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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

ullala salila: abhiyanta -sanjiv


उल्लाला सलिला:
संजीव
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
 *
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
​भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??​
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम  दुत्कारते।।
*
​हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।। 
*
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बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

geet; andhera dhara par -sanjiv


गीत:
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए… 
संजीव 
*
पलो आँख में स्वप्न बनकर सदा तुम
नयन-जल में काजल कहीं बह न जाए.
जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
अपनों ने अपना सदा रंग दिखाया,
न नपनों ने नपने को दिल में बसाया.
लगन लग गयी तो अगन ही सगन को
सहन कर न पायी पलीता लगाया.
दिलवर का दिल वर लो, दिल में छिपा लो
जले दिलजले जलजले आ न पाए...
*
कुटिया ही महलों को देती उजाला
कंकर के शंकर को पूजे शिवाला.
मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
*
सहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
तभी हो सको सूर मीरा कबीरा.
पढ़ो ढाई आखर, नहा स्नेह-सागर
भरो फेफड़ों में सुवासित समीरा.
मगन हो गगन को निहारो, सुनाओ
'सलिल' नाद अनहद कहीं खो जाए...
*
सगन = शगुन, जलजला = भूकंप, नरमदा = नर्मदा, सपरना = स्नान करना
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मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

tribhangi chhand - sanjiv

​त्रिभंगी सलिला:
हम हैं अभियंता
संजीव
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२  x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वरकर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन मन भावन, सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटायें, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ,  उन्नत देश करें न चुकें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
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Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
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​​
'salil'

vimarsh: rough- fair -S.N.Sharma 'kamal' -sanjiv

विमर्श :
आ० आचार्य जी , निम्नलिखित वाक्य में रफ और फेयर के लिए हिंदी के शब्द क्या होंगे ?
यह रफ लिखा है इसे फेयर करना है "
यह प्राथमिक/प्रारंभिक लिखा है, अंतिम रूप देना है.
रफ-फेयर के लिए कच्चा-पक्का का उपयोग मुझे कम रुचता है
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harigitika: abhiyantriki -sanjiv

हरिगीतिका सलिला
संजीव
*
(छंद विधान: १ १ २ १ २ x ४, पदांत लघु गुरु, चौकल पर जगण निषिद्ध, तुक दो-दो चरणों पर, यति १६-१२ या १४-१४ या ७-७-७-७ पर)
*
कण जोड़ती, तृण तोड़ती, पथ मोड़ती, अभियांत्रिकी
बढ़ती चले, चढ़ती चले, गढ़ती चले, अभियांत्रिकी
उगती रहे, पलती रहे, खिलती रहे, अभियांत्रिकी
रचती रहे, बसती रहे, सजती रहे, अभियांत्रिकी
*
नव रीत भी, नव गीत भी, संगीत भी, तकनीक है
कुछ हार है, कुछ प्यार है, कुछ जीत भी, तकनीक है
गणना नयी, रचना नयी, अव्यतीत भी, तकनीक है
श्रम मंत्र है, नव यंत्र है, सुपुनीत भी तकनीक है
*

यह देश भारत वर्ष है, इस पर हमें अभिमान है
कर दें सभी मिल देश का, निर्माण यह अभियान है
गुणयुक्त हों अभियांत्रिकी, श्रम-कोशिशों का गान है
परियोजना त्रुटिमुक्त हो, दुनिया कहे प्रतिमान है
*

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सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

chitr par kavita: kundali -sanjiv


चित्र पर कविता: कुंडली
प्रथम पेट पूजा करें
संजीव

तस्वीर



प्रथम पेट पूजा करें, लक्ष्मी-पूजन बाद
मुँह में पानी आ रहा, सोच मिले कब स्वाद
सोच मिले कब स्वाद, भोग पहले खुद खा ले
दास राम का अधिक, राम से यह दिखला दे
कहे 'सलिल' कविराय, न चूकेंगे अवसर हम
बन घोटाला वीर, लगायें भोग खुद प्रथम

pratham pet pooja karen , lakshami poojan baad
munh men pani aa raha, soch mile kab swad
soch mile kab swad, bhog pahle khud khaa le
daas ram ka adhik ram se, yah dikhla de
kahe 'salil' kaviraay, n chookenge avsar hm
ban ghotala veer, lagayen bhog khud pratham
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​​

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झंडा ऊँचा रहे हमारा

THOUGHT OF THE DAY

aआज का विचार 

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

sortha salila: ho n yantra ka das sanjiv

सोरठा सलिला:
हो न यंत्र का दास
संजीव
*
हो न यंत्र का दास, मानव बने समर्थ अब
रख खुद पर विश्वास, 'सलिल' यांत्रिकी हो सफल
*
गुणवत्ता से आप, करिए समझौता नहीं
रहिए सदा सतर्क, श्रेष्ठ तभी निर्माण हो
*
भूलें नहीं उसूल, कालजयी निर्माण हों
कर त्रुटियाँ उन्मूल, यंत्री नव तकनीक चुन
*
निज भाषा में पाठ, पढ़ो- कठिन भी हो सरल
होगा तब ही ठाठ, हिंदी जगवाणी बने
*
ईश्वर को दें दोष, ज्यों बिन सोचे आप हम
पाते हैं संतोष, त्यों यंत्री को कोसकर
*
जब समाज हो भ्रष्ट, कैसे अभियंता करे
कार्य न हों जो नष्ट, बचा रहे ईमान भी
*
करें कल्पना आप, करिए उनको मूर्त भी
समय न सकता नाप, यंत्री के अवदान को
*
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Sri Aadi Chitragupt Mandir, Patna, VIDEO

rook review: bujurgon ki apni duniya -sanjiv

कृति चर्चा:
जतन से ओढ़ी चदरिया: बुजुर्गों की अपनी दुनिया
चर्चाकार: संजीव
*
[कृति विवरण: जतन से ओढ़ी चदरिया, लोकोपयोगी, कृतिकार डॉ. ए. कीर्तिवर्धन, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी-सजिल्द, पृष्ठ २५६, मूल्य ३०० रु., मीनाक्षी प्रकाशन दिल्ली]
*
साहित्य का निकष सबके लिए हितकारी होना है. साहित्य की सर्व हितैषी किरणें वहाँ पहुँच कर प्रकाश बिखेरती हैं जहाँ स्वयं रवि-रश्मियाँ भी नहीं पहुँच पातीं. लोकोक्ति है की उगते सूरज को सभी नमन करते हैं किन्तु डूबते सूर्य से आँख चुराते हैं. संवेदनशील साहित्यकार ए. कीर्तिवर्धन ने सामान्यतः अनुपयोगी - अशक्त  मानकर  उपेक्षित किये जाने वाले वृद्ध जनों के भाव संसार में प्रवेश कर उनकी व्यथा कथा को न केवल समझा अपितु वृद्धों के प्रति सहानुभूति और संवेदना की भाव सलिला प्रवाहित कर अनेक रचनाकारों को उसमें अवगाहन करने के लिए प्रेरित किया. इस आलोडन से प्राप्त रचना-मणियों की भाव-माला माँ सरस्वती के श्री चरणों में अर्पित कर कृतिकार ने वार्धक्य के प्रति समूचे समाज की भावांजलि निवेदित की है.
भारत में लगभग १५ करोड़ वृद्ध जन निवास करते हैं. संयुक्त परिवार-प्रणाली का विघटन, नगरों में पलायन के फलस्वरूप आय तथा आवासीय स्थान की न्यूनता के कारण बढ़ते एकल परिवार, सुरसा के मुख की तरह बढ़ती मँहगाई के कारण कम पडती आय, खर्चीली शिक्षा तथा जीवन पद्धति, माता-पिता की वैचारिक संकीर्णता, नव पीढ़ी की संस्कारहीनता न उत्तरदायित्व से पलायन आदि कारणों ने वृद्धों के अस्ताचलगामी जीवन को अधिक कालिमामय कर दिया है. शासन- प्रशासन भी वृद्धों के प्रति अपने उत्तरदायित्व से विमुख है. अपराधियों के लिए वृद्ध सहज-सुलभ लक्ष्य हैं जिन्हें आसानी से शिकार बनाया जा सकता है. वृद्धों की असहायता तथा पीड़ा ने श्री कीर्तिवर्धन को इस सारस्वत अनुष्ठान के माध्यम से इस संवर्ग की समस्याओं को न केवल प्रकाश में लेन, उनका समाधान खोजने अपितु लेखन शक्ति के धनी साहित्यकारों को समस्या के विविध पक्षों पर सोचने-लिखने के लिए उन्मुख करने को प्रेरित किया।
विवेच्य कृति में २० पद्य रचनाएँ, ३६ गद्य रचनाएँ, कीर्तिवर्धन जी की १२ कवितायेँ तथा कई बहुमूल्य उद्धरण संकलित हैं. डॉ. कृष्णगोपाल श्रीवास्तव, डॉ. रामसेवक शुक्ल. कुंवर प्रेमिल, रमेश नीलकमल, रामसहाय वर्मा, डॉ. नीलम खरे, सूर्यदेव पाठक 'पराग', जगत नन्दन सहाय, पुष्प रघु, डॉ. शरद नारायण खरे, डॉ. कौशलेन्द्र पाण्डेय, ओमप्रकाश दार्शनिक, राना लिघौरी आदि की कलमों ने इस कृति को समृद्ध किया है.
प्रसिद्द आङ्ग्ल साहित्यकार लार्ड रोबर्ट ब्राडमिग के अनुसार 'द डार्केस्ट क्लाउड विल ब्रेक व्ही फाल टु राइज, व्ही स्लीप टु वेक'. डॉ. कीर्तिवर्धन लिखते है ' जिंदगी में अनेक मुकाम आयेंगे / हँसते-हँसते पार करना / जितने भी व्यवधान आयेंगे'. कृति के हर पृष्ठ पर पाद पंक्तियों में दिए गए प्रेरक उद्धरण पाठक को मनन-चिंतन हेतु प्रेरित करते हैं.
रचनाकारों ने छन्दमुक्त कविता, गीत, मुक्तिका, त्रिपदी (हाइकु), मुक्तक, क्षणिका, लेख, संस्मरण, कहानी, लघुकथा आदि विधाओं के माध्यम से वृद्धों की समस्याओं के उद्भव, विवेचन, उपेक्षा, निदान आदि पहलुओं की पड़ताल तथा विवेचना कर समाधान सुझाये हैं. इस कृति की सार्थकता तथा उपयोगिता वृद्ध-समस्याओं के निदान हेतु नीति-निर्धारित करनेवाले विभागों, अधिकारियों, समाजशास्त्र के प्राध्यापकों, विद्यार्थियों के साथ उन वृद्ध जनों तथा उनकी संतानों के लिए भी है. इस जनोपयोगी कृति की अस्माग्री जुटाने के लिए कृतिकार तथा इसे प्रस्तुत करने के लिए प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं.
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शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

geet: susheel guru

एक गीत
सुशील गुरु
डाँ सुशील गुरु
*
तुम सपनों का नीड़ बसाने आई वंदनवार लिए 
मैं द्वार पर खड़ा रहा गंधी पुष्पों का हार लिए 
मेरा नवजीवन प्रवेश था पावन था 
बिन बर्षा मदिर हृदय का सावन था 
मिलें गगन में तुम मुझको जल से 
निर्मल उषा जैसा अरुणिम तेरा आँचल था\ 
तुम मुझको बहलाने आई अंजलि भर भर प्यार लिए 
मैं द्वार पर खड़ा रहा गंधी पुष्पों का हार लिए 
रैन मृदुल होता है मृदुल रैन का जीवन 
तभी छितिज पर इन्द्रधनुष हो जाता है मन 
आँचल लहराकर तुमने ही राह् दिखाई 
वंधन तोड़ के अनचाहे भागा मन 
तुमने दिखलाये सपन ताज़महल आकार लिए 
मैं द्वार पर खड़ा रहा गंधी पुष्पों का हार लिए

dohe par kundali : dhananjay singh - sanjiv

​एक ​प्रयोग
दोहे पर कुंडली
धनञ्जय सिंह - संजीव
*
सूरज दस्तक दे रहा खोलो मन के द्वार 
शुभ स्वर्णिम दिनमान का ग्रहण करो उपहार
ग्रहण करो उपहार स्वेद नर्मदा नहाकर
दर्द समेटो विहँस जगत में ख़ुशी लुटाकर
'सलिल' बहे अनवरत करे पत्थर को भी रज

अन्धकार हो सघन निकलता तब ही सूरज

tripadiyan (haiku) sanjiv

त्रिपदियाँ
संजीव
*
परियोजना
अंकुरित पल्लव
लेते आकार.
*
है अभियंता
ब्रम्ह का प्रतिनिधि
भाग्यनियंता
*
बन सकता
कंकर भी शंकर
जड़-चेतन
*
कर प्रयास
श्रम-सीकर बहा
होगा हुलास
*
परिकल्पना
पर्याप्त नहीं, कर
ले संकल्पना
*
तिनके जोड़े
गिरें तब भी पंछी
आस न छोड़े
*
लेता आकार
शिशु और निर्माण
स्वप्न साकार
*
मिटने हेतु
किनारों की दूरियाँ
बनाओ सेतु
*
बना बिजली
जल, लेकिन मत
गिरा बिजली
*
जल अथाह
बाँध लेता है बाँध
भरे न आह
*
हम हैं सिर्फ
प्रस्तोता, दूर कहीं
रचनाकार
*
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शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

kavita: paridhiheen pyaar -sanjiv


एक प्रयोग:
परिधिहीन है प्यार
संजीव
*
परिधिहीन है प्यार हमारा
चक्रव्यूह है चाह हमारी
सीधी रेखा मेहनत का पथ
वर्तुल-विषमय डाह बिचारी
वक्र लकीरें करतल अंकित
त्रिभुज चतुर्भुज वक्र चाप भी
व्यास-आस है लक्ष्य बिंदु सा
कर्ण-वृत्त वरदान, शाप भी
अंक अंक में गुणित वर्ग घन
धन ऋण ऋण का हुआ गुणनफल 
धन धन मिल ऋण कभी न होता
गुणा-भाग विपरीत चलन चल 
भिन्न विभिन्न अभिन्न बूझना
सरल नहीं है, कठिन न मानो
प्रतिषत समय काम दूरी से
सजग रहो अति निकट न जानो
चलनकलन के समीकरण भी
खेल रहे हैं आँख मिचौली
बनते-मिटते रहे समुच्चय
हेरें चुप अमराई-निम्बोली
अंक बीज रेखाओं की तिथि
हर कपाल पर होती अंकित
भाग्यविधाता पग-पग पग रख
मंजिल करता पथ पर टंकित
=================
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history says: mortyre bhagat singh

अतीत के पृष्ठों से

शहीदे आज़म सरदार भगत सिंह का मृत्यु प्रमाणपत्र

फांसी के बाद शव को एक घंटे तक लटकाए रहे गोरे अधिकारी





Photo: Bhagat Singh, Death Certificate

shatpadi: vishdhar ki abhiram chhvi -sanjiv

एक षटपदी
विषधर की अभिराम छवि
संजीव
*
Photo: California Red-Sided Garter Snake.

विषधर की अभिराम छवि देख हुए हैरान
ज्यों नेता इस देश के दिखें न--- हैं शैतान
दिखें न हैं शैतान मोहकर जनगण का मन
संसद में जन सेवा का करते हैं मंचन
घपला करने का न चूकते अफसर अवसर
शासन और प्रशासन ही हैं असली विषधर
***

प्रविष्टियाँ आमंत्रित डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान

प्रविष्टियाँ आमंत्रित
डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान

कहानी लेखन महाविद्यालय एवं शुभ तारिका माविक पत्रिका अंबाला छावनी के संस्थापक डॉ. महाराज कृष्ण जैन की १३ वीं  पुण्य तिथि के अवसर पर पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी द्वारा आगामी 23 मई से 25 मई तक आयोजित राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मलेन एवं पर्यटन शिविर के अवसर पर डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान 51] श्री केशवदेव गिनया देवी बजाज स्मृति सम्मान(2] श्री जीवनराम मुंगी देवी गोयनका स्मृति सम्मान 2 हेतु लेखक--कवि तथा हिंदी के क्षेत्र में कार्य करनेवाले कर्मचारी अधिकारी] समाजसेवी] पर्यटन के इच्छुक नागरिकों से उनके योगदान का विवरण] पूरा पता] प्रकाशित पुस्तक की एक प्रति] ३ रचनाओं की कटिंग]डाक से किसी कूरियर से नहीं]  एवं पंजीकरण शुल्क १०० रु- मनीऑर्डर द्वारा आगामी 11 जनवरी 2014 तक सचिव पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी पो. रिन्जा शिलांग 793006 (मेघालय के पते पर आमंत्रित है- अधिक जानकारी के लिए मोबाइल पर संपर्क करें 09436117260] 09774286215] 09862201449  
e-mail- hindiacademy1@gmail.com http://purvottarhindiacademy.blogspot.com


kriti charcha: o geet ke garud-virat -sanjiv


कृति चर्चा:
गीत का विराटी चरण : ओ गीत के गरुड़
चर्चाकार : संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(कृति विवरण : ओ गीत के गरुण, गीत संग्रह, चंद्रसेन विराट, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ १६०, मूल्य २५० रु., समान्तर प्रकाशन, तराना, उज्जैन, मध्य प्रदेश, भारत )
*
''मूलतः छंद में ही लिखनेवाली उन सभी सृजनधर्मा सामवेदी सामगान के संस्कार ग्रहण कर चुकीं गीत लेखनियों को जो मात्रिक एवं वर्णिक छंदों में भाषा की परिनिष्ठता, शुद्ध लय  एवं संगीतिकता को साधते हुए, रसदशा में रमते हुए अधुनातन मनुष्य के मन के लालित्य एवं राग का रक्षण करते हुए आज भी रचनारत हैं.'' ये समर्पण पंक्तियाँ विश्व वाणी हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार गीत, गजल, मुक्तक, दोहा आदि विधाओं के निपुण-ख्यात कवि अभियंता चंद्रसेन विराट की ३२ वीं काव्यकृति / चौदहवें गीत संग्रह 'ओ गीत के गरुड़' से उद्धृत हैं. उक्त पंक्तियाँ और कृति-शीर्षक कृतिकार पर भी शत-प्रतिशत खरी उतरती हैं.




विराट जी सनातन सामवेदी सामगानी सम्प्रदाय के सशक्ततम सामयिक हस्ताक्षरों में सम्मिलित हैं. छंद की वर्निंक तथा मात्रिक दोनों पद्धतियों में समान सहजता, सरलता, सरसता। मौलिकता तथा दक्षता के प्रणयन कर्म में समर्थ होने पर भी उन्हें मात्रिक छंद अधिक भाते हैं. समर्पित उपासक की तरह एकाग्रचित्त होकर विराट जी छंद एवं गीत के प्रति अपनी निष्ठा एवं पक्षधरता, विश्व वाणी हिंदी के भाषिक-व्याकरणिक-पिन्गलीय संस्कारों व शुचिता के प्रति आग्रही ही नहीं ध्वजवाहक भी रहे हैं. निस्संदेह गीतकार, गीतों के राजकुमार, गीत सम्राट आदि सोपानों से होते हुए आज वे गीतर्षि कहलाने के हकदार हैं.
'ओ गीत के गरुड़' की गीति रचनाएँ नव-गीतकारों के लिए गीत-शास्त्र की संहिता की तरह पठनीय-माननीय-संग्रहनीय तथा स्मरणीय है. विषय-वैविध्य, छंद वैविध्य, बिम्बों का अछूतापन, प्रतीकों का टटकापन, अलंकारों की लावण्यता, भावों की सरसता, लय की सहजता, भाषा की प्रकृति, शब्द-चयन की सजगता, शब्द-शक्तियों का समीचीन प्रयोग पंक्ति-पंक्ति को सारगर्भित और पठनीय बनाता है. रस, भाव और अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर विराट की काव्य-पंक्तियाँ यत्र-तत्र ऋचाओं की तरह आम काव्य-प्रेमी के कंठों में रमने योग्य हैं. छंद का जयघोष विराट की हर कृति की तरह यहाँ भी है. गीत की मृत्यु की घ्शाना करने तथाकथित प्रगतिवादियों द्वारा महाप्राण निराला के नाम की दुहाई देने पर वे करार उत्तर देते हैं- 'मुक्त छंद दे गए निराला / छंद मुक्त तो नहीं किया था' :

विराट का पूरी तन्मयता से गीत की जय बोलते हैं :
हम इसी छंद की जय बोलेंगे / आज आनंद की जय बोलेंगे
गीत विराट की श्वासों का स्पंदन है:
गीत निषेधित जहाँ वहीं पर / स्थापित कर जाने का मन है
गीत-कंठ में नए आठवें / स्वर को भर जाने का मन है
विराट के गीतों में अलंकार वैविध्य दीपावली क दीपों की तरह रमणीय है. वे अलंकारों की प्रदर्शनी नहीं लगाते, उपवन में खिले जूही-मोगरा-चंपा-चमेली की तरह अलंकारों से गीत को सुवासित करते हैं. अनुप्रास, उपमा, विरोधाभास, श्लेष, यमक, रूपक, उल्लेख, स्मरण, दृष्टान्त, व्यंगोक्ति, लोकोक्ति आदि की मोहिनी छटा यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं.

ओ कमरे के कैदी कवि मन', समय सधे तो सब सध जाता / यही समय की  सार्थकता है, कटे शीश के श्वेत कबूतर, मैं ही हूँ वह आम आदमी, जो उजियारे में था थोपा, प्रजाजनों के दुःख-दर्दों से, प्रेरक अनल प्रताप नहीं है, दैहिक-दैविक संतापों से,कैकेयी सी कोप भवन में, अनिर्वाच्य आनंद बरसता आदि में छेकानुप्रास-वृत्यानुप्रास गलबहियां डाले मिलते हैं. अन्त्यानुप्रास तो गीतों का अनिवार्य तत्व ही है. अनिप्रास विराट जी को सर्वाधिक प्रिय है. अनुप्रास के विविध रूप नर्मदा-तरंगों की तरह अठखेलियाँ करते हैं-  समय सधे तो सब सध जाता (वृत्यानुप्रास, लाटानुप्रास), प्रेम नहीं वह प्रेम की जिसको / प्राप्त प्रेम-प्रतिसाद नहीं हो (वृत्यानुप्रास, लाटानुप्रास), कैकेयी सी कोप में (छेकानुप्रास, उपमा), बारह मासों क्यों आँसू का सावन मास रहा करती है (अन्त्यानुप्रास, लाटानुप्रास), अब भी भूल सुधर सकती है / वापिस घर जाने का मन है (छेकानुप्रास, अन्त्यानुप्रास), न हीन मोल कर पता इसका / बिना मोल जिसको मिलता है (छेकानुप्रास, लाटानुप्रास, अन्त्यानुप्रास) इत्यादि.
भाव-लय-रस की त्रिवेणी बहते हुए विरोधाभास अलंकार का यह उदाहरण गीतकार की विराट सामर्थ्य की बानगी मात्र है- है कौन रसायन घुला ज़िन्दगी में / मीठी होकर अमचूरी लगती है. विरोधाभास की कुछ और भंगिमाएँ  देखिये- अल्प आयु का सार्थक जीवन / कम होकर भी वह ज्यादा है, अल्प अवधी का दिया मौत है / इतना भी अवकाश न कम है, रोते में अच्छी लगती हो, भरी-पूरी युवती हो भोली / छुई-मुई बच्ची लगती हो आदि.
विराट का चिंतक मन सिर्फ सौन्दर्य नहीं विसंगतियां और विडंबनाओं के प्रति भी संवेदनशील है. बकौल ग़ालिब आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना, विराट के अनुसार 'आदमी ज्यादा जगत में / खेद है इंसान कम है. ग़ालिब से विराट के मध्य  में भी इस अप्रिय सत्यानुभूति का न बदलना विचारणीय ही नहीं चिंतनीय  भी है.
विराट जी का गीतकार भद्रजन की शिष्ट-शालीन भाषा में आम आदमी के अंतर्मन की व्यथा-कथा कहता नहीं थकता- भीड़ में दुर्जन अधिक हैं / भद्रजन श्रीमान कम हैं, वज्र न निर्णय को मानेगा / जो करना है वही करेगा (श्लेष), पजतंत्र के दुःख-दर्दों से / कोई तानाशाह व्यथित है, चार पेग भीतर पहुँचे तो / हम शेरों के शेर हो गए, भर पाए आजाद हो गए / दूर सभी अवसाद हो गए (व्यंग्य), पीड़ा घनी हुई है / मुट्ठी तनी हुई है (आक्रोश), तुम देखना गरीबी / बाज़ार लूट लेगी (चेतावनी), आतंक में रहेंगे / कितने बरस सहेंगे (विवशता), चोर-चोर क्या / साहू-साहू अब मौसेरे भाई है (कटूक्ति), इअ देश का गरुड़ अब / ऊंची उड़ान पर है ( शेष,आशावादिता) आदि-आदि.
श्रृंगार जीवन का उत्स है जिसकी आराधना हर गीतकार करता है. विराट जी मांसल सौन्दर्य के उपासक नहीं हैं, वे आत्मिक सौदर्य के निर्मल सरोवर में शतदल की तरह खिलते श्रृंगार की शोभा को निरखते-परखते-सराहते आत्मानंद से परमात्मानंद तक की यात्रा कई-कई बार करते हुए सत-शिव-सुन्दर को सृजन-पथ का पाथेय बनाते हैं.
तू ही रदीफ़ इसकी / तू ही तो काफिया है
तुझसे गजल गजल है / वरना तो मर्सिया है
*
साहित्य का चरित है / सुन्दर स्वयं वरित है
*
लास्य-लगाव नहीं बदलेगा / मूल स्वभाव नहीं बदलेगा
*
मृदु वर्ण का समन्वय / आनंद आर्य अन्वय
है चित्त चारु चिन्मय / स्थिति है तुरीत तन्मय
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इस संग्रह में विराट जी ने मुहावरों के साथ क्रीडा का सुख पाया-बाँटा है- भर पाए आजाद हो गए, तुम मिट्टी में मिले, पीढ़ी के हित खाद हो गए, घर की देहरी छू लेने को, तबियत हरी-हरी है आदि प्रयोग पाठक को अर्थ में अर्थ की प्रतीति कराते हैं.
राष्ट्रीय भावधारा के गीत मेरे देश सजा दे मुझको, हिमालय बुला रहा है, राष्ट्र की भाषा जिंदाबाद, बने राष्ट्र लिपि देवनागरी, वन्दे मातरम, हिंदी एक राष्ट्र भाषा, हिंदी की जय हो आदि पूर्व संग्रहों की अपेक्षा अधिक मुखरता-प्रखरता से इस संग्रह को समृद्ध कर रहे हैं.
अनंत विसंगतियों, विद्रूपताओं, विडम्बनाओं, अंतर्विरोधों तथा पाखंडों को देखने-सहने और मिटने की कामना करते विराट जी की जिजीविषा तनिक श्रांत-क्लांत, कुंठित नहीं होती। वह आशा के नए सूरज की उपासना कर विअज्य पथ को अभिषिक्त करती है- कल की चिंता का चलन बंद करो / आज आनंद है आनंद करो कहते हुए भी  चार्वाक  दर्शन सा पक्ष धर नहीं होतेैं.  चलना निरंतर जिन्दगी/ रुकना यहाँ मौत है/ चलते रहो -चलते रहो.कहकर वे 'चरवैती ' के वैदिक आदर्श की जय बोलते है. ' रे मनन कर परिवाद तू / जो कुछ मिला पर्याप्त है ' कहने के बाद भी हाथ पर हाथ धरकर बैठा उचित नहीं मानते. विराट का जीवन दर्शन निराशा पर आशा की ध्वजा फहराता है- 'मन ! यंत्रों का दास नहीं हो/ कुंठा का आवास नहीं हो/ रह स्वतंत्र संज्ञा तू सुख की/ दुःख का द्वन्द समास नहीं हो.' ' दुविधा न रही हो, निर्णय / बस एक मात्र रण है/ मैं शक्ति भर लडूंगा/ मेरा अखंड प्रण है / संघर्ष कर रहा हूँ/ संघर्ष ही करूँगा / विश्वाश सफलता को मैं एक दिन वरूँगा "-विराट  के इस संघर्ष में जीवन की धूप - छांव का हर रंग संतुलित है किन्तु निराशा  पर आशा का स्वर मुखेर हुआ है. वैदिक -पौराणिक -सामायिक मिथकों/ प्रतीकों  के माध्यम से विराट जीवट और जिजीविषा की जय बोल सकते है.


facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

smaran lekh: amar ho gaye manna dey -kuldeep sing thakur

अमर हो गए मन्ना डे  

कुलदीप सिंह ठाकुर 
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 गुरुवार 24 अक्तूबर की सुबह भारतीय संगीत जगत के लिए एक दुखद खबर लेकर आयी। लंबी बीमारी झेलने के बाद इसी दिन भारत के महान संगीत शिल्पी जनप्रिय गायक मन्ना डे ने बेंगलूरु में अंतिम सांस ली। वे 94 वर्ष के थे। उन्हें पिछले जून महीने में फेफड़े के संक्रमण और किडनी की तकलीफ के लिए बेंगलूरु के नारायण हृदयालय में भरती किया गया था। वहीं हृदयाघात से उनकी मृत्यु हुई। मन्ना दे सशरीर हमारे बीच भले न हों लेकिन अपने गाये अमर गीतों में वे हमेशा जीवित रहेंगे और अपने चाहनेवालों के दिलों में घोलते रहेंगे संगीत के मधुर रंग।
1 मई 1919 को कलकत्ता अब कोलकाता में जन्में मन्ना दा भाग्यशाली थे कि उनको संगीत गुरु ढूंढ़ने दूर नहीं जाना पड़ा। घर में ही उन्हें गुरु चाचा कृष्णचंद्र डे के सी डे के नाम से मशहूर मिल गये। के.सी. डे के नेत्रों की ज्योति 13 वर्ष की उम्र में ही चली गयी थी। के.सी. डे शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञ थे और उनके हाथों ही मन्ना दा की संगीत की शिक्षा शुरू हुई। के.सी. डे के साथ ही मन्ना दा बंबई (अब मुंबई) चले आये। यहां के.सी. डे फिल्मों में संगीत देने और गायन करने के साथ-साथ अभिनय भी करने लगे। फिल्मों में गाने का पहला अवसर भी उन्हें चाचा के संगीत निर्देशन में फिल्म तमन्ना 1942 में मिला। उसके बाद फिर मन्ना दा ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपने जीवन में उन्होंने 4000 से भी ज्यादा गीत गाये और अनेकों सम्मान पुरस्कार जीते। उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्मश्री 1971 पद्मभूषण 2005 व दादा साहब फालके सम्मान (2007 में मिला।
      
मन्ना दे ने हिंदी फिल्मों में गाने के साथ ही बंगला फिल्मों भी गाना गाया। इसके अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में उन्होंने बखूबी गाया। उन्होंने फिल्मी गीतों के अलावा गजल, भजन व अन्य गीत भी पूरी खूबी से गाये। जब मशहूर कवि डा. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला को संगीतबद्ध कर गायन का प्रश्न आया तो उसके लिए भी एकमात्र मन्ना दा का ही नाम आया। मन्ना दा ने इस अमरकृति को बड़ी तन्मयता और पूरे मन से गाया। हिंदी फिल्मों में उन्होंने कई यादगार गीत गाये जो उन्हें रहती दुनिया तक अमर रखेंगे। 1953 से लेकर 1976 तक का समय हिंदी फिल्मों में पार्श्वगायन का सबसे सफल समय था। उनके गायन की सबसे बड़ी विशेषता थी उसमें शास्त्रीय संगीत का पुट होना।
      
मन्ना दा का नाम प्रबोधचंद्र दे था लेकिन जब वे गायन के क्षेत्र में आये तो मन्ना डे के नाम से इतने मशहूर हुए कि प्रबोधचंद्र को फिर किसी ने याद नहीं किया। उन्होंने स्काटिश चर्च कालेजिएट स्कूल और स्काटिश चर्च कालेज शिक्षा पायी। खेलकूद में उनकी काफी दिलचस्पी थी कुश्ती और बाक्सिंग में वे पारंगत थे। विद्यासागर कालेज से उन्होंने स्नातक परीक्षा पास की। बाल गायक के रूप में वे संगीत कार्यक्रम पेश करने लगे। स्काटिश चर्च में अध्ययन के दौरान वे अपने
सहपाठियों का मनोरंजन गायन से करते थे। उन्होंने इन्हीं दिनों चाचा के.सी. डे और उस्ताद दाबिर खान से संगीत की शिक्षा ली। कालेज की गायन प्रतियोगिताओं में लगातार तीन बार उन्होंने प्रथम पुरस्कार जीता।
      
बंबई (अब मुंबई) आने के बाद मन्ना दा पहले अपने चाचा के साथ उनके संगीत निर्देशन में सहायक के रूप में काम करने लगे। उसके बाद वे सचिन दा जो उनके चाचा के शिष्य थे) के साथ संगीत निर्देशन में सहायक के रूप में काम करने लगे।
इस बीच संगीत की उनकी शिक्षा भी जारी रही। उन्होंने उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की शिक्षा ली। पार्श्वगायन की शुरुआत उन्होंने तमन्ना (1942) में की । इसमेंउन्होंने अपने चाचा के. सी. डे के निर्देशन में सुरैया के साथ ही एक युगल गीत 'जागो आयी ऊषा पंक्षी' गाया। इसक बाद तो फिर सिलसिला चल पड़ा और मन्ना दा ने एक के बाद एक शानदार गीत गाये। सचिन देव बर्मन से लेकर अपने समय के तमान संगीत निर्देशकों के साध
उन्होंने गीत गाये। उनको सबसे बड़ा मलाल यह रहा कि उनके गीत ज्यादातर चरित्र अभिनेताओं या हास्य कलाकारों पर फिल्माये जाते थे। नायकों पर बहुत कम ही फिल्माये गये। 1948 से लेकर 1954 तक उनके गायन का चरम समय था। उन्होंने न सिर्फ शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत गाये अपितु पश्चिमी संगीत पर आधारित गीत भी बखूबी गाये।
राज कपूर के लिए उन्होंने शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फिल्म आवारा, बूट पालिश, श्री 420, चोरी चोरी, मेरा नाम जोकर फिल्मों के गीत गाये जो काफी लोकप्रिय हुए। उन्होंने वसंत देसाई, नौशाद, रवि, ओ.पी. नैयर, रोशन, कल्याण जी आनंद जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर. डी. बर्मन, अनिल विश्वास, सलिल चौधरी आदि के साथ काम किया।
जो गीत उनको अमर रखेंगे उनमें से कुछ हैं-तू प्यार का सागर है (सीमा), ये कहानी है दिये की और तूफान की (दिया और तूफान), ऐ मेरे प्यारे वतन काबुलीवाला), लागा चुनरी में दाग( दिल ही तो है), सुर ना सजे क्या गाऊं मैं सुर के बिना (बसंत बहार), कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झनकार लिये( देख कबीरा रोया), पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी (मेरी सूरत तेरी आंखें), झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया (मेरे हुजूर), चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया तीसरी कसम), ओ मेरी जोहरा जबीं (वक्त), तुम गगन के चंद्रमा हो (सती सावित्री), कसमे वादे प्यार वफा लब (उपकार), यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी (जंजीर),जिदगी कैसी है पहेली (आनंद), ये रात भीगी-भीगी ये मस्त हवाएं (चोरी चोरी), ये भाई जरा देख के चलो मेरा नाम जोकर), प्यार हुआ इकरार हुआ (श्री 420)।
      
कुछ कलाकारों पर उनकी आवाज इतनी फिट बैठती थी कि लगता है परदे पर कलाकार खुद अपनी आवाज में गा रहा है। फिल्म 'उपकार' में मनोज कुमार ने मलंग के रूप में जब तब के मशहूर खलनायक को चरित्र अभिनेता के रूप में मलंग चाचा बना कर एक नया रूप दिया तो मन्ना दे की आवाज प्राण पर बहुत सटीक बैठी। लोगों को परदे पर लगा कि जैसे प्राण खुद अपनी आवाज में 'कसमे वादे प्यार वफा'  गीत  गा रहे हैं। यही बात फिल्म 'जंजीर' के लोकप्रिय गीत 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी' के लिए भी कही जा सकती है।
      
अपनी निजी जिंदगी में बहुत ही अंतर्मुखी रहनेवाले, बहुत कम बोलनेवाले मन्ना दा लोगों से बहुत कम ही मिलते-जुलते थे। उन्हें पार्टियों में जाना पसंद नहीं था। किसी से मिलते तो बस मुस्करा देते। संगीत उनके लिए पुजा और तपस्या की तरह था। वे अकसर ऐसा कहते भी थे। जब किसी ने एक बार उनसे पूछा कि दादा सभी गायक तो गाते वक्त आंखें खोले रहते हैं आप आंख बंद क्यों कर लेते हैं। उनका जवाब था-संगीत मेरे लिए पूजा है, तपस्या है। तपस्या करते वक्त या पूजा में लीन रहते वक्त नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं। संगीत मेरे लिए भी पूजा है इसीलिए गाते वक्त नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं। 19 दिसंबर 1953 में उन्होंने केरल की सुलोचना कुमारन से शादी की। पत्नी सुलोचना कुमारन की मृत्यु कैंसर से 18 जनवरी 2012 को हो गयी। 
उन्होंने जब यह देखा कि हिंदी फिल्मों से उनके तरह के गीतों का जमाना अब नहीं रहा तो वे पत्नी के साथ बेंगलूरू में ही बस गये थे। उनकी दो बेटियां हैं शुरोमा और सुनीता। जिनमें से एक अमरीका में बस गयी है और दूसरी बेंगलूरू में है। मन्ना दा बेटी के पास बेंगलूरू में ही रहते थे। मुंबई में उन्होंने पचास साल से भी अधिक समय गुजारा। आज मन्ना दा नहीं है तो उनका गाया फिल्म 'आनद' का गीत 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये रुलाये, कभी ये हसाये'। वाकई संगीत के उन प्रेमियों को जो शास्त्रीय संगीत को मन-प्राण से पसंद करते हैं मन्ना दा रुला गये। मन्ना  दा जैसे कलाकार कभी मरते नहीं वे अपने गीतों में हमेशा अमर रहते हैं। मन्ना दा के भी भावभरे या चुलबुले गीत बजेंगे तो कभी वे दिल को लुभायें के तो कभी गमगीन कर देंगे। मन्ना दा नहीं होंगे लेकिन उनकी आवाद ताकयामत संगीत प्रेमियों के दिलों में राज करती रहेगी और उनको अमर रखेगी।


~~ Kuldeep singh thakur~~

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