एक फ़रियाद :
संजीव
मातृ-दिवस पर मइके आयीं, दिद्दा! शत-शत बार प्रणाम।
अनुज खोजता रहा न पाया, आशीषों का अक्षय-धाम।।
सुख-दुःख कह-सुन बाँटो फिर से, पीठ थपक दो, खीचो कान।
आफत में थे प्राण, न चिंता आयी जान में अपनी जान।।
कमल पंक में खिलता, पंकिल कभी पत्तियाँ हो जातीं।
तन-मन धो निर्मल होकर ही, प्रभु-पग पाकर तर पातीं।।
बर्तन चार खटकते ही है, जो चटके वह आये न काम।
बाहर कर उसको रसोई से, दीप्त रखे गृहणी गृह-धाम।।
नए-नए कुछ अनुष्ठान हैं: अंगरेजी कविता-दोहा।
यथासमय सुविधा से पढ़िये, बतलायें किसने मोहा।।
बुन्देली की रचनाओं में, त्रुटि बतलायें करें सुधार।
सागर गढ़ है बुन्देली का, मुझे नहीं इस पर अधिकार।।
दिद्दा! अमरस का मौसम है, पन्हा-पुदीने की चटनी।
बिना पाए कैसे हो पाए, पूरा मातृदिवस बहनी।।
एक तुम्हारा हुआ आसरा, व्यस्त प्रणव हैं और कहीं।
दीप्ति कुसुम मधु राह हेरतीं, कहाँ महेरी- कहाँ मही।।
गोल इलाहाबादी भैया, लाये न अब तक हैं खरबूज।
तब तक दिद्दा हमें चलेगा, बुलावा कटवा दो तरबूज।।
कुल्फी-आइसक्रीम तुम्हारे बिना न देती हमको स्वाद।
गले लगो, आशीष लुटाओ, सुन लो छोटों की फ़रियाद।।
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Sanjiv verma 'Salil'
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