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मंगलवार, 28 जून 2011

पर्यावरण गीत : हुआ क्यों मानव बहरा? -- संजीव 'सलिल'

पर्यावरण गीत :
हुआ क्यों मानव बहरा?
संजीव 'सलिल'
*
हुआ क्यों मानव बहरा?...

कूड़ा करकट फेंक, दोष औरों पर थोपें,
काट रहे नित पेड़,  न लेकिन कोई रोपें..
रोता नीला नभ देखे, जब-जब निज चेहरा.
सुने न करुण पुकार, हुआ क्यों मानव बहरा?...

कलकल नाद हुआ गुम, लहरें नृत्य न करतीं.
कछुए रहे न शेष, मीन बिन मारें मरतीं..
कौन करे स्नान?, न श्रद्धा- घृणा उपजती.
नदियों को उजाड़कर मानव बस्ती बसती..
लगता है भयभीत, नीर है ठहरा-ठहरा.....

लाज, हया, ना शर्म, मरा आँखों का पानी.
तरसेगा पानी को, भर आँखों में पानी..
सुधर मनुज वर्ना तरसेगी भावी पीढ़ी.
कब्र बनेगी धरा, न पाए देहरी-सीढ़ी..
कहीं न मिलता कुआँ, मधुर जल गहरा-गहरा....

शेष न होगी तेरी कोई यहाँ कहानी.
पानी-पानी हो, तज दे अब तो नादानी..
जलसंरक्षण कर, बारिश में व्यर्थ बहा मत.
अंजुरी भर-भर पान किये जा जल है अमृत.
हर सर, नदी, ताल पर दे अब पहरा-पहरा.....
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