहीं करता; उसके अर्थ को प्रकट करता है। एक भाषा के साहित्य का दूसरी भाषा में अनुवाद प्रक्रिया के समय विचार (बुद्धिस्थ अर्थ) बना रहता है। हम शब्द परिवर्तन करते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि शब्द एवं अर्थ में नित्य एवं समवाय सम्बन्ध नहीं होता।

शब्द एवं वस्तु की भिन्नता के कारण ही शब्द के अर्थ बदलते रहते हैं। एक शब्द का जिस काल में जो भाषा समाज जो अर्थ ग्रहरण करता है उस काल में उस भाषा समाज में उसका वही अर्थ होता है।

यदि शब्दार्थ ही पदार्थ होता तो चीनी कहने से जीभ को मीठेपन के स्वाद का अनुभव होता, भोजन कहने मात्र से पेट भर जाता, आग कहने से जीभ जल जाती। वस्तु या वाच्य तथा शब्द अथवा वाचक की भिन्नता हम प्रत्यक्ष रूप से अनुभव कर सकते हैं। जब कोई शिशु जन्म लेता है तो उसका कोई नाम नहीं होता। उस समय हम उसे जिस नाम से चाहें पुकार सकते हैं। उसका हम कोई भी नाम रख सकते हैं। जब परिवार के सदस्य उसका कोई नाम रख देते हैं तो वह उसी नाम से पुकारा जाने लगता है। प्रयोग के कारण कालान्तर में वह प्राणी तथा उसका मान्य नाम इतना अभिन्न प्रतीत होने लगता है कि उसकी अनुपस्थिति में भी उसके नाम को सुनने भर से उसका बोध हो जाता है। शब्दों के अर्थ इसी प्रक्रिया में रूढ़ होते हैं।

शब्द स्वयं पदार्थ नहीं है। शब्द से पदार्थ का नहीं, पदार्थ के बुद्धिस्थ अर्थ का बोध होता है। इस सम्बन्ध में भारतीय एवं पाश्चात्य विचारक एक मत हैं। डी0 सोस्यूर ने प्रतिपादित किया है कि प्रतिपादक शब्द एवं प्रतिपाद्य वस्तु के बीच एक प्रतिपाद्य भाव होता है, जो बुद्धिस्थ होता है। शब्द उस वस्तु को प्रकट नहीं करता, उस वस्तु के भाव को प्रकट करता है।

भारतीय मनीषियों ने भी स्फोट सिद्धांत में इसका विस्तार से विवेचन किया है। वक्ता की वैखरी वाणी सुनकर मध्यमा नाद उत्पन्न होता है। स्फोट से बुद्धिस्थ अर्थ का ग्रहण तदनन्तर बुद्धिस्थ अर्थ से बाह्य अर्थ का ग्रहण होता है।वैयाकरण ने प्रश्न उठाया है कि ‘गौ’ इसमें कौन-सा शब्द है ? क्या जो गल-कम्बल, पूँछ, कुहान, खुर, सींगवाला पदार्थ है, वह शब्द है ? वह स्वयं उत्तर देता है कि यह शब्द नहीं है, यह तो ´द्रव्य' है।फिर क्या संकेत करना (आँख आदि से हृदय के भाव का प्रकाशन), चेष्टा (शरीर की हलचल) तथा आँख का झपकना ये शब्द हैं ? इसका भी उत्तर वैयाकरण नकारात्मक देता है। ये शब्द नहीं, क्रियाएँ हैं।तो क्या जो शुक्ल, नील, कपिल (भूरा), कपोत (चितकबरा) है, ये शब्द हैं ? इसक भी उत्तर वैयाकरण नहीं में देता है क्योंकि ये शब्द नहीं, गुण हैं।तो फिर क्या जो भिन्न-भिन्न पदार्थों (द्रव्यों) में एक रूप है और जो उनके नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता, सबमें साधारण, अनुगत है, वह शब्द है ?यह भी शब्द नहीं क्योंकि यह तो जाति है। तो फिर शब्द क्या है ?इसका उत्तर वैयाकरण देता है: ‘‘ जो उच्चरित ध्वनियों से अभिव्यक्त होकर गलकम्बल, पूँछ, कुहान, खुर, सींगवाले 'गौ´ व्यक्तियों का बोध कराता है, वह शब्द है। लोक व्यवहार में तो जिस ध्वनि से अर्थ का बोध होता है, वह शब्द कहलाता हैं किन्तु तत्त्वतः उच्चारित होकर क्षणान्तर में नष्ट हो जाने वाली ध्वनियाँ अर्थ बोध नहीं करा सकती। उनमें वाचकत्व नहीं है। जो श्रवण का विषय है, वह बोधक नहीं है। व्याकरण शब्द को एक नित्य तत्त्व मानता है (बुद्धिस्थ के अर्थ में)।यह उच्चरित ध्वनियों से अभिव्यक्त होता है और अभिव्यक्त होने पर उस अर्थ (बुद्धिस्थ) का बोध कराता है। इसी कारण इसे ‘स्फोट’ कहते हैं, जिसका अर्थ हैं-स्फुटत्यर्थोऽस्मादिति।

(पतंजलि: व्याकरण महाभाष्य (प्रथम नवान्हिक), (पतंजलि : व्याकरण महाभाष्य (अनुवादक – चारुदेव शास्त्री), (पतंजलि : व्याकरण महाभाष्य (अनुवादक – चारुदेव शास्त्री),पृष्ठ 3-4 (मोतीलाल बनारसीदास)।

इस प्रकार आदमी ही ऐसा प्राणी है जो अलग-अलग वस्तुओं को उनके प्रतीक शब्दों के द्वारा व्यक्त करने लगा। प्रतीकात्मकता के विकास द्वारा उसने अपने को पशु-जगत से भिन्न बना लिया। पशु-पक्षी प्राकृत एवं सहज आवाजें ही करते रहे। मनुष्य ने अपने शारीरिक संरचना, मानसिक विकास और जीवन की आवश्यकता के कारण प्रतीकात्मकता का विकास कर लेने के कारण भाषा का निर्माण कर लिया। पशु-पक्षी अपनी बात आज भी जहाँ मनोभावाभिव्यंजक आवाज़ों, भाव-भंगिमाओं अथवा अपने शरीर की गतियों के घटाने-बढ़ाने के द्वारा अभिव्यक्त कर पाते हैं वहीं मनुष्य हजारों वर्षों पूर्व ही ज्ञान के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अविच्छिन्न संचय एवं स्थानान्तरण के लिए याद्दच्छिक वाक् प्रतीकों का प्रयोग कर पशु-जगत के संप्रेषण साधनों से भिन्न ‘मानव भाषा’ का निर्माण करने में समर्थ हो गया। इस कारण यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि मानवता का इतिहास एक सुगठित भाषा को प्रारम्भ से ही आधार मानकर चला है। भाषा के बिना मानव समाज का विकास सम्भव नहीं था। इस कारण वान्द्रियैज़ ने लिखा है कि यदि मानव का अधिकार भाषा पर न होता तो वह विधि द्वारा नियत जीवन के इतने महत्त्वपूर्ण ध्येय की पूर्ति न कर पाता। विचार की साधन और सहायक भाषा ने ही मानव को स्वत्व की चेतना प्रदान की और इसके द्वारा ही वह अपने भाषा समाज के अन्य सदस्यों से वाक्-व्यापार कर सका। इससे समाजों की स्थापना सम्भव हुई। व्यवहार के इतने प्रभावशाली साधन के न होने पर मानव की आदिम व्यवस्था क्या रही होगी, इसकी कल्पना करना वस्तुतः कठिन है। मानवता के इतिहास के आरम्भ में ही एक सुसम्बद्ध भाषा का अस्तित्व रहा होगा, क्योंकि भाषा के बिना उसकी गति ही न हो पाती।

(जे. वान्द्रियैज़ – भाषा (अनुवादक – जगवंश किशोर बलवीर) प्राक्कथन पृष्ठ 1, हिन्दी समिति, सूचना विभाग, लखनऊ, प्रथम संस्करण, (1966))।

भारतीय मनीषी भी भाषा के महत्त्व के प्रति सजग रहे हैं। ‘शब्द की शक्ति के कारण सारा विश्व बँधा हुआ है’’।

(“शब्देष्वाश्रिता शक्तिर्विश्वस्यास्य निबंधनी” – भर्तृहरि – वाक्यपदीय) ’’वाणी की कृपा से यह लोक यात्रा चल रही है। यदि शब्द (वाणी) रूपी ज्योति इस संसार में न चमकती तो ये तीनों लोक अंधकार में ही रहते।

(इदमन्धतमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्। यदि शब्दाहृयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते।। - काव्यादर्श , सम्पादक – अनुकूल चन्द बनर्जी, पृष्ठ 6, कलकत्ता विश्वविद्यालय (1939))।

भारतीय मनीषियों के इस प्रकार के कथन भाषा के महत्व के प्रति उनकी केवल भावात्मक उक्तियाँ मात्र नहीं हैं। इनमें ‘भाषिक उपलब्धि’ के कारण मनुष्य की ‘सांस्कृतिक जय-यात्रा' का रहस्य भी निहित है

प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवा निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव, बुलन्द शहर – 203001




बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

lekh: amerika men hindi shikshan -dr. surendra gambheer

अमेरिका में हिन्दी शिक्षण 

                      - डॉ. सुरेन्द्र गंभीर, यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्वेनिया


अमेरिका में हिन्दी-शिक्षण में एक नई लहर आई है। 6 फ़रवरी 2006 को अमेरिका के 
राष्ट्रपति जार्ज बुश ने नेशनल सिक्योरिटी लैंगवेज इनिशियेटिव नाम की एक भाषा-
नीति की घोषणा की थी। इस नई नीति के तहत सरकारी विद्यालयों के विदेशी भाषा 
शिक्षण कार्यक्रम में दस नई भाषाएँ क्रमशः जोड़ने के लिए सरकारी समर्थन देने के 
लिए सरकार ने अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट की है। इन भाषाओं में हिन्दी भी एक है। 
अन्य भाषाएँ थीं – चीनी, अरबी, उर्दू, फ़ारसी, तुर्की, पुर्तगाली, स्वाहिली, रूसी और दरी।
 स्टारटॉक के नाम से यह कार्यक्रम 2007 में चीनी और अरबी से शुरू हुआ। 2008
 में हिन्दी, उर्दू और फ़ारसी जोड़ी गईं। 2009 में तुर्की और स्वाहिली जुड़ीं और फिर दो 
साल बाद दरी और रूसी को भी इस सूची में सम्मिलित कर लिया गया। स्टारटॉक का 
Dr. Surendra Gambhirविस्तार बहुत प्रभावशाली रहा है। 2007 में चीनी और अरबी  
के 34 कार्यक्रम संपन्न हुए। 2008 में तीन भाषाएँ और जुड़ने 
के बाद यह संख्या 81 जा पहुँची, अन्य भाषाओं के समावेश 
के साथ कार्यक्रमों की यह संख्या क्रमशः 116, 134 से गुज़रती 
हुई 2011 में 156 तक आ पहुँची है । संख्या के साथ साथ 
यह भी बहुत प्रभावशाली तथ्य है कि अमेरिका के 50 प्रदेशों 
में से 46 प्रदेशों में स्टारटॉक के कार्यक्रम संपन्न हुए हैं। 
स्टारटॉक में हिन्दी की स्थिति में भी हर वर्ष प्रगति हुई है। 
इसके आंकड़े आगे प्रस्तुत किए जाएंगे। इनमें हिन्दी, चीनी 
और पुर्तगाली भारत, चीन ओर ब्राज़ील की सुधरती हुई आर्थिक 
स्थिति को ध्यान में रखकर सम्मिलित की गई हैं और अन्य भाषाएँ अन्य कारणों के 
साथ साथ विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से जोड़ी गईं। आर्थिक दृष्टि से उभरते 
देशों से निकट भविष्य में व्यापारिक  संबंधों को मज़बूत करने के लिए वहां की भाषा 
और संस्कृति के जानकार अगली पीढ़ी में तैयार करने की यह दूरदृष्टि है।

अमेरिका में आजकल हिन्दी जानने का महत्व धीरे धीरे बढ़ रहा है। इसका श्रेय जहाँ एक 
तरफ़ भारत मूल की उन अनेक संस्थाओं को है जो भारतीय मूल के युवा-वर्ग के लिए बड़े 
नियमित ढंग से हिन्दी के स्कूल अलग अलग प्रदेशों में चला रही हैं वहाँ अमरीकी सरकार 
को भी इसका श्रेय जाता है जिसने अपनी भाषा-नीति को स्पष्ट करते हुए हिन्दी को 
सरकारी स्कूलों के विदेशी-भाषा कार्यक्रम में एक विकल्प के रूप में रखने की घोषणा 
की है। ग़ैर-सरकारी स्वयंसेवी संस्थाएँ भाषा के साथ साथ भारतीय संस्कृति के विभिन्न 
पक्षों का ज्ञान बच्चों को देती हैं। सरकारी तंत्र के तहत चलने वाले हिन्दी कार्यक्रमों में 
भाषा के साथ उसकी अभिन्न सहचरी संस्कृति के भौतिक और वैचारिक पक्षों को समझने-
समझाने की अनिवार्यता पर भी बल है। भाषा-संबंधी शोध पर आधारित इस सरकारी 
सोच का दृढ़ मत है कि भाषा और संस्कृति में अटूट संबंध है और भाषा को समझने 
और उसका सटीक प्रयोग करने के लिए उससे जुड़ी सांस्कृतिक मान्यताओं का ज्ञान 
महत्वपूर्ण है। उसी प्रकार स्थानीय संस्कृति को समझने के लिए भी स्थानीय भाषा ही 
सशक्त माध्यम है। इस प्रकार भाषा और संस्कृति में अन्योन्याश्रित संबंध होने के 
कारण एक का अस्तित्व दूसरे के बिना अकल्पनीय है।
अमेरिकन सरकार की इस नई नीति को कार्यान्वित करने के लिए 2007 में एक नए 
राष्ट्रीय कार्यक्रम की घोषणा हुई। राष्ट्रीय स्तर का यह नया कार्यक्रम स्टारटॉक 
वाशिंगटन डी सी के पास स्थित नेशनल फ़ॉरन लैंगवेज सैंटर का हिस्सा बना। स्टार
टॉक के माध्यम से सरकार से प्राप्त आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है। ग्रीष्म
कालीन सत्र (मई से अगस्त) के दौरान उपर्युक्त भाषाओं में युवा-वर्ग के लिए 
आयोजित इन भाषा-कार्यक्रमों को भरपूर सहायता मुहय्या की जाती है। इन भाषा-
कार्यक्रमों में समाज के सभी वर्गों के युवाओं का स्वागत होता है परंतु कुछ भाषाओं 
में हेरिटेज शिक्षार्थियों की संख्या अधिक रहती है। स्टारटॉक के उच्च-स्तरीय 
प्रशासनिक अधिकारी स्वयं भाषा-शिक्षण क्षेत्र के शोध और विधियों में बड़े निष्णात हैं। 
वे अन्य अमरीकी विद्वानों के साथ मिलकर इन कार्यक्रमों की सफलता के लिए 
उपयुक्त मार्गदर्शन करते हैं। हिन्दी में भी ये कार्यक्रम वर्षानुवर्ष पनप रहे हैं। इनके बारे 
में कुछ आंकड़े इस लेख में आगे प्रस्तुत किए जाएँगे।
सामाजिक स्तर पर अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ अमेरिका के युवा-जगत के लिए हिन्दी 
भाषा और उससे संबंधित संस्कृति की कक्षाएँ चला रही हैं। इस संस्थाओं में विशेष 
उल्लेखनीय संस्थाएँ हैं – हिन्दी यू. एस. ए., बाल-विहार, यू एस हिन्दी एसोसिएशन, 
चिन्मय मिशन, बाल गोकुलम्, अंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति, विश्व हिन्दी न्यास, 
विद्यालय। इन संस्थाओं में बड़े निस्स्वार्थ भाव से और बड़ी लगन से काम करने 
वालों की कमी नहीं है। इसके अतिरिक्त 2009 में युवा हिन्दी संस्थान का निर्माण 
हुआ जिसके तत्वावधान में 2010 में एटलांटा (जार्जिया प्रदेश) और 2011 में न्यू-अर्क
 (डेलेवेयर प्रदेश) में युवाओं को हिन्दी भाषा और संस्कृति सिखाने के लिए विशाल 
शिविरों का आयोजन किया गया। ये शिविर दस-दस दिन तक चले। 2012 में इसी 
प्रकार के एक विशाल शिविर का आयोजन पेन्सिल्वेनिया में करने के लिए काम आरंभ 
हो चुका है। स्वयंसेवी संस्थाओं के अतिरिक्त कुछ सरकारी विद्यालयों में भी हिन्दी 
का औपचारिक शिक्षण शुरू हो चुका है। इस विषय में टेक्सस, न्यू जर्सी और न्यूयार्क 
प्रदेश के कुछ स्कूलों में हिन्दी औपचारिक रूप से पाठ्यक्रम में सम्मिलित की जा 
चुकी है। जहाँ तक विश्वविद्यालयों का संबंध है – अमेरिका के लगभग 100 महा
विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। लगभग 4 वर्ष पूर्व अमेरिका 
सरकार ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस (ऑस्टन नगर) को हिन्दी की शिक्षा को अमेरिका 
में बढ़ाने के लिए एक विशाल हिन्दी कार्यक्रम के लिए एक बहुत बड़ी राशि का अनुदान 
दिया। यह हिन्दी उर्दू फ़्लैगशिप नामक कार्यक्रम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अमेरिकन 
इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडियन स्टडीज़, जो लगभग 60 विश्वविद्यालयों की छत्र-संस्था है, 
विभिन्न भारतीय भाषाओं के लिए पिछले लगभग 50 वर्षों से अमरीकी विद्यार्थियों के 
लिए विशेष भाषा-कार्यक्रम भारत में चला रही है। इन कार्यक्रमों में हिन्दी का कार्यक्रम 
जो जयपुर में चलता है सबसे बड़ा है। वहाँ पूरे वर्ष भाषा-शिक्षण-विधियों के साथ 
आधुनिकतम तरीकों से उच्च-स्तरीय और प्रशिक्षित शिक्षकों की देख-रख में हिन्दी 
पढ़ाने की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त अमेरिका की सरकार ने पिछले दो वर्षों से दो 
और नए कार्यक्रमों की घोषणा की है जिनके अन्तर्गत कालेज और हाई स्कूल के 
विद्यार्थियों को हिन्दी पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति पर भारत भेजा जाता है। कुछ अमरीकी 
नागरिक अपने पैसे से भी हिन्दी पढ़ने के लिए भारत जाते हैं। इस प्रकार के 
विद्यार्थियों के लिए मसूरी में लैंगडोर का स्कूल एक प्रतिष्ठित केन्द्र है। इसी वर्ष 
यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्विनया में बिज़नेस की पढ़ाई के लिए जगत-विख्यात वार्टन 
स्कूल ने अपने एम.बी.ए. के उन विद्यार्थियों के लिए व्यवसायिक हिन्दी का एक 
विशेष पाठ्यक्रम शुरू किया हे जो भारत के बारे में विशेषज्ञता प्राप्त करना चाहते हैं। 
वार्टन स्कूल को देख कर अन्य बिज़नेस स्कूलों ने भी इस दिशा में सोचना आरंभ कर दिया है।
इन सब तथ्यों से हिन्दी के बारे में उभरती हुई रुचि अनेकानेक शैक्षिक केन्द्रों और 
सरकारी नीतियों में बड़े स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही है। भारत की अन्तःप्रांतीय 
राजभाषा के रूप में और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर संख्या की दृष्टि से दूसरे (और कुछ 
विद्वानों के अनुसार तीसरे) स्थान पर आसीन इस महत्वपूर्ण भाषा के लिए अमेरिका 
जैसे विकसित देश में इस प्रकार का विस्तार पाना बड़े गौरव की बात है। परंतु इस तथ्य
परक मानचित्र का एक दूसरा पक्ष है जो विचारणीय है। अमेरिका में हिन्दी इतना आगे 
नहीं बढ़ पा रही जितना दूसरी भाषाएँ इस सकारात्मक वातावरण का लाभ उठा रही हैं।   
वर्तमान अमरीकी संदर्भ में भारतीय भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन की स्थिति दुनिया 
की अन्य भाषाओं के सामने काफ़ी कमज़ोर नज़र आती है। हम यहाँ हिन्दी की तुलना 
चीनी, जापानी और अरबी से करेंगे। सबसे पहले देखते हैं कि चीनी और जापानी भाषाओं 
की तुलना में विश्वविद्यालय के स्तर पर हिन्दी की क्या स्थिति है। मॉडर्न लैंगवेज 
एसोसिएशन हर तीन से चार वर्ष में विश्वविद्यालय के स्तर पर विभिन्न भाषाओं को 
पढ़नेवाले छात्रों के आंकड़े एकत्र करती है। नीचे उपर्युक्त चार भाषाओं के आंकड़े दिए जा 
रहे हैं जिनसे तुलनात्मक स्थिति स्वयं स्पष्ट हो जाती है।

वर्ष 2002
वर्ष 2006
वर्ष 2009
हिन्दी
1857
2339
2846
चीनी
34227
51695
61178
जापानी
52257
66635
73456
अरबी
10584
23997
35393
भारत की सब भाषाओं की संख्या को भी इन आंकड़ों में जोड़ लें तो भी हम बहुत ऊँचाई 
तक नहीं पहुँच पाते। भारत की बारह और भाषाएँ जो अमेरिका के अलग अलग केन्द्रों 
में पढ़ाई जाती है उनके पढ़ने वालों की संख्या भी बहुत थोड़ी है। संस्कृत, पंजाबी, 
गुजराती, मराठी, बंगाली, तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम, वैदिक संस्कृत, पाली
 और उर्दू की कुल संख्या इस प्रकार है  -
वर्ष 2002
वर्ष 2006
वर्ष 2009
964
1309
1584
इन आंकड़ों में 72 से 75 प्रतिशत संस्कृत, पंजाबी और उर्दू के आंकड़े हैं। संस्कृत की 
पढ़ाई धर्म, इतिहास आदि के शोध के कारण से है, उर्दू की पढ़ाई राष्ट्रीय सुरक्षा कारणों 
से है और पंजाबी की पढ़ाई स्थानीय सिख समुदाय के आर्थिक समर्थन के कारण से आगे 
बढ़ रही है। बाकी भारतीय भाषाओं के छात्रों की संख्या बिल्कुल नगण्य है। कहीं दो हैं तो 
कहीं चार हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि अमरीकी विद्यार्थियों के लिए चीनी जापानी अरबी 
आदि अनेक भाषाओं की तुलना में भारत की भाषाएँ कम आकर्षक हैं।
आइए अब हम स्टारटॉक के आंकड़े देखें। स्टारटॉक में दो प्रकार के कार्यक्रम हैं – एक भाषा 
पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए और दूसरे भाषा-शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए।
छात्र-कार्यक्रमों की संख्या

वर्ष 2007
वर्ष 2008
वर्ष 2009
वर्ष 2010
वर्ष 2011
हिन्दी
-
4
11
12
14
चीनी
18
37
45
54
63
अरबी
8
19
26
20
24

जापानी भाषा स्टारटॉक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं है इसलिए उसके आंकड़े यहाँ  शामिल नहीं हें।
शिक्षक-प्रशिक्षण-कार्यक्रमों की संख्या

वर्ष 2007
वर्ष 2008
वर्ष 2009
वर्ष 2010
वर्ष 2011
हिन्दी
-
4
5
5
10
चीनी
17
27
33
44
49
अरबी
13
16
18
14
21
उपर्युक्त जानकारी कार्यक्रमों की कुल संख्या के बारे में थी। अब हम देखेंगे कि इन कार्यक्रमों में कितने कितने शिक्षार्थियों ने भाग लिया –
छात्र-कार्यक्रमों में भाग लेने वाले छात्रों की कुल संख्या

वर्ष 2007
वर्ष 2008
वर्ष 2009
वर्ष 2010
वर्ष 2011
हिन्दी
-
57
255
386
580
चीनी
681
2079
3143
4242
5737
अरबी
193
431
820
632
803
शिक्षक-प्रशिक्षण-कार्यक्रमों में भाग लेने वाले शिक्षार्थियों की कुल संख्या

वर्ष 2007
वर्ष 2008
वर्ष 2009
वर्ष 2010
वर्ष 2011
हिन्दी
-
35
48
60
47
चीनी
292
702
776
991
986
अरबी
156
293
317
263
323
कुल मिला कर अन्य भाषाएँ हिन्दी से कई गुणा आगे हैं। उच्च शिक्षा केन्द्रों में चीनी और 
जापानी भाषाओं को पढ़ने वाले छात्रों की बड़ी संख्या के दो बड़े रहस्य हैं – एक तो यह कि 
अमेरिका स्थित उनके प्रवासी समाजों में अपनी भाषा के प्रति बहुत उत्साह है और दूसरा 
बड़ा कारण है उन देशों की सरकारों का सुनियोजित ढंग से अपनी भाषाओं को आगे बढ़ाने 
के लिए बौद्धिक, भावनात्मक और आर्थिक समर्थन। चीन की सरकार के शिक्षा मंत्रालय 
से पोषित एक संस्था है जिसका अंग्रेज़ी नाम है ऑफ़िस ऑफ़ चाइनीज़ लैंगवेज इंटरनेशनल 
जो संक्षेप में हानबान के नाम से जानी जाती है। इस संस्था का मिशन स्टेटमेंट है चीनी भाषा 
और संस्कृति का अन्य देशों में प्रचार-प्रसार और इस प्रकार इसका काम है दूसरे देशों में 
चीनी भाषा की पढ़ाई का संवर्धन। । इसका बजट बहुत बड़ा है और इसके काम को आगे 
बढ़ाने के लिए दुनिया के अनेक देशों में स्थानीय संस्थाओं का जाल बिछा हुआ है। इस 
संस्थाओं में एक है कनफ़्यूशस इंस्टीट्यूट जो अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों के 
परिसर पर विद्यमान है। भाषा की दृष्टि से यह संस्था स्कूलों  और कालेजों को चीनी 
भाषा के पाठ्यक्रम, पाठ्य सामग्री का संग्रहण और प्रशिक्षित शिक्षकों की आपूर्ति में 
मदद करती है। इसके इलावा न्यूयार्क में एशिया इंस्टीट्यूट मे चीनी भाषा की पढ़ाई 
को आगे बढ़ाने के लिए एक विशेष विभाग है। इसी प्रकार अमेरिका में कॉलेज बोर्ड 
नाम की एक ग़ैर-सरकारी स्वयंसेवी संस्था है जो सामान्य से सब विद्यार्थियों को 
कॉलेज की पढ़ाई के लिए सहायता प्रदान करती है। यहां चीनी भाषा को अमेरिका 
के शिक्षा-क्षेत्र में फैलाने के लिए तीन विशिष्ट कार्यक्रमों का आयोजन होता है और 
ये कार्यक्रम हैं – कनफ़्यूशस और चाईनीज़ प्रोग्राम, गेस्ट टीचर प्रोग्राम और चाईनीज़ 
ब्रिज डेलिगेशन। इस कार्यक्रम के तहत सैंकड़ों शिक्षक चीन से हर साल अमेरिका लाए 
जाते हैं। ये कुछ बड़े बड़े उदाहरण हैं।
इसी प्रकार जापानी भाषा के संवर्धन के लिए भी संस्था-गत कार्यक्रमों का एक विस्तृत 
ब्यौरा पेश किया जा सकता है। इसकी सबसे बड़ी संस्था है द जापान फ़ाऊंडेशन। इसके 
अधीन द जैपनीज़ लैंगवेज इंस्टीट्यूट एक विस्तृत विश्व-व्यापी कार्यक्रम है। इसका 
बजट भी बहुत बड़ा है और जापानी संस्कृति और भाषा का शैक्षिक क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार 
इसका लक्ष्य है। अमेरिका में इसकी दो बड़ी शाखाएँ हैं – एक कैलीफ़ोर्निया प्रदेश के लॉस 
एंजलिस नगर में और दूसरी न्यू यार्क में। दोनों शाखाएँ विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों के 
अतिरिक्त जापानी भाषा-कार्यक्रमों के प्रसार और उनके सशक्तीकरण में विशिष्ट सहायता 
और योगदान प्रदान करती हैं। अब पिछले कई वर्षों से कोरिया भी इस दिशा में बड़ी तेज़ी 
से आगे बढ़ रहा है जिसके फलस्वरूप अमरीकन विश्वविद्यालयों में कोरियन भाषा की 
पढ़ाई बहुत प्रगति कर रही है (2009 में कोरियन भाषा पढ़ने वालों की संख्या 8511 थी)।
इस प्रकार के कार्यक्रम बहुत से दूसरे देश भी अपनी अपनी भाषाओं के प्रचार-प्रसार के निमित्त 
चलाते हैं जिनमें फ़्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन आदि उल्लेखनीय नाम हैं। इन देशों की एलियंस फ़्रांसे, 
गोइथे इंस्टीट्यूट, ब्रिटिश कौंसिल संस्थाएँ हैं जिनकी गतिविधियों में भाषा का महत्वपूर्ण विषय 
रहता है।
इन सब देशों की तुलना में भारत अपनी भाषा के प्रति उदासीन है। लड़खड़ाती अंग्रेज़ी के मोह 
ने भारतीय जन-मानस को जकड़ रखा है और यही कारण लगता है कि भारतीय भाषाओं का 
शिक्षण-प्रशिक्षण भारत में भी कमज़ोर है और दूसरे देशों में भी। भारत देश की आंतरिक प्रगति 
के लिए और विश्व-मंच पर भारत के सम्मान्य स्थान के लिए इसका निहितार्थ क्या है यह एक 
विचारणीय विषय हे।
इस लेख का समापन मैं एक व्यक्तिगत अनुभव से करूँगा। यह व्यक्तिगत अनुभव स्व-भाषा 
के प्रति भारतीय और चीनी सोच की स्थिति को एकदम स्पष्ट कर देगा। शायद दो साल पहले 
की बात है कि अमेरिका के एक सरकारी स्कूल ने स्टारटॉक के लिए दो आवेदन-पत्र एक साथ 
दिए थे – एक हिन्दी के लिए और एक चीनी के लिए। उनके आवेदन-पत्रों की प्रस्तुति बहुत 
प्रभावी रही होगी  जिसके कारण स्टारटॉक के राष्ट्रीय कड़े मुकाबले में इस स्कूल के दोनों 
आवेदन स्वीकृत हो गए। परिणाम पता लगने पर स्कूल के अधिकारियों के हर्ष का पारावार 
न रहा। स्कूल में बड़े उत्साह और बड़े उल्लास का वातावरण बनना शुरू हुआ । उन्होंने अपने 
उत्साह की अभिव्यक्ति के रूप में भारतीय कौंसलावास और चीनी कौंसलावास को एक एक पत्र 
भेजा जिसमें उन्होंने हिन्दी और चीनी के अपने नए ग्रीष्मकालीन कार्यक्रमों का यह सुखद 
समाचार उनके साथ बाँटा। चीनी दूतावास से कुछ दिनों में बधाई का जवाब आया और उस पत्र 
के साथ कौंसलाधीश ने दस हज़ार डालर का चैक भी भेज दिया और कहा कि चीनी भाषा के 
कार्यक्रम को और अच्छा बनाने के लिए कृपया आप इस धन का उपयोग करें­­­। स्कूल के 
अधिकारियों का उत्साह दुगना-चौगुना हो गया। वे भारतीय कौंसलावास से भी बधाई के उत्तर 
की प्रतीक्षा कर रहे थे लेकिन वहाँ से कोई उत्तर ही नहीं आया। जब यह घटना हमें बताई गई 
तो हम उनके सामने कुछ शर्मिंदा भी हुए और अपने मन ही मन में फूट फूट कर रोए भी। 
आभार: डॉ, कविता वाचक्नवी