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शनिवार, 22 अगस्त 2015

geeta 4

अध्याय १ 
कुरुक्षेत्र और अर्जुन 
कड़ी ४. 

कुरुक्षेत्र की तपोभूमि में 
योद्धाओं का विपुल समूह 
तप्त खून के प्यासे वे सब
बना रहे थे रच-रच व्यूह 
*
उनमें थे वीर धनुर्धर अर्जुन 
ले मन में भीषण अवसाद 
भरा ह्रदय ले खड़े हुए थे 
आँखों में था अतुल विषाद 
*
जहाँ-जहाँ वह दृष्टि डालता
परिचित ही उसको दिखते
कहीं स्वजन थे, कहीं मित्र थे 
कहीं पूज्य उसको मिलते 
*
कौरव दल था खड़ा सामने 
पीछे पाण्डव पक्ष सघन 
रक्त एक ही था दोनों में 
एक वंश -कुल था चेतन 
*
वीर विरक्त समान खड़ा था 
दोनों दल के मध्य विचित्र
रह-रह जिनकी युद्ध-पिपासा 
खींच रही विपदा के चित्र 
*
माँस-पेशियाँ फड़क रही थीं 
उफ़न रहा था क्रोध सशक्त 
संग्रहीत साहस जीवन का 
बना रहा था युद्धासक्त 
*
लड़ने की प्रवृत्ति अंतस की 
अनुभावों में सिमट रही
झूल विचारों के संग प्रतिपल 
रौद्र रूप धर लिपट रही 
*
रथ पर जो अनुरक्त युद्ध में 
उतर धरातल पर आया 
युद्ध-गीत के तेज स्वरों में
ज्यों अवरोह उतर आया 
*
जो गाण्डीव हाथ की शोभा 
टिका हुआ हुआ था अब रथ में 
न्योता महानाश का देकर-
योद्धा था चुप विस्मय में 
*
बाण चूमकर प्रत्यञ्चा को 
शत्रु-दलन को थे उद्यत 
पर तुरीण में ही व्याकुल हो 
पीड़ा से थे अब अवनत 
*
और आत्मा से अर्जुन की 
निकल रही थी आर्त पुकार 
सकल शिराएँ रण-लालायित 
करती क्यों विरक्ति संचार?
*
यौवन का उन्माद, शांति की 
अंगुलि थाम कर थका-चुका 
कुरुक्षेत्र से हट जाने का 
बोध किलकता छिपा-लुका 
*
दुविधा की इस मन: भूमि पर 
नहीं युद्ध की थी राई 
उधर कूप था गहरा अतिशय 
इधर भयानक थी खाई 
*
अरे! विचार युद्ध के आश्रय
जग झुलसा देने वाले 
स्वयं पंगु बन गये देखकर 
महानाश के मतवाले 
*
तुम्हीं क्रोध के प्रथम जनक हो 
तुम में वह पलता-हँसता 
वही क्रिया का लेकर संबल 
जग को त्रस्त सदा करता 
*
तुम्हीं व्यक्ति को शत्रु मानते 
तुम्हीं किसी को मित्र महान 
तुमने अर्थ दिया है जग को 
जग का तुम्हीं लिखो अवसान 
*
अरे! कहो क्यों मूल वृत्ति पर 
आधारित विष खोल रहे 
तुम्हीं जघन्य पाप के प्रेरक 
क्यों विपत्तियाँ तौल रहे? 
*
अरे! दृश्य दुश्मन का तुममें 
विप्लव गहन मचा देता 
सुदृढ़ सूत्र देकर विनाश का 
सोया क्रोध जगा देता
*
तुम्हीं व्यक्ति को खल में परिणित 
करते-युद्ध रचा देते 
तुम्हीं धरा के सब मनुजों को 
मिटा उसे निर्जन करते 
*
तुम मानस में प्रथम उपल बन 
लिखते महानाश का काव्य 
नस-नस को देकर नव ऊर्जा 
करते युद्ध सतत संभाव्य 
*
अमर मरण हो जाता तुमसे 
मृत्यु गरल बनती
तुम्हीं पतन के अंक सँजोकर 
भाग्य विचित्र यहाँ लिखतीं 
*
तुम्हीं पाप की ओर व्यक्ति को 
ले जाकर ढकेल देते 
तुम्हीं जुटा उत्थान व्यक्ति का 
जग को विस्मित कर देते 
*
तुम निर्णायक शक्ति विकट हो 
तुम्हीं करो संहार यहाँ 
तुम्हीं सृजन की प्रथम किरण बन 
रच सकती हो स्वर्ग यहाँ 
*
विजय-पराजय, जीत-हार का 
बोध व्यक्ति को तुमसे है 
आच्छादित अनवरत लालसा- 
आसक्तियाँ तुम्हीं से हैं 
*
तुम्हीं प्रेरणा हो तृष्णा की 
सुख पर उपल-वृष्टि बनते 
जीवन मृग-मरीचिका सम बन 
व्यक्ति सृष्टि अपनी वरते 
*
अरे! शून्य में भी चंचल तुम 
गतिमय अंतर्मन करते 
शांत न पल भर मन रह पाता 
तुम सदैव नर्तन करते 
*
दौड़-धूप करते पल-पल तुम 
तुम्हीं सुप्त मन के श्रृंगार 
तुम्हीं स्वप्न को जीवन देते 
तुम्हीं धरा पर हो भंगार 
*
भू पर तेरी ही हलचल है 
शब्द-शब्द बस शब्द यहाँ 
भाषण. संभाषण, गायन में 
मुखर मात्र हैं शब्द जहाँ 
*
अवसरवादी अरे! बदलते 
क्षण न लगे तुमको मन में 
जो विनाश का शंख फूँकता 
वही शांति भरता मन में 
*
खाल ओढ़कर तुम्हीं धरा पर 
नित्य नवीन रूप धरते 
नये कलेवर से तुम जग की 
पल-पल समरसता हरते 
*
तुम्हीं कुंडली मारे विषधर 
दंश न अपना तुम मारो 
वंश समूल नष्ट करने का 
रक्त अब तुम संचारो 
*
जिस कक्षा में घूम रहे तुम 
वहीँ शांति के बीज छिपे 
अंधकार के हट जाने पर 
दिखते जलते दिये दिपे 
*
दावानल तुम ध्वस्त कर रहे
जग-अरण्य की सुषमा को 
तुम्हीं शांति का चीर-हरण कर 
नग्न बनाते मानव को 

रोदन जन की है निरीहता 
अगर न कुछ सुन सके यहाँ 
तुम विक्षिप्त , क्रूर, पागल से 
जीवन भर फिर चले यहाँ 
*
अरे! तिक्त, कड़वे, हठवादी 
मृत्यु समीप बुलाते क्यों?
मानवहीन सृष्टि करने को 
स्वयं मौत सहलाते क्यों?
*
गीत 'काम' के गाकर तुमने 
मानव शिशु को बहलाया 
और भूख की बातचीत की 
बाढ़ बहाकर नहलाया 
*
सदा युद्ध की विकट प्यास ने 
छला, पतिततम हमें किया 
संचय की उद्दाम वासना, से 
हमने जग लूट लिया 
*
क्रूर विकट घातकतम भय ने 
विगत शोक में सिक्त किया 
वर्तमान कर जड़ चिंता में 
आगत कंपन लिप्त किया 
*
लूट!लूट! तुम्हारा नाम 'राज्य' है 
औ' अनीति का धन-संचय 
निम्न कर्म ही करते आये 
धन-बल-वैभव का संचय 
*
रावण की सोने की लंका 
वैभव हँसता था जिसमें 
अट्हास आश्रित था बल पर 
रोम-रोम तामस उसमें 
*
सात्विक वृत्ति लिये निर्मल 
साकेत धाम अति सरल यहाँ 
ऋद्धि-सिद्धि संयुक्त सतत वह 
अमृतमय था गरल कहाँ?
*
स्वेच्छाचारी अभय विचरते 
मानव रहते हैं निर्द्वंद 
दैव मनुज दानव का मन में 
सदा छिड़ा रहता है द्वंद 
*
सुनो, अपहरण में ही तुमने 
अपना शौर्य सँवारा है 
शोषण के वीभत्स जाल को 
बुना, सतत विस्तारा है 
*
बंद करो मिथ्या नारा 
जग के उद्धारक मात्र तुम्हीं 
उद्घोषित कर मीठी बातें 
मूर्ख बनाते हमें तुम्हीं 
*
व्यक्ति स्वयं है अपना नेता 
अन्य कोई बन सकता 
अपना भाग्य बनाना खुद को 
अन्य कहाँ कुछ दे सकता?
*
अंतर्मन की शत शंकाएँ 
अर्जुन सम करतीं विचलित 
धर्मभूमि के कर्मयुद्ध का 
प्रेरक होता है विगलित 
*
फिर निराश होता थक जाता 
हार सहज शुभ सुखद लगे 
उच्च लक्ष्य परित्याग, सरलतम 
जीवन खुद को सफल लगे 
*
दुविधाओं के भंवरजाल में 
डूब-डूब वह जाता है 
क्या करना है सोच न पाता 
खड़ा, ठगा पछताता है 
*

गीता गायन ३

गीता गायन 
अध्याय १ 
पूर्वाभास
कड़ी ३. 
*
अभ्यास सद्गुणों का नित कर 
जीवन मणि-मुक्ता सम शुचि हो 
विश्वासमयी साधना सतत 
कर तप: क्षेत्र जगती-तल हो 
*
हर मन सौंदर्य-उपासक है
हैं सत्य-प्रेम के सब भिक्षुक 
सबमें शिवत्व जगता रहता 
सब स्वर्ग-सुखों के हैं इच्छुक 
*
वे माता वहाँ धन्य होतीं 
होती पृथ्वी वह पुण्यमयी 
होता पवित्र परिवार व्ही 
होती कृतार्थ है वही मही 
*
गोदी में किलक-किलक 
चेतना विहँसती है रहती 
खो स्वयं परम परमात्मा में 
आनंद जलधि में जो बहती 
*
हो भले भिन्न व्याख्या इसकी 
हर युग के नयन उसी पर थे 
जो शक्ति सृष्टि के पूर्व व्याप्त 
उससे मिलने सब आतुर थे 
*
हम नेत्र-रोग से पीड़ित हो 
कब तप:क्षेत्र यह देख सके?
जब तक जीवित वे दोष सभी 
तब तक कैसा कब लेख सके?
*
संसार नया तब लगता है 
संपूर्ण प्रकृति बनती नवीन 
हम आप बदलते जाते हैं 
हो जाते उसमें आप लीन 
*
परमात्मा की इच्छानुसार 
जीवन-नौका जब चलती है 
तब नये कलेवर के मानव 
में, केवल शुचिता पलती है 
*
फिर शोक-मुक्त जग होता है 
मिलता है उसको नया रूप 
बनकर पृथ्वी तब तप:क्षेत्र 
परिवर्तित करती निज स्वरूप 
*
जीवन प्रफुल्ल बन जाता है 
भौतिक समृद्धि जुड़ जाती है 
आत्मिक उत्थान लक्ष्य लेकर 
जब धर्म-शक्ति मुड़ जाती है 
*
है युद्ध मात्र प्रतिशोध बुद्धि 
जिसमें हर क्षण बढ़ता 
दो तत्वों के संघर्षण में 
अविचल विकास क्रम वह गढ़ता 
*
कुत्सित कर्मों का जनक यहाँ
अविवेक भयानकतम दुर्मुख 
जिससे करना संघर्ष, व्यक्ति का
बन जाता है कर्म प्रमुख 
*
कर्मों का गुप्त चित्र अंकित 
हो पल-पल मिटता कभी नहीं 
कर्मों का फल दें चित्रगुप्त 
सब ज्ञात कभी कुछ छिपे नहीं 
*
यह तप:क्षेत्र है कुरुक्षेत्र
जिसमें अनुशासन व्याप्त सकल 
जिसका निर्णायक परमात्मा 
जिसमें है दण्ड-विधान प्रबल 

बन विष्णु सृष्टि का करता है 
निर्माण अनवरत वह पल-पल
शंकर स्वरूप में वह सत्ता
संहार-वृष्टि करता छल-छल 
*
'मैं हूँ, मेरा है, हमीं रहें, 
ये अहंकार के पुत्र व्यक्त 
कल्मष जिसका आधार बना 
है लोभ-स्वार्थ भी पूर्व अव्यक्त 
*
कुत्सित तत्वों से रिक्त-मुक्त 
जस को करना ही अनुशासन 
संपूर्ण विश्व निर्मल करने 
जुट जाएँ प्रगति के सब साधन 
*
कौरव-पांडव दो मूर्तिमंत 
हैं रूप विरोधी गतियों के 
ले प्रथम रसातल जाती है 
दूसरी स्वर्ग को सदियों से 
*
आत्मिक विकास में साधक जो 
पांडव सत्ता वह ऊर्ध्वमुखी 
माया में लिपट विकट उलझी 
कौरव सत्ता है अधोमुखी 
*
जो दनुज भरोसा वे करते 
रथ, अश्वों, शासन, बल, धन का 
पर मानव को विश्वास अटल 
परमेश्वर के अनुशासन का 
*
संघर्ष करें अभिलाषा यह 
मानव को करती है प्रेरित 
दुर्बुद्धि प्रबल लालसा बने 
हो स्वार्थवृत्ति हावी उन्मत 
*
हम नहीं जानते 'हम क्या हैं?
क्या हैं अपने ये स्वजन-मित्र? 
क्या रूप वास्तविक है जग का
क्या मर्म लिये ये प्रकृति-चित्र?
*
अपनी आँखों में मोह लिये 
हम आजीवन चलते रहते 
भौतिक सुख की मृगतृष्णा में 
पल-पल खुद को छलते रहते 
*
जग उठते हममें लोभ-मोह 
हबर जाता मन में स्वार्थ हीन 
संघर्ष भाव अपने मन का 
दुविधा-विषाद बन करे दीन 
*
भौतिक सुख की दुर्दशा देख 
होता विस्मृत उदात्त जीवन 
हो ध्वस्त न जाए वह क्षण में 
हम त्वरित त्यागते संघर्षण 
*
अर्जुन का विषाद 
सुन शंख, तुमुल ध्वनि, चीत्कार 
मनमें विषाद भर जाता है 
हो जाते खड़े रोंगटे तब 
मन विभ्रम में चकराता है 
*
हो जाता शिथिल समूचा तन 
फिर रोम-रोम जलने लगता 
बल-अस्त्र पराये गैर बनकर डँसते 
मन युद्ध-भूमि तजने लगता 
*
जिनका कल्याण साधना ही
अब तक है रहा ध्येय मेरा
संहार उन्हीं का कैसे-कब
दे सके श्रेय मुझको मेरा?
*
यह परंपरागत नैतिकता
यह समाजगत रीति-नीति 
ये स्वजन, मित्र, परिजन सारे 
मिट जाएँगे प्रतीक 
*
हैं शत्रु हमारे मानव ही 
जो पिता-पितामह के स्वरूप 
उनका अपना है ध्येय अलग 
उनकी आशा के विविध रूप 
*
उनके पापों के प्रतिफल में 
हम पाप स्वयं यदि करते हैं 
तो स्वयं लोभ से हो अंधे 
हम मात्र स्वार्थ ही वरते हैं 
*
हम नहीं चाहते मिट जाएँ 
जग के संकल्प और अनुभव 
संतुलन बिगड़ जाने से ही 
मिटते कुलधर्म और वैभव 
*
फिर करुणा, दया, पुण्य जग में 
हो जाएँगे जब अर्थहीन 
जिनका अनुगमन विजय करती 
होकर प्रशस्ति में धर्मलीन 
*
मैं नहीं चाहता युद्ध करूँ 
हो भले राज्य सब लोकों का
अपशकुन अनेक हुए देखो 
है खान युद्ध दुःख-शोकों का 
*
चिंतना हमारी ऐसी ही 
ले डूब शोक में जाती है 
किस हेतु मिला है जन्म हमें 
किस ओर हमें ले जाती है?
*
जीवन पाया है लघु हमने 
लघुतम सुख-दुःख का समय रहा 
है माँग धरा की अति विस्तृत 
सुरसा आकांक्षा रही महा 
*
कितना भी श्रम हम करें यहाँ
अभिलाषाएँ अनेक लेकर 
शत रूप हमें धरना होंगे 
नैया विवेचना की खेकर 
*
सीधा-सदा है सरल मार्ग 
सामान्य बुद्धि यह कहती है 
कर लें व्यवहार नियंत्रित हम 
सर्वत्र शांति ही फलती है 
*
ज्यों-ज्यों धोया कल्मष हमने 
त्यों-त्यों विकीर्ण वह हुआ यहाँ
हम एक पाप धोने आते 
कर पाप अनेकों चले यहाँ 
*
प्राकृतिक कार्य-कारण का जग 
इससे अनभिज्ञ यहाँ जो भी 
मानव-मन उसको भँवर जाल 
कब समझ सका उसको वह भी 
*
है जनक समस्याओं का वह 
उससे ही जटिलतायें प्रसूत 
जानना उसे है अति दुष्कर 
जो जान सका वह है सपूत
*
अधिकांश हमारा विश्लेषण 
होता है अतिशय तर्कहीन 
अधिकांश हमारी आशाएँ 
हैं स्वार्थपूर्ण पर धर्महीन 
*
जो मुक्ति नहीं दे सकती हैं
जीवन की किन्हीं दशाओं में 
जब तक जकड़े हम रहे फँसे 
है सुख मरीचिका जीवन में 
*
लगता जैसे है नहीं कोई 
मेरा अपना इस दुनिया में 
न पिता-पुत्र मेरे अपने 
न भाई-बहिन हैं दुनिया में 
*
उत्पीड़न की कैसी झाँकी 
घन अंधकार उसका नायक
चिंता-संदेह व्याप्त सबमें 
एकाकीपन जिसका गायक 
*
जब भी होता संघर्ष यहाँ 
हम पहुँच किनारे रुक जाते 
साहस का संबल छोड़, थकित 
भ्रम-संशय में हम फँस जाते 
*