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बुधवार, 30 अक्टूबर 2024

अक्टूबर ३०, गीत, दोहा, लघुकथा, भारत आरती, सॉनेट, शे'र, मुक्तक, रूप

सलिल सृजन अक्टूबर ३०
सॉनेट 
रूप 
*
रूप अरूप सुरूप हो 
करें वंदना मीत मिल 
उषा काल की धूप हो 
छाँव डिठौना या कि तिल। 
मादक-मारक रूप की 
कभी न बैठें छाँव में  
संगत करिए सूप की 
रह न पराई ठाँव में।  
अंतर्मन न कुरूप हो 
अमल विमल निर्मल रखें 
रचना अगर अनूप हो  
वाह वाह कहकर झुकें। 
गर्व न दुख कर रूप पर 
और न नकली रूप धर 
३०.१०.२०२४ 
***
सॉनेट
भोर
*
भोर भई जागो रे भाई!
बिदा करो, अरविंद जा रहा।
सुनो प्रभाती, सूर्य आ रहा।।
प्राची पर छाई अरुणाई।।
गौरैया मुँडेर पर चहकी।
फल कुतरे झट झपट गिलहरी।
टिट् टिट् मिलती गले टिटहरी।।
फुलबगिया मुस्काई-महकी।।
चंपा पर रीझा है गेंदा।
जुही-चमेली लख सकुँचाई
सदा सुहागिन सोहे बेंदा।।
नेह नर्मदा कूद नहाएँ
चपल रश्मियाँ छप् छपाक् कर
सोनपरी हो लहर सिहाए।।
३०-१०-२०२२, ९•११
●●●
सॉनेट
बारिश तुम फिर
१.
बारिश तुम फिर रूठ गई हो।
तरस रहा जग होकर प्यासा।
दुबराया ज्यों शिशु अठमासा।।
मुरझाई हो ठूठ गई हो।।
कुएँ-बावली बिलकुल खाली।
नेह नर्मदा नीर नहीं है।
बेकल मन में धीर नहीं है।।
मुँह फेरे राधा-वनमाली।।
दादुर बैठे हैं मुँह सिलकर।
अंकुर मरते हैं तिल-तिलकर।
झींगुर संग नहीं हिल-मिलकर।
बीरबहूटी हुई लापता।
गर्मी सबको रही है सता।
जंगल काटे, मनुज की खता।।
*
२.
मान गई हो, बारिश तुम फिर।
सदा सुहागिन सी हरियाईं।
मेघ घटाएँ नाचें घिर-घिर।।
बरसीं मंद-मंद हर्षाईं।।
आसमान में बिजली चमकी।
मन भाई आधी घरवाली।
गिरी जोर से बिजली तड़की।।
भड़क हुई शोला घरवाली।।
तन्वंगी भीगी दिल मचले।
कनक कामिनी देह सुचिक्कन।
दृष्टि न ठहरे, मचले-फिसले।।
अनगिन सपने देखे साजन।।
सुलग गई हो बारिश तुम फिर।
पिघल गई हो बारिश तुम फिर।।
*
३.
क्रुद्ध हुई हो बारिश तुम फिर।
सघन अँधेरा आया घिर घिर।।
बरस रही हो, गरज-मचल कर।
ठाना रख दो थस-नहस कर।।
पर्वत ढहते, धरती कंपित।
नदियाँ उफनाई हो शापित।।
पवन हो गया क्या उन्मादित?
जीव-जंतु-मनु होते कंपित।।
प्रलय न लाओ, कहर न ढाओ।
रूद्र सुता हे! कुछ सुस्ताओ।।
थोड़ा हरषो, थोड़ा बरसो।
जीवन विकसे, थोड़ा सरसो।।
भ्रांत न हो हे बारिश! तुम फिर।
शांत रही हे बारिश! हँस फिर।।
३०-१०-२०२२
***
भारत आरती
*
आरती भारत माता की
पुण्य भू जग विख्याता की
*
सूर्य ऊषा वंदन करते
चाँदनी चाँद नमन करते
सितारे गगन कीर्ति गाते
पवन यश दस दिश गुंजाते
देवगण पुलक, कर रहे तिलक
ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की
आरती भारत माता की
*
हिमालय मुकुट शीश सोहे
चरण सागर पल पल धोए
नर्मदा कावेरी गंगा
ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा
असुर सुर मानव त्राता की
आरती भारत माता की
*
करें शृंगार सकल मौसम
कहें मैं-तू मिलकर हों हम
ऋचाएँ कहें सनातन सच
सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच
अगिन जनगण सुखदाता की
आरती भारत माता की
*
द्वीप जंबू छवि मनहारी
छटा आर्यावर्ती न्यारी
गोंडवाना है हिंदुस्तान
इंडिया भारत देश महान
जीव संजीव विधाता की
आरती भारत माता की
*
मिल अनल भू नभ पवन सलिल
रचें सब सृष्टि रहें अविचल
अगिन पंछी करते कलरव
कृषक श्रम कर वरते वैभव
ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की
आरती भारत माता की
३०-१०-२०२०
***
लघुकथा
कौन जाने कब?
*
'बब्बा! भाग्य बड़ा होता है या कर्म?' पोते ने पूछा।
''बेटा! दोनों का अपना-अपना महत्व है, दोनों में से किसी एक को बड़ा और दूसरे को छोटा नहीं कहा जा सकता।''
'दोनों की जरूरत ही क्या है? क्या एक से काम नहीं चल सकता?'
''तुम्हारे पापा-मम्मी का बैंक में लॉकर है न?''
'हाँ, है।'
''लॉकर की क्या जरूरत है?''
'मम्मी ने बताया था कि घर में रखने से कीमती सामान की चोरी हो सकती है। इसलिए बैंक में सुरक्षित स्थान लेकर वहाँ कीमती सामान रखते हैं।'
'' शाबाश! लॉकर की चाबी किसके पास होती हैं?''
'पापा से पूछा था मैंने। पापा ने बताया कि लॉकर में दो ताले होते हैं। एक की चाबी बैंक के प्रबंधक तथा दूसरी की लॉकर खोलने वाले के पास होती है।'
''ऐसा क्यों?''
'क्या बब्बा! आपको कुछ भी नहीं मालूम क्या?, मैं आपसे पूछने आया था आप मुझसे ही पूछते जा रहे हो।'
''तुम इस सवाल का जवाब बताओ, फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।''
'ठीक है, सवाल जरूर बताना। यह यह नहीं कि मुझसे पूछ लो और फिर मेरे सवाल का जवाब न बताओ।'
''नहीं, तुम्हारे सवाल का जवाब जरूर बताऊँगा।''
'ठीक है, फिर सुनों। मम्मी-पापा जब लॉकर खोलने जाते हैं, तब मैनेजर पहले अपनी चाबी लगाकर एक ताला खोलता है और चला जाता है, तब मम्मी-पापा अपनी चाबी से दूसरा ताला खोलकर सामान रखते-निकालते हैं, फिर लॉकर बंद कर देते हैं। तब मैनेजर अपनी चाबी से दूसरा लॉकर बंद करता है।'
''वाह, तुम तो बहुत होशियार हो। अब आखिरी प्रश्न का उत्तर दो। दो ताले क्यों जरूरी हैं?''
'इसलिए कि मम्मी-पापा सामान रख दें तो मैनेजर या कोई दूसरा चुपचाप निकल न सके। दूसरी तरफ कोइ ग्राहक चुपचाप सामान निकालकर बैंक पर चोरी का आरोप लगाकर सामान न माँगने लगे।'
''क्या बात है? अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तुमने ही दे दिया है।''
'वह कैसे?'
''वह ऐसे कि बैंक मैनेजर के पास जो चाबी है वह है भाग्य। तुम्हारे मम्मी-पापा के पास जो चाबी है, वह है कर्म। कर्म और भाग्य दोनों चाबी एक साथ लगाए बिना लॉकर नहीं खुलता।''
'यह तो आप ठीक कह रहे हैं, पर मेरा सवाल?'
''यही तो तुम्हारे सवाल का जवाब है। तुम्हारी तुम जो पाना चाहते हो वह है लॉकर, मेहनत एक चाबी है जो तुम्हारे पास है और भाग्य दूसरी चाबी है जो भगवान या किस्मत के पास है। चाहत का लॉकर खोलने के लिए दोनों चाबियाँ लगाना जरूरी है। भगवान या किस्मत अपनी चाबी कब लगाएगी तुम्हें नहीं मालूम। तुम उनसे चाबी लगवा भी नहीं सकते। लेकिन जब वह चाबी लगे तब भी चाहत का लॉकर नहीं खुलेगा यदि तुम्हारी कोशिश की चाबी न लगी हो।''
'समझ गया, समझ गया। आप कह रहे हो कि मैं चाहत का लॉकर खोलने के लिए, कोशिश की चाबी बार-बार लगाता रहूँ। जैसे ही किस्मत की चाबी लगेगी, चाहत का लॉकर खुल जाएगा। समझ गया, अच्छा बब्बा चलता हूँ।'
''कहाँ चल दिए?''
'और कहाँ?, अपना बस्ता लेकर गणित का सवाल हल करने की कोशिश करने। परीक्षा परिणाम का लॉकर खोलना है न। खुलेगा ही लेकिन कौन जाने कब?'
***
लघु कथा:
सच्चा उत्सव
*
उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
***
नव प्रयोग
*
छंद सूत्र: य न ल
*
मुक्तक-
मिलोगी जब तुम,
मिटेंगे तब गम।
खिलेंगे नित गुल
हँसेंगे मिल हम।।
***
मुक्तिका -
हँसा है दिनकर
उषा का गह कर।
*
कहेगी सरगम
चिरैया छिपकर।
*
अँधेरा डरकर
गया है मरकर।
*
पिएगा जल हँस
मजूरा उठकर।
*
न नेता सुखकर
न कोई अफसर।
*
सुसिंधु सलिलज
सुमेघ जलधर।
*
कबीर सच कह
अमीर धन धर।
३०-१०-२०१८
***
:नवगीत:
राम रे!
*
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भोर-साँझ लौ
गोड़ तोड़ रै
काम चोर बे कैते
पसरे रैत
ब्यास गादी पे
भगतन संग लपेटे
काम-पुजारी
गीता बाँचे
हेरें गोप निहाल।
आँधर ठोकें ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
झिमिर-झिमिर-झम
बूँदें टपकें
रिस रए छप्पर-छानी
मैली कर दई रैटाइन की
किन्नें धोती धानी?
लज्जा ढाँपे
सिसके-कलपे
ठोंके आप कपाल
मुए हाल-बेहाल
राम रे!
कैसा निर्दय काल?
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भट्टी-देह न देत दबाई
पैले मांगें पैसा
अस्पताल मा
घुसे कसाई
ठाणे-अरना भैंसा
काले कोट
कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल
नेता भए बबाल
राम रे!
लूट बजा रए गाल
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
३०-१०-२०१५
***
चंद अश'आर
दिल
*
इस दिल की बेदिली का आलम न पूछिए
तूफ़ान सह गया मगर क़तरे में बह गया
*
दिलदारों की इस बस्ती में दिलवाला बेमौत मरा
दिल के सौदागर बन हँसते मिले दिलजले हमें यहाँ
*
दिल पर रीझा दिल लेकिन बिल देख नशा काफूर हुआ
दिए दिवाली के जैसे ही बुझे रह गया शेष धुँआ
*
दिलकश ने ही दिल दहलाया दिल ले कर दिल नहीं दिया
बैठा है हर दिल अज़ीज़ ले चाक गरेबां नहीं सिया
*
नवगीत:
सांध्य सुंदरी
तनिक न विस्मित
न्योतें नहीं इमाम
जो शरीफ हैं नाम का
उसको भेजा न्योता
सरहद-करगिल पर काँटों की
फसलें है जो बोता
मेहनतकश की
थकन हरूँ मैं
चुप रहकर हर शाम
नमक किसी का, वफ़ा किसी से
कैसी फितरत है
दम कूकुर की रहे न सीधी
यह ही कुदरत है
खबरों में
लाती ही क्यों हैं
चैनल उसे तमाम?
साथ न उसके मुसलमान हैं
बंदा गंदा है
बिना बात करना विवाद ही
उसका धंधा है
थूको भी मत
उसे देख, मत
करना दुआ-सलाम
***
नवगीत:
राष्ट्रलक्ष्मी!
श्रम सीकर है
तुम्हें समर्पित
खेत, फसल, खलिहान
प्रणत है
अभियन्ता, तकनीक
विनत है
बाँध-कारखाने
नव तीरथ
हुए समर्पित
कण-कण, तृण-तृण
बिंदु-सिंधु भी
भू नभ सलिला
दिशा, इंदु भी
सुख-समृद्धि हित
कर-पग, मन-तन
समय समर्पित
पंछी कलरव
सुबह दुपहरी
संध्या रजनी
कोशिश ठहरी
आसें-श्वासें
झूमें-खांसें
अभय समर्पित
शैशव-बचपन
यौवन सपने
महल-झोपड़ी
मानक नापने
सूरज-चंदा
पटका-बेंदा
मिलन समर्पित
***
नवगीत:
हर चेहरा है
एक सवाल
शंकाकुल मन
राहत चाहे
कहीं न मिलती.
शूल चुभें शत
आशा की नव
कली न खिलती
प्रश्न सभी
देते हैं टाल
क्या कसूर,
क्यों व्याधि घेरती,
बेबस करती?
तन-मन-धन को
हानि अपरिमित
पहुँचा छलती
आत्म मनोबल
बनता ढाल
मँहगा बहुत
दवाई-इलाज
दिवाला निकले
कोशिश करें
सम्हलने की पर
पग फिर फिसले
किसे बताएं
दिल का हाल?


संजीवनी अस्पताल, रायपुर
२९-११-२०१४
***
गीत:
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
पलो आँख में स्वप्न बनकर सदा तुम
नयन-जल में काजल कहीं बह न जाए.
जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
अपनों ने अपना सदा रंग दिखाया,
न नपनों ने नपने को दिल में बसाया.
लगन लग गयी तो अगन ही सगन को
सहन कर न पायी पलीता लगाया.
दिलवर का दिल वर लो, दिल में छिपा लो
जले दिलजले जलजले आ न पाए...
*
कुटिया ही महलों को देती उजाला
कंकर के शंकर को पूजे शिवाला.
मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
*
सहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
तभी हो सको सूर मीरा कबीरा.
पढ़ो ढाई आखर, नहा स्नेह-सागर
भरो फेफड़ों में सुवासित समीरा.
मगन हो गगन को निहारो, सुनाओ
'सलिल' नाद अनहद कहीं खो जाए...
*
सगन = शगुन, जलजला = भूकंप, नरमदा = नर्मदा, सपरना = स्नान करना
***
त्रिभंगी सलिला:
हम हैं अभियंता
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२ x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन मन भावन, श्रम-सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटाएं, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
३०-१०-२०१३
***

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

अक्टूबर १८, नरेंद्र कोहली, भाषा गीत, व्यंग्य गीत, फलित विद्या, मुक्तिका, बाल गीत

सलिल सृजन अक्टूबर १८
*
कृति चर्चा :
'शरणम' - निष्काम कर्मयोग आमरणं
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - शरणं, उपन्यास, नरेंद्र कोहली, प्रथम संस्करण, २०१५, पृष्ठ २२४, मूल्य ३९५/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, प[रक्षक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली]
उपन्यास शब्द में ‘अस’ धातु है जो ‘नि’ उपसर्ग से मिलकर 'न्यास' शब्द बनाती है। 'न्यास' शब्द का अर्थ है 'धरोहर'। उपन्यास शब्द दो शब्दों उप+न्यास से मिलकर बना है। ‘उप’ अधिक समीप वाची उपसर्ग है। संस्कृत के व्याकरण सिद्ध शब्दों, न्यास व उपन्यास का पारिभाषिक अर्थ कुछ और ही होता है। एक विशेष प्रकार की टीका पद्धति को 'न्यास' कहते हैं। हिन्दी में उपन्यास शब्द कथा साहित्य के रूप में प्रयोग होता है। बांग्ला भाषा में आख्यायिका, गुजराती में नवल कथा, मराठी में कादम्बरी तथा अंग्रेजी में 'नावेल' पर्याय के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। वे सभी ग्रंथ उपन्यास हैं जो कथा सिद्धान्त के नियमों का पालन करते हुए मानव की सतत्, संगिनी, कुतूहल, वृत्ति को पात्रों तथा घटनाओं को काल्पनिक तथा ऐतिहासिक संयोजन द्वारा शान्त करते हैं। इस विधा में मनुष्य के आसपास के वातावरण दृश्य और नायक आदि सभी सम्मिलित होते हैं। इसमें मानव चित्र का बिंब निकट रखकर जीवन का चित्र एक कागज पर उतारा जाता है। प्राचीन काल में उपन्यास अविर्भाव के समय इसे आख्यायिका नाम मिला था। ‘‘कभी इसे अभिनव की अलौकिक कल्पना, आश्चर्य वृत्तान्त कथा, कल्पित प्रबन्ध कथा, सांस्कृतिक वार्ता, नवन्यास, गद्य काव्य आदि नामों से प्रसिद्धि मिली। उपन्यास को मध्यमवर्गीय जीवन का महाकाव्य भी कहा गया है वह वस्तु या कृति जिसे पढ़कर पाठक को लगे कि यह उसी की है, उसी के जीवन की कथा, उसी की भाषा में कही गई है। सारत: उपन्यास मानव जीवन की काल्पनिक कथा है।
आधुनिक युग में उपन्यास शब्द अंग्रेजी के 'नावेल' अर्थ में प्रयुक्त होता है जिसका अर्थ एक दीर्घ कथात्मक गद्य रचना है। उपन्यास के मुख्य सात तत्व कथावस्तु, पात्र या चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, देशकाल, शैली, उपदेश तथा तत्व भाव या रस हैं। उपन्यास की कथावस्तु में प्रमुख कथानक के साथ-साथ कुछ अन्य प्रासंगिक कथाएँ भी चल सकती है।उपन्यास की कथावस्तु के तीन आवश्यक गुण रोचकता स्वाभाविकता और गतिशीलता हैं। सफल उपन्यास वही है जो उपन्यास पाठक के हृदय में कौतूहल जागृत कर दे कि वह पूरी रचना को पढ़ने के लिए विवश हो जाए। पात्रों के चरित्र चित्रण में स्वभाविकता, सजीवता एवं मार्मिक विकास आवश्यक है। कथोपकथन देशकाल और शैली पर भी स्वभाविकता और सजीवता की बात लागू होती है। विचार, समस्या और उद्देश्य की व्यंजना रचना की स्वभाविकता और रोचकता में बाधक न हो। नरेंद्र कोहली के 'शरणम्' उपन्यास में तत्वों की संतुलित प्रस्तुति दृष्टव्य है। श्रीमद्भगवद्गीता जैसे अध्यात्म-दर्शन प्रधान ग्रंथ पर आधृत इस कृति में स्वाभाविकता, निरन्तरता, उपदेशपरकता, सरलता और रोचकता का पंचतत्वी सम्मिश्रण 'शरणम्' को सहज ग्राह्य बनाता है।
डॉ. श्याम सुंदर दास के अनुसार 'उपन्यास मनुष्य जीवन की काल्पनिक कथा है। 'प्रेमचंद ने उपन्यास को 'मानव चरित्र का चित्र कहा है।' तदनुसार मानव चरित्र पर प्रकाश डालना तथा उसके रहस्य को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है। सुधी समीक्षक आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी के शब्दो में ‘‘उपन्यास से आजकल गद्यात्मक कृति का अर्थ लिया जाता है, पद्यबद्ध कृतियाँ उपन्यास नहीं हुआ करते हैं।’’ डा. भगीरथ मिश्र के शब्दों में : ‘‘युग की गतिशील पृष्ठभूमि पर सहज शैली मे स्वाभाविक जीवन की पूर्ण झाँकी को प्रस्तुत करने वाला गद्य ही उपन्यास कहलाता है।’’ बाबू गुलाबराय लिखते हैं : ‘‘उपन्यास कार्य कारण श्रृंखला मे बँधा हुआ वह गद्य कथानक है जिसमें वास्तविक व काल्पनिक घटनाओं द्वारा जीवन के सत्यों का उद्घाटन किया है।’’ उक्त में से किसी भी परिभाषा के निकष पर 'शरणम्' को परखा जाए, वह सौ टंच खरा सिद्ध होता है।
हिंदी के आरंभिक उपन्यास केवल विचारों को ही उत्तेजित करते थे, भावों का उद्रेक नहीं करते थे। दूसरी पीढ़ी के उपन्यासकार अपने कर्तव्य व दायित्व के प्रति सजग थे। वे कलावादी होने के साथ-साथ सुधारवादी तथा नीतिवादी भी रहे। विचार तत्व उपन्यास को सार्थक व सुन्दर बनाता है। भाषा शैली में सरलता के साथ-साथ सौष्ठव पाठक को बाँधता है। घटनाओं की निरंतरता आगे क्या घटा यह जानने की उत्सुकता पैदा करती है। 'शरणम्' का कथानक से सामान्य पाठक सुपरिचियत है, इसलिए जिज्ञासा और उत्सुकता बनाए रखने की चुनौती स्वाभाविक है। इस संदर्भ में कोहली जी लिखते हैं- 'मैं उपन्यास ही लिख सकता हूँ और पाठक उपन्यास को पढ़ता भी है और समझता भी है। मैं जनता था कि यह कार्य सरल नहीं था। गीता में न कथा है, न अधिक पात्र। घटना के नाम पर विराट रूप के दर्शन हैं, घटनाएँ नहीं हैं, न कथा का प्रवाह है। संवाद हैं, वह भी इन्हीं, प्रश्नोत्तर हैं, सिद्धांत हैं, चिंतन है, दर्शन है, अध्यात्म है। उसे कथा कैसा बनाया जाए? किन्तु उपन्यासकार का मन हो तो उपन्यास ही बनता है। जैसे मनवाई के गर्भ में मानव संतान ही आकार ग्रहण करती है। टुकड़ों-टुकड़ों में उपन्यास बनता रहा। पात्रों के रूप में संजय और धृतराष्ट्र तो थे ही, हस्तिनापुर में उपस्थित कुंती भी आ गई, विदुर और उनकी पत्नी भी आ गए, गांधारी हुए उसकी बहुएँ भी आ गईं। द्वारका में बैठे वासुदेव, देवकी, रुक्मिणी और उद्धव भी आ गए। उपन्यासकार जितनी छूट ले सकता है, मैंने ली किन्तु गीता के मूल से छेड़छाड़ नहीं की।' सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यही है कि उपन्यासकार सत्य में कल्पना कितनी मिलना है, यह समझ सके और अपनी वैचारिक उड़ान की दिशा और गति पर नियंत्रण रख सके। नरेंद्र जी 'शरणम्' लिखते समय यह आत्मनियंत्रण रख सके हैं। न तो यथार्थ के कारण उपन्यास बोझिल हुआ है, न अतिरेकी कल्पना के कारण अविश्वनीय हुआ है।
'शरणम्' के पूर्व नरेंद्र कोहली ने उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी के अलावा संस्मरण, निबंध आदि विधाओं में लगभग सौ पुस्तकें लिखीं हैं। उन्होंने महाभारत की कथा को अपने उपन्यास महासमर के आठ खंडों में समाहित किया। अपने विचारों में बेहद स्पष्ट, भाषा में शुद्धतावादी और स्वभाव से सरल लेकिन सिद्धांतों में बेहद कठोर थे। उनके चर्चित उपन्यासों में पुनरारंभ, आतंक, आश्रितों का विद्रोह, साथ सहा गया दुख, मेरा अपना संसार, दीक्षा, अवसर, जंगल की कहानी, संघर्ष की ओर, युद्ध, अभिज्ञान, आत्मदान, प्रीतिकथा, कैदी, निचले फ्लैट में, संचित भूख आदि हैं। संपूर्ण रामकथा को उन्होंने चार खंडों में १८०० पन्नों के वृहद उपन्यास में प्रस्तुत किया। उन्होंने पाठकों को भारतीयता की जड़ों तक खींचने की कामयाब कोशिश की और पौराणिक कथाओं को प्रयोगशीलता, विविधता और प्रखरता के साथ नए कलेवर में लिखा। संपूर्ण रामकथा के जरिये उन्होंने भारत की सांस्कृतिक परंपरा, समकालीन मूल्यों और आधुनिक संस्कारों की अनुभूति कराई।
हिन्दी साहित्य में 'महाकाव्यात्मक उपन्यास' की विधा को प्रारम्भ करने का श्रेय नरेंद्र जी को ही जाता है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक सामाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है। कोहलीजी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक् परिचय करवाया है।
उपन्यासों के मुख्य प्रकार सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, लोक कथात्मक, आंचलिक उपन्यास, रोमानी उपन्यास, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान, प्राकृतिक, विज्ञानपरक, आध्यात्मिक, प्रयोगात्मक आदि हैं। इस कसौटी पर 'शरणम्' को किसी एक खाँचे में नहीं रखा जा सकता। 'शरणम्' के कथानक और घटनाक्रम उसे उक्त लगभग सभी श्रेणियों की प्रतिनिधि रचना बनाते हैं। यह नरेंद्र जी के लेखकीय कौशल और भाषिक नैपुण्य की अद्भुत मिसाल है। स्मृति श्रेष्ठ उपन्यास सम्राट नरेंद्र कोहली के उपन्यास 'शरणं' का अध्ययन एवं अनुशीलन पाठकों-समीक्षकों के लिए कसौटी पर कसा जाना है। यह उपन्यास एक साथ सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, लोक कथात्मक, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान, प्राकृतिक, विज्ञानपरक, प्रयोगात्मक, आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न उपन्यास कहा जा सकता है। इस एक उपन्यास की कथा सुपरिचित है किन्तु 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और' के अनुरूप कहना होगा कि 'निश्चय ही नरेंद्र जी का है उपन्यास हरेक और'।
हिंदी में सांस्कृतिक विरासत पर उपन्यास लेखन की नींव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बाण भट्ट की आत्मकथा (१९४६), चारुचंद्र लेख (१९६३) तथा पुनर्नवा (१९७३) जैसी औपन्यासिक कृतियों का प्रणयन कर रखी थी। आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य में एक ऐसे द्वार को खोला जिससे गुज़र कर नरेन्द्र कोहली ने एक सम्पूर्ण युग की प्रतिष्ठा कर डाली। यह हिन्दी साहित्य के इतिहास का सबसे उज्जवल पृष्ठ है और इस नवीन प्रभात के प्रमुख ज्योतिपुंज होने का श्रेय अवश्य ही आचार्य द्विवेदी का है जिसने युवा नरेन्द्र कोहली को प्रभावित किया। परम्परागत विचारधारा एवं चरित्रचित्रण से प्रभावित हुए बगैर स्पष्ट एवं सुचिंतित तर्क के आग्रह पर मौलिक दृष्ट से सोच सकना साहित्यिक तथ्यों, विशेषतः ऐतिहासिक-पौराणिक तथ्यों का मौलिक वैज्ञानिक विश्लेषण यह वह विशेषता है जिसकी नींव आचार्य द्विवेदी ने डाली थी और उसपर रामकथा, महाभारत कथा एवं कृष्ण-कथाओं आदि के भव्य प्रासाद खड़े करने का श्रेय नरेंद्र कोहली जी का है। संक्षेप में कहा जाए तो भारतीय संस्कृति के मूल स्वर आचार्य द्विवेदी के साहित्य में प्रतिध्वनित हुए और उनकी अनुगूंज ही नरेन्द्र कोहली रूपी पाञ्चजन्य में समा कर संस्कृति के कृष्णोद्घोष में परिवर्तित हुई जिसने हिन्दी साहित्य को हिला कर रख दिया।
आधुनिक युग में नरेन्द्र कोहली ने साहित्य में आस्थावादी मूल्यों को स्वर दिया था। सन् १९७५ में उनके रामकथा पर आधारित उपन्यास 'दीक्षा' के प्रकाशन से हिंदी साहित्य में 'सांस्कृतिक पुनर्जागरण का युग' प्रारंभ हुआ जिसे हिन्दी साहित्य में 'नरेन्द्र कोहली युग' का नाम देने का प्रस्ताव भी जोर पकड़ता जा रहा है। तात्कालिक अन्धकार, निराशा, भ्रष्टाचार एवं मूल्यहीनता के युग में नरेन्द्र कोहली ने ऐसा कालजयी पात्र चुना जो भारतीय मनीषा के रोम-रोम में स्पंदित था। महाकाव्य का ज़माना बीत चुका था, साहित्य के 'कथा' तत्त्व का संवाहक अब पद्य नहीं, गद्य बन चुका था। अत्याधिक रूढ़ हो चुकी रामकथा को युवा कोहली ने अपनी कालजयी प्रतिभा के बल पर जिस प्रकार उपन्यास के रूप में अवतरित किया, वह तो अब हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ बन चुका है। युगों युगों के अन्धकार को चीरकर उन्होंने भगवान राम की कथा को भक्तिकाल की भावुकता से निकाल कर आधुनिक यथार्थ की जमीन पर खड़ा कर दिया. साहित्यिक एवम पाठक वर्ग चमत्कृत ही नहीं, अभिभूत हो गया। किस प्रकार एक उपेक्षित और निर्वासित राजकुमार अपने आत्मबल से शोषित, पीड़ित एवं त्रस्त जनता में नए प्राण फूँक देता है, 'अभ्युदय' में यह देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। युग-युगांतर से रूढ़ हो चुकी रामकथा जब आधुनिक पाठक के रुचि-संस्कार के अनुसार बिलकुल नए कलेवर में ढलकर जब सामने आयी, तो यह देखकर मन रीझे बिना नहीं रहता कि उसमें रामकथा की गरिमा एवं रामायण के जीवन-मूल्यों का लेखक ने सम्यक् निर्वाह किया है। यह पुस्तक धर्म का ग्रंथ नहीं है। ऐसा स्वयं लेखक का कहना है। यह गीता की टीका या भाष्य भी नहीं है। यह एक उपन्यास है, शुद्ध उपन्यास, जो गीता में चर्चित सिद्धांतों को उपन्यास के रूप में पाठक के सामने रखता है। यह उपन्यास लेखक के मन में उठने वाले प्रश्नों का नतीजा है। 'शरणम्' में सामाजिक मानदंड की एक सीमा तय की गयी है जो पाठक को आकर्षित करने में सक्षम है।
***
एक शेर -
मुहब्बत भी सिमट कर रह गयी है चंद घंटों की
कि जिस दिन याद करते हैं , उसी दिन भूल जाते हैं.. -सुरेंद्र श्रीवास्तव
तुड़ा उपवास करवाचौथ का नेता सियासत में
लपटकर गैर की बाँहों में अपने भूल जाते हैं - संजीव
१८-१०-२०१६
***
भाषा गीत 
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम
​​हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
​हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
​कन्नौजी, ​​​​मागधी, ​​​खोंड​,​ ​सादरी, निमाड़ी​,
​सरायकी​, डिंगल​, ​खासी, ​​​​अंगिका,​ ​बज्जिका,
​जटकी, हरयाणवी,​ बैंसवाड़ी,​ ​​मारवाड़ी,​
मीज़ो​,​ मुंडा​री​​,​​ ​गारो​ ​​ ​​मनुहार करें हम ​
​​​​​​हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
कुई​,​ मिशिंग​,​​​ ​तुलु​, ​हो​, ​भीली, खाड़ो में गाएँ
कुरूख, खानदेशी​, नागा, शेमा पढ़ पाएँ
कोकबराक, म्हार, आओ, निशि, मिकिर, सावरा
कोया, खडिया, मालतो, कोन्याक गुंजाएँ
जौनसारी, कच्छी, मुंडा, उच्चार करें हम
​हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
***
व्यंग्य गीत :
मेरी आतुर आँखों में हैं
*
मेरी आतुर आँखों में हैं
सपना मैं भी लौटा पाऊँ
कभी कहीं तो एक इनाम।
*
पहला सुख सूचना मिलेगी
कोई मुझे सराह रहा.
मुझे पुरस्कृत करना कोई
इस दुनिया में चाह रहा.
अपने करते रहे तिरस्कृत
सदा छिपाया कड़वा सच-
समाचार छपवा सुख पाऊँ
खुद से खुद कह वाह रहा.
मेरी आतुर आँखों में हैं
नपना, छपता अख़बारों में
मैं भी देख सकूँ निज नाम।
*
दूजा सुख मैं लेने जाऊँ
पुरस्कार, फूले छाती.
महसूसूं बिन-दूल्हा-घोड़ा
मैं बन पाया बाराती.
फोटू खिंचे-छपे, चर्चा हो
बिके किताब हजारों में
भाषण - इंटरव्यू से गर्वित
हों मेरे पोते-नाती।
मेरी आतुर आँखों में हैं
समारोह करतल ध्वनि
सभागार की दिलकश शाम।
*
तीजा सुख मैं दोष किसी को
दे, सिर ऊँचा कर पाऊँ.
अपनी करनी रहूँ छिपाये
दोष अन्य के गिनवाऊँ.
चुनती जिसे करोड़ों जनता
मैं उसको ही कोसूँगा-
अहा! विधाता सारी गड़बड़
मैं उसके सर थोपूँगा.
मेरी आतुर आँखों में हैं
गर्वित निज छवि, देखूँ
उसका मिटता नाम।
१८-१०-२०१५
***
अंध श्रद्धा और अंध आलोचना के शिकंजे में भारतीय फलित विद्याएँ
भारतीय फलित विद्याओं (ज्योतषशास्त्र, सामुद्रिकी, हस्तरेखा विज्ञान, अंक ज्योतिष आदि) तथा धार्मिक अनुष्ठानों (व्रत, कथा, हवन, जाप, यज्ञ आदि) के औचित्य, उपादेयता तथा प्रामाणिकता पर प्रायः प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं. इनपर अंधश्रद्धा रखनेवाले और इनकी अंध आलोचना रखनेवाले दोनों हीं विषयों के व्यवस्थित अध्ययन, अन्वेषणों तथा उन्नयन में बाधक हैं. शासन और प्रशासन में भी इन दो वर्गों के ही लोग हैं. फलतः इन विषयों के प्रति तटस्थ-संतुलित दृष्टि रखकर शोध को प्रोत्साहित न किये जाने के कारण इनका भविष्य खतरे में है.
हमारे साथ दुहरी विडम्बना है
१. हमारे ग्रंथागार और विद्वान सदियों तक नष्ट किये गए. बचे हुए कभी एक साथ मिल कर खोये को दुबारा पाने की कोशिश न कर सके. बचे ग्रंथों को जन्मना ब्राम्हण होने के कारण जिन्होंने पढ़ा वे विद्वान न होने के कारण वर्णित के वैज्ञानिक आधार नहीं समझ सके और उसे ईश्वरीय चमत्कार बताकर पेट पालते रहे. उन्होंने ग्रन्थ तो बचाये पर विद्या के प्रति अन्धविश्वास को बढ़ाया। फलतः अंधविरोध पैदा हुआ जो अब भी विषयों के व्यवस्थित अध्ययन में बाधक है.
२. हमारे ग्रंथों को विदेशों में ले जाकर उनके अनुवाद कर उन्हें समझ गया और उस आधार पर लगातार प्रयोग कर विज्ञान का विकास कर पूरा श्रेय विदेशी ले गये. अब पश्चिमी शिक्षा प्रणाली से पढ़े और उस का अनुसरण कर रहे हमारे देशवासियों को पश्चिम का सब सही और पूर्व का सब गलत लगता है. लार्ड मैकाले ने ब्रिटेन की संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन पर हुई बहस में जो अपन लक्ष्य बताया था, वह पूर्ण हुआ है.
इन दोनों विडम्बनाओं के बीच भारतीय पद्धति से किसी भी विषय का अध्ययन, उसमें परिवर्तन, परिणामों की जाँच और परिवर्धन असीम धैर्य, समय, धन लगाने से ही संभव है.
अब आवश्यक है दृष्टि सिर्फ अपने विषय पर केंद्रित रहे, न प्रशंसा से फूलकर कुप्पा हों, न अंध आलोचना से घबरा या क्रुद्ध होकर उत्तर दें. इनमें शक्ति का अपव्यय करने के स्थान पर सिर्फ और सिर्फ विषय पर केंद्रित हों.
संभव हो तो राष्ट्रीय महत्व के बिन्दुओं जैसे घुसपैठ, सुरक्षा, प्राकृतिक आपदा (भूकंप, तूफान. अकाल, महत्वपूर्ण प्रयोगों की सफलता-असफलता) आदि पर पर्याप्त समयपूर्व अनुमान दें तो उनके सत्य प्रमाणित होने पर आशंकाओं का समाधान होगा। ऐसे अनुमान और उनकी सत्यता पर शीर्ष नेताओं, अधिकारियों-वैज्ञानिकों-विद्वानों को व्यक्तिगत रूप से अवगत करायें तो इस विद्या के विधिवत अध्ययन हेतु व्यवस्था की मांग की जा सकेगी।
***
मुक्तिका:
मुक्त कह रहे मगर गुलाम
तन से मन हो बैठा वाम
कर मेहनत बन जायेंगे
तेरे सारे बिगड़े काम
बद को अच्छा कह-करता
जो वह हो जाता बदनाम
सदा न रहता कोई यहाँ
किसका रहा हमेशा नाम?
भले-बुरे की फ़िक्र नहीं
करे कबीरा अपना काम
बन संजीव, न हो निर्जीव
सुबह, दुपहरी या हो शाम
खिला पंक से भी पंकज
सलिल निरंतर रह निष्काम
*
बाल गीत:
अहा! दिवाली आ गयी
आओ! साफ़-सफाई करें
मेहनत से हम नहीं डरें
करना शेष लिपाई यहाँ
वहाँ पुताई आज करें
हर घर खूब सजा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
कचरा मत फेंको बाहर
कचराघर डालो जाकर
सड़क-गली सब साफ़ रहे
खुश हों लछमी जी आकर
श्री गणेश-मन भा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
स्नान-ध्यान कर, मिले प्रसाद
पंचामृत का भाता स्वाद
दिया जला उजियारा कर
फोड़ फटाके हो आल्हाद
शुभ आशीष दिला गयी
अहा! दिवाली आ गयी
*
मुक्तक:
मँहगा न मँहगा सस्ता न सस्ता
सस्ता विदेशी करे हाल खस्ता
लेना स्वदेशी कुटियों से सामां-
उसका भी बच्चा मिले ले के बस्ता
उद्योगपतियों! मुनाफा घटाओ
मजदूरी थोड़ी कभी तो बढ़ाओ
सरकारों कर में रियायत करो अब
मरा जा रहा जन उसे मिल जिलाओ
कुटियों का दीपक महल आ जलेगा
तभी स्वप्न कोई कुटी में पलेगा
शहरों! की किस्मत गाँवों से चमके
गाँवों का अपना शहर में पलेगा
*
क्षणिका :
तुम्हारा हर सच
गलत है
हमारा
हर सच गलत है
यही है
अब की सियासत
दोस्त ही
करते अदावत
१८-१०-२०१४

*

अक्टूबर २९, नवगीत, व्यतिरेक अलंकार, मुक्तक, सराइकी, धन तेरस,

सलिल सृजन अक्टूबर २९
*
मुक्तक रच ले मुक्त मन, धनतेरस पर चार,
कमा-खर्च-दे-बचा ले, ले मत अधिक उधार.
ऊँच-नीच सम मान चल, फूल-शूल रख साथ-
धूप-छाँव में शांत मन बैठ, मना त्यौहार।।
*
नवगीत:
*
पधारो,
रमा! पधारो
*
ऊषा से
ले ताजगी
सरसिज से
ले गंध
महाकाल से
अभय हो
सत-शुभ से
अनुबंध
निहारो,
सदय निहारो
*
मातु! गुँजा दो
सृष्टि में शाश्वत
अनहद नाद
विधि-हरि-हर
रिधि-सिद्धि संग
सुन मेरी फरियाद
विराजो!
विहँस विराजो
*
शक्ति-शारदा
अमावस
पूनम जैसे साथ
सत-चित-आनंद
वर सके
सत-शिव-सुंदर पाथ
सँवारो
जन्म सँवारो
***
लघुकथा:
धनतेरस
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते? त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊँ?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपड़ी, कपड़े और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे फेंके कचरे को बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस'
कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था थोड़ा सा चन्द्रमा।
***
एक रचना
: पाँच पर्व :
*
पाँच तत्व की देह है,
ज्ञाननेद्रिय हैं पाँच।
कर्मेन्द्रिय भी पाँच हैं,
पाँच पर्व हैं साँच।।
*
माटी की यह देह है,
माटी का संसार।
माटी बनती दीप चुप,
देती जग उजियार।।
कच्ची माटी को पका
पक्का करती आँच।
अगन-लगन का मेल ही
पाँच मार्ग का साँच।।
*
हाथ न सूझे हाथ को
अँधियारी हो रात।
तप-पौरुष ही दे सके
हर विपदा को मात।।
नारी धीरज मीत की
आपद में हो जाँच।
धर्म कर्म का मर्म है
पाँच तत्व में जाँच।।
*
बिन रमेश भी रमा का
तनिक न घटता मान।
ऋद्धि-सिद्धि बिन गजानन
हैं शुभत्व की खान।।
रहें न संग लेकिन पूजें
कर्म-कुंडली बाँच।
अचल-अटल विश्वास ही
पाँच देव हैं साँच।।
*
धन्वन्तरि दें स्वास्थ्य-
धनहरि दें रक्षा-रूप।
श्री-समृद्धि, गणपति-मति
देकर करें अनूप।।
गोवर्धन पय अमिय दे
अन्नकूट कर खाँच।
बहिनों का आशीष ले
पाँच शक्ति शुभ साँच।।
*
पवन, भूत, शर, अँगुलि मिल
हर मुश्किल लें जीत।
पाँच प्राण मिल जतन कर
करें ईश से प्रीत।।
परमेश्वर बस पंच में
करें न्याय ज्यों काँच।
बाल न बाँका हो सके
पाँच अमृत है साँच
*****
नवगीत
*
मन-कुटिया में
दीप बालकर
कर ले उजियारा।
तनिक मुस्कुरा
मिट जाएगा
सारा तम कारा।।
*
ले कुम्हार के हाथों-निर्मित
चंद खिलौने आज।
निर्धन की भी धनतेरस हो
सध जाए सब काज।
माटी-मूरत,
खील-बतासे
है प्रसाद प्यारा।।
*
रूप चतुर्दशी उबटन मल, हो
जगमग-जगमग रूप।
प्रणय-भिखारी गृह-स्वामी हो
गृह-लछमी का भूप।
रमा रमा में
हो मन, गणपति
का कर जयकारा।।
*
स्वेद-बिंदु से अवगाहन कर
श्रम-सरसिज देकर।
राष्ट्र-लक्ष्मी का पूजन कर
कर में कर लेकर।
निर्माणों की
झालर देखे
विस्मित जग सारा।।
*
अन्नकूट, गोवर्धन पूजन
भाई दूज न भूल।
बैरी समझ कूट मूसल से
पैने-चुभते शूल।
आत्म दीप ले
बाल, तभी तो
होगी पौ बारा।।
***********
गीत:
दीप, ऐसे जलें...
संजीव 'सलिल'
दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
स्वेद माटी से हँसकर मिले,
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।
नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
दीप, ऐसे जलें...
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।
इंद्र के भोग, निज कर मलें-
दीप, ऐसे जलें...
जानकी जान की खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।
दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-
दीप, ऐसे जलें...
धन तेरस पर नव छंद
गीत
*
छंद: रविशंकर
विधान:
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा
२. मात्रा क्रम लघु लघु गुरु लघु लघु
***
धन तेरस
बरसे रस...
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ...
*
कर साहस
वर ले यश।
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...
*
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन।
रख चादर
जस की तस।
उजली तब
धन तेरस
***
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
धनतेरस पर विशेष गीत...
प्रभु धन दे...
*
प्रभु धन दे निर्धन मत करना.
माटी को कंचन मत करना.....
*
निर्बल के बल रहो राम जी,
निर्धन के धन रहो राम जी.
मात्र न तन, मन रहो राम जी-
धूल न, चंदन रहो राम जी..
भूमि-सुता तज राजसूय में-
प्रतिमा रख वंदन मत करना.....
*
मृदुल कीर्ति प्रतिभा सुनाम जी.
देना सम सुख-दुःख अनाम जी.
हो अकाम-निष्काम काम जी-
आरक्षण बिन भू सुधाम जी..
वन, गिरि, ताल, नदी, पशु-पक्षी-
सिसक रहे क्रंदन मत करना.....
*
बिन रमेश क्यों रमा राम जी,
चोरों के आ रहीं काम जी?
श्री गणेश को लिये वाम जी.
पाती हैं जग के प्रणाम जी..
माटी मस्तक तिलक बने पर-
आँखों का अंजन मत करना.....
*
साध्य न केवल रहे चाम जी,
अधिक न मोहे टीम-टाम जी.
जब देना हो दो विराम जी-
लेकिन लेना तनिक थाम जी..
कुछ रच पाए कलम सार्थक-
निरुद्देश्य मंचन मत करना..
*
अब न सुनामी हो सुनाम जी,
शांति-राज दे, लो प्रणाम जी.
'सलिल' सभी के सदा काम जी-
आये, चल दे कर सलाम जी..
निठुर-काल के व्याल-जाल का
मोह-पाश व्यंजन मत करना.....
* **
दोहा-दोहा धन तेरस
*
तेरह दीपक बालिए, ग्यारह बाती युक्त।
हो प्रदीप्त साहित्य-घर, रस-लय हो संयुक्त।।
*
लघु से गुरु गुरुता गहे, गुरु से लघु की वृद्धि।
जब दोनों संयुक्त हो, होती तभी समृद्धि।।
*
धन चराग प्रज्वलित कर, बाँटें सतत प्रकाश।
ज्योतित वसुधा देखकर, विस्मित हो आकाश।।
*
ज्योति तेल-बाती जले, दिया पा रहा श्रेय।
तिमिर पूछता देव से, कहिए क्या अभिप्रेय??
*
ज्योति तेल बाती दिया, तनहा करें न काम।
मिल जाएँ तो पी सकें, जग का तिमिर तमाम।।
*
चल शारद-दरबार में, बालें रचना-दीप।
निर्धन के धन शब्द हों, हर कवि बने महीप।।
*
धन तेरस का हर दिया, धन्वन्तरि के नाम।
बालें तन-मन स्वस्थ हों, काम करें निष्काम।।
*
नवगीत
*
लछमी मैया!
भाव बढ़ रहे, रुपया गिरता
दीवाली है।
भरा बताते
किन्तु खज़ाना और तिजोरी
तो खाली है
*
धन तेरस पर
निर्धन पल-पल देश क्यों हुआ
कौन बताए?
दीवाली पर
दीवाला ही यहाँ हो रहा?
राम बचाए।
सत्ता चाहे
हो विपक्ष से रहित तंत्र तो
जी भर लूटे।
कहे विपक्षी
लूटपाट कर तंत्र सो रहा
छाती कूटे।
भरा बताते
किन्तु खज़ाना और तिजोरी
तो खाली है।
*
डाका डालें
जन के धन पर नेता-अफसर
कौन बचाए?
सेठ-चिकित्सक, न्याय व्यवस्था
सत्ता चाहे
हो विपक्ष से रहित तंत्र यह
कहे विपक्षी
लूटपाट कर तंत्र सो रहा
भरा दिखाते
किन्तु खज़ाना और तिजोरी
तो खाली है।
*



तेरह को जानें
गणित में- १३ एक अभाज्य संख्या , एक सुखद संख्या और एक भाग्यशाली संख्या है। यह ११ के साथ एक जुड़वां अभाज्य संख्या है , साथ ही १७ के साथ एक चचेरा भाई अभाज्य संख्या भी है। यह ज्ञात तीन में से दूसरा विल्सन अभाज्य संख्या है।१३ -पक्षीय नियमित बहुभुज को ट्राइडेकागन कहा जाता है ।


भाषाओं में
व्याकरणसभी जर्मनिक भाषाओं में १३ प्रथम संयुक्त संख्या है; संख्या ११ और १२ के अपने नाम हैं।
रोमांस भाषाएँ अलग-अलग प्रणालियों का उपयोग करती हैं: इतालवी में, ११ पहली मिश्रित संख्या ( अंडीसी ) है, जैसा कि रोमानियाई ( अनस्प्रेज़ेस ) में है, जबकि स्पेनिश और पुर्तगाली में, १५ तक की संख्याएँ (स्पेनिश क्विंस , पुर्तगाली क्विंज़े ), और फ्रेंच और इतालवी में १६ तक की संख्याएँ (फ्रेंच सीज़ , इतालवी सेडिसी ) के अपने नाम हैं। अधिकांश स्लाविक भाषाओं , हिंदी-उर्दू और अन्य दक्षिण एशियाई भाषाओं में भी यही स्थिति है ।


लोक-साहित्य
जर्मनी में, एक पुरानी परंपरा के अनुसार, १३ ( dreizehn ), पहली यौगिक संख्या के रूप में, अंकों में लिखी गई पहली संख्या थी; ० ( null ) से लेकर १३ ( zwölf ) तक की संख्याएँ लिखी जाती थीं। ड्यूडेन (जर्मन मानक शब्दकोश) अब इस परंपरा को (जिसे वास्तव में कभी आधिकारिक नियम के रूप में नहीं लिखा गया था) पुराना और अब मान्य नहीं कहता है, लेकिन कई लेखक अभी भी इसका पालन करते हैं।


अंग्रेजी में
तेरह किशोर संख्यात्मक सीमा (१३-१९) के भीतर दो संख्याओं में से एक है , पंद्रह के साथ, जो कार्डिनल अंक (तीन) और किशोर प्रत्यय से व्युत्पन्न नहीं है; इसके बजाय, यह क्रमिक अंक (तीसरा) से व्युत्पन्न है।


तेरह - तेरा - तुम्हारा
गुरु नानक देव जी की प्रसिद्ध साखीके अनुसार, जब वे सुल्तानपुर लोधी के एक कस्बे में मुनीम थे, तब वे लोगों को किराने का सामान बाँट रहे थे। जब उन्होंने १३ वें व्यक्ति को किराने का सामान दिया, तो वे रुक गए क्योंकि गुरुमुखी और हिंदी में तेरह/ तेरा कहा जाता है, जिसका अर्थ है तुम्हारा। और गुरु नानक देव जी ईश्वर को याद करते हुए कहते रहे, "तेरा, तेरा, तेरा..." लोगों ने बादशाह को बताया कि गुरु नानक देव जी लोगों को मुफ्त भोजन दे रहे हैं। जब खजाने की जांच की गई, तो पहले से ज्यादा पैसे मिले।
यहूदी धर्म में, १३ वह आयु दर्शाता है जिस पर एक लड़का परिपक्व होकर बार मिट्ज्वा (मिन्यन का सदस्य) बन जाता है। मैमोनाइड्स के अनुसार यहूदी धर्म के सिद्धांतों की संख्या .तथा टोरा पर रब्बीनिक टिप्पणी के अनुसार ईश्वर में दया के 13 गुण हैं।


पारसी धर्म- नवरोज़ (ईरानी नव वर्ष) के१३वें दिन को सिज़दा बे-दार कहा जाता है। यह मज़ाक और बाहर समय बिताने के लिए समर्पित एक त्योहार है।


ईसाई धर्म- ईसा मसीह और उनके १२ शिष्य मिलकर १३ का समूह अंतिम भोज में चित्रित है। रोमन कैथोलिक ईसाई के नुसार १९१७ में में वर्जिन (कुआँरी) फातिमा के दर्शन लगातार छह महीनों के १३ वें दिन हुए थे। कैथोलिक भक्ति प्रथा में, तेरह की संख्या पडुआ के संत एंथोनी से भी जुड़ी हुई है , क्योंकि उनका पर्व १३ जून को पड़ता है। सेंट एंथोनी के तेरह मंगलवार नामक एक पारंपरिक भक्ति में तेरह सप्ताह की अवधि में हर मंगलवार को संत से प्रार्थना करना शामिल है। सेंट एंथोनी चैपल, में हरेक में तीन मोतियों के तेरह दशक होते हैं।


इसलाम- शिया में १३ रजब (चंद्र कैलेंडर) महीने के १३ वें दिन को दर्शाता है, जो इमाम अली का जन्म है । १३3 इस्लामी विचारधाराओं में१ पैगंबर और १२ शिया इमाम कुल १३ हैं।


चंद्र पंथ- प्राचीन संस्कृतियों में, संख्या १३ स्त्रीत्व का प्रतिनिधित्व करती थी, क्योंकि यह एक वर्ष में चंद्र (मासिक धर्म) चक्रों की संख्या के अनुरूप थी (१३× २८ = ३६४ दिन )। सिद्धांत यह है कि, जैसे ही सौर कैलेंडर ने चंद्र पर विजय प्राप्त की, संख्या तेरह अभिशाप बन गई।


एज़्टेक पौराणिक कथा के अनुसार , सृष्टि के दौरान देवताओं द्वारा सिपैक्टली के सिर से तेरह स्वर्गों का निर्माण किया गया था।


विक्का धर्म- आम परंपरा यह मानती है कि एक संप्रदाय के सदस्यों की संख्या आदर्श रूप से तेरह है, हालांकि यह परंपरा सार्वभौमिक नहीं है।
हम्मूराबी का कोड- एक मिथक है कि तेरह को अशुभ या बुरा मानने का सबसे पहला संदर्भ बेबीलोनियन कोड ऑफ हम्मुराबी (लगभग १७८० ईसा पूर्व) में है, जहाँ तेरहवें नियम को छोड़ दिया गया है। वास्तव में, हम्मुराबी की मूल संहिता में कोई संख्या नहीं है। रिचर्ड हुकर द्वारा संपादित एलडब्ल्यू किंग (१९१०) के अनुवाद में एक अनुच्छेद को छोड़ दिया गया: यदि विक्रेता (अपने) भाग्य पर चला गया है (यानी, मर गया है), तो खरीदार को विक्रेता की संपत्ति से उक्त मामले में पाँच गुना क्षतिपूर्ति प्राप्त करनी होगी। हम्मुराबी संहिता के अन्य अनुवाद, उदाहरण के लिए रॉबर्ट फ्रांसिस हार्पर द्वारा अनुवाद, में १३ वाँ अनुच्छेद शामिल है।


मायान त्ज़ोलकिन कैलेंडर में, ट्रेसेनास १३ दिन की अवधि के चक्रों को चिह्नित करते हैं। पिरामिड भी ९ चरणों में स्थापित किए गए हैं जो ७ दिन और ६ रात (कुल १३) में विभाजित हैं।


मानक ५२ पत्तों वाले ताश के डेक में चार प्रकार (सूट हुकुम,पान, ईंट, चिड़ी) होते हैं, जिनमें से प्रत्येक में १३ (पत्ते) रैंक होती हैं।


बेकर/शैतान का दर्जन, लंबा दर्जन, या लंबा माप १३ है, जो एक मानक दर्जन से एक अधिक है। तेरहवीं रोटी को वैंटेज रोटी कहा जाता है। १२ की कीमत पर १३ रोटियाँ प्राप्त करना फायदेमंद माना जाता है।


मध्यकालीन ग्रंथों में दर्ज आर्थरियन किंवदंती के अनुसार, राजा आर्थर तथा गोल मेज के १२ महानतम शूरवीर कुल १३ एवलॉन में आराम कर रहे हैं। जब उनका देश संकट में होगा, तब वे वापस लौटेंगे।


ब्रिटेन के तेरह खजाने, उत्तर मध्यकालीन ग्रंथों में सूचीबद्ध जादुई वस्तुओं की एक श्रृंखला है ।


ताई ची के तेरह आसन ८ द्वारों और ५ चरणों से मिलकर बने हैंजिन्हें ताई ची के अभ्यास में मौलिक महत्व का माना जाता है।


खगोल विज्ञान में १२ राशि चक्र व ओफिउचुस कुल १३ तारामंडल हैं।


टैरो कार्ड डेक में, XIII मृत्यु का कार्ड है, जिसमें सामान्यतः पीले घोड़े और उसके सवार को दर्शाया जाता है।


अर्जेंटीना, बुर्किना फासो, जापान, नाइजर और दो मैक्सिकन राज्यों में सहमति की न्यूनतम आयु तेरह वर्ष है ।
संयुक्त राज्य अमेरिका में कई सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर, बच्चों के ऑनलाइन गोपनीयता संरक्षण अधिनियम (COPPA) के अनुपालन में खाता बनाने के लिए मानक न्यूनतम आयु १३ वर्ष है ।
यह वह आयु है जिस पर एंटरटेनमेंट सॉफ्टवेयर रेटिंग बोर्ड (ईएसआरबी) टी-रेटेड गेम्स का मूल्यांकन करता है और मोशन पिक्चर एसोसिएशन पीजी-१३ रेटिंग वाली फिल्मों की सिफारिश करता है।
कुछ देशों में संख्या १३ को एक अशुभ संख्या माना जाता है। माया कैलेंडर के १३वें बकटुन के अंत को २०१२ की सर्वनाशकारी घटना के अग्रदूत के रूप में अंधविश्वास से जोड़ा गया था। संख्या १३ के डर का एक विशेष रूप से मान्यता प्राप्त भय है , ट्रिसकैडेकाफोबिया, एक शब्द जो पहली बार १९११ में दर्ज किया गया था। ट्रिसकैडेकाफोबिया से पीड़ित अंधविश्वासी लोग तेरह नंबर या लेबल वाली किसी भी चीज़ से दूर रहकर दुर्भाग्य से बचने की कोशिश करते हैं। वे मंजिल संख्या, आसंदी संख्या आदि में १२ के बाद सीधे १४ लिखा जाता है। एक मेज पर तेरह मेहमानों का होना भी अशुभ माना जाता है।


इतिहाससंयुक्त राज्य अमेरिका की महान मुहर में कई समूह हैं जिनमें एक ही प्रकार की 13 चीजें शामिल हैं जैसे १३ जैतून की पत्तियां, १३ तारे, १३ तीर।संयुक्त राज्य अमेरिका का निर्माण तेरह ब्रिटिश उपनिवेशों से हुआ था और इस तरह, संख्या तेरह अमेरिकी हेराल्ड्री में एक सामान्य रूप से आवर्ती रूपांकन है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका की महान मुहर पर तेरह सितारे हैं और अमेरिकी ध्वज पर तेरह धारियाँ हैं और साथ ही एरिज़ोना के ध्वज पर तेरह किरणें हैं ।संयुक्त राज्य अमेरिका के पहले झंडे में तेरह धारियाँ थीं, जो बारी-बारी से लाल और सफ़ेद रंग की थीं, और नीले रंग के संघ में तेरह सफ़ेद सितारे थे। तेरह धारियाँ उन तेरह उपनिवेशों का प्रतिनिधित्व करती थीं जिनसे संयुक्त राज्य अमेरिका का निर्माण हुआ था, और तेरह सितारे नए राष्ट्र में राज्यों की संख्या का प्रतिनिधित्व करते थे। जब १७९५ में संघ में दो नए राज्य जोड़े गए, तो झंडे में पंद्रह सितारे और पंद्रह धारियाँ थीं। १८१८ में पाँच नए राज्यों के जुड़ने के साथ, पट्टियों की संख्या को फिर से सेट किया गया और स्थायी रूप से तेरह पर स्थिर कर दिया गया।
संयुक्त राज्य अमेरिका की महान मुहर पर तेरह नंबर की कई छवियां हैं, जो उन तेरह उपनिवेशों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनसे संयुक्त राज्य अमेरिका का निर्माण हुआ था। मुहर के अग्रभाग पर, ऊपरी महिमा में तेरह सितारे हैं। फैले हुए ईगल के सामने छाती की ढाल पर तेरह धारियाँ (सात सफ़ेद और छह लाल) हैं। ईगल के दाहिने पंजे में शांति की जैतून की शाखा है, जिसमें तेरह जैतून और तेरह जैतून के पत्ते हैं। ईगल के बाएं पंजे में युद्ध के हथियार हैं, जिसमें तेरह तीर हैं। ईगल के मुंह में राष्ट्रीय आदर्श वाक्य "ई प्लुरिबस यूनम" (जो संयोग से, तेरह अक्षरों से बना है) वाला एक स्क्रॉल है। सील के पीछे, अधूरा पिरामिड तेरह स्तरों का है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के तेरहवें संशोधन ने दासता और अनैच्छिक दासता (अपराध के लिए दंड के रूप में छोड़कर) को समाप्त कर दिया।
अपोलो १३ नासा का एक चन्द्रमा मिशन था जो १९७० में "सफल विफलता" के लिए प्रसिद्ध था।
***
सॉनेट
रामकिशोर
*
मधुर मधुर मुस्कान बिखेरें
दर्द न दिल का कभी दिखाते
हर नाते को पुलक सहेजें
अनजाने को भी अपनाते
वाणी मधुर स्नेह सलिला सम
झट हिल-मिल गुल सम खिल जाते
लगता दूर हो गया है तम
प्राची से दिनकर प्रगटाते
शब्दों की मितव्ययिता बरते
कविताओं में सत्य समय का
लिखें लेख पैने मन-चुभते
भान न लेकिन कहीं अनय का
चेहरे छाई रहती भोर
देते खुशियाँ रामकिशोर
२९-१०-२०२२
***
हाइकु
*
करो वंदन
निशि हुई हाइकु
गीत निशीश।
*
मुदित मन
जिज्ञासु हो दिमाग
राग-विराग।
*
चश्मा देखता
चकित चित मौन
चश्मा बहता।
*
अभिनंदन
माहिया-हाइकु का
रोली-चंदन।
*
झूमा आकाश
महमहाया चाँद
लिए चाँदनी।
*
आज की शाम
फुनगी पर चाँद
झूम नाचता
२८-१०-२०२२
***
सराइकी दोहा:
भाषा विविधा:
[सिरायकी पाकिस्तान और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में बोले जानेवाली लोकभाषा है. सिरायकी का उद्गम पैशाची-प्राकृत-कैकई से हुआ है. इसे लहंदा, पश्चिमी पंजाबी, जटकी, हिन्दकी आदि भी कहा गया है. सिरायकी की मूल लिपि लिंडा है. मुल्तानी, बहावलपुरी तथा थली इससे मिलती-जुलती बोलियाँ हैं. सिरायकी में दोहा छंद अब तक मेरे देखने में नहीं आया है. मेरे इस प्रथम प्रयास में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है. पाठकों से त्रुटियाँ इंगित करने तथा सुधार हेतु सहायता का अनुरोध है.]
*
बुरी आदतां दुखों कूँ, नष्ट करेंदे ईश।
साडे स्वामी तुवाडे, बख्तें वे आशीष।।
*
रोज़ करन्दे हन दुआ, तेडा-मेडा भूल।
अज सुणीज गई हे दुआं,त्रया-पंज दा भूल।।
*
दुक्खां कूँ कर दूर प्रभु, जग दे रचनाकार।
डेवणवाले देवता, वरण जोग करतार।।
*
कोई करे तां क्या करे, हे बदलाव असूल।
कायम हे उम्मीद पे, दुनिया कर के भूल।।
*
शर्त मुहाणां जीत ग्या, नदी-किनारा हार।
लेणें कू धिक्कार हे, देणे कूँ जैकार।।
२९-१०-२०१९
*
एक मुक्तक
वामन दर पर आ विराट खुशियाँ दे जाए
बलि के लुटने से पहले युग जय गुंजाए
रूप चतुर्दशी तन-मन निर्मल कर नव यश दे
पंच पर्व पर प्राण-वर्तिका तम पी पाए
२९.५.२०१५
***
एक छंद
*
विदा दें, बाद में बात करेंगे, नेता सा वादा किया, आज जिसने
जुमला न हो यह, सोचूँ हो हैरां, ठेंगा दिखा ही दिया आज उसने
गोदी में खेला जो, बोले दलाल वो, चाचा-भतीजा निभाएं न कसमें
छाती कठोर है नाम मुलायम, लगें विरोधाभास ये रसमें
*
***
एक छंद
राम के काम को, करे प्रणाम जो, उसी अनाम को, राम मिलेगा
नाम के दाम को, काम के काम को, ध्यायेगा जो, विधि वाम मिलेगा
देश ललाम को, भू अभिराम को, स्वच्छ करे इंसान तरेगा
रूप को चाम को, भोर को शाम को, पूजेगा जो, वो गुलाम मिलेगा
***
मुक्तक
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
फूल अंग्रेजी का मैं,यह जानता
फूल हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
सांस ही मानो गले अटका रही
२९-१०-२०१६
***
अलंकार सलिला: २६
व्यतिरेक अलंकार
*
हिंदी गीति काव्य का वैशिष्ट्य अलंकार हैं. विविध काव्य प्रवृत्तियों को कथ्य का अलंकरण मानते हुए
पिंगलविदों ने उन्हें पहचान और वर्गीकृत कर समीक्षा के लिये एक आधार प्रस्तुत किया है. विश्व की
किसी अन्य भाषा में अलंकारों के इतने प्रकार नहीं हैं जितने हिंदी में हैं.
आज हम जिस अलंकार की चर्चा करने जा रहे हैं वह उपमा से सादृश्य रखता है इसलिए सरल है. उसमें
उपमा के चारों तत्व उपमेय, उपमान, साधारण धर्म व वाचक शब्द होते हैं.
उपमा में सामान्यतः उपमेय (जिसकी समानता स्थापित की जाये) से उपमान (जिससे समानता
स्थापित की जाये) श्रेष्ठ होता है किन्तु व्यतिरेक में इससे सर्वथा विपरीत उपमेय को उपमान से भी श्रेष्ठ
बताया जाता है.
श्रेष्ठ जहाँ उपमेय हो, याकि हीन उपमान.
अलंकार व्यतिरेक वह, कहते हैं विद्वान..
तुलना करते श्रेष्ठ की, जहाँ हीन से आप.
रचना में व्यतिरेक तब, चुपके जाता व्याप..
करें न्यून की श्रेष्ठ से, तुलना सहित विवेक.
अलंकार तब जानिए, सरल-कठिन व्यतिरेक..
उदाहरण:
१. संत ह्रदय नवनीत समाना, कहौं कविन पर कहै न जाना.
निज परताप द्रवै नवनीता, पर दुःख द्रवै सुसंत पुनीता.. - तुलसीदास (उपमा भी)
यहाँ संतों (उपमेय) को नवनीत (उपमान) से श्रेष्ठ प्रतिपादित किया गया है. अतः, व्यतिरेक अलंकार है.
२. तुलसी पावस देखि कै, कोयल साधे मौन.
अब तो दादुर बोलिहैं, हमें पूछिहैं कौन.. - तुलसीदास (उपमा भी)
यहाँ श्रेष्ठ (कोयल) की तुलना हीन (मेंढक) से होने के कारण व्यतिरेक है.
३. संत सैल सम उच्च हैं, किन्तु प्रकृति सुकुमार..
यहाँ संत तथा पर्वत में उच्चता का गुण सामान्य है किन्तु संत में कोमलता भी है. अतः, श्रेष्ठ की हीन से तुलना होने के कारण व्यतिरेक है.
४. प्यार है तो ज़िन्दगी महका
हुआ इक फूल है !
अन्यथा; हर क्षण, हृदय में
तीव्र चुभता शूल है ! -महेंद्र भटनागर
यहाँ प्यार (श्रेष्ठ) की तुलना ज़िन्दगी के फूल या शूल से है जो, हीन हैं. अतः, व्यतिरेक है.
५. धरणी यौवन की
सुगन्ध से भरा हवा का झौंका -राजा भाई कौशिक
६. तारा सी तरुनि तामें ठाढी झिलमिल होति.
मोतिन को ज्योति मिल्यो मल्लिका को मकरंद.
आरसी से अम्बर में आभा सी उजारी लगे
प्यारी राधिका को प्रतिबिम्ब सो लागत चंद..--देव
७. मुख मयंक सो है सखी!, मधुर वचन सविशेष
८. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू, चाँद कलंकी वह निकलंकू
९. नव विधु विमल तात! जस तोरा, उदित सदा कबहूँ नहिं थोरा (रूपक भी)
१०. विधि सों कवि सब विधि बड़े, यामें संशय नाहिं
खट रस विधि की सृष्टि में, नव रस कविता मांहि
११. अवनी की ऊषा सजीव थी, अंबर की सी मूर्ति न थी
१२. सम सुबरन सुखमाकर, सुखद न थोर
सीय-अंग सखि! कोमल, कनक कठोर
१३. साहि के सिवाजी गाजी करयौ दिल्ली-दल माँहि,
पाण्डवन हूँ ते पुरुषार्थ जु बढ़ि कै
सूने लाख भौन तें, कढ़े वे पाँच रात में जु,
द्यौस लाख चौकी तें अकेलो आयो कढ़ि कै
१४. स्वर्ग सदृश भारत मगर यहाँ नर्मदा वहाँ नहीं
लड़ें-मरें सुर-असुर वहाँ, यहाँ संग लड़ते नहीं - संजीव वर्मा 'सलिल'
***
***
नवगीत
एक पसेरी
*
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
.
अनपढ़, बिन पढ़ वह लिखे
जो आँधर को ही दिखे
बहुत सयाने, अति चतुर
टके तीन हरदम बिके
बर्फ कह रहा घाम में
हाथ-पैर झुलसे-सिके
नवगीतों को बाँधकर
खूँटे से कुछ क्यों टिके?
मुट्ठी भर तो लुटा
झोला भर धरना फिर तू
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
.
सूरज ढाँके कोहरे
लेते दिन की टोह रे!
नदी धार, भाषा कभी
बोल कहाँ ठहरे-रुके?
देस-बिदेस न घूमते
जो पग खाकर ठोकरें
बे का जानें जिन्नगी
नदी घाट घर का कहें?
मार अहं को यार!
किसी पर मरना फिर तू
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
.
लाठी ने कब चाहा
पाये कोई सहारा?
चंदा ने निज रूप
सोच कब कहाँ निहारा
दियासलाई दीपक
दीवट दें उजियारा
जला पतंगा, दी आवाज़
न टेर गुहारा
ऐब न निज का छिपा
गैर पर छिप धरना तू
एक पसेरी पढ़
तोला भर लिखना फिर तू
२९-१०-२०१५
***
नवगीत:
रिश्ते
*
सांस बन गए रिश्ते
.
अनजाने पहचाने लगते
अनचीन्हे नाते, मन पगते
गैरों को अपनापन देकर
हम सोते या जगते
ठगे जा रहे हम औरों से
या हम खुद को ठगते?
आस बन गए रिश्ते
.
दिन भर बैठे आँख फोड़ते
शब्द-शब्द ही रहे जोड़ते
दुनिया जोड़े रूपया-पैसा
कहिए कैसे छंद छोड़ते?
गीत अगीत प्रगीत विभाजन
रहे समीक्षक हृदय तोड़ते
फांस बन गए रिश्ते
.
नभ भू समुद लगता फेरा
गिरता बहता उड़ता डेरा
मीठा मैला खरा होता
'सलिल' नहीं रोके पग-फेरा
दुनियादारी सीख न पाया
क्या मेरा क्या तेरा
कांस बन गए रिश्ते
२९-१०-२०१५
***
नवगीत:
आओ रे!
मतदान करो
भारत भाग्य विधाता हो
तुम शासन-निर्माता हो
संसद-सांसद-त्राता हो
हमें चुनो
फिर जियो-मरो
कैसे भी
मतदान करो
तूफां-बाढ़-अकाल सहो
सीने पर गोलियाँ गहो
भूकंपों में घिरो-ढहो
मेलों में
दे जान तरो
लेकिन तुम
मतदान करो
लालटेन, हाथी, पंजा
साड़ी, दाढ़ी या गंजा
कान, भेंगा या कंजा
नेता करनी
आप भरो
लुटो-पिटो
मतदान करो
पाँच साल क्यों देखो राह
जब चाहो हो जाओ तबाह
बर्बादी को मिले पनाह
दल-दलदल में
फँसो-घिरो
रुपये लो
मतदान करो
नाग, साँप, बिच्छू कर जोड़
गुंडे-ठग आये घर छोड़
केर-बेर में है गठजोड़
मत सुधार की
आस धरो
टैक्स भरो
मतदान करो
(कश्मीर तथा अन्य राज्यों में चुनाव की खबर पर )
संजीवनी अस्पताल, रायपुर
२९.११.२०१४
***
नवगीत:
ज़िम्मेदार
नहीं है नेता
छप्पर औरों पर
धर देता
वादे-भाषण
धुआंधार कर
करे सभी सौदे
उधार कर
येन-केन
वोट हर लेता
सत्ता पाते ही
रंग बदले
यकीं न करना
किंचित पगले
काम पड़े
पीठ कर लेता
रंग बदलता
है पल-पल में
पारंगत है
बेहद छल में
केवल अपनी
नैया खेता
२९-१०-२०१४
***
नवगीत:
सुख-सुविधा में
मेरा-तेरा
दुःख सबका
साझा समान है
पद-अधिकार
करते झगड़े
अहंकार के
मिटें न लफ़ड़े
धन-संपदा
शत्रु हैं तगड़े
परेशान सब
अगड़े-पिछड़े
मान-मनौअल
समाधान है
मिल-जुलकर जो
मेहनत करते
गिरते-उठते
आगे बढ़ते
पग-पग चलते
सीढ़ी चढ़ते
तार और को
खुद भी तरते
पगतल भू
करतल वितान है
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर
***
नवगीत:
देव सोये तो
सोये रहें
हम मानव जागेंगे
राक्षस
अति संचय करते हैं
दानव
अमन-शांति हरते हैं
असुर
क्रूर कोलाहल करते
दनुज
निबल की जां हरते हैं
अनाचार का
शीश पकड़
हम मानव काटेंगे
भोग-विलास
देवता करते
बिन श्रम सुर
हर सुविधा वरते
ईश्वर पाप
गैर सर धरते
प्रभु अधिकार
और का हरते
हर अधिकार
विशेष चीन
हम मानव वारेंगे
मेहनत
अपना दीन-धर्म है
सच्चा साथी
सिर्फ कर्म है
धर्म-मर्म
संकोच-शर्म है
पीड़ित के
आँसू पोछेंगे
मिलकर तारेंगे
***
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर