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गुरुवार, 31 मार्च 2011

सामयिक गीत: राम जी मुझे बचायें.... --संजीव 'सलिल'

सामयिक गीत:
राम जी मुझे बचायें....
-- संजीव 'सलिल'
*
राम जी मुझे बचायें....

एक गेंद के पीछे दौड़ें ग्यारह-ग्यारह लोग.
एक अरब काम तज देखें, अजब भयानक रोग..
राम जी मुझे बचायें,
रोग यह दूर भगायें....
*
परदेशी ने कह दिया कुछ सच्चा-कुछ झूठ.
भंग भरोसा हो रहा, जैसे मारी मूठ..
न आपस में टकरायें,
एक रहकर जय पायें...
*
कड़ी परीक्षा ले रही, प्रकृति- सब हों एक.
सकें सीख जापान से, अनुशासन-श्रम नेक..
समर्पण-ज्योति जलायें,
'सलिल' मिलकर जय पायें...
*

ग़ज़ल एक परिचय: त्रिलोक राज कपूर

ग़ज़ल एक परिचय: त्रिलोक राज कपूर

हमारी सहयोगी साईट  ओपन बुक्स ऑनलाइन में ग़ज़ल लेखन पर केन्द्रित लेखमाला के प्रथम ४ अंशों का सार साभार प्रस्तुत है. पाठक इसे पढ़कर लाभ ले सकें यही अभीष्ट है. हम आभारी हैं श्री तिलकराज कपूर और ओबीओ के.

ग़ज़ल- एक पूर्ण ग़ज़ल में मत्‍ला, मक्‍ता और 5 से 11 शेर (बहुवचन अशआर) प्रचलन में ही हैं। यहॉं यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि किसी ग़ज़ल में सभी शेर एक ही विषय की निरंतरता रखते हों तो एक विशेष प्रकार की ग़ज़ल बनती है जिसे मुसल्‍सल ग़ज़ल कहते हैं हालॉंकि प्रचलन गैर-मुसल्‍सल ग़ज़ल का ही अधिक है जिसमें हर शेर स्‍वतंत्र विषय पर होता है। ग़ज़ल का एक वर्गीकरण और होता है मुरद्दफ़ या गैर मुरद्दफ़। जिस ग़ज़ल में रदीफ़ हो उसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं अन्‍यथा गैर मुरद्दफ़।

बह्र- ग़ज़ल किसी न किसी बह्र पर आधारित होती है और किसी भी ग़ज़ल के सभी शेर उस बह्र का पालन करते हैं। बह्र वस्‍तुत: एक लघु एवं दीर्घ मात्रिक-क्रम निर्धारित करती है जिसका पालन न करने पर शेर बह्र से बाहर (खारिज) माना जाता है। यह मात्रिक-क्रम भी मूलत: एक या अधिक रुक्‍न (बहुवचन अर्कान) के क्रम से बनता है।

रुक्‍न- रुक्‍न स्‍वयं में दीर्घ एवं लघु मात्रिक का एक निर्धारित क्रम होता है, और ग़ज़ल के संदर्भ में यह सबसे छोटी इकाई होती है जिसका पालन अनिवार्य होता है। एक बार माहिर हो जाने पर यद्यपि रुक्‍न से आगे जुज़ स्‍तर तक का ज्ञान सहायक होता है लेकिन ग़ज़ल कहने के प्रारंभिक ज्ञान के लिये रुक्‍न तक की जानकारी पर्याप्‍त रहती है। फ़ारसी व्‍याकरण अनुसार रुक्‍न का बहुवचन अरकान है। सरलता के लिये रुक्‍नों (अरकान) को नाम दिये गये हैं। ये नाम इस तरह दिये गये हैं कि उन्‍हें उच्‍चारित करने से एक निर्धारित मात्रिक-क्रम ध्‍वनित होता है। अगर आपने किसी बह्र में आने वाले रुक्‍न के नाम निर्धारित मात्रिक-क्रम में गुनगुना लिये तो समझ लें कि उस बह्र में ग़ज़ल कहने का आधार काम आसान हो गया।

रदीफ़-आरंभिक ज्ञान के लिये यह जानना काफ़ी होगा कि रदीफ़ वह शब्‍दॉंश, शब्‍द या शब्‍द-समूह होता है जो मुरद्दफ़ ग़ज़ल के मत्‍ले के शेर की दोनों पंक्तियों में काफि़या के बाद का अंश होता है। रदीफ़ की कुछ बारीकियॉं ऐसी हैं जो प्रारंभिक ज्ञान के लिये आवश्‍यक नहीं हैं, उनपर बाद में उचित अवसर आने पर चर्चा करेंगे।
गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल में रदीफ़ नहीं होता है।

काफि़या-आरंभिक ज्ञान के लिये यह जानना काफ़ी होगा कि काफिया वह तुक है जिसका पालन संपूर्ण ग़ज़ल में करना होता है यह स्‍वर, व्‍यंजन अथवा स्‍वर और व्‍यंजन का संयुक्‍त रूप भी हो सकता है।

शेर- शेर दो पंक्तियों का मात्रिक-क्रम छंद होता है जो स्‍वयंपूर्ण पद्य-काव्‍य होता है अर्थात् हर शेर स्‍वतंत्र रूप से पूरी बात कहता है। शेर की प्रत्‍येक पंक्ति को ‘मिसरा’ कहा जाता है। शेर की पहली पंक्ति को मिसरा-ए-उला कहते हैं और दूसरी पंक्ति को मिसरा-ए-सानी कहते हैं। शेर के दोनों मिसरे निर्धारित मात्रिक-क्रम की दृष्टि से एक से होते हैं। जैसा कि उपर कहा गया शेर के मिसरे का मात्रिक-क्रम किसी न किसी ‘बह्र’ से निर्धारित होता है।
यहॉं एक स्‍वाभाविक प्रश्‍न उठता है कि क्‍या कोई भी दो पंक्तियों का मात्रिक-क्रम-छंद शेर कहा जा सकता है? इसका उत्‍तर है ‘जी नहीं’। केवल मान्‍य बह्र पर आधारित दो पंक्ति का छंद ही शेर के रूप में मान्‍य होता है। यहॉं यह स्‍पष्‍ट रूप से समझ लेना जरूरी है कि किसी भी  ग़ज़ल में सम्मिलित सभी शेर मत्‍ला (ग़ज़ल का पहला शेर जिसे मत्‍ले का शेर भी कहते हैं) से निर्धारित बह्र, काफिया व रदीफ का पालन करते हैं और स्‍वयंपूर्ण पद्य-काव्‍य होते हैं।
यहॉं एक स्‍वाभाविक प्रश्‍न उठता है कि जब हर शेर एक स्‍वतंत्र पद्य-काव्‍य होता है तो क्‍या शेर स्‍वतंत्र रूप से बिना ग़ज़ल के कहा जा सकता है। इसका उत्‍त्तर ‘हॉं’ है; और नये सीखने वालों के लिये यही ठीक भी रहता है कि वो शुरुआत इसी प्रकार इक्‍का-दुक्‍का शेर से करें। इसका लाभ यह होता है कि ग़ज़ल की और जटिलताओं में पड़े बिना शेर कहना आ जाता है। स्‍वतंत्र शेर कहने में एक लाभ यह भी होता है कि मत्‍ले का शेर कहने की बाध्‍यता नहीं रहती है।

मत्‍ले का शेर या मत्‍ला- ग़ज़ल का पहला शेर मत्‍ले का शेर यह मत्‍ला कहलाता है जिसकी दोनों पंक्तियॉं समतुकान्‍त (हमकाफिया) होती हैं और व‍ह तुक (काफिया) निर्धारित करती हैं जिसपर ग़ज़ल के बाकी शेर लिखे जाते हैं)। मत्‍ले के शेर में दोनों पंक्तियों में काफिया ओर रदीफ़ आते हैं।
मत्‍ले के शेर से ही यह निर्धारित होता है कि किस मात्रिक-क्रम (बह्र) का पूरी ग़ज़ल में पालन किया जायेगा।
मत्‍ले के शेर से ही रदीफ़ भी निर्धारित होता है।
ग़ज़ल में कम से कम एक मत्‍ला होना अनिवार्य है।

हुस्‍ने मतला और मत्‍ला-ए-सानी- किसी ग़ज़ल में आरंभिक मत्‍ला आने के बाद यदि और कोई मत्‍ला आये तो उसे हुस्‍न-ए-मत्‍ला कहते हैं। एक से अधिक मत्‍ला आने पर बाद में वाला मत्‍ला यदि पिछले मत्‍ले की बात को पुष्‍ट अथवा और स्‍पष्‍ट करता हो तो वह मत्‍ला-ए-सानी कहलाता है।

मक्‍ता और आखिरी शेर- ग़ज़ल के आखिरी शेर में यदि शायर का नाम अथवा उपनाम आये तो उसे मक्‍ते का शेर या मक्‍ता, अन्‍यथा आखिरी शेर कहते हैं।

तक्‍तीअ- ग़ज़ल के शेर को जॉंचने के लिये तक्‍तीअ की जाती है जिसमें शेर की प्रत्‍येक पंक्ति के अक्षरों को बह्र के मात्रिक-क्रम के साथ रखकर देखा जाता है कि पंक्ति मात्रिक-क्रमानुसार शुद्ध है। इसीसे यह भी तय होता है कि कहीं दीर्घ को गिराकर हृस्‍व के रूप में या हृस्‍व को उठाकर दीर्घ के रूप में पढ़ने की आवश्‍यकता है अथवा नहीं। विवादास्‍पद स्थितियों से बचने के लिये अच्‍छा रहता ग़ज़ल को सार्वजनिक करने के पहले तक्‍तीअ अवश्‍य कर ली जाये।
 *
काफिया 
सभी उदाहरण मैनें आखर कलश पर प्रकाशित गोविन्‍द गुलशन जी की ग़ज़लों से लिये हैं।

एक मत्‍ला देखें:
'दिल में ये एक डर है बराबर बना हुआ
मिट्टी में मिल न जाए कहीं घर बना हुआ'

इसमें 'बना हुआ' तो मत्‍ले की दोनों पंक्तियों के अंत में आने वाले स्‍वतंत्र शब्‍द हैं इसलिये रदीफ़ हुए और हर शेर की दूसरी पंक्ति के अंत में आने आवश्‍यक हैं। अब रदीफ़ से पीछे की तरफ़ लौटें तो देखते हैं कि बराबर और घर दोनों मूल शब्‍द हैं और 'र' पर समाप्‍त हो रहे हैं, ऐसे में यूँ तो आभासित होता है कि 'र' पर समाप्‍त होने वाले शब्‍द काफि़या के रूप में प्रयोग किये जा सकते हैं लेकिन काफि़या में ध्‍वनि का महत्‍व देखें तो 'बराबर' और 'घर' दोनों के अंत में 'अर' ध्‍वनित हो रहा है ऐसे में ग़ज़ल के शेष अशआर में काफि़या के केवल ऐसे शब्‍द आ सकते हैं जिनके अंत में 'अर' ध्‍वनित हो रहा हो। ग़ज़ल में लिये गये शेष काफि़या पत्थर, मंज़र, पर, समंदर हैं।
यहॉं एक बात समझना जरूरी है वह है सिनाद दोष की जो व्‍यंजन पर कायम होने वाले काफिया के पूर्व के स्‍वर के अंतर से उत्‍पन्‍न होता है। उदाहरणस्‍वरूप अगर 'शेर' और 'घर' को मत्‍ले में काफि़या बनाया जाए तो 'अेर' और 'अर' के स्‍वराँतर के कारण सिनाद दोष उत्‍पन्‍न हो जाएगा। यही स्थिति नुक्‍ते के कारण भी पैदा होती है। माई नेम इज़ ख़ान में शाहरुख़ ख़ान इस नुक्‍ते को बार-बार समझाते रहें हैं। 'गान' और 'ख़ान' में 'न' के पूर्व आने वाले 'गा' और 'ख़ा' में स्‍वरॉंतर है। इसी प्रकार अनुनासिक स्‍वर का भी ध्‍यान रखा जाना आवश्‍यक होता है। 'अंदर', 'कलंदर' और 'बंदर' तो ठीक होंगे लेकिन इनके साथ न तो 'मंदिर' स्‍वीकार्य होगा और न ही 'गदर'। ऐसा क्‍यों नहीं हो सकता यह अब आप समझ सकते हैं ऐसा मेरा विश्‍वास है।

अब एक अन्‍य मत्‍ला देखें:
'इधर उधर की न बातों में तुम घुमाओ मुझे
मैं सब समझता हूँ पागल नहीं बनाओ मुझे'

इस मत्‍ले को देखकर अब आप यह तो सरलता से कह सकते हैं कि 'मुझे' रदीफ़ है लेकिन इस मत्‍ले में एक विशेष बात है जिसपर ध्‍यान देना जरूरी है; वह है काफि़या के शब्‍दों 'घुमाओ' और 'बनाओ' में।
दोनों मूल शब्‍द नहीं हैं और बढ़ाकर बनाये गये हैं और इसके अनुसार ऐसे शब्‍द जो बढ़े हुए रूप में 'आओ' देते हैं काफि़या के रूप में प्रयोग में लाये जा सकते हैं। ग़ज़ल में जाओ, बताओ, लाओ और जलाओ काफि़या के रूप में प्रयोग में लाये गये हैं इनके अलावा 'सताओ', 'सजाओ', 'खिलाओ', 'दिखाओ' आदि भी प्रयोग में लाये जा सकते हैं। यहॉं 'खिलाओ', 'दिखाओ' के प्रयोग में आपत्ति क्‍यों नहीं होगी यह सोचने का प्रश्‍न है। एक बार फिर प्रयोग में लाये गये काफि़या के शब्‍दों 'घुमाओ' और 'बनाओ' को देखें तो काफि़या 'ओ' पर स्‍थापित होकर 'आ' से स्‍वर साम्‍य प्राप्‍त कर रहा है और यही प्रकृति 'खिलाओ', 'दिखाओ' शब्‍दों में भी है अत: 'खिलाओ', 'दिखाओ' शब्‍दों में 'खि' और 'दि' तक बात जा ही नहीं रही है। काफि़या के स्‍वर अथवा व्‍यंजन से पूर्व के स्‍वर 'आ' पर काफि़या टिक गया और अब उसे अन्‍य किसी सहारे की ज़रूरत नहीं रही।
अब अगर इसी मत्‍ले के शेर में 'घुमाओ' के साथ 'जमाओ' लिया जाता तो क्‍या स्थिति बनती यह सोचने का विषय है। अनुभवी शायर/ शायरा के लिये तो कठिन न होगा लेकिन इस पर अपने विचार रखते हुए एक चर्चा हो जाये तो समझ में आये कि मेरी बात सही जगह पहुँच भी रही या नहीं।
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यह आलेख काफि़या का हिन्‍दी में निर्धारण और पालन करने की चर्चा तक सीमित है। उर्दू, अरबी, फ़ारसी या इंग्लिश और फ्रेंच आदि भाषा में क्‍या होता मैं नहीं जानता।
पिछले आलेख पर आधार स्‍तर के प्रश्‍न तो नहीं आये लेकिन ऐसे प्रश्‍न जरूर आ गये जो शायरी का आधार-ज्ञान प्राप्‍त हो जाने और कुछ ग़ज़ल कह लेने के बाद अपेक्षित होते हैं।
प्राप्‍त प्रश्‍नों पर तो इस आलेख में विचार करेंगे ही लेकिन प्रश्‍नों के उत्‍तर पर आने से पहले पहले कुछ और आधार स्‍पष्‍टता प्राप्‍त करने का प्रयास करते हैं।  इसके लिये एक और मत्‍ला देखते हैं (यह भी आखर कलश पर प्रकाशित गोविंद गुलशन जी की ग़ज़ल से ही है):
'रौशनी की महक जिन चराग़ों में है
उन चराग़ों की लौ मेरी आँखों में है'
इस ग़ज़ल में शेष काफि़या इस तरह हैं- गुलाबों, दराज़ों, आशियानों, किनारों, प्यालों, रेगज़ारों। इस मत्‍ले को देखते ही कुछ मित्र कह सकते हैं कि 'चराग़ों' और 'ऑंखों' में से बढ़ा हुआ अंश हटा देने से मूल शब्‍द 'चराग़' और 'ऑंख' शेष बचेंगे जो तुक में न होने से मत्‍ला दोषपूर्ण है।
ये जो बढ़ा हुआ अंश हटा कर काफि़या देखने की बात है; यह उतनी सरल नहीं है जितनी समझी जाती है। इसे समझने के लिये शायरी के इल्‍म से काफि़या संबंधी कुछ मूल तत्‍व समझना जरूरी होगा।
एक बात तो यह समझना जरूरी है कि मूल शब्‍द बढ़ता कैसे है।
कोई भी मूल शब्‍द या तो व्‍याकरण रूप परिवर्तन के कारण बढ़ेगा या शब्‍द को विशिष्‍ट अर्थ देने वाले किसी अन्‍य शब्‍द के जुड़ने से। एक और स्थिति हो सकती है जो स्‍वर-सन्धि की है (जैसे अति आवश्‍यक से अत्‍यावश्‍यक)। इन स्थितियों को लेकर काफि़या पर बहुत कुछ कहा गया है लेकिन मूल प्रश्‍न यह है कि काफि़या निर्धारित कैसे हो सकता है और इसमें तो कोई विवाद नहीं कि काफि़या स्‍वर-साम्‍य का विषय है न कि व्‍यंजन साम्‍य का। कुछ ग़ज़लों में जो व्‍यंजन-साम्‍य प्रथमदृष्‍ट्या दिखता है वह वस्‍तुत: स्‍वर-साम्‍य ही है और व्‍यंजन के साथ 'अ' के स्‍वर पर काफिया बनने के कारण व्‍यंजन-साम्‍य दिखता है।
काफि़या से जुड़े अक्षरों में एक तो होता है हर्फ़े-रवी (हिन्‍दी में व्‍यंजन) यानि काफि़या का वह व्‍यंजन जिसके साथ स्‍वर लेते हुए काफि़या निर्धारित किया जाता है। दूसरा होता है हर्फ़े-इल्‍लत यानि स्‍वर। हिन्‍दी में 'अ' 'आ', 'इ', 'ई', 'उ', 'ऊ', 'ए', 'एै', 'ओ', 'औ', 'अं', और 'अ:'  स्‍वर हैं।
सुविधा के लिये कुछ परिभाषायें निर्धारित कर लेते हैं जिससे आलेख में कोई भ्रामक स्थिति न बने। हर्फ़े-रवी को हम नाम दे देते हैं काफि़या-व्‍यंजन, काफि़या-व्‍यंजन के पूर्व आने वाले स्‍वर को हम नाम दे देते हैं पूर्व-स्‍वर और इसी प्रकार काफि़या-व्‍यंजन के पश्‍चात् आने वाले स्‍वर को हम नाम दे देते हैं पश्‍चात्-स्‍वर। एक और परिभाषा यहॉं समझना जरूरी है वह है तहलीली रदीफ़ की। तहलील उर्दू शब्‍द है जिसका अर्थ है विलीन, डूबी हुआ, घुल मिल गया और यह रदीफ़ का वह अंश होती है जो काफि़या के शब्‍द में काफि़या के बाद मौज़ूद हो। अगर काफि़या के शब्‍द में कुछ अंश ऐसा हो जो रदीफ़ का आभास दे तो वह अंश तहलीली रदीफ़ हो जाता है। जैसे 'कल का' और 'तहलका' काफि़या के स्‍थान पर आ रहे हों तो 'तहलका' का 'का' 'तहलका' शब्‍द में विलीन हो जाने के कारण तहलीली रदीफ़ हो जायेगा और 'कल का' में आने वाला 'का' रदीफ़। इस बात को अच्‍छी तरह समझ लेना जरूरी है अन्‍यथा बढ़ाये हुए अंश को लेकर आने वाली बहुत सी स्थितियॉं समझ में नहीं आयेंगी।
यहॉं यह भी समझ लेना जरूरी है कि 'अ' से 'अ:' तक के स्‍वर में 'अ्' व्‍यंजन रूप में उपस्थि‍त है। 'क', 'ख', 'ग' आदि जो भी व्‍यंजन हम देखते हैं उनमें 'अ' पश्‍चात्-स्‍वर के रूप में स्थित है। व्‍यंजन के साथ 'अ' से भिन्‍न स्‍वर आने की स्थिति में काफि़या का निर्धारण काफि़या-व्‍यंजन के साथ पश्‍चात्-स्‍वर लेते हुए अथवा स्‍वतंत्र रूप से केवल पश्‍चात्-स्‍वर पर किया जा सकता है।
उदाहरण के लिये 'नेक', 'केक' में यद्यपि 'न' और 'क' दो अलग व्‍यंजन हैं लेकिन इनपर 'ए' स्‍वर के साथ काफि़या निर्धारित होगा 'अे' स्‍वर और ऐसा करने पर किसी शेर में फेंक नहीं आ सकता क्‍यूँकि 'क' 'अ' स्‍वर का है और उसके पहले के स्‍वर 'ऐ' का ध्‍यान रखा जाना जरूरी है यह ऐं नहीं हो सकता।
चराग़ों, ऑंखों, गुलाबों, दराज़ों, आशियानों, किनारों, प्यालों में स्‍वरसाम्‍य 'ओं' पर स्‍थापित हो रहा है और ऐसे में शायर को यह अधिकार है कि वह मत्‍ले में काफि़यास्‍वरूप केवल स्‍वरसाम्‍य ले (जैसा कि उपर लिये गये गोविन्‍द गुलशन जी के मत्‍ले की ग़ज़ल में लिया गया है)। यदि मत्‍ले के शेर में 'दुकानों', 'आशियानों' काफि़या के शब्‍द लिये जाते हैं तो किसी शेर में 'मकानों' काफि़या लिया जाना ठी‍क होगा लेकिन अगर मत्‍ले में 'दुकानों' के साथ 'मकानों' ले लिया गया तो 'नों' तहलीली रदीफ़ हो जायेगा और काफि़या 'क' व्‍यंजन के साथ 'आ' के स्‍वर पर निर्धारित हो जायेगा। अब अगर मत्‍ले के शेर में 'दवाओं' और 'अदाओं' काफिया के शब्‍द ले लिये गये तो 'ओं' तहलीली रदीफ़ हो जायेगा और काफि़या 'आ' निर्धारित हो जायेगा। अर्थ यह है कि काफि़या में मूलत: दोष जैसा कुछ नहीं होता दोष होता है काफि़या निर्धारण और पालन में। जिस ईता दोष का प्रश्‍न उठाया गया है वह काफि़या के निर्धारण अथवा पालन में त्रुटि के कारण होता है।
अब एक उदाहरण लेते हैं 'नज़र' और 'क़मर' का (अभी ज़ के नुक्‍ते को छोड़ दें, वरना अनावश्‍यक रूप से एक ऐसे विषय में उतर जायेंगे जो हिन्‍दी में महत्‍व नहीं रखता है)। 'नज़र' और 'क़मर' में 'अ' के स्‍वर के साथ 'र' काफिया-व्‍यंजन है और यही काफि़या रहेगा। यानि काफि़या में ऐसे शब्‍द आ सकेंगे जो 'र' में अंत होते हों। अगर मत्‍ले के शेर की दोनों पंक्तियों में काफिया-व्‍यंजन के पूर्व समान स्‍वर आ रहे हैं तो इनका पालन सभी अश'आर में करना होगा।
काफि़या की एक मूल आवश्‍यकता और होती है कि यह पूर्ण शब्‍द नहीं हो सकता। पूर्ण शब्‍द होने पर यह काफि़या न होकर रदीफ़ हो जायेगा। ये तो चकरा देने वाली स्थिति पैदा हो रही है लेकिन ये काफि़या का नियम है और इसका पालन किये बिना ग़ज़ल नहीं कही जा सकती है। काफि़या के शब्‍द में कम से कम एक हर्फ़ ऐसा होना आवश्‍यक है जो काफि़या से पहले बचता हो। लेकिन मत्‍ले के शेर में अगर एक काफि़या स्‍वर से प्रारंभ हो रहा हो तो वह संभव है जैसे कि 'आग' और 'जाग'। यहॉं लेकिन यह भी सावधानी आवश्‍यक है कि यदि एक पंक्ति में स्‍वर से काफि़या का शब्‍द आरंभ हो रहा है तो दूसरी पंक्ति में काफि़या के स्‍थान पर ऐसा शब्‍द नहीं आना चाहिये जिसमें सन्धि विच्‍छेद से ऐसा तहलीली रदीफ़ प्राप्‍त हो रहा हो जो स्‍वर से आरंभ होने वाला काफि़या का शब्‍द हो। इसका एक उदाहरण है 'आब' और 'गुलाब' । गुलाब का सन्धि विच्‍छेद गुल्+आब मान्‍य मानते हुए देखें तो एक पंक्ति में 'आब' स्‍पष्‍ट रदीफ़ के रूप में आ जायेगा और देसरी पंक्ति में तहलीली रदीफ़़ के रूप में ऐसी स्थिति में 'आब' काफि़या का शब्‍द नहीं रह जायेगा।
काफि़या के कुछ और उदाहरण देख लेते हैं। जैसे 'करो' और 'मरो' का प्रयोग मत्‍ले में दोषरहित होगा क्‍योंकि इनमें 'रो' अलग करने पर क्रमश: 'क' और 'म' आरंभ में छूट रहे हैं लेकिन काफि़या 'र' व्‍यंजन के साथ 'ओ' स्‍वर पर कायम हो रहा है। इसी प्रकार 'झंकार' एवं 'टंकार' का प्रयोग भी सही रहेगा क्‍योंकि इनमें 'अंकार' अलग करने पर क्रमश: 'झ' और 'ट' आरंभ में छूट रहे हैं लेकिन 'कार' के पहले 'अं' का स्‍वर आ रहा है; वस्‍तुत: इनमें 'कार' तो दोनों पंक्तियों में तहलीली रदीफ़ की हैसियत रखता है।
अब लौटें गोविन्‍द गुलशन जी की ग़ज़ल के मत्‍ले पर जिसमें काफि़या 'ओं' स्‍वर पर बन रहा है। काफि़या स्‍वयं ही स्‍वर पर कायम होने के कारण बढ़ा हुआ अंश हटा देने की बात निरर्थक है। और ऐसे में जो काफि़या के शब्‍द लिये गये हैं वो सही हैं।
हॉं यह अवश्‍य है कि अगर मत्‍ले में 'किताबों' और 'जुराबों' या 'गुलाबों' ले लिया जाता तो काफि़या कायम होता 'आ' के साथ तहलीली रदीफ़ 'बों' और फिर बाकी अश'आर में दराज़ों, आशियानों, किनारों, प्यालों, रेगज़ारों का प्रयोग नहीं हो पाता।

काफि़या पर कैसी-कैसी बहस हो सकती हैं इसके कई उदाहरण आपके पास होंगे, जिनमें तर्क, वितर्क सभी के रूप देखने को मिल जायेंगे। अधिकॉंश को आप पुन: देखेंगे तो पायेंगे असंगत और आधारहीन कुतर्क बहुत दिये जाते हैं। इतना तो आप समझते ही होंगे कि तर्क और वितर्क व्‍यक्ति की समझ पर होते हैं और उसके ज्ञान के स्‍तर पर निर्भर रहते हैं लेकिन कुतर्क के लिये न तो समझ की जरूरत होती है और न ही ज्ञान की; बस एक हठ पर्याप्‍त रहता है। मेरा विशेष निवेदन है कि कहीं अगर आप काफि़या की बहस में उलझ जायें तो निराधार बहस में न पड़ें, तर्क-वितर्क तक सीमित रहें, कुतर्क न दें। ज्ञान तभी सार्थक है जब विनम्रता से तर्क-वितर्क रखता हो और त्रुटि होने पर सहज स्‍वीकार की स्थिति बने।
अब मैं गोविन्‍द गुलशन जी की कुछ और ग़ज़लों से मक्‍ते और प्रयोग में लाये गये काफि़या दे रहा हूँ जिससे इस विषय को समझने में सरलता रहे।
'लफ़्ज़ अगर कुछ ज़हरीले हो जाते हैं
होंठ न जाने क्यूँ नीले हो जाते हैं'
इसके साथ बतौर काफि़या बर्छीले, गीले, दर्दीले, ख़र्चीले, रेतीले, पीले उपयोग में लाये गये हैं।

'ग़म का दबाव दिल पे जो पड़ता नहीं कभी
सैलाब आँसुओं का उमड़ता नहीं कभी'
इसके साथ बतौर काफि़या बिछड़ता, उखड़ता, पड़ता, उमड़ता उपयोग में लाये गये हैं।

सम्हल के रहिएगा ग़ुस्से में चल रही है हवा
मिज़ाज गर्म है मौसम बदल रही है हवा
इसके साथ बतौर काफि़या पिघल, मुसलसल, टहल, चल, मचल उपयोग में लाये गये हैं।

'इक चराग़ बुझता है इक चराग़ जलता है
रोज़ रात होती है,रोज़ दिन निकलता है'
इसके साथ बतौर काफि़या टहलता, निकलता, बदलता, चलता, जलता उपयोग में लाये गये हैं।
और एक ख़ास ग़ज़ल से जिसमें दो रदीफ़ और दो काफि़या प्रयोग में लाये गये हैं।
'उसकी आँखों में बस जाऊँ मैं कोई काजल थोड़ी हूँ
उसके शानों पर लहराऊँ मैं कोई आँचल थोड़ी हूँ
इस ग़ज़ल में 'मैं कोई' तथा 'थोड़ी हूँ' के साथ बतौर काफि़या बहलाऊँ  तथा पागल, जाऊँ तथा पीतल, पाऊँ तथा पल, मचाऊँ तथा पायल, उपयोग में लाये गये हैं।

एक प्रश्‍न यह उठ सकता है कि मैनें गोविन्‍द गुलशन जी की ग़ज़लों से ही उदाहरण कयों लिये इसलिये मैं यह बताना आवश्‍यक समझता दूँ कि आखर कलश पर दी गयी जानकारी के अनुसार गोविन्‍द गुलशन जी को काव्य-दीक्षा गुरुवर कुँअर बेचैन /गुरु प्रवर कॄष्ण बिहारी नूर ( लख्नवी ) के सान्निध्य में प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और इसका प्रभाव आप स्‍पष्‍ट रूप से उनकी ग़ज़लों में देख सकते हैं.
ग़ज़ल में काफि़या और रदीफ़ के निर्वाह को और अधिक स्‍पष्‍टता से समझने के लिये आप उनकी और ग़ज़लें www.kavitakosh.org/govindgulshan पर पढ़ सकते हैं।
अब आते हैं प्रश्‍नोत्तर पर
पिछली बार मैनें एक प्रश्‍न उठाया था कि अगर मत्‍ले के शेर में 'घुमाओ' के साथ 'जमाओ' लिया जाता तो क्‍या स्थिति बनती। इस पर मिश्रित प्रतिक्रिया प्राप्‍त हुई है। इस में वस्‍तुत: काफि़या कायम हो रहा है हर्फ़े रवी 'म' के साथ बाद में आने वाले स्‍वर 'आ' पर अत: इसमें ऐसे शब्‍द काफि़या के रूप में उपयोग में लाये जा सकते हैं जो 'माओ' पर समाप्‍त हो रहे हों। चूँकि काफिया-व्‍यंजन 'म' के साथ बाद में 'आ' का स्‍वर है हमें 'म' के पहले के स्‍वर को काफि़या दोष के संदर्भ में देखने की कोई आवश्‍यकता नहीं है। 'घुमाओ' और 'जमाओ' का 'ओ' तो वस्‍तुत: तहलीली रदीफ़ है।
अब यह तो समझ में आ सकता है कि 'मिटो' और 'पिटो' मत्‍ले में ले लेने से काफि़या 'टो' के पूर्व 'इ' के साथ बन रहा है अत: अन्‍य शेर में 'सटो' नहीं लिया जा सकेगा जबकि मत्‍ले में 'सटो' और 'मिटो' ले लिया जाता तो काफि़या सिर्फ 'टो रह जाता और अन्‍य शेर में 'मिटो' भी लिया जा सकता है।
मुझे लगता है राजीव के प्रश्‍न का उत्‍तर भी इसमें मिल गया है। मिला या नहीं?
'दुआओं' और 'राहों' में ईता दोष नहीं है अगर आप यह देखें कि दुआअ्+ओं और राह्+ओं में काफि़या ओं पर स्‍थापित हो रहा है और ये 7-अप फ़ंडा है, सीधी-सादी बात सीधी सादे तरीके से, वरना उलझे रहें बढ़े हुए अंश, बढ़े हुए अंश के व्‍याकरण भेद, मूल शब्‍द आदि में।
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काफि़या या तो मूल शब्‍द पर निर्धारित किया जाता है या उसके योजित स्‍वरूप पर। पिछली बार उदाहरण के लिये 'नेक', 'केक' लिये गये थे जिनमें सिद्धान्‍तत: मूल शब्‍द के अंदर नहीं घुसना चाहिये काफि़या मिलान के लिये और काफि़या 'क' पर निर्धारित मानना चाहिये लेकिन फिर भी हमने 'न' और 'क' पर 'ए' स्‍वर के साथ काफि़या निर्धारिण की स्थिति देखी। और यह देखा कि ऐसा करने पर किसी शेर में फेंक नहीं आ सकता क्‍यूँकि 'क' के पूर्व-स्‍वर 'ऐ' का ध्‍यान रखा जाना जरूरी है यह ऐं नहीं हो सकता और अगर ऐसा किया जाता है तो यह एक गंभीर चूक मानी जायेगी जिसे बड़ी ईता या ईता-ए-जली कहा जाता है। अत: एक सुरक्षित काफि़या निर्धारण तो यही रहेगा कि मूल शब्‍द के अंतिम व्‍यंजन अथवा व्‍यंजन+पश्‍चात स्‍वर पर काफि़या निर्धारित कर दिया जाये जिससे पालन दोष की संभावनायें कम हों। जैसे 'थका' 'रुका' जो क्रमश: मूल शब्‍द 'थक' और 'रुक' के रूप हैं।
इसका और विस्‍तृत उदाहरण देखें; 'पक' और 'महक' मत्‍ले में काफि़या रूप में लिये जाने से 'पलक', 'चमक', 'चहक' आदि का उपयोग तो शेर में किया जा सकेगा लेकिन मत्‍ले में 'दहक' और 'महक' काफि़या के रूप में ले लेने से सभी काफि़या 'हक' पर समाप्‍त होंगे अन्‍यथा काफि़या पालन में दोष की स्थिति बन जायेगी। काफि़या पालन के दोष गंभीर माने जाते हैं।
एक अन्‍य उदाहरण देखें कि अगर आपने 'बस्‍ते', 'चलते' मत्‍ले में काफि़या के रूप में लिये तो बाकी अश'आर में 'ते' पर काफि़या अंत होगा लेकिन 'ढलते', 'चलते' मत्‍ले में काफि़या के रूप में लिये तो बाकी अश'आर में ऐसे मूल शब्‍द लेने होंगे जो 'ल' पर समाप्‍त होते हों और जिनके अंत में 'ते' बढ़ा हुआ हो।
यहॉं एक बात समझना जरूरी है कि अगर आपने 'ढहते', 'चलते' मत्‍ले में काफि़या के रूप में लिये तो काफि़या में ईता-ए-ख़फ़ी या छोटी ईता का दोष आ जायेगा। इसे समझने की कोशिश करते हैं। हो यह रहा है कि दोनों शब्‍दों में 'ते' मूल शब्‍द पर बढ़ा हुआ अंश है और काफि़या दोष देखने के लिये इसे हटाकर देखने का नियम है जो यह कहता है कि मत्‍ले में काफि़या मूल शब्‍द के स्‍तर पर मिलना चाहिये और ऐसा नहीं हो रहा है तो छोटी ईता का दोष आ जायेगा।  
इसका एक हल यह रहता है कि एक पंक्ति का काफि़या ऐसा लें जो बढ़े हुए अंश पर समाप्‍त हो रहा हो और दूसरी पंक्ति में काफि़या का शब्‍द मूल शब्‍द हो। जैसे कि 'चम्‍पई' और 'ढूँढती' जिसमें 'चम्‍पई' मूल शब्‍द है और 'ढूँढती' है 'ढूँढ' पर 'ती' बढ़ा हुआ अंश। इस उदाहरण में काफि़या होगा 'ई' अथवा इसका स्‍वर स्‍वरूप जैसा कि 'ती' में आया है। अब इसमें आदमी, जि़न्‍दगी आदि सभी शब्‍द काफि़या हो सकते हैं।
एक अन्‍य हल होता है कि काफि़या दोनों पंक्तियों में मूल शब्‍द पर ही कायम किया जाये।
जितना मैनें समझा है उसके अनुसार मत्‍ले में काफि़या निर्धारण में ईता दोष छोटा माना जाता है और अगर मत्‍ले में काफि़या निर्धारण ठीक किया गया है लेकिन उसका सही पालन नहीं किया गया है तो वह दोष गंभीर माना जाता है।
अगर मत्‍ले के शेर में ही बढ़े हुए अंश पर काफि़या निर्धारित किया  जाये तो ईता दोष आंशिक रहकर छोटी ईता या ईता-ए-ख़फ़ी हो जाता है। जबकि मत्‍ले में काफि़या निर्धारण मूल शब्‍द पर किया गया हो लेकिन उसके पालन में किसी शेर में ग़लती हुई हो तो ईता दोष गंभीर होकर बड़ी ईता या ईता-ए-जली हो जाता है।
हिन्‍दी ग़ज़लों में छोटी ईता का दोष बहुत सामान्‍य है और इसे कम लोग पहचान पाते हैं इसलिये इस पर चर्चा कम होती है।
अब लेते हैं प्रश्‍न और उनके उत्‍तर:
१. ईता दोष की परिभाषा क्या हुई? उदाहरण सहित समझाएं.
इसके उदाहरण और विवरण उपर दे दिये गये हैं।
२. अगर 'चिरागों' और 'आँखों' में ईता दोष नहीं है क्योंकि काफिया स्वर का है(ओं का), तो फिर 'दोस्ती' और 'दुश्मनी' में ईता दोष क्यों हुआ? यहाँ भी तो काफिया 'ई' के स्वर पर निर्धारित हुआ.  जो समझ आ रहा है वो यह कि 'चिरागों' और 'आँखों' में केवल शब्दों का बहुवचन किया है और शब्द का मूल अर्थ नहीं बदला है जबकि 'दोस्ती' और 'दुश्मनी' में 'ई' बढ़ाने से शब्द का अर्थ ही बदल गया है. क्या मेरा यह तर्क ठीक है?
अब जब हम काफि़या को समझने का प्रयास कर चुके हैं, दोष पर भी बात कर लेना अनुचित नहीं होगा। 'चिरागों' और 'आँखों' को मत्‍ले में लेना निश्चित् तौर छोटी ईता का दोष है। दोनों के मूल शब्‍द 'चिराग' और 'आँख' मत्‍ले में काफि़या नहीं हो सकते। यही स्थिति 'दोस्ती' और 'दुश्मनी' की है। इनमें भी मूल 'दोस्‍त' और 'दुश्‍मन' मत्‍ले में काफि़या नहीं हो सकते। 
३. 'गुलाब' और 'आब' में अगर दोष है तो 'बदनाम' और 'नाम' के काफियों में दोष क्यों नहीं है?
'नाम' और 'बदनाम' में 'नाम' शब्‍द पूरा का पूरा बदनाम में तहलीली रदीफ़ के रूप में है इसलिये 'नाम' इस प्रकरण में काफि़या नहीं हो सकता।
अब इसे अगर हिन्‍दी के नजरिये से देखें और कहें कि हिन्‍दी में बदनाम एक ही शब्‍द के रूप में लिया गया है तो बाकी काफि़या केवल वही शब्‍द हो सकेंगे जो 'नाम' में अंत होते हैं। जैसे हमनाम, गुमनाम आदि।
4. सिनाद के ऐब पर  पर भी थोड़ा विस्तार से बताएं|
सिनाद दोष मत्‍ले में होने की संभावना रहती है जब काफि़या के मूल शब्‍द में जिस व्‍यंजन पर काफि़या निर्धारित किया जाये वह दोनों पंक्तियों में स्‍वरॉंतर रखता हो।
जैसे 'रुक' और 'थक' में स्‍वरॉंतर है। 'छॉंव' और 'पॉंव' तो ठीक होंगे लेकिन 'पॉंव' और 'घाव' स्‍वरॉंतर रखते हैं।

5. 'झंकार' एवं 'टंकार' का प्रयोग भी सही रहेगा ,,, वस्‍तुत: इनमें 'कार' तो दोनों पंक्तियों में तहलीली रदीफ़ की हैसियत रखता है।
'घुमाओ' और 'जमाओ' का 'ओ' तो वस्‍तुत: तहलीली रदीफ़ है।
इन् दो बात में विरोधाभास दिख रहा है 'झंकार' एवं 'टंकार' में "कार"  तहलीली रदीफ़ है तो 'घुमाओ' और 'जमाओ' में केवल "ओ" क्यों  "माओ" तहलीली रदीफ़ होना चाहिए ?
उत्‍तर:
इसे इस रूप में देखें कि घु और ज तो काफि़या के रूप मे स्‍वीकार नहीं हो सकते; ऐसी स्थिति में काफि़या 'मा' पर स्‍थापित होगा और शायर को हर काफि़या 'माओ' के साथ ही रखना पड़ेगा जबकि 'झंकार' एवं 'टंकार' में 'अं' स्‍वर पर काफि़या मिल रहा है। काफि़या निर्धारण में आपको मत्‍ले की दोनों पंक्तियों में आने वाले शब्‍दों में पीछे की ओर लौटना है और जहॉं काफि़या मिलना बंद हो जाये वहॉं रुक जाना है, इसके आगे का काफि़या-व्‍यंजन और स्‍वर मिलकर काफि़या निर्धारित करेंगे और अगर केवल स्‍वर मिल रहे हैं तो केवल स्‍वर पर ही काफि़या निर्धारित होगा। 
शुद्ध काफि़या की नज़र से देखेंगे तो 'झंकार' एवं 'टंकार' के साथ ग़ज़ल में सभी काफि़या 'अंकार' में अंत होंगे। अगर केवल 'र' पर या 'आर' पर समाप्‍त किये जाते हैं वह पालन दोष हो जायेगा।
6. काफिया और रदीफ़ की चर्चा में बहुत कुछ नयी जानकरी मिली, मेरा प्रश्न है मतले के पहले मिसरे में काफिया में नुक़ता हो बाकी शेरों में भी क्या नुक़ते वाले शब्द आयेंगे या नुक़ते रहित जैसे सज़ा, बजा

उत्‍तर:
यहॉं महत्‍वपूर्ण यह है कि नुक्‍ते से स्‍वर बदल रहा है कि नहीं। बदलता है। ऐसी स्थिति में इस स्‍वर का प्रभाव तो काफि़या पर जा रहा है और काफि़या नुक्‍ते के स्‍वर से व्‍यंजन का घनत्‍व कम होता है उच्‍चारित करके देखें। आपने जो उदाहरण दिये इनमें काफि़या नुक्‍ते के व्‍यंजन के साथ 'आ' स्‍वर पर निर्धारित हो रहा है। 'सज़ा' और शायद आपने 'बज़ा' कहना चाहा है जो त्रुटिवश 'बजा' टंकित हो गया है। अगर 'सज़ा' और 'बज़ा' लेंगे तो नुक्‍ते का पालन करना पड़ेगा। अगर 'सज़ा' और 'बजा'' लेंगे तो नुक्‍ते का पालन नहीं करना पड़ेगा क्‍योंकि फिर 'ज' और 'ज़' में साम्‍य न होने से काफि़या केवल 'ओ' के स्‍वर पर रह जायेगा।

7. झंकार और टंकार में स्वर साम्य है और "अंकार" दोनों में सामान रूप से विद्यमान है इसलिए "अंकार" काफिया होगा पर टंकार और संस्कार में स्वर साम्य तो है पर इस बार केवल "कार" ही उभयनिष्ट है अतः इस दशा में "कार" को ही काफिया के तौर पर लिया जाएगा. इसी तरह आकार और आभार में स्वर साम्य है पर केवल "आर" उभय्निष्ट है अतः "आर" ही काफिया होगा. 
नुक्ते से सावधान रहना बहुत जरूरी है क्योंकि नुक्ते का प्रयोग उर्दू लब्ज़ के मायने भी बदल देता है जैसे अज़ीज़ और अजीज़. यहाँ पहले का अर्थ प्रिय, प्यारा है जब की दूसरे का अर्थ है नामर्द, नपुंसक. हिन्दी में ग़ज़ल लिखते वक्त उर्दू शब्दों का प्रयोग बहुत ही सावधानी से किया जाना चाहिए.
उत्‍तर:
इसमें यह देखना जरूरी है कि झंकार और टंकार स्‍वयंपूर्ण मूल शब्‍द हैं अथवा नहीं। झंकार और टंकार और हुंकार क्रमश: झं, टं और हुं की ध्‍वनि उत्‍पन्‍न करने की क्रिया हैं। संस्‍कार मूल शब्‍द है टंकार के साथ मत्‍ले में काफि़या के रूप में आ सकता है। ब्‍लॉग पर मेरा उत्‍तर अपूर्ण अध्‍ययन पर था। बाद में शब्‍दकोष देखने से स्‍पष्‍ट हुआ।


आभार: ओपन बुक्स ऑन लाइन 

मुक्तिका: हुआ सवेरा -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

हुआ सवेरा

संजीव 'सलिल'
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हुआ सवेरा मिली हाथ को आज कलम फिर.
भाषा शिल्प कथानक मिलकर पीट रहे सिर..

भाव भूमि पर नभ का छंद नगाड़ा पीटे.
बिम्ब दामिनी, लय की मेघ घटा आयी घिर..

बूँद प्रतीकों की, मुहावरों की फुहार है.
तत्सम-तद्भव पुष्प-पंखुरियाँ डूब रहीं तिर..

अलंकार की छटा मनोहर उषा-साँझ सी.
शतदल-शोभित सलिल-धार ज्यों सतत रही झिर..

राजनीति के कोल्हू में जननीति वृषभ क्यों?
बिन पाये प्रतिदान रहा बरसों से है पिर..

दाल दलेंगे छाती पर कब तक आतंकी?
रिश्वत खरपतवार रहेगी कब तक यूँ थिर..

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एक दृष्टि:
एक गेंद के पीछे दौड़ें ग्यारह-ग्यारह लोग.
एक अरब काम तज देखें, बड़ा भयानक रोग.
राम जी मुझे बचाना...

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

पान बनारस वाला: - पूर्णिमा बर्मन.

पान बनारस वाला

पूर्णिमा बर्मन.  

१पूर्निम

खानपान हो, आनबान हो, जान पहचान हो और पान न हो तो ओंठों पर मुस्कान नहीं, पर यह पान बरसों से इमारात में सरकारी आदेश से बंद है। बंद इसलिए कि पान गंदगी फैलाता है। कोनों और स्तंभों के उस सारे सौंदर्य को मटियामेट कर देता है जिस पर यहाँ की सरकार पैसा पानी की तरह बहाती है।

सारी बंदी के बावजूद पान प्रेमी पान ढूँढ लेते हैं और गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते। इस सबसे निबटने के लिए यहाँ के एक प्रमुख अखबार गल्फ़ न्यूज़ ने एक पूरा पन्ना पान के विषय में प्रकाशित किया। साथ ही मुखपृष्ठ पर भी इसका बड़ा बॉक्स और लिंक दिया। पान के लाभ-हानि, स्वास्थ्य पर प्रभाव, पान के तत्व और पान से जुड़ी सांस्कृतिक बातों को इसमें शामिल किया गया। कुछ ऐसे स्थानों के चित्र भी दिए गए जिन्हें पीक थूककर गंदा गया गया है। देखकर लगा जैसे पान सभ्यता का नहीं असभ्यता का परिचायक है।

एक समय था जब पान आभिजात्य का प्रतीक था। यह राज घरानों के दैनिक जीवन में रचा-बसा था। इसमें पड़ने वाले कत्थे, चूने, सुपारी और गुलुकंद स्वास्थ्यवर्धक समझे जाते थे। पान रचे ओंठ सौदर्य का प्रतीक थे एवं पानदान और सरौते का सौदर्य हमारी शिल्प कला की सुगढ़ता को प्रकट करता था। पान पर्वों, गोष्ठियों और विवाह जैसे धार्मिक कृत्यों का आवश्यक अंग होता था। यही नहीं कला और संस्कृति में पानदान और पान की तश्तरी तक का विशेष महत्व था।

अंग्रेजी सभ्यता के सांस्कृतिक हमले से जूझते-जूझते कब पान अपनी रौनक खो बैठा पता ही न चला। न उगालदान साथ लेकर चलने वाले नौकर का ज़माना रहा और न हम स्वास्थ्य और संस्कृति से इसे ठीक से जोड़े रख सके। वह आम आदमी का व्यसन भर बनकर रह गया। अनेक असावधानियों से बचाकर रखते हुए अगर हम पान का संयमित प्रयोग कर पाते तो इसकी शान के कारण विश्व में सम्मानित भी हो सकते थे। लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका।

अखबार में प्रकाशित चित्रों के देखकर दुख हुआ पर उसके विषय में बात करना बेकार है क्यों कि उससे कहीं ज्यादा पीक भारतीय इमारतों के कोनों में देखी जा सकती है।

मज़ेदार बात यह थी कि लगे हुए पान का जो चित्र दिया गया वह उल्टा था- चिकना हिस्सा ऊपर और उभरा हिस्सा नीचे, चिकने हिस्से पर रखे थे- कत्था, चूना और सुपारी। यानी यह पान, पान की शान जानने वाले किसी उस्ताद पनवाड़ी हाथों में नहीं है बल्कि पान की शान से अनजान किसी फोटोग्राफर के नौसिखिये माडल के हाथ में है। इस चित्र को अखबार ने अपने पन्ने की शोभा बढ़ाने के लिये बनवाया होगा। आप भी देखें।
 
                                                                                              साभार: चोंच में आकाश. 

रविवार, 27 मार्च 2011

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथी 103 वर्षीय क्रांतिकारी मोहन लहरी से बातचीत - राजीव रंजन प्रसाद



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साहित्य शिल्पी पर आज क्रांतिकारी भगत सिंह के शहादत दिवस पर प्रस्तुत है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथी क्रांतिकारी मोहन लहरी से बातचीत। यह बातचीत क्रांति के गहरे मायनों को समझने में सहायक है। 
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“गहरे पानी उतरने पर मोती मिलता है” यह कहावत सत्य सिद्ध हुई। बस्तर के इतिहास और इसके वर्तमान परिस्थ्तियों पर आधारित एक उपन्यास लिख रहा हूँ, इसी संदर्भ में जानकारी जुटाने मैं कांकेर पहुँचा था। वहाँ पत्रकार मित्र कमल शुक्ला से मुलाकात हुई। बस्तर के बहुचर्चित मालिक मकबूजा कांड पर मुझे सामग्री चाहिये थी इसके अलावा मैं कांकेर के राजपरिवार से भी मिल कर प्राचीन कांकेर राज्य के अतीत को समझने की कोशिश करना चाहता था। कमल शुक्ला के साथ उनके कार्यालय में लगभग दो घंटे तक मेरे उपन्यास पर चर्चा हुई और यहीं उन्होंने मुझे मोहन लहरी जी के विषय में बताया। मुझे ज्ञात हुआ कि बस्तर राज्य के अंतिम शासक प्रवीर चंद्र भंजदेव के वे लगभग साढे छ: साल तक सलाहकार रहे हैं। पत्थरों और कागजों से इतर मुझे इतिहास का जीवित गवाह मिल गया था। मैं नहीं जानता था कि उनसे मिलना अविस्मरणीय होगा, जीवन की एक उपलब्धि हो जायेगा। कमल शुक्ला अपनी मोटरसाईकल में बैठा कर मुझे उस गेस्टहाउस तक ले आये जहाँ जिला प्रशासन की ओर से मोहन लहरी जी के रहने की व्यवस्था की गयी है। कमल नें रास्ते में मुझे बताया था कि मोहल लहरी क्रांतिकारी रहे हैं और आजादी की लडाई के लिये उन्होंने राजबिहारी बोस, बीडी सावरकर, एमएन राय और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया है।

गेस्ट हाउस से लगभग सौ मीटर पहले ही हमें उतरना पडा। “यही हैं मोहन लहरी” कमल शुक्ला नें मुझे बताया। वयो वृद्ध, झक्क सफेद दाढी, कमर झुक गयी है, हाँथ में एक सर्पाकार छडी, भूरे रंग का कुर्ता, मटमैला पायजामा, कंधे पर सफेद कपडा....वे आहिस्ता आहिस्ता चल रहे थे। मैंने उनके चरण छुवे। मैंने खादी का कुर्ता पहना हुआ था और इस बात नें उन्हें अनोखी खुशी दी थी। “आदमी कुर्ता पायजामा पहनते हैं तो कितने अच्छे लगते हैं..” वे इतने प्रसन्न और सहज हो गये कि उन्होंने अपना एक हाँथ मेरे कंधे पर डाला और दूसरे से हाँथ लाठी टेकते हमें लिये गेस्ट हाउस की ओर बढ चले। मैंने रास्ते में उन्हें अपने आने का प्रायोजन बताया।

गेस्ट हाउस में बाहर की ओर कुर्सियाँ लगी हुई हैं। हम बैठ गये। बातचीत आरंभ करने जैसी कोई औपचारिकता नहीं रह गयी थी। कोई प्रश्न नहीं और कोई परिचर्चा नहीं। उस बरगद के पेड नें जान लिया था कि मुझ परिन्दे की प्यास क्या है। उन्होंने बोलना आरंभ किया तो अगले लगभग एक घंटे वे अतीत के पृष्ठ दर पृष्ठ होलते गये। उनकी आवाज आज भी जोशीली है, कंपन रहित और बुलंद है। उनकी आँखों में सम्मोहन है और व्यक्तित्व में विशालता।

“मेरी उम्र अब एक सौ तीन साल की होने चली है भाई जी...मेरा जन्म 1908 में होशंगाबाद में हुआ था...तब सी. पी एण्ड बरार था उसके बाद में मध्यप्रदेश बना उसके बाद में छतीसगढ बना।” बोलते हुए एक हाँथ से उहोंने अष्टावक्र सदृश्य छडी पकडी हुई थी और दूसरे हाँथ को अपनी बातों की प्रभावी अभिव्यक्ति को दिशा देने के लिये इस्तेमाल कर रहे थे। इसी बीच कमल शुक्ला नें लहरी जी की कुछ तस्वीरें लीं। उनके धाराप्रवाह वक्तव्य में व्यवधान हुआ लेकिन जिन्दादिल लहरी जी को जैसे ही पता चला कि कमल पत्रकार हैं वो चुटकी लेने से बाज नहीं आये “आप लोग फोटो खीच के कहीं छाप देंगे, हम लोग फँस जायेंगे।“ अपनी इस बात पर वे स्वयं भी हँस पडे थे।

इस बीच गेस्ट हाउस से चाय भी आ गयी थी इस लिये मूल विषय से हट कर बाते होने लगी। छतीसगढ के साहित्यिक परिदृश्य पर एकाएक लहरी जी नें तल्ख टिप्पणी की “यहाँ साहित्य पढा किसने है? जो लिख रहे हैं उनकी भाषा और व्याकरण देखो...जबरदस्ती के जोड तोड वाले और बिना समझ वाले कवि और साहित्यकार हो गये हैं।....। बस्तर के राजा का सलाहकार रहा हूँ भाई जी पचास साल पहले। किसी गाँव में वो भेज देते थे कि पूजा है वहाँ सौ रुपये दे देना। मैं जाता था तो लोग खटिया बिछा देते थे और पौआ ला कर रख देते थे कि लो पीयो। इसमें भी साहित्य है भैय्या। पूरा जीवन देखा है मैने यहाँ बस्तर में, छतीसगढ में...लोग यहाँ भात पकाते थे, बच जाता था तो उसमें पानी डाल देते थे जिसको दूसरे दिन खाते थे, इसमें भी इतिहास है यहाँ का। आज आदमी पतलून पहने लगा है तो समझता है हम सभ्य हो गये? इसमें उसको अपना विकास नजर आता है। भाई जी विकास नहीं हो रहा है, विनाश हो रहा है। हमारी संस्कृति पर हमला हो रहा है। विदेशी लोग हमला कर रहे हैं और हमारी संस्कृति को मिटा रहे हैं।“ अंतिम वाक्य कहते हुए उनकी आँखें आग्नेय हो उठी थी। मोहन लहरी की बुलंद आवाज़ में कहे गये इन वक्तव्यों से न केवल सिहरन हुई बल्कि वह उच्च कोटि की सोच भी सामने आयी जिसे लिये आजादी के ये परवाने जान हथेली पर लिये अपना सब कुछ दाँव पर लगाये रहते थे।

“मेरी पत्नी फिलिपिन की रहने वाली थी भाई जी फ्लोरा फ्रांसिस नाम था। सिंगापुर के रेडियो स्टेशन में वो काम करती थीं, अंग्रेजी की एनाउंसर थी। उसके पिताजी मनीला में वायलिन वादक थे। बैंकाक में हमने शादी की थी। उसनें मेरा भाषण सुना तो मुझसे शादी नहीं होने पर जिन्दगी भर कुँवारी रहने की बात अपने परिवार से कह दी। माँ बाप तैयार हो गये। तेरह चौदह साल हमारा साथ रहा। मैं गया था बैंकाक...राजनीतिक काम से घूमता था। रास बिहारी बोस के साथ काम करता था भाई जी। तब मैं जापानी बडी अच्छी बोलता था, मुझे फ्रेंच और जर्मन भाषा भी आती है। अब तो सब भूल गया हूँ, कोई बोलता नहीं है साथ में। वहीं एक पहाडी पर रहता था...आठ टन बारूद का बम गिरा हमारे बंगले पर। मेरी पत्नी और मेरी लडकी के साथ ही मेरा सब कुछ जल गया। लौट के आया, यह सब देखा तो मैं पागल हो गया। कुछ दिनों वही अस्पताल में रहा।...। वहाँ की जो मैट्रोन थी मुझसे पूछती थी अकेले में क्या देखते रहते हो? मैं कहता था बम देखता हूँ और देखता हूँ कि सब कुछ जल गया है, धुँआ उड रहा है।....।"

"मैं जब ठीक हुआ तो नेता जी...सुभाष बाबू नें मुझसे पूछा कि आगे कैसे काम करना चाहते हो। मैंने कहा नेताजी काम तो आपके साथ ही करेंगे और जहाँ रहेंगे वहाँ से आपके लिये ही काम करेंगे। मैं रंगून आ गया। जनरल ऑगसांन के साथ रहा हूँ मैं। वहाँ से मैं ‘वॉयस ऑफ बर्मा’ नाम का पेपर निकालता था।...। पहले मैनें जापान के अखबार नीशि-नीशि के लिए भी पत्रकारिता की है।"

"भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी मैं फोर्टीसेवन में नहीं आ सका, मैं भारत में फोर्टीनाईन में आया था। सेकेंड वर्ल्ड वार के टाईम में जो सडक बनी थी इंडिया, बर्मा और चाईना को जोडती थी। उस से हो कर मैं आया तो हिलगेट जहाँ से बर्मा छूट जाता है और इंडिया शुरु हो जाता है वहाँ पर मुझे पकडने के लिये अठारह-बीस सिपाही आ गये, बन्दूख वाले। तब जवाहर लाल नेहरू का जमाना था। उसके बाद हमको ला कर एक बंग्ले में ठहराया गया। कमरे के बाहर बंदूख ले कर सिपाही खडे हो गये तब मुझे लग गया कि मुझे गिरफ्तार कर लिया गया है। उस एरिया का पोलिटिकल ऑफिसर था सुरेश चन्द्र बरगोहाईं, सबके नाम मुझे याद हैं। तो पॉलिटिकल ऑफिसर बरगोहाईं नें दिल्ली फोन कर दिया कि सुभाष चंद्र बोस के एक साथी आये हैं। हम तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सरकार के मिनिस्ट्री आफ प्रेस पब्लिसिटी एंड प्रोपागेंडा के प्रोग्रामिंग आफिसर थे भाई जी। तो हमे जाने दिया लेकिन सी.आई.डी पीछे लग गयी। मैं जहाँ जाता वहाँ मेरी बात नोट करते। उस समय देवकांत बरुआ नाम के एक एडवोकेट थे और असाम में सेक्रेटरी थे। उनने फिर मदद की। मेरे पास जो विदेशी मुद्रा थी उसको बदलवा कर पाँच हजार रुपये दिये। इस तरह से मैं भारत में आया, फिर कलकता चला गया। वहाँ भी सी.आई.डी से परेशान हो के मैने सीधे नेहरू जी को चिट्ठी लिखी, तब मुझे मुक्ति मिली। इसके बाद नेहरू जी से दार्जलिंग में मेरी मुलाकात हुई। उन्होंने फिर हमको चाईल्ड वेल्फेयर काउंसिल, मध्यप्रदेश का अध्यक्ष बना दिया। मैं खुद घूम घूम कर आँगनबाडियाँ खोली हैं...सिवनी, छिन्दवाडा सब जगह।....।"

"बहुत काम किया है भईया जी। धर्मयुग और बांबे क्रानिकल जैसे अखबार में भी मैने काम किया है। सईय्यद अब्दुल्ला बरेलवी के साथ मैं बॉम्बे क्रॉनिकल में सहायक सम्पादक था।....। बडा अच्छा समय था भाई जी। राजेन्द्र प्रसाद जी को मैने कई बार अपनी कविता सुनाई थी। इतने इमानदार आदमी थे कि सरकारी खाना नहीं खाते थे। घर में उनकी पत्नी खिचडी पकाती थी और वही वो खाते थे। हमनें भी उनके साथ खिचडी खाई है।"

"लेजिस्लेटिव एसेम्बली में उन दिनों पुरुषोत्तम दास टंडन अध्यक्ष होते थे। उस जमाने में इलेक्टेड, सलेक्टेड और नॉमीनेटेड तीन तरह के सदस्य होते थे लेजिस्लेटिव असेम्बली में। एक बार कलकता में टंडन जी का अभिनंदन किया गया था किसी होटल में। बहुत बडा और मंहगा होटल था। टंडन जी नें होटल की चाय भी नहीं पी और खाना भी बाहर से आया, वो बडे सिद्धांतवादी थे भाई जी। एक बार उनका लडका किसी पोस्ट के लिये इंटरव्यू देने गया था। लडका वहाँ से आया तो उसने टंडन जी के पाँव छुवे और बोला बाबूजी मेरा अपॉईंटमेंट हो गया है। टंडन जी नें पूछा कि इंटरव्यू में क्या पूछा गया था। लडके ने बताया कि पहले मेरा नाम पूछा फिर पिताजी का नाम पूछा, फिर मुझे चुन लिया गया। टंडन जी नें लडके की नौकरी छुडवा दी बोले भ्रष्टाचार हुआ है। एसे ही किसी कारण से टंडन जी नें एसेम्बली भी छोड दी थी। एसे थे उस जमाने के नेता। हमने उनको एक बार वंदेमातरम गा कर सुनाया था तो टंडन जी बडे भावुक हो गये थे। बोले एसा वंदेमातरम गान हो मैंने पहले कभी सुना नहीं है।"

"मैंने एक किताब लिखी थी – ‘नेताजी स्पीक्स’ जिसका ट्रांस्लेशन हुआ है बांगला में ‘आमी सुभाष बोलछी’ और हिन्दी में भी किसी जमाने में ये किताब आई थी। एक और किताब ‘टोकियो टू इम्फाल’ मैंने बर्मा में लिखी थी जो रंगून में छपी थी, बर्मा पब्लिशर्स नें छापी थी।....। यह मेरा इतिहास है भैय्या जी, अब अकेला हूँ और सरकार के भरोसे हूँ। कुछ पुराने किस्सों के साथ जी रहा हूँ भाई जी, जिन्हें कोई जानता नहीं है।" 

लहरी जी अपने बारे में बात करते हुए भावुक हो गये थे। उन्होंने हाँथ के इशारे से हमें पीछे आने के लिये कहा और स्वयं गेस्ट्हाउस में अपने कमरे की ओर बढ गये। साधारण कमरा था जिसमें एक पलंग बिछा हुआ था। कमरे के एक ओर दो कुर्सियाँ भी रखी हुई थी।...।

“यहीं रहता हूँ भाई जी दो ढाई महीने से।” लहरी जी नें हमें कुर्सियों पर बैठने का इशारा किया।

इस उम्र में भी मोहन लहरी जी की याददाश्त कमाल की है। बातचीत के आरंभ में ही मैंने उन्हें बताया था कि बस्तर के अतीत पर शोध के लिये निकला हूँ अत: यहाँ के अंतिम शासक महाराजा प्रबीर चंद्र भंजदेव के विषय में भी जानना चाहता हूँ। बिना इस सम्बंध में मेरे प्रश्न की प्रतीक्षा किये ही उन्होंने बोलना आरंभ किया – “ प्रवीण चंद्र भंजदेव अपने साथ भोपाल से ले आये थे मुझको। उस जमाने में वो एम एल ए थे। राजे-रजवाडे तो खतम हो गये थे लेकिन प्रवीर चंद्र बस्तर का राजा और गुलाब सिंह, रीवा का राजा दोनों अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। राजा लोहे की खदान को ले कर सरकार से लड रहा था। बस्तर के पास कांकेर का रजवाडा था जिसमें राजा होते थे नरहर देव। उनको कोई संतान नहीं थी तो उन्होंने भानुप्रतपदेव को गोद ले कर राजा बनाया था। उनका भाई था कुमार त्रिभुवन देव...बहुत अच्छे स्वभाव का था। मैंने इनके साथ भी अच्छा समय व्यतीत किया है । जब सारे रजवाडे खतम हो गये तब भी बस्तर के राजा को एक दिन फिर से राजा बन जाने के उम्मीद थी। लन्दन में रहने की वजह से महाराजा प्रबीरचन्द की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। मैं एक पेपर निकालता था भोपाल से..उस पेपर को राजा नें कहीं से पढा। मेरी भाषा से प्रभावित हो के उसके खोज कर के मुझको बुलवाया। मुझे भी बडा अलग काम लगा और मैं राजा का प्रस्ताव मान कर उनका सलाहकार बन कर बस्तर चला आया। साढे छ: साल मैं उनका सलाहकार रहा भाई जी। बडे जिद्दी थे प्रबीर और मनमौजी। उस जमाने के गृहमंत्री को भी वो कुछ नहीं समझते थे। यह सब उनके सोच की गलती थी। एक लुंगी पहनते थे सिल्क की और सिल्क का ही कुर्ता। दाढी बढी हुई। हम रात रात भर बात करते थे कितनी बार सुबह हो गयी।..।"
[चित्र में राजीव रंजन प्रसाद जगदलपुर राज महल परिसर में जिसकी पृष्ठ भूमि में महाराजा प्रबीर चंद्र भंजदेव की तस्वीर लगी हुई है।]

"प्रवीर चंद्र को मैने उनकी एक सनक के कारण छोड दिया था। वो लन्दन से एक अलशेशियन कुत्ता ले कर आये थे। किसी कारण से कुत्ता मर गया। राजा का प्यारा कुत्ता मरा तो उसने खूब बाजे गाजे के साथ जगदलपुर में घुमा कर शवयात्रा निकलवाई। खाना मैं राजा के साथ ही खाता था। प्रबीर चन्द्र नें मुझसे कहा कि आपने ध्यान नही दिया। अगर समय पर किसी डाक्टर को दिखवा दिया होता तो मेरा प्यारा कुत्ता मरा नहीं होता। मैं भी उखड गया भाई जी। मैंने कहा कि राजा साहब मैं आपका सलाहकार हूँ लेकिन किसी कुत्ते की हिफाजत के लिये आपके साथ नहीं आया हूँ। राजा नाराज हो गया और खाना छोड के चला गया। मैं भी उठ कर आ गया। मेरी सेवा में राजा की लगाई हुई एक कार थी। मैंने ड्राईवर से कहा कि बस स्टैंड ले चलो। फिर मैं कांकेर आ गया। यहाँ रजवाडे में भानुप्रतापदेव नें मेरा स्वागत किया और मुझे यहीं रुक जाने के लिये कहा।"

"प्रबीर चन्द्र को गोली मार दी गयी थी भाई जी। मेरे वहाँ से आने के बाद बस्तर का गोलीकांड हुआ था। राजा और कलेक्टर नरोन्हा में बहुत तनातनी चल रही थी। तब से अब तक भाई जी समय भी बदल गया है। तब जगदलपुर भी बहुत पिछडा हुआ था। दुकाने भी बहुत कम थी एक दो जगह ही बाजार लगता था। महल के पास ही एक अंडे वाला दो तीन पकौडे वाले बैठते थे। उस जमाने के एक कवि हैं लाला जगदलपुरी। आज भी बस्तर में उनका बहुत नाम है भाई जी। उनसे मेरा परिचय है। हाल में जगदलपुर गया था। वहाँ के नेता हैं न बलीराम कश्यप उनहोने बुलवाया था। आज कल वहाँ नक्सलवादी हो गये हैं तो सबके साथ मेरी भी वहाँ के आरक्षक लोग तलाशी करने लगे। मैंने अपनी लाठी से उनको धकेल कर डांट दिया। मैं नेता जी के साथ काम कर चुका हूँ और तुम मेरी तलाशी लेते हो?" 
[चित्र में क्रांतिकारी मोहन लहरी जी के साथ राजीव रंजन प्रसाद तथा कमल शुक्ला] 

“नक्सलवादी वहाँ क्रांति कर रहे हैं?” बहुत धीरे से मैंने लहरी जी से सम्मुख कहा था। मेरे इस वाक्यांश में छिपा प्रश्न संभवत: वे समझ गये और एकदम से लहरी जी का सुर बदल गया। “इसे क्रांति नहीं कहते हैं भाई जी, ये क्रांति नहीं है। क्रांति का मतलब अलग होता है। हमने नेता जी के साथ रह कर क्रांति को जिया है और देखा है।.....। आज मेरे पास बढी हुई उम्र के अलावा कुछ नहीं है। जो कुछ भी मेरे पास था चोरी चला गया। बहुत सारी तस्वीरे थीं। नेताजी के साथ की तस्वीरें। पट्टाभिसीता रमैय्या के लिखे बहुत सारे पत्र जो रायपुर में किसी नें चुरा लिये। यही सब सम्पत्ति थी अब खाली हाँथ हूँ। बस बोलना जानता हूँ भाई जी और इसी से जो चाहो आपको दे सकता हूँ। पुरानी बाते याद हैं बस। लेकिन इतना समय हो गया कि अपनी बिटिया का चेहरा भी भूल गया हूँ जो जापान में बमबारी में मारी गयी थी।“ यही हमारी बातचीत में उनका आखिरी वाक्य था, फिर लहरी जी के स्वर में भावुकता घर कर गयी थी।

बाल गीत: लंगडी खेलें..... संजीव 'सलिल'

*
बाल गीत:                                                 

लंगडी खेलें.....

संजीव 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************

मुक्तिका: वो चुप भी रहे संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

वो चुप भी रहे

संजीव 'सलिल'
*
वो चुप भी रहे कुछ कह भी गये
हम सुन न सके पर दह भी गये..

मूल्यों को तोडा सुविधा-हित.
यह भी सच है खो-गह भी गये..

हमने देकर भी मात न दी-
ना दे कर वे दे शह भी गये..

खटिया तो खड़ी कर दी प्यारे!.
चादर क्यूं मेरी कर तह भी गये..

ऊपर से कहते गलत न हो.
भीतर से देते शह भी गये..

समझे के ना समझे लेकिन.
कहते वो 'सलिल' अह अह भी गये..

*****************

शनिवार, 26 मार्च 2011

मुझको यह रचना रुची: गीत - हम किसको परिचित कह पाते ---राकेश खंडेलवाल


मुझको यह रचना रुची:

इस स्तम्भ के अंतर्गत कोइ भी पाठक वह रचना भेज सकता है जो उसके मन को छू गयी हो. रचना के साथ रचनाकार का नाम, जहाँ यह रचना पहले छपी हो उसका सन्दर्भ/लिंक, भेजनेवाले का नाम व् ई-मेल divynarmada.blogspot.com पर भेजें.

हम किसको परिचित कह पाते

राकेश खंडेलवाल
*
हम अधरों पर छंद गीत के गज़लों के अशआर लिये हैं
स्वर तुम्हारा मिला, इन्हें हम गाते भी तो कैसे गाते
अक्षर की कलियां चुन चुन कर पिरो रखी शब्दों की माला
भावों की कोमल अँगड़ाई से उसको सुरभित कर डाला
वनफूलों की मोहक छवियों वाली मलयज के टाँके से
पिघल रही पुरबा की मस्ती को पाँखुर पाँखुर में ढाला
स्वर के बिना गीत है लेकिन, बुझे हुए दीपक के जैसा
हम अपने आराधित का क्या पूजन क्या अर्चन कर पाते
नयन पालकी में बैठे, चित्र एक जो बन दुल्हनिया
मन के सिन्धु तीर पर गूँजे, जिसके पांवों की पैंजनियां
नभ की मंदाकिनियों में जो चमक रहे शत अरब सितारे
लालायित हों बँधें ओढ़नी जिसकी, बन हीरे की कनियां
यादों के अंधियारे तहखानों की उतर सीढ़ियां देखा
कोई ऐसी किरन नहीं थी, हम जिसको परिचित कह पाते
साँसों की शहनाई की सरगम में गूँजा नाम एक ही
जीवन के हर पथ का भी गंतव्य रहा है नाम एक ही
एक ध्येय है , एक बिन्दु है, एक वही बन गया अस्मिता
प्राण बाँसुरी को अभिलाषित, रहा अधर जो स्पर्श श्याम ही
जर्जर, धूल धूसरित देवालय की इक खंडित प्रतिमा में
प्राण प्रतिष्ठित नहीं, जानते, उम्र बिताई अर्घ्य चढ़ाते
सपनों की परिणति, लहरों का जैसे हो तट से टकराना
टूटे हुए तार पर सारंगी का एक कहानी गाना
काई जमे झील के जल में बिम्बों का आकार तलाशे
जो पागल मन, उसको गहरा जीवन का दर्शन समझाना
धड़कन के ॠण का बोझा ढो ढो कर थके शिथिल काँधों में
क्षमता नहीं किसी अनुग्रह का अंश मात्र भी भार उठाते
आभार: ईकविता
************** 


शुक्रवार, 25 मार्च 2011

साक्षात्कार : कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा

साक्षात्कार                                                                      
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 ईशादि     नौ    उपनिषद्
                 
               उपनिषदों में ही उस आत्म तत्व का चिंतन हुआ है जो इस   सृष्टि का मूल कारण है  भूमा की ध्रुवीय सत्ता का एक अटल लक्ष्य  जो मानव का गंतव्य स्थल है  वहाँ उपनिषद् हमें ज्ञान व कर्म् मार्ग से ले जाते हैं  आध्यात्मिक चिंता शाश्वत चिंता है , समकालीन व सामयिक नहीं वरन सामायिक समाधान  उपनिषदों का कथ्य विषय है .  अतः ये केवल काव्य , भाव ,उपदेश या सिद्धांत न होकर  जीवन की सूक्तियाँ बन गई हैं जो उपनिषदों  की महिमा , महत्ता , पवित्रता तथा आर्षता  को ध्वनित करती हैं .
  उपनिषदों का काव्यात्मक और गेय स्वरूप अनंता का कृपा साध्य प्रसाद हैं और प्रसाद अणु या कण भर भी धन्य हैं  मेरी धन्यता का पार नहीं जो अंजुरी भर कृपा प्रसाद पाया ..

कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी: 
                                             डॉ.मृदुल कीर्ति                         

प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा, सौजन्य: प्रभासाक्षी

डॉ. म्रदुल कीर्ति ने शाश्वत ग्रंथों का काव्यानुवाद कर उन्हें घर-घर पहुँचने का कार्य हाथ में लिया है.  उनहोंने अष्टावक्र गीता और उपनिषदों का काव्यानुवाद करने के साथ-साथ भगवद्गीता का ब्रिज  भाषा में अनुवाद भी किया है और इन दिनों पतंजलि योग सूत्र के काव्यानुवाद में लगी हैं. प्रस्तुत हैं उनसे हुई  बातचीत के चुनिन्दा अंश:

प्रश्न: मृदुल जी! अक्सर लोग कविता लिखना शुरू करते हैं तो पद्य के साथ-साथ गद्य की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं पर आप आरंभिक अनुवाद की ओर कैसे प्रवृत्त हुईं और असके मूल प्रेरणास्त्रोत क्या थे?

उत्तर: इस प्रश्न उत्तर का दर्शन बहुत ही गूढ़ और गहरा है. वास्तव में चित्त तो चैतन्य की सत्ता का अंश है पर चित्त का स्वभाव तीनों  तत्वों से बनता है- पहला आपके पूर्व जन्मों के कृत कर्म, दूसरा माता-पिता के अंश परमाणु और तीसरा वातावरण. इन तीनों के समन्वय से ही चित्त की वृत्तियाँ बनती हैं. इस पक्ष में गीता का अनुमोदन- वासुदेव अर्जुन से कहते हैं-शरीरं यद वाप्नोति यच्चप्युतक्रमति  वरः / ग्रहीत्व वैतानी संयति वायुर्गंधा निवाश्यत.'

यानि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी  जीवात्मा भी जिस शरीर  का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है.  इन भावों की काव्य सुधा भी आपको पिलाती चलूँ तो मुझे अपने काव्य कृत 'भगवदगीता का काव्यानुवाद ब्रिज भाषा में' की अनुवादित पंक्तियाँ  सामयिक लग रही हैं.

यही तत्त्व गहन अति सूक्ष्म है जस वायु में गंध समावति है.
तस देहिन देह के भावन को, नव देह में हु लई जावति है..

कैवल्यपाद में ऋषि पातंजलि ने भी इसी तथ्य का अनुमोदन किया है. अतः, देहिन द्वारा अपने पूर्व जन्म के देहों का भाव पक्ष इस प्रकार सिद्ध हुआ और यही हमारा स्व-भाव है जिसे हम स्वभाव से ही दानी, उदार,  कृपण या कर्कश होन कहते हैं. उसके मूल में यही स्व-भाव होता है.

नीम न मीठो होय, सींच चाहे गुड-घी से.
छोड़ती नांय सुभाव,  जायेंगे चाहे जी से..

अतः, इन तीनों तत्वों का समीकरण ही प्रेरित होने के कारण हैं- मेरे पूर्व जन्म के संस्कार, माता-पिता के अंश परमाणु और वातावरण.

मेरी माँ प्रकाशवती परम विदुषी थीं. उन्हें पूरी गीता कंठस्थ थी. उपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश आदि आध्यात्मिक साहित्य हमारे जीवन के अंग थे. तब मुझे कभी-कभी आक्रोश भी होता था कि सब तो शाम को खेलते हैं और मुझे मन या बेमन से ४ से ५  संध्या को स्वाध्याय करना होता था. उस ससमय वे कहती थीं-

तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ. 
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज..

मनो-भूमि पर बीज की प्रक्रिया मेरे माता-पिता की देन है. मेरे पिता सिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे. वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और संस्कृत में ही कवितायेँ लिखते थे. कर्ण पर खंड काव्य आज भी रखा है. उन दिनों आयुर्वेद की शिक्षा संस्कृत में ही होती थी- यह ज्ञातव्य हो. मेरे दादाजी ने अपना आधा घर आर्य समाज को तब दान कर दिया था जब स्वामी दयानंद जी पूरनपुर, जिला पीलीभीत में आये थे, जहाँ से आज भी नित्य ओंकार ध्वनित होता है. यज्ञ और संध्या हमारे स्वभाव बन चुके थे.

शादी के बाद इन्हीं परिवेशों की परीक्षा मुझे देनी थी. नितान्त विरोधी नकारात्मक ऊर्जा के दो पक्ष होते हैं या तो आप उनका हिस्सा बन जाएँ अथवा खाद समझकर वहीं से ऊर्जा लेना आरम्भ कर दें. बिना पंखों के उडान भरने का संकल्प भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहा पर जब आप कोई सत्य थामते हैं तो इन गलियारों में से ही अंतिम सत्य मिलता है. अनुवाद के पक्ष में मैं इसे दिव्य प्रेरणा ही कहूँगी. मुझे तो बस लेखनी थामना भर दिखाई देता था.

प्रश्न: आगामी परिकल्पनाएं क्या थीं? वे कहाँ तक पूरी हुईं?

उत्तर:
वेदों में राजनैतिक व्यवस्था'  इस शीर्षक के अर्न्तगत मेरा शोध कार्य चल ही रहा था. यजुर्वेद की एक मन्त्रणा जिसका सार था कि राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रीय महत्व के साहित्य और विचारों का सम्मान और प्रोत्साहन करे. यह वाक्य मेरे मन ने पकड़ लिया और रसोई घर से राष्ट्रपति भवन तक की  मेरी मानसिक यात्रा यहीं से आरम्भ हो गयी. मेरे पंख नहीं थे पर सात्विक कल्पनाओं का आकाश मुझे सदा आमंत्रण देता रहता था. सामवेद का अनुवाद मेरे हाथ में था जिसे छपने में बहुत बाधाएं आयीं. दयानंद संस्थान से यह प्रकाशित हुआ. श्री वीरेन्द्र  शर्मा जी जो उस समय राज्य सभा के सदस्य थे, उनके प्रयास से राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरामन  द्वारा राष्ट्रपति भवन में १६ मई १९८८ को इसका विमोचन हुआ. सुबह सभी मुख्य समाचार पत्रों के शीर्षक मुझे आज भी याद हैं- 'वेदों के बिना भारत की कल्पना नहीं', 'असंभव को संभव किया', 'रसोई से राष्ट्रपति भवन तक' आदि-आदि. तब से लेकर आज तक यह यात्रा सतत प्रवाह में है. सामवेद के उपरांत ईशादि ९ उपनिषदों का अनुवाद 'हरिगीतिका' छंद में किया.  ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक,  मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय और श्वेताश्वर- इनका विमोचन महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने १७ अप्रैल १९९६ को किया.

तदनंतर भगवद्गीता का काव्यात्मक अनुवाद ब्रिज भाषा में घनाक्षरी छंद में किया जिसका विमोचन श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने कृष्ण जन्माष्टमी पर १२ अगस्त २२०९ को किया. 'ईहातीत क्षण' आध्यत्मिक काव्य संग्रह का विमोचन मोरिशस के राजदूत ने १९९२ में किया.

प्रश्न: संगीत शिक्षा व छंदों के ज्ञान के बिना वेदों-उपनिषदों का अनुवाद आसान नहीं.  

उत्तर: संसार में सब कुछ सिखाने के असंख्य शिक्षण संस्थान हैं पर कहीं भी कविता सिखाने का संस्थान नहीं है क्योंकि काव्य स्वयं ही व्याकरण से संवरा  हुआ होता है. क्या कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी ने कहीं काव्य कौशल सीखा था? अतः, सिद्ध होता है कि दिव्य काव्य कृपा-साध्य होता है, श्रम-साध्य नहीं. मैं स्वयं कभी ब्रिज के पिछवाडे से भी नहीं निकली जब गीता को ब्रिज भाषा में अनुवादित किया. हाँ, बाद में बांके बिहारी के चरणों में समर्पण करने गयी थी. इसकी एक पुष्टि और है. पातंजल योग शास्त्र को काव्यकृत करने के अनंतर यदि कहीं कुछ रह जाता है तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सटीक शब्द नहीं खोज पाती हूँ. यदि मैंने कहीं लिखा है तो मुझे किस शक्ति की प्रतीक्षा है? इसलिए ये काव्य अमर होते हैं. इनका अमृतत्व इन्हें अमरत्व देता है.

प्रश्न: आपकी भावी योजना क्या है?

उत्तर: हम श्रुति परंपरा के वाहक हैं. वेद सुनकर ही हम तक आये हैं. हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में कर्ण सबसे अधिक प्रवण माने जाते हैं. नाद आकाश का क्षेत्र है और आकाश कि तन्मात्रा ध्वनि है. नभ अनंत है, अतः ध्वनि का पसारा भी अनंत है. भारतीय दर्शन के अनुसार वाणी का कभी नाश भी नहीं होता. अतः, इस दर्शन में अथाह विश्वास रखते हुए मैं इन अनुवादों को सी.डी. में रूपांतरित करने हेतु तत्पर हूँ.  मार्च में अष्टावक्र गीता और पातंजल योग दर्शन का विमोचन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल कर रही हैं. उसी के साथ पातंजल योग दर्शन का काव्यकृत गायन भी विमोचित होगा. पातंजल योग दर्शन की क्लिष्टता से सब परिचित हैं ही. इसी कारण जन सामान्य तक कम जा सका है. अब सरल और सरस रूप में जन-मानस को सुलभ हो सकेगा. अतः, पूरे विश्व में इन दर्शनों कि क्लिष्टता को सरल और सरस काव्य में जनमानस के अंतर में उतार सकूँ यही भावी योजना है. मैं अंतिम सत्य को एक पल भी भूल नहीं पाती जो मुझे जगाये रखता है.

परयो भूमि बिन प्राण के, तुलसी-दल मुख-नांहि.  
प्राण गए निज देस में, अब तन फेंकन जांहि.
को दारा, सुत, कंत,  सनेही, इक पल रखिहें नांहि.
तनिक और रुक जाओ तुम, कोऊ न पकिरें बाँहि..

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