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रविवार, 13 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: जमीं बिस्तर है --- संजीव वर्मा 'सलिल'

मुक्तिका:

जमीं बिस्तर है

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जमीं बिस्तर है, दुल्हन ज़िंदगी है.
न कुछ भी शेष धर तो बंदगी है..

नहीं कुदरत करे अपना-पराया.
दिमागे-आदमी की गंदगी है..

बिना कोशिश जो मंजिल चाहता है
इरादों-हौसलों की मंदगी है..

जबरिया बात मनवाना किसी से
नहीं इंसानियत, दरिन्दगी है..

बात कहने से पहले तौल ले गर
'सलिल' कविताई असली छंदगी है..

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बुधवार, 3 नवंबर 2010

एक कविता: दिया संजीव 'सलिल'

एक कविता:                       

दिया

संजीव 'सलिल'
*
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला.
फिर भर्र कभी
हाथों को नहीं मला.
होठों को नहीं सिला.
न किया शिकवा गिला.
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
*

सोमवार, 20 सितंबर 2010

मुक्तिका: आँख नभ पर जमी संजीव 'सलिल

मुक्तिका:
आँख नभ पर जमी

संजीव 'सलिल'
*
आँख नभ पर जमी तो जमी रह गई.
साँस भू की थमी तो थमी रह गई.
*
सुब्ह सूरज उगा, दोपहर में तपा.
साँझ ढलकर, निशा में नमी रह गई..
*
खेत, खलिहान, पनघट न चौपाल है.
गाँव में शेष अब, मातमी रह गई..
*
रंग पश्चिम का पूरब पे ऐसा चढ़ा.
असलियत छिप गई है, डमी रह गई..
*
जो कमाया गुमा, जो गँवाया मिला.
ज़िन्दगी में तुम्हारी, कमी रह गई..
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