शुभकामनायें सभी को...
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
शुभकामनायें सभी को, आगत नवोदित साल की,
शुभ की करें सब साधना, चाहत समय खुशहाल की।
शुभ 'सत्य' होता स्मरण कर, आत्म अवलोकन करें,
शुभ प्राप्य तब जब स्वेद-सीकर राष्ट्र को अर्पण करें।
शुभ 'शिव' बना, हमको गरल के पान की सामर्थ्य दे,
शुभ सृजन कर, कंकर से शंकर, भारती को अर्घ्य दें।
शुभ वही 'सुन्दर' जो जनगण को मृदुल मुस्कान दे,
शुभ वही स्वर, कंठ हर अवरुद्ध को जो ज्ञान दे।
शुभ तंत्र 'जन' का तभी जब हर आँख को अपना मिले,
शुभ तंत्र 'गण' का तभी जब साकार हर सपना मिले।
शुभ तंत्र वह जिसमें, 'प्रजा' राजा बने, चाकर नहीं,
शुभ तंत्र रच दे 'लोक' नव, मिलकर- मदद पाकर नहीं।
शुभ चेतना की वंदना, दायित्व को पहचान लें,
शुभ जागृति की प्रार्थना, कर्त्तव्य को सम्मान दें।
शुभ अर्चना अधिकार की, होकर विनत दे प्यार लें,
शुभ भावना बलिदान की, दुश्मन को फिर ललकार दें।
शुभ वर्ष नव आओ! मिली निर्माण की आशा नयी,
शुभ काल की जयकार हो, पुष्पा सके भाषा नयी।
शुभ किरण की सुषमा, बने 'मावस भी पूनम अब 'सलिल',
शुभ वरण राजिव-चरण धर, क्षिप्रा बने जनमत विमल।
शुभ मंजुला आभा उषा, विधि भारती की आरती,
शुभ कीर्ति मोहिनी दीप्तिमय, संध्या-निशा उतारती।
शुभ नर्मदा है नेह की, अवगाह देह विदेह हो,
शुभ वर्मदा कर गेह की, किंचित नहीं संदेह हो।
शुभ 'सत-चित-आनंद' है, शुभ नाद लय स्वर छंद है,
शुभ साम-ऋग-यजु-अथर्वद, वैराग-राग अमंद है।
शुभ करें अंकित काल के इस पृष्ट पर, मिलकर सभी,
शुभ रहे वन्दित कल न कल, पर आज इस पल औ' अभी।
शुभ मन्त्र का गायन- अजर अक्षर अमर कविता करे,
शुभ यंत्र यह स्वाधीनता का, 'सलिल' जन-मंगल वरे।
*
प्रेषक : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 31 दिसंबर 2009
काव्यांजलि : शुभकामनायें सभी को... संजीव वर्मा 'सलिल'
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-acharya sanjiv 'salil',
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 30 दिसंबर 2009
नव वर्ष पर नवगीत: महाकाल के महाग्रंथ का --संजीव 'सलिल'
नव वर्ष पर नवगीत
संजीव 'सलिल'
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ?
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
**********************
http://divyanarmada.blogspot.com
संजीव 'सलिल'
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ?
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
नव गीत : ओढ़ कुहासे की चादर... --संजीव 'सलिल'
नव गीत : संजीव 'सलिल'
ओढ़ कुहासे की चादर,
धरती लगाती दादी.
ऊँघ रहा सतपुडा,
लपेटे मटमैली खादी...
सूर्य अँगारों की सिगडी है,
ठण्ड भगा ले भैया.
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया.
तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी...
कुहरा छाया संबंधों पर,
रिश्तों की गरमी पर.
हुए कठोर आचरण अपने,
कुहरा है नरमी पर.
बेशरमी नेताओं ने,
पहनी-ओढी-लादी...
नैतिकता की गाय काँपती,
संयम छत टपके.
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके.
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...
भावनाओं को कामनाओं ने,
हरदम ही कुचला.
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फँसा, फिसला.
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी...
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,
फ़िर-फ़िर बसना है.
बस न रहा ख़ुद पर तो,
परबस 'सलिल' तरसना है.
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी...
हर 'मावस पश्चात्
पूर्णिमा लाती उजियारा.
मृतिका दीप काटता तम् की,
युग-युग से कारा.
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी...
*****
ओढ़ कुहासे की चादर,
धरती लगाती दादी.
ऊँघ रहा सतपुडा,
लपेटे मटमैली खादी...
सूर्य अँगारों की सिगडी है,
ठण्ड भगा ले भैया.
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया.
तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी...
कुहरा छाया संबंधों पर,
रिश्तों की गरमी पर.
हुए कठोर आचरण अपने,
कुहरा है नरमी पर.
बेशरमी नेताओं ने,
पहनी-ओढी-लादी...
नैतिकता की गाय काँपती,
संयम छत टपके.
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके.
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...
भावनाओं को कामनाओं ने,
हरदम ही कुचला.
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फँसा, फिसला.
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी...
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,
फ़िर-फ़िर बसना है.
बस न रहा ख़ुद पर तो,
परबस 'सलिल' तरसना है.
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी...
हर 'मावस पश्चात्
पूर्णिमा लाती उजियारा.
मृतिका दीप काटता तम् की,
युग-युग से कारा.
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी...
*****
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
गीतिका: वक्त और हालात की बातें --संजीव 'सलिल'
गीतिका
संजीव 'सलिल'
वक्त और हालात की बातें
खालिस शह औ' मात की बातें..
दिलवर सुन ले दिल कहता है .
अनकहनी ज़ज्बात की बातें ..
मिलीं भरोसे को बदले में,
महज दगा-छल-घात की बातें..
दिन वह सुनने से भी डरता
होती हैं जो रात की बातें ..
क़द से बहार जब भी निकलो
मत भूलो औकात की बातें ..
खिदमत ख़ुद की कर लो पहले
तब सोचो खिदमात की बातें ..
'सलिल' मिले दीदार उसी को
जो करता है जात की बातें..
***************
संजीव 'सलिल'
वक्त और हालात की बातें
खालिस शह औ' मात की बातें..
दिलवर सुन ले दिल कहता है .
अनकहनी ज़ज्बात की बातें ..
मिलीं भरोसे को बदले में,
महज दगा-छल-घात की बातें..
दिन वह सुनने से भी डरता
होती हैं जो रात की बातें ..
क़द से बहार जब भी निकलो
मत भूलो औकात की बातें ..
खिदमत ख़ुद की कर लो पहले
तब सोचो खिदमात की बातें ..
'सलिल' मिले दीदार उसी को
जो करता है जात की बातें..
***************
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
लेख: भू गर्भीय हलचल और भूकंपीय श्रंखला -प्रो. विनय कुमार श्रीवास्तव
विशेष आलेख:
भू गर्भीय हलचल और भूकंपीय श्रंखला : एक दृष्टिकोण
प्रो. विनय कुमार श्रीवास्तव, अध्यक्ष, इन्डियन जिओटेक्निकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर
विश्व में कहीं न कहीं दो-चार दिनों के अंतराल में छोटे-बड़े भूकंप आते रहते हैं किन्तु भारत के मध्यवर्ती क्षेत्र जिसे सुरक्षित क्षेत्र (शील्ड एरिया) मन जाता है, में भूकम्पों की आवृत्ति भू वैज्ञानिक दृष्टि से अजूबा होने के साथ-साथ चिंता का विषय है. दिनाँक २२ मई १९९७ को आये भीषण भूकंप के बाद १७ अक्टूबर को ५.२ शक्ति के भूकंप ने नर्मदा घाटी में जबलपुर के समीपवर्ती क्षेत्र को भूकंप संवेदी बना दिया है. गत वर्षों में आये ५ भूकम्पों से ऐसा प्रतीत होता है कि १९९७ के भूकंप को छोड़कर उत्तरोत्तर बढ़ती भूकंपीय आवृत्ति का पैटर्न भावी विनाशक भूकंप की पूर्व सूचना तो नहीं है?
विशव में अन्यत्र आ रहे भूकम्पों पर दृष्टिपात करें तो विदित होता है कि गत ४ वर्षों से भूकंपीय गतिविधियाँ दक्षिण-पूर्व एशिया में केन्द्रित हैं. विश्व के अन्य बड़े महाद्वीपों यथा अफ्रीका, उत्तर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका तथा यूंरेशिया आदि में केवल १-२ बड़े भूक्न्म आये हैं जबकि भारत, चीन. जापान. ईराक, ईरान, तुर्की, ताइवान, फिल्लिपींस, न्यूजीलैंड्स, एवं इंडोनेशिया में प्रति २-३ दिनों के अन्तराल में कहीं न कहीं एक बड़ा भूकम्प आ जाता है या एक ज्वालामुखी फूट पड़ता है. यहाँ तक कि हिंद महासागर में एक नए द्वीप नव भी जन्म ले लिया है.
दक्षिणी-पूर्व एशिया की भू-गर्भीय हलचलें अब जापान, ताइवान एवं भारत में होनेवाली भूकंपीय गतिविधियों में केन्द्रित हैं. दक्षिण ताइवान में ४ अप्रैल को आये भूकंप (५.२) से प्रारंभ करें तो ५ अप्रैल को माउंट एटनाविध्वंसक विस्फोट के साथ सक्रिय हुआ. इसके साथ ही भारत में ७, ११ एवं २७ अप्रैल को क्रमशः महाराष्ट्र, त्रिपुरा एवं शिमला में तथा २ मई को छिंदवाड़ा में भूकंप के झटके महसूस किये गए. २५ मई को कोयना में झटके आये तथा २६ मई को नए द्वीप का जन्म हुआ. दिनांक ३.६.२०० को सुमात्रा में ७.९ तीव्रता का भूकंप आया. ५.६.२००० को तुर्की में ५.९ तीव्रता का, ७ व ८ जून को क्रमशः जापान (४.४), म्यांमार (६.५), अरुणांचल (५.८), सुमात्रा (६.२) तथा १०-११ जून को ताइवान(६.७) व (५.०) तीव्रता के भूकम्पों ने दिल दहला दिया.
इसके अतिरिक्त १६ से २० जून के बीच ७.५ से ४.९ तीव्रता के भूकम्पों की एक लम्बी श्रंखला कोकस आईलैंड्स, इंडोनेशिया, ताइवान, मनीला, लातूर, शोलापुर, उस्मानाबाद आदि स्थानों में रही. २३.६.२०० नागपुर एवं चंद्रपुर (२.८) २५.६.२००० जापान (५.६) के अतिरिक्त इम्फाल, शिलोंग, व म्यांमार (४.२) में भी भूकप का झटके कहर ढाते रहे.
५ जुलाई २००० को जापान में ४ झटके, ७ जुलाई को भारत में खरगौन तथा ८ जुलाई को जापान में ज्वालामुखीय उदगार, ११ जुलाई को जापान में बड़ा भूकंप, १३ जुलाई को जापान में बड़ा सक्रिय ज्वाला मुखी १८ से २४ जुलाई तक जापान में २, ताईवान में ३ एवं एवं इंडोनेशिया में १ भूकंप दर्ज हुआ जिसके साथ भारत में पंधाना, भावनगर एवं कराड में झटके महसूस किये गए. २ अगस्त को उत्तरी जापान में तीसरा ज्वालामुखी सक्रिय रहा. १ सितम्बर से १२ सितम्बर तक भारत में ४ भूकंप दर्ज हुए. १४ सितम्बर को जापान में ५.३ तीव्रता तीव्रता का भूकंप आया. ६ अक्तूबर को पश्चिमी जापान में ७.१, अंडमान में ५.४, सरगुजा में लंबी दरारें पड़ना, तथा अंबिकापुर में भूकंप के हलके झटके अनुभव किये गए. १२.१०.२००० को हिमाचल प्रदेश में तथा १७.१०.२००० को जबलपुर (५.२), १९.१०.२००० को भारत-पाक सीमा तथा कोयना क्षेत्र में भूकंप आया. २७.१०.२०० को जापान में चौथा ज्वालामुखी सक्रिय हुआ.
अद्यतन ये भूगर्भीय हलचलें जो गहरी ज्वालामुखीय घटनाओं को प्रेरित कर रही हैं, इनके कारण ही भूकम्पों की बारम्बार पुनरावृत्ति हो रहे ऐसी मेरी मान्यता है.
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
सोमवार, 28 दिसंबर 2009
सामयिक दोहे संजीव 'सलिल'
सामयिक दोहे
संजीव 'सलिल'
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूंढ-ढूंढ हरा, घर एक नहीं मिलता..
रश्मि रथी की रश्मि के दर्शन कर जग धन्य.
तुम्हीं चन्द्र की ज्योत्सना, सचमुच दिव्य अनन्य..
राज सियारों का हुआ, सिंह का मिटा भविष्य.
लोकतंत्र के यज्ञ में, काबिल हुआ हविष्य..
कहता है इतिहास यह, राक्षस थे बलवान.
जिसने उनको मिटाया, वे सब थे इंसान..
इस राक्षस राठोड का होगा सत्यानाश.
साक्षी होंगे आप-हम, धरती जल आकाश..
नारायण के नाम पर, सचमुच लगा कलंक.
मैली चादर हो गयी, चुभा कुयश का डंक..
फंसे वासना पंक में, श्री नारायण दत्त.
जैसे मरने जा रहा, कीचड में गज मत्त.
कीचड में गज मत्त, लाज क्यों इन्हें न आयी.
कभी उठाई थी चप्पल. अब चप्पल खाई..
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Acharya Sanjiv Salil
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संजीव 'सलिल'
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूंढ-ढूंढ हरा, घर एक नहीं मिलता..
रश्मि रथी की रश्मि के दर्शन कर जग धन्य.
तुम्हीं चन्द्र की ज्योत्सना, सचमुच दिव्य अनन्य..
राज सियारों का हुआ, सिंह का मिटा भविष्य.
लोकतंत्र के यज्ञ में, काबिल हुआ हविष्य..
कहता है इतिहास यह, राक्षस थे बलवान.
जिसने उनको मिटाया, वे सब थे इंसान..
इस राक्षस राठोड का होगा सत्यानाश.
साक्षी होंगे आप-हम, धरती जल आकाश..
नारायण के नाम पर, सचमुच लगा कलंक.
मैली चादर हो गयी, चुभा कुयश का डंक..
फंसे वासना पंक में, श्री नारायण दत्त.
जैसे मरने जा रहा, कीचड में गज मत्त.
कीचड में गज मत्त, लाज क्यों इन्हें न आयी.
कभी उठाई थी चप्पल. अब चप्पल खाई..
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
रविवार, 27 दिसंबर 2009
: संस्था समाचार : इंडियन जिओटेक्निकल सोसाइटी जबलपुर पुनर्गठित
संस्था समाचार:
इंडियन जिओटेक्निकल सोसाइटी जबलपुर पुनर्गठित
जबलपुर, २७.१२.२००९. इंडियन जिओटेक्निकल सोसाइटी जबलपुर चैप्टर का पुनर्गठन सर्व सम्मति से संपन्न हुआ. तदनुसार अगले सत्र हेतु अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रो. विनय कुमार श्रीवास्तव अध्यक्ष, इंजी. आर.के.श्रीवास्तव तथा इंजी. संजीव वर्मा 'सलिल' सह अध्यक्ष, इंजी. संजय वर्मा मानद सचिव, प्रो. अनिल सिंघई कोषाध्यक्ष, इंजी. प्रवीण बोहर तथा प्रो. योगेश बाजपेई सह सचिव, प्रो. राजीव खत्री, प्रो. आर.के.यादव तथा इंजी. पी.के.सोनी सम्पादक मंडल सदस्य एवं इंजी. अजय मालवीय व इंजी. अलोक श्रीवास्तव मीडिया लायजन ऑफिसर मनोनीत किये गए. उक्त के अतिरिक्त हर तकनीकी विभाग तथा शिक्षण संस्था से एक-एक कार्यकारिणी सदस्य चुनने हेतु अध्यक्ष को अधिकृत किया गया.
सर्वसम्मति से इंजी. संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा प्रस्तुत गत सत्र का लेखा-जोखा पारित किया गया. संपादक मंडल सदस्यों के सहयोग से संस्था का मुख पत्र प्रारम्भ करने हेतु इंजी. संजीव 'सलिल' को अधिकृत किया गया.
प्रो. विनय कुमार श्रीवास्तव ने अपने उद्बोधन में गत सत्र की गतिविधियों का विवरण प्रस्तुत करते हुए सदस्यों से तकनीक और समाज के बीच बने अंतर को पटाने हेतु प्राण-प्राण से समर्पित होने की अपेक्षा की.
संस्था के पूर्व सचिव प्रो. दिनेश कुमार खरे के आकस्मिक निधन पर इंजी. 'सलिल' द्वारा शोक-श्रृद्धांजलिपरक काव्यांजलि के पश्चात् सदस्यों के मौन रखकर श्रृद्धांजलि अर्पित की तथा भू-तकनीकी के क्षेत्र में उदित गंभीर समस्याओं के प्रति समाज में जाग्रति उत्पन्न करने व् उनके सम्यक समाधान के प्रति अपने हर संभव योगदान का संकल्प लिया. बैठक का कुशल सञ्चालन इंजी. संजय वर्मा ने किया.
इंडियन जिओटेक्निकल सोसाइटी जबलपुर पुनर्गठित
जबलपुर, २७.१२.२००९. इंडियन जिओटेक्निकल सोसाइटी जबलपुर चैप्टर का पुनर्गठन सर्व सम्मति से संपन्न हुआ. तदनुसार अगले सत्र हेतु अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रो. विनय कुमार श्रीवास्तव अध्यक्ष, इंजी. आर.के.श्रीवास्तव तथा इंजी. संजीव वर्मा 'सलिल' सह अध्यक्ष, इंजी. संजय वर्मा मानद सचिव, प्रो. अनिल सिंघई कोषाध्यक्ष, इंजी. प्रवीण बोहर तथा प्रो. योगेश बाजपेई सह सचिव, प्रो. राजीव खत्री, प्रो. आर.के.यादव तथा इंजी. पी.के.सोनी सम्पादक मंडल सदस्य एवं इंजी. अजय मालवीय व इंजी. अलोक श्रीवास्तव मीडिया लायजन ऑफिसर मनोनीत किये गए. उक्त के अतिरिक्त हर तकनीकी विभाग तथा शिक्षण संस्था से एक-एक कार्यकारिणी सदस्य चुनने हेतु अध्यक्ष को अधिकृत किया गया.
सर्वसम्मति से इंजी. संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा प्रस्तुत गत सत्र का लेखा-जोखा पारित किया गया. संपादक मंडल सदस्यों के सहयोग से संस्था का मुख पत्र प्रारम्भ करने हेतु इंजी. संजीव 'सलिल' को अधिकृत किया गया.
प्रो. विनय कुमार श्रीवास्तव ने अपने उद्बोधन में गत सत्र की गतिविधियों का विवरण प्रस्तुत करते हुए सदस्यों से तकनीक और समाज के बीच बने अंतर को पटाने हेतु प्राण-प्राण से समर्पित होने की अपेक्षा की.
संस्था के पूर्व सचिव प्रो. दिनेश कुमार खरे के आकस्मिक निधन पर इंजी. 'सलिल' द्वारा शोक-श्रृद्धांजलिपरक काव्यांजलि के पश्चात् सदस्यों के मौन रखकर श्रृद्धांजलि अर्पित की तथा भू-तकनीकी के क्षेत्र में उदित गंभीर समस्याओं के प्रति समाज में जाग्रति उत्पन्न करने व् उनके सम्यक समाधान के प्रति अपने हर संभव योगदान का संकल्प लिया. बैठक का कुशल सञ्चालन इंजी. संजय वर्मा ने किया.
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
हिन्दी पद्यानुवाद मेघदूतम् श्लोक ५६ से ६० पद्यानुवादक प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव विदग्ध
हिन्दी पद्यानुवाद मेघदूतम् श्लोक ५६ से ६०
पद्यानुवादक प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव विदग्ध
तं चेद वायौ सरति सरलस्कन्धसंघट्टजन्मा
बाधेतोल्काक्षपितचमरीबालभारो दवाग्निः
अर्हस्य एनं शमयितुम अलं वारिधारासहस्रैर
आपन्नार्तिप्रशमनफलाः संपदो ह्य उत्तमानाम॥१.५६॥
आसीन कस्तूरिमृग नाभि की गंध
से रम्य जिसकी शिलायें सुगंधित
उसी जान्हवी के प्रभव स्त्रोत गिरि जो
हिमालय धवल हिम शिखर सतत मंडित
पहँच कर वहाँ मार्ग श्रम को मिटाने
किसी श्रंग पर लग्न लोगे सहारा
तो शिव के धवल वृषभ के श्रंग में लग्न
कर्दम सदृश रूप होगा तुम्हारा
ये संरम्भोत्पतनरभसाः स्वाङ्गभङ्गाय तस्मिन
मुक्ताध्वानं सपदि शरभा लङ्घयेयुर भवन्तम
तान कुर्वीथास तुमुलकरकावृष्टिपातावकीर्णन
के वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः॥१.५७॥
तभी यदि प्रभंजन चले , वृक्ष रगड़ें
औ" घर्षण जनित दाव वन को जलायें
ज्वालायें यदि क्लेश दें चमरि गौ को
तथा पुच्छ के केश दल झुलस जायें
उचित तब तुम्हें तात ! जलधार वर्षण
अनल को बुझा जो सुखद शांति लाये
सफलता यही श्रेष्ठ की संपदा की
समय पर दुखी आर्त के काम आये
शब्दार्थ ... प्रभंजन... तेज हवा , आंधी
घर्षण जनित दाव ... वृक्षो के परस्पर घर्षण से उत्पन्न आग
चमरि गौ ... चमरी गाय जिसकी पूंछ के सफेद बालों से चौरी बनती है
तत्र व्यक्तं दृषदि चरणन्यासम अर्धेन्दुमौलेः
शश्वत सिद्धैर उपचितबलिं भक्तिनम्रः परीयाः
यस्मिन दृष्टे करणविगमाद ऊर्ध्वम उद्धूतपापाः
कल्पिष्यन्ते स्थिरगणपदप्राप्तये श्रद्दधानाः॥१.५८॥
आवेश में किन्तु भगते उछलते
शरभ स्वयंघाती करें आक्रमण जो
समझकर कि तुम मार्ग के बीच में आ ,
अचानक स्वयं वहाँ से हट गये हो
तो कर उपल वृष्टि गंभीर उन पर
उन्हें ताड़ना दे , हटा दूर देना
भला निरर्थक यत्नकारी जनों पर
कहां , कौन ऐसा कभी जो हँसे न ?
शब्दार्थ ..शरभ... एक जाति के वन्य जीव , हाथी का बच्चा
शब्दायन्ते मधुरम अनिलैः कीचकाः पूर्यमाणाः
संरक्ताभिस त्रिपुरविजयो गीयते किंनराभिः
निर्ह्रादस ते मुरज इव चेत कन्दरेषु ध्वनिः स्यात
संगीतार्थो ननु पशुपतेस तत्र भावी समग्रः॥१.५९॥
वहाँ शिला अंकित , सतत सिद्ध पूजित ,
चरण चिन्ह शिव के परम भाग्यकारी
करना परीया विनत भावना से
वे हैं पुण्यदायी सकल पापहारी
जिनके दरश मात्र से भक्तजन पाप
से मुक्त हो , जगत से मुक्ति पाते
तज देह को , मृत्यु के बाद दुर्लभ
अमरगण पद प्राप्ति अधिकार पाते
प्रालेयाद्रेर उपतटम अतिक्रम्य तांस तान विशेषान
हंसद्वारं भृगुपतियशोवर्त्म यत क्रौञ्चरन्ध्रम
तेनोदीचीं दिशम अनुसरेस तिर्यग आयामशोभी
श्यामः पादो बलिनियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णोः॥१.६०॥
जहां वेणुवन मधु पवन के मिलन से
सुरीली सतत सौम्य ! वंशी बजाता !
सुसंगीत में रत जहाँ किन्नरीदल
कि त्रिपुरारि शिव के विजय गीत गाता
वहाँ यदि मुरजताल सम गर्जना तव
गुहा कन्दरा में गँभीरा ध्वनित हो
तो तब सत्य प्रिय पशुपति अर्चना में
सुसंगीत की विधि सकल पूर्ण इति हो
शब्दार्थ .. मुरजताल... एक प्रकार के वाद्य की आवाज , ढ़ोल या मृदंग की ध्वनि
पद्यानुवादक प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव विदग्ध
तं चेद वायौ सरति सरलस्कन्धसंघट्टजन्मा
बाधेतोल्काक्षपितचमरीबालभारो दवाग्निः
अर्हस्य एनं शमयितुम अलं वारिधारासहस्रैर
आपन्नार्तिप्रशमनफलाः संपदो ह्य उत्तमानाम॥१.५६॥
आसीन कस्तूरिमृग नाभि की गंध
से रम्य जिसकी शिलायें सुगंधित
उसी जान्हवी के प्रभव स्त्रोत गिरि जो
हिमालय धवल हिम शिखर सतत मंडित
पहँच कर वहाँ मार्ग श्रम को मिटाने
किसी श्रंग पर लग्न लोगे सहारा
तो शिव के धवल वृषभ के श्रंग में लग्न
कर्दम सदृश रूप होगा तुम्हारा
ये संरम्भोत्पतनरभसाः स्वाङ्गभङ्गाय तस्मिन
मुक्ताध्वानं सपदि शरभा लङ्घयेयुर भवन्तम
तान कुर्वीथास तुमुलकरकावृष्टिपातावकीर्णन
के वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः॥१.५७॥
तभी यदि प्रभंजन चले , वृक्ष रगड़ें
औ" घर्षण जनित दाव वन को जलायें
ज्वालायें यदि क्लेश दें चमरि गौ को
तथा पुच्छ के केश दल झुलस जायें
उचित तब तुम्हें तात ! जलधार वर्षण
अनल को बुझा जो सुखद शांति लाये
सफलता यही श्रेष्ठ की संपदा की
समय पर दुखी आर्त के काम आये
शब्दार्थ ... प्रभंजन... तेज हवा , आंधी
घर्षण जनित दाव ... वृक्षो के परस्पर घर्षण से उत्पन्न आग
चमरि गौ ... चमरी गाय जिसकी पूंछ के सफेद बालों से चौरी बनती है
तत्र व्यक्तं दृषदि चरणन्यासम अर्धेन्दुमौलेः
शश्वत सिद्धैर उपचितबलिं भक्तिनम्रः परीयाः
यस्मिन दृष्टे करणविगमाद ऊर्ध्वम उद्धूतपापाः
कल्पिष्यन्ते स्थिरगणपदप्राप्तये श्रद्दधानाः॥१.५८॥
आवेश में किन्तु भगते उछलते
शरभ स्वयंघाती करें आक्रमण जो
समझकर कि तुम मार्ग के बीच में आ ,
अचानक स्वयं वहाँ से हट गये हो
तो कर उपल वृष्टि गंभीर उन पर
उन्हें ताड़ना दे , हटा दूर देना
भला निरर्थक यत्नकारी जनों पर
कहां , कौन ऐसा कभी जो हँसे न ?
शब्दार्थ ..शरभ... एक जाति के वन्य जीव , हाथी का बच्चा
शब्दायन्ते मधुरम अनिलैः कीचकाः पूर्यमाणाः
संरक्ताभिस त्रिपुरविजयो गीयते किंनराभिः
निर्ह्रादस ते मुरज इव चेत कन्दरेषु ध्वनिः स्यात
संगीतार्थो ननु पशुपतेस तत्र भावी समग्रः॥१.५९॥
वहाँ शिला अंकित , सतत सिद्ध पूजित ,
चरण चिन्ह शिव के परम भाग्यकारी
करना परीया विनत भावना से
वे हैं पुण्यदायी सकल पापहारी
जिनके दरश मात्र से भक्तजन पाप
से मुक्त हो , जगत से मुक्ति पाते
तज देह को , मृत्यु के बाद दुर्लभ
अमरगण पद प्राप्ति अधिकार पाते
प्रालेयाद्रेर उपतटम अतिक्रम्य तांस तान विशेषान
हंसद्वारं भृगुपतियशोवर्त्म यत क्रौञ्चरन्ध्रम
तेनोदीचीं दिशम अनुसरेस तिर्यग आयामशोभी
श्यामः पादो बलिनियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णोः॥१.६०॥
जहां वेणुवन मधु पवन के मिलन से
सुरीली सतत सौम्य ! वंशी बजाता !
सुसंगीत में रत जहाँ किन्नरीदल
कि त्रिपुरारि शिव के विजय गीत गाता
वहाँ यदि मुरजताल सम गर्जना तव
गुहा कन्दरा में गँभीरा ध्वनित हो
तो तब सत्य प्रिय पशुपति अर्चना में
सुसंगीत की विधि सकल पूर्ण इति हो
शब्दार्थ .. मुरजताल... एक प्रकार के वाद्य की आवाज , ढ़ोल या मृदंग की ध्वनि
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
गीत/प्रति गीत: अब पहले सी बात न होगी/फिर पहले सी बातें होंगी मानोशी चटर्जी/संजीव 'सलिल'
गीत
मानोशी चटर्जी
अब पहले सी बात न होगी
उम्र की वह सौग़ात न होगी
खिलना खिल-खिल हँसना,
झिलमिल तारों के संग आँख-मिचौली
दौड़म भागी, खींचातानी
लड़ना रोना, हँसी-ठिठोली
सच्चे-झूठे किस्सों के संग
दादी की वह रात न होगी
उम्र की वह सौग़ात न होगी
खुले आसमां के नीचे होती थी
सरगो़शी में बातें
सन्नाटा पी कर बेसुध जब
हो जाती थी बेकल रातें
धीमे-धीमे जलती थी जो,
बिना हवा सुलगती थी जो
फिर से आग जला भी लें गर
अब पहले सी बात न होगी
उम्र की वह सौग़ात न होगी
अटक गये कुछ पल सूई पर,
समय ठगा सा टंगा रह गया
जीवन लाठी टेक के चलते-चलते
ठिठक के खड़ा रह गया
बूढ़ी झुर्री टेढ़ी काया
सर पर रख कर भारी टुकनी
सांझ के सूरज की देहरी पर
पहले सी बरसात न होगी
उम्र की वह सौग़ात न होगी
************
प्रति गीत:
फिर पहले सी बातें होंगी
संजीव 'सलिल'
*
दिल में अगर हौसला हो तो,
फिर पहले सी बातें होंगी...
*
कहा किसी ने- 'नहीं लौटता
पुनः नदी में बहता पानी'.
पर नाविक आता है तट पर
बार-बार ले नई कहानी..
हर युग में दादी होती है,
होते हैं पोती और पोते.
समय देखता लाड-प्यार के
रिश्तों में दुःख-पीड़ा खोते.
नयी कहानी, नयी रवानी,
सुखमय सारी रातें होंगी.
दिल में अगर हौसला हो तो,
फिर पहले सी बातें होंगी...
*
सखा-सहेली अब भी मिलते,
छिड़ते किस्से, दिल भी खिलते.
रूठ मनाना, बात बनाना.
आँख दिखाना, हँस मुस्काना.
समय नदी के दूर तटों पर-
यादों की बारातें होंगी.
दिल में अगर हौसला हो तो,
फिर पहले सी बातें होंगी...
*
तन बूढा हो साथ समय के,
मन जवान रख देव प्रलय के.
'सलिल'-श्वास रस-खान, न रीते-
हो विदेह सुन गान विलय के.
ढाई आखर की सरगम सुन
कहीं न शह या मातें होंगी.
दिल में अगर हौसला हो तो,
फिर पहले सी बातें होंगी...
*
मानोशी चटर्जी
अब पहले सी बात न होगी
उम्र की वह सौग़ात न होगी
खिलना खिल-खिल हँसना,
झिलमिल तारों के संग आँख-मिचौली
दौड़म भागी, खींचातानी
लड़ना रोना, हँसी-ठिठोली
सच्चे-झूठे किस्सों के संग
दादी की वह रात न होगी
उम्र की वह सौग़ात न होगी
खुले आसमां के नीचे होती थी
सरगो़शी में बातें
सन्नाटा पी कर बेसुध जब
हो जाती थी बेकल रातें
धीमे-धीमे जलती थी जो,
बिना हवा सुलगती थी जो
फिर से आग जला भी लें गर
अब पहले सी बात न होगी
उम्र की वह सौग़ात न होगी
अटक गये कुछ पल सूई पर,
समय ठगा सा टंगा रह गया
जीवन लाठी टेक के चलते-चलते
ठिठक के खड़ा रह गया
बूढ़ी झुर्री टेढ़ी काया
सर पर रख कर भारी टुकनी
सांझ के सूरज की देहरी पर
पहले सी बरसात न होगी
उम्र की वह सौग़ात न होगी
************
प्रति गीत:
फिर पहले सी बातें होंगी
संजीव 'सलिल'
*
दिल में अगर हौसला हो तो,
फिर पहले सी बातें होंगी...
*
कहा किसी ने- 'नहीं लौटता
पुनः नदी में बहता पानी'.
पर नाविक आता है तट पर
बार-बार ले नई कहानी..
हर युग में दादी होती है,
होते हैं पोती और पोते.
समय देखता लाड-प्यार के
रिश्तों में दुःख-पीड़ा खोते.
नयी कहानी, नयी रवानी,
सुखमय सारी रातें होंगी.
दिल में अगर हौसला हो तो,
फिर पहले सी बातें होंगी...
*
सखा-सहेली अब भी मिलते,
छिड़ते किस्से, दिल भी खिलते.
रूठ मनाना, बात बनाना.
आँख दिखाना, हँस मुस्काना.
समय नदी के दूर तटों पर-
यादों की बारातें होंगी.
दिल में अगर हौसला हो तो,
फिर पहले सी बातें होंगी...
*
तन बूढा हो साथ समय के,
मन जवान रख देव प्रलय के.
'सलिल'-श्वास रस-खान, न रीते-
हो विदेह सुन गान विलय के.
ढाई आखर की सरगम सुन
कहीं न शह या मातें होंगी.
दिल में अगर हौसला हो तो,
फिर पहले सी बातें होंगी...
*
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
शनिवार, 26 दिसंबर 2009
नव गीत: पग की किस्मत / सिर्फ भटकना -संजीव 'सलिल'
-: नव गीत :-
पग की किस्मत / सिर्फ भटकना
संजीव 'सलिल'
*
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
सावन-मेघ
बरसते आते.
रवि गर्मी भर
आँख दिखाते.
ठण्ड पड़े तो
सभी जड़ाते.
कभी न थमता
पौ का फटना.
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
मीरा, राधा,
सूर, कबीरा,
तुलसी, वाल्मीकि
मतिधीरा.
सुख जैसे ही
सह ली पीड़ा.
नाम न छोड़ा
लेकिन रटना.
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
लोकतंत्र का
महापर्व भी,
रहता जिस पर
हमें गर्व भी.
न्यूनाधिक
गुण-दोष समाहित,
कोई न चाहे-
कहीं अटकना.
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
समय चक्र
चलता ही जाये.
बार-बार
नव वर्ष मनाये.
नाश-सृजन को
संग-संग पाए.
तम-प्रकाश से
'सलिल' न हटना.
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
थक मत, रुक मत,
झुक मत, चुक मत.
फूल-शूल सम-
हार न हिम्मत.
'सलिल' चलाचल
पग-तल किस्मत.
मौन चलाचल
नहीं पलटना.
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
पग की किस्मत / सिर्फ भटकना
संजीव 'सलिल'
*
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
सावन-मेघ
बरसते आते.
रवि गर्मी भर
आँख दिखाते.
ठण्ड पड़े तो
सभी जड़ाते.
कभी न थमता
पौ का फटना.
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
मीरा, राधा,
सूर, कबीरा,
तुलसी, वाल्मीकि
मतिधीरा.
सुख जैसे ही
सह ली पीड़ा.
नाम न छोड़ा
लेकिन रटना.
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
लोकतंत्र का
महापर्व भी,
रहता जिस पर
हमें गर्व भी.
न्यूनाधिक
गुण-दोष समाहित,
कोई न चाहे-
कहीं अटकना.
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
समय चक्र
चलता ही जाये.
बार-बार
नव वर्ष मनाये.
नाश-सृजन को
संग-संग पाए.
तम-प्रकाश से
'सलिल' न हटना.
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
थक मत, रुक मत,
झुक मत, चुक मत.
फूल-शूल सम-
हार न हिम्मत.
'सलिल' चलाचल
पग-तल किस्मत.
मौन चलाचल
नहीं पलटना.
राज मार्ग हो
या पगडंडी,
पग की किस्मत
सिर्फ भटकना....
*
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
'बड़ा दिन' संजीव 'सलिल'
'बड़ा दिन'
संजीव 'सलिल'
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
http://divyanarmada.blogspot.com
संजीव 'सलिल'
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
(भारत में क्रिसमस को 'बड़ा दिन' कहा जाता है.)
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 23 दिसंबर 2009
गीतिका: बिना नाव पतवार हुए हैं --संजीव 'सलिल'
गीतिका:
संजीव 'सलिल'
बिना नाव पतवार हुए हैं.
क्यों गुलाब के खार हुए हैं.
दर्शन बिन बेज़ार बहुत थे.
कर दर्शन बेज़ार हुए हैं.
तेवर बिन लिख रहे तेवरी.
जल बिन भाटा-ज्वार हुए हैं.
माली लूट रहे बगिया को-
जनप्रतिनिधि बटमार हुए हैं.
कल तक थे मनुहार मृदुल जो,
बिना बात तकरार हुए हैं.
सहकर चोट, मौन मुस्काते,
हम सितार के तार हुए हैं.
महानगर की हवा विषैली.
विघटित घर-परिवार हुए हैं.
सुधर न पाई है पगडण्डी,
अनगिन मगर सुधार हुए हैं.
समय-शिला पर कोशिश बादल,
'सलिल' अमिय की धार हुए हैं.
* * * * *
संजीव 'सलिल'
बिना नाव पतवार हुए हैं.
क्यों गुलाब के खार हुए हैं.
दर्शन बिन बेज़ार बहुत थे.
कर दर्शन बेज़ार हुए हैं.
तेवर बिन लिख रहे तेवरी.
जल बिन भाटा-ज्वार हुए हैं.
माली लूट रहे बगिया को-
जनप्रतिनिधि बटमार हुए हैं.
कल तक थे मनुहार मृदुल जो,
बिना बात तकरार हुए हैं.
सहकर चोट, मौन मुस्काते,
हम सितार के तार हुए हैं.
महानगर की हवा विषैली.
विघटित घर-परिवार हुए हैं.
सुधर न पाई है पगडण्डी,
अनगिन मगर सुधार हुए हैं.
समय-शिला पर कोशिश बादल,
'सलिल' अमिय की धार हुए हैं.
* * * * *
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
मंगलवार, 22 दिसंबर 2009
स्मृति दीर्घा: --संजीव 'सलिल'
स्मृति दीर्घा:
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
***********
संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...
***********
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-acharya sanjiv 'salil',
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
दोहा गीतिका 'सलिल'
(अभिनव प्रयोग)
दोहा गीतिका
'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?
बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।
फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।
हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।
सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।
हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।
हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।
तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..
दोहा गीतिका
'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?
बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।
दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।
फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।
हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।
सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।
हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।
हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।
तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।
*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..
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sanjiv 'salil'.,
tevari
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
रविवार, 20 दिसंबर 2009
HINDI POETRIC TRANSLATION OF MEGHDOOTAM 51 to 55
HINDI POETRIC TRANSLATION OF MEGHDOOTAM 51 to 55
by Prof. C. B.Shrivastava
contact 0 9425806252
Note ... Publisher required
ब्रह्मावर्तं जनपदम अथ च्चायया गाहमानः
क्षेत्रं क्षत्रप्रधनपिशुनं कौरवं तद भजेथाः
राजन्यानां शितशरशतैर यत्र गाण्डीवधन्वा
धारापातैस त्वम इव कमलान्य अभ्यवर्षन मुखानि॥१.५१॥
उसे पार कर , रमणियों के नयन में
झूलाते हुये रूप अपना सुहाना
दशपुर निवासिनि चपल श्याम स्वेता
भ्रमर कुंद सी भ्रूलता में दिखाना
शब्दार्थ .. भ्रूलता भौंह रूपी लता अर्थात भौहो का चपल संचालन
हित्वा हालाम अभिमतरसां रेवतीलोचनाङ्कां
बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लाङ्गली याः सिषेवे
कृत्वा तासाम अधिगमम अपां सौम्य सारस्वतीनाम
अन्तः शुद्धस त्वम अपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः॥१.५२॥
फिर छांहतन ! जा वहां पार्थ ने की
जहाँ वाण वर्षा कुरुक्षेत्र रण में
नृपति मुख विवर में कि ज्यों हो तुम्हारी
सघन धार वर्षा कमल पुष्प वन में
तस्माद गच्चेर अनुकनखलं शैलराजावतीर्णां
जाह्नोः कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपानपङ्क्तिम
गौरीवक्त्रभ्रुकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः
शम्भोः केशग्रहणम अकरोद इन्दुलग्नोर्मिहस्ता॥१.५३॥
गृहयुद्ध रत बन्धुजन प्रेम हित हो
विमुख युद्ध से त्याग मादक सुरा को
जिसे रेवती की मदिर दृष्टि ने
प्रेमरस घोलकर और मादक किया हो
बलराम ने जिस नदी नीर का सौभ्य
सेवन किया औ" लिया था सहारा
उसी सरस्वती का मधुर नीर पी
श्याम रंगतन ! हृदय शुद्ध होगा तुम्हारा
तस्याः पातुं सुरगज इव व्योम्नि पश्चार्धलम्बी
त्वं चेद अच्चस्फटिकविशदं तर्कयेस तिर्यग अम्भः
संसर्पन्त्या सपदि भवतः स्रोतसि च्चाययासौ
स्याद अस्थानोपगतयमुनासंगमेवाभिरामा॥१.५४॥
आगे तुम्हें हिमालय से उतरती
कनखल निकट मिलेगी जन्हुकन्या
सगर पुत्र हित स्वर्ग सोपान जो बन
धरा स्वर्ग संयोगिनी स्वयं धन्या
धरे चंद्र की कोर को उर्मिकर से
उमा का भृकुटि भंग उपहास करके
फेनिल तरल , मुक्त मधुहासिनी जो
जहाँ केश से लिप्त शंकर शिखर के
शब्दार्थ .. कनखल... हरिद्वार के निकट एक स्थान
जन्हुकन्या..गंगा नदी
आसीनानां सुरभितशिलं नाभिगन्धैर मृगाणां
तस्या एव प्रभवम अचलं प्राप्य गौरं तुषारैः
वक्ष्यस्य अध्वश्रमविनयेन तस्य शृङ्गे निषण्णः
शोभां शुभ्रां त्रिनयनवृषोत्खातपङ्कोपमेयम॥१.५५॥
सुरगज सदृश अर्द्ध अवनत गगनगंग
अति स्वच्छ जलपान उपक्रम करो जो
चपल नीर की धार में बिम्ब तो तब
दिखेगा कि अस्थान यमुना मिलन हो
शब्दार्थ .. गगनगंग..आकाशगंगा
अस्थान यमुना मिलन .. गंगा यमुना मिलन स्थल तो प्रयाग है , पर अस्थान ामिलन अर्थात प्रयाग के अतिरिक्त कही अंयत्र मिलना
by Prof. C. B.Shrivastava
contact 0 9425806252
Note ... Publisher required
ब्रह्मावर्तं जनपदम अथ च्चायया गाहमानः
क्षेत्रं क्षत्रप्रधनपिशुनं कौरवं तद भजेथाः
राजन्यानां शितशरशतैर यत्र गाण्डीवधन्वा
धारापातैस त्वम इव कमलान्य अभ्यवर्षन मुखानि॥१.५१॥
उसे पार कर , रमणियों के नयन में
झूलाते हुये रूप अपना सुहाना
दशपुर निवासिनि चपल श्याम स्वेता
भ्रमर कुंद सी भ्रूलता में दिखाना
शब्दार्थ .. भ्रूलता भौंह रूपी लता अर्थात भौहो का चपल संचालन
हित्वा हालाम अभिमतरसां रेवतीलोचनाङ्कां
बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लाङ्गली याः सिषेवे
कृत्वा तासाम अधिगमम अपां सौम्य सारस्वतीनाम
अन्तः शुद्धस त्वम अपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः॥१.५२॥
फिर छांहतन ! जा वहां पार्थ ने की
जहाँ वाण वर्षा कुरुक्षेत्र रण में
नृपति मुख विवर में कि ज्यों हो तुम्हारी
सघन धार वर्षा कमल पुष्प वन में
तस्माद गच्चेर अनुकनखलं शैलराजावतीर्णां
जाह्नोः कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपानपङ्क्तिम
गौरीवक्त्रभ्रुकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः
शम्भोः केशग्रहणम अकरोद इन्दुलग्नोर्मिहस्ता॥१.५३॥
गृहयुद्ध रत बन्धुजन प्रेम हित हो
विमुख युद्ध से त्याग मादक सुरा को
जिसे रेवती की मदिर दृष्टि ने
प्रेमरस घोलकर और मादक किया हो
बलराम ने जिस नदी नीर का सौभ्य
सेवन किया औ" लिया था सहारा
उसी सरस्वती का मधुर नीर पी
श्याम रंगतन ! हृदय शुद्ध होगा तुम्हारा
तस्याः पातुं सुरगज इव व्योम्नि पश्चार्धलम्बी
त्वं चेद अच्चस्फटिकविशदं तर्कयेस तिर्यग अम्भः
संसर्पन्त्या सपदि भवतः स्रोतसि च्चाययासौ
स्याद अस्थानोपगतयमुनासंगमेवाभिरामा॥१.५४॥
आगे तुम्हें हिमालय से उतरती
कनखल निकट मिलेगी जन्हुकन्या
सगर पुत्र हित स्वर्ग सोपान जो बन
धरा स्वर्ग संयोगिनी स्वयं धन्या
धरे चंद्र की कोर को उर्मिकर से
उमा का भृकुटि भंग उपहास करके
फेनिल तरल , मुक्त मधुहासिनी जो
जहाँ केश से लिप्त शंकर शिखर के
शब्दार्थ .. कनखल... हरिद्वार के निकट एक स्थान
जन्हुकन्या..गंगा नदी
आसीनानां सुरभितशिलं नाभिगन्धैर मृगाणां
तस्या एव प्रभवम अचलं प्राप्य गौरं तुषारैः
वक्ष्यस्य अध्वश्रमविनयेन तस्य शृङ्गे निषण्णः
शोभां शुभ्रां त्रिनयनवृषोत्खातपङ्कोपमेयम॥१.५५॥
सुरगज सदृश अर्द्ध अवनत गगनगंग
अति स्वच्छ जलपान उपक्रम करो जो
चपल नीर की धार में बिम्ब तो तब
दिखेगा कि अस्थान यमुना मिलन हो
शब्दार्थ .. गगनगंग..आकाशगंगा
अस्थान यमुना मिलन .. गंगा यमुना मिलन स्थल तो प्रयाग है , पर अस्थान ामिलन अर्थात प्रयाग के अतिरिक्त कही अंयत्र मिलना
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
नव गीत: सारे जग को/जान रहे हम -संजीव 'सलिल'
नव गीत:
सारे जग को/जान रहे हम
*
संजीव 'सलिल'
सारे जग को
जान रहे हम,
लेकिन खुद को
जान न पाए...
जब भी मुड़कर
पीछे देखा.
गलत मिला
कर्मों का लेखा.
एक नहीं
सौ बार अजाने
लाँघी थी निज
लछमन रेखा.
माया ममता
मोह लोभ में,
फँस पछताए-
जन्म गँवाए...
पाँच ज्ञान की,
पाँच कर्म की,
दस इन्द्रिय
तज राह धर्म की.
दशकन्धर तन
के बल ऐंठी-
दशरथ मन में
पीर मर्म की.
श्रवण कुमार
सत्य का वध कर,
खुद हैं- खुद से
आँख चुराए...
जो कैकेयी
जान बचाए.
स्वार्थ त्याग
सर्वार्थ सिखाये.
जनगण-हित
वन भेज राम को-
अपयश गरल
स्वयम पी जाये.
उस सा पौरुष
जिसे विधाता-
दे वह 'सलिल'
अमर हो जाये...
******************
सारे जग को/जान रहे हम
*
संजीव 'सलिल'
सारे जग को
जान रहे हम,
लेकिन खुद को
जान न पाए...
जब भी मुड़कर
पीछे देखा.
गलत मिला
कर्मों का लेखा.
एक नहीं
सौ बार अजाने
लाँघी थी निज
लछमन रेखा.
माया ममता
मोह लोभ में,
फँस पछताए-
जन्म गँवाए...
पाँच ज्ञान की,
पाँच कर्म की,
दस इन्द्रिय
तज राह धर्म की.
दशकन्धर तन
के बल ऐंठी-
दशरथ मन में
पीर मर्म की.
श्रवण कुमार
सत्य का वध कर,
खुद हैं- खुद से
आँख चुराए...
जो कैकेयी
जान बचाए.
स्वार्थ त्याग
सर्वार्थ सिखाये.
जनगण-हित
वन भेज राम को-
अपयश गरल
स्वयम पी जाये.
उस सा पौरुष
जिसे विधाता-
दे वह 'सलिल'
अमर हो जाये...
******************
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-acharya sanjiv 'salil',
geet/navgeet/samyik hindi kavya
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
:गीतिकाएं: साधना हो सफल नर्मदा-नर्मदा/खोटे सिक्के हैं प्रचलन में. --संजीव 'सलिल'
आचार्य संजीव 'सलिल' की २ गीतिकाएं
ई मेल: सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम, ब्लॉग: संजिवसलिल.ब्लागस्पाट.com
१
साधना हो सफल नर्मदा- नर्मदा.
वंदना हो विमल नर्मदा-नर्मदा.
संकटों से न हारें, लडें,जीत लें.
प्रार्थना हो प्रबल नर्मदा-नर्मदा.
नाद अनहद गुंजाती चपल हर लहर.
नृत्य रत हर भंवर नर्मदा-नर्मदा.
धीर धर पीर हर लें गले से लगा.
रख मनोबल अटल नर्मदा-नर्मदा.
मोहिनी दीप्ति आभा मनोरम नवल.
नाद निर्मल नवल नर्मदा-नर्मदा.
सिर कटाते समर में झुकाते नहीं.
शौर्य-अर्णव अटल नर्मदा-नर्मदा.
सतपुडा विन्ध्य मेकल सनातन शिखर
सोन जुहिला सजल नर्मदा-नर्मदा.
आस्था हो शिला, मित्रता हो 'सलिल'.
प्रीत-बंधन तरल नर्मदा-नर्मदा.
* * * * *
२
खोटे सिक्के हैं प्रचलन में.
खरे न बाकी रहे चलन में.
मन से मन का मिलन उपेक्षित.
तन को तन की चाह लगन में.
अनुबंधों के प्रतिबंधों से-
संबंधों का सूर्य गहन में.
होगा कभी, न अब बाकी है.
रिश्ता कथनी औ' करनी में.
नहीं कर्म की चिंता किंचित-
फल की चाहत छिपी जतन में.
मन का मीत बदलता पाया.
जब भी देखा मन दरपन में.
राम कैद ख़ुद शूर्पणखा की,
भरमाती मादक चितवन में.
स्नेह-'सलिल' की निर्मलता को-
मिटा रहे हम अपनेपन में.
* * * * *
ई मेल: सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम, ब्लॉग: संजिवसलिल.ब्लागस्पाट.com
१
साधना हो सफल नर्मदा- नर्मदा.
वंदना हो विमल नर्मदा-नर्मदा.
संकटों से न हारें, लडें,जीत लें.
प्रार्थना हो प्रबल नर्मदा-नर्मदा.
नाद अनहद गुंजाती चपल हर लहर.
नृत्य रत हर भंवर नर्मदा-नर्मदा.
धीर धर पीर हर लें गले से लगा.
रख मनोबल अटल नर्मदा-नर्मदा.
मोहिनी दीप्ति आभा मनोरम नवल.
नाद निर्मल नवल नर्मदा-नर्मदा.
सिर कटाते समर में झुकाते नहीं.
शौर्य-अर्णव अटल नर्मदा-नर्मदा.
सतपुडा विन्ध्य मेकल सनातन शिखर
सोन जुहिला सजल नर्मदा-नर्मदा.
आस्था हो शिला, मित्रता हो 'सलिल'.
प्रीत-बंधन तरल नर्मदा-नर्मदा.
* * * * *
२
खोटे सिक्के हैं प्रचलन में.
खरे न बाकी रहे चलन में.
मन से मन का मिलन उपेक्षित.
तन को तन की चाह लगन में.
अनुबंधों के प्रतिबंधों से-
संबंधों का सूर्य गहन में.
होगा कभी, न अब बाकी है.
रिश्ता कथनी औ' करनी में.
नहीं कर्म की चिंता किंचित-
फल की चाहत छिपी जतन में.
मन का मीत बदलता पाया.
जब भी देखा मन दरपन में.
राम कैद ख़ुद शूर्पणखा की,
भरमाती मादक चितवन में.
स्नेह-'सलिल' की निर्मलता को-
मिटा रहे हम अपनेपन में.
* * * * *
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
कविताएँ: विस्थापन की त्रासदी --मदन गोपाल लढ़ा
कविताएँ:
विस्थापन की त्रासदी
मदन गोपाल लढ़ा
madanrajasthani@ gmail.com
राजस्थान के मरुकांतार क्षेत्र में वर्ष 1984 में सेना के तोपाभ्यास हेतु महाजन फ़ील्ड फ़ायरिंग रेंज की स्थापना हुई तो चौंतीस गांवों को उजड़ना पड़ा। ये कविताएँ विस्थापन की त्रासदी को सामुदायिक दृष्टिकोण से प्रकट करती हैं। कविताओं में प्रयुक्त मणेरा, भोजरासर, कुंभाणा उन विस्थापित गावों के नाम हैं जो अब स्मृतियों में बसे हैं।
1.
मरे नहीं हैं
शहीद हुए हैं
एक साथ
मरूधरा के चौंतीस गाँव
देश की ख़ातिर।
सेना करेगी अभ्यास
उन गाँवों की ज़मीन पर
तोप चलाने का
महफ़ूज रखेगी
देश की सरहद।
पर क्या देश के लोग
उन गाँवों की शहादत को
रखेंगे याद?
2.
गाड़ों में
लद गया सामान
ट्रालियों में
भर लिया पशुधन
घरों के
दरवाज़े-खिड़कियाँ तक
उखाड़ कर डाल लिए ट्रक में
गाँव छोड़ते वक़्त्त लोगों ने
मगर
अपना कलेजा
यहीं छोड़ गए।
3.
किसी भी कीमत पर
नहीं छोड़ूँगा गाँव
फूट-फूट कर रोए थे बाबा
गाँव छोड़ते वक़्त।
सचमुच नहीं छोड़ा गाँव
एक पल के लिए भी
भले ही समझाईश के बाद
मणेरा से पहुँच गए मुंबई
मगर केवल तन से
बाबा का मन तो
आज भी
भटक रहा है
मणेरा की गुवाड़ में।
बीते पच्चीस वर्षों से
मुंबई में मणेरा को ही
जी रहे हैं बाबा।
4.
घर नहीं
गोया
छूट गया हो पीछे
कोई बडेरा
तभी तो
आज भी रोता है
मन
याद करके
अपने गाँव को।
5.
तोप के गोलों से
धराशाई हो गई हैं छतें
घुटनें टेक दिए हैं दीवारों ने
जमींदोज हो गए हैं
कुएँ
खंडहर में बदल गया है
समूचा गाँव
मगर यहाँ से कोसों दूर
ऐसे लोग भी हैं
जिनके अंतस में
बसा हुआ है
अतीत का अपना
भरा-पूरा गाँव
6.
अब नहीं उठता धुआँ
सुबह-शाम
चूल्हों से
मणेरा गाँव में।
उठता है
रेत का गु्बार
जब दूर से आकर
गिरता है
तोप का गोला
धमाके के साथ
और भर जाता है
मणेरा का आकाश
गर्द से।
यह गर्द नहीं
मंज़र है यादों का
छा जाता है गाँव पर
लोगों के दिलों में
उठ कर
दूर दिसावर से।
7.
उस जोहड़ के पास
मेला भरता था
गणगौर का
चैत्र शुक्ला तीज को
सज जाती
मिठाई की दुकानें
बच्चों के खिलोने
कठपुतली का खेल
कुश्ती का दंगल
उत्सव बन जाता था
गाँव का जीवन।
उजड़ गया है गाँव
अब पसरा है वहाँ
मरघट का सूनापन
हवा बाँचती है मरसिया
गाँव की मौत पर।
8.
गाँव था भोजरासर
कुंभाणा में ससुराल
मणेरा में ननिहाल
कितना छतनार था
रिश्तों का वट-वृक्ष।
हवा नहीं हो सकती यह
ज़रूर आहें भर रहा है
उजाड़ मरुस्थल में पसरा
रेत का अथाह समंदर।
गाँवों के संग
उजड़ गए
कितने सारे रिश्ते।
9.
कौन जाने
किसने दिया श्राप
नक्शे से गायब हो गए
चौंतीस गाँव।
श्राप ही तो था
अन्यथा अचानक
कहाँ से उतर आया
ख़तरा
कैसे जन्मी
हमले की आशंका
हँसती-खेलती ज़िन्दगी से
क्यों ज़रूरी हो गया
मौत का साजो-सामान?
हज़ार बरसों में
नहीं हुआ जो
क्योंकर हो गया
यों अचानक।
10.
आज भी मौज़ूद है
उजड़े भोजरासर की गुवाड़ में
जसनाथ दादा का थान
सालनाथ जी की समाधि
जाल का बूढ़ा दरखत
मगर गाँव नहीं हैं।
सुनसान थेहड में
दर्शन दुर्लभ हैं
आदमजात के
फ़िर कौन करे
सांझ-सवेरे
मन्दिर मे आरती
कौन भरे
आठम का भोग
कौन लगाए
पूनम का जागरण
कौन नाचे
जलते अंगारों पर।
देवता मौन है
किसे सुनाए
अपनी पीड़ा।
11.
अब नहीं बचा है अंतर
श्मशान और गाँव में।
रोते हैं पूर्वज
तड़पती है उनकी आत्मा
सुनसान उजड़े गाँव में
नहीं बचा है कोई
श्राद्ध-पक्ष में
कागोल़ डालने वाला
कव्वे भी उदास हैं।
***************
विस्थापन की त्रासदी
मदन गोपाल लढ़ा
madanrajasthani@ gmail.com
राजस्थान के मरुकांतार क्षेत्र में वर्ष 1984 में सेना के तोपाभ्यास हेतु महाजन फ़ील्ड फ़ायरिंग रेंज की स्थापना हुई तो चौंतीस गांवों को उजड़ना पड़ा। ये कविताएँ विस्थापन की त्रासदी को सामुदायिक दृष्टिकोण से प्रकट करती हैं। कविताओं में प्रयुक्त मणेरा, भोजरासर, कुंभाणा उन विस्थापित गावों के नाम हैं जो अब स्मृतियों में बसे हैं।
1.
मरे नहीं हैं
शहीद हुए हैं
एक साथ
मरूधरा के चौंतीस गाँव
देश की ख़ातिर।
सेना करेगी अभ्यास
उन गाँवों की ज़मीन पर
तोप चलाने का
महफ़ूज रखेगी
देश की सरहद।
पर क्या देश के लोग
उन गाँवों की शहादत को
रखेंगे याद?
2.
गाड़ों में
लद गया सामान
ट्रालियों में
भर लिया पशुधन
घरों के
दरवाज़े-खिड़कियाँ तक
उखाड़ कर डाल लिए ट्रक में
गाँव छोड़ते वक़्त्त लोगों ने
मगर
अपना कलेजा
यहीं छोड़ गए।
3.
किसी भी कीमत पर
नहीं छोड़ूँगा गाँव
फूट-फूट कर रोए थे बाबा
गाँव छोड़ते वक़्त।
सचमुच नहीं छोड़ा गाँव
एक पल के लिए भी
भले ही समझाईश के बाद
मणेरा से पहुँच गए मुंबई
मगर केवल तन से
बाबा का मन तो
आज भी
भटक रहा है
मणेरा की गुवाड़ में।
बीते पच्चीस वर्षों से
मुंबई में मणेरा को ही
जी रहे हैं बाबा।
4.
घर नहीं
गोया
छूट गया हो पीछे
कोई बडेरा
तभी तो
आज भी रोता है
मन
याद करके
अपने गाँव को।
5.
तोप के गोलों से
धराशाई हो गई हैं छतें
घुटनें टेक दिए हैं दीवारों ने
जमींदोज हो गए हैं
कुएँ
खंडहर में बदल गया है
समूचा गाँव
मगर यहाँ से कोसों दूर
ऐसे लोग भी हैं
जिनके अंतस में
बसा हुआ है
अतीत का अपना
भरा-पूरा गाँव
6.
अब नहीं उठता धुआँ
सुबह-शाम
चूल्हों से
मणेरा गाँव में।
उठता है
रेत का गु्बार
जब दूर से आकर
गिरता है
तोप का गोला
धमाके के साथ
और भर जाता है
मणेरा का आकाश
गर्द से।
यह गर्द नहीं
मंज़र है यादों का
छा जाता है गाँव पर
लोगों के दिलों में
उठ कर
दूर दिसावर से।
7.
उस जोहड़ के पास
मेला भरता था
गणगौर का
चैत्र शुक्ला तीज को
सज जाती
मिठाई की दुकानें
बच्चों के खिलोने
कठपुतली का खेल
कुश्ती का दंगल
उत्सव बन जाता था
गाँव का जीवन।
उजड़ गया है गाँव
अब पसरा है वहाँ
मरघट का सूनापन
हवा बाँचती है मरसिया
गाँव की मौत पर।
8.
गाँव था भोजरासर
कुंभाणा में ससुराल
मणेरा में ननिहाल
कितना छतनार था
रिश्तों का वट-वृक्ष।
हवा नहीं हो सकती यह
ज़रूर आहें भर रहा है
उजाड़ मरुस्थल में पसरा
रेत का अथाह समंदर।
गाँवों के संग
उजड़ गए
कितने सारे रिश्ते।
9.
कौन जाने
किसने दिया श्राप
नक्शे से गायब हो गए
चौंतीस गाँव।
श्राप ही तो था
अन्यथा अचानक
कहाँ से उतर आया
ख़तरा
कैसे जन्मी
हमले की आशंका
हँसती-खेलती ज़िन्दगी से
क्यों ज़रूरी हो गया
मौत का साजो-सामान?
हज़ार बरसों में
नहीं हुआ जो
क्योंकर हो गया
यों अचानक।
10.
आज भी मौज़ूद है
उजड़े भोजरासर की गुवाड़ में
जसनाथ दादा का थान
सालनाथ जी की समाधि
जाल का बूढ़ा दरखत
मगर गाँव नहीं हैं।
सुनसान थेहड में
दर्शन दुर्लभ हैं
आदमजात के
फ़िर कौन करे
सांझ-सवेरे
मन्दिर मे आरती
कौन भरे
आठम का भोग
कौन लगाए
पूनम का जागरण
कौन नाचे
जलते अंगारों पर।
देवता मौन है
किसे सुनाए
अपनी पीड़ा।
11.
अब नहीं बचा है अंतर
श्मशान और गाँव में।
रोते हैं पूर्वज
तड़पती है उनकी आत्मा
सुनसान उजड़े गाँव में
नहीं बचा है कोई
श्राद्ध-पक्ष में
कागोल़ डालने वाला
कव्वे भी उदास हैं।
***************
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
गुरुवार, 17 दिसंबर 2009
नव गीत: हर चेहरे में... संजीव 'सलिल'
नव गीत:
हर चेहरे में...
संजीव 'सलिल'
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
मिल्न-विरह में, नयन-बयन में.
गुण-अवगुण या चाल-चलन में.
कहीं मोह का,
कहीं द्रोह का
संघर्षण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
मन की मछली, तन की तितली.
हाथ न आयी, पल में फिसली.
क्षुधा-प्यास का,
श्वास-रास का,
नित तर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
चंचल चितवन, सद्गुण-परिमल.
मृदुल-मधुर सुर, आनन मंजुल.
हाव-भाव ये,
ताव-चाव ये
प्रभु-अर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
गिरि-सलिलाएँ, काव्य-कथाएँ
कही-अनकही, सुनें-सुनाएँ.
कलरव-गुंजन,
माटी-कंचन
नव दर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
बुनते सपने, मन में अपने.
समझ नाते जग के नपने.
जन्म-मरण में,
त्याग-वरण में
संकर्षण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
हर चेहरे में...
संजीव 'सलिल'
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
मिल्न-विरह में, नयन-बयन में.
गुण-अवगुण या चाल-चलन में.
कहीं मोह का,
कहीं द्रोह का
संघर्षण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
मन की मछली, तन की तितली.
हाथ न आयी, पल में फिसली.
क्षुधा-प्यास का,
श्वास-रास का,
नित तर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
चंचल चितवन, सद्गुण-परिमल.
मृदुल-मधुर सुर, आनन मंजुल.
हाव-भाव ये,
ताव-चाव ये
प्रभु-अर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
गिरि-सलिलाएँ, काव्य-कथाएँ
कही-अनकही, सुनें-सुनाएँ.
कलरव-गुंजन,
माटी-कंचन
नव दर्पण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
बुनते सपने, मन में अपने.
समझ नाते जग के नपने.
जन्म-मरण में,
त्याग-वरण में
संकर्षण है.
हर चेहरे में
अलग कशिश है,
आकर्षण है...
*
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nav geet,
samyik hindi kavya
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
A message : beena sharma
This is a beautiful article:
The woman in your life...very well expressed...
Tomorrow you may get a working woman, but you should marry her with these facts as well.
Here is a girl, who is as much educated as you are;
Who is earning almost as much as you do;
One, who has dreams and aspirations just as
you have because she is as human as you are;
One, who has never entered the kitchen in her life just like you or your
Sister haven't, as she was busy in studies and competing in a system
that gives no special concession to girls for their culinary achievements
One, who has lived and loved her parents & brothers & sisters, almost as
much as you do for 20-25 years of her life;
One, who has bravely agreed to leave behind all that, her home, people who love her, to adopt your home, your family, your ways and even your family ,name
One, who is somehow expected to be a master-chef from day #1, while you sleep oblivious to her predicament in her new circumstances, environment and that kitchen
One, who is expected to make the tea, first thing in the morning and cook
food at the end of the day, even if she is as tired as you are, maybe more, and yet never ever expected to complain; to be a servant, a cook, a mother, a wife, even if she doesn't want to; and is learning just like you are as to what you want from her; and is clumsy and sloppy at times and knows that you won't like it if she is too demanding, or if she learns faster than you;
One, who has her own set of friends, and that includes boys and even men at her workplace too, those, who she knows from school days and yet is willing to put all that on the back-burners to avoid your irrational jealousy, unnecessary competition and your inherent insecurities;
Yes, she can drink and dance just as well as you can, but won't, simply
Because you won't like it, even though you say otherwise
One, who can be late from work once in a while whendeadlines, just like yours, are to be met;
One, who is doing her level best and wants to make this most important,
relationship in her entire life a grand success, if you just help her some
and trust her;
One, who just wants one thing from you, as you are the only one she knows in your entire house - your unstinted support, your sensitivities and most importantly - your understanding, or love, if you may call it.
But not many guys understand this......
Please appreciate "HER"
I hope you will do....
Respect Her.
Forward this to as many women as possible... they'll love you for it!
Forward this to as many men as you can so that they'll know why women are so special.
The woman in your life...very well expressed...
Tomorrow you may get a working woman, but you should marry her with these facts as well.
Here is a girl, who is as much educated as you are;
Who is earning almost as much as you do;
One, who has dreams and aspirations just as
you have because she is as human as you are;
One, who has never entered the kitchen in her life just like you or your
Sister haven't, as she was busy in studies and competing in a system
that gives no special concession to girls for their culinary achievements
One, who has lived and loved her parents & brothers & sisters, almost as
much as you do for 20-25 years of her life;
One, who has bravely agreed to leave behind all that, her home, people who love her, to adopt your home, your family, your ways and even your family ,name
One, who is somehow expected to be a master-chef from day #1, while you sleep oblivious to her predicament in her new circumstances, environment and that kitchen
One, who is expected to make the tea, first thing in the morning and cook
food at the end of the day, even if she is as tired as you are, maybe more, and yet never ever expected to complain; to be a servant, a cook, a mother, a wife, even if she doesn't want to; and is learning just like you are as to what you want from her; and is clumsy and sloppy at times and knows that you won't like it if she is too demanding, or if she learns faster than you;
One, who has her own set of friends, and that includes boys and even men at her workplace too, those, who she knows from school days and yet is willing to put all that on the back-burners to avoid your irrational jealousy, unnecessary competition and your inherent insecurities;
Yes, she can drink and dance just as well as you can, but won't, simply
Because you won't like it, even though you say otherwise
One, who can be late from work once in a while whendeadlines, just like yours, are to be met;
One, who is doing her level best and wants to make this most important,
relationship in her entire life a grand success, if you just help her some
and trust her;
One, who just wants one thing from you, as you are the only one she knows in your entire house - your unstinted support, your sensitivities and most importantly - your understanding, or love, if you may call it.
But not many guys understand this......
Please appreciate "HER"
I hope you will do....
Respect Her.
Forward this to as many women as possible... they'll love you for it!
Forward this to as many men as you can so that they'll know why women are so special.
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी) छंद: भारती की आरती --संजीव 'सलिल'
मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी) छंद
संजीव 'सलिल'
भारती की आरती उतारिये 'सलिल' नित, सकल जगत को सतत सिखलाइये.
जनवाणी हिंदी को बनायें जगवाणी हम, भूत अंगरेजी का न शीश पे चढ़ाइये.
बैर ना विरोध किसी बोली से तनिक रखें, पढ़िए हरेक भाषा, मन में बसाइये.
शब्द-ब्रम्ह की सरस साधना करें सफल, छंद गान कर रस-खान बन जाइए.
**************
संजीव 'सलिल'
भारती की आरती उतारिये 'सलिल' नित, सकल जगत को सतत सिखलाइये.
जनवाणी हिंदी को बनायें जगवाणी हम, भूत अंगरेजी का न शीश पे चढ़ाइये.
बैर ना विरोध किसी बोली से तनिक रखें, पढ़िए हरेक भाषा, मन में बसाइये.
शब्द-ब्रम्ह की सरस साधना करें सफल, छंद गान कर रस-खान बन जाइए.
**************
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
एक अगीत: बिक रहा ईमान है __संजीव 'सलिल'
एक अगीत:
बिक रहा ईमान है
__संजीव 'सलिल'
कौन कहता है कि...
मंहगाई अधिक है?
बहुत सस्ता
बिक रहा ईमान है.
जहाँ जाओगे
सहज ही देख लोगे.
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है.
कहो जनमत का
यहाँ कुछ मोल है?
नहीं, देखो जहाँ
भारी पोल है.
कर रहा है न्याय
अंधा ले तराजू.
व्यवस्था में हर कहीं
बस झोल है.
आँख का आँसू,
हृदय की भावनाएँ.
हौसला अरमान सपने
समर्पण की कामनाएँ.
देश-भक्ति, त्याग को
किस मोल लोगे?
कहो इबादत को
कैसे तौल लोगे?
आँख के आँसू,
हया लज्जा शरम.
मुफ्त बिकते
कहो सच है या भरम?
क्या कभी इससे सस्ते
बिक़े होंगे मूल्य.
बिक रहे हैं
आज जो निर्मूल्य?
मौन हो अर्थात
सहमत बात से हो.
मान लेता हूँ कि
आदम जात से हो.
जात औ' औकात निज
बिकने न देना.
मुनाफाखोरों को
अब टिकने न देना.
भाव जिनके अधिक हैं
उनको घटाओ.
और जो बेभाव हैं
उनको बढाओ.
****************
बिक रहा ईमान है
__संजीव 'सलिल'
कौन कहता है कि...
मंहगाई अधिक है?
बहुत सस्ता
बिक रहा ईमान है.
जहाँ जाओगे
सहज ही देख लोगे.
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है.
कहो जनमत का
यहाँ कुछ मोल है?
नहीं, देखो जहाँ
भारी पोल है.
कर रहा है न्याय
अंधा ले तराजू.
व्यवस्था में हर कहीं
बस झोल है.
आँख का आँसू,
हृदय की भावनाएँ.
हौसला अरमान सपने
समर्पण की कामनाएँ.
देश-भक्ति, त्याग को
किस मोल लोगे?
कहो इबादत को
कैसे तौल लोगे?
आँख के आँसू,
हया लज्जा शरम.
मुफ्त बिकते
कहो सच है या भरम?
क्या कभी इससे सस्ते
बिक़े होंगे मूल्य.
बिक रहे हैं
आज जो निर्मूल्य?
मौन हो अर्थात
सहमत बात से हो.
मान लेता हूँ कि
आदम जात से हो.
जात औ' औकात निज
बिकने न देना.
मुनाफाखोरों को
अब टिकने न देना.
भाव जिनके अधिक हैं
उनको घटाओ.
और जो बेभाव हैं
उनको बढाओ.
****************
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
गीत: एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए... --संजीव 'सलिल'
गीत
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.
बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.
निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.
बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.
कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.
देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.
स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.
पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.
याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.
आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.
स्वप्न में देखूं तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.
बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.
निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.
बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.
कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.
देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.
स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.
पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.
याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.
आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.
स्वप्न में देखूं तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् श्लोक ४६ से ५० हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध " मो ००९४२५८०६२५२
महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् श्लोक ४६ से ५०
हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध " मो ००९४२५८०६२५२
तत्र स्कन्दं नियतवसतिं पुष्पमेघीकृतात्मा
पुष्पासारैः स्नपयतु भवान व्योमगङ्गाजलार्द्रैः
रक्षाहेतोर नवशशिभृता वासवीनां चमूनाम
अत्यादित्यं हुतवहमुखे संभृतं तद धि तेयः॥१.४६॥
जलासेक से तब मुदित, धरणि उच्छवास
मिश्रित पवन रम्य शीतल सुखारी
जिसे शुण्ड से पान करते द्विरद दल
सध्वनि , पालकी ले बढ़ेगा तुम्हारी
तुम्हें देवगिरि पास गमनाभिलाषी
वहन कर पवन मंद गति से चलेगा
कि पा इस तरह सुखद वातावरन को
वहां पर सपदि वन्य गूलर पकेगा
शब्दार्थ ... जलासेक = पानी की फुहार
ज्योतिर्लेखावलयि गलितं यस्य बर्हं भवानी
पुत्रप्रेम्णा कुवलयदलप्रापि कर्णे करोति
धौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस तं मयूरं
पश्चाद अद्रिग्रहणगुरुभिर गर्जितैर नर्तयेथाः॥१.४७॥
वहाँ पर स्वयं पुण्य घन व्योम गंगा
सलिल सिक्त तुम पुष्प वर्षा विमल से
नियतवास स्कन्द को देवगिरि पर
प्रथम पूजना मित्र कुछ और चल के
षडानन वही इन्द्र की सैन्य रक्षार्थ
जिनको स्वयं शम्भु ने था बनाया
रवि से प्रभापूर्ण , अति तेज वाले
जिन्होंने अनल मुख से था जन्म पाया
आराद्यैनं शरवणभवं देवम उल्लङ्घिताध्वा
सिद्धद्वन्द्वैर जलकणभयाद वीणिभिर मुक्तमार्गः
व्यालम्बेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन
स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम॥१.४८॥
जिसके सुरंजित प्रभारश्मि मण्डित
स्वयं ही गिरे पंख को श्री भवानी
वात्सल्य के वश , कमल दल अलग कर
बना निज लिया धार अवतंस मानी
शिव शशि प्रभा से त्ा धौत जिसके
नयन, षडानन का शिखि वहां पाना
पर्वत गुहा ध्वनित घन गर्जना से
स्वयं की , उसे तुम वहां पर नचाना
शब्दार्थ ... अवतंस = कान का आभूषण
त्वय्य आदातुं जलम अवनते शार्ङ्गिणो वर्णचौरे
तस्याः सिन्धोः पृथुम अपि तनुं दूरभावात प्रवाहम
प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनम आवर्ज्य दृष्टिर
एकं भुक्तागुणम इव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम॥१.४९॥
तब "स्कंद " को अर्घ्य दे देवगिरि पार
करते समय सिध्दगण वीणधारी
वर्षा सलिल भीति से वे युगल पुंज
देंगे तुम्हें मार्ग वनपंथ चारी
सुरभि धेनु की पुत्रियो के सतत मेघ
से बन गई भूमि पर है नदी जो
रुकना उसे मान देने कि रतिदेव की
कीर्ति को .. नदी चर्मण्वती को
शब्दार्थ ... चर्मण्वती = चंबल नदी
ताम उत्तीर्य व्रज परिचितभ्रूलताविभ्रमाणां
पक्ष्मोत्क्षेपाद उपरिविलसत्कृष्णशारप्रभाणाम
कुन्दक्षेपानुगमधुकरश्रीमुषाम आत्मबिम्बं
पात्रीकुर्वन दशपुरवधूनेत्रकौतूहलानाम॥१.५०॥
नदी तीर लेने तुझे आ गये को
स्वयं श्यामघन ! विष्णु के वर्णधारी
बँधी दृष्टि से अचल अपलक नयन से
लखेंगे सभी सिद्धगण व्योमचारी
चर्मण्वती की विपुलधार जो
दूर नभ से दिखेगी सरल क्षीण धारा
उस पर पड़े तुम दिखोगे वहां
ज्यों , धरा के गले में तरल नील माला
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
शनिवार, 12 दिसंबर 2009
नवगीत: डर लगता है --संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
*
डर लगता है
आँख खोलते...
*
कालिख हावी है
उजास पर.
जयी न कोशिश
क्षुधा-प्यास पर.
रुदन हँस रहा
त्रस्त हास पर.
आम प्रताड़ित
मस्त खास पर.
डर लगता है
बोल बोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
लूट फूल को
शूल रहा है.
गरल अमिय को
भूल रहा है.
राग- द्वेष का
मूल रहा है.
सर्प दर्प का
झूल रहा है.
डर लगता है
पोल खोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
आसमान में
तूफाँ छाया.
कर्कश स्वर में
उल्लू गाया.
मन ने तन को
है भरमाया.
काया का
गायब है साया.
डर लगता है
पंख तोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
संजीव 'सलिल'
*
डर लगता है
आँख खोलते...
*
कालिख हावी है
उजास पर.
जयी न कोशिश
क्षुधा-प्यास पर.
रुदन हँस रहा
त्रस्त हास पर.
आम प्रताड़ित
मस्त खास पर.
डर लगता है
बोल बोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
लूट फूल को
शूल रहा है.
गरल अमिय को
भूल रहा है.
राग- द्वेष का
मूल रहा है.
सर्प दर्प का
झूल रहा है.
डर लगता है
पोल खोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
आसमान में
तूफाँ छाया.
कर्कश स्वर में
उल्लू गाया.
मन ने तन को
है भरमाया.
काया का
गायब है साया.
डर लगता है
पंख तोलते.
डर लगता है
आँख खोलते...
*
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Critic-Acharya Sanjiv Verma 'Salil',
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009
नव गीत: अवध तन,/मन राम हो... संजीव 'सलिल'
नव गीत:
संजीव 'सलिल'
अवध तन,
मन राम हो...
*
आस्था सीता का
संशय का दशानन.
हरण करता है
न तुम चुपचाप हो.
बावरी मस्जिद
सुनहरा मृग- छलावा.
मिटाना इसको कहो
क्यों पाप हो?
उचित छल को जीत
छल से मौन रहना.
उचित करना काम
पर निष्काम हो.
अवध तन,
मन राम हो...
*
दगा के बदले
दगा ने दगा पाई.
बुराई से निबटती
यूँ ही बुराई.
चाहते हो तुम
मगर संभव न ऐसा-
बुराई के हाथ
पिटती हो बुराई.
जब दिखे अंधेर
तब मत देर करना
ढेर करना अनय
कुछ अंजाम हो.
अवध तन,
मन राम हो...
*
किया तुमने वह
लगा जो उचित तुमको.
ढहाया ढाँचा
मिटाया क्रूर भ्रम को.
आज फिर संकोच क्यों?
निर्द्वंद बोलो-
सफल कोशिश करी
हरने दीर्घ तम को.
सजा या ईनाम का
भय-लोभ क्यों हो?
फ़िक्र क्यों अनुकूल कुछ
या वाम हो?
अवध तन,
मन राम हो...
*
संजीव 'सलिल'
अवध तन,
मन राम हो...
*
आस्था सीता का
संशय का दशानन.
हरण करता है
न तुम चुपचाप हो.
बावरी मस्जिद
सुनहरा मृग- छलावा.
मिटाना इसको कहो
क्यों पाप हो?
उचित छल को जीत
छल से मौन रहना.
उचित करना काम
पर निष्काम हो.
अवध तन,
मन राम हो...
*
दगा के बदले
दगा ने दगा पाई.
बुराई से निबटती
यूँ ही बुराई.
चाहते हो तुम
मगर संभव न ऐसा-
बुराई के हाथ
पिटती हो बुराई.
जब दिखे अंधेर
तब मत देर करना
ढेर करना अनय
कुछ अंजाम हो.
अवध तन,
मन राम हो...
*
किया तुमने वह
लगा जो उचित तुमको.
ढहाया ढाँचा
मिटाया क्रूर भ्रम को.
आज फिर संकोच क्यों?
निर्द्वंद बोलो-
सफल कोशिश करी
हरने दीर्घ तम को.
सजा या ईनाम का
भय-लोभ क्यों हो?
फ़िक्र क्यों अनुकूल कुछ
या वाम हो?
अवध तन,
मन राम हो...
*
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
बुधवार, 9 दिसंबर 2009
भजन: सुन लो विनय गजानन -sanjiv 'salil'
भजन:
सुन लो विनय गजानन
संजीव 'सलिल'
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..
*
सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी!
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
मंगलवार, 8 दिसंबर 2009
भिलाई में मिले चिट्ठाकार
ब्लागर बैठक : भिलाई (आभार: राजतन्त्र)
संजीव तिवारी, बीएस पाबला, राजकुमार ग्वालानी, ललित शर्मा, शरद कोकास, और सूर्यकांत गुप्ता
भिलाई में छत्तीसगढ़ के ब्लागरों की एक आकस्मिक चिंतन बैठक हुई। आठ घंटे से ज्यादा समय तक चली इस लंबी मैराथन बैठक में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर लंबी चर्चा हुई। 12 बजे शरद कोकास के निवास में प्रारंभ हुई यह बैठक रात 8 बजे तक चली। इस बैठक में करीब एक दर्जन ब्लागर शामिल हुए लेकिन जिन मुद्दों पर चर्चा चली उन मुद्दों पर देश के साथ विदेशी ब्लागरों से भी चर्चा कर सहमति ले ली गई है कि जल्द ही दिग्गज ब्लागर एक नई चिट्ठा चर्चा प्रारंभ करने वाले हैं। इस चर्चा में देशी ब्लागर के साथ कुछ विदेशी ब्लागर भी शामिल होंगे। कुछ नाम चौकाने वाले होंगे। ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा। यहां चर्चा साफ-सुधरी और स्वस्थ मानसिकता वाली होगी। वैसे आप चाहें तो कयास लगा सकते हैं कि कौन-कौन दिग्गज ब्लागर चर्चा करने वालों में शामिल हो सकते हैं।
बीएस पाबला, शरद कोकास, संजीव तिवारी,ललित शर्मा, राजकुमार ग्वालानी, और सूर्यकांत गुप्ता
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
मुंबई ब्लॉगर मीट - रपट विवेक रस्तोगी
मुंबई ब्लॉगर मीट - रपट
Vivek Rastogi rastogi.v@gmail.com
Vivek Rastogi rastogi.v@gmail.com
प्रकृति के आंचल में ६ दिसंबर २००९ को मुंबई में हिन्दी ब्लॉगर मिलन आयोजित हुआ जिसमें १५ ब्लॉगर्स ने भाग लिया। इस ब्लॉगर मीट का उद्देश्य एक दूसरे से परिचय था जिससे सब ब्लॉगर्स एक दूसरे से जुड़ें । सबने अपना अपना परिचय दिया, ब्लॉग जगत में कैसे आये और ब्लॉग पर क्या लिख रहे हैं और क्यों लिख रहे हैं इस पर चर्चा हुई। हिन्दी के पाठक हैं और उनमें जागृति फ़ैलायी जाये क्योंकि अभी तक बहुत से लोग जानते ही नहीं हैं कि ब्लॉग क्या होता है और हिन्दी में भी कम्प्य़ूटर पर लिखा जा सकता है। सभी ब्लॉगर्स अपने आसपास ये जागृति फ़ैलायें, और ज्यादा से ज्यादा हिन्दी ब्लॉग लिखने के लिये प्रेरित करें।
अगली मीट के लिये कोई विशेष रुपरेखा तय नहीं की गई परंतु इस बात पर जोर दिया गया कि नियमित अंतराल के बाद मुंबई में ब्लॉगर्स मीट आयोजित होना चाहिये। मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है इसे शाब्दिक राजधानी भी होना चाहिये, भविष्य में अगर जरुरत महसूस होती है तो एक एसोसिएशन बनाया जा सकता है जो निश्चित तौर पर रुपरेखा बनाकर कार्य कर सकती है ।
जैसा कि ब्लॉगर्स मीट के आयोजन के लिये लिखी पोस्ट में लिखा था मैंने २९९ नं. बस के लास्ट स्टॉप से चाल के बीच से जाते हुए रास्ते को चुना और केवल २-३ मिनिट चलने पर सीधे त्रिमूर्ति जैन मंदिर जा पहुंचा।
चाल से निकलते हुए देखा कि कई घरों के सामने महिलाएँ बैठकर पापड़ की लोईयां बना रही थीं, कुछ घरों में पापड़ बिले जा रहे थे और लगभग सभी घरों के आगे बड़ी टोकरी उल्टी करके उस पर पापड़ सुखाये जा रहे थे सभी एक ही साईज के पापड़ और लगभग एक ही मोटाई के देखने से ही महसूस होता था। शायद लिज्जत पापड़ वाले वहाँ से ले जाते होंगे। गृहस्थी के बीच उन महिलाओं की पापड़ के लिये मेहनत, बहुत जीवट का काम है। उन्हें क्या पता कि ये ब्लॉगर मीट क्या है और एक ब्लॉगर उनके इस पापड़ कर्म को अपने ब्लॉग पर छाप देगा। हम फ़ोटो नहीं खींच पाये क्योंकि मुंबई की किसी भी अनजानी चाल में मतलब जहाँ आपको कोई नहीं जानता हो ये दुस्साहस जैसा है। भले ही ये लोग वहाँ शेरों के बीच रहते हैं परंतु आदमी से डरते हैं।
हम अपने साथ लिये हुए थे नाश्ते का सामान बिस्किट्स, चिप्स और रसगुल्ले जो कि भली-भांति कवर किया हुआ था तथा साथ ही सभी ब्लॉगरों के स्वागत के लिये गुलाब के फ़ूल।
सबसे पहले मैं पहुँचा और बाहर ही बैठकर अपने ब्लॉगर बंधुओं का इंतजार करने लगा। सबसे पहले पहुँचे सतीश पंचम जी, फ़िर आये आलोक नंदन जी, तभी अविनाश वाचस्पति जी का फ़ोन आया कि हम १०-१५ मिनिट में पहुंचने वाले हैं, अविनाश वाचस्पति जी सूरजप्रकाश जी के साथ उनकी कार में पहुंचे, फ़िर तो धीरे धीरे सभी ब्लॉगर्स आने लगे।
इधर रुपेश श्रीवास्तव जी, फ़रहीन के साथ पनवेल से निकल चुके थे चूँकि रविवार को हार्बर लाईन पर मेगाब्लॉक होता है, तो हमने उनसे कहा कि वाशी डिपो से सीधे बस सेवा उपलब्ध है, और वे वहाँ से सानपाड़ा तक आ गये और बस स्टॉप पर बस का इंतजार करते हुए फ़ोन आया कि हमें पहुंचने में बिलंब होगा पर आप हमारा इंतजार करियेगा, हमसे मिले बिना नहीं जाईयेगा, हमें उनकी मिलने की इच्छा शक्ति बहुत अच्छी लगी। महावीर बी सेमलानी जी भी तब तक नाश्ता लेकर आ चुके थे।
महावीर बी. सेमलानी जी का स्वागत करते हुए विवेक रस्तोगी
मुलाकात का दौर शुरु हुआ परिचय के साथ, सबसे पहले परिचय सूरजप्रकाश जी ने दिया। वे अपना परिचय पहले ही करवा चुके थे एक अनूठे तरीके से, उन्होंने अपना परिचय का ब्रोशर सबको दे दिया जिसमें उन्होंने अपने साहित्यिक और ब्लॉगर जीवन में हुई उपलब्धियों को बताया है। और उन्होंने बताया कि वे अब तक लगभग ९०० लोगों को ब्लॉग लेखन के लिये प्रेरित कर चुके हैं। पाठकों के ऊपर उनका कहना है कि उन्होंने चार्ली चैपलिन नामक किताब का हिन्दी अनुवाद किया तो उसकी ५०० प्रतियां भी नहीं बिकीं पर जैसे वह प्रति ब्लॉग के माध्यम से रचनाकार पर उपलब्ध करवाई गई लगभग ६००० लोगों ने वहाँ से डाउनलोड की है, ब्लॉग के माध्यम से लेखक पूरी दुनिया से जुड़ चुका है और पाठकों की त्वरित प्रतिक्रिया भी मिल जाती है। वहीं उन्होंने प्रोज़.कॉम के बारे में भी बताया कि वहाँ ब्लॉगर ट्रांसलेटर की सेवाएँ दे सकते हैं। और बताया कि २५० से ज्यादा भाषाएँ अब यूनिकोड में उपलब्ध हैं जो कि इंटरनेट पर भाषायी क्रांति है।
अविनाश वाचस्पति जी और सूरजप्रकाश जी
विमल वर्मा जी ने अपना परिचय दिया और बताया कि वे ठुमरी ब्लॉग लिखते हैं और अपने मनपसंद के गाने वहाँ अपने पाठकों को सुनवाते हैं।
विवेक रस्तोगी, अजय कुमार जी, शशि सिंह जी और महावीर बी. सेमलानी जी
अजय कुमार जी ने बताया कि उन्हें ब्लॉगजगत में विमल वर्मा जी लेकर आये और वे गठरी नाम का ब्लॉग चलाते हैं। उन्हें ब्लॉग जगत के बारे में जानकर बहुत ही अच्छा लगा और वे इसी सितंबर से ब्लॉग जगत में आये हैं।
विमल वर्मा जी और अजय कुमार जी
शमा जी ने अपना परिचय दिया और बताया कि वे अकेली लगभग १६ ब्लॉगों की मालकिन हैं और सामुदायिक ब्लॉग अलग। जिनमें कुछ हैं बागवानी, संस्मरण, गृहसज्जा, धरोहर, एक सवाल तुम करो…। शमा जी ब्लॉगर से मिलने के लिये मुंबई में रुकी हुई थीं, उनका शुक्रवार दोपहर को फ़ोन आया था कि वे भी इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहती हैं। सभी ब्लॉगर्स को यह जानकर प्रसन्नता हुई के वे पूना की ब्लॉगर हैं ।
सहभागी चिट्ठाकार
रश्मि रविजा जी ने अपना परिचय दिया और बताया कि वे भी ब्लॉग जगत में अभी सितंबर से ही हैं और अपना ब्लॉग मन का पाखी के नाम से लिख रही हैं।
फ़िर मैंने अपना परिचय दिया कि मेरा उपनाम कल्पतरु अपने कालेज के जमाने में रखा था अब इसी नाम से ब्लॉग लिख रहा हूँ और तब कविता लिखने का बहुत शौक था, चूँकि शुरु से ही हिन्दी और संस्कृत साहित्य से लगाव है, व आई.टी. में होने के कारण शुरु से ही हिन्दी कम्प्यूटर पर लिखने की रुचि रही, पहले डोस पर अक्षर में लिखते थे, फ़िर कृतिदेव फ़ोंट में और बहुत सारी टेक्नालाजी जो तेजी से बदलती रही अब यूनिकोड में लेखन जारी है। चिंता यह है कि सभी केवल साहित्य और अपने बारे में लिख रहे हैं, पर ब्लॉगर अपने जिस कार्य में विशिष्ट हैं और दुनिया उसके बारे में नहीं जानती है, ऐसे जानकारीपरक ब्लॉगों की बहुत कमी है, मैंने एक ब्लॉग बनाया था बैंकज्ञान, उस पर बहुत कम पाठक संख्या के चलते लिखने में रुचि नहीं बनी। इसी तरह से सभी लोग अपने अपने पेशे से संबंधित कुछ सार्थक लेख लिखें तो यह निश्चित ही शिक्षा का साधन भी बनेगा।
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
रविवार, 6 दिसंबर 2009
आलेख: मैं अयोध्या हूँ --चण्डीदत्त शुक्ल
बावरी ढांचा ध्वंस दिवस : ६ दिसंबर पर विशेष आलेख
...मैं अयोध्या हूँ!
--चण्डीदत्त शुक्ल, स्क्रिप्ट राइटर फोकस टीवी
मैं अयोध्या हूँ ...। राजा राम की राजधानी अयोध्या...। यहीं राम के पिता दशरथ ने राज किया...यहीं सीता जी राजा जनक के घर से विदा होकर आईं। यहीं श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ...। यहीं बहती है सरयू.... लेकिन अब नदी की मस्ती भी कुछ बदल-सी गई है...। कहाँ तो कल तक वो कल-कल कर बहती थी- और आज, जैसे धारा भी सहमी-सहमी है...धीरे-धीरे बहती है। पता नहीं, किस कदर सरयू प्रदूषित हो गई है...कुछ तो कूड़े-कचरे से और उससे भी कहीं ज्यादा...सियासत की गंदगी से। सच कहती हूँ... आज से सत्रह साल पहले मेरा, अयोध्या का कुछ लोगों ने दिल छलनी कर दिया...वो मेरी मिट्टी में अपने-अपने हिस्से का खुदा तलाश करने आए थे...।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ था...सैकड़ों साल से मज़हबों के नाम पर कभी हिंदुओं के नेता आते हैं, तो कभी मुसलमानों के अगुआ आ धमकते हैं...वो ज़ोश से भरी तक़रीरे देते हैं...अपने-अपने लोगों को भड़काते हैं और फिर सब मिलकर मेरे सीने पर घाव बना जाते हैं...। कभी हर-हर महादेव की गूँज होती है, तो कभी अल्ला-हो-अकबर...की आवाज़ें आती हैं....
लेकिन ये आवाज़ें, नारा-ए-तकबीर जैसे नारे अपने ईश्वर को याद करने के लिए लगाए जाते हैं...। पता नहीं...ये तो ऊँची-ऊँची आवाज़ों में भगवान को याद करने वाले जानें, लेकिन मैंने, अयोध्या ने तो देखा है... अक्सर भगवान का नाम पुकारते हुए तमाम लोगों ने खून की होलियाँ खेली...और हमारे लोगों के घरों से मोहब्बत लूट ले गए...। जिन गलियों में रामधुन होती थी...जहाँ ईद की सेवइयाँ खाने हर घर से लोग जमा होते थे...वहाँ अब सन्नाटा पसरा रहता है...वहाँ नफ़रतों का कारोबार होता है। किसी को मंदिर मिला, किसी को मसज़िद मिली...हमारे पास थी मोहब्बत की दौलत, घर को लौटे, तो तिज़ोरी खाली मिली...।
छह दिसंबर, 1992 को अयोध्या में जो कुछ हुआ...हो गया...पर वो सारा मंज़र अब तक याद आता है...और जब याद आता है, तो थर्रा देता है...। धर्म के नाम पर जो लोग लड़े-भिड़े, उनकी छातियाँ चौड़ी हो जाती हैं...कोई शौर्य दिवस मनाता है, कोई कलंक दिवस, लेकिन अयोध्या के आम लोगों से पूछो...वो क्या मनाते हैं?...क्या सोचते हैं?...बाकी मुल्क के बाशिंदे क्या जानते हैं?...क्या चाहते हैं...? वो तो आज से सत्रह साल पहले का छह दिसंबर याद भी नहीं करना चाहते, जब एक विवादित ढाँचे को कुछ लोगों ने धराशायी कर दिया था।
हिंदुओं का विश्वास है कि विवादित स्थल पर रामलला का मंदिर था...। वहाँ पर बनेगा तो राम का मंदिर ही बनेगा...। मुसलिमों को यकीन है कि वहाँ मसज़िद थी... जिन्हें दंगे करने थे, उन्होंने घर जलाए...जिन्हें लूटना था, वो सड़कों पर हथियार लेकर दौड़े चले आए...नफरतों का कारोबार उन्होंने किया...और बदनाम हो गई अयोध्या...मैंने क्या बिगाड़ा था किसी का?
मेरी गलियों में ही बौद्ध और जैन पंथ फला-फूला। पाँच जैन तीर्थंकर यहाँ जन्मे...इनके मंदिर भी तो बने हैं यहाँ. वो लोग भला क्यों नहीं झगड़ते। नहीं...मैं नहीं चाहती...कि वो भी अपने मज़हब के नाम पर लड़ाइयाँ लड़ें...लेकिन मंदिर और मसजिद के नाम पर तो कितनी बड़ी लड़ाई छिड़ गई है।
आज...रात के इस पहर...जैसे फिर वो मंज़र आँख के सामने उभर आया है...एक माँ के सीने में दबे जख्म हरे हो गए हैं...कल फिर सारे मुल्क में लोग अयोध्या का नाम लेंगे...कहेंगे..इसी जगह मज़हब के नाम पर नफ़रत का तमाशा देखने को मिला था।
हमारे नेता तरह-तरह के बयान देते हैं। मुझे कभी हँसी सी आती है...अपने नेताओं की बात सुनकर...तो कई बार मन करता है...अपना ही सिर धुन लूँ । एक नेता कहती हैं—विवादित स्थल पर कभी मस्जिद नहीं थी...इसीलिए हम चाहते हैं कि वहाँ एक भव्य मंदिर बने। वो इसे जनता के आक्रोश का नाम देती हैं। उमा भारती ने साफ़ कहा है कि वो ढाँचा गिराने को लेकर माफ़ी नहीं मांगेंगी...चाहे उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया जाए।
सियासतदानों की ज़ुबान के क्या मायने हैं...वही जानें...वही समझें...ना अयोध्या समझ पाती है...ना उसके मासूम बच्चे। राम के मंदिर के सामने टोकरियों में फूल बेचते मुसलमानों के बच्चे नहीं जानते कि दशरथ के बेटे का मज़हब क्या था, ना ही सेवइयों का कारोबार करने वाले हिंदू हलवाइयों को मतलब होता है इस बात से कि बाबर के वशंजों से उन्हें कौन-सा रिश्ता रखना है और कौन-सा नहीं? वो तो बस एक ही संबंध जानते हैं—मोहब्बत का!
खुदा ही इंसाफ़ करेगा उन सियासतदानों का...जो मेरे घर, मेरे आँगन में नफ़रत की फसल बोकर चले गए? मैं देखती हूँ...मेरी बहनें...दिल्ली, पटना, काशी, लखनऊ...सबकी छाती ज़ख्मी है।
एक नेता कहती हैं—जैसे 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिखों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैली थी और कत्ल-ए-आम हुए थे, वैसे ही तो छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढाँचा गिरा दिया ....अयोध्या में मौजूद कुछ लोग जनविस्फोट को कैसे रोक पाते?
वो बतायें ....सड़कों पर निकले हुए लोग एक-दूसरे को देखकर गले लगाने को क्यों नहीं मचल पड़ते... क्यों नहीं उनके मन में आता...सामने वाले को जादू की झप्पी देनी है...। क्या नफ़रतों के सैलाब ही उमड़ते हैं? बसपा की नेता, उप्र की मुख्यमंत्री मायावती कांग्रेस को दोष देती हैं...कांग्रेस वाले बीजेपी पर आरोप मढ़ते हैं...बाला साहब ठाकरे कहते हैं...1992 में हिंदुत्ववादी ताकतें एक झंडे के तले नहीं आईं...नहीं तो मैं भी अयोध्या आता।
मुझ पर, अयोध्या पे शायद ही इतने पन्ने किसी ने रंगे हों, लेकिन हाय री मेरी किस्मत...मेरी मिट्टी पर छह दिसंबर, 1992 को जो खून बरसा, उसके छींटों की स्याही से हज़ारों ख़बरें बुन दी गईं। किसने घर जलाया, किसके हाथ में आग थी...मुझको नहीं पता...हाँ एक बात ज़रूर पता है...मेरे जेहन में है...खयाल में है...विवादित ढांचे की ज़मीन पर कब्जे को लेकर सालों से पाँच मुक़दमे चल रहे हैं...।
पहला मुक़दमा तो 52 साल भी ज्यादा समय से लड़ा जा रहा है, यानी तब से, जब जंग-ए-आज़ादी के जुनून में पूरा मुल्क मतवाला हुआ था...। अफ़सोस...मज़हब का जुनून भी देशप्रेम पर भारी पड़ गया। मुझे पता चला है कि कई मामले 6 दिसम्बर 1992 को विवादित ढाँचा गिराए जाने से जुड़े हैं। क्या कहूँ...या कुछ ना कहूँ...चुप रहूँ, तो भी कैसे? माँ हूँ...मुझसे अपनी ऐसी बेइज़्ज़ती देखी नहीं जाती। कहते हैं—23 दिसंबर 1949 को विवादित ढांचे का दरवाज़ा खोलने पर वहाँ रामलला की मूर्ति रखी मिली थी। मुसलिमों ने आरोप लगाया था--रात में किसी ने चुपचाप ये मूर्ति वहाँ रख दी थीं.
किसे सच कहूँ और किसे झूठा बता दूँ...दोनों तेरे लाल हैं...चाहे हिंदू हों या फिर मुसलमान...मैं बस इतना जानना चाहती हूँ कि नफ़रत की ज़मीन पर बने घर में किसका ख़ुदा रहने के लिए आएगा?
23 दिसंबर 1949 को ढाँचे के सामने हज़ारों लोग इकट्ठा हो गए. यहाँ के डीएम ने यहाँ ताला लगा दिया। मैंने सोचा—कुछ दिन में हालात काबू में आ जाएंगे...लेकिन वो आग जो भड़की, वो फिर शांत नहीं हुई। अब तक सुलगती जा रही है...और मेरे सीने में कितने ही छाले बनाती जा रही है...। 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद, दिगंबर अखाड़ा के महंत और राम जन्मभूमि न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने अर्ज़ी दी कि रामलला के दर्शन की इजाज़त मिले। अदालत ने उनकी बात मान ली...और फिर यहाँ दर्शन-पूजा का सिलसिला शुरू हो गया। एक फ़रवरी 1986 को यहाँ ताले खोल दिए गए और इबादत का सिलसिला ढाँचे के अंदर ही शुरू हो गया।
हे राम! क्या कहूँ...अयोध्या ने कब सोचा था...कि उसकी मिट्टी पर ऐसे-ऐसे कारनामे होंगे। 11 नवंबर 1986 को विश्व हिंदू परिषद ने यहीं पास में ज़मीन पर गड्ढे खोदकर शिला पूजन किया। अब तक अलग-अलग चल रहे मुक़दमे एक ही जगह जोड़कर हाईकोर्ट में एकसाथ सुने जाएं। किसी और ने मांग की—विवादित ढांचे को मंदिर घोषित कर दिया जाए। 10 नवंबर 1989 को अयोध्या में मंदिर का शिलान्यास हुआ और 6 दिसंबर 1992 को वो सबकुछ हो गया...जो मैंने कभी नहीं सोचा था...। कुछ दीवानों ने वो ढाँचा ही गिरा दिया...जिसे किसी ने मसज़िद का नाम दिया, तो किसी ने मंदिर बताया। मैं तो माँ हूँ...क्या कहूँ...वो क्या है...। क्या इबादतगाहों के भी अलग-अलग नाम होते हैं? इन सत्रह सालों में क्या-क्या नहीं देखा...क्या-क्या नहीं सुना...क्या-क्या नहीं सहा मैंने...। मैं अपनी भीगी आँखें लेकर बस सूनी राह निहार रही हूँ...क्या कभी मुझे भी इंसाफ़ मिलेगा? क्या कभी मज़हब की लड़ाइयों से अलग एक माँ को उसका सुकून लौटाने की कोशिश भी होगी?
1993 में यूपी सरकार ने विवादित ढाँचे के पास की 67 एकड़ ज़मीन एक संगठन को सौंप दी..। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला रद्द कर दिया। अदालत ने ध्यान तो दिया था मेरे दिल का...मेरे जज़्बात का...इंसाफ़ के पुजारियों ने साफ़ कहा था... मालिकाना हक का फ़ैसला होने से पहले इस ज़मीन के अविवादित हिस्सों को भी किसी एक समुदाय को सौंपना "धर्मनिरपेक्षता की भावना" के अनुकूल नहीं होगा। इसी बीच पता चला कि उत्तर प्रदेश सचिवालय से अयोध्या विवाद से जुड़ी 23 फा़इलें ग़ायब हो गईं। क्या-क्या बताऊँ...! मज़हब को लेकर फैलाई जा रही नफ़रत मैं बरसों-बरस से झेल रही हूँ। 1528 में यहाँ एक मसज़िद बनाई गई। 1853 में पहली बार यहाँ सांप्रदायिक दंगे हुए।
1859 में अंग्रेजों ने बाड़ लगवा दी। मुसलिमों से कहा...वो अंदर इबादत करें और हिंदुओं को बाहरी हिस्से में पूजा करने को कहा। हाय रे...क्यों किए थे अंग्रेजों ने इस क़दर हिस्से? ये कैसा बँटवारा था...उन्होंने जो दीवार खींची...वो जैसे दिलों के बीच खिंच गई। 1984 में कहा गया...यहाँ राम जन्मे थे और इस जगह को मुक्त कराना है...। हिंदुओं ने एक समिति बनाई और मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति गठित कर डाली। 1989 में विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज़ कर दिया और विवादित स्थल के नज़दीक राम मंदिर की नींव डाल दी। 1990 में भी विवादित ढाँचे के पास थोड़ी-बहुत तोड़फोड़ की गई थी। 1992 में छह दिसंबर का दिन...मेरे हमेशा के लिए ख़ामोशियों में डूब जाने का दिन...अपने-अपने ख़ुदा की तलाश में कुछ दीवानों ने मुझे शर्मशार कर दिया। विवादित ढाँचे को गिरा दिया गया। अब कुछ लोग वहाँ मंदिर बनाना चाहते हैं...तो कुछ की तमन्ना है मसज़िद बने...। मैं तो चाहती हूँ...कि मेरे घर में, मेरे आँगन में मोहब्बत लौट आए।
बीते सत्रह सालों में मैंने बहुत-से ज़ख्म खाए हैं...सारे मुल्क में 2000 लोगों की साँसें हमेशा के लिए बंद हो गईं...कितने ही घरों में खुशियों पर पहरा लग गया। ऐसा भी नहीं था कि दंगों और तोड़फोड़ के बाद भी ज़िंदगी अपनी रफ्तार पकड़ ले। 2001 में भी इसी दिन खूब तनाव बढ़ा...जनवरी 2002 में उस वक्त के पीएम ने अयोध्या समिति गठित की...पर हुआ क्या??? क्या कहूँ...!!! मेरी बहन गोधरा ने भी तो वही घाव झेले हैं...फरवरी, 2002 में वहाँ कारसेवकों से भरी रेलगाड़ी में आग लगा दी गई। 58 लोग वहाँ मारे गए।
किसने लगाई ये आग...। अरे! हलाक़ तो हुए मेरे ज़िगर के टुकड़े ही तो!! माँ के बच्चों का मज़हब क्या होता है? बस...बच्चा होना!!
अब तक तमाम सियासतदां मेरे साथ खिलवाड़ करते रहे हैं। फरवरी, 2002 में एक पार्टी ने यकायक अयोध्या मुद्दे से हाथ खींच लिया...। जैसे मैं उनके लिए किसी ख़िलौने की तरह थी...। जब तक मन बहलाया, साथ रखा, नहीं चाहा, तो फेंक दिया। आंकड़ों की क्या बात कहूँ...कितनी तस्वीरें याद करूं...जो कुछ याद आता है...दिल में और तक़लीफ़ ताज़ा कर देता है। क्या-क्या धोखा नहीं किया...किस-किस ने दग़ा नहीं दी।
अभी-अभी लिब्राहन आयोग ने रिपोर्ट दी है..कुछ लोगों को दंगों का, ढांचा गिराने का ज़िम्मेदार बताया है...सुना है...उन्हें सज़ा देने की सिफ़ारिश नहीं की गई है। गुनाह किसने किया...सज़ा किसे मिलेगी...पता नहीं...पर ये अभागी अयोध्या...अब भी उस राम को तलाश कर रही है...जो उसे इंसाफ़ दिलाए।
कोई कहता है—अगर मेरे खानदान का पीएम होता, तो ढाँचा नहीं गिरता...कोई कहता है—अगर मैं नेता होती, तो मंदिर वहीं बनता...कहाँ है वो...जो कहे...मैं होता तो अयोध्या इस क़दर सिसकती ना रहती...मैं होती, तो मोहब्बत इस तरह रुसवा नहीं होती।
(आभार: फोकस टीवी, चण्डीदत्त शुक्ल, चौराहा)
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
शनिवार, 5 दिसंबर 2009
नवगीत: मौन निहारो... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
पर्वत-शिखरों पर जब जाओ,
स्नेहपूर्वक छू सहलाओ.
हर उभार पर, हर चढाव पर-
ठिठको, गीत प्रेम के गाओ.
स्पर्शों की संवेदन-सिहरन
चुप अनुभव कर निज मन वारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
जब-जब तुम समतल पर चलना,
तनिक सम्हलना, अधिक फिसलना.
उषा सुनहली, शाम नशीली-
शशि-रजनी को देख मचलना.
मन से तन का, तन से मन का-
दरस करो, आरती उतारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
घटी-गव्ह्रों में यदि उतरो,
कण-कण, तृण-तृण चूमो-बिखरो.
चन्द्र-ज्योत्सना, सूर्य-रश्मि को
खोजो, पाओ, खुश हो निखरो.
नेह-नर्मदा में अवगाहन-
करो 'सलिल' पी कहाँ पुकारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
संजीव 'सलिल'
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
पर्वत-शिखरों पर जब जाओ,
स्नेहपूर्वक छू सहलाओ.
हर उभार पर, हर चढाव पर-
ठिठको, गीत प्रेम के गाओ.
स्पर्शों की संवेदन-सिहरन
चुप अनुभव कर निज मन वारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
जब-जब तुम समतल पर चलना,
तनिक सम्हलना, अधिक फिसलना.
उषा सुनहली, शाम नशीली-
शशि-रजनी को देख मचलना.
मन से तन का, तन से मन का-
दरस करो, आरती उतारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
घटी-गव्ह्रों में यदि उतरो,
कण-कण, तृण-तृण चूमो-बिखरो.
चन्द्र-ज्योत्सना, सूर्य-रश्मि को
खोजो, पाओ, खुश हो निखरो.
नेह-नर्मदा में अवगाहन-
करो 'सलिल' पी कहाँ पुकारो.
रूप राशि को
मौन निहारो...
*
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
नव गीत: सागर उथला / पर्वत गहरा...
नव गीत:
संजीव 'सलिल'
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही.
सौ पाए तो हैं अयोग्य,
दस पायें वाहा-वाही.
नाली का
पानी बहता है,
नदिया का
जल ठहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र.
सत्य-असत्य न जानें-मानें,
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.
बहस कर रहा
है वकील
न्यायालय
गूंगा-बहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
मना-मनाकर भारत हारा,
लेकिन पाक न माने.
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का
जाना नहीं
ककहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
संजीव 'सलिल'
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही.
सौ पाए तो हैं अयोग्य,
दस पायें वाहा-वाही.
नाली का
पानी बहता है,
नदिया का
जल ठहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
अध्यापक को सबक सिखाता
कॉलर पकड़े छात्र.
सत्य-असत्य न जानें-मानें,
लक्ष्य स्वार्थ है मात्र.
बहस कर रहा
है वकील
न्यायालय
गूंगा-बहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
मना-मनाकर भारत हारा,
लेकिन पाक न माने.
लातों का जो भूत
बात की भाषा कैसे जाने?
दुर्विचार ने
सद्विचार का
जाना नहीं
ककहरा.
सागर उथला,
पर्वत गहरा...
*
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
नवगीत: माटी में-/ मिलना परिपाटी... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी,कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*
मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...
*
संजीव 'सलिल'
काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी,कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*
मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...
*
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
गुरुवार, 3 दिसंबर 2009
नवगीत: बस इतना है रोना... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
हम भू माँ की
छाती खोदें,
वह देती है सोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
हमें स्वार्थ
अपना प्यारा है,
नहीं देश से मतलब.
क्रय-विक्रय कर रहे
रोज हम,
ईश्वर हो या हो रब.
कसम न सीखेंगे
सुधार की
फसल रोपना-बोना
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
जोड़-जोड़
जीवन भर मरते,
जाते खाली हाथ.
शीश उठाने के
चक्कर में
नवा रहे निज माथ.
काश! पाठ पढ लें,
सीखें हम
जो पाया, वह खोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
निर्मल होने का
भ्रम पाले
ओढ़े मैली चादर.
बने हुए हैं
स्वार्थ-अहम् के
हम अदना से चाकर.
किसने किया?,
कटेगा कैसे?
'सलिल'
निगोड़ा टोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
संजीव 'सलिल'
हम भू माँ की
छाती खोदें,
वह देती है सोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
हमें स्वार्थ
अपना प्यारा है,
नहीं देश से मतलब.
क्रय-विक्रय कर रहे
रोज हम,
ईश्वर हो या हो रब.
कसम न सीखेंगे
सुधार की
फसल रोपना-बोना
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
जोड़-जोड़
जीवन भर मरते,
जाते खाली हाथ.
शीश उठाने के
चक्कर में
नवा रहे निज माथ.
काश! पाठ पढ लें,
सीखें हम
जो पाया, वह खोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
निर्मल होने का
भ्रम पाले
ओढ़े मैली चादर.
बने हुए हैं
स्वार्थ-अहम् के
हम अदना से चाकर.
किसने किया?,
कटेगा कैसे?
'सलिल'
निगोड़ा टोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
सौ. कां. शिल्पी एवं चि. पंकज के परिणय-पर्व पर शुभकामनाएँ
श्री चित्रगुप्ताय नमः
सौ. कां. शिल्पी एवं चि. पंकज के परिणय-पर्व पर शुभकामनाएँ
. श्री गणेश विघ्नेश्वर, ऋद्धि-सिद्धि के साथ .
.. विश्वनाथ जगदंबिका, रखें शीश पर हाथ ..
. चित्रगुप्त प्रभु शत नमन, जग-'शिल्पी' कर्मेश .
.. इरावती-नंदिनी माँ, रहिये सदय हमेश ..
. शतदल 'पंकज' सम खिले, मिले ह्रदय शत आज .
.. माई महामाया विनय, सफल करो शुभ काज ..
. आये अरपा-तीर से, गंगा-तट ले आस .
.. बने बनारस में सरस, श्वास-आस मधुमास ..
. काया में स्थित हुआ, परमब्रम्ह कायस्थ .
.. काया-काया से मिले, 'शोभा' काया स्वस्थ ..
. प्रकृति-पुरुष का सम्मिलन, रीति सनातन सत्य .
.. दो अपूर्ण मिल पूर्ण हों, नीर-क्षीर सम नित्य ..
. अनुगुंजन शहनाई की, 'रामाडा' में मीत .
.. स्वागत करती आपका, दिल हारें दिल जीत ..
. 'देवनारायण' दे रहे, सुरपुर से आशीष.
.. 'ज्वालाप्रसाद' मना रहे, शुभ करना हे ईश ..
. 'महावीर' स्वागत करें. भुज-भर 'राधेश्याम' .
.. 'प्रभावती' आशीष दें, 'प्रतिमा-प्रीती' ललाम ..
. शुभ-'प्रभात' कह 'आरती', 'संध्या' लिए 'विनीत' .
.. 'आशा-सत्य सहाय' से, पाई मंगल रीत ..
. 'प्यारेमोहन जी' नमन, 'रविप्रकाश-संदीप' .
.. खुश 'प्रशांत-संभ्रांत हों, शत स्वागत 'हरदीप' ..
. स्वागतरत हैं 'मुदित' मन, 'सागर, किरण, गजेन्द्र' .
.. 'आशा, मधु, तनया, तनय, सुरभि, प्रसन्न, नरेंद्र' ..
. 'दीप्ति, निर्मला, रेवती, ज्योति, अंशिका' झूम .
.. अरुण, अजय, पल्लवी' संग, 'नीरज' लें नभ चूम..
. 'अनुपम, शुचि, अनमोल' हैं, श्वास-आस संबंध .
.. 'पंकज, अंशुल, मोहिनी', नवल युगल अनुबंध ..
. 'मुकुल, वन्दना, प्रार्थना, निशा, साधना,-नाथ .
.. 'सलिल, अशोक, अनूप' हैं, 'हर्षित' जोड़े हाथ ..
. 'आभा' रमा-'रमेश' सी, 'मन्वंतर' तक दिव्य .
.. 'अनुश्री-तुहिना' मनायें, 'हों 'पृथीश' ये नव्य..
. अचकन पर बेंदा हुआ, हुलस-पुलक बलिहार .
.. कलगी नथनी पर गयी, निज अंतर्मन हार ..
. कंगन-चूड़ी की खनक, सुन पटका बेचैन .
.. लड़े झुके उठ मिल झुके, चार हुए जब नैन ..
. चुटकी भर सिन्दूर से, सात जन्म का संग .
.. सप्तपदी पर चल युगल, नहा रहा है गंग ..
. बन्ना-बन्नी गारियाँ, विदा-बधाई गीत .
.. ढोलक की हर थाप में, है 'सरोज' की प्रीत ..
. हुलसित हैं 'राजुल-अतुल', नर्तित हैं 'पीयूष' .
.. 'शिल्पी-पंकज' उम्र भर, पायें सुख प्रत्यूष ..
. चिर जीवहु जोरी जिए, पाए 'कीर्ति' सुनाम .
.. दस-दिश-छाये 'मंजुला', 'शिल्पी-पंकज' नाम ..
. 'खरे'-खरे व्यवहार कर, 'श्री वास्तव' में जीत .
.. नवल-युगल में नित बढे, 'सलिल' परस्पर प्रीत ..
*** शब्दसुमन: संजीव वर्मा 'सलिल' ***
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शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
नवगीत: पलक बिछाए / राह हेरते... संजीव 'सलिल'
नवगीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
जनगण स्वामी
खड़ा सड़क पर.
जनसेवक
जा रहा झिड़ककर.
लट्ठ पटकती
पुलिस अकड़कर.
अधिकारी
गुर्राये भड़ककर.
आम आदमी
ट्रस्ट-टेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
लोभ,
लोक-आराध्य हुआ है.
प्रजातंत्र का
मंत्र जुआ है.
'जय नेता की'
करे सुआ है.
अंत न मालुम
अंध कुआ है.
अन्यायी मिल
मार-घेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
मुंह में राम
बगल में छूरी.
त्याग त्याज्य
आराम जरूरी.
जपना राम
हुई मजबूरी.
जितनी गाथा
कहो अधूरी.
अपने सपने
'सलिल' पेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
आचार्य संजीव 'सलिल'
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
जनगण स्वामी
खड़ा सड़क पर.
जनसेवक
जा रहा झिड़ककर.
लट्ठ पटकती
पुलिस अकड़कर.
अधिकारी
गुर्राये भड़ककर.
आम आदमी
ट्रस्ट-टेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
लोभ,
लोक-आराध्य हुआ है.
प्रजातंत्र का
मंत्र जुआ है.
'जय नेता की'
करे सुआ है.
अंत न मालुम
अंध कुआ है.
अन्यायी मिल
मार-घेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
मुंह में राम
बगल में छूरी.
त्याग त्याज्य
आराम जरूरी.
जपना राम
हुई मजबूरी.
जितनी गाथा
कहो अधूरी.
अपने सपने
'सलिल' पेरते.
पलक बिछाए
राह हेरते...
*
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
नवगीत: जब तक कुर्सी, तब तक ठाठ...
नवगीत:
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
नाच जमूरा,
नचा मदारी.
सत्ता भोग,
करा बेगारी.
कोइ किसी का
सगा नहीं है.
स्वार्थ साधने
करते यारी.
फूँको नैतिकता
ले काठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
बेच-खरीदो
रोज देश को.
अस्ध्य मान लो
सिर्फ ऐश को.
वादों का क्या
किया-भुलाया.
लूट-दबाओ
स्वर्ण-कैश को.
झूठ आचरण
सच का पाठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
मन पर तन ने
राज किया है.
बिजली गायब
बुझा दिया है.
सच्चाई को
छिपा रहे हैं.
भाई-चारा
निभा रहे हैं.
सोलह कहो
भले हो साठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
नाच जमूरा,
नचा मदारी.
सत्ता भोग,
करा बेगारी.
कोइ किसी का
सगा नहीं है.
स्वार्थ साधने
करते यारी.
फूँको नैतिकता
ले काठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
बेच-खरीदो
रोज देश को.
अस्ध्य मान लो
सिर्फ ऐश को.
वादों का क्या
किया-भुलाया.
लूट-दबाओ
स्वर्ण-कैश को.
झूठ आचरण
सच का पाठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
मन पर तन ने
राज किया है.
बिजली गायब
बुझा दिया है.
सच्चाई को
छिपा रहे हैं.
भाई-चारा
निभा रहे हैं.
सोलह कहो
भले हो साठ.
जब तक कुर्सी,
तब तक ठाठ...
*
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 1 दिसंबर 2009
Meghdootam ..hindi poetry translation ..shlok..41 to 45by Prof . C B shrivastava " vidagdh"..Mandla / jabalpur
Meghdootam ..hindi poetry translation ..shlok..41 to 45
by Prof . C B shrivastava " vidagdh"..Mandla / jabalpur
तां कस्यांचिद भवनवलभौ सुप्तपारावतायां
नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात खिन्नविद्युत्कलत्रः
दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान वाहयेदध्वशेषं
मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपतार्थकृत्याः॥१.४१॥
वहाँ घन तिमिर से दुरित राजपथ पर
रजनि में स्वप्रिय गृह मिलन गामिनी को
निकष स्वर्ण रेखा सदृश दामिनी से
दिखाना अभय पथ विकल कामिनी को
न हो घन ! प्रवर्षण , न हो घोर गर्जन
न हो सूर्य तर्जन , वहाँ मौन जाना
प्रणयकातरा स्वतः भयभीत जो हैं
सदय तुम उन्हें , अकथ भय से बचाना
तस्मिन काले नयनसलिअं योषितां खण्डितानां
शान्तिं नेयं प्रणयिभिर अतो वर्त्म भानोस त्यजाशु
प्रालेयास्त्रं कमलवदनात सोऽपि हर्तुं नलिन्याः
प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पभ्यसूयः॥१.४२॥
सतत लास्य से खिन्न विद्युत लतानाथ
वह निशि वहीं भवन छत पर बिताना
कहीं एक पर , जहाँ पारावतों को
सुलभ हो सका हो शयन का ठिकाना
बिता रात फिर प्रात , रवि के उदय पर
विहित मार्ग पर तुम पथारूढ़ होना
सखा के सुखों हेतु संकल्प कर्ता
है सच , जानते न कभी मन्द होना
गम्भीरायाः पयसि सरितश चेतसीव प्रसन्ने
चायात्मापि प्रकृतिसुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम
तस्माद अस्याः कुमुदविशदान्य अर्हसि त्वं न धैर्यान
मोघीकर्तुं चटुलशफोरोद्वर्तनप्रेक्षितानि॥१.४३॥
तभी , सान्त्वना हेतु खण्डित प्रिया के
नयनवारि प्रेमी यथा पोंछते न !
हरे ओस आंसू , नलिन मुख कमल से
तरणि कर बढ़ा , तू अतः राह देना
तस्याः किंचित करधृतम इव प्राप्त्वाईरशाखं
हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम
प्रस्थानं ते कथम अपि सखे लम्बमानस्य भावि
ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्था॥१.४४॥
मन सम तरल स्वच्छ जल में गंभीरा
नदी धार लेगी प्रकृत छबि तुम्हारी
कुमुद शुभ्र चंचल चपल मीन प्लुति दृष्टि
उसकी उपेक्षा न हो धैर्य धारी
त्वन्निष्यन्दोच्च्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः
स्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं दन्तिभिः पीयमानः
नीचैर वास्यत्य उपजिगमिषोर देवपूर्वं गिरिं ते
शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम॥१.४५
उस क्षीण सलिला नदी को निरखकर
लगेगा तुम्हें ज्यों कोई कामिनी हो
जो वानीर रूपी झुकी उंगलियों से
सम्भाले सलिल नील रूपी वसन को
वसन तुम जिसे हर , अनावृत जघन कर
कठिन पाओगे मित्र , प्रस्थान पाना
विवृत जघन कामिनी को भला
ज्ञातरस किस रसिक से बना छोड़ जाना
by Prof . C B shrivastava " vidagdh"..Mandla / jabalpur
तां कस्यांचिद भवनवलभौ सुप्तपारावतायां
नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात खिन्नविद्युत्कलत्रः
दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान वाहयेदध्वशेषं
मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपतार्थकृत्याः॥१.४१॥
वहाँ घन तिमिर से दुरित राजपथ पर
रजनि में स्वप्रिय गृह मिलन गामिनी को
निकष स्वर्ण रेखा सदृश दामिनी से
दिखाना अभय पथ विकल कामिनी को
न हो घन ! प्रवर्षण , न हो घोर गर्जन
न हो सूर्य तर्जन , वहाँ मौन जाना
प्रणयकातरा स्वतः भयभीत जो हैं
सदय तुम उन्हें , अकथ भय से बचाना
तस्मिन काले नयनसलिअं योषितां खण्डितानां
शान्तिं नेयं प्रणयिभिर अतो वर्त्म भानोस त्यजाशु
प्रालेयास्त्रं कमलवदनात सोऽपि हर्तुं नलिन्याः
प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पभ्यसूयः॥१.४२॥
सतत लास्य से खिन्न विद्युत लतानाथ
वह निशि वहीं भवन छत पर बिताना
कहीं एक पर , जहाँ पारावतों को
सुलभ हो सका हो शयन का ठिकाना
बिता रात फिर प्रात , रवि के उदय पर
विहित मार्ग पर तुम पथारूढ़ होना
सखा के सुखों हेतु संकल्प कर्ता
है सच , जानते न कभी मन्द होना
गम्भीरायाः पयसि सरितश चेतसीव प्रसन्ने
चायात्मापि प्रकृतिसुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम
तस्माद अस्याः कुमुदविशदान्य अर्हसि त्वं न धैर्यान
मोघीकर्तुं चटुलशफोरोद्वर्तनप्रेक्षितानि॥१.४३॥
तभी , सान्त्वना हेतु खण्डित प्रिया के
नयनवारि प्रेमी यथा पोंछते न !
हरे ओस आंसू , नलिन मुख कमल से
तरणि कर बढ़ा , तू अतः राह देना
तस्याः किंचित करधृतम इव प्राप्त्वाईरशाखं
हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम
प्रस्थानं ते कथम अपि सखे लम्बमानस्य भावि
ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्था॥१.४४॥
मन सम तरल स्वच्छ जल में गंभीरा
नदी धार लेगी प्रकृत छबि तुम्हारी
कुमुद शुभ्र चंचल चपल मीन प्लुति दृष्टि
उसकी उपेक्षा न हो धैर्य धारी
त्वन्निष्यन्दोच्च्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः
स्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं दन्तिभिः पीयमानः
नीचैर वास्यत्य उपजिगमिषोर देवपूर्वं गिरिं ते
शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम॥१.४५
उस क्षीण सलिला नदी को निरखकर
लगेगा तुम्हें ज्यों कोई कामिनी हो
जो वानीर रूपी झुकी उंगलियों से
सम्भाले सलिल नील रूपी वसन को
वसन तुम जिसे हर , अनावृत जघन कर
कठिन पाओगे मित्र , प्रस्थान पाना
विवृत जघन कामिनी को भला
ज्ञातरस किस रसिक से बना छोड़ जाना
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नदी,
पथ,
Meghdootam,
Prof . C B श्रीवास्तव,
translation
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
सोमवार, 30 नवंबर 2009
लघुकथा ...ब्रांड एम्बेसडर
लघुकथा
ब्रांड एम्बेसडर
विवेक रंजन श्रीवास्तव
c/6 , MPSEB Colony , Rampur , Jabalpur (MP)
mob 9425806252
vivek1959@yahoo.co.in
काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की नीली शर्ट ,गले में गहरी नीली टाई , कंधे पर लैप टाप का काला बैग , और हाथ में मोबाइल ...जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है . मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता ,सातों दिन पूरे महीने , टारगेट के बोझ तले . एटीकेट्स के बंधनो में , लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार ,बातचीत के दौरान सेलिंग स्त्रेतजी के अंतर्गत देश दुनिया , मौसम की बाते भी करनी पड़ती , यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है , उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता . डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता .डील के बाद वही "ब्रांड एम्बेसडर" कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता . बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता ,उस एक दिन के बादशाह पर . उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है , अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू तर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है . अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है , घर घर .
इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है , अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है , आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर , झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की भूरी शर्ट ,गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये ... वह पहले ही जाँच परख चुका था कार , पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे , तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई .. पत्नी और बच्चे "ब्रांड एम्बेसडर" बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे ..निर्णय लिया जा चुका था , सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी . डील फाइनल हो गई . सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे .बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे .आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये , वह एटीकेत्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर .. आज वह "ब्रांड एम्बेसडर" जो था .
ब्रांड एम्बेसडर
विवेक रंजन श्रीवास्तव
c/6 , MPSEB Colony , Rampur , Jabalpur (MP)
mob 9425806252
vivek1959@yahoo.co.in
काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की नीली शर्ट ,गले में गहरी नीली टाई , कंधे पर लैप टाप का काला बैग , और हाथ में मोबाइल ...जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है . मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता ,सातों दिन पूरे महीने , टारगेट के बोझ तले . एटीकेट्स के बंधनो में , लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार ,बातचीत के दौरान सेलिंग स्त्रेतजी के अंतर्गत देश दुनिया , मौसम की बाते भी करनी पड़ती , यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है , उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता . डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता .डील के बाद वही "ब्रांड एम्बेसडर" कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता . बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता ,उस एक दिन के बादशाह पर . उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है , अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू तर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है . अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है , घर घर .
इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है , अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है , आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर , झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की भूरी शर्ट ,गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये ... वह पहले ही जाँच परख चुका था कार , पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे , तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई .. पत्नी और बच्चे "ब्रांड एम्बेसडर" बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे ..निर्णय लिया जा चुका था , सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी . डील फाइनल हो गई . सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे .बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे .आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये , वह एटीकेत्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर .. आज वह "ब्रांड एम्बेसडर" जो था .
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
रविवार, 29 नवंबर 2009
साइकल ने बना दिया इंजीनियर
साइकल ने बना दिया इंजीनियर
सिवनी। आपने कभी नहीं सुना होगा कि साइकल ने किसी व्यक्ति को मेकेनिकल इंजीनियर बनाया हो लेकिन नगर के काजी चौक में रहने वाले एक व्यक्ति को साइकल ने मेकेनिकल इंजीनियर बना दिया है। पेशे से शिक्षक इस व्यक्ति ने साइकल में इंजन लगाकर उसे पेट्रोल चलित वाहन का रूप दे दिया है। ऐसा करने के लिए उसे मेकेनिकल इंजीनियरिंग का अध्ययन करना पड़ा। हम बात कर रहे हैं समद खान (४५) की जो १२ किमी दूर आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक हैं। वैसे तो इन्होंने कबाड़ की जुगाड़ से कई सामान बनाए, लेकिन पेट्रोल से चलित और बैटरी से चलने वाली साइकल कुछ खास है।
श्री खान बताते हैं कि जब वे आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक थे। शहर से रोजाना २४ किमी का सफर करने में उन्हें काफी दिक्कतें होती थी। सन १९८७-८८ में उन्होंने लूना खरीदने की कोशिश की, परंतु उस समय किसी भी गाड़ी खरीदने के लिए नंबर लगाना पड़ता था। नंबर लगाने के कई माह बाद गाड़ी हाथ में आ पाती थी। इन झंझटों में पड़ने की बजाय उन्होंने अपनी साइकल में ही इंजन लगाने की ठान ली और इंजन की तलाश भी शुरू कर दी। इसी दौरान किसी काम से उनका नागपुर जाना हुआ और वहां की एक कबाड़ी की दुकान में इंजन भी मिल गया।
साइकल में इंजन लगाने और उसे गाड़ी का रूप देने में उन्हें इंजीनियरिंग संबंधी विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करना पड़ा। काफी मशक्कत के बाद उन्हें इस कार्य में सफलता मिल गयी। इस कार्य के लिए उन्हें साढ़े छह सौ रूपए खर्च करने पड़े थे। जबकि लूना की कीमत उस समय ८ हजार रुपए थी।
कुछ वर्षों तक वे ७० किमी प्रति लीटर के हिसाब से चलने वाली साइकल से आमागढ़ आते-जाते रहे। इसके बाद उन्होंने बैटरी से चलने वाली साढ़े बारह हजार मूल्य की एक साइकल छिंदवाड़ा से खरीदी। यहां गौर करने वाली बात श्री खान छिंदवाड़ा और सिवनी जिले में सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने बैटरी से चलने वाली साइकल खरीदी थी।
उन्होंने बताया कि कुछ ही समय बाद साइकल की बैटरी और चार्जर खराब हो गए। इसे सुधारने के लिए कोई मैकेनिक उन्हें नहीं मिला। यहां तक चार्जर सुधरवाने के लिए वे बाम्बे तक गये लेकिन वहां भी नहीं सुधरा और न ही बैटरी मिली।
इस स्थिति में उन्होंने पुनः किताबों का अध्ययन किया और चार्जर को सुधार लिया। साथ ही बैटरी का जुगाड़ उन्होंने कम्प्यूटर में लगने वाली वेकअप बैटरी से कर लिया। आज वे इस बैटरी से अपनी साइकल चलाते हुए रोजाना २४ किमी का सफर तय करते हैं। इतने सफर में उनका रोज ५ रुपए व्यय होता है।
सिवनी। आपने कभी नहीं सुना होगा कि साइकल ने किसी व्यक्ति को मेकेनिकल इंजीनियर बनाया हो लेकिन नगर के काजी चौक में रहने वाले एक व्यक्ति को साइकल ने मेकेनिकल इंजीनियर बना दिया है। पेशे से शिक्षक इस व्यक्ति ने साइकल में इंजन लगाकर उसे पेट्रोल चलित वाहन का रूप दे दिया है। ऐसा करने के लिए उसे मेकेनिकल इंजीनियरिंग का अध्ययन करना पड़ा। हम बात कर रहे हैं समद खान (४५) की जो १२ किमी दूर आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक हैं। वैसे तो इन्होंने कबाड़ की जुगाड़ से कई सामान बनाए, लेकिन पेट्रोल से चलित और बैटरी से चलने वाली साइकल कुछ खास है।
श्री खान बताते हैं कि जब वे आमागढ़ के शासकीय स्कूल में शिक्षक थे। शहर से रोजाना २४ किमी का सफर करने में उन्हें काफी दिक्कतें होती थी। सन १९८७-८८ में उन्होंने लूना खरीदने की कोशिश की, परंतु उस समय किसी भी गाड़ी खरीदने के लिए नंबर लगाना पड़ता था। नंबर लगाने के कई माह बाद गाड़ी हाथ में आ पाती थी। इन झंझटों में पड़ने की बजाय उन्होंने अपनी साइकल में ही इंजन लगाने की ठान ली और इंजन की तलाश भी शुरू कर दी। इसी दौरान किसी काम से उनका नागपुर जाना हुआ और वहां की एक कबाड़ी की दुकान में इंजन भी मिल गया।
साइकल में इंजन लगाने और उसे गाड़ी का रूप देने में उन्हें इंजीनियरिंग संबंधी विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करना पड़ा। काफी मशक्कत के बाद उन्हें इस कार्य में सफलता मिल गयी। इस कार्य के लिए उन्हें साढ़े छह सौ रूपए खर्च करने पड़े थे। जबकि लूना की कीमत उस समय ८ हजार रुपए थी।
कुछ वर्षों तक वे ७० किमी प्रति लीटर के हिसाब से चलने वाली साइकल से आमागढ़ आते-जाते रहे। इसके बाद उन्होंने बैटरी से चलने वाली साढ़े बारह हजार मूल्य की एक साइकल छिंदवाड़ा से खरीदी। यहां गौर करने वाली बात श्री खान छिंदवाड़ा और सिवनी जिले में सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने बैटरी से चलने वाली साइकल खरीदी थी।
उन्होंने बताया कि कुछ ही समय बाद साइकल की बैटरी और चार्जर खराब हो गए। इसे सुधारने के लिए कोई मैकेनिक उन्हें नहीं मिला। यहां तक चार्जर सुधरवाने के लिए वे बाम्बे तक गये लेकिन वहां भी नहीं सुधरा और न ही बैटरी मिली।
इस स्थिति में उन्होंने पुनः किताबों का अध्ययन किया और चार्जर को सुधार लिया। साथ ही बैटरी का जुगाड़ उन्होंने कम्प्यूटर में लगने वाली वेकअप बैटरी से कर लिया। आज वे इस बैटरी से अपनी साइकल चलाते हुए रोजाना २४ किमी का सफर तय करते हैं। इतने सफर में उनका रोज ५ रुपए व्यय होता है।
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
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