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शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

समीक्षा काव्य कालिंदी - अमरेंद्र नारायण

समीक्षा
अमरेन्द्र नारायण शुभ आशीर्वाद, १०५५,रिज रोड,
भूतपूर्व महासचिव एशिया पैसिफिक टेलीकौम्युनिटी साउथ सिविल लाइन्स ,जबलपुर ४८२००१
दूरभाष +९१ ७६१ २६० ४६००, ई मेल amarnar@gmail.com

सर्जन को सामायिक प्रोत्साहन का सुपरिणाम काव्य कालिंदी

साहित्यिक परिवेश में मिले संस्कार जीवन भर साथ तो देते ही हैं, प्रायः वे संघर्ष और सृजन की प्रेरणा भी देते हैं। बढ़ते पारिवारिक दायित्व और बदलते सामाजिक परिवेश में सर्जना को जीवंत बनाये रखना एक चुनौती भी है और अंतःकरण की पुकार भी सर्जक मन भला कब तक सुप्त रह सकता है? वह उचित अवसर, आत्मीय प्रोत्साहन और अनुकूल परिस्थिति पाते ही अपनी मौन अभिव्यक्ति को मुखर करने लगता हैआदरणीय संतोष शुक्ला जी ने अपने परिवार के साहित्यिक परिवेश में साहित्यकार के सकारात्मक सृजन का भी अनुभव किया है और अपनी रचनाओं को पाठकों तक पहुँचाने की उनकी विवशता भी देखी हैI सौभाग्वश आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के कुशल मार्गदर्शन एवं श्री बसंत शर्मा जी और अभियान के मधुर साहित्यिक परिवार ने उनका उत्साहवर्धन करने और उनकी रचनाओं से पाठकों को परिचित कराने का प्रशंसनीय कार्य किया हैI फलस्वरूप काव्य कालिंदी का रसास्वादन करने का सुअवसर हमें प्राप्त हुआ हैसंभवतः इसी प्रेरणा के परिणाम स्वरूप कवयित्री शारदा स्तवन में माँ सरस्वती से वरदान मांगती हैं कि –
“कलम मौन चलती रहे,
सृजन नव करती रहे,
कभी न ले रुकने का नाम”
यही उत्साह पूर्ण सृजनशीलता उनकी रचनाओं में देखने को मिलती हैI काव्य कालिंदी की रचनाएँ बारह वर्गों में संग्रहीत हैं। इनमें दोहे, कुण्डलियाँ, सवैया, मुक्तिकाएँ, मुक्तक तो हैं ही, लघु कथा,संस्मरण और यात्रा वर्णन आदि भी सम्मिलित हैंI नर्मदा तट से कालिंदी तीर की भाव -यात्रा में कवयित्री भारत -भारती का गौरव गान करती हुई लिखती हैं-
जन -गण से ही तो बने, अपना देश महान,
सम्मानित हर धर्म हो, यही हमारी शान।।
मात्र दो पंक्तियों में सामाजिक समरसता,स्नेह-सद्भावना और एकता का सन्देश देना सरल नहीं होता पर डॉ.संतोष शुक्ला जी ने अपनी बातें अत्यंत सहजता और प्रभावी ढंग से कह दी हैंI संघर्ष से श्लथ और बोझिल मन जब निरुत्साहित हो जाता है, उसकी गति धीमी हो जाती है और लक्ष्य दूर दीखता है, तब संतोष शुक्ल जी कर्मठता का सन्देश दे कर उत्साह वर्धन करती हैं-
कछुए जैसी चाल है, मंजिल भी अति दूरI
मन में सच्ची लगन तो, मंजिल मिले जरूरII
लक्ष्य भले ही हो कठिन, जुटे रहो दिन रातI
एक समय आ मिलेगी, आप सफलता,तातII
वे अपने दोहों में बड़ी सहजता से, सरल शब्दों में बड़ी बातें कह जाती हैंI जैसे:
होती है गति जीव की, ज्यों नदिया की धारI
रुक जाये तो विष बने, बहती अमृत धारII
सृजनशीलता के सन्दर्भ में सर्जक मन की गति देखें:
अति सुन्दर सार्थक सृजन, रुकने की क्यों बातI
रुकी थकी कब लेखनी, दिन हो चाहे रातII
डॉ.शुक्ला ने अपने दोहों में मुहावरों का आकर्षक प्रयोग किया है:
शीश मुंड़ा ओले पड़े, वर्षा गाती छन्दI
ए टी एम ठेंगा दिखा, कहे बैंक है बंदII
और यह व्यंग्य भी:
नाक सिकोड़े चल रहीं, खुद को मानें हूरI
साथ मिला लंगूर का, सहने को मजबूरII
कवयित्री ने आकर्षक कुण्डलियाँ और सवैये भी लिखे हैंIइनकी विषय वस्तु पारम्परिक भी है और आधुनिक भीI वे देश की वर्तमान अवस्था की ओर ध्यान दिला कर प्रेरणा का सन्देश भी देती हैं:
बढ़े चलो,बढ़े चलो,ध्वजा उठा चलो सभी,रुको नहीं, झुको नहीं
अभी सभी बढ़े चलो सदा लगे रहो वहाँ,मिले जहाँ लक्ष्य हो वही
टिके रहो,टिके रहो भिड़े रहो अड़े रहो जहाँ लक्ष्य मिला वहां
अभी नहीं,कभी नहीं, हिलो नहीं, डुलो नहीं लगे रहो सदा वहीँ
कवयित्री का देश -प्रेम मुक्तिकाओं में भी अभिव्यक्ति पाता है:
भारत भू पर जन्म मिला है / स्वर्गिक सा आनंद मिला है
भाग्य फलित हुआ है मानो / ऐसा मां का प्यार मिला है
सजी रहे यूं ही वीरों से / भारत माँ की यह फुलवारी
सदा धरा हो वीर प्रसूता/ रहें सदा दुश्मन पर भारी
और यह कामना भी:
ईंट नींव की बने रहें हम / नहीं कलश की सज्जा प्यारी
डॉ.संतोष शुक्ला जी ने इस संग्रह में मित्रता शीर्षक एक लघुकथा भी सम्मिलित है जो मानवीय संवेदनाओं की सहज पर सूक्ष्म अभिव्यक्ति हैI अभियान पर अभिमान शीर्षक संस्मरण में उन्होंने अभियान के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित की हैIपुस्तक में अमूल्य उपहार शीर्षक कृतज्ञता अर्पण और मलयेशिया सम्बंधित मनोरंजक यात्रा वर्णन भी संग्रहीत है I ये रचनायें उनकी गद्य लेखन प्रतिभा से पाठकों को परिचित करते हैंI डॉ.शुक्ल ने प्रकृति से सम्बंधित अनेक विषयों, मानवीय संवेदनाओं, आस-पास के परिवेश और दैनिक जीवन के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित कई कवितायेँ लिखी हैं Iउनके दोहों में भी जीवन के विविध रंग दृष्टिगत होते हैं पर उनकी रचनाओं में देश भक्ति की भावना भी सरल और प्रभावी रूप से व्यक्त हुई है - अभिनन्दन का अभिनन्दन / भारत माँ का है वंदन
उसके माथे पर मानो / लगता वीरता का चन्दन
जब तक आया नहीं अभिनन्दन
भारतीय मन करता रहा क्रंदन
धोखेबाज रहा दुश्मन तो हरदम
कैसे कर पाता विश्वास राष्ट्र मन
‘पूज्य है कोई तो वो है शहीद का ही परिवार
धन्य है जो करें स्व संतान को देश पर निसार

डॉ. संतोष शुक्ला जी का जन्म,स्वतंत्रता दिवस के पाँच वर्ष पूर्व , १५ अगस्त १९४२ को हुआ था और उनके पुण्यश्लोक पतिदेव स्व.विजयकृष्ण शुक्ल जी का ९ अगस्त १९४२ (अगस्त क्रांति) के दिन। वे स्वयं एक कर्मठ देशभक्त थे! संभवतः यही कारण है कि डॉ.संतोष जी के चिंतन में देश भक्ति की भावना प्रबल है।

काव्य कालिंदी का प्रकाशन एक सामयिक और व्यावहारिक सन्देश भी देता हैI रचनाकार को अपनी लेखनी रोकनी नहीं चाहिये, न जाने कब किसी अभियान का प्रोत्साहन उसे मिल जाये और उसकी रचनायें पाठकों तक सुगमता से पहुँच जायें। पाठकों की ओर से आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी,बसंत कुमार शर्मा जी और अभियान के अन्य सहयोगियों को हार्दिक धन्यवादI डॉ.संतोष शुक्ला की लेखनी अविराम चलती रहे, इस शुभकामना के साथ

अमरेन्द्र नारायण

लघुकथा सबक

लघुकथा
सबक
*
दंगों की गिरफ्त में जंगल
इतनों की मौत, उतने घायल,
इतने गुफाएँ, इतने बिल बर्बाद,
'पापा! पुलिस कुछ कर क्यों नहीं रही?' शेरसिंह के बेटे ने पूछा
"करेगी मगर पहले सबक मिल जाने दो। पिछले चुनाव में हमें यहीं हार मिली थी ना?"
*
२९-२-२०२०

लघुकथा: नायक

लघुकथा:
नायक
*
दंगे, दुराचार, आगजनी, गुंडागर्दी के बाद सस्ती लोकप्रियता और खबरों में छाने के इरादे से बगुले जैसे सफेद वस्त्र पहने नेताजी जन संपर्क के लिये निकले। पीछे-पीछे चमचों का झुण्ड, बिके हुए कैमरे और मरी हुई आत्मा वाली खाकी वर्दी।

एक बर्बाद झोपड़ी में पहुँचते ही छोटी सी बच्ची ने मुँह पर दरवाजा बंद करते हुए कहा 'खतरे के समय दुम दबा कर छिपे रहनेवाले नपुंसकों के लिये यहाँ आना मना है। तुम नहीं, हमारा नायक वह पुलिस जवान है जो जान हथेली पर लेकर आतंकवादी की बंदूक के सामने डटा रहा।यह भारत माता माँ मंदिर, भारत के नागरिक का घर है।
*
संजीव
२९.२.२०२०
***

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

तकनीकी आलेख कागनेटिव रेडियो प्रो. शोभित वर्मा

तकनीकी आलेख
कागनेटिव रेडियो
प्रो.  शोभित वर्मा
विभागाध्यक्ष इल्क्ट्रॉनिक्स  व टेलीकम्युनकेशन 

तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंजिनीरिंग एन्ड टेक्नोलॉजी जबलपुर 

*
आज के इस आधुनिक युग में दूरसंचार के उपकरणों का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है। इन उपकरणों के द्वारा सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिये बेतार (वायरलैस) माध्यमों द्वारा उपयोग किया जाता है। कई विकसित तकनीकें जैसे वाय-फाय, बलूटूथ आदि इस क्षेत्र में उपयोग की जा रही हैं। इन सभी वायरलैस तकनीकों को साथ में उपयोग में लाने के कारण स्पेकट्रम की अनुपलब्धता एक बड़ी समस्या का रूप लेती जा रही है। वास्तव में स्पेक्ट्रम को लाइसेंस्ड उपयोगकर्ता ही उपयोग करता है। यह सुनिश्चित किया जाता है कि स्पेक्ट्रम का उपयोग केवल लाइसेंस्ड उपयोगकर्ता ही कर सके। इस कारण स्पेकट्रम का एक बहुत बड़ा हिस्सा अनुपयोगी ही रह जाता है। स्पेक्ट्रम का आवंटन सरकार की नीतियों के अनुसार किया जाता है।  इस समस्या के निराकरण हेतु सन १९९९  में जे. मितोला ने कागनेटिव रेडियो का सिंद्धात प्रस्तुत किया।


कागनेटिव रेडियो सिंद्धात के अनुसार जब भी लाइसेंस्ड उपयोगकर्तो स्पेकट्रम का उपयोग न कर रहा हो तब अनलाइसेंस्ड उपभोक्र्ता उस  स्पेक्ट्रम का उपयोग कर सकता है और जैसे ही लाइसेंस्ड उपयोगकर्ता की वापसी होगी, अनलाइसेंस्ड उपयोगकर्ता किसी दूसरे खाली स्पेक्ट्रम की सहायता से अपना कार्य करने लगेगा। यह प्रक्रिया इस तरह चलती रहेगी जब तक सूचना का आदान-प्रदान नहीं हो जाता।
कागनेटिव रेडियो के बहुत से आयाम हैं जैसे कि स्पेक्ट्रम सेंसिग, स्पेक्ट्रम शेयरिंग, स्पेक्ट्रम मोबीलिटी आदि । हर आयाम अपने आप में शोध का विषय है। कागनेटिव रेडियो पर बहुत से शोध कार्य राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे हैं । अभी भी इस तकनीक को जमीनी स्तर पर लागू कर पाने में बहुत सी समस्याओं का सामाना करना पड़ रहा है। प्रयास यह भी हो रहे है कि कागनेटिव वायरलैस सेंसर नेटवर्क का विकास किया जाये ताकि वायरलैस संचार के क्षेत्र में प्रगति की जा सके। प्रयास है युवा अभियंताओं में इस विषय पर रूचि जगाने का ताकि वह आगे चल कर इस तकनीक को और विकसित करने हेतु प्रयास कर सकें ।
***

मुक्तिका

मुक्तिका
*
इसने मारा, उसने मारा
इंसानों को सबने मारा
हैवानों की है पौ बारा
शैतानों का जै-जैकारा
सरकारों नें आँखें मूँदीं
टी वी ने मारा चटखारा
नफरत द्वेष घृणा का फोड़ा
नेताओं ने मिल गुब्बारा
आम आदमी है मुश्किल में
खासों ने खुद को उपकारा
भाषणबाजों लानत तुम पर
भारत माता ने धिक्कारा
हाथ मिलाओ, गले लगाओ
अब न बहाओ आँसू खारा
*
संजीव
२८-२-२०२०

बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

समीक्षा - काव्य कालिंदी - मोहन शशि

कृति चर्चा :
''काव्य कालिंदी'' : एक पठनीय कृति 
मोहन शशि 
*
साहित्य के स्वनामधन्य हस्ताक्षर स्मृतिशेष भवानी प्रसाद मिश्र जी ने कहा है - "कुछ लिख के सो / कुछ पढ़ के सो / जिस जगह जागा सवेरे / उस जगह से बढ़ के सो"। 'काव्य कालिंदी  की स्वनामधन्य रचनाकार डॉ. संतोष शुक्ला के रचना संसार में झाँकने पर ऐसा आभास होता है कि वे मिश्र जी की पंक्तियों को सूजन धर्म में बड़ी गंभीरता के साथ सार्थकता प्रदान करने साधनारत हैं। बृज भूमि में जन्म पाने का सौभाग्य सँजोये, कालिंदी तीर से चंबल का परिभ्रमण कर, पतित पावनी मातेश्वरी नर्मदा के पवन तट की यात्रा में हिमालयी विसंगतियों में भी धैर्य के साथ सृजन और लगातार सृजन का संकल्प साधुवाद का अधिकारी है। 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने इस कृति की भूमिका में डॉ. संतोष शुक्ला के व्यक्तित्व और कृतित्व पर घरे डूबकर जो शब्द-चित्र उकेरे हैं, उनके पश्चात् कुछ कहने को शेष नहीं तथापि  'अभिमात्यार्थ' स्नेहानुरोध की रक्षा के लिए पढ़ने पर संतोष जी और दोहा का अभिन्न नाता सामने आया-
दोहे ऐसे सर चढ़े, अन्य न भाती बात।  
साथ निभाते हर समय, दिन हो चाहे रात।। 
दोहा दे संतोष, गुरु वंदन, गोविन्द वंदन, भारत-भारती, कालिंदी तीर, पितर, उसकी आये याद जब, शुभ प्रभात, बसंत, नीति के दोहे, नारी, आँखें, दोहा, मुहावरे, उत्सव, महाबलीपुरम  आदि शीर्षक से दोहों ने मेरे मन -प्राण को बहुत प्रभावित किया। संतोष जी के दोहों में सहजता, सरलता, 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर"की ऐसी बांकी प्रस्तुति है कि "इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा!' समझने की कहीं कोई आवश्यकता नहीं, पढ़ते ही सरे अर्थ पंखुरी-पंखुरी सामने आ जाते हैं। बानगी देखें- 
दुनिया धोखेबाज है, सद्गुण जाते हार। 
दाँव लगाकर छल-कपट, लेते बाजी मार।। 

चलती चक्की अब नहीं, हुआ मशीनी काज। 
महिलाओं की मौज है, पति पर करतीं राज।।

बाल नाक के थे कभी, अब करते हैं घात। 
कैसे अब उनसे निभे, बने न बिगड़ी बात।।

चंचल मन भगा फायर, बस में रखकर योग। 
योग-भोग विनियोग ही, उन्नति का संयोग।।

कवयित्री जी आठवें दशक के करीब हैं किन्तु देखें यह उड़ान- 
वृद्ध न मन होता कभी, नित नव भरे उड़ान। 
जी भर पूर्ण प्रयास कर, मंज़िल पाना ठान।।

व्यक्ति समाज, सड़क, संसद, और टी.व्ही. चैनल्स पर जो दंगल हो रहे हैं, उन्हें ध्यान में रखकर सुनें -
कौन किसी की सुन रहा, सभी रहे हैं बोल। 
दुःख केवल इतना हमें, बोल रहे बिन तोल।।

निम्न दोहा सुनकर हर पाठक को लगेगा कि उसके मन की बात है- 
जग में अपना कौन है, सच्ची किसकी प्रीत। 
अपने धोखा दे रहे, बहुत निराली रीत।।

'काव्य कालिंदी'  में दोहों की दमक भले ही अधिक है तथापि कुण्डलिया, सवैया, मुक्तिका, मुक्तक आदि भी अपनी आभा बिखेर रहे हैं। यही नहीं अंत में परिशिष्ट में लघु कथा, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत आदि विधाओं का समावेश कर संतोष जी ने बहुआयामी सृजन सामर्थ्य का परिचय दिया है। एक मुक्तक का आनंद लें- 
दौड़ भाग के जीवन में, सुख-चैन सभी की चाहत है। 
मिल जाए थोड़ा सा भी तो, मिलती मन को राहत है।।
अजब आदमी है दुनिया का और अजब उसकी दुनिया-
अपने दुःख से दुखी नहीं , औरों के सुख से आहत है।।

नवगीतकार बसंत शर्मा के अनुसार "संतोष शुक्ल जी की जिजीविषा असाधारण, सीखने की ललक अनुकरणीय और सृजन सामर्थ्य अपराजेय है।" 
***
संपर्क : ९४२४६५८९१९ 



    
    

दोहा, ममता, सरस्वती, सावरकर

वंदना
हे हंसवाहिनी! वीणा के तारों से झट झंकार करो
जो मतिभ्रम फैला वह हर, सद्भाव सलिल संचार करो
हो शरद पूर्णिमा की झिलमिल, दिल से दिल मिल खिल पाएँ
टकराव न हो, अलगाव न हो, मिल सुर से सुर सरगम गाएँ
*
दोहा सलिला
*
उन सा वर कर पंथ हम, करें देश की भक्ति
सावरकर को प्रिय नहीं, रही स्वार्थ अनुरक्ति
वीर विनायक ने किया, विहँस आत्म बलिदान
डिगे नहीं संकल्प से, कब चाहा प्रतिदान?
भक्तों! तजकर स्वार्थ हों, नीर-क्षीर वत एक
दोषारोपण बंद कर, हों जनगण मिल एक
मोटी-छोटी अँगुलियाँ, मिल मुट्ठी हों आज
गले लगा-मिल साधिए, सबके सारे काज
***
संजीव
२६-२-२०२०
दोहा
ममता
*
माँ गुरुवर ममता नहीं, भिन्न मानिए एक।
गौ भाषा माटी नदी, पूजें सहित विवेक।।
*
ममता की समता नहीं, जिसे मिले वह धन्य।
जो दे वह जगपूज्य है, गुरु की कृपा अनन्य।।
*
ममता में आश्वस्ति है, निहित सुरक्षा भाव।
पीर घटा; संतोष दे, मेटे सकल अभाव।।
*
ममता में कर्तव्य का, सदा समाहित बोध।
अंधा लाड़ न मानिए, बिगड़े नहीं अबोध।।
*
प्यार गंग के साथ में, दंड जमुन की धार।
रीति-नीति सुरसति अदृश, ममता अपरंपार।।
*
दीन हीन असहाय क्यों, सहें उपेक्षा मात्र।
मूक अपंग निबल सदा, चाहें ममता मात्र।।
*
संजीव
२५-२-२०२०

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2020

लेख: भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें


लेख:
भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
.


भारत विविधवर्णी लोक संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश में मनाया जाता है।
पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:
ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं:
कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके

ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं:
मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ

पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी

कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है:
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे

तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है:
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन

नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है:
अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के

इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुबखान करते नहीं अघाते:
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ

लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो

ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी

ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने

ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है।
रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। ये फागें छंद प्रभाकर के अनुसार महाभागवत जातीय नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए:
किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी

नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए:
बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे
*

iei प्रस्ताव व्यक्तिगत

प्रस्ताव १

For use by Headquarters (Programme code):

Centre code Prog Type# Div Board Fin. Year* Prog. No.

Name of the Centre: जबलपुर लोकल सेंटर, जबलपुर।
Proposed Programme: अभियांत्रिकी शब्द कोष।
Title of the Programme: अभियांत्रिकी शब्द कोष। 
Under the aegis of which Divisional Board: Interdisciplinary Co-ordination Committee
Date: 10-11 मई 2020 Venue:जबलपुर लोकल सेंटर, जबलपुर
Associate organization (if any): विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर।
Grant requested from HQrs: Rs. 300000/- (रु. तीन लाख)
Brief Write-up on the Theme in association with proposed foreign bodies
अभियांत्रिकी जन सामान्य के दैनंदिन जीवन से जुडी विधा है। भारत की राज भाषा हिंदी है। संविधान के प्रावधानों और शासकीय दिशा निर्देशिन के बाद भी हिंदी में उच्च तकनीकी शिक्षा न हो पाने का कारण तकनीकी और पारिभाषिक शब्दों का अभाव है। मध्य प्रद्रेश हिंदी में  तकनीकी शिक्षा देने के क्षेत्र में पूरे देश में प्रथम है। आई टी आई डिप्लोमा, पॉलिटेक्निक में त्रिवर्षीय डिप्लोमा की पढ़ाई और परीक्षा हिंदी में होती ही है। अब बी. ई. / बी. टेक. में मिश्रित भाषा में अध्यापन तथा हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओँ में प्रश्न पात्र आ रहे हैं। राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के निर्देशिन के अनुसार विद्यार्थी हिंदी में उत्तर लिख सकते हैं। इन प्रश्न पत्रों में अंग्रेजी के एक शब्द के लिए हिंदी में भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग होने और कभी-कभी गलत शब्द का प्रयोग होने से परीक्षार्थी भ्रमित होते हैं।  
इंस्टीयूशन ऑफ़ इंजीनियर्स भारत की के मात्र संस्था हैजिसकी परीक्षा बी.ई. उपाधि के समकक्ष है और हिंदी में  दी जा सकती है। 
विसंगति यह है कि बाजार में अब तक हिंदी-अंग्रेजी या अंग्रेजी-हिंदी का अभियांत्रिकी शब्द कोष उपलब्ध नहीं है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर ने सदाशयतापूर्वक  इन दोनों शब्दकोशों को तैयार करने का दायित्व वहन करने हेतु सहमति दी है। भारतीय अभियांत्रिकी संस्था के तत्वावधान में कोष प्रकाशित होने पर वह निर्विवाद तथा सर्वमान्य होगा। इससे विद्यार्थियों में शब्द के अर्थ में भ्रम न होगा।  

AREAS PROPOSED TO BE COVERED
01.नागरी अभियांत्रिकी। 
02. वैद्युत अभियांत्रिकी
03. यांत्रिकीय अभियांत्रिकी
04. दूरसंचार अभियांत्रिकी
05. संगणक अभियांत्रिकी
06. स्वचालित (ऑटोमोबाइल) अभियांत्रिकी। 
07. पर्यावरण अभियांत्रिकी।

राशि प्राप्त होने पर संस्थान एक वर्ष में न केवल शब्दकोष तैयार करने अपितु अनुदान मूल्य की प्रतियाँ इंस्टीट्यूशन को निशुल्क देने हेतु भी सहमत है।  

Proposals to be sent (a) 6 months prior to the proposed dates of National Convention, (b) 3 months prior to the proposed dates of
All India Seminar and (c) 1 months prior to the proposed dates of One Day Workshop/Seminar.
Grant available for (a) National Convention: Rs 1,50,000/-, (b) All India Seminar: Maxm. Rs.30,000/-, (c) One Day
Workshop/Seminar: Rs.10,000/-
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प्रस्ताव २

For use by Headquarters (Programme code):

Centre code Prog Type# Div Board Fin. Year* Prog. No.

Name of the Centre: जबलपुर लोकल सेंटर, जबलपुर।
Proposed Programme: बी. टेक. प्रथम सेमिस्टर हेतु पुस्तक लेखन ।
Title of the Programme: । 
Under the aegis of which Divisional Board: Interdisciplinary Co-ordination Committee
Date: 10-11 मई 2020 Venue:जबलपुर लोकल सेंटर, जबलपुर
Associate organization (if any): विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर।
Grant requested from HQrs: Rs. 300000/- (रु. तीन लाख)
Brief Write-up on the Theme in association with proposed foreign bodies
अभियांत्रिकी जन सामान्य के दैनंदिन जीवन से जुडी विधा है। भारत की राज भाषा हिंदी है। संविधान के प्रावधानों और शासकीय दिशा निर्देशिन के बाद भी हिंदी में उच्च तकनीकी शिक्षा न हो पाने का कारण तकनीकी और पारिभाषिक शब्दों का अभाव है। मध्य प्रद्रेश हिंदी में  तकनीकी शिक्षा देने के क्षेत्र में पूरे देश में प्रथम है। आई टी आई डिप्लोमा, पॉलिटेक्निक में त्रिवर्षीय डिप्लोमा की पढ़ाई और परीक्षा हिंदी में होती ही है। अब बी. ई. / बी. टेक. में मिश्रित भाषा में अध्यापन तथा हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओँ में प्रश्न पात्र आ रहे हैं। राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के निर्देशिन के अनुसार विद्यार्थी हिंदी में उत्तर लिख सकते हैं। इन प्रश्न पत्रों में अंग्रेजी के एक शब्द के लिए हिंदी में भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग होने और कभी-कभी गलत शब्द का प्रयोग होने से परीक्षार्थी भ्रमित होते हैं।  
इंस्टीयूशन ऑफ़ इंजीनियर्स भारत की के मात्र संस्था हैजिसकी परीक्षा बी.ई. उपाधि के समकक्ष है और हिंदी में  दी जा सकती है। 
विसंगति यह है कि बाजार में अब तक हिंदी-अंग्रेजी या अंग्रेजी-हिंदी का अभियांत्रिकी शब्द कोष उपलब्ध नहीं है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर ने सदाशयतापूर्वक  इन दोनों शब्दकोशों को तैयार करने का दायित्व वहन करने हेतु सहमति दी है। भारतीय अभियांत्रिकी संस्था के तत्वावधान में कोष प्रकाशित होने पर वह निर्विवाद तथा सर्वमान्य होगा। इससे विद्यार्थियों में शब्द के अर्थ में भ्रम न होगा।  

AREAS PROPOSED TO BE COVERED
01.नागरी अभियांत्रिकी। 
02. वैद्युत अभियांत्रिकी
03. यांत्रिकीय अभियांत्रिकी
04. दूरसंचार अभियांत्रिकी
05. संगणक अभियांत्रिकी
06. स्वचालित (ऑटोमोबाइल) अभियांत्रिकी। 
07. पर्यावरण अभियांत्रिकी।

राशि प्राप्त होने पर संस्थान एक वर्ष में न केवल शब्दकोष तैयार करने अपितु अनुदान मूल्य की प्रतियाँ इंस्टीट्यूशन को निशुल्क देने हेतु भी सहमत है।  

Proposals to be sent (a) 6 months prior to the proposed dates of National Convention, (b) 3 months prior to the proposed dates of
All India Seminar and (c) 1 months prior to the proposed dates of One Day Workshop/Seminar.
Grant available for (a) National Convention: Rs 1,50,000/-, (b) All India Seminar: Maxm. Rs.30,000/-, (c) One Day
Workshop/Seminar: Rs.10,000/-
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प्रस्ताव ३

For use by Headquarters (Programme code):

Centre code Prog Type# Div Board Fin. Year* Prog. No.

Name of the Centre: जबलपुर लोकल सेंटर, जबलपुर
Proposed Programme: अखिल भारतीय अभियंता कवि सम्मेलन
Title of the Programme: अखिल भारतीय अभियंता कवि सम्मेलन
Under the aegis of which Divisional Board: Interdisciplinary Co-ordination Committee
Date: 10-11 मई 2020 Venue: जबलपुर लोकल सेंटर, जबलपुर
Associate organization (if any): नगर निगम जबलपुर, जबलपुर विकास प्राधिकरण जबलपुर।
Grant requested from HQrs: Rs. 30000/- (रु. तीस हजार)
Brief Write-up on the Theme in association with proposed foreign bodies

अभियंता संवर्ग बहुमुखी प्रतिभा का धनी है किन्तु कार्यस्थलियों की व्यस्तता तथा तकनीकी विभागों से प्रोत्साहन न मिलने के कारण 

AREAS PROPOSED TO BE COVERED
01. नगरीय विकास की संकल्पना : कल, आज और कल के संदर्भ में। 
02. नगर विकास के तत्व, उनका महत्त्व और उपादेयता। 
03. नगरीय अधोसंरचना : क्या, क्यों और कैसे? 
04. यातायात समस्या - निरंतर बढ़ती जनसंख्या, वाहन संख्या और जन सुरक्षा। 
05. ध्वनि प्रदूषण : कारण और निवारण।
06.धूम्र प्रदूषण : स्वास्थ्य समस्या और समाधान। 
07. अतिक्रमण की प्रवृत्ति : तकनीकी समस्याएँ और विधिक प्रावधान। 
08. वायु प्रदूषण, स्वास्थ्य समस्याएँ और उपचार।  
09. बढ़ता व्यवसायीकरण : नागरिक जीवन पर दुष्प्रभाव और निदान। 
10. पेय जल व्यवस्था : गिरता भूमि जल स्तर, बढ़ती आवश्यकता, अपव्यय। 
11. वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत और नगर विकास। 
12. उद्यानिकी, पादप रोग और उपचार। 
13. नगरीय यातायात : समस्या और समाधान। 
14. नगरों में औद्योगिक ईकाइयाँ, प्रदूषण और निवारण।           
15. नगरों पर बढ़ता जनसंख्या दबाव और विकास योजनाएँ। 
16. सार्वजनिक मल निकास प्रणाली : समस्याएँ और समाधान। 
17. नगरों में विद्युत् तथा वैकल्पिक प्रकाश व्यवस्था।
18. नगरों में नव निर्माण : नियम, प्रतिबंध, आवश्यकता में समन्वय। 
19. दूरसंचार व्यवस्था : समस्याएँ और समाधान। 
20. नगर नियोजन हुए विकास : हमारी विरासत। 

Proposals to be sent (a) 6 months prior to the proposed dates of National Convention, (b) 3 months prior to the proposed dates of
All India Seminar and (c) 1 months prior to the proposed dates of One Day Workshop/Seminar.
Grant available for (a) National Convention: Rs 1,50,000/-, (b) All India Seminar: Maxm. Rs.30,000/-, (c) One Day
Workshop/Seminar: Rs.10,000/-
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सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

भाषा, काव्य और छंद २

                     -: विश्व वाणी हिंदी संस्थान - समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर :- 
               ll हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल l 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल ll  
        ll जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार l  'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ll
*
लेख: २ 
भाषा, काव्य और छंद 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
*
[लेखमाला की पहली श्रृंखला में भाषा, व्याकरण, वर्ण, व्यंजन, शब्द, रस, भाव, अनुभूति, लय, छंद, शब्द योजना, तुक, अलंकार, मात्रा गणना नियमादि की प्राथमिक जानकारी के पश्चात् ख्यात छन्दशास्त्री साहित्यकार अभियंता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' से प्राप्त करते हैं कुछ और जानकारियां - संपादक]

दग्ध अक्षर
डॉ. सतीश चंद्र सक्सेना 'शून्य' ग्वालियर - दग्ध अक्षर पर चर्चा छूट गई है।

पिंगल शास्त्र के पुराने नियमों के अनुसार १९ अक्षरों (ट, ठ, ढ, ण, प, फ, ब, भ, म, ङ्, ञ, त, थ, झ, र, ल व्, ष, ह) को  दग्धाक्षर मानते हुए इनसे काव्य पंक्तियों का प्रयोग निषिद्ध किया गया था। कालांतर में इन्हें घटाकर ५ अक्षरों (झ, ह, र, भ, ष) को दग्धाक्षर कहकर काव्य पंक्ति के आरम्भ रखा जाना वर्जित किया गया है। 

दीजो भूल न छंद के, आदि झ ह र भ ष कोइ। 
दग्धाक्षर के दोष तें, छंद दोष युत होइ।।

मंगल सूचक अथवा देवतावाचक शब्द में इनका प्रयोग हो तो दोष परिहार हो जाता है। 

देश, काल, परिस्थिति के अनुसार भाषा बदलती है। पानी और बानी बदलने की लोकोक्ति सब जानते हैं। व्याकरण और पिंगल के नियम भी निरंतर बदल रहे हैं।  आधुनिक समय में दग्धाक्षर की मान्यता के मूल में कोई तार्किक कारण नहीं है। १९ से घटकर ५ रह जाना ही संकेत करता है की भविष्य में इन्हें समाप्त होना है। 
वर्ण 
गिरेन्द्र सिंह भदौरिया 'प्राण' - आपके अनुसार हम वर्ण को अजर, अमर और अक्षर मानते हैं तो कहना चाहता हूँ कि वर्ण का आशय तो आकार, जाति, नस्ल, रू,प रंग, संकेत आदि से है। ये सब परिवर्तनशील व मरणधर्मा हैं। फिर ये अजर अक्षर अमर कैसे हो सकते हैं ? हाँ ध्वनि निश्चित ही अक्षर है। उसका संकेत कदापि अक्षर नहीं हो सकता । वह तो अरक्ष या वर्ण ही होगा।

वर्ण / अक्षर :
वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।

आदरणीय कृपया ध्यान दें - अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि - कहलाती वर्ण। चरों विशेषण ध्वनि को दिए गए हैं जिसे चिन्ह विशेष द्वारा अंकित किये जाने पर उसे वर्ण कहा जाता है। ध्वनि के मूल रूप को लिपिबद्ध करने पर उसे संस्कृत और हिंदी में अक्षर या वर्ण कहा गया है। लिपि का आरम्भ होते समय ज्ञान की अन्य शाखाएँ नहीं थीं। युगों बाद समाजशास्त्र में समाज की ईकाई व्यक्ति के मूल उसके गुण या योग्यता जिससे आजीविका मिलती है, को वर्ण कहा गया। सामान्यतः वर्ण अर्थात् व्यक्ति का गुण, ज्ञान, या योग्यता उससे छीनी नहीं जा सकती इसलिए व्यक्ति के जीवनकाल तक स्थाई या अमर है। 
लिंग 
अरुण शर्मा - गुरु जी नमन। इस क्रम को आगे बढाते हुए लिंग पर भी विस्तृत जानकारी प्रदान करें सादर।

संस्कृत शब्द 'लिंग' का अर्थ निशान या पहचान है। लिंग से  जातक की जाति पहचानी जाती है की वह स्त्री है या पुरुष। हिन्दी भाषा में संज्ञा शब्दों के लिंग के अनुसार उनके विशेषणों तथा क्रियाओं का रूप निर्धारित होता है। इस दृष्टि से भाषा के शुद्ध प्रयोग के लिए संज्ञा शब्दों के लिंग-ज्ञान होना आवश्यक। हिंदी में दो लिंग पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग हैं। संस्कृत में ३ लिंग पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग हैं। अंग्रेजी में ४ लिंग पुल्लिंग (मैस्क्युलाइन जेंडर), स्त्रीलिंग (फेमिनाइन जेंडर), नपुंसक लिंग (न्यूट्रल जेंडर) तथा उभय लिंग (कॉमन जेंडर) हैं।
पुल्लिंग 
वे संज्ञा या सर्वनाम शब्द जिनसे पुरुष होने का बोध होता है पुल्लिंग शब्द हैं। पुल्लिंग शब्दों का अंत बहुधा अ अथवा आ से होता है। सामान्यत: पेड़ (अनार, केला, चीकू, देवदार, पपीता, शीशम, सागौन आदि अपवाद नीम, बिही, इमली आदि), धातु (सोना, तांबा, सोना, लोहा अपवाद पीतल अपवाद चाँदी, पीतल, राँगा, गिलट आदि), द्रव (पानी, शर्बत, पनहा, तेल, दूध, दही, घी, शहद, पेट्रोल आदि अपवाद लस्सी, चाय, कॉफी आदि), गृह (सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि ), अनाज (गेहूं, चाँवल, चना, बाजरा, जौ, मक्का, अपवाद धान, कोदो, कुटकी), सागर (प्रशांत, हिन्द महासागर आदि अपवाद बंगाल की खाड़ी, खंभात की खाड़ी आदि), पर्वत (विंध्याचल, सतपुड़ा, हिमालय, कैलाश आदि), प्राणीवाचक शब्द (इंसान, मनुष्य, व्यक्ति, पशु, गो धन, सुर, असुर, वानर, साधु, शैतान अपवाद पक्षी, चिड़िया, कोयल, गौरैया आदि), देश (भारत, अमरीका, जापान, श्रीलंका आदि अपवाद इटली,जर्मनी आदि), माह (चैत्र, श्रावण, माघ, फागुन, मार्च, अप्रैल, जून, अगस्त आदि), दिन (सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शनिवार, रविवार), समय (युग, वर्ष, साल, दिन, घंटा, मिनिट, सेकेण्ड, निमिष, पल आदि अपवाद घड़ी, ), अक्षर (अ, आ, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: अपवाद इ, ई ) 
 स्त्रीलिंग 
वे संज्ञा या सर्वनाम शब्द जो स्त्री होने का बोध कराएँ, उन्हें स्त्रीलिंग शब्द कहते हैं। स्त्रीलिंग शब्दों का अंत बहुधा इ या ई से होता है। सामान्यत: आहार (रोटी, दाल, कढ़ी, सब्जी, साग, पूड़ी, खीर, पकौड़ी, कचौड़ी, बड़ी, गजक आदि अपवाद पान, पापड़ आदि), पुस्तक ( रामायण, भगवद्गीता, रामचरित मानस, बाइबिल, कुरान, गीतांजलि आदि अपवाद वेद, पुराण, उपनिषद, सत्यर्थप्रकाश, गुरुग्रंथ साहिब), तिथि (प्रथमा, द्वितीया, प्रदोष, त्रयोदशी, अमावस्या, पूर्णिमा आदि), राशि (कर्क, मीन, तुला, सिंह, कुम्भ, मेष आदि), समूहवाचक शब्द (भीड़,सेना, सभा, कक्षा, समिति अपवाद हुजूम,दल, जमघट आदि), बोलियाँ (संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभृंश, हिंदी, बांगला, तमिल, असमिया, अंग्रेजी, रुसी, बुंदेली आदि), नदी (नर्मदा, गंगा, कावेरी, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, वोल्गा, टेम्स आदि), मसाले (हल्दी, मिर्ची, लौंग, सौंफ, आजवाइन, अपवाद धनिया, जीरा आदि), वस्त्र (धोती, साड़ी, सलवार, टाई, शमीज, जाँघिया, बनियाइन, चोली  आदि अपवाद कोट, कुरता, पेंट, पायजामा, ब्लाउज आदि ), आभूषण (चूड़ी, पायल, बिछिया, बिंदिया, अंगूठी, नथ, करधनी अपवाद कंगन, बेंदा आदि)। 
अपवादों को छोड़ दें तो आकार में छोटी, स्त्रियों द्वारा प्रयोग की जानेवाली, कोमल, अथवा परावलंबी वस्तुएँ स्त्रीलिंग हैं जबकि अपेक्षाकृत बड़ी, पुरुषों द्वारा प्रयोग की जानेवाली, कठोर अथवा स्वावलंबी वस्तुतं पुल्लिंग हैं। सबसे बड़ा अपवाद 'मूँछ' है जो पौरुष का प्रतीक होते हुए भी स्त्रीलिंग है और घूँघट अथवा पर्दा स्त्रियों से सम्बद्ध होने के बाद भी पुल्लिंग है।  
लिंग परिवर्तन  
१. 'ई' प्रत्यय जोड़कर - देव - देवी, नर - नारी, जीजा - जीजी, दास - दासी, वानर - वानरी आदि। नाना - नानी, दादा - दादी, चाचा - चाची, मामा - मामी, मौसा - मौसी, लड़का - लड़की, मोड़ा - मोड़ी, लल्ला - लल्ली, पल्ला - पल्ली, निठल्ला - निठल्ली, काका - काकी, साला - साली, नाला - नाली, घोड़ा - घोड़ी, बकरा - बकरी, लकड़ा - लकड़ी, लट्ठा - लट्ठी आदि। 
२.  'इया' प्रत्यय जोड़कर -  बूढ़ा - बुढ़िया, खाट - खटिया, बंदर - बंदरिया, लोटा - लुटिया, बट्टा - बटिया आदि।  
३. 'इका' प्रत्यय जोड़कर -  बालक - बालिका, पालक - पालिका, चालक - चालिका, पाठक - पाठिका, संपादक - संपादिका, पत्र - पत्रिका। 
४. 'आनी' प्रत्यय जोड़कर - ठाकुर - ठकुरानी, सेठ - सेठानी, देवर - देवरानी, इंद्र - इंद्राणी, नौकर - नौकरानी,  मेहतर - मेहतरानी।  
५. 'आइन' प्रत्यय जोड़कर - गुरु - गुरुआइन, पंडित - पंडिताइन, चौधरी - चौधराइन, बाबू - बबुआइन, बनिया - बनियाइन, साहू - सहुआइन, साहब - सहबाइन आदि।
६. 'इन' प्रत्यय जोड़कर - माली - मालिन, लुहार - लुहारिन, कुम्हार - कुम्हारिन, दर्जी  - दर्जिन, सुनार सुनारिन, मजदूर - मजदूरिन, हलवाई - हलवाइन, चौकीदार - चौकीदारिन, चमार - चमारिन, धोबी - धोबिन, बाघ - बाघिन, सांप - साँपिन, नाग - नागिन। 
७. 'नी' प्रत्यय जोड़ कर - डॉक्टर - डॉक्टरनी, मास्टर - मास्टरनी, अफसर - अफसरनी, कलेक्टर - कलेक्टरनी, आदि।   
८. 'ता' के स्थान पर 'त्री' का प्रयोग कर - धाता - धात्री, वक्ता - वक्त्री, रचयिता - रचयित्री, नेता - नेत्री, अभिनेता - अभिनेत्री,  विधाता - विधात्री, कवि - कवयित्री।   
९. 'नई' प्रत्यय का प्रयोग कर -  हाथी - हथिनी, शेर - शेरनी, चाँद - चाँदनी, सिंह - सिंहनी, मोर - मोरनी, चोर - चोरनी, हंस - हंसनी, भील - भीलनी, ऊँट - ऊँटनी।  
१०. 'इनी' प्रत्यय का प्रयोग कर - मनस्वी - मनस्विनी, तपस्वी - तपस्विनी, सुहास - सुहासिनी, सुभाष - सुभाषिणी / सुभाषिनी, अभिमान अभिमानिनी, मान - मानिनी, नट - नटिनी, आदि। 
११. 'ति' / 'ती' प्रत्यय का प्रयोग कर -  भगवान - भगवती, श्रीमान - श्रीमती, पुत्रवान - पुत्रवती, आयुष्मान - आयुष्मति, बुद्धिमान - बुद्धिमति, चरित्रवान - चरित्रवती आदि। 
१२. 'आ' प्रत्यय जोड़कर - प्रिय - प्रिय, सुत - सुता, तनुज - तनुजा, तनय - तनया, पुष्प - पुष्पा, श्याम - श्यामा, आत्मज - आत्मजा, भेड़ - भेड़ा, चंचल - चंचला, पूज्य - पूज्या, भैंस - भैंसा आदि। 
१३. कोई नियम नहीं -  भाई - बहिन, सम्राट - साम्राज्ञी, बेटा - बहू, पति - पत्नी, पिता - माता, पुरुष  - स्त्री, बिल्ली - बिलौटा, वर - वधु, मर्द - औरत, राजा - रानी, बुआ  - फूफा, बैल - गाय आदि।  
१४. कोई परिवर्तन नहीं - किन्नर, हिजड़ा, श्रमिक, किसान, इंसान, व्यक्ति, विद्यार्थी, शिक्षार्थी, लाभार्थी, रसोइया आदि। 
आध्यात्म, धर्म और विज्ञान तीनों सृष्टि की उत्पत्ति नाद अथवा ध्वनि से मानते हैं। सदियों पूर्व वैदिक ऋषियों ने ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति बताई, अब विज्ञान नवीनतम खोज के अनुसार सूर्य से नि:सृत ध्वनि तरंगों का रेखांकन कर उसे ॐ के आकार का पा रहे हैं। ऋषि परंपरा ने इस सत्य की प्रतीति कर सर्व ​सामान्य को बताया कि धार्मिक अनुष्ठानों में ध्वनि पर आधारित मंत्रपाठ या जप ॐ से आरम्भ हुए समाप्त करने पर ही फलता है। यह ॐ परब्रम्ह है, जिसका अंश हर जीव में जीवात्मा के रूप में है। नव जन्मे जातक की रुदन-ध्वनि बताती है कि नया प्राणी आ गया है जो आजीवन अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति ध्वनि के माध्यम से करेगा। आदि मानव वर्तमान में प्रचलित भाषाओँ तथा लिपियों से अपरिचित था। प्राकृतिक घटनाओं तथा पशु-पक्षियों के माध्यम से सुनी ध्वनियों ने उसमें हर्ष, भय, शोक आदि भावों का संचार किया। शांत सलिल-प्रवाह की कलकल, कोयल की कूक, पंछियों की चहचहाहट, शांत समीरण, धीमी जलवृष्टि आदि ने सुख तथा मेघ व तङित्पात की गड़गड़ाहट, शेर आदि की गर्जना, तूफानी हवाओं व मूसलाधार वर्ष के स्वर ने उसमें भय का संचार किया। इन ध्वनियों को स्मृति में संचित कर, उनका दोहराव कर उसने अपने साथियों तक अपनी​ ​अनुभूतियाँ सम्प्रेषित कीं। यही आदिम भाषा का जन्म था। वर्षों पूर्व पकड़ा गया भेड़िया बालक भी ऐसी ही ध्वनियों से शांत, भयभीत, क्रोधित होता देखा गया था।
कालांतर में सभ्यता के बढ़ते चरणों के साथ करोड़ों वर्षों में ध्वनियों को सुनने-समझने, व्यक्त करने का कोष संपन्न होता गया। विविध भौगोलिक कारणों से मनुष्य समूह पृथ्वी के विभिन्न भागों में गये और उनमें अलग-अलग ध्वनि संकेत विकसित और प्रचलित हुए जिनसे विविध भाषाओँ तथा बोलिओं का विकास हुआ। सुनने-कहने की यह परंपरा ही श्रुति-स्मृति के रूप में सहस्त्रों वर्षों तक भारत में फली-फूली। भारत में मानव कंठ में ध्वनि के उच्चारण स्थानों की पहचान कर उनसे उच्चरित हो सकनेवाली ध्वनियों को वर्गीकृत कर शुद्ध ध्वनि पर विशेष ध्यान दिया गया। इन्हें हम स्वर के तीन वर्ग हृस्व, दीर्घ व् संयुक्त तथा व्यंजन के ६ वर्गों क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग आदि के रूप में जानते हैं। अब समस्या इस मौखिक ज्ञान को सुरक्षित रखने की थी ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उसे सही तरीके से पढ़ा-सुना तथा सही अर्थों में समझा-समझाया जा सके। निराकार ध्वनियों का आकार या चित्र नहीं था, जिस शक्ति के माध्यम से इन ध्वनियों के लिये अलग-अलग संकेत मिले उसे आकार या चित्र से परे मानते हुए चित्र​ ​गुप्त संज्ञा दी जाकर ॐ से अभिव्यक्त कर ध्वन्यांकन के अपरिहार्य उपादानों असि-मसि तथा लिपि का अधिष्ठाता कहा गया। इसीलिए वैदिक काल से मुग़ल काल तक धर्म ग्रंथों में चित्रगुप्त का उल्लेख होने पर भी उनका कोई मंदिर, पुराण, उपनिषद, व्रत, कथा, चालीसा, त्यौहार आदि नहीं बनाये गये।
निराकार का साकार होना, अव्यक्त का व्यक्त होना, ध्वनि का लिपि, लेखनी, शिलापट के माध्यम से ​स्थायित्व पाना और सर्व साधारण तक पहुँचना मानव सभ्यता ​का ​सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है। किसी भी नयी पद्धति का परंपरावादियों द्वारा विरोध किया ही जाता है। लिपि द्वारा ज्ञान को संचित करने का विरोध हुआ ही होगा और तब ऐसी-मसि-लिपि के अधिष्ठाता को कर्म देवता कहकर विरोध का शमन किया गया। लिपि का विरोध अर्थात अंत समय में पाप-पुण्य का ले​खा रखनेवाले का विरोध कौन करता? आरम्भ में वनस्पतियों की टहनियों को पैना कर वनस्पतियों के रस में डुबाकर शिलाओं पर संकेत अंकित-चित्रित किये गये। ये शैल-चित्र तत्कालीन मनुष्य की शिकारादि क्रियाओं, पशु-पक्षी​, सहचरों ​आदि ​से संबंधित हैं। इनमें प्रयुक्त संकेत क्रमश: रुढ़, सर्वमान्य और सर्वज्ञात हुए। इस प्रकार भाषा के लिखित रूप लिपि (स्क्रिप्ट) का उद्भव हुआ। लिप्यांकन में प्रवीणता प्राप्त कायस्थ वर्ग को समाज, शासन तथा प्रशासन में सर्वोच्च स्थान सहस्त्रों वर्षों तक प्राप्त ​होता रहा जबकि ब्राम्हण वर्ग शिक्षा प्रदाय हेतु जिम्मेदार था। ध्वनि के उच्चारण तथा अंकन का ​शास्त्र विकसित होने से शब्द-भंडार का समृद्ध होना, शब्दों से भावों की अभिव्यक्ति कर सकना तथा इसके समानांतर लिपि का विकास होने से ज्ञान का आदान-प्रदान, नव शोध और सकल मानव जीवन व संस्कृति का विकास संभव हो सका।
रोचक तथ्य यह भी है कि मौसम, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, तथा वनस्पति ने भी भाषा और लिपि के विकास में योगदान किया। जिस अंचल में पत्तों से भोजपत्र और टहनियों या पक्षियों के पंखों कलम बनायीं जा सकी वहाँ मुड्ढे (अक्षर पर आड़ी रेखा) युक्त लिपि विकसित हुई जबकि जहाँ ताड़पत्र पर लिखा जाता था वहाँ मुड्ढा खींचने पर उसके चिर जाने के कारण बिना मुड्ढे वाली लिपियाँ विकसित हुईं। क्रमश: उत्तर व दक्षिण भारत में इस तरह की लिपियों का अस्तित्व आज भी है। मुड्ढे हीन लिपियों के अनेक प्रकार कागज़ और कलम की किस्म तथा लिखनेवालों की अँगुलियों क्षमता के आधार पर बने। जिन क्षेत्रों के निवासी वृत्ताकार बनाने में निपुण थे वहाँ की लिपियाँ तेलुगु, कन्नड़ , बांग्ला, उड़िया आदि की तरह हैं जिनके अक्षर किसी बच्चे को जलेबी-इमरती की तरह लग सकते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली अल्पना, रंगोली, चौक आदि में भी गोलाकृतियाँ अधिक हैं। यहाँ के बर्तन थाली, परात, कटोरी, तवा, बटलोई आदि और खाद्य रोटी, पूड़ी, डोसा, इडली, रसगुल्ला आदि भी वृत्त या गोल आकार के हैं। बर्फ, ठंड और नमी वाले अंचलों में विपरीत पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण हाथों की अंगुलिया कड़ी हो गईं, वहाँ के निवासी वृत्ताकार बनाने में असुविधा अनुभव करते थे। वहाँ सीधी-छोटी रेखाओं और बिंदुओं का समायोजन कर रोमन लिपि का विकास हुआ। रेगिस्तानों में पत्तों का उपचार कर उन पर लिखने की मजबूरी थी इसलिए छोटी-छोटी रेखाओं से निर्मित अरबी, फ़ारसी जैसी लिपियाँ विकसित हुईं। चित्र अंकन करने की रुचि ने चित्रात्मक लिपि​यों​ के विकास का पथ प्रशस्त किया। इसी तरह ​ वातावरण तथा ​खान-पान के कारण विविध अंचल के निवासियों में विविध ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता भी अलग-अलग होने से वहाँ विकसित भाषाओँ में वैसी ध्वनियुक्त शब्द बने। जिन अंचलों में जीवन संघर्ष कड़ा था वहाँ की भाषाओँ में कठोर ध्वनियाँ अधिक हैं, जबकि अपेक्षाकृत शांत और सरल जीवन वाले क्षेत्रों की भाषाओँ में कोमल ध्वनियाँ अधिक हैं। यह अंतर हरयाणवी, राजस्थानी, काठियावाड़ी और बांग्ला, बृज, अव​धी भाषाओँ में अनुभव किया जा सकता है।
सार यह कि भाषा और लिपि के विकास में ध्वनि का योगदान सर्वाधिक है। भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने में सक्षम मानव ने गद्य और पद्य दो शैलियों का विकास किया। इसका उत्स पशु-पक्षियों और प्रकृति से प्राप्त ध्वनियाँ ही बनीं। अलग-अलग रुक-रुक कर हुई ध्वनियों ने गद्य विधा को जन्म दिया जबकि नदी के कलकल प्रवाह या निरंतर कूकती कोयल की सी ध्वनियों से पद्य का जन्म हुआ। पद्य के सतत विकास ने गीति काव्य का रूप लिया जिसे गाया जा सके। गीतिकाव्य के मूल तत्व ध्वनियों का नियमित अंतराल पर दुहराव, बीच-बीच में ठहराव और किसी अन्य ध्वनि खंड के प्रवेश से हुआ। किसी नदी तट के किनारे कलकल प्रवाह के साथ निरंतर कूकती कोयल को सुनें तो एक ध्वनि आदि से अंत तक, दूसरी के बीच-बीच में प्रवेश से गीत के मुखड़े और अँतरे की प्रतीति होगी। मैथुनरत क्रौंच युगल में से ​व्याध द्वारा ​​नर का ​वध, मादा का आर्तनाद और आदिकवि वाल्मिकी के मुख से प्रथम कविता का प्रागट्य इसी सत्य की पुष्टि करता है​​। ​हो इस प्रसंग से प्रेरित होकर​​ ​हिरण शावक के वध के पश्चात अश्रुपात करती हिरणी के रोदन से ग़ज़ल की उत्पत्ति ​जैसी मान्यताएँ गीति काव्य की उत्पत्ति में प्रकृति​-पर्यावरण का योगदान इंगित करते हैं​।
व्याकरण और पिंगल का विकास-
भारत में गुरुकुल परम्परा में साहित्य की सारस्वत आराधना का जैसा वातावरण रहा वैसा अन्यत्र कहीं नहीं रह सका​​।​​ इसलिये भारत में हर मनुष्य हेतु आवश्यक सोलह संस्कारों में अक्षरारम्भ को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ। भारत में विश्व की पहली कविता का जन्म ही नहीं हुआ पाणिनि व पिंगल ने विश्व के सर्वाधिक व्यवस्थित, विस्तृत और समृद्ध व्याकरण और पिंगल शास्त्रों का सृजन किया जिनका कमोबेश अनुकरण और प्रयोग विश्व की अधिकांश भाषाओँ में हुआ। जिस तरह व्याकरण के अंतर्गत स्वर-व्यंजन का अध्ययन ध्वनि विज्ञान के आधारभूत तत्वों के आधार पर हुआ वैसे ही ​ छंद शास्त्र के अंतर्गत छंदों का निर्माण ध्वनि खण्डों की आवृत्तिकाल के आधार पर हुआ। पिंगल ने लय या गीतात्मकता के दो मूल तत्वों गति-यति को पहचान कर उनके मध्य प्रयुक्त की जा रही लघु-दीर्घ ध्वनियों को वर्ण या अक्षर ​मात्रा ​के माध्यम से पहचाना तथा उन्हें क्रमश: १-२ मात्रा भार देकर उनके उच्चारण काल की गणना बिना किसी यंत्र या विधि न विशेष का प्रयोग किये संभव बना दी। ध्वनि खंड विशेष के प्रयोग और आवृत्ति के आधार पर छंद पहचाने गये। छंद में प्रयुक्त वर्ण तथा मात्रा के आधार पर छंद के दो वर्ग वर्णिक तथा मात्रिक बनाये गये। मात्रिक छंदों के अध्ययन को सरल करने के लिये ८ लयखंड (गण) प्रयोग में लाये गये सहज बनाने के लिए एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' बनाया गया।
गीति काव्य में छंद-
गणित के समुच्चय सिद्धांत (सेट थ्योरी) तथा क्रमचय और समुच्चय (परमुटेशन-कॉम्बिनेशन) का प्रयोग कर दोनों वर्गों में छंदों की संख्या का निर्धारण किया गया। वर्ण तथा मात्रा संख्या के आधार पर छंदों का नामकरण गणितीय आधार पर किया गया। मात्रिक छंद के लगभग एक करोड़ तथा वर्णिक छंदों के लगभग डेढ़ करोड़ प्रकार गणितीय आधार पर ही बताये गये हैं। इसका परोक्षार्थ यह है कि वर्णों या मात्राओं का उपयोग कर जब भी कुछ कहा जाता है वह किसी न किसी ज्ञात या अज्ञात छंद का छोटा-बड़ा अंश होता है। इसे इस तरह समझें कि जब भी कुछ कहा जाता है वह अक्षर होता है। संस्कृत के अतिरिक्त विश्व की किसी अन्य भाषा में गीति काव्य का इतना विशद और व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। संस्कृत से यह विरासत हिंदी को प्राप्त हुई तथा संस्कृत से कुछ अंश अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी , चीनी, जापानी आदि तक भी गया। यह अलग बात है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिंदी में भी वर्णिक और मात्रिक दोनों वर्गों के लगभग पच्चीस-तीस छंद ही मुख्यतः: प्रयोग हो रहे हैं। रचनाओं के गेय और अगेय वर्गों का अंतर लय होने और न होने पर ही है। गद्य गीत और अगीत ऐसे वर्ग हैं जो दोनों वर्गों की सीमा रेखा पर हैं अर्थात जिनमें भाषिक प्रवाह यत्किंचित गेयता की प्रतीति कराता है। यह निर्विवाद है कि समस्त गीति काव्य ऋचा, मन्त्र, श्लोक, लोक गीत, भजन, आरती आदि किसी भी देश रची गयी हों छंदाधारित है। यह हो सकता है कि उस छंद से अपरिचय, छंद के आंशिक प्रयोग अथवा एकाधिक छंदों के मिश्रण के कारण छंद की पहचान न की जा सके।
वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ गीत का आदि रूप हैं। गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा। संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा। सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' कहा।
अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर आदि गीत रूपों में लय तथा तुकांत-पदांत सहज साध्य रहे। यह अवश्य हुआ कि सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है।खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद-शुद्धता के समर्थन या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी।
छंदमुक्तता और छंद हीनता-
लम्बे काल खंड के पश्चात हिंदी पिंगल को महाप्राण निराला ने कालजयी अवदान छंदमुक्त गीति रचनाओं के रूप में दिया। उत्तर भारत के लोककाव्य व संगीत तथा रवींद्र संगीत में असाधारण पैठ के कारण निराला की छंद पर पकड़ समय से आगे की थी। उनकी प्रयोगधर्मिता ने पारम्परिक छंदों के स्थान पर सांगीतिक राग-ताल को वरीयता देते हुए जो रचनाएँ उन्हें प्रस्तुत कीं उन्हें भ्रम-वश छंद विहीन समझ लिया गया, जबकि उनकी गेयता ही इस बात का प्रमाण है कि उनमें लय अर्थात छंद अन्तर्निहित है। निराला ने पारम्परिक छंदों के साथ अप्रचलित छंदों का मिश्रण कर अपनी काव्य रचनाओं को अन्यों के लिए गूढ़ बना दिया। निराला की रचनाओं और तथाकथित प्रगतिशील कवियों की रचनाओं के सस्वर पाठ से छंदमुक्तता और छंदहीनता के अंतर को सहज ही समझा जा सकता है।
दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा। निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गये। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। विश्वविद्यालयों में हिंदी की किताबी शोधोपाधियाँ प्राप्त किन्तु छंद रचना हेतु आवश्यक प्रतिभा व् समझ से हीन प्राध्यापकों का एक नया वर्ग पैदा हो गया जिसने अमरता की चाह में अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलंब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण, सत्तासीन राजनेताओं और शिक्षा संस्थानों, पत्रिकाओं और समीक्षकों के समर्थन के बाद भी नयी कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती गयी। गीत के मरने की घोषणा करनेवाले प्रगतिवादी कवि और समीक्षक स्वयं काल के गाल में समा गये पर गीत लोक मानस में न केवल जीवित रहा अपितु सामयिक देश-काल-परिस्थितियों से ताल-मेल बैठाते हुए जनानुभूतियों का प्रवक्ता बन गया। हिंदी छंदों को कालातीत अथवा अप्रासंगिक मानने की मिथ्या अवधारणा पाल रहे रचनाकार जाने-अनजाने में उन्हीं छंदों का प्रयोग बहर का नाम देकर करते हैं।