कविता
पानी
*
देखकर
मनुष्य की करनी
हो रही है मनुष्यता
पानी-पानी।
विस्मित है विधाता
कहाँ गया
इसकी आँखों का पानी।
कहीं अतिवृष्टि
कहीं अनावृष्टि
प्रकृति
दिला रही याद
छठी का दूध।
पानी पी-पीकर
कोस रहा इंसान
नियति को
ईश्वर को
एक-दूसरे को।
समझकर भी
नहीं चाहता समझना
कि उसकी हरकतों से
नाराज कुदरत
मार रही है उसे
पिला-पिलाकर पानी।
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 31 जनवरी 2019
कविता। पानी
व्यंग्य लेख: काम तमाम
व्यंग्य लेख:
काम तमाम
संजीव
*
'मुझे राम से काम' जपकर कथनी-करनी एक रखनेवाले कबीर और तुलसी आज होते तो वर्तमान रामभक्तों की करतूतें देखकर क्या करते यह शोध का विषय है लेकिन इस पर शोध की नहीं जा सकती।
क्यों?
सब जानते हैं कि आजकल शोध की नहीं कराई जाती हैं और कराने के लिए पहले हो चुके शोधकार्यों से सामग्री निकालकर पुनर्व्यवस्थित कर ली जाती है। कुछ अति प्रतिभाशाली विभूतियाँ तकनीकी क्रांति का लाभ उठाने के कला जानती हैं। वे 'अंतर्जाल करे कमाल' का जयघोष किए बिना देशी-विदेशी जालस्थलों से संबंधित सामग्री जुटाने में जिस कौशल का परिचय देतीे हैं, उसे देख पाए तो ठग शिरोमणि नटवरलाल भी उन का शागिर्द हो जाए।
'काम से काम रखने' की सीख देनेवाले पुरखे नहीं रहे तो उनकी सीख ही क्यों रहे? अब तो बिना किसी काम हर किसी के फटे में टाँग अड़ाने का जमाना है। 'टाँग अड़ाने' भर से तो काम चलता नहीं, 'टाँग मारने' और कभी-कभी तो 'टाँग तोड़ने' की कला भी प्रदर्शित करनी पड़ती है, भले ही 'टाँग तुड़ाकर' वैसे ही लौटना पड़े जैसे बांग्लादेश और कारगिल से पाकिस्तान लौटा था।
हम हिंदुस्तानी वसुधैव कुटुंबकम्, विश्वैक नीड़म् आदि कहते ही नहीं, तहे-दिल से मानते भी हैं। तभी तो मेरा-तेरा का भेदभाव न कर जब जहाँ जो सामग्री मिले, उसे उपयोग कर अपना बना लेते हैं। किसी दूसरे की शोध सामग्री को हाथ न लगाकर हम उसे अछूत कैसे बना सकते हैं? हमारा संविधान छुआछूत को अपराध मानता है। हम इतने अधिक संविधान-परस्त हैं कि 'गरीब की लुगाई को गाँव की भौजाई' बनाने में पल भर की भी देर नहीं करते।
'राम से काम' हो तो उन्हें भगवान, मर्यादा पुरुषोत्तम और न जाने क्या-क्या कह देते हैं। काम न हो तो राम को भूलने में ही भलाई है। पिता के वचन का पूर्ति के लिए राज्य छोड़ने की जगह पिता को ही छोड़ देते हैं हम। हमें मालूम है ये सब रिश्ते-नाते छलना हैं, हम रोज आरती में गाते हैं 'तुम बिन और न दूजा' फिर पिता के वचन से हमारा कोई नाता कैसे हो सकता है? राम जी यह सनातन सच भूल गए इसी लिए उन्हें 'न माया मिली न राम।'
हमने राम से सीख लेकर काम से काम रखने का जीवन-मंत्र अपना लिया है। अब 'सलिल तभी है राम का, रहे राम जब काम का' हमारा ध्येय-वाक्य है। इसलिए हम हर आम चुनाव के पहले राम का जीना हराम कर अलादीन के जिन्न की तरह, बावरी मस्जिद की बोतल से उसे बाहर निकाल लेते हैं और चुनाव जीतते ही निष्काम भाव से भुला देते हैं।
काम साधने की कला में श्याम राम से अधिक सफल हैं। इनके भक्तों को 'माया मिले न राम' उनके भक्तों के बनें हमेशा काम। ये अपने भक्त के जूठे बेर भी नहीं छोड़ते, वे अपने निर्धन भक्त को शाह (अमित न समझें) बना देते हैं।
काम साधने की कलाकारी करनेवाले कलाधर को सोलह हजार आठ सौ मिल गईं जबकि मर्यादा के लिए मरनेवाले की इकलौती भी नहीं जी सकी। इसलिए 'खाने के दाँत और, दिखाने के और' की बहुमूल्य विरासत को सहेजते-सम्हालते हमने राम को प्रचार में, श्याम को आचार में अपनाकर काम निकालने और काम बनाने का मौका भुनाने का मौका न चूककर काम साध लिया है
हमें भली-भाँति विदित है कि भारतीय जनता भोले शंकर की तरह मन ही मन काम को अपनाते हुए भी सार्वजनिक जीवन में काम के प्रकट होते ही उसे क्षार करने से नहीं चूकती। इससे दो काम बन जाते हैं। एक तो खुद निष्काम घोषित हो जाते हैं, दूसरे काम के अकाम होते ही रति तक पहुँचने की राह खुल जाती है।
'सबै भूमि गोपाल की यामें अटक कहाँ' इसलिए तमाम काम का काम तमाम करना ही जीवन का उद्देश्य बना लेने में ही समझदारी है। इतनी समझदारी हममें तो है, आपमें न हो इसी में हमारी भलाई है। आप कोई गैर तो हैं नहीं। हमारी भलाई में ही आपकी भी भलाई है। हमें काम निकालने के काम आने में ही आपकी सार्थकता है। आप तमाम काम सधने की आस में दीजिए मत, और हमें करने दीजिए अगले पाँच साल तक अपना काम तमाम।
***
३१-१-२०१९
बुधवार, 30 जनवरी 2019
नवगीत
एक रचना:
जोड़े हाथ
*
गोली मारी
फिर समाधि पर
फूल चढ़ाकर
जोड़े हाथ।
*
दोषी मानो
या पूजो,
पर छलो न खुद को।
करो सियासत
जी भरकर
पर ठगो न उसको।
मंदिर-मस्जिद
तोड़-बनाओ
बिन श्रद्धा क्यों
नत हो माथ?
गोली मारी
फिर समाधि पर
फूल चढ़ाकर
जोड़े हाथ।
*
लोकतंत्र का
यही तकाजा
रंग-रंग के फूल संग हों।
सहमत हों या
रहें असहमत,
किंतु बाग में शत-शत रंग हों।
दिल हो दिल में
हाथ-हाथ में,
भले न हों पर
सब हों साथ।
गोली मारी
फिर समाधि पर
फूल चढ़ाकर
जोड़े हाथ।
*
क्यों हों मुक्त
एक दूजे से?
दिया दैव ने हमको बाँध।
श्वास न बाकी
रही अगर तो
मरघट तक भी देंगे काँध।
जिएँ याद में
एक-दूजे की
राष्ट्र-देव है
सबका नाथ।
गोली मारी
फिर समाधि पर
फूल चढ़ाकर
जोड़े हाथ।
**
संजीव
३०-१-२०१९
shringar tatank kakubh
ककुभ छंद
*
सोलह-चौदह पर यति रखकर, अंत रखें गुरु दो-दो।
ककुभ छंद रच आनंदित हों, छंद फसल कवि बोदो।।
*
लेख : ऋतु-मौसम
मंगलवार, 29 जनवरी 2019
लघुकथा- छाया
लघुकथा
छाया
*
गणतंत्र दिवस, देशभक्ति का ज्वार, भ्रष्टाचार के आरोपों से- घिरा अफसर, मत खरीदार चुनाव जीता नेता, जमाखोर अपराधी, चरित्रहीन धर्माचार्य और घटिया काम कर रहा ठेकेदार अपना-अपना उल्लू सीधा कर तिरंगे को सलाम कर रहे थे।
आसमान में उड़ रहा तिरंगा निहार रहा था जवान और किसान को जो सलाम नहीं अपना काम कर रहे थे।
उन्हें देख तिरंगे का मन भर आया, आसमान से बोला "जब तक पसीने की हरियाली, बलिदान की केसरिया क्यारी समय चक्र के साथ है तब तक
मुझे कोई झुका नहीं सकता।
सहमत होता हुआ कपसीला बादल तीनों पर कर रहा था छाया।
***
सोमवार, 28 जनवरी 2019
समीक्षा: सड़क पर -अमरेंद्र नारायण
बुधवार, 23 जनवरी 2019
navgeet mili dihadi
संजीव
*
मिली दिहाडी
चल बाजार
दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया-मिर्ची ताजी
तेल पाव भर फ़ल्ली का
सिंदूर एक पुडिया दे
दे अमरूद पांच का, बेटी की
न सहूं नाराजी
खाली जेब पसीना चूता
अब मत रुक रे!
मन बेजार
पत्ती चैयावाली
खाली पाकिट हफ्ते भर को
फिर छाई कंगाली
चूड़ी-बिंदी दिल न पाया
रूठ न मो सें प्यारी
अगली बेर पहलऊँ लेऊँ
अब तो दे मुस्का री!
चमरौधे की बात भूल जा
सहले चुभते
कंकर-खार
…
navgeet ug rahe
संजीव
.
उग रहे या ढल रहे तुम
कान्त प्रतिपल रहे सूरज
.
हम मनुज हैं अंश तेरे
तिमिर रहता सदा घेरे
आस दीपक जला कर हम
पूजते हैं उठ सवेरे
पालते या पल रहे तुम
भ्रांत होते नहीं सूरज
.
अनवरत विस्फोट होता
गगन-सागर चरण धोता
कैंसर झेलो ग्रहण का
कीमियो नव आस बोता
रश्मियों की कलम ले
नवगीत रचते मिले सूरज
.
कै मरे कब गिने तुमने?
बिम्ब के प्रतिबिम्ब गढ़ने
कैमरे में कैद होते
हास का मधुमास वरने
हौसले तुमने दिये शत
ऊगने फिर ढले सूरज
.
muktika aap manen
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा, उस सा नहीं हूँ
पूछता हूँ आजिजी से, कहें मैं किस सा नहीं हूँ
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा गुस्सा नहीं हूँ
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
.
navgeet baja bansuree
*
बजा बाँसुरी
झूम-झूम मन...
*
जंगल-जंगल
गमक रहा है.
महुआ फूला
महक रहा है.
बौराया है
आम दशहरी-
पिक कूकी, चित
चहक रहा है.
डगर-डगर पर
छाया फागुन...
*
पियराई सरसों
जवान है.
मनसिज ताने
शर-कमान है.
दिनकर छेड़े
उषा लजाई-
प्रेम-साक्षी
चुप मचान है.
बैरन पायल
करती गायन...
*
रतिपति बिन रति
कैसी दुर्गति?
कौन फ़िराये
बौरा की मति?
दूर करें विघ्नेश
विघ्न सब-
ऋतुपति की हो
हे हर! सद्गति.
गौरा माँगें वर
मन भावन...
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doha gazal basant
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..