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सोमवार, 18 सितंबर 2017

shringaar geet

श्रृंगार गीत:
हरसिंगार मुस्काए
संजीव 'सलिल'
*
खिलखिलायीं पल भर तुम
हरसिंगार मुस्काए
अँखियों के पारिजात
उठें-गिरें पलक-पात
हरिचंदन देह धवल
मंदारी मन प्रभात
शुक्लांगी नयनों में
शेफाली शरमाए
परिजाता मन भाता
अनकहनी कह जाता
महुआ मन महक रहा
टेसू तन झुलसाता
फागुन में सावन की
हो प्रतीति भरमाए
कर-कुदाल-कदम माथ
पनघट खलिहान साथ, 
सजनी-सिन्दूर सजा-
चढ़ सिउली सजन-माथ?
हिलमिल चाँदनी-धूप
धूप-छाँव बन गाए
*
हरसिंगार पर्यायवाची: हरिश्रृंगार, पारिजात, शेफाली, श्वेतकेसरी, हरिचन्दन, शुक्लांगी, मंदारी, परिजाता, पविझमल्ली, सिउली, night jasmine, coral jasmine, jasminum nitidum, nycanthes arboritristis, nyclan. 
salil.sanjiv@gmail.com,९४२५१८३२४४
http://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

geet

हिन्दयुग्म मंगलवार ९-१२-२००८ 

चाँद वसुधा पर उतारूं...

नीरज के बाद गीत-रचना के फ़लक पर बहुत कम सितारे चमकते नज़र आते हैं। उन्हीं कम सितारों में से एक हैं आचार्य संजीव 'सलिल' जो टिप्पणियों में को भी गीत विधा में लिखते रहे हैं। एक अच्छी ख़बर यह है कि जल्द ही हिन्द-युग्म पर 'दोहा और इसका छंद-व्यवहार' की कक्षाएँ लेकर उपस्थित होने वाले हैं। आज हम इनका एक गीत अपने पाठकों के लिए लेकर उपस्थित हैं, जिसने नवम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में सातवाँ स्थान बनाया। संजीव के बारे में अधिक जानने के लिए क्लिक करें-

पुरस्कृत कविता- गीत


भाग्य निज पल-पल सराहूँ,
जीत तुमसे, मीत हारूँ.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एक टक तुमको निहारूँ...
*
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूँ...
*
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ है.
विदेहित है देह त्रिभुवन,
मन मुखर काकातुआ है.
अछूते प्रतिबिम्ब की,
अंजुरी अनूठी विहँस वारूँ...
*
बाँह में ले बाँह, पूरी
चाह कर ले, दाह तेरी.
थाह पाकर भी न पाये,
तपे शीतल छाँह तेरी.
विरह का हर पल युगों सा,
गुजारा, उसको बिसारूँ...
*
बजे नूपुर, खनक कँगना,
कहे छूटा आज अँगना.
देहरी तज देह री! रँग जा,
पिया को आज रँग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ, पी कहँ? पुकारूँ...
*
पंचशर साधे निहत्थे पर,
कुसुम आयुध चला, चल.
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चाँदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूँ...
***