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बुधवार, 24 सितंबर 2025

सितंबर २४, पूर्णिका, चीटी धप, बाल गीत, पञ्चचामर, कवित्त, छंद, मुक्तक, गीत, हिंदी गजल

सलिल सृजन सितंबर २४
*
हिंदी गजल 
देख उसको जी गए हम
विष अमिय कह पी गए हम
जान लेती अदा फिर भी 
होंठ अपने सी गए हम  
० 
केश लट चंचल-चपल है  
छाँह पाकर जी गए हम 
० 
खान है मुस्कान रस की
रास करने भी गए हम 
० 
'सलिल' वाणी मखमली मृदु 
श्रवण करते ही गए हम 
००० 
हिंदी गजल 
देख उसको अधर बोले लाजवाब
कल कली थी, आज है गुल-ए-गुलाब
हटा चिलमन देखती, मैं हूँ कहाँ
देख मुझको देखते डाले नकाब
बाँह फैला आसमां में भर उड़ान
दे चुनौती हार मानने हर उकाब
देख मस्तानी अदा दिल कह उठा
आइए! इस दर पे है स्वागत जनाब
 ०
छाँह ममता की मिली जिसको वही
जिंदगी कर बंदगी हो कामयाब
दिलवरों ने ले लिया दिल दे दिया
नज़र नज़राना हुई होकर हिजाब
धूप फैली रूप की हर सूँ 'सलिल'
रश्मि नाचे लहर में, पानी शराब
००० 
हिंदी ग़ज़ल
जान लेकर जान बोले जानदार
मान छीने या खरीदे मानदार
हो रहा बहरा खुदा सुन शोरगुल
कान फोड़े तान लेकर तानदार
पढ़ सुने कोई सराहे या नहीं
शायरी कर कहे शायर शानदार
आदमी को आदमी मुर्गा बना
कान खींचे जो नहीं क्या कानदार?
पीक पिचकारी चलाकर कर रहा
रंग हर बदरंग नादां पानदार
बड़े से खा लगाकर छोटे को लात
मूँछ ऐंठे जो वही है थानदार
'सलिल'अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बने
बेचता ईमान नित ईमानदार
०००
हिंदी ग़ज़ल
देख उसको अधर बोले लाजवाब
कल कली थी, आज है गुल-ए-गुलाब
हटा चिलमन देखती, मैं हूँ कहाँ
देख मुझको देखते डाले नकाब
बाँह फैला आसमां में भर उड़ान
दे चुनौती हार मानने हर उकाब
देख मस्तानी अदा दिल कह उठा
आइए! इस दर पे है स्वागत जनाब
 ०
छाँह ममता की मिली जिसको वही
जिंदगी कर बंदगी हो कामयाब
दिलवरों ने ले लिया दिल दे दिया
नज़र नज़राना हुई होकर हिजाब
धूप फैली रूप की हर सूँ 'सलिल'
रश्मि नाचे लहर में, पानी शराब
२४-९-२९१५   
***
पूर्णिका
हिंदी पढ़ो हिंदी लिखो हिंदी कहो
सत्य-शिव-सुंदर हमेशा ही तहो
खड़े रहना आपदा में सीख लो
देखकर तूफान भय से मत ढहो
मित्रता का अर्थ पहले जान लो
मित्र के गुण-दोष सम अपने सहो
अंजली में सुरभि सुमनों की लिए
नर्मदा बन नेह की कलकल बहो
शिष्टता-शालीनता गहने पहन
दृढ़ रखो संकल्प किंतु विनम्र हो
२४.९.२०२४
•••
पुरोवाक्
ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारतीय काव्याचार्यों ने काव्य को 'दोष रहित गुण सहित रचना' (मम्मट), 'रमणीय अर्थ प्रतिपादक' (जगन्नाथ), 'लोकोत्तर आनंददाता' (अंबिकादत्त व्यास), रसात्मक वाक्य (विश्वनाथ), सौंदर्ययुक्त रचना (भोज, अभिनव गुप्त), चारुत्वयुक्त (लोचन), अलंकार प्रधान (मेघा विरुद्र, भामह, रुद्रट), रीति प्रधान (वामन), ध्वनिप्रधान (आनंदवर्धन), औचित्यप्रधान (क्षेमेन्द्र), हेतुप्रधान (वाग्भट्ट), भावप्रधान (शारदातनय), रसमय आनंददायी वाक्य (शौद्धोदिनी), अर्थ-गुण-अलंकार सज्जित रसमय वाक्य (केशव मिश्र), आदि कहा है जबकि पश्चिमी विचारकों ने आनंद का सबल साधन (प्लेटो ), ज्ञानवर्धन में सहायक (अरस्तू), प्रबल अनुभूतियों का तात्कालिक बहाव (वर्ड्सवर्थ), सुस्पष्ट संगीत (ड्राइडन) माना है।
हिंदी कवियों में केशव ने केशव ने अलंकार, श्रीपति ने रस, चिंतामणि ने रस-अलंकार-अर्थ, देव ने रस-छंद- अलंकार, सूरति मिश्र ने मनरंजन व रीति, सोमनाथ ने गुण-पिंगल-अलंकार, ठाकुर ने विद्वानों को भाना, प्रतापसाहि ने व्यंग्य-ध्वनि-अलंकार, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने चित्तवृत्तियों का चित्रण, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ह्रदय मुक्तिसाधना हेतु शब्द विधान, महाकवि जयशंकर प्रसाद ने संकल्पनात्मक अनुभूति, महीयसी महादेवी वर्मा ने ह्रदय की भावनाएँ, सुमित्रानंदन पंत ने परिपूर्ण क्षणों की वाणी, केदारनाथ सिंह ने स्वाद को कंकरियों से बचाना, धूमिल ने शब्द-अदालत के कटघरे में खड़े निर्दोष आदमी का हलफनामा, अज्ञेय ने आदि से अंत तक शब्द कहकर कविता को परिभाषित किया है। वस्तुत: कविता कवि की अनुभूति को अभिव्यक्त कर पाठक तक पहुँचानेवाली रस व लय से युक्त ऐसी भावप्रधान रचना है जिसे सुन-पढ़ कर श्रोता-पाठक के मन में समान अनुभूति का संचार हो।
प्रस्तुत कृति लोकोपयोगी अर्थ प्रतिपादक, गुण-दोषयुक्त, मननीय, रोचक, भाव प्रधान काव्य रचना है।
काव्य हेतु
बाबू गुलाबराय के अनुसार 'काव्य हेतु' काव्य रचना में सहायक साधन हैं। भामह के अनुसार शब्द, छंद, अभिधान, इतिहास कथा, लोक कथा तथा युक्ति कला काव्य साधन हैं। डंडी ने प्रतिभा,ज्ञान व अभ्यास को काव्य हेतु कहा है। वामन, जगन्नाथ व् हेमचंद्र ने प्रतिभा को काव्य का बीज कहा है। रुद्रट के मत में शक्ति, व्युत्पत्ति व अभ्यास को काव्य हेतु हैं। आनंदवर्धन जन्मजात संस्कार रूपी प्रतिभा को काव्य हेतु कहते हैं। राजशेखर ने प्रतिभा के कारयित्री और भावयित्री दो प्रकार तथा ८ काव्य हेतु स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति, वृत्त कथा, निपुणता, स्मृति व अनुराग माने हैं। मम्मट शक्ति, लोकशास्त्र में निपुणता और अभ्यास को काव्य हेतु कहते हैं। कुंतक, महिम भट्ट और मम्मट प्रतिभा को काव्य हेतु मानते हुए उसे शक्ति, तृतीय नेत्र व काव्य बीज कहते हैं। डॉ. नगेंद्र प्रतिभा को काव्य का मूल, ईश्वर प्रदत्त शक्ति और काव्य बीज कहते हैं।
इस काव्य रचना का हेतु मानव हित, इतिहास कथा, मुक्त छंद, वृत्त कथा, मौलिक विश्लेषण तथा अभ्यास है।कवि हरविंदर सिंह गिल की कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा के अध्यवसाय का सुफल है यह कृति।
विषय चयन
सामान्यत: काव्य रचना में रस की उपस्थिति मानते हुए कोमलकांत पदावली तथा रोचक-रसयुक्त विषय चुने जाते हैं। पत्थर और दीवार 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। ऐसे नीरस विषय का चयन कर उस पर प्रबंध काव्य रचना अपेक्षाकृत दुष्कर कार्य है जिसे हरविंदर जी ने सहजता से पूर्ण किया है। पत्थर महाप्राण निराला का प्रिय पात्र रहा है।
प्रबंध काव्य तुलसीदास में देश दशा वर्णन हो या अहल्या प्रसंग, पाषाण के बिना कैसे पूर्ण होता-
१८
"हनती आँखों की ज्वाला चल,
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"
२०
"लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!
निराला की प्रसिद्ध रचना 'वह तोड़ती पत्थर' साक्षी है कि पत्थर भी मानव की व्यथा-कथा कह सकता है-
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर। .....
..... एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
मेरे काव्य संकलन 'मीत मेरे' में एक कविता है 'पाषाण पूजा' जिसमें पत्थर मानवीय संवेदनाओं का वाहक बनकर पाषाण ह्रदय मनुष्य के काम आता है-
ईश्वर!
पूजन तुम्हारा किया जग ने सुमन लेकर
किन्तु मैं पूजन करूँगा पत्थरों से
वही पत्थर जो कि नींवों में लगा है
सही जिसने अकथ पीड़ा, चोट अनगिन
जबकि वह कटा गया था।
मौन था यह सोचकर
दो जून रोटी पायेगा वह
कर परिश्रम काटता जो। ......
.....वही पत्थर ह्रदय जिसका
सुकोमल है बालकों सा
काम आया उस मनुज के
ह्रदय है पाषाण जिसका।
सुहैल अज़ीमाबादी का दिल दोस्तों द्वारा मारे गए पत्थर से घायल है-
पत्थर तो हजारों ने मारे हैं मुझे लेकिन
जो दिल पे लगा आकर एक दोस्त ने मारा है
आम तौर पथराई आँखें, पत्थर दिल, पत्थर पड़ना जैसी अभिव्यक्तियाँ पत्थर को कटघरे में ही खड़ा करती हैं किन्तु 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि'। 'पत्थर के सनम तुझे हमने मुहब्बत का खुदा जाना' कहनेवाले शायर के सगोत्री हरविंदर जी ने बर्लिन देश को दो भागों में विभाजित करनेवाली दीवार के टूटने पर गिरते पत्थर को मानवीय संवेदनाओं से जोड़ते हुए इस काव्य कृति की रचना की। कवि हरविंदर पंजाब से हैं, विस्मय यह है कि मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने 'जलियांवाला बाग़ के कुएँ का पत्थर' न चुनकर सुदूर बर्लिन की दीवार का पत्थर चुना, शायद इसलिए कि उबर्लिनवासियों ने निरंतर विरोधकर सत्तधीशों को उस दीवार को तोड़ने के लिए विवश कर दिया। इससे एक सीख भारत उपमहाद्वीप ने निवासियों को लेना चाहिए जो भारत-पाकिस्तान और भारत-बांगलादेश के बीच काँटों की बाड़ को अधिकाधिक मजबूत किया जाता देख मौन हैं, और उसे मिटाने की बात सोच भी नहीं पा रहे।
'कंकर-कंकर में शंकर' और 'कण-कण में भगवान' देखने की विरासत समेटे भारतीय मनीषा आध्यात्म ही नहीं सर जगदीश चंद्र बसु के विज्ञान सम्मत शोध कार्यों के माध्यम से भी जानती और मानती है कि जो जड़ दिखता है उसमें भी चेतना होती है। ढहती बर्लिन दीवार के ढहते हुए पत्थरों को कवि निर्जीव नहीं चेतन मानते हुए उनमें भविष्य की श्वास-प्रश्वास अनुभव करता है।
ये पत्थर
निर्जीव नहीं है,
अपितु हैं उनमें
मानवता के आनेवाले कल की साँसें।
'कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को' कहती हुई व्यवस्था के विरोध में खड़ी लैला, स्वेच्छा रूपी 'कैस' (मजनू) को पत्थर से बचाने की गुहार हमेशा करती आई है। कवि लैला को जनता, कैस को जनमत और पत्थर को हथियार मानता है -
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये जन्मदाता हैं आधुनिक हथियारों के।
आदिकाल से मानव
इन नुकीले पत्थरों से
शिकार करता था
मानव और जानवर दोनों का।
कवि पत्थर में भी दिल की धड़कनें सुना पाता है-
इनमें प्यार करनेवाले
दिलों की धड़कनें भी होती हैं।
यदि ऐसा न होता तो
ताजमहल इतना जीवंत न होता।
कठोर पत्थर ही दयानिधान, करुणावतार को मूर्तित कर प्रेरणा स्रोत बनता है-
ये प्रेरणा स्रोत भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो चौराहों पर लगी मूर्तियाँ
या स्तंभ और स्मारक
पूज्यनीय और आराधनीय न होते।
गुफा के रूप में आदि मानव के शरणस्थली बने पत्थर, मानव सभ्यता के सबल और सदाबहार सहायक रहे हैं-
इनमें छिपे हैं अनंत उपदेश जीवन के
वर्ण गुफाएँ जो पहाड़ों के गर्भ में
समेटे होती हैं अँधेरा अपने आप में
क्योंकर सार्थक कर देतीं तपस्या को
जो उन संतों ने की थीं।
मनुष्य भाषा, भूषा, लिंग, देश, जाति ही नहीं धरती, पानी और हवा को लेकर भी एक-दूसरे को मरता रहता है किन्तु पत्थर सौहार्द, सद्भाव और सहिष्णुता की मिसाल हैं। ये न तो एक दूसरे पर हमला न करते हैं, न एक दूसरे का शिकार करते हैं-
ये तो नाचते-गाते भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो दक्षिण के मंदिरों में बनी
ये पत्थरों की मूर्तियाँ
जीवंत भारत नाट्यम की
मुद्राएँ न होतीं
और आनेवाली पीढ़ियों के लिए
साधना का उत्तम
मंच बनकर न रह पातीं।
पत्थर सीढ़ी के रूप में मानव के उत्थान-पतन में उसका सहारा बनता है। शाला भवन की दीवार बनकर पत्थर ज्ञान का दीपक जलाता है , यही नहीं जब सगे-संबंधी भी साथ छोड़ देते तब भी पत्थर साथ निभाता है -
अंतिम समय में
न ही उसके भाई-बहन और
न ही जीवन साथी
उसका साथ देते हैं।
साथ देते हैं ये पत्थर
जो उसकी कब्र पर सजते हैं।
यहाँ उल्लेख्य है कि गोंडवाने की राजमाता दुर्गावती की शहादत के पश्चात उनकी समाधि पर श्रद्धांजलि के रूप में सफेद कंकर चढ़ाने की परंपरा है।
पत्थर ठोकर लगाकर मनुष्य को आँख खोलकर चलने की सीख और लड़खड़ाने पर सम्हलने का अवसर भी देते हैं।
यदि ऐसा न होता तो
मानव को ठोकर शब्द का
ज्ञान ही नहीं हो पाता
और ठोकर के अभाव में
कोई भी ज्ञान
अपने आप में कभी पूर्ण नहीं होता।
पत्थर अतीत की कहानी कहते हैं, कल को कल तक पहुँचाते हैं, कल से कल के बीच में संपर्क सेतु बनाते हैं-
ये इतिहास के अपनने हैं,
यदि ऐसा न होता तो
कैसे पता चल पाता
मोहनजोदड़ो और हङप्पा का।
पत्थर के बने पाँसों के कारण भारत में महाभारत हुआ-
ये चालें भी चलते हैं ,
यदि ऐसा न होता
चौरस के खेल
में इन पत्थरों से बानी गोटियाँ
दो परिवारों को
जिनमें खून का रिश्ता था
कुरुक्षेत्र में घसीट
न ले जाते और
न होता जन्म
महाभारत का।
द्वार में लगकर पत्थर स्वागत और बिदाई भी करते हैं -
इन पत्थरों से बने द्वार ही
करते हैं स्वागत आनेवाले का
और देते हैं विदाई दुःख भरे दिल से
हर कनेवाले मेहमान को
पर्वत बनकर पत्थर वन प्रांतर और बर्षा का आधार बनते हैं-
यदि पत्थरों से बानी
ये पर्वत की चोटियां
बहती हवाओं के रुख को
महसूस न कर पातीं
तो धरती बरसात के अभाव में
एक रेगिस्तान बनकर रह जाती।
विद्यालय में लगकर पत्थर भविष्य को गढ़ते भी हैं -
स्कूल के प्रांगण में
विचरते बच्चों के जीवन पर
इनकी गहरी निगाह होती है
और उनके एक-एक कदम को
एक गहराई से निहारते हैं
जैसे कोइ सतर्क व्यक्ति
कदमों की आहट से ही
आनेवाले कल को पढ़ लेता है।
पत्थर जीवन मूल्यों की शिक्षा भी देता है, मानव को चेताता है कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान होता है -
इतिहास में
खून की स्याही से
आज तक कभी कोई
अपने नाम को को
रौशन नहीं कर पाया
न कर पायेगा।
वह तो मानवता के लिए
बहाये पसीने से ही
स्याही को अक्षरों में
बदलता है।
यह कृति ४० कविताओं का संकलन है, जो बर्लिन को विभाजित करनेवाली ध्वस्त होती दीवार के पत्थर को केंद्र रखकर रची गयी हैं। इस तरह की दो कृतियाँ राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास निराला जी ने रची हैं जो श्री राम तथा संत तुलसीदास को केंद्र में रची गयी हैं।
सामान्यत: किसी मानव को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे जाते हैं किंतु कुछ कवियों ने नदी, पर्वत आदि को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे हैं। डॉ. अनंत राम मिश्र अनंत ने नर्मदा, गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, चम्बल, सिंधु आदि नदियों पर प्रबंध काव्य रचे हैं।कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने इसी पथ पर पग रखते हुए 'ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार' प्रबंध काव्य की रचना की है। जीवन भर देश की रक्षार्थ हाथों में हथियार थामनेवाले करों में सेवानिवृत्ति के पश्चात् कलम थामकर सामाजिक-पारिवारिक-मानवीय मूल्यों की मशाल जलाकर कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी मौलिक चिंतन वृत्ति आगामी कृतियों के प्रति उत्सुकता जगाती है। इस कृति को निश्चय ही विद्वज्जनों और सामान्य पाठकों से अच्छा प्रतिसाद मिलेगा यह विश्वास है।
२४-९-२०२०
संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.कॉम
==============
बाल गीत
*
आओ! खेलें चीटी धप
*
श्रीधर स्वाती जल्दी आओ
संग मंजरी को भी लाओ
मत घर बैठ बाद पछताओ
अंजू झटपट दौड़ लगाओ
तुम संतोष न घर रुक जाओ
अमरनाथ कर देंगे चुप
आओ! खेलें चीटी धप
*
भोर हुई आलोक सुहाया
कर विनोद फिर गीत सुनाया
राजकुमार पुलककर आया
रँग बसंत का सब पर छाया
शोर अनिल ने मचल मचाया
अरुण न भागे देखो छुप
आओ! खेलें चीटी धप
***
भावानुवाद
*
ओ मति-मेधा स्वामिनी, करने दो तव गान।
भाव वृष्टि कर दो बने, पंक्ति-पंक्ति रसवान।।
पंथ प्रकाशित कर सदा, दिखाती हो राह।
दोष हमारे मेटतीं, जिस पल लेतीं चाह।।
मिले प्रेरणा सभी को, लें सब बाधा जीत।
प्रीत तुम्हारी दिन करे, मिटा रात की भीत।।
लोभ मोह मत्सर मिटा, तुम करती हो मुक्त।
प्रगट मैया दर्श दो, नतमस्तक मैं भुक्त।।
***
छंद पञ्चचामर
विधान - जरजरजग
मापनी - १२१ २१२ १२१ २१२ १२१ २
*
कहो-कहो कहाँ चलीं, न रूठना कभी लली
न बोल बोल भूलना, कहा सही तुम्हीं बली
न मोहना दिखा अदा, न घूमना गली-गली
न दूर जा न पास आ, सुवास दे सदा कली
२४.९.२०१९
***
कवित्त
*
राम-राम, श्याम-श्याम भजें, तजें नहीं काम
ऐसे संतों-साधुओं के पास न फटकिए।
रूप-रंग-देह ही हो इष्ट जिन नारियों का
भूलो ऐसे नारियों को संग न मटकिए।।
प्राण से भी ज्यादा जिन्हें प्यारी धन-दौलत हो
ऐसे धन-लोलुपों के साथ न विचरिए।
जोड़-तोड़ अक्षरों की मात्र तुकबन्दी बिठा
भावों-छंदों-रसों हीन कविता न कीजिए।।
***
मान-सम्मान न हो जहाँ, वहाँ जाएँ नहीं
स्नेह-बन्धुत्व के ही नाते ख़ास मानिए।
सुख में भले हो दूर, दुःख में जो साथ रहे
ऐसे इंसान को ही मीत आप जानिए।।
धूप-छाँव-बरसात कहाँ कैसा मौसम हो?
दोष न किसी को भी दें, पहले अनुमानिए।
मुश्किलों से, संकटों से हारना नहीं है यदि
धीरज धरकर जीतने की जिद ठानिए।।
२४-९-२०१६
***
नवगीत
*
कर्म किसी का
क्लेश किसी को
क्यों होता है बोल?
ओ रे अवढरदानी!
अपनी न्याय व्यवस्था तोल।
*
क्या ऊपर भी
आँख मूँदकर
ही होता है न्याय?
काले कोट वहाँ भी
धन ले करा रहे अन्याय?
पेशी दर पेशी
बिकते हैं
बाखर, खेत, मकान?
क्या समर्थ की
मनमानी ही
हुआ न्याय-अभिप्राय?
बहुत ढाँक ली
अब तो थोड़ी
बतला भी दे पोल
*
कथा-प्रसाद-चढ़ोत्री
है क्या
तेरा यही रिवाज़?
जो बेबस को
मारे-कुचले
उसके ही सर ताज?
जनप्रतिनिधि
रौंदें जनमत को
हावी धन्ना सेठ-
श्रम-तकनीक
और उत्पादक
शोषित-भूखे आज
मनरंजन-
तनरंजन पाता
सबसे ऊँचे मोल।
***
मुक्तक
'नहीं चाहिए' कह देने से कब मिटता परिणाम?
कर्म किया जिसने वह निश्चय भोगेगा अंजाम
यथा समय फल जीव भोगता, अन्य न पाते देख
जाने-माने समय गर्त में खोते ज्यों गुमनाम
*
तन धोखा है, मन धोखा है, जीवन धोखा है
श्वास, आस, विश्वास, रास, परिहास न चोखा है
धोखे के कीचड़ में हमको कमल खिलाना है
सब को क्षमा कर सकें जो वह व्यक्ति अनोखा है
*
कान्हा कहता 'करनी का फल सबको मिलता है'
माली नोचे कली-फूल तो, आप न फलता है
सिर घमण्ड का नीचा होता सभी जानते हैं -
छल-फरेब कर व्यक्ति स्वयं ही खुद को छलता है .
*
श्रेष्ठ न खुद को कभी कहा है, मान लिया हूँ नीच
फेंक दूर कर, कभी नहीं आने दें अपने बीच
नफरत पाल किसी से, खुद को नित आहत करना
ऐसा जैसे स्नान-ध्यान कर फिर मल लेना कीच
*
कौन जगत में जिसने केवल अच्छा कार्य किया?
कौन यहाँ है जिसने केवल विष या अमिय पिया?
धूप-छाँव दोनों ही जीवन में भरते हैं रंग
सिर्फ एक हो तो दुनिया में कैसे लगे जिया?
***
नवगीत
*
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
चलो बैठ पल दो पल कर लें
मीत! प्रीत की बात।
*
गौरैयों ने खोल लिए पर
नापें गगन विशाल।
बिजली गिरी बाज पर
उसका जीना हुआ मुहाल।
हमलावर हो लगा रहा है
लुक-छिपकर नित घात
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
आ बुहार लें मन की बाखर
कहें न ऊँचे मोल।
तनिक झाँक लें अंतर्मन में
निज करनी लें तोल।
दोष दूसरों के मत देखें
खुद उजले हों तात!
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
स्वेद-'सलिल' में करें स्नान नित
पूजें श्रम का दैव।
निर्माणों से ध्वंसों को दें
मिलकर मात सदैव।
भूखे को दें पहले,फिर हम
खाएं रोटी-भात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
साक्षी समय न हमने मानी
आतंकों से हार।
जैसे को तैसा लौटाएँ
सरहद पर इस बार।
नहीं बात कर बात मानता
जो खाये वह लात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
लोकतंत्र में लोभतंत्र क्यों
खुद से करें सवाल?
कोशिश कर उत्तर भी खोजें
दें न हँसी में टाल।
रात रहे कितनी भी काली
उसके बाद प्रभात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
२४-९-२०१६
***
नवगीत २
इसरो को शाबाशी
किया अनूठा काम
'पैर जमाकर
भू पर
नभ ले लूँ हाथों में'
कहा कभी
न्यूटन ने
सत्य किया
इसरो ने
पैर रखे
धरती पर
नभ छूते अरमान
एक छलाँग लगाई
मंगल पर
है यान
पवनपुत्र के वारिस
काम करें निष्काम
अभियंता-वैज्ञानिक
जाति-पंथ
हैं भिन्न
लेकिन कोई
किसी से
कभी न
होता खिन्न
कर्म-पुजारी
सच्चे
नर हों या हों नारी
समिधा
लगन-समर्पण
देश हुआ आभारी
गहें प्रेरणा हम सब
करें विश्व में नाम
***
नवगीत:
*
पानी-पानी
हुए बादल
आदमी की
आँख में
पानी नहीं बाकी
बुआ-दादी
हुईं मैख़ाना
कभी साकी
देखकर
दुर्दशा मनु की
पलट गयी
सहसा छागल
कटे जंगल
लुटे पर्वत
पटे सरवर
तोड़ पत्थर
खोद रेती
दनु हुआ नर
त्रस्त पंछी
देख सिसका
कराहा मादल
जुगाड़े धन
भवन, धरती
रत्न, सत्ता और
खाली हाथ
आखिर में
मरा मनुज पागल
२४-९-२०१४
***
द्विपदी
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
२४-९-२०१०

***

सोमवार, 22 सितंबर 2025

पुरोवाक्, हिंदी गजल, अर्जुन चव्हाण

पुरोवाक्
''सामयिक वैचारिकी का फेस्ट है''- आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है
आचार्य इं. संजीव वर्मा 'सलिल'
*


            गजल विश्व के साहित्य जगत को भारत भूमि का अनुपम उपहार है। लोक साहित्य में सम तुकांती अथवा समान पदभार की दोपदियों में कथ्य कहने की परिपाटी आदिकाल से रही है। घाघ, भड्डरी जैसे लोक कवियों की कहावतों में समान अथवा भिन्न पदभार तथा समतुकांती एवं विषम तुकांती रचनाएँ सहज प्राप्त हैं।
सम तुकांत, समान पदभार-
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाय।। 
विषम तुकांत, समान पदभार-
सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात।
बरसै तो झूरा परै, नाहीं समौ सुकाल।।   
सम पदांत, असमान पदभार-
गेहूं गाहा, धान विदाहा।
ऊख गोड़ाई से है आहा।।
ग़ज़ल का जन्म 
            काल क्रम में संस्कृत साहित्य में इस शैली में श्लोक रचे गए। संस्कृत से छंद शास्त्र फारसी भाषा ने ग्रहण किया। द्विपदियों को फारसी में शे'र (बहुवचन अश'आर) कहा गया। फारसी में एक द्विपदी के बाद समान पदांत और समान पदभार की पंक्तियों को संयोजन कर रचना को 'ग़ज़ल' नाम दिया गया। भारत में कविता का उद्गम एक क्रौंच युगल के नर का व्याध के शर से मरण होने पर क्रौंची के करुण विलाप को सुनकर महर्षि वाल्मीक के मुख से नि:सृत पंक्तियों से माना जाता है। फारस में इसकी नकल कर शिकारी के तीर से हिरनी के शावक का वध होने पर हिरनी द्वारा किए विलाप को सुनकर निकली काव्य पंक्तियों से ग़ज़ल की उत्पत्ति मानी गई। संस्कृत काव्य में द्विपदिक श्लोकों की रचना आदि काल से की जाती रही है। ​संस्कृत की श्लोक रचना में समान तथा असमान पदांत-तुकांत दोनों का प्रयोग किया गया। भारत से ईरान होते हुए पाश्चात्य देशों तक शब्दों, भाषा और काव्य की यात्रा असंदिग्ध है। १० वीं सदी में ईरान के फारस प्रान्त में सम पदांती श्लोकों की लय को आधार बनाकर कुछ छंदों के लय खण्डों का फ़ारसीकरण नेत्रांध कवि रौदकी ने किया। इन लय खण्डों के समतुकांती दुहराव से काव्य रचना सरल हो गयी। इन लयखण्डों को रुक्न (बहुवचन अरकान) तथा उनके संयोजन से बने छंदों को 'बह्र' कहा गया। फारस में सामंती काल में '​तश्बीब' (​बादशाहों के मनोरंजन हेतु ​संक्षिप्त प्रेम गीत), 'कसीदे' (रूप/रूपसी ​या बादशाहों की ​की प्रशंसा) तथा ​'गजाला चश्म​'​ (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप ​के रूप में ​ग़ज़ल लोकप्रिय हुई​। भारत में द्विपदियों में पदभार के अंतर पर आधारित अनेक छंद (दोहा, चौपाई, सोरठा, रोला, आल्हा आदि) रचे गए। फारसी में छंदों की लय का अनुकरण और फारसीकरण कर बह्रें बनाई गईं। कहते हैं इतिहास स्वयं को दुहराता है, साहित्य में भी यही हुआ। भारत से द्विपदियाँ ग्रहण कर फारस ने ग़ज़ल के रूप में भारत को लौटाई। फारसी और पश्चिमी सीमांत प्रदेशों की भाषाओं के सम्मिश्रण से क्रमश: लश्करी, रेख्ता, दहलवी, हिंदवी और उर्दू का विकास हुआ। खुसरो, कबीर जैसे रचनाकारों ने हिंदी ग़ज़ल को जन्म दिया। फारसी में 'गजाला चश्म' (मृगनयनी) के रूप की प्रशंसा और आशिको-माशूक की गुफ्तगू तक सीमित रही ग़ज़ल को हिंदी ने वतन परस्ती, इंसानियत और युगीन विसंगतियों की अभिव्यक्ति के जेवरों से नवाजा। फलत: महलों में कैद रही ग़ज़ल आजाद हवा में साँस ले सकी। उर्दू ग़ज़ल का दम बह्रों की बंदिशों में घुटते देखकर उसे 'कोल्हू का बैल' (आफताब हुसैन अली) और  'तंग गली' (ग़ालिब) के विशेषण दिए गए थे। हिंदी ने ग़ज़ल को आकाश में उड़ान भरने के लिए पंख दिए। 
हिंदी ग़ज़ल
            हिंदी ग़ज़ल को आरंभ में 'बेबह्री' होने का आरोप झेलना पड़ा। खुद को 'दां' समझ रहे उस्तादों ने दुष्यंत कुमार आदि की ग़ज़ल के तेवर को न पहचानते हुए खारिज करने की गुस्ताखी की किंतु वे नादां साबित हुए। वक्त ने गवाही दी कि हिंदी ग़ज़ल फारसी और उर्दू की जमीन से अलग अपनी पहचान आप बन और बना रही थी। हिंदी ग़ज़ल ने मांसल इश्क की जगह आध्यात्मिक प्रेम को दी, नाजनीनों से गुफ्तगू करने की जगह आम आदमी की बात की, 'बह्र' की बाँह में बंद होने की जगह छन्दाकाश् में उड़ान भरी, काफ़ियों में कैद होने की जगह तुकांत और पदांत योजना में नई छूट ली, नए मानक गढ़े हैं। हिंदी ग़ज़ल की मेरी परिभाषा देखिए- 

ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
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मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
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धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
मुक्तिका है, तेवरी है, गीतिका है, सजल भी
पूर्णिका अनुभूति से संवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।

            हिंदी ग़ज़ल में अनेक प्रयोग किए गए हैं। यह दीवान ''आप सब दोस्तों से यह रिक्वेस्ट है' हिंदी के प्रामाणिक विद्वान शायर प्रो. अर्जुन चव्हाण लिखित १०५ प्रयोगधर्मी ग़ज़लों का महकता हुआ गुलदस्ता है। 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-बयां और' की तरह अर्जुन जी का भी अपना बात कहने के तरीका और सलीका है। वे शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। 'या हंसा मोती कहने या भूख मार जाय' अर्जुन जी चुनने की स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं करते। वे हिंदी, संस्कृत, मराठी, फारसी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहण करने में संकोच नहीं करते। अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें जो शब्द उपयुक्त लगता है, चुन लेते हैं। उनके लिए तत्सम और तद्भव शब्द संपदा सारस्वत निधि है। हिंदी के प्राध्यापक होते हुए भी वे 'भाषिक शुद्धता' के संकीर्ण आग्रह से मुक्त हैं। इसलिए अर्जुन जी की ग़ज़लें आम आदमी की भाषा में आम आदमी से संवाद कर पाती हैं। 

            कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की सामर्थ्य अर्जुन जी के शायर में है। ''ऐसे ही नहीं, अच्छे लोगों की भीड़ चाहिए;  बेरुके खिलाफ खड़े होने को रीढ़ चाहिए'' कहकर वे निष्क्रिय बातूनी आदर्शवादियों को आईना दिखाते हैं। समाज में महापुरुषों का गुणगान करने या उन्हें प्रणाम करने की प्रथा है किंतु उनका अनुकरण करने की प्रवृत्ति बहुत कम है। महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा को समर्पित रचना में अर्जुन जी लिखते हैं- ''वंदन स्मरण नहीं,अनुगमन भी हो 'अर्जुन जी' समाज और देश सेवा की जान बिरसा मुंडा।'' न्याय व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार करने में अर्जुन जी तनिक भी संकोच नहीं करते- 

भेड़ियों और बकरियों का खेल है; 
टॉस में मगर दोनों ओर टेल है।। 
लोमड़ी की अदालत भेड़िया बरी 
      मेमनों को फांसी, ताउम्र जेल है।।    

            सामाजिक विसंगतियों को इंगित करते हुए अर्जुन जी हँस पर कौए को वरीयता देने की प्रवृत्ति को संकेतित कर प्रश्न करते हैं कि पितृ पक्ष में दशमी के दिन हँस पर कौए को वरीयता क्यों दी जाति है? सवाल है कि अगर कौए को वरीयता देने का कोई कारण है तो उसे हर दिन वरीयता दें, सिर्फ एक दिन क्यों? - 

पिंड छूने के वक्त, दसवें के दिन  में उनको 
हंस से बढ़कर अहम वो काग ही क्यों लगे? 

            समाज में तन को सँवारने और मन की अनदेखी करने की कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुए अर्जुन जी व्यंग्य करते हैं- 

लोग अक्सर तन का करवा लेते हैं 
भूल जाते हैं मन के भी मसाज हैं  

            भारतीय संस्कृति अपने मानवतावादी मूल्यों 'वसुधैव कुटुंबकम्' और 'विश्वैक नीड़म्' के लिए सनातन काल से जानी जाती है। शायर अर्जुन नफरत को बेमानी बताते हुए मानवता की कजबूती की कामना करते हैं- 

दोस्ती के पुल मजबतू सारे चाहिए
दुश्मनी की ध्वस्त सब दीवारें चाहिए

क्या रखा है नफ़रत की ज़िंदगानी में
मानवता की मजबूती के नारे चाहिए 

            समाज में बढ़ती जा रही मानसिक बीमारियों का कारण तनाव को बताते हुए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि  अपने मन में बच्चे को जिंदा  रखा जाए। अर्जुन जी समस्या और समाधान दोनों को यूं बयान करते हैं- 

जिंदगी में जिंदा अपने अंदर का बच्चा रख  
सब पकाना न समझदारी, कुछ कच्चा रख 
औरों पे उंगली उठाने से कोई सुधरेगा नहीं 
अपने मन का मिजाज  सदा से सच्चा रख 

            लोकतंत्र में हर नागरिक को पहरुआ बनकर गुहार लगाना चाहिए 'जागते रहो', तबही शासन-प्रशासन और न्याय व्यवस्था जागेगी अन्यथा लोकतंत्र का दामन दागदार हो जाएगा। 
 
दान करने, बेच देने का सवाल नहीं 
मताधिकार को गर सयाना वोटर है! 

            अर्जुन जी ज़िंदगी के हर पहलू को जाँचते-परखते हैं और तब विसंगतियों को सुसंगतियों में बदलने के लिए गजल लिखते हैं। गत ७ दशक के हिंदी साहित्य में व्याप्त नकारात्मक ऊर्जा ने समाज में नफरत, अविश्वास, द्वेष, टकराव, बिखराव का अतिरेकी शब्दांकन कर मनुष्य, परिवार, देश और समाज को हानि पहुँचाई है। यही कारण है कि समाज आज भी साहित्य के नाम पर संदेशवाही सकारात्मक रचनाओं को पढ़ता है। सं सामयिक साहित्य के पाठक नगण्य हैं। उपन्यास, कहानी, व्यंग्य लेख, नवगीत, लघुकथा आदि विधाओं में यथार्थवाद के नाम पर विद्रूपताओं को स्थान दिया जा रहा है। अर्जुन जी उद्देश्यपूर्ण, संदेशवाही सकारात्मक साहित्य का सृजनकर कबीर की तरह आईना दिखने के साथ-साथ राह भी दिखा रहे हैं। उनकी लिखी गज़लें इसकी साक्षी हैं। 

  छोड़ देती है आत्मा हमेशा साथ तब 
जिंदगी में जब कभी तनादेश होता है!
० 
किसी से माफी माँग, किसी को माफ़ कर; 
खुशनुमा जिंदगी की कुंजी रखें ढाँक कर! 
घर-आँगन रोज-ब-रोज करते रहते हो 
कभी मन का आँगन भी सारा साफ़ कर!
०  
है ढील या पाबंदी का नतीजा,पर सच है 
बच्चा जहाँ नहीं जाना, वहीं पर जाता है!
० 
साजिश क्यों, कोशिश चाहिए अर्जुन जी 
कामयाबी से वो,जो बेशक मिलाती है!
० 
किसी वृद्धाश्रम की जरूरत नहीं होगी, 
यदि अपने माँ-बाप खुशहाल भाई-भैन चाहते हैं!
० 
सितारा होटल के खाने से बढ़िया 
ठेलेवाले के छोले-भटूरे होते हैं! 
० 
फिर भी नदियाँ साथ में रहती ही हैं 
भले सारे के सारे जो खारे सागर हैं!
० 
दिल में जीत की जबरदस्त चाह चाहिए; 
जद्दोजहद में भी जीने की राह चाहिए!
एक सच याद रखना, सूरज हो या चाँद 
जिस दिन चढ़ता, उसी दिन ढलता है! 
० 
उंगली पकड़ के रखने से काम नहीं होगा 
बच्चे को खुद-ब-खुद चलने दिया जाए!
० 
आप ताउम्र घूमते रहते हैं दुनिया भर में 
नौकर को तनिक तो टहलने दिया जाए!
० 
सिर्फ राजधानी या ख़ास राजमहल की नहीं 
गुलशन की हर डाली फलनी-फूलनी चाहिए!
० 
बड़ों की दुनिया  कुछ और है 'अर्जुन जी' मगर
कौन है,जो फिदा न बच्चों की किलकारी पर!

            'आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है' हिंदी गजल संग्रह की हर गजल गजलकार की ईमानदार सोच, बेलाग साफ़गोई, सबकी भलाई की चाह और निडर अभिव्यक्ति की राह पर कलम को हल की तरह इस्तेमाल कर 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' के सद्भावपरक विचारों और आचारों की फसल उगाने की मनोकामना का प्रमाण है। अपने बात वहीं खत्म करूँ जहाँ से शुरू की थी-

सामयिक वैचारिकी का फेस्ट है
'आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है'
.
 दोस्तों की दोस्ती ही बेस्ट है
डिश अनोखी है अनोखा टेस्ट है
.
फ्लैट-बंगलों की इसे जरुरत नहीं
रहे दिल में हार्ट इसका नेस्ट है
.
एनिमी से लड़े अर्जुन की तरह
वज्र सा स्ट्रांग सचमुच चेस्ट है
.
टूट मन पाए नहीं संकट में भी
दोस्ती दिल जोड़ने का पेस्ट है
.
प्रोग्रेस इन्वेंशन हिलमिल करे
दोस्ती ही टैक्निक लेटेस्ट है
.
जिंदगी की बंदगी है दोस्ती
गॉड गिफ्टेड 'सलिल' यह ही फेस्ट है
.
जीव को 'संजीव' करती दोस्ती
कोशिशों का, परिश्रम का क्रेस्ट है
००० 
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष- ९४२५१८३२४४

बुधवार, 15 जनवरी 2025

रातरानी, हिंदी गजल, मुक्तिका

हिंदी गजल  

मन लुभाए रातरानी आह भर। 
छिप बुलाए रात रानी बाम पर।। 
खत पठाए इशारों में बात कर। 
रुख छिपाए चिलमनों से झाँककर।। 
कहीं जाए तो पलट देखे इधर 
यों जताए देखती है वो उधर।। 
खिलखिलाए लूट मन का चैन ले। 
तिलमिलाए दाँत से लब काटकर।। 
जो न पाए तो बुलावा भेज दे। 
सो न जाए रातरानी जागकर।। 
हाथ आए या न आए क्या पता? 
साथ आए बेखबर हो बाखबर॥ 
आ लुभाए लाल हो  गुलनार सी 
रू-ब-रू हों ख्वाब औ' सच बाँह भर।। 
पूर्णिमा में पूर्णिका 'संजीव' की  
गुनगुनाए झुका नजरें रात भर।।
१५.१.२०२५ 
०००  

सोमवार, 8 अप्रैल 2024

अप्रैल ८, हास्य, दोहा, नवगीत, सुमन श्री, अम्मी, हिंदी गजल,

सलिल सृजन ८ अप्रैल 

मुक्तक
जो हमारा है उसी की चाहकर।
जो न अपना तनिक मत परवाह कर।।
जो मिला उसको सहेजो उम्र भर-
गैर की खातिर न नाहक आह भर।।
***
पत्रिका सलिला
साहित्य संस्कार - पठनीय महिला कथाकार अंक
संस्कारधानी जबलपुर से प्रकाशित त्रैमासिकी साहित्य संस्कार का जनवरी-मार्च अंक 'महिला कथाकार अंक' के रूप में प्रकाशित हुआ है। ५६ पृष्ठीय पत्रिका में ४ लेख, ८ महानियाँ, २ संस्मरण, ७ लघुकथाएँ, ४ कवितायें, १ व्यंग्य लेख, २ समीक्षाएँ तथा २ संपादकीय समाहित हैं। प्रधान संपादक श्री शरद अग्रवाल 'आत्म निर्भर भारत' शीर्षक संपादकीय में भारत को किस्से-कहानियों का देश कहते हुए अपनी जड़ों से जुड़ने को अपरिहार्य बताते हैं। वे हिंदी की प्रथम महिला कहानीकार जबलपुर निवासी उषा देवी मित्रा जी तथा विद्रोहिणी सुभद्रा कुमारी चौहान जी को स्मरण करते हुए भारत के विकास का जिक्र करते हैं। 'कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं' शीर्षक संपादकीय में अभियंता सुरेंद्र पवार आंग्ल भाषा चालित संस्था इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा प्रकाशित वार्षिकांक 'अभियंता बंधु' के दक्षिण भारत में हुए विमोचन की चर्चा कर जान सामान्य से जीवंत संपर्क का उल्लेख करते हैं।
हिंदी कहानी के विकास पर डॉ. अनिल कुमार का आलेख पठनीय है। शशि खरे जी 'नई कहानी और महिला कथाकार' में जरूरी प्रश्न पूछती हैं- 'क्या महिला कहानीकार की कहानियाँ कहानी जगत में अलग परिचय रखती हैं अथवा कहानी, कहानी है पुरुष या स्त्री लेखक किसी ने भी लिखी हो?' सबका हित साधनेवाले साहित्य का मूल्याङ्कन उसकी गुणवत्ता के आधार पर हो या रचनाकार के लिंग, जाति, धर्म, व्यवसाय आधी के आधार पर? शशि जी ने सवाल पाठकों के चिंतन हेतु उठाया किन्तु इस पर विमर्श नहीं किया। एक लेख में सभी महिला कथाकारों पर चर्चा संभव नहीं हो सकती। शशि जी ने तीन पीढ़ियों की ३ महिला कथाकारों नासिरा शर्मा, नमिता सिंह तथा अमिता श्रीवास्तव की कहानी कला पर प्रकाश डाला है। 'कालजयी कहानीकार उषादेवी मित्रा' शीर्षक लेख में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने उषा देवी जी के जीवन की विषम परिस्थतियों, कठिन संघर्ष, कर्मठता, सृजनशीलता, कृतियों तथा सम्मान आदि पर संक्षिप्त पर सामान्यत: अनुपलब्ध सारगर्भित जानकारी दी है। अपने साहित्य को अपनी ही चिता पर जला दिए जाने की अंतिम अभिलाषा व्यक्त करनेवाली उषा देवी के कार्य पर हिंदीभाषी अंचल के हिंदी प्राध्यापकों ने अब तक शोध न कराकर अक्षम्य कृतघ्नता का परिचय दिया है जबकि दक्षिण भारत में सेंट थॉमस कॉलेज पाला की छात्रा प्रीति आर. ने वर्ष २०१४ में ;उषा देवी मित्रा के साहित्य में नारी जीवन के बदलते स्वरूप' विषय पर शोध किया है। उपेक्षा की हद तो यह कि उषा देवी जी का एक चित्र तक उपलब्ध नहीं है। 'मालवा की मीरा - मालती जोशी' शीर्षक लेखा में प्रतिमा अखिलेश ने गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया है।
अंक की कहानियों में जया जादवानी की कहानी 'हमसफर' परिणय सूत्र में बँधने जा रहे स्त्री-पुरुष के वार्तालाप में जिआवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं। दोनों के अतीत के विविध पहलुओं की चर्चा में अंग्रेजी भाषा का अत्यधिक प्रयोग और विस्तार खटकता है। अर्चना मलैया की छोटी कहानी 'चीख' मर्मस्पर्शी है। अंक की सर्वाधिक प्रभावी कहानी 'वृद्धाश्रम' में सरस दरबारी ने पद के मद में डूबे सेवानिवृत्त उच्चधिकारी के अहंकार के कारण हुए पारिवारिक विघटन के सटीक चित्रण किया है। अनीता श्रीवास्तव की कहानी 'कवि सम्मेलन' साहित्यिक मंचों पर छाए बाजारूपन पर प्रहार करती है। गीता भट्टाचार्य लिखित 'नारी तेरे रूप अनेक' में कहानी और संस्मरण का मिश्रण है। पुष्पा चिले की कहने 'मुक्ति' में प्रेम की पवित्रता स्थापित की गई है। 'लिव इन' में टुकड़े-टुकड़े होती श्रद्धा के इस दौर में ऐसी कहानी किशोरों और युवाओं को राह दिखा सकती है। उभरती कहानीकार वैष्णवी मोहन पुराणिक का कहानी 'प्यार का अहसास' देहातीत प्रेम की सात्विकता प्रतिपादित करती है।
मालती जोशी तथा लता तेजेश्वर 'रेणुका' लिखित संस्मरण सरस हैं।डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव के कहानी संग्रह 'जिजीविषा' की डॉ. साधना वर्मा द्वारा प्रस्तुत समीक्षा में नीर-क्षीर विवेचन किया गया है। डॉ. सरोज गुप्ता द्वारा लिखित 'कि याद जो करें सभी' पुस्तक पर समीक्षा संतुलित तथा पठनीय है।
गीतिका श्रीवास्तव के व्यंग्य लेख 'रोम जलता रहा, नीरो बाँसुरी बजाता रहा' में अभियांत्रिकी शिक्षा और अभियंताओं की दुर्दशा उद्घाटित की गई है। डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव की तीन लघुकथाएँ 'गारंटी', 'प्रतिशोध' तथा 'मरकर भी' विधा तथा अंक की श्रीवृद्धि करती हैं। लघुकथांतर्गत छाया सक्सेना की 'बरसों बाद', श्रद्धा निगम की 'ये हुई न बात' तथा मीना पंवार की 'बेटे की शादी में जरूर आऊँगी' अच्छे प्रयास हैं। कविता कानन के कुसुम गुच्छ में सुवदनी देवी रचित 'उपकार', अंकुर सिंह रचित 'माँ मुझे जन्म लेने दो', आरती रचित 'आतंकवाद' तथा गरिमा सिंह रचित 'निश्छल प्रेम' नवांकुरित प्रयास हैं।
सारत: साहित्य संस्कार का सोलहवाँ अंक इसके कैशोर्य प्रवेश पर्व का निनाद कर रहा है। आगामी अंक इसे तरुणाई की ओर ले जाएँगे। शहीद भगत सिंह के देश के किशोर को क्रांतिधर्मा होना चाहिए। मेरा सुझाव है कि महिला कथाकारअंक के पश्चात् आगामी अंक 'पुरुष विमर्श विशेषांक' के रूप में प्रकाशित किया जाए जिसमें स्त्री विमर्श के रूप में हो रहे इकतरफा आंदोलनों के दुष्प्रभावों, पुरुष के अवदान, विवशता, त्याग, समर्पण आदि पर केंद्रित रचनाओं का प्रकाशन हो। पत्रिका के स्थायित्व के लिए आगामी कुछ अंकों के विषय निर्धारण करसम्यक-प्रामाणिक सामग्री जुटाई जा सकती है। बुंदेला विद्रोह १८४२, स्वातंत्र्य समर १८५७ में बुंदेलखंड का योगदान, बुंदेली साहित्य कल और आज, महकौशल में पर्यटन, विकास कार्य, तकनीकी शिक्षण, साहित्य, कला, उद्योग आदि पर क्रमश: विशेषांक हों तो वे संग्रहणीय होंगे। प्रकाशक और संपादक मंडल साधुवाद का पर्याय है।
८-४-२०२३
***
दोहा सलिला
*
शुभ प्रभात होता नहीं, बिन आभा है सत्य
आ भा ऊषा से कहे, पुलकित वसुधा नित्य
*
मार्निंग गुड होगी तभी, जब पहनेंगे मास्क
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, मीत सरल है टास्क
*
भाप लाभदायक बहुत, लें दिन में दो बार
पीकर पानी कुनकुना, हों निरोग हर वार
*
कोल्ड ड्रिंक से कीजिए, बाय बाय कर दूर
आइसक्रीम न टेस्ट कर, रहिए स्वस्थ्य हुजूर
*
नीबू रस दो बूँद लें, आप नाक में डाल
करें गरारे दूर हो, कोरोना बेहाल
*
जिंजर गार्लिक टरमरिक, रियल आपके फ्रैंड्स
इन सँग डेली बाँधिए, फ्रैंड्स फ्रेंडशिप बैंड्स
*
सूर्य रश्मि से स्नानकर, सुबह शाम हों धन्य
घूमें ताजी हवा में, पाएँ खुशी अनन्य
*
हार्म करे एक सी बहुत, घटती है ओजोन
बिना सुरक्षा पर्त के, जीवन चाहे क्लोन
*
दूर शीतला माँ हुईं, कोरोना माँ पास
रक्षित रह रखिए सुखी, करें नहीं उपहास
*
हग कल्चर से दूर रह, करिए नमन प्रणाम
ब्लैसिंग लें दें दूर से, करिए दोस्त सलाम
*
कोविद माता सिखातीं, अनुशासन का पाठ
धन्यवाद कह स्वस्थ्य रह, करिए यारों ठाठ
८-४-२०२१
***
दोहा सलिला
पानी-पानी हो गया, पानी मिटी न प्यास।
जंगल पर्वत नदी-तल, गायब रही न आस।।
*
दो कौड़ी का आदमी, पशु का थोड़ा मोल।
मोल न जिसका वह खुदा, चुप रह पोल न खोल।।
*
तू मारे या छोड़ दे, है तेरा उपकार।
न्याय-प्रशासन खड़ा है, हाथ बाँधकर द्वार।।
*
आज कदर है उसी की, जो दमदार दबंग।
इस पल भाईजान हो, उस पल हो बजरंग।।
*
सवा अरब है आदमी, कुचल घटाया भार।
पशु कम मारे कर कृपा, स्वीकारो उपकार।।
*
हम फिल्मी तुम नागरिक, आम न समता एक।
खल बन रुकते हम यहाँ, मरे बने रह नेक।।
८.४.२०१८
***
नवगीत:
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
८.४.२०१७
...
एक गीत
धत्तेरे की
*
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
पद-मद चढ़ा, न रहा आदमी
है असभ्य मत कहो आदमी
चुल्लू भर पानी में डूबे
मुँह काला कर
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
हाय! जंगली-दुष्ट आदमी
पगलाया है भ्रष्ट आदमी
अपना ही थूका चाटे फिर
झूठ उचारे
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
गलती करता अगर आदमी
क्षमा माँगता तुरत आदमी
गुंडा-लुच्चा क्षमा न माँगे
क्या हो बोलो
चप्पलबाज?
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
८.४.२०१७
***
पुस्तक सलिला-
‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
0
‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।
इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना, कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।
कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी, सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।
किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है।
सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।
अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।
सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है।
८.४.२०१६
...
मुक्तिका:
.
दिल में पड़ी जो गिरह उसे खोल डालिए
हो बाँस की गिरह सी गिरह तो सम्हालिए
रखिये न वज्न दिल पे ज़रा बात मानिए
जो बात सच है हँस के उसे बोल डालिए
है प्यार कठिन, दुश्मनी करना बहुत सरल
जो भाये न उस बात को मन से बिसारिये
संदेह-शुबह-शक न कभी पालिए मन में
क्या-कैसा-कौन है विचार, तौल डालिए
जिसकों भुलाना आपको मुश्किल लगे 'सलिल'
उसको न जाने दीजिए दिल से पुकारिए
दूरी को पाट सकना हमेशा हुआ कठिन
दूरी न आ सके तनिक तो झोल डालिए
कर्जा किसी तरह का हो, आये न रास तो
दुश्वारियाँ कितनी भी हों कर्जा उतारिये
***
मुक्तिका:
.
मंझधार में हो नाव तो हिम्मत न हारिए
ले बाँस की पतवार घाट पर उतारिए
मन में किसी के फाँस चुभे तो निकाल दें
लें साँस चैन की, न खाँसिए-खखारिए
जो वंशलोचनी है वही नेह नर्मदा
बन कांस सुरभि-रज्जु से जीवन संवारिए
बस हाड़-माँस-चाम नहीं, नारि शक्ति है
कर भक्ति प्रेम से 'सलिल' जीवन गुजारिए
तम सघन हो तो निकट मान लीजिए प्रकाश
उठ-जाग कोशिशों से भोर को पुकारिए
८.४.२०१५
***
मुक्तिका
अम्मी
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माहताब की जुन्हाई में
झलक तुम्हारी पाई अम्मी
दरवाजे, कमरे आँगन में
हरदम पडी दिखाई अम्मी
कौन बताये कहाँ गयीं तुम
अब्बा की सूनी आँखों में
जब भी झाँका पडी दिखाई
तेरी ही परछाईं अम्मी
भावज जी भर गले लगाती
पर तेरी कुछ बात और थी
तुझसे घर अपना लगता था
अब बाकी पहुनाई अम्मी
बसा सासरे केवल तन है
मन तो तेरे साथ रह गया
इत्मीनान हमेशा रखना-
बिटिया नहीं परायी अम्मी
अब्बा में तुझको देखा है
तू ही बेटी-बेटों में है
सच कहती हूँ, तू ही दिखती
भाई और भौजाई अम्मी.
तू दीवाली, तू ही ईदी
तू रमजान फाग होली है
मेरी तो हर श्वास-आस में
तू ही मिली समाई अम्मी
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दोहा सलिला
ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन हुआ बसंत
दूर हुईं पतझड़ हुआ, हेरूँ हर पल कन्त
तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गाएँ छन्द
तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक हों मन दूर
तू-मैं ज्यों ही हम हुए, साँस हुई संतूर
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दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ
अधरों पर मुस्कान हो, तभी सार्थक साथ
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नयन मिला छवि बंदकर, मून्दे नयना-द्वार
जयी चार, दो रह गये, नयना खुद को हार
८.४.२०१३
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नवगीत:
समाचार है...
*
बैठ मुड़ेरे चिड़िया चहके'
समाचार है.
सोप-क्रीम से जवां दिख रही
दुष्प्रचार है...
*
बिन खोले- अख़बार जान लो,
कुछ अच्छा, कुछ बुरा मान लो.
फर्ज़ भुला, अधिकार माँगना-
यदि न मिले तो जिद्द ठान लो..
मुख्य शीर्षक अनाचार है.
और दूसरा दुराचार है.
सफे-सफे पर कदाचार है-
बना हाशिया सदाचार है....
पैठ घरों में टी. वी. दहके
मन निसार है...
*
अब भी धूप खिल रही उज्जवल.
श्यामल बादल, बरखा निर्मल.
वनचर-नभचर करते क्रंदन-
रोते पर्वत, सिसके जंगल..
घर-घर में फैला बजार है.
अवगुन का गाहक हजार है.
नहीं सत्य का चाहक कोई-
श्रम सिक्के का बिका चार है..
मस्ती, मौज-मजे का वाहक
नित उधर, अ-असरदार है...
*
लाज-हया अब तलक लेश है.
चुका नहीं सब, बहुत शेष है.
मत निराश हो बढ़े चलो रे-
कोशिश अब करनी विशेष है..
अलस्सुबह शीतल बयार है.
खिलता मनहर हरसिंगार है.
मन दर्पण की धूल हटायें-
चेहरे-चेहरे पर निखार है..
एक साथ मिल मुष्टि बाँधकर
संकल्पित करना प्रहार है...
८.४.२०११
***
हास्य दोहे:
*
बेचो घोड़े-गधे भी, सोओ होकर मस्त.
खर्राटे ऊँचे भरो, सब जग को कर त्रस्त..
*
कौन किसी का सगा है, और पराया कौन?
जब भी चाहा जानना, उत्तर पाया मौन
*
दूर रहो उससे सदा, जो धोता हो हाथ.
गर पीछे पड़ जायेगा, मुश्किल होगा साथ..
*
टाँग अड़ाना है 'सलिल', जन्म सिद्ध अधिकार.
समझ सको कुछ या नहीं, दो सलाह हर बार..
*
देवी इतनी प्रार्थना, रहे हमेशा होश
काम 'सलिल' करता रहे, घटे न किंचित जोश
*
देवी दर्शन कीजिए, भंडारे के रोज
देवी खुश हो जब मिले, बिना पकाए भोज

*
हर ऊँची दूकान के, फीके हैं पकवान
भाषण सुन कर हो गया, बच्चों को भी ज्ञान
*
नोट वोट नोटा मिलें, जब हों आम चुनाव
शेष दिनों मारा गया, वोटर मिले न भाव
८.४.२०१०
***

सोमवार, 26 जून 2023

नवीन सी. चतुर्वेदी, हिंदी गजल, धानी चुनर

कृति चर्चा
'धानी चुनर' : हिंदी गजल का लाजवाब हुनर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(कृति विवरण- धानी चुनर, हिंदी ग़ज़ल संग्रह, नवीन सी. चतुर्वेदी, प्रथम संस्करण 2022, पृष्ठ 95, मूल्य ₹150, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, प्रकाशक आर. के. पब्लिकेशन मुंबई)
                      हिंदी में ग़ज़ल मूलतः फारसी से आयातित साहित्यिक सृजन विधा है जिसे हिंदी ने आत्मार्पित किया है। ग़ज़ल का शिल्प और विधान दोनों फारसी से आते हैं। हर भाषा की अपने कुछ खासियतें होती हैं। फारसी से आने के कारण ग़ज़ल में भी फारसी की विशेषताएँ अंतर्निहित हैं। जब एक भाषा की साहित्यिक विधा को दूसरी भाषा स्वीकार करती है तो स्वाभाविक रूप से उसमें अपनी प्रवृत्ति, संस्कार, व्याकरण और पिंगल को आरोपित करती है। हिंदी ग़ज़ल भी इसी प्रक्रिया से गुजर रही है। भारत के पश्चिमोत्तर प्रांतों की भाषाओं और फारसी के मिश्रण से जो जुबान सैनिक छावनियों में विकसित हुई वह 'लश्करी' कही गई। आम लोगों से बातचीत के लिए यह जुबान देशज शब्द-संपदा ग्रहण कर रोजमर्रा के काम-काज की भाषा 'उर्दू' हो गई। ग़ज़ल को हिंदी में कबीर और खुसरो आम लोगों तक पहुँचाया। हिंदी में ग़ज़ल ने कई मुकाम हासिल किए। इस दौरान उसे गीतिका, मुक्तिका, तेवरी, सजल, पूर्णिका, अनुगीत इत्यादि नाम दिए गए और आगे भी कई नाम दिए जाएंगे। इसका मूल कारण यह है कि गजल हर रचनाकार को अपनी सी लगती है और इस अपनेपन को वह एक नया नाम देकर जाहिर करता है पर ग़ज़ल तो ग़ज़ल थी, है और रहेगी। 

हिंदी ग़ज़ल को 'तंग गली' कहनेवाले मिर्जा गालिब और 'कोल्हू का बैल' कहकर नापसंद करनेवाले कहनेवाले शायरों को भी ग़ज़ल कहनी पड़ी और वक्त ने उन्हें ग़ज़लकार के रूप में ही याद रखा। कहते हैं 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना'। हिंदी ग़ज़ल को मैंने इस रूप में समझा है -

ब्रह्म से ब्रह्मांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल
आत्म की परमात्म से फरियाद है हिंदी ग़ज़ल
मत 'गजाला चश्म' कहना, यह 'कसीदा' भी नहीं
छंद गण लय रसों की औलाद है हिंदी ग़ज़ल

बकौल नवीन चतुर्वेदी- 

ओढ़कर धानी चुनर हिंदी ग़ज़ल
बढ़ रही सन्मार्ग पर हिंदी ग़ज़ल
विश्व कविता ने चुना जिस पंथ को
है उसी पर अग्रसर हिंदी ग़ज़ल
भीड़ ने जिस पंथ को रस्ता कहा
लिख रही उसको डगर हिंदी ग़ज़ल
हत हुई गरिमा तो मन आहत हुआ
उठ खड़ी होकर मुखर हिंदी ग़ज़ल
देव भाषा की सलोनी संगिनी 
मूल स्वर में है प्रबल हिंदी ग़ज़ल

19 मात्रिक महापौराणिक जातीय छंद में दी गई ग़ज़ल की यह परिभाषा वास्तव में सटीक है।  'धानी चुनर' की ग़ज़लों की भाषा संस्कृत निष्ठ हिंदी है जबकि ग़ज़ल की कहन फारसी की बह्रों पर आधारित है। मैंने ऐसे कई हिंदी ग़ज़ल संकलन देखे हैं जिनमें इसके सर्वथा विपरीत फारसी शब्द बाहुल्य की रचनाएँ हिंदी छंदों में मिली हैं। मुझे हिंदी ग़ज़ल के इन दो रूपों में अंतर्विरोध नहीं दिखता अपितु वह एक दूसरे की पूरक प्रतीत होती हैं

नवीन जी की गजलों की खासियत गज़लियत और शेरियत से युक्त होना है। आमतौर पर गजल के नाम पर या तो अत्यधिक वैचारिक रचनाएं प्राप्त होती हैं अथवा केवल तुकबंदी। संतोष है कि नवीन जी की ये गजलें दोनों दोषों से मुक्त अपनी ही तरह की हैं जिनकी समानता किसी अन्य से स्थापित कर पाना सहज नहीं। इन ग़ज़लों की हर द्विपदी (शेर) सार्थक है। ये ग़ज़लें शब्दों को उसके शब्दकोशीय अर्थ से परे नवीन अर्थ में स्थापित करती हैं।  
  
नवीन जी की एक ग़ज़ल जो महापुराणजातीय दिंडी छंद में लिखी गई है उस का आनंद लें-
 
नदी के पार उतरना है गुरुजी 
हमें यह काम करना है गुरु जी 
विनय पथ का वरण करके हृदय का 
सकल संताप हरना है गुरुजी 
घुमाएँ आप अपनी चाक फिर से 
हमें बनना-सँवरना है गुरुजी

इस कंप्यूटर काल में 'चाक' की चर्चा कर नवीन जी उस समय की सार्थकता बताना चाहते हैं जहाँ ऑनलाइन कक्षाएँ नहीं होती थीं,  गुरु और शिष्य साथ में बैठकर शिक्षा देते और लेते थे। 

एक और गजल देखें यह गजल विभिन्न पंक्तियों में अलग-अलग पदभार समाहित करती है और इसकी अलग-अलग पंक्तियों में अलग-अलग छंद हैं। 

हृदय को सर्वप्रथम निर्विकार करना था 
तदोपरांत विषय पर विचार करना था 
कदापि ध्यान में थी ही नहीं दशा उसकी 
नदी में हमको तो बस जलविहार करना था

वर्तमान राजनीति में जनहित की ओर कोई ध्यान न होने और नेताओं के द्वारा जनसेवा का पाखंड करने को नवीन ने जलविहार के माध्यम से बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है। 

यौगिक जातीय विधाता छंद में रची गई एक और रचना देखें जिसमें सामाजिक पाखंड को उद्घाटित किया गया है- 

व्यर्थ साधो बन रहे हो कामना तो कर चुके हो 
उर्वशी से प्रेम की तुम याचना तो कर चुके हो 
पंच तत्वों से विनिर्मित जग नियम ही से चलेगा 
वर्जना के हेतु समझो गर्जना तो कर चुके हो

यहां नवीन जी सामाजिक संदर्भ में 'वर्जना' के द्वारा मानवीय आचरण के प्रति चेतावनी देते हैं।  यह ग़ज़ल 'मुस्तफउलन' की चार आवृत्तियों या 'फ़ाइलातुन' की चार आवृत्तियों के माध्यम से रची जा सकती है। इससे  प्रमाणित होता है कि उर्दू की बहरें, मूलत: भारतीय छंदों से ही नि:सृत हैं। 

प्रेम और करुणा को एक साथ मिलाते हुए नवीन जी महाभागवत जातीय छंद में कहते हैं-
 
मीरा और गिरधर जैसी गरिमा से छूना था 
प्रीत अगर सच्ची थी तो करुणा से छूना था 
जैसे नटनागर ने स्पर्श किया राधा का मन 
उसका अंतस वैसी ही शुचिता से छूना था

नवीन जी  महाभागवत जाति के विष्णुपद छंद का प्रयोग करते हुए इस ग़ज़ल में पर्यावरण और राजनीति के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करते हैं- 

जब जब जंगल के मंगल पर कंटक आते हैं 
विश्वामित्र व्यवस्थाओं पर प्रश्न उठाते हैं 
सहसभुजी जब-जब जनधन हरकर ले जाते हैं 
भृगुवंशी जैसे योद्धा कर्तव्य निभाते हैं 
जब-जब सत्ता धृतराष्ट्रों की दासी बनती है 
तब तब शरशैया पर भीष्म लिटाए जाते हैं 

इस ग़ज़ल में 'सहसभुजी' शब्द का प्रयोग, देशज शब्दों के प्रति नवीन जी के लगाव को जाहिर करता है जबकि विश्वामित्र, भगवान, श्री जगदीश दुष्यंत, शकुंतला, चरक इत्यादि पौराणिक पात्रों के माध्यम से नवीन इस युग की समस्याओं को उठाते हैं। 

महापुराण जातीय सुमेरु छंद में नवीन की यह ग़ज़ल मानवीय संवेदना और संभावनाओं को उद्घाटित कर दोनों का अंतरसंबंध बताती है- 

जहां संवेदना संभव नहीं है 
वहां संभावना संभव नहीं है 
जड़ों को त्यागना संभव नहीं है 
नियति की वर्जना संभव नहीं है 
स्वयं जगदीश की हो या मनुज  की 
सतत आराधना संभव नहीं है 

महा पौराणिक जाति का दिंडी छंद नवीन का प्रिय छंद है। इसी छंद में वे व्यंजना में अपनी बात करते हैं- 

इस कला में हम परम विश्वस्त हैं 
काम तो कुछ भी नहीं पर व्यस्त हैं 
मित्र यह उपलब्धि साधारण नहीं 
त्रस्त होकर भी अहर्निश मस्त हैं 
आप सिंहासन सुशोभित कीजिए 
हम पराजय के लिए आश्वस्त हैं 

यहाँ नवीन जी राजनीतिक वातावरण को जिस तरह संकेतित करते हैं, वह दुष्यंत कुमार की याद दिलाता है। 

महाभागवत जातीय गीतिका छंद में नवीन जी मानवीय प्रयासों की महिमा स्थापित करते हैं-

कर्मवीरों के प्रयासों को डिगा सकते नहीं 
शब्द संधानी पहाड़ों को हिला सकते नहीं 
अस्मिता का अर्थ बस उपलब्धि हो जिनके लिए 
इस तरह के झुंड निज गौरव बचा सकते नहीं

नवीन जी की ग़ज़लों में भाषिक प्रवाह, भाव बौली तथा रस वैविध्य उल्लेखनीय है-

प्रश्न करना किसी विषय के मंथन का सबसे अच्छा तरीका है। यौगिक जातीय सार छंद में रचित इस रचना में नवीन प्रश्नों के माध्यम से ही अपनी बात कहते हैं-

मान्यवर का प्रश्न है दिन रात का आधार क्या है 
और ये दिन-रात हैं इस बात का आधार क्या है 
एक और अद्भुत अनोखा प्रश्न है श्रीमान जी का 
ज्ञात का आधार क्या अज्ञात का आधार क्या है 
एक हैं जयचंद वे भी  पूछते हैं प्रश्न अद्भुत 
हमको यह बताओ भितरघात का आधार क्या है

नवीन चतुर्वेदी की हर ग़ज़ल पाठक को ना केवल बाँधती है अपितु चिंताऔर चिंतन की ओर प्रवृत्त करती है। हिंदी ग़ज़ल को सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता।  एक और ग़ज़ल में नवीन यौगिक जातीय विद्या छंद में अपनी बात कहते हैं- 

तुच्छ बरसाती नदी गंगा नदी जैसी लगी है 
मोह में तो बेसुरी भी बाँसुरी जैसी लगे है
जामुनी हो या गुलाबी गौर हो या श्याम वर्णा  
यामिनी में कामिनी सौदामिनी जैसी लगी है

'यामिनी', 'कामिनी', 'सौदामिनी' जैसे शब्दों का चयन नवीन जी का शब्द-सामर्थ्य  बताता है और पाठक को अनुप्रास अलंकार का रसानंद  करा देता है।  नवीन शब्दों के जादूगर हैं, वह शब्दों के माध्यम से वह सब कह पाते हैं जो कहना चाहते हैं।  बहुधा शब्द की शब्दकोशीय मर्यादा को बौना करते हुए नवीन अधिक गहरा अर्थ अपनी गजलों के माध्यम से देते हैं। योगेश जातीय विद्या छंद में ही उनकी एक और ग़ज़ल देखें- 
आकलन की बात थी सो मौन रहना ही उचित था 
अध्ययन की बात थी सो मौन रहना ही उचित था 
तीन डग में विष्णु ने तीनों भवन को नाप डाला 
आयतन की बात थी सो मौन रहना ही उचित था

नवीन जी अनुचित कार्योंको देखते हुए भी अनदेखा करने की आम जन की रीति-नीति और सत्ता व्यवस्था को व्यंजना के माध्यम से अभिव्यक्त करते है। यह व्यंजना मन को छू जाती है। कहते हैं राजनीति किसी की सगी नहीं होती। नवीन की गजलों में राजनीति पर कई जगह केवल कटाक्ष नहीं किए गए हैं अपितु राजनीति का सत्य सामने लाया गया है। एक उदाहरण  देखें-  

आधुनिक संग्राम के कुछ उद्धरण ऐसे भी हैं 
शांति समझौते किए ग्रह युद्ध करवाया गया 
पहले तो जमकर हुआ उनका अनादर और फिर 
जो कहा करते थे सबसे बुद्ध करवाया गया

इसी ग़ज़ल के अंतिम शेर में नवीन जी 'दुर्गा' शब्द का उपयोग कर अपनी बात अनूठे ढंग से कहते हैं-

दुर्गा भवानी यूं ही थोड़ी ही बनी 
सीधी-सादी नारियों से युद्ध करवाया गया

स्पष्ट है दृश्य जैसा दिखता है वैसा होता नहीं, वैसा दिखाने के लिए चतुरों द्वारा अनेक जतन किए जाते हैं और नवीन अपनी गजलों के माध्यम से इन्हीं चतुरों की चतुराई को बिना बख्शे उस पर शब्दाघाट करते हैं। इस संक्रांतिकाल में जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर 'आस्था पर चोट' की आड़ में हमले किए जा रहे हैं, अनुभूत सत्य की बेलाग अभिव्यक्ति के लिए साहस आवश्यक है। नवीन जी अभिनंदनीय हैं कि वे खतरा उठाकर भी युग सत्य सामने ला रहे हैं।   

बहुधा हम अपने आप को उन सब गुणों का भंडार मान लेते हैं जो हम में होते नहीं हैं। इस भ्रम का उद्घाटन करते हुए नवीन जी कहते हैं -

गंध से सुरभित सकल उद्यान हैं 
पुष्प को लगता है वह गुणवान है 
जब स्वयं जगदीश को भी है नहीं 
आपको किस बात का अभिमान है 

इसी गजल के अंतिम शेर में नवीन कहते हैं- 

रूद्र बनना है तो बन पर भूल मत 
शंभु के प्रारब्ध में विषपान है

स्पष्ट ही ग़ज़लकार बताना चाहता है कि जो लोग बहुत सुखी दिखते हैं वास्तव में होते नहीं। नवीन जी की यह गजलें पंक्ति पंक्ति में योजनाओं को विडंबनाओं को उद्घाटित करती हैं, विसंगतियों पर कटाक्ष करती हैं- 

मूर्तियों के अंग अंग ही न मात्र भग्न थे 
मूर्तियों को भग्न करनेवाले भी कृतघ्न थे 
उनकी रक्त धमनियों में राक्षसी प्रमाद था
क्या बताएँ उनके संस्कार ही प्रभग्न थे 

इस संकलन का शीर्षक 'धानी चुनर' बहुत कुछ कहता है।  चुनर लाज को ढकती है, चुनर की ओट में अनेक सपने पलते हैं और जब यह चुनर अपनों के द्वारा तार-तार की जाती है तब कोई द्रौपदी किसी कृष्ण का आह्वान करने को विवश होती है। गज़लकार कहता है- 

मान्यवरों! जनता के हित को ताक पर रखना अनुचित है 
भोले भाले जन-जीवों को मूर्ख समझना अनुचित है 
भरी सभा के मध्य निहत्थे कृष्ण यही दोहराते हैं 
प्रजा दुखी हो तो गद्दी से चिपके रहना अनुचित है

वर्तमान परिवेश में आकाश छूती मँहगाईऔर आम आदमी के खाली जेबों  के परिप्रेक्ष्य में सत्तासीनों के लिए यह शेर वास्तव में चिंतनीय होना चाहिए- 

यदा-कदा यदि विलासिता पर कर का भार बड़े तो ठीक 
खाद्य पदार्थों के भागों का अनहद बढ़ना अनुचित है 

यहाँ 'अनहद' शब्द का प्रयोग नवीन की भाषिक दक्षता का प्रमाण है। सामान्य तौर पर 'अनहद' (नाद) के द्वारा हम आध्यात्मिक संदर्भ में बात करते हैं लेकिन उस 'अनहद' शब्द को यहाँ मँहगाई के संदर्भ में उपयोग करना वास्तव में एक मौलिक प्रयोग हो जो मैंने इसके पहले कभी कहीं नहीं पढ़ा है।  

नवीन की 'धानी चुनर' का हर पृष्ठ नवीन भावनाओं को उद्घाटित करता है ,नवीन विसंगतियां सामने लाता है और बिना कहे ही नवीन समाधान का संकेत करता है- 

भव्य भावनाओं को व्यक्त सब करते नहीं 
निज उपासनाओं को व्यक्त सब करते नहीं 
सब को ठेस लगती है सब को कष्ट होता है 
किंतु यातनाओं को व्यक्त सब करते नहीं
सबके पास कौशल है, सब के पास दलबल है 
किंतु योजनाओं को व्यक्त सब करते नहीं 

ख़ास ही नहीं आमजन से भी नवीन का शायर आंख में आंख मिलाकर बात करता है- 

दिग्भ्रमित जग से उलझ कर क्या मिला है क्या मिलेगा 
आत्म चिंतन कीजिए श्रीमान श्रेयस्कर यही है 

यह आत्म चिंतन करने की इस युग में सबसे अधिक आवश्यकता हम सभी को है और नवीन इस बात को बेधड़क कहते हैं, ताल ठोंकर कहते हैं।  

छांदस ग़ज़ल की संरचना में प्रवीण नवीन जी ने छोटी मापनी की एक ग़ज़ल में गागर में सागर भर दिया है-

ज्योति की उन्नायिका ने 
हर लिया तुम वर्तिका ने 
पृष्ठ तो पूरा धवल था 
रंग उकेरे तूलिका ने 
चक्षु मन के खुल गए हैं 
भेद खोले पुस्तिका ने  
संतुलन को भूलना मत 
कह दिया है चर्चिका ने 

यहाँ 'चर्चिका' शब्द का प्रयोग नवीन के शब्द भंडार को इंगित करता है। चर्चिका का अर्थ है शिव की तीसरी आंख और यह शब्द अलप प्रचलित है जिसे नवीन जी ने बहुत अच्छी तरह उपयोग किया है। इसी तरह एक और शब्द है जिसका प्रयोग बहुत कम होता है और वह है 'बिपाशा' जिसका अर्थ होता है नदी। नवीन जी ने इस शब्द का भी प्रयोग सार्थक तरीके से किया है- भोर का सुख लगे हैं बिपाशा सदृश।  

'धानी चुनर' का धानीपन उसकी रसीली एवं रचनात्मक हिंदी गजलों में है। ये ग़ज़लें वास्तव में हिंदी ग़ज़ल के पाठकों को रस आनंद से भावविभोर करने में समर्थ हैं। यह विस्मय की बात है कि 2022 में प्रकाशित इस संकलन की चर्चा लगभग नहीं हुई है।  मैं हिंदी ग़ज़ल के हर कद्रदान से यह कहना चाहूंगा कि वह 'धानी चुनर' की एक प्रति खरीद कर जरूर पढ़े। उसे इस दीवान में एक संभावना पूर्ण ग़ज़लकार ही नहीं मिलेगा, गजल के उद्यान में खिले हुए विभिन्न रंगों के सुमन ओ की मनोहारी सुगंध भी मिलेगी जो उसके मन प्राण को रस आनंद के माध्यम से परमानंद तक ले जाने में समर्थ है।  
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संपर्क- आचार्य ' सलिल', सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com