गीत:
सागर में गिरकर...
सीमा अग्रवाल
*
सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है
अस्तित्व स्वयं का तज बोलो
किसने अब तक पाया है सुख
कर सुद्रढ़ सुकोमल स्वर्ण गात
निजता पर प्रमुख बना जाता
तज स्वत्व हेम हित ताम्र ज्योति बन हेम स्वयं मुसकाती है
लहरें बन ..........
खो कर भी निज सत्ता खुद का
अभिज्ञान सतत रखना संचित
माधुर्यहीन,हो क्यों नदीश में
सलिला सम रहना किंचित
तांबा सोने में मुस्काता ,तरणी क्षारित कहलाती हैं
लहरें बन व्याकुल ............
सागर में गिरकर...
सीमा अग्रवाल
*
सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है
अस्तित्व स्वयं का तज बोलो
किसने अब तक पाया है सुख
गिरवी स्वप्नों की रजनी का
चमकीला हो कैसे आमुख
खोती प्रभास दीपक की लौ, जब सविता में घुल जाती है
लहरें बन ..........
हो विलय ताम्र कंचन के संग
खो जाता कंचन हो जाता
चमकीला हो कैसे आमुख
खोती प्रभास दीपक की लौ, जब सविता में घुल जाती है
लहरें बन ..........
हो विलय ताम्र कंचन के संग
खो जाता कंचन हो जाता
कर सुद्रढ़ सुकोमल स्वर्ण गात
निजता पर प्रमुख बना जाता
तज स्वत्व हेम हित ताम्र ज्योति बन हेम स्वयं मुसकाती है
लहरें बन ..........
खो कर भी निज सत्ता खुद का
अभिज्ञान सतत रखना संचित
माधुर्यहीन,हो क्यों नदीश में
सलिला सम रहना किंचित
तांबा सोने में मुस्काता ,तरणी क्षारित कहलाती हैं
लहरें बन व्याकुल ............