आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छंद कवि रचिए।
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए।।
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
पहली बार मतदान का अवसर पाकर वह खुद को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था। एक प्रश्न परेशान कर रहा था कि किसके पक्ष में मतदान करे? दल की नीति को प्राथमिकता दे या उम्मीदवार के चरित्र को? उसने प्रमुख दलों का घोषणापत्र पढ़े, दूरदर्शन पर प्रवक्ताओं के वक्तव्य सुने, उम्मीदवीरों की शिक्षा, व्यवसाय, संपत्ति और कर-विवरण की जानकारी ली। उसकी जानकारी और निराशा लगातार बढ़ती गई।
सब दलों ने धन और बाहुबल को सच्चरित्रता और योग्यता पर वरीयता दी थी। अधिकांश उम्मीदवारों पर आपराधिक प्रकरण थे और असाधारण संपत्ति वृद्धि हुई थी। किसी उम्मीदवार का जीवनस्तर और जीवनशैली सामान्य मतदाता की तरह नहीं थी।
गहन मन-मंथन के बाद उसने तय कर लिया था कि देश को दिशाहीन उम्मीदवारों के चंगुल से बचाने और राजनैतिक अवसरवादी दलों के शिकंजे से मुक्त रखने का एक ही उपाय है। मात्रों से विमर्श किया तो उनके विचार एक जैसे मिले। उन सबने परिवर्तन के लिए चुन लिया 'नोटा' अर्थात 'कोई नहीं' का विकल्प।
***
नागनाथ साँपनाथ, जोड़ते मिले हों हाथ, मतदान का दिवस, फिर निकट है मानिए।
चुप रहे आज तक, न रहेंगे अब चुप, ई वी एम से जवाब, दें न बैर ठानिए।।
सारी गंदगी की जड़, दलवाद है 'सलिल', नोटा का बटन चुन, निज मत बताइए-
लोकतंत्र जनतंत्र, प्रजातंत्र गणतंत्र, कैदी न दलों का रहे, नव आजादी लाइए।। *** संजीव, २८-११-२०१८। http://divyanarmada.blogspot.in/
नवगीत
कहता मैं स्वाधीन
*
संविधान
इस हाथ से
दे, उससे ले छीन।
*
जन ही जनप्रतिनिधि चुने,
देता है अधिकार।
लाद रहा जन पर मगर,
पद का दावेदार।।
शूल बिछाकर
राह में, कहे
फूल लो बीन।
*
समता का वादा करे,
लगा विषमता बाग।
चीन्ह-चीन्ह कर बाँटता,
रेवड़ी, दूषित राग।।
दो दूनी
बतला रहा हाय!
पाँच या तीन।
*
शिक्षा मिले न एक सी,
अवसर नहीं समान।
जनभाषा ठुकरा रह,
न्यायालय मतिमान।।
नीलामी है
न्याय की
काले कोटाधीन।
*
तब गोरे थे, अब हुए,
शोषक काले लोग।
खुर्द-बुर्द का लग गया,
इनको घातक रोग।।
बजा रहा है
भैंस के, सम्मुख
जनगण बीन।
*
इंग्लिश को तरजीह दे,
हिंदी माँ को भूल।
चंदन फेंका गटर में,
माथे मलता धूल।।
भारत को लिख
इंडिया, कहता
मैं स्वाधीन।
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संजीव
२८-११-२०१८
मुक्तक
*
मतदान कर, मत दान कर, जो पात्र उसको मत
मिले।
सब जन अगर न पात्र हों, खुल कह, न रखना लब सिले।।
मत व्यक्त कर, मत लोभ-भय से, तू बदलना राय निज-
जन मत डरे, जनमत कहे, जनतंत्र तब फूले-फले।।
*
भाषा न भूषा, जात-नाता-कुल नहीं तुम देखना।
क्या योग्यता, क्या कार्यक्षमता, मौन रह अवलोकना।।
क्या नीति दल की?, क्या दिशा दे?, देश को यह सोचना-
उसको न चुनना जो न काबिल, चुन न खुद को कोसना।।
*
जो नीति केवल राज करने हेतु हो, वह त्याज्य है।
जो कर सके कल्याण जन का, बस वही आराध्य है।
जनहित करेगा खाक वह, दल-नीति से जो बाध्य है-
क्या देश-हित में क्या नहीं, आधार सच्चा साध्य है।।
*
शासन-प्रशासन मात्र सेवक, लोक के स्वामी नहीं।
सुविधा बटोरें, भूल जनगण, क्या यही खामी नहीं?
तज सभी भत्ते और वेतन, लोकसेवा कर सके-
जो वही जनप्रतिनिधियों बने, क्यों भरें सब हामी नहीं??
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संजीव
२७-११-२०१८
मुक्तिका
*
ऋतुएँ रहीं सपना जगा।
मनु दे रहा खुद को दगा।।
*
अपना नहीं अपना रहा।
किसका हुआ सपना सगा।।
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रखना नहीं सिर के तले
तकिया कभी पगले तगा।।
*
कहना नहीं रहना सदा
मन प्रेम में नित ही पगा।।
*
जिससे न हो कुछ वासता
अपना हमें वह ही लगा।।
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संजीव
२७-११-२०१८
एक रचना
*
तेवरी के तेवर का राज
बदल दे सारा देश-समाज।
*
न जनगण से रह पाए दूर
झुका चरणों में आकर ताज।
बेर शबरी के चखने राम
प्रकट हों कलि में भी इस व्याज।
न वादों-जुमलों को दो बख्श
न चाहो श्रम बिन मिले अनाज।
हमीं लाएँगे सत्य-सुराज
संग हो न्यारा देश-समाज।
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धर्म-मजहब अपना है एक
बचाना हर आँचल की लाज।
न भूखा सोए कोई पेट
हाथ हर कर पाए हर काज।
बनाएँ कल से कल के बीज
सेतु हम कोशिश कर-कर आज।
समय नभ जन आकांक्षा बाज
उड़े मिल प्यारा देश-समाज ।
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छंद- रस-लय मिल बन नवगीत
बना दें दिलवर का दिल साज।
न मंदिर-मस्जिद में हो कैद
देश के सपनों की आवाज।
सराहे सारी दुनिया नित्य
हिंद-हिंदी का नव अंदाज।
नए सपनों का हो आगाज
गगन का तारा देश-समाज।
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संजीव
२४-११-२०१८