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बुधवार, 15 जून 2016

navgeet

नवगीत
एक-दूसरे को
*
एक दूसरे को छलते हम
बिना उगे ही
नित ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम  
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
मैंने तुम्हें कह दिया स्वामी,
किंतु न अंतर्मन अनुगामी।
तुम प्रयास कर खुद से हारे-
संग न 'शक्ति' रही परिणामी।
साथ न तुमसे मिला अगर तो 
हुई नाक में  
मेरी भी दम।
हैं अभिन्न, स्पर्धी बनकर 
एक-दूसरे को 
खलते हम।
*
मैं-तुम, तुम-मैं, तू-तू मैं-मैं,
हँसना भूले करते पैं-पैं।
नहीं सुहाता संग-साथ भी-
अलग-अलग करते हैं ढैं-ढैं।
अपने सपने चूर हो रहे 
दिल दुखते हैं  
नयन हुए नम।
फेर लिए मुंह अश्रु न पोंछें  
एक-दूसरे बिन  
ढलते हम।
*
 तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम  
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
जब तक 'देवी' तुमने माना
तुम्हें 'देवता' मैंने जाना।
जब तुम 'दासी' कह इतराए
तुम्हें 'दास' मैंने पहचाना।
बाँट सकें जब-जब आपस में
थोड़ी खुशियाँ,
थोड़े से गम
तब-तब एक-दूजे के पूरक
धूप-छाँव संग-
संग सहते हम।
*
'मैं-तुम' जब 'तुम-मैं' हो जाते ,
'हम' होकर नवगीत गुञ्जाते ।
आपद-विपदा हँस सह जाते-
'हम' हो मरकर भी जी जाते।
स्वर्ग उतरता तब धरती पर 
जब मैं-तुम  
होते हैं हमदम।
दो से एक, अनेक हुए हैं 
एक-दूसरे में 
खो-पा हम।
*****
१०-६-२०१६ 
TIET JABALPUR

 


  

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

दोहा सलिला: 'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए...
संजीव 'सलिल'
*
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए, 'तुम' जा बैठा दूर.
जो न देख पाया रहा, आँखें रहते सूर..
*
'मैं' में 'तुम' जब हो गया, अपने आप विलीन.
व्याप गयी घर में खुशी, हर पल 'सलिल' नवीन..
*
'तुम' से 'मैं' की गैरियत, है जी का जंजाल.
'सलिल' इसी में खैरियत, 'हम' बन हों खुशहाल..
*
'मैं' ने 'मैं' को कब दिया, याद नहीं उपहार?
'मैं' गुमसुम 'तुम' हो गयी, रूठीं 'सलिल' बहार..
*
'मैं' 'तुम' 'यह' 'वह' प्यार से, भू पर लाते स्वर्ग.
'सलिल' करें तकरार तो, दूर रहे अपवर्ग..
*
'मैं' की आँखों में बसा, 'तू' बनकर मधुमास.
जिस-तिस की क्यों फ़िक्र हो, आया सावन मास..
*
'तू' 'मैं' के दो चक्र पर, गृह-वाहन गतिशील.
'हम' ईधन गति-दिशा दे, बाधा सके न लील..
*
'तू' 'तू' है, 'मैं' 'मैं' रहा, हो न सके जब एक.
तू-तू मैं-मैं न्योत कर, विपदा लाईं अनेक..
*
'मैं' 'तुम' हँस हमदम हुए, ह्रदय हर्ष से चूर.
गाल गुलाबी हो गये, नत नयनों में नूर..
*
'मैं' में 'मैं' का मिलन ही, 'मैं'-तम करे समाप्त.
'हम'-रवि की प्रेमिल किरण, हो घर भर में व्याप्त..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
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शनिवार, 24 मार्च 2012

काव्य सलिला: हम --संजीव 'सलिल'

काव्य सलिला:
हम
संजीव 'सलिल'
*
हम कहाँ हैं?
पूछता हूँ, खोजता हूँ.
चुप पहेली बूझता हूँ.
*
यहाँ मैं हूँ.
वहाँ तुम हो.
यहाँ यह है.
वहाँ वह है.
सभी कंकर.
कहाँ शंकर?
*
द्वैत मिटता ही नहीं है.
अहं पिटता ही नहीं है.
बिंदु फैला इस तरह कि
अब सिमटता ही नहीं है.
तर्क मण्डन, तर्क खंडन
तर्क माटी, तर्क चन्दन.
सच लिये वितर्क भी कुछ
है सतर्क कुतर्क भी अब.
शारदा दिग्भ्रमित सी है
बुद्धि भी कुछ श्रमित सी है.
हार का अब हार किसके
गले डाले भारती?
*
चलो, नियमों से परे हों.
भावनाओं पर खरे हों.
मिटेगा शायद तभी तम.
दूर होंगे दिलके कुछ गम.
आइये अब साथ हो लें.
हाथ में फिर हाथ हो लें.
आँख करिए व्यर्थ मत नम.
भूलिए मैं-तुम
बनें हम..
*

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