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रविवार, 29 अक्टूबर 2017

navgeet

नवगीत:
ज़िम्मेदार
नहीं है नेता
छप्पर औरों पर 
धर देता
वादे-भाषण
धुआंधार कर
करे सभी सौदे
उधार कर
येन-केन
वोट हर लेता
सत्ता पाते ही
रंग बदले
यकीं न करना
किंचित पगले
काम पड़े
पीठ कर लेता
रंग बदलता
है पल-पल में
पारंगत है
बेहद छल में
केवल अपनी
नैया खेता
***

muktak

मुक्तक 
विदा दें, बाद में बात करेंगे, नेता सा वादा किया, आज जिसने 
जुमला न हो यह, सोचूँ हो हैरां, ठेंगा दिखा ही दिया आज उसने 
गोदी में खेला जो, बोले दलाल वो, चाचा-भतीजा निभाएं न कसमें 
छाती कठोर है नाम मुलायम, लगें विरोधाभास ये रसमें 

गुरुवार, 10 अगस्त 2017

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
बम भोले है अपनी जनता
देती छप्पर फाड़ के.
जो पाता वो खींच चीथड़े
मोल लगाता हाड़ के.
नेता, अफसर, सेठ त्रयी मिल
तीन तिलंगे कूटते.
पत्रकार चंडाल चौकड़ी
बना प्रजा को लूटते.
किससे गिला शिकायत शिकवा
करें न्याय भी बंदी है.
पुलिस नहीं रक्षक, भक्षक है
थाना दंदी-फंदी है.
काले कोट लगाये पहरा
मनमर्जी करते भाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
पण्डे डंडे हो मुस्टंडे
घात करें विश्वास में.
व्यापम झेल रहे बरसों से
बच्चे कठिन प्रयास में.
मार रहे मरते मरीज को
डॉक्टर भूले लाज-शरम.
संसद में गुंडागर्दी है
टूट रहे हैं सभी भरम.
सीमा से आतंक घुस रहा
कहिए किसको फ़िक्र है?
जो शहीद होते क्या उनका
इतिहासों में ज़िक्र है?
पैसे वाले पद्म पा रहे
ताली पीट रहे दाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
सेवा से मेवा पाने की
रीति-नीति बिसरायी है.
मेवा पाने ढोंग बनी सेवा
खुद से शरमायी है.
दूरदर्शनी दुनिया नकली
निकट आ घुसी है घर में.
अंग्रेजी ने सेंध लगा ली
हिंदी भाषा के स्वर में.
मस्त रहो मस्ती में, चाहे
आग लगी हो बस्ती में.
नंगे नाच पढ़ाते ऐसे
पाठ जां गयी सस्ते में.
आम आदमी समझ न पाये
छुरा भौंकते हैं ताऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
salil.sanjiv@gmail.com
९४२५१८३२४४
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी+ब्लॉगर

बुधवार, 14 जून 2017

muktak

चंद मुक्तक
*
कलम तलवार से ज्यादा, कहा सच वार करती है.
जुबां नारी की लेकिन सबसे ज्यादा धार धरती है.
महाभारत कराया द्रौपदी के व्यंग बाणों ने-
नयन के तीर छेदें तो न दिल की हार खलती है..
*
कलम नीलाम होती रोज ही अखबार में देखो.
खबर बेची-खरीदी जा रही बाज़ार में लेखो.
न  माखनलाल जी ही हैं, नहीं विद्यार्थी जी हैं-
रखे अख़बार सब गिरवी  स्वयं सरकार ने देखो.
*
बहाते हैं वो आँसू छद्म, छलते जो रहे अब तक.
हजारों मर गए पर शर्म इनको आयी ना अब तक.
करो जूतों से पूजा देश के नेताओं की मिलकर-
करें गद्दारियाँ जो 'सलिल' पायें एक भी ना मत..
*
वसन हैं श्वेत-भगवा किन्तु मन काले लिये नेता.
सभी को सत्य मालुम, पर अधर अब तक सिये नेता.
सभी दोषी हैं इनको दंड दो, मत माफ़ तुम करना-
'सलिल' पी स्वार्थ की मदिरा सतत, अब तक जिए नेता..
*
जो सत्ता पा गए हैं बस चला तो देश बेचेंगे.
ये अपनी माँ के फाड़ें वस्त्र, तन का चीर खीचेंगे.
यही तो हैं असुर जो देश से गद्दारियाँ करते-
कहो कब हम जागेंगे और इनको दूर फेंकेंगे?
*
तराजू न्याय की थामे हुए हो जब कोई अंधा.
तो काले कोट क्यों करने से चूकें सत्य का धंधा.
खरीदी और बेची जा रही है न्याय की मूरत-
'सलिल' कोई न सूरत है न हो वातावरण गन्दा.
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

बुधवार, 22 मार्च 2017

haiku geet

हाइकु गीत
*
लोकतंत्र में
मनमानी की छूट
सभी ने पाई।
*
          सबको प्यारा
          अपना दल-दल
          कहते न्यारा।
          बुरा शेष का
          तुरत ख़तम हो
          फिर पौबारा।
लाज लूटते
मिल जनगण की
कह भौजाई।
*
          जिसने लूटा
          वह कहता: 'तुम
          सबने लूटा।
          अवसर पा
          लूटता देश, हर
          नेता झूठा।
वादा करते
जुमला कहकर
जीभ चिढ़ाई।
*
          खुद अपनी
          मूरत बनवाते
          शर्म बेच दी।
          संसद ठप
          भत्ते लें, लाज न
          शेष है रही।
कर बढ़वा
मँहगाई सबने
खूब बढ़ाई।
***

बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत:

ज़िम्मेदार
नहीं है नेता
छप्पर औरों पर
धर देता

वादे-भाषण
धुआंधार कर
करे सभी सौदे
उधार कर
येन-केन
वोट हर लेता

सत्ता पाते ही
रंग बदले
यकीं न करना
किंचित पगले
काम पड़े
पीठ कर लेता 

रंग बदलता
है पल-पल में
पारंगत है
बेहद छल में
केवल अपनी
नैया खेता

*** 

रविवार, 7 सितंबर 2014

vimarsh: nare aur netagiri -sanjiv

विमर्श:

नारे और नेतागिरी: 

संजीव 
*
नारे और नेतागिरी का चोली- दामन का सा साथ है। नारा लगाना अर्थात अपनी बात अनगिन लोगों तक एक पल में पहुँचाना और अर्थात अनगिन लोगों की आवाज़ अपने आवाज़ में मिलवाकर उनका नायक बन जाना।  

नारा कठिन बात को सरल बनाकर प्रस्तुत करता है ताकि आम आदमी भी दिमाग पर जोर दिए बिना समझ सके।   

नारा 'देखें में छोटे लगें घाव करें गंभीर' की तर्ज़ पर कम से कम शब्दों में लंबी बात कहता है।

नारा किसी बात को प्रभावशाली तरीके से कहता है। 

बहुधा नारा सुनते ही नारा देनेवाला स्मरण हो आता है. 'बम भोले' से भगवन शिव, 'राम-राम' से श्री राम, 'कर्मण्यवाधिकारस्ते' से श्री कृष्ण का अपने आप स्मरण हो आता है। उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' (उठो, जागो, मनचाहा प्राप्त करो) से स्वामी विवेकानंद, स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है' से लोकमान्य तिलक याद आते हैं। 'इंकलाब ज़िंदाबाद' से अमर क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह  और  'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा' या 'जय हिन्द' सुनते ही नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में सर झुक जाता है। 'अंग्रेजों भारत छोडो' सुनकर गांधी जी, पंचशील का सार 'जियो और जीने दो' सुनकर जवाहरलाल  नेहरू, 'जय जवान जय किसान' सुनकर लाल बहादुर शास्त्री को कौन याद नहीं करता?  

भरत के प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी जी ने नारा कल को नारा विज्ञानं में परिवर्तित करने का प्रयास किया है। हर स्थान और योजना के अनुरूप विचारों को सूत्रबद्ध कर लोक-लुभावन शब्दावली में प्रस्तुत करने में मोदी जी का सानी नहीं ।  

- प्रधानमंत्री नहीं प्रधानसेवक 

- इ गवर्नेंस की तरह ईजी गवर्नेंस 

- चीन से स्पर्धा हेतु ३ एस: स्किल (कुशलता), स्केल (परिमाण/पैमाना), स्पीड (गति)

- आर्थिक छुआछूत: साधनहीनों को बैंक प्रणाली से जोड़ना 

- भारत-नेपाल रिश्ते: एच आई टी : हाई वे, इंफोर्मेशन वे, ट्रांसमिशन वे 

- लेह: ३ पी प्रकाश, पर्यावरण, पर्यटन 

- जापान ३ डी: डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी, डिमांड 

- ज़ीरो इफेक्ट - ज़ीरो डिफेक्ट 

-  मेड इन इंडिया, मेक इन इंडिया 

- किसान समस्या: लैब टू लैंड, पर ड्राप मोर क्रॉप, कम जमीन कम समय अधिक फसल 

- ५ टी: ट्रेडिशन, टैलेंट, टूरिज्म, ट्रेड, टेक्नोलॉजी 

यह है मात्र १०० दिनों की उपलब्धि, इस गति से ५ वर्षों में एक पुस्तक सूत्रों की ही तैयार हो जाएगी।

निस्संदेह ये सूत्र और नारे अख़बारों की सुर्खियां बनेंगे किन्तु इनकी द्रुत गति से बढ़ती संख्या क्या इन्हें अल्पजीवी और विस्मरणीय नहीं बना देगी? 

क्या हर दिन नया नारा देने के स्थान पर एक नारे को लेकर लंबे समय तक जनमानस को उत्प्रेरित करना अधिक उपयुक्त न होगा? 

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

kundali salila: kutte -sanjiv

कुंडली सलिला:
कुत्ते
संजीव
*
कुत्ते सहज सुप्राप्य हैं, देख न जाएँ चौंक
कुछ काटें बेबात ही, कुछ चुप होते भौंक
कुछ चुप होते भौंक, पैर दो कुछ के पाये 
देशद्रोह-आतंक हमेशा इनको भाये
टुंडा-भटकल जैसों को मिल मारें जुत्ते
अतिथि सदृश मत पालें शर्मिन्दा हों कुत्ते
*
देखें निकट चुनाव तो, कुत्ते माइक थाम
चौराहों पर करेंगे, निश-दिन ट्राफिक जाम
निश-दिन ट्राफिक जाम, न अनुशासन मानेंगे
लोकतंत्र को हर पल, सूली पर टाँगेंगे
'सलिल' मुलायम मैडम मोदी को प्रभु लेखें
बच पायें तो बचें, निकट जब कुत्ते देखें
*
काट सकें जो पालते, नेता वे ही श्वान
या नेता-गुण ग्रहण कर, काटें कुत्ते कान
काटें कुत्ते कान, सत्य क्या बतला भाया?
वैक्सीन क्या? कहाँ मिले? ला दे- कर दाया
सुन सवाल कुत्ते कहें, खड़ी न करिए खाट
कुत्ता कुत्ते का इलाज, ज्यों जहर जहर की काट
*

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

नवगीत:


कम लिखता हूँ...


--संजीव 'सलिल'
*
क्या?, कैसा है??
क्या बतलाऊँ??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत में
केवल गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही अमंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...

***************

बुधवार, 29 जून 2011

सामयिक मुक्तिका: क्यों???... संजीव 'सलिल'

सामयिक मुक्तिका:
क्यों???...
संजीव 'सलिल'
*
छुरा पीठ में भोंक रहा जो उसको गले लगाते क्यों?
कर खातिर अफज़ल-कसाब की, संतों को लठियाते क्यों??

पगडंडी-झोपड़ियाँ तोड़ीं, राजमार्ग बनवाते हो.
जंगल, पर्वत, नदी, सरोवर, निष्ठुर रोज मिटाते क्यों??

राम-नाम की राजनीति कर, रामालय को भूल गये.
नीति त्याग मजबूरी को गाँधी का नाम बताते क्यों??

लूट देश को, जमा कर रहे- हो विदेश में जाकर धन.
सच्चे हैं तो लोकपाल बिल, से नेता घबराते क्यों??

बाँध आँख पर पट्टी, तौला न्याय बहुत अन्याय किया.
असंतोष की भट्टी को, अनजाने ही सुलगाते क्यों??

घोटालों के कीर्तिमान अद्भुत, सारा जग है विस्मित.
शर्माना तो दूर रहा, तुम गर्वित हो इतराते क्यों??

लगा जान की बाजी, खून बहाया वीर शहीदों ने.
मण्डी बना देश को तुम, निष्ठा का दाम लगाते क्यों??

दीपों का त्यौहार मनाते रहे, जलाकर दीप अनेक.
हर दीपक के नीचे तम को, जान-बूझ बिसराते क्यों??

समय किसी का सगा न होता, नीर-क्षीर कर देता है.
'सलिल' समय को असमय ही तुम, नाहक आँख दिखाते क्यों??
*********

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

एक मुक्तिका: हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे ----- संजीव 'सलिल'

एक मुक्तिका:

हम कैसे इस बात को मानें कहने को संसार कहे

संजीव 'सलिल'
*
सार नहीं कुछ परंपरा में, रीति-नीति निस्सार कहे.
हम कैसे इस बात को मानें, कहने को संसार कहे..

रिश्वत ले मुस्काकर नेता, उसको शिष्टाचार कहे.
जैसे वैश्या काम-क्रिया को, साँसों का सिंगार कहे..

नफरत के शोले धधकाकर, आग बर्फ में लगा रहा.
छुरा पीठ में भोंक पड़ोसी, गद्दारी को प्यार कहे..

लूट लिया दिल जिसने उसपर, हमने सब कुछ वार दिया.
अब तो फर्क नहीं पड़ता, युग इसे जीत या हार कहे..

चेला-चेली पाल रहा भगवा, अगवाकर श्रृद्धा को-
रास रचा भोली भक्तन सँग, पाखंडी उद्धार कहे..

जिनसे पद शोभित होता है, ऐसे लोग नहीं मिलते.
पद पा शोभा बढ़ती जिसकी, 'सलिल' उसे बटमार कहे..

लेना-देना लाभ कमाना, शासन का उद्देश्य हुआ.
फिर क्यों 'सलिल' प्रशासन कहते?, क्यों न महज व्यापार कहे?

जो बिन माँगे मिल जाता है 'सलिल' उसे उपहार कहें.
प्रीत मिले जब प्रीतम से तो, कैसे हम आभार कहें??

अभिनव अरुण रोज उगता है, क्यों न इसे उजियार कहें.
हो हताश चुक जाती रजनी, 'सलिल' उसे अँधियार कहें..

दान न देकर दानी बनते, जो ऐसों पर कहर गिरे.
देकर जो गुमनाम रहे. उस दानी को खुद्दार कहें..

बाग़ बगावत का बागी ने, खून से सींचा है यारों.
जो कलियों को रौंदे उसको, मारें हम गद्दार कहें..

मिले हीर से शाबाशी तो, हर-कीरत मत भुला 'सलिल'.
हर-कीरत बिन इस दुनिया को, बेशक सब मंझधार कहें..

इन्द्र धर्म का सिंह साथ हो, तो दम आ ही जाती है.
कर्म किये बिन छह रहे फल, जो उनको सरकार कहें..

दाद दीजिये मगर खाज-खुजली से प्रभुजी दूर रखें.
है प्रताप राणा का, इंगित को भी अरि तलवार कहें..

वीर इंद्र का वंदन कर सुर, असुरों पर जय पाते हैं.
ससुरों को ले वज्र पछाड़े उसको सुर-सरदार कहें..

चन्दन जिसके माथे सोहे, हो वह देह विदेह 'सलिल'.
कालकूट को कंठ धारकर, जय-जय-जय ओंकार कहें..

तपन अगन झुलसन को सहना, सबके बस की बात नहीं.
आरामों के आदी मत हो. यह सच बारम्बार कहें..

खिले पंक में किन्तु पंक से, मलिन न होता है पंकज.
शतदल के आचरण-वरन को, शुभ-सत का स्वीकार कहें..

मुश्किल बहुत दिगंबर होना, नंगा होना है आसान.
सब में रब दिख पाए जब तो, 'सलिल' उसे दीदार कहे..

शनिवार, 6 नवंबर 2010

व्यंग्य रचना: दीवाली : कुछ शब्द चित्र: संजीव 'सलिल'

व्यंग्य रचना:                                                                                   
दीवाली : कुछ शब्द चित्र:
संजीव 'सलिल'
*
माँ-बाप को
ठेंगा दिखायें.
सास-ससुर पर
बलि-बलि जायें.
अधिकारी को
तेल लगायें.
गृह-लक्ष्मी के
चरण दबायें.
दिवाली मनाएँ..
*
लक्ष्मी पूजन के
महापर्व को
सार्थक बनायें.
ससुरे से मांगें
नगद-नारायण.
न मिले लक्ष्मी
तो गृह-लक्ष्मी को
होलिका बनायें.
दूसरी को खोजकर,
दीवाली मनायें..
*
बहुमत न मिले
तो खरीदें.
नैतिकता को
लगायें पलीते.
कुर्सी पर
येन-केन-प्रकारेण
डट जाए.
झूम-झूमकर
दीवाली मनायें..
*
बोरी में भरकर
धन ले जाएँ.
मुट्ठी में समान
खरीदकर लायें.
मँहगाई मैया की
जट-जयकार गुंजायें
दीवाली मनायें..
*
बेरोजगारों के लिये
बिना पूंजी का धंधा,
न कोई उतार-चढ़ाव,
न कभी पड़ता मंदा.
समूह बनायें,
चंदा जुटायें,
बेईमानी का माल
ईमानदारी से पचायें.
दीवाली मनायें..
*
लक्ष्मीपतियों और
लक्ष्मीपुत्रों की
दासों उँगलियाँ घी में
और सिर कढ़ाई में.
शारदासुतों  की बदहाली,
शब्दपुत्रों की फटेहाली,
निकल रहा है दीवाला,
मना रहे हैं दीवाली..
*
राजनीति और प्रशासन,
अनाचार और दुशासन.
साध रहे स्वार्थ,
तजकर परमार्थ.
सच के मुँह पर ताला.
बहुत मजबूत
अलीगढ़वाला.
माना रहे दीवाली,
देश का दीवाला..
*
ईमानदार की जेब
हमेशा खाली.
कैसे मनाये होली?
ख़ाक मनाये दीवाली..
*
अंतहीन शोषण,
स्वार्थों का पोषण,
पीर, व्यथा, दर्द दुःख,
कथ्य कहें या आमुख?
लालच की लंका में
कैद संयम की सीता.
दिशाहीन धोबी सा
जनमत हिरनी भीता.
अफसरों के करतब देख
बजा रहा है ताली.
हो रहे धमाके
तुम कहते हो दीवाली??
*
अरमानों की मिठाई,
सपनों के वस्त्र,
ख़्वाबों में खिलौने
आम लोग त्रस्त.
पाते ही चुक गई
तनखा हरजाई.
मुँह फाड़े मँहगाई
जैसे सुरसा आई.
फिर भी ना हारेंगे.
कोशिश से हौसलों की
आरती उतारेंगे.
दिया एक जलाएंगे
दिवाली मनाएंगे..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

खबरदार कविता: सत्ता का संकट --संजीव 'सलिल'

खबरदार कविता:

सत्ता का संकट
(एक अकल्पित राजनीतिक ड्रामा)
संजीव 'सलिल'
*
एक यथार्थ की बात
बंधुओं! तुम्हें सुनाता हूँ.
भूल-चूक के लिए न दोषी,
प्रथम बताता  हूँ..

नेताओं  की समझ में
आ गई है यह बात
करना है कैसे
सत्ता सुंदरी से साक्षात्?

बड़ी आसान है यह बात-
सेवा का भ्रम  को छोड़ दो
स्वार्थ से नाता जोड़ लो
रिश्वत लेने में होड़ लो.

एक बार हो सत्ता-से भेंट
येन-केन-प्रकारेण बाँहों में लो समेट.
चीन्ह-चीन्हकर भीख में बाँटो विज्ञापन.
अख़बारों में छपाओ: 'आ गया सुशासन..

लक्ष्मी को छोड़ कर
व्यर्थ हैं सारे पुरुषार्थ.
सत्ताहीनों को ही
शोभा देता है परमार्थ.

धर्म और मोक्ष का
विरोधी करते रहें जाप.
अर्थ और काम से
मतलब रखें आप.

विरोधियों की हालत खस्ता हो जाए.
आपकी खरीद-फरोख्त उनमें फूट बो जाए.
मुख्यमंत्री और मंत्री हों न अब बोर.
सचिवों / विभागाध्यक्षों की किस्मत मारे जोर.

बैंक-खाते, शानदार बंगले, करोड़ों के शेयर.
जमीनें, गड्डियाँ और जेवर.
सेक्स और वहशत की कोई कमी नहीं.
लोकायुक्त की दहशत  जमी नहीं.

मुख्यमंत्री ने सोचा
अगले चुनाव में क्या होगा?
छीन तो न जाएगा
सत्ता-सुख जो अब तक भोगा.

विभागाध्यक्ष का सेवा-विस्तार,
कलेक्टरों बिन कौन चलाये सत्ता -संसार?
सत्ता यों ही समाप्त कैसे हो जाएगी?
खरीदो-बेचो की नीति व्यर्थ नहीं जाएगी.

विपक्ष में बैठे दानव और असुर.
पहुँचे केंद्र में शक्तिमान और शक्ति के घर.  
कुटिल दूतों को बनाया गया राज्यपाल.
मचाकर बवाल, देते रहें हाल-चाल.

प्रभु मनमोहन हैं अन्तर्यामी
चमकदार समारोह से छिपाई खामी.
कौड़ी का सामान करोड़ों के दाम.
खिलाड़ी की मेहनत, नेता का नाम.

'मन' से 'लाल' के मिलन की 'सुषमा'.
नकली मुस्कान... सूझे न उपमा.
दोनों एक-दूजे पर सदय-
यहाँ हमारी, वहाँ तुम्हारी जय-जय.

विधायकों की मनमानी बोली.
खाली न रहे किसी की झोली.
विधानसभा में दोबारा मतदान.
काटो सत्ता का खेत, भरो खलिहान.

मनाते मनौती मौन येदुरप्पा.
अचल रहे सत्ता, गाऊँ ला-रा-लप्पा.
भारत की सारी ज़मीन...
नेता रहे जनता से छीन.

जल रहा रोम, नीरो बजाता बीन.
कौन पूछे?, कौन बताये? हालत संगीन.
सनातन संस्कृति को, बनाकर बाज़ार.
कर रहे हैं रातें रंगीन.


***************

बुधवार, 25 अगस्त 2010

गीत: आराम चाहिए... संजीव 'सलिल'

गीत:

आराम चाहिए...

संजीव 'सलिल'
*













*
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे हैं.
देश भाड़ में जाये हमें क्या?
सुविधाओं संग काम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
स्वार्थ साधते सदा प्रशासक.
शांति-व्यवस्था के खुद नाशक.
अधिनायक हैं लोकतंत्र के-
हम-वे दुश्मन से भी घातक.
अवसरवादी हैं हम पक्के
लेन-देन  बेनाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
सौदे करते बेच देश-हित,
घपले-घोटाले करते नित.
जो चाहो वह काम कराओ-
पट भी अपनी, अपनी ही चित.
गिरगिट जैसे रंग बदलते-
हमको ऐश तमाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
वादे करते, तुरत भुलाते.
हर अवसर को लपक भुनाते.
हो चुनाव तो जनता ईश्वर-
जीत उन्हें ठेंगा दिखलाते.
जन्म-सिद्ध अधिकार लूटना
'सलिल' स्वर्ग सुख-धाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
****************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

*

सोमवार, 14 जून 2010

चंद मुक्तक -संजीव 'सलिल'

चंद मुक्तक
संजीव 'सलिल'
*















*
कलम तलवार से ज्यादा, कहा सच वार करती है.
जुबां नारी की लेकिन सबसे ज्यादा धार धरती है.
महाभारत कराया द्रौपदी के व्यंग बाणों ने-
नयन के तीर छेदें तो न दिल की हार खलती है..
*
कलम नीलाम होती रोज ही अखबार में देखो.
खबर बेची-खरीदी जा रही बाज़ार में लेखो.
न माखनलाल जी ही हैं, नहीं विद्यार्थी जी हैं-
रखे अख़बार सब गिरवी स्वयं सरकार ने देखो.
*
बहाते हैं वो आँसू छद्म, छलते जो रहे अब तक.
हजारों मर गए पर शर्म इनको आयी ना अब तक.
करो जूतों से पूजा देश के नेताओं की मिलकर-
करें गद्दारियाँ जो 'सलिल' पायें एक भी ना मत..
*
वसन हैं श्वेत-भगवा किन्तु मन काले लिये नेता.
सभी को सत्य मालुम, पर अधर अब तक सिये नेता.
सभी दोषी हैं इनको दंड दो, मत माफ़ तुम करना-
'सलिल' पी स्वार्थ की मदिरा सतत, अब तक जिए नेता..
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जो सत्ता पा गए हैं बस चला तो देश बेचेंगे.
ये अपनी माँ के फाड़ें वस्त्र, तन का चीर खीचेंगे.
यही तो हैं असुर जो देश से गद्दारियाँ करते-
कहो कब हम जागेंगे और इनको दूर फेंकेंगे?
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तराजू न्याय की थामे हुए हो जब कोई अंधा.
तो काले कोट क्यों करने से चूकें  सत्य का धंधा.
खरीदी और बेची जा रही है न्याय की मूरत-
'सलिल' कोई न सूरत है न हो वातावरण गन्दा.
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम