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गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

kundali, shashi purwar-sanjiv

एक कुंडली- दो रचनाकार
दोहा: शशि पुरवार
रोला: संजीव
*
सड़कों के दोनों तरफ, गंधों भरा चिराग 
गुलमोहर की छाँव में, फूल रहा अनुराग
फूल रहा अनुराग, लीन घनश्याम-राधिका 
दग्ध कंस-उर, हँसें रश्मि-रवि श्वास साधिका 
नेह नर्मदा प्रवह, छंद गाती मधुपों के 
गंधों भरे चिराग, प्रज्वलित हैं सड़कों के 
***

सोमवार, 10 अप्रैल 2017

kundali, muktak, navgeet

कुंडली
तुरत-फुरत के खेल में, मिलता है आनंद
अक्षर सार्थक शब्द बन, झट रच देते छंद
झट रच देते छंद, बिम्ब-रस-भाव त्रिवेणी
सुरभि बिखेरे मंद, सजे जूड़े में वेणी
गिरधारी नत शीश, करें राधिका की सुरत
तरसातीं राधिका, न मिलतीं आकर तुरत
*
मुक्तक
प्रश्न उत्तर माँगते हैं, घूरती चुप्पी
बनें मुन्ना भाई लें-दें प्यार से झप्पी
और इस पर भी अगर मन हो न पाए शांत
गाल पर शिशु के लगा दें प्यार से पप्पी
*
नवगीत:

आओ! तम से लड़ें...

संजीव 'सलिल'

आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
माटी माता,
कोख दीप है.
मेहनत मुक्ता
कोख सीप है.
गुरु कुम्हार है,
शिष्य कोशिशें-
आशा खून
खौलता रग में.
आओ! रचते रहें
गीत फिर गायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
आखर ढाई
पढ़े न अब तक.
अपना-गैर न
भूला अब तक.
इसीलिये तम
रहा घेरता,
काल-चक्र भी
रहा घेरता.
आओ! खिलते रहें
फूल बन, छायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
नवगीत:
करना होगा...

हमको कुछ तो
करना होगा...
***
देखे दोष,
दिखाए भी हैं.
लांछन लगे,
लगाये भी है.
गिरे-उठे
भरमाये भी हैं.
खुद से खुद
शरमाये भी हैं..
परिवर्तन-पथ
वरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
दीपक तले
पले अँधियारा.
किन्तु न तम की
हो पौ बारा.
डूब-डूबकर
उगता सूरज.
मिट-मिट फिर
होता उजियारा.
जीना है तो
मरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
नवगीत:

चलो! कुछ गायें...

संजीव 'सलिल'

क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
माना अँधियारा गहरा है.
माना पग-पग पर पहरा है.
माना पसर चुका सहरा है.
माना जल ठहरा-ठहरा है.
माना चेहरे पर चेहरा है.
माना शासन भी बहरा है.
दोषी कौन?...
न शीश झुकायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
सच कौआ गा रहा फाग है.
सच अमृत पी रहा नाग है.
सच हिमकर में लगी आग है.
सच कोयल-घर पला काग है.
सच चादर में लगा दाग है.
सच काँटों से भरा बाग़ है.
निष्क्रिय क्यों?
परिवर्तन लायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
नवगीत:
करो बुवाई...
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*

मंगलवार, 21 मार्च 2017

kundali

कुंडली
*
रूठी राधा से कहें, इठलाकर घनश्याम
मैंने अपना दिल किया, गोपी तेरे नाम
गोपी तेरे नाम, राधिका बोली जा-जा
काला दिल ले श्याम, निकट मेरे मत आ, जा
झूठा है तू ग्वाल, प्रीत भी तेरी झूठी
ठेंगा दिखा हँसें मन ही मन, राधा रूठी
*
कुंडली
कुंडल पहना कान में, कुंडलिनी ने आज
कान न देती, कान पर कुण्डलिनी लट साज
कुण्डलिनी लट साज, राज करती कुंडल पर
मौन कमंडल बैठ, भेजता हाथी को घर
पंजा-साइकिल सर धुनते, गिरते जा दलदल
खिला कमल हँस पड़ा, फन लो तीनों कुंडल
***

बुधवार, 15 मार्च 2017

kundali

कहे कुंडली सत्य
*
दो नंबर पर हो गयी, छप्पन इंची चोट
जला बहते भीत हो, पप्पू संचित नोट
पप्पू संचित नोट, न माया किसी काम की
लालू स्यापा करें, कमाई सब हराम की
रहे तीन के ना तेरह के, रोते अफसर
बबुआ करें विलाप, गँवाकर धन दो नंबर
*
दबे-दबे घर में रहें, बाहर हों उद्दंड
हैं शरीफ बस नाम के, बेपेंदी के गुंड
बेपेंदी के गुंड, गरजते पर न बरसते
पाल रहे आतंक, मुक्ति के हेतु तरसते
सीधा चले न सांप, मरोड़ो कई मरतबे
वश में रहता नहीं, उठे फण नहीं तब दबे
*
दिखा चुनावों ने दिया, किसका कैसा रूप?
कौन पहाड़ उखाड़ता, कौन खोदता कूप?
कौन खोदता कूप?, कौन किसका अपना है?
कौन सही कर रहा, गलत किसका नपना है?
कहता कवि संजीव, हुआ जो नहीं वह लिखा
कौन जयी हो? पत्रकार को नहीं था दिखा
*
हाथी, पंजा-साइकिल, केर-बेर सा संग
घर-आँगन में करें जो, घरवाले ही जंग
घरवाले ही जंग, सम्हालें कैसे सत्ता?
मतदाता सच जान, काटते उनका पत्ता
बड़े बोल कह हाय! चाटते धूला साथी
केर-बेर सा सँग, साइकिल-पंजा, हाथी
*
पटकी खाकर भी नहीं, सम्हले नकली शेर
ज्यादा सीटें मिलीं पर, हाय! हो गए ढेर
हाय! हो गए ढेर, नहीं सरकार बन सकी
मुँह ही काला हुआ, नहीं ठंडाई छन सकी
पिटे कोर्ट जा आप, कमल ने सत्ता झपटी
सम्हले नकली शेर नहीं खाकर भी पटकी
*** 

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

basanti kundali

रचना एक : रचनाकार दो
वासंती कुंडली
दोहा: पूर्णिमा बर्मन
रोला: संजीव वर्मा
*
वसंत-१


ऐसी दौड़ी फगुनहट, ढाँणी-चौक फलाँग।
फागुन झूमे खेत में, मानो पी ली भाँग।।
मानो पी ली भाँग, न सरसों कहना माने
गए पड़ोसी जान, बचपना है जिद ठाने
केश लताएँ झूम लगें नागिन के जैसी
ढाँणी-चौक फलाँग, फगुनहट दौड़ी ऐसी 

वसंत -२ 




बौर सज गये आँगना, कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा, मौसम हुआ बहार।।
मौसम हुआ बहार, थाप सुन नाचे पायल
वाह-वाह कर उठा, हृदय डफली का घायल
सपने देखे मूँद नयन, सर मौर बंध गये 
कोयल चढ़ी अटार, आँगना बौर सज गये 

वसंत-३ 











दूब फूल की गुदगुदी, बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी, मौसम को है आस।।
मौसम को है आस, प्यास का त्रास अकथ है
मधुमाखी हैरान, लली सी कली थकित है
कहे 'सलिल' पूर्णिमा, रात हर घड़ी मिलन की
कथा कही कब जाए, गुदगुदी डूब-फूल की 

वसंत-४ 


.
वर गेहूँ बाली सजा, खड़ी फ़सल बारात।
सुग्गा छेड़े पी कहाँ, सरसों पीली गात।।
सरसों पीली गात, हथेली मेंहदी सजती
पवन पीटता ढोल, बाँसुरी मन में बजती
छतरी मंडप तान, खड़ी है एक टाँग पर
खड़ी फसल बारात, सजा बाली गेहूँ वर

वसंत-५ 


















ऋतु के मोखे सब खड़े, पाने को सौगात।

मानक बाँटे छाँट कर, टेसू ढाक पलाश।।
टेसू ढाक पलाश, काष्ठदु कनक छेवला
किर्मी, याज्ञिक, यूप्य, सुपर्णी, लाक्षा सुफला
वक्रपुष्प,राजादन, हस्तिकर्ण दुःख सोखे
पाने को सौगात, खड़े सब ऋतु के मोखे
वसंत-६ 

















कहें तितलियाँ फूल से, चलो हमारे संग
रंग सजा कर पंख में, खेलें आज वसंत
खेलें आज बसंत, संत भी जप-तप छोड़ें
बैरागी चुन राग-राह, बरबस पग मोड़ें
शिव भी हो संजीव, सुनाएँ सुनें बम्बुलियाँ
चलो हमारे संग, फूल से कहें तितलियाँ


वसंत-७ 
















फूल बसंती हँस दिया, बिखराया मकरंद
यहाँ-वहाँ सब रच गए, ढाई आखर छं
ढाई आखर छंद, भूल गति-यति-लय हँसते
सुनें कबीरा झूम, सुनाते जो वे फँसते
चटक चन्दनी धूप-रूप सँग सूर्य फँस गया
बिखराया मकरंद, बसंती फूल हँस दिया
वसंत-८ 



आसमान टेसू हुआ, धरती सब पुखराज
मन सारा केसर हुआ, तन सारा ऋतुराज
तन सारा ऋतुराज, हरितिमा हुई बसंती
पवन झूमता-छेड़, सुनाता जैजैवंती
कनकाभित जल-लहर, पुकारता पिक को सुआ
धरती सब पुखराज, आसमान टेसू हुआ

वसंत-९ 
















भँवरे तंबूरा हुए, मौसम हुआ बहार
कनक गुनगुनी दोपहर, मन कच्चा कचनार।।    
मन कच्चा कचनार, जागते देखे सपने
नयन मूँद श्लथ गात, कहे आ जा रे अपने!
स्वप्न न टूटे आज, प्रकृति चुप निखरे-सँवरे
पवन गूंजता छंद, तंबूरा थामे भँवरे।। 
***