दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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मंगलवार, 20 जुलाई 2010
हास्य कुण्डली: संजीव 'सलिल'
हास्य कुण्डली:
संजीव 'सलिल'
*
घरवाली को छोड़कर, रहे पड़ोसन ताक.
सौ चूहे खाकर बने बिल्ली जैसे पाक..
बिल्ली जैसे पाक, मगर नापाक इरादे.
काश इन्हें इनकी कोई औकात बतादे..
भटक रहे बाज़ार में, खुद अपना घर छोड़कर.
रहें न घर ना घाट के, घरवाली को छोड़कर..
*
सूट-बूट सज्जित हुए, समझें खुद को लाट.
अंगरेजी बोलें गलत, दिखा रहे हैं ठाठ..
दिखा रहे हैं ठाठ, मगर मन तो गुलाम है.
निज भाषा को भूल, नामवर भी अनाम है..
हुए जड़ों से दूर, पग-पग पर लज्जित हुए.
घोडा दिखने को गधे, सूट-बूट सज्जित हुए..
*
गाँव छोड़ आये शहर, जबसे लल्लूलाल.
अपनी भाषा छोड़ दी, तन्नक नहीं मलाल..
तन्नक नहीं मलाल, समझते खुद को साहब.
हँसे सभी जब सुना: 'पेट में हैडेक है अब'..
'फ्रीडमता' की चाह में, भटकें तजकर ठाँव.
होटल में बर्तन घिसें, भूले खेती-गाँव..
*
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-Acharya Sanjiv Verma 'Salil',
Contemporary Hindi Poetry,
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