जीवन कहता ''सड़क पर'' सलिल सलिल सम जान
नवगीत, कविता की पूर्व-पीठिका पर गूँजता सामवेदी गान है। नव गीत के वामन- स्वरूप में संवेदना की गहनता, सघनता, सांद्रता, विषयवस्तु की वैविध्यपूर्ण विस्तृति, नवोन्मेषमयी कल्पना की उत्तरंग उड़ान, इंद्रिय-संवेद्य बिंबों की प्रत्यग्रता तो होती ही है, वहीं लोक-भाषा, लोक-लय के प्रति आत्मीयता पूर्ण आग्रह ‘नव’ विशेषण युक्त अवदात्त गीतों के शिल्प में अतिरिक्त चारुत्व का आधान करती है.। अप्रासंगिक नहीं कि कविता ने ‘गीत’ और फिर ‘नव गीत’ की यात्रा में अपने प्राणतत्व ‘गेयता’ का दामन थामे रखा।
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ का सद्य: प्रकाशित गीत - नवगीत संकलन ‘सड़क पर’ की रचनात्मक-गूढ़ता और बहुआयामिता, परिवेश और परिस्थिति का आवरण हटाकर अभिव्यक्ति के मौलिक संवेदन और विमर्श का दर्शन कराती है। इस संकलन के रचना विधान में नवगीतकार ने शीर्षक (सड़क पर) में ही अपनी विषयवस्तु की मनोवृति का प्रकाशन कर दिया है और उसे लेकर अपनी रचनात्मक या सर्जनात्मक भूमिका को विभिन्न कूचों-कुलियों, पगडंडियों, रास्तों, राजपथों पर प्रश्न के रूप में खड़ा किया है। भाषा, शब्द, मुहावरा, बिम्ब, प्रतीक और प्रयोगों द्वारा उसमें व्याप्त समस्याओं को परोसा ही नहीं है, अपितु गम्भीरतर प्रश्नों के रूप में प्रस्तुत किया है।
संकलन के अंतिम ९ गीतों में उठाए गए मूल्यगत प्रश्न परिचर्चा में वरीयता पर आवश्यक हैं। यथा; सड़क पर बसेरा, कचरा उठा हँस पड़ी जिंदगी, सड़क पर होती फिरंगी सियासत, जमूरा-मदारी का खेल, सड़क पर सोते लोगों को गाड़ी से कुचलना, सड़क विस्तार के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, लव जिहाद, नाचती बारात, हिंसा-वारदात, एम्बुलेंस को रास्ता न देना, सड़क पर गड्ढे, अतिक्रमण, पंचाट, प्यासा राहगीर, सरपट भागती गाड़ियाँ, कालिख हवा में डामल से ज्यादा इत्यादि। नव गीतकार सड़क और भवन निर्माण तकनीक में पारंगत अभियंता है और निर्माण के महत्वपूर्ण तत्वों, रागों, धुनों और सुरों के साथ प्रयुक्त शब्दावलियों को विस्तार से प्रस्तुत करता है। इस उद्यम में अनुभूत वेदना की व्यंजना से रचनात्मकता प्रभावित हुई जान पड़ती है। इतने पर भी नव गीतकार के शिल्प की विशेषता यह है कि उसने वेदना कि तीव्र आवृतियों को आत्मसात किया। अध्ययन-अध्यापन, गहन-चिंतन, विचार-मंथन उपरांत जो परिष्कृत रूप प्रस्तुत किया है, वह भिन्न है। बिंबों, प्रतीकों और मिथकों के सहारे सड़क पर चलता नव गीत-गायक, जब अपनी बात कहता है तो सीधे पाठकों-श्रोताओं के दिल को छू लेती है-
’मरा’ नाम जप ‘राम’ पा रहे (सड़क पर- ६ पृ/९२ )
उस पर यह तुर्रा है खुद को
हम बुद बुद गुब्बारे हैं। -(दिशाहीन बंजारे-पृ/७२ )
यद्यपि दोराहे, तिराहे और चौराहे पर उपजता मति-भ्रम, सड़क के किनारे योगियों की भाँति साधना रत ट्रेफिक-सिग्नल और मील के पत्थर, सेतु, सुरंग और फ्लाई-ओवर जैसे सड़क-सत्य, कवि की ड्योढ़ी पर खड़े प्रतीक्षा करते रहे कि काश! उन्हें भी इन गीतों में स्थान मिलता।
नव गीतकार सलिल का पूर्व नवगीत-संग्रह ‘संक्रांति काल’ पर केंद्रित रहा, जिसमें सूर्य के विभिन्न रूप, विभिन्न स्थितियाँ और विभिन्न भूमिकाओं को स्थान मिला, वह चाहे बबुआ सूरज हो या जेठ की दुपहरी में पसीना बहाता मेहनतकश सूर्य हो या शाम को घर लौटता, थका, अलसाया या काँखता-खाँसता सूरज उसकी तपिश, उसका तेज, उसका औदार्य, उसका अवदान, उसकी उपयोगिता सभी वर्ण्य विषय थे। समीक्ष्य-संग्रह में भी बाल सूर्य को बिम्बित किया गया है, खग्रास का सूर्य भी है, वैशाख-जेठ की तपिश के बाद वर्षाकाल आता है।
वर्षा आगमन की सूचना के साथ ही गीतकार की बाँछें खिल जातीं हैं, उसका मन मयूर नाचने लगता है। प्रकृति के लजीले-सजीले श्रंगार के साथ वह नए-नए बिम्ब तलाशता है। काले मेघों का गंभीर घोष, उनका झरझरा कर बरसना, बेडनी सा नृत्य करती बिजली, कभी संगीतकार कभी उद्यमी की भूमिका में दादुर, चाँदी से चमकते झरने, कल-कल बहती नदियाँ, उनका मरजाद तोड़ना, मुरझाए पत्तों को नवजीवन पा जाना और इन सबसे इतर वर्षागमन से गरीब की जिंदगी में आई उथल-पुथल सभी उनके केनवास पर उकेरे सजीव चित्र हैं। हाँ! इनमें अतिवृष्टि और अनावृष्टि की विसंगति भी दृष्टव्य होती है, परंतु जीवनदायिनी प्रकृति के सौन्दर्य के समक्ष क्षणिक दुखों या आवेगों को अनदेखा किया गया है।
फिर मेघ बजे/ठुमक बिजुरिया
और यहीं से नव गीतकार की चिंता तथा चिंतन शुरू होता है। सही भी है। जब, दसों दिशाओं में श्रम जयकारा गूँज रहा हो, तो वह (मजदूर) दाने-दाने का मोहताज क्यों ? उसके श्रम का अपेक्षित भुगतान क्यों नहीं होता? उसे मूलभूत-सुविधाएं मुहैया क्यों नहीं होतीं? अपने ही देश में मजदूर, प्रवासी-अप्रवासी क्यों?
रहते हैं क्यों खाली खाली?
सदा बताशा।(चूल्हा झाँक रहा-पृ ३९)
देशज संस्कार, विशेषकर जन्म, अन्नप्राशन और विवाह में ‘बताशा’ प्रचलित मिष्ठान है, इसकी विशेषता है कि वह मुँह में रखते ही घुल जाता है परंतु उसका स्वाद लंबे समय तक रहता है, बिल्कुल बुंदेलखंड की 'गुलगुला' मिठाई जैसा। कुछ और-प्रसंग जो निर्माण (सड़क, भवन इत्यादि) से जुड़े कुशल, अर्ध कुशल और अकुशल मजदूरों के सपनों को स्वर देते हैं, उनकी व्यथा-कथा बखानते हैं, उन्हें ढाढ़स बँधाते हैं, उनके जख्मों पर मल्हम लगाते हैं, उनके श्रम-स्वेद का मूल्यांकन करते हैं, उन्हें संघर्ष करने तथा विकास का आधार बनने का वास्ता देते हैं। इन नवगीतों में प्रतिलोम-प्रवास (मजदूरों की घर-वापसी) का मुद्दा भी प्रतिध्वनित होता है,
ठिठका- ठिठका। -(महका-महका पृ/४२ )
नजर नजर से मिली भली -(मन भावन सावन-पृ/२६ )
परंतु यहीं गीतकार “होईहि सोई जो राम रची राखा” की दुहाई देता है---
सिर्फ फिसलन। -(पग की किस्मत पृ/६३)
और, दिलासा देते हुए कहता है,
थक मत, रुक मत, झुक मत, चुक मत
नहीं पलटना।(पग की किस्मत –पृ/६३ )
और यहाँ अन्योक्ति में अपनी बात कहता है,
रिश्तों में दुःख पीड़ा खोते
सुखमय सारी बातें होंगी। -(कहा किसी ने-पृ/६२)
और सड़क पर गुजरती जिंदगी के मानी समझाता है,
अक्षर, शब्द, वाक्य पुस्तक पढ़
तुझे सफलता पाना है। (जिंदगी के मानी-पृ/४८ )
वर्तमान की विद्रूपताओं, विषमताओं को देखकर कवि व्यथित है, स्वाभाविक है इन परिस्थितियों में उसकी लेखनी अमिधात्मकता से हटकर व्यंजनात्मकता और लाक्षिणकता का दामन थाम लेती है, जिसमें व्यवस्था के प्रति व्यंग्य भी होता है और विद्रोह भी-
फँस पछताए जन्म गवाए। -(सारे जग में---पृ/६४)
कहो जनमत का यहाँ कुछ मोल है?
कर रहा है न्याय अंधा ले तराजू
व्यवस्था में हर कहीं बस झोल है
मौन हो अर्थात सहमत बात से हो
मान लेता हूँ कि आदम जात से हो ( बिक रहा ईमान पृ/६५ )
कवि आश्चर्य करता है कि, मानव तो निशिदिन (आठों प्रहर) मनमानी करता है, अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने कि नादानी करता है, यहाँ तक कि वह प्रकृति को भी ‘रुको’ कहने का दु:साहस करता है, समर्थ सहस्त्रबाहु की तरह, विशाल विंध्याचल की तरह दंभ से, अभिमान से, उसे रोकने का प्रयास करता है, कभी बाँध बनाकर नदी-प्रवाह को रोकने का प्रयास करता है तो कभी जंगलों कि अंधाधुंध कटाई कर, पहाड़ों को दरका कर/ धरती को विवस्त्र करने का प्रयत्न करता है-जिसका परिणाम होता है,
सौ सुनार की मनुज चलता चाक है
दैव एक लुहार की अब जड़ रहा
कि निकली जान है। -(बिक रहा ईमान—पृ६६)
नवगीतकार सलिल ने मध्यवर्गीय शहरी घुटन, निरीहता, असहायता, बिखराव, विघटन, संत्रास को स्वर तो दिया है उसमें सड़क पर जी रहे निम्न वर्गीय तबके (दबे-कुचले, पीड़ित—वंचितों, मजबूर-मजदूरों) के दुःख-दर्द, बेकारी, भूख, उत्पीड़न को भी मुखरित किया है। इसमें विशेषकर मूर्त-बिम्बों को प्रयोग किया है, जो आदमी के न केवल करीब हैं, बल्कि उनके बीच के हैं।
अपने नव गीतों में दोहा, जनक, सरसी, भजंगप्रयात और पीयूषवर्ष आदि छंदों को स्थान देकर कवि ने गीतों की गेयता सुनिश्चित कर ली है, जिसमें लय, गति, यति भी स्थापित हो गई है। कथ्य की स्पष्टता के लिए सहज, सरल और सरस हिन्दी का प्रयोग किया है। संस्कृत के सहज व्यवहृत तत्सम शब्दों यथा, पंचतत्व, खग्रास, कर्मफल, अभियंता, कारा, निबंधन, श्रमसीकर, वरेण्य, तुहिन, संघर्षण का प्रशस्त प्रयोग किया है। कुछ देशजशब्द जो हमारे दैनिक व्यवहार में घुल-मिल गए हैं जैसे कि- उजियारा, कलेवा, गुजरिया, गैल, गुड़ की डली, झिरिया, हरीरा, हरजाई आदि से कवि ने हिन्दी भाषा का श्रंगार किया और उसे समृद्धि प्रदान की है। अंग्रेजी तथा अरबी-फारसी के प्रचलित विदेशज शब्दों का भी अपने नव गीतों में बखूबी प्रयोग किया है जैसे- डायवर, ब्रेड-बटर-बिस्किट, राइम, मोबाइल, हाय, हेलो, हग (चूमना) और पब (शराबखाना) तथा आदम जात अय्याशी, ईमान, औकात, किस्मत, जिंदगी, गुनहगार, बगावत, सियासत और मुनाफाखोर। भाषिक-सामर्थ्य के साथ गीतकार ने मुहावरों-कहावतों-लोकोक्तियों का यथारूप या नए परिधान में पिरोकर प्रयुक्त किया है जैसे, लातों को जो भूत बात की भाषा कैसे जाने, ढाई आखर की सरगम सुन, मुँह में राम बगल में छुरी, सीतता रसोई में शक्कर संग नोन, माँ की सौं, कम लिखता हूँ बहुत समझना, कंकर से शंकर बन जाओ, चित्रगुप्त की कर्म तुला है(नया मुहावरा), जिनकी अर्थपूर्ण उक्तियाँ पढ़ने-सुनने वालों के कानों में रस घोलती हैं। छंद-शास्त्री सलिल की रस और अलंकारों पर भी अच्छी पकड़ है, उनके संग्रहित गीतों में शब्दालंकारों (अनुप्रास, यमक) और अर्थालंकारो (उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, अन्योक्ति) का सुंदर प्रयोग किया है। प्रभावी सम्प्रेषण के लिए कबीर जैसी उलट बाँसियों का प्रयोग किया है,
नदिया का जल ठहरा (सागर उथला पृ/५४ )
पुनरोक्ति-प्रकाश अलंकार के अंतर्गत पूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- टप-टप, श्वास-श्वास, खों-खों, झूम- झूम, लहका-लहका कण-कण, टपका-टपका तथा अपूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- छली-बली, छुई-मुई, भटकते-थकते, घमंडी-शिखंडी, तन-बदन, भाषा-भूषा शब्दों के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है। वहीं पदमैत्री अलंकार के तहत कुछ सहयोगी शब्द जैसे- ढोल-मजीरा, मादल-टिमकी, आल्हा-कजरी, छाछ-महेरी, पायल-चूड़ी, कूचा-कुलिया तथा विरोधाभास अलंकार युक्त शब्द युग्म जैसे- धूप-छाँव , सत्य-असत्य, क्रय-विक्रय, जीवन-मृत्यु, शुभ-अशुभ, त्याग-वरण का नवगीतों में प्रभावी-प्रयोग है।
इन नव गीतों में “इलाहाबाद के पथ पर तोड़ती पत्थर”(तोड़ती पत्थर) तथा
“वह आता, पछताता, पथ पर जाता”(भिक्षुक) के भाव व स्वर झंकृत होते हैं। क्यों(?) न हों,महाकवि निराला ही तो वे आदि-गीतकार हैं जिन्होंने पहले-पहले “नव गति नव लय, ताल छंद नव” के मधुर घोष के साथ गीत की कोख से नवगीत के उपजने का पूर्व संकेत दे दिया था।
इसे नवगीतकार की सर्जन-प्रक्रिया कहें या उसके सर्जनात्मक अवदान की सम्यक-समझ अथवा उसका व्यंजनात्मक-कौशल, जिसने जड़ में भी चेतना का संचार किया, वरना सड़क कहाँ जाती है? वह तो जड़वत है, अचलायमान है, उसके न पैर हैं न पहिये, हाँ! उस पर पाँव-पाँव चलकर या हल्के/भारी वाहन दौडाकर अपने गंतव्य तक अवश्य पहुँचा जा सकता है। ‘ऊँघ रहा है सतपुड़ा/लपेटे मटमैली खादी’ (ओढ़ कुहासे की पृ/६३) में सतपुड़ा का नींद में ऊँघना या झोंके लेना उसका मानवीकरण (मानव-चेतना) है। वहीं ‘लड़ रहे हैं फावड़े गेंतियाँ’ (वही नेह नाता पृ/७८) में श्रमजीवियों की संघर्ष-चेतना दृष्टव्य है। ‘हलधर हल धर शहर न जाएं’ का यमक, ‘सूर्य अंगारों की सिगड़ी’ दृश्य चेतना, ‘इमली कभी चटाई चाटी’ में स्वाद-चेतना तथा ‘पथवारी मैया’ में लोक-चेतना के साथ–साथ दैवीय स्वरूप के दर्शन होते हैं। सड़क के पर्याय वाची शब्दों के प्रयोग में सलिल जी का अभियांत्रिकीय-कौशल सुस्पष्ट दिखाई देता है।
नव गीतों में गीतकार ने अपने उपनाम (सलिल) का उम्दा-उपयोग किया है। यदि सम्पादन तथा मुद्रण की भूलों को अनदेखा कर दिया जाए तो यह एक स्तरीय और संग्रहणीय संकलन है। अंत में, सुप्रसिद्ध समीक्षाकार राजेंद्र वर्मा के स्वर-से-स्वर मिलाते हुए कहना चाहूँगा कि “इन गीतों में वह जमीन तोड़ने की कोशिश की गई है जो पिछले २०-२५ वर्षों से पत्थर हो गई है उसके सीलने, सौंधेपन, पपड़ाने जैसे गुण नष्ट हो गए हैं, उस भूमि में अंकुरण की संभावना न्यून है।“ फिर भी वह(गीतकार सलिल) मिट्टी पलटा रहा है, फसल-चक्र बदलने का प्रयास कर रहा है।
सलिल के गीतों-नवगीतों का मूल्यांकन किसी एक पैमाने से करना संभव नहीं है मूल्यांकन के मापदंड व्यक्ति और कृति के अनुसार बदलते रहते हैं। क्या शंभूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, रामसनेही लाल ‘यायावर’, राधेश्याम बंधु, वीरेंद्र ‘आस्तिक’ के व्यक्तित्व, सृजन या लोक दर्शन में कोई एकरूपता या समरूपता परिलक्षित होती है, नहीं! कदापि नहीं! मेरी निजी मान्यता है कि “सलिल सलिल सम जान” यानि, ‘सलिल’ को सलिल के निकष पर कसा जाना उचित और न्यायसंगत होगा। एक बात-और, आज के अधिकांश नव गीतकार अध्ययन करने से कतराते हैं वे सिर्फ और सिर्फ अपना लिखा-पढ़ा ही श्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन संजीव सलिल इसके अपवाद हैं। उनकी भाषा और साहित्य पर अच्छी पकड़ है। अध्येता-आचार्य होते हुए भी वे अपने आपको एक विद्यार्थी के रूप में देखते हैं।
गीतकार संजीव वर्मा ‘सलिल’ के इस संग्रह (सड़क पर)के नवगीतों की
रचनाशीलता युग-बोध और काव्य-तत्वों के प्रतिमानों की कसौटी पर प्रासंगिक है। इनमें अपने आसपास घटित हो रहे अघट को उद्घाटित तो किया ही है, उनकी अभिव्यक्ति एक सजग अभियंता-कवि के रूप में प्रतिरोध करती दिखाई देती है। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि आचार्य सलिल आज के नवगीतकारों से पृथक परिवेश और साकारात्मक-सामाजिक बदलाव के पक्षधर नव गीतकार हैं।
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सुरेन्द्र सिंह पँवार/ संपादक-साहित्य संस्कार/ २०१, शास्त्री नगर, गढ़ा, जबलपुर (मध्य प्रदेश)
९३००१०४२९६ /७०००३८८३३२/ email pawarss2506@gmail-com
कृति—सड़क पर (गीत-नवगीत संग्रह) / नवगीतकार –आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’/प्रकाशक-
विश्ववाणी हिन्दी संस्थान, समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर/ मूल्य- २५०/- मात्र