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बुधवार, 30 सितंबर 2015

chitra alankar

: अलंकार चर्चा १३ :
चित्रमूलक अलंकार
काव्य रचना में समर्थ कवि ऐसे शब्द-व्यवस्था कर पाते हैं जिनसे निर्मित छंदों को विविध आकृतियों चक्र, चक्र-कृपाण, स्वस्तिक, कामधेनु, पताका, मंदिर, नदी, वृक्ष आदि चित्रों के रूप में अंकित किया सकता है.
कुछ छंदों को किसी भी स्थान से पढ़ा जा सकता है औए उनसे विविध अन्य छंद बनते चले जाते हैं. इस वर्ग के अंतर्गत प्रश्नोत्तर, अंतर्लिपिका, बहिर्लिपिका, मुकरी आदि शब्द चमत्कारतयुक्त काव्य रचनाएँ समाहित की जा सकती हैं.
चित्र काव्य का मुख्योद्देश्य मनोरंजन है. इसका रसात्मक पराभव नगण्य है. इस अलंकार में शब्द वैचित्र्य और बुद्धिविलास के तत्व प्रधान होते हैं.
शोध लेख:
चित्र मूलक अलंकार और चित्र काव्य
हिंदी साहित्य में २० वीं सदी तक चित्र काव्य का विस्तार हुआ. चित्र काव्य के अनेक भेद-विभेद इस कालखण्ड में विकसित हुए. प्राचीन काव्य ग्रंथों में इनका व्यवस्थित उल्लेख प्राप्त है. सामंतवादी व्यवस्था में राज्याश्रय में चित्र अलंकार के शब्द-विलास और चमत्कार को विशेष महत्व प्राप्त हुआ. फलत: उत्तरमध्ये काल और वर्तमान काल के प्रथम चरण में समस्यापूर्ति का काव्य विधा के रूप में प्रचलन और लोकप्रियता बढ़ी. इस तरह के काव्य प्रकार ऐसे समाज में हो रचे, समझे और सराहे जाना संभव है जहाँ पाठक/श्रोता/काव्य मर्मज्ञ को प्रचुर समयवकाश सुलभ हो.
चित्र अलंकार सज्जित काव्य एक प्रकट का कलात्मक विनोद और कीड़ा है. शब्द=वर्ण क्रीड़ा के रूप में ही इसे देखा-समझा-सराहा जाता रहा. संगीत के क्षेत्र में गलेबाजी को लेकर अनेक भाव-संबद्ध अनेक चमत्कारिक पद्धतियाँ और प्रस्तुतियाँ विकसित हुईं और सराही गयीं. इसी प्रकार काव्य शास्त्र में चित्रात्मक अलंकार का विकास हुआ.
चित्र काव्य को १. भाव व्यंजना, २. वास्तु - विचार निरूपण तथा ३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा के दृष्टिकोण से परखा जा सकता है.
१. भाव व्यंजना:
भाव व्यंजना की दृष्टि से चित्र काव्य / चित्र अलंकार का महत्त्व न्यून है. भावभिव्यंजना चित्र रहित शब्द-अर्थ माध्यम से सहज तथा अधिक सारगर्भित होती है. शब्द-चित्र, चैत्र काव्य तथा चित्र अलंकार जटिल तथा गूढ़ विधाएँ हैं. रस अथवा भाव संचार के निकष पर शब्द पढ़-सुन कर उसका मर्म सरलता से ग्रहण किया जा सकता है. यहाँ तक की चक्षुहीन श्रोता भी मर्म तक पहुँच सकता है किन्तु चित्र काव्य को ब्रेल लिपि में अंकित किये बिना चक्षुहीन उसे पढ़-समझ नहीं सकता। बघिर पाठक के लिए शब्द या चित्र देखकर मर्म समान रूप से ग्रहण किया जा सकता है.
२. वास्तु - विचार निरूपण:
निराकार तथा जटिल-विशाल आकारों का चित्रण संभव नहीं है जबकि शब्द प्रतीति करने में समर्थ होते हैं. विपरीत संश्लिष्ट आकारों को शब्द वर्णन कठिन पर चित्र अधिक स्पष्टता से प्रतीति करा सकता है. बाल पाठकों के लिए अदेखे आकारों तथा वस्तुओं का ज्ञान चित्र काव्य बेहतर तरीके से करा सकता है. ज्यामितीय आकारों, कलाकृतियों, शिल्प, शक्य क्रिया आदि की बारीकियाँ एक ही दृश्य में संचारित कर सकता है जबकि शब्द काव्य को वर्णन करने में अनेक काव्य पंक्तियाँ लग सकती हैं.
३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा:
चित्र अलंकारों तथा चित्र काव्य का मूल अधिक रहा है. स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ प्रतिपादित करने के असाधारण शक्ति प्रदर्शन की तरह असाधारण बौद्धिक क्षमता दिखने की वृति चित्रात्मकता के मूल में रही है. चित्र अलंकार तथा चित्र काव्य का प्रयोग करने में समर्थ जन इतने कम हुए हैं कि स्वतंत्र रूप से इसकी चर्चा प्रायः नहीं होती है.
मम्मट आदि संस्कृत काव्याचार्यों ने तथा उन्हीं के स्वर में स्वर मिलते हुई हिंदी के विद्वानों ने चित्र काव्य को अवर या अधम कोटि का कहा है. जीवन तथा काव्य की समग्रता को ध्यान में रखते हुए ऐसा मत उचित नहीं प्रतीत होता. संभव है कि स्वयं प्रयोग न कर पाने की अक्षमता इस मत के रूप में व्यक्त हुई हो. चित्र काव्य में बौद्धिक विलास ही नहीं बौद्धिक विकास की भी संभावना है. चित्र काव्य का एक विशिष्ट स्थान तथा महत्व स्वीकार किये जाने पर रचनाकार इसका अभ्यास कर दक्षता पाकर रचनाकर्म से वर्ग विशेष के ही नहीं सामान्य श्रोताओं-पाठकों को आनंदित कर सकते हैं.
४. नव प्रयोग:
जीवन में बहुविध क्रीड़ाओं का अपना महत्व होता है उसी तरह चित्र काव्य का भी महत्त्व है जिसे पहचाने जाने की आवश्यकता है. पारम्परिक चित्र काव्यलंकारों और उपादानों के साथ बदलते परिवेश तथा वैज्ञानिक उपकरणों ने चित्र काव्य को नये आयाम कराकर समृद्ध किया है. काव्य पोस्टर, चित्रांकन, काव्य-चलचित्र आदि का प्रयोग कर चित्र काव्य के माध्यम से काव्य विधा का रसानंद श्रवण तथा पठन के साथ दर्शन कर भी लिया जा सकेगा. नवकाव्य तथा शैक्षिक काव्य में चित्र काव्य की उपादेयता असंदिग्ध है. शिशु काव्य ( नर्सरी राइम) का प्रभाव तथा ग्रहण-सामर्थ्य में चित्र काव्य से अभूतपूर्व वृद्धि होती है. चित्र काव्य को मूर्तित कर उसे अभिनय विधा के साथ संयोजित किया जा सकता है. इससे काव्य का दृश्य प्रभाव श्रोता-पाठक को दर्शक की भूमिका में ले आता है जहाँ वह एक साथ श्रवणेंद्रिय दृश्येन्द्रित का प्रयोग कर कथ्य से अधिक नैकट्य अनुभव कर सकता है.
चित्र काव्य को रोचक, अधिक ग्राह्य तथा स्मरणीय बनाने में चित्र अलंकार की महती भूमिका है. अत: इसे हे, न्यून या गौड़ मानने के स्थान पर विशेष मानकर इस क्षेत्र के समर्थ रचनाकारों को प्रत्साहित किया जाना आवश्यक है. चित्र काव्य कविता और बच्चों, कम पढ़े या कम समझदार वर्ग के साथ विशेषज्ञता के क्षेत्रों में उपयोगी और प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकता है.
इस दृष्टि से अभिव्यक्ति विश्वम ने २०१४ में लखनऊ में संपन्न वार्षिकोत्सव में उल्लेखनीय प्रयोग किये हैं. श्रीमती पूर्णिमा बर्मन, अमित कल्ला, रोहित रूसिया आदि ने नवगीतों पर चित्र पोस्टर, गायन, अभिनय तथा चलचित्रण आदि विधाओं का समावेश किया. आवश्यक है कि पुरातन चित्र काव्य परंपरा को आयामों में विकसित किया जाए और चित्र अलंकारों रचा, समझ, सराहा जाए.
यहाँ हमारा उद्देश्य काव्य का विश्लेषण नहीं, चित्र अलंकारों से परिचय मात्र है. कुछ उदाहरण देकर इस प्रसंक का पटाक्षेप करते हैं:
उदाहरण:
१. धनुर्बन्ध चित्र: देखें संलग्न चित्र १.
मन मोहन सों मान तजि, लै सब सुख ए बाम
ना तरु हनिहैं बान अब, हिये कुसुम सर बाम









२. गतागति चित्र: देखें संलग्न चित्र २. 
(उल्टा-सीधा एक समान). प्रत्येक पंक्ति का प्रथमार्ध बाएं से दायें तथा उत्तरार्ध दायें से बाएं सामान होता है तथापि पूरी पंक्ति बाएं से दायें पढ़ने पर अर्थमय होती है.
की नी रा न न रा नी की.
सो है स दा दास है सो.
मो हैं को न न को हैं मो.
ती खे न चै चै न खे ती.
______________
I की I नी I रा I न I
______________
I सो I है I स I दा I
______________
I मो I हैं I को I न I
______________
I ती I खे I न I चै I
______________
३. ध्वज चित्र: देखें संलग्न चित्र ३.
भोर हुई किरण, झाँक थपकति द्वार
पुलकित सरगम गा रही, कलरव संग बयार
चलो हम ध्वज फहरा दें.
संग जय हिन्द गुँजा दें.
भोर हुई
सूरज किरण
झाँक थपकती द्वार।
पुलकित सरगम गा रही
कलरव संग बयार।।
चलो
हम
ध्वज
फहरा
दें।
संग
जय
हिन्द
गुँजा
दें।
४. चित्र: देखें संलग्न चित्र ४.
हिंदी जन-मन में बसी, जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर छा रहा कैसा अद्भुत नूर
जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित संतूर
अंग्रेजी-प्रेमी कुढ़ें, देख रहे हैं घूर
हिंदी जग-भाषा बने, विधि को है मंजूर
हिंदी-प्रेमी हो रहे, 'सलिल' हर्ष से चूर

हिंदी
जन-मन में बसी
जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित संतूर
ज कै
ग सा
वा अ
णी ॐ द
प भु
र त
छा नू
रहा र।
अंग्रेजी - प्रेमी कुढ़ें , देख रहे हैं घूर
हिंदी जग - भाषा बने , विधि को है मंजूर
हिंदी - प्रेमी हो रहे , 'सलिल' हर्ष से चूर
५. लगभग ५००० सम सामयिक काव्य कृतियों में से केवल एक में मुझे चित्र मूलक लंकार का प्रभावी प्रयोग देखें मिल. यह महाकाव्य है महाकवि डॉ. किशोर काबरा रचित 'उत्तर भागवत'. बालक कृष्ण तथा सुदामा आदि शिक्षा ग्रहण करने के लिये महाकाल की नगरी उज्जयिनी स्थित संदीपनी ऋषि के आश्रम में भेजे जाते हैं. मालव भूमि के दिव्य सौंदर्य तथा महाकाल मंदिर से अभिभूत कृष्ण द्वारा स्तुति-जयकार प्रसंग चित्र मूलक लंकार द्वारा वर्णित है.
देखें संलग्न चित्र ५.
मालव पठार!
मालव पठार!!
सतपुड़ा, देवगिरि, विंध्य, अरवली-
नगराजों से झिलमिल ज्योतित
मुखरित अभिनन्दित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
चंबल, क्षिप्रा, नर्मदा और
शिवना की जलधाराओं से
प्रतिक्षण अभिसिंचित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
दशपुर, उज्जयिनी, विदिशा, धारा-
आदि नगरियों के जन-जन से
प्रतिपल अभिवन्दित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
*
जय
शंकर,
प्रलयंकर,
महादेव, अभ्यंकर,
गंगाधर शिव,
तुम्हारी जय हो!
जय
हो,
तुम्हरी
जय
हो!
*
गले
व्याल
मुण्डमाल,
बाघम्बर है कराल,
गाते जय
सब जय
दे जय
त्रिता महाका
ल.
चंद्रचूड़, नीलकंठ, मदनशत्रु, वृषारूढ़
डमरूधर शिव, तुम्हारी जय हो!
जय हो! तुम्हारी जय हो !

सिर
पर है
जटा भार,
जटा बीच गंग - धार ,
चंद्र बिल्व
मौलि पत्र
का अर्क
श्रृंगा हा
र .
आशुतोष, चंद्रभाल, भूतेश्वर, मृत्युंजय
पन्नगधर शिव, तुम्हारी जय हो!
जय हो! तुम्हारी जय हो !
शैल
सुता
वाम अंग,
अंग - अंग में अनंग ,
बाजे नाचे
डफ सब
ढोल भूत
चं सं
ग.
उमाकांत, काशीपति, विश्वेश्वर, व्योमकेश
हिमकरधर, शिव तुम्हारी जय हो!
जय हो! तुम्हारी जय हो !
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sarsi chhand

















चित्र पर रचना 
छंद:- सरसी मिलिंद पाद छंद
विधान:-16 ,11 मात्राओं पर यति
चरणान्त:- गुरू लघु
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
दिग्दिगंत-अंबर पर छाया
नील तिमिर घनघोर
निशा झील में उतर नहाये
यौवन-रूप अँजोर
चुपके-चुपके चाँद निहारे
बिम्ब खोलता पोल
निशा उठा पतवार, भगाये
नौका में भूडोल
'सलिल' लहरियों में अवगाहे
निशा लगाये आग
कुढ़ चंदा दिलजला जला है
साक्षी उसके दाग
घटती-बढ़ती मोह-वासना
जैसे शशि भी नित्य
'सलिल' निशा सँग-साथ साधते
राग-विराग अनित्य
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गीत/ geet

मेरी पसंद: 
शम्भू प्रसाद श्रीवास्तव 
*
बीते क्षण तिर आये सारे 
जैसे डल झील में शिकारे 
*
ढलते दिनों की आभा ईंगुरी
फुनगी के पत्तों सी सरक गई
आँगन की सूर्यमुखी हर दिशा
गए-आए पल-सी लरक गई
पूजा का एक दीप बाल रही
विधवा कोई ठाकुरद्वारे
*
अनबुझी अनगिनत पहेलियाँ
जैसे हर आहट में पैठी हैं
गलबहियों के गजरे गूँथने
संयोगिन घड़ियाँ आ बैठी हैं
कोई पाटल अपनी जूही की
एक-एक पाँखुरी दुलारे
*
कबीरा के निर्गुन-सी शून्यता
बजती सारंगी वातास पर
आँसू पोंछे आँचल की छुअन
लगती है हरी-हरी घास पर
आहत मन उठँग गया धीरे से
सुधियों की बांह के सहारे
*

muktak

मुक्तक :
हर रजनी हो शरद पूर्णिमा, चंदा दे उजियाला 
मिले सफलता-सुयश असीमित, जीवन बने शिवाला 
देश-धर्म-मानव के आयें काम सार्थक साँसें-
चित्र गुप्त उज्जवल अंतर्मन का हो दिव्य निराला

haiku

हाइकु 
भाषा-साहित्य 
तलाकशुदा जोड़ा 
मंत्री उवाच.

haiku

हाइकु :
भाषा बाज़ार 
मन से मत चाहो 
बेचो-खरीदो 
*

geet

एक रचना:
संजीव 
*
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा 
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा 
*
तिमिर का नहीं भय, रवि-रश्मि अक्षय
शशि पूर्णिमा का, आभामयी- जय!
करो कल्पना की किरण का कलेवा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*
बजा श्वास वीणा, आशा की सरगम
सफल साधना हो, अंतर हो पुरनम
पुष्पा कुसुम ले, करूँ वंदना नित
सुषमा सुमन की, उठाये न डेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*
प्रणव नाद गूँजे, मन में निरंतर
करे प्रार्थना मन, संध्या सुमिरकर
'सलिल' भारती की सृजन आरती हो
जग में, यही कल प्रभु ने उकेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*

navgeet

नवगीत:
संजीव 
*
समय-समय की बलिहारी है 
*
सौरभ की सीमा बाँधी
पर दुर्गंधों को
छूट मिली है.
भोर उगी है बाजों के घर
गिद्धों के घर
साँझ ढली है.
दिन दोपहरी गर्दभ श्रम कर
भूखा रोता,
प्यासा सोता.
निशा-निशाचर भोग भोगकर
भत्ता पाता
नफरत बोता.
तुलसी बिरवा त्याज्य हुआ है
कैक्टस-नागफनी प्यारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
शूर्पणखायें सज्जित होकर
जनप्रतिनिधि बन
गर्रायी हैं.
किरण पूर्णिमा की तम में घिर
कुररी माफिक
थर्रायी हैं.
दरबारी के अच्छे दिन है
मन का चैन
आम जन खोता.
कुटी जलाता है प्रदीप ही
ठगे चाँदनी
चंदा रोता.
शरद पूर्णिमा अँधियारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
ओम-व्योम अभिमंत्रित होकर
देख रहे
संतों की लीला.
भस्मासुर भी चंद्र-भाल पर
कर धर-भगा
सकल यश लीला.
हरि दौड़ें हिरना के पीछे
होश हिरन,
सत-सिया गँवाकर.
भाषा से साहित्य जुदाकर
सत्ता बेचे
माल बना कर.
रथ्या से निष्ठा हारी है
समय-समय की बलिहारी है
*

doha

दोहा सलिला:
सज्जन के सत्संग को, मान लीजिये स्वर्ग
दुर्जन से पाला पड़े, जितने पल है नर्क
*
मिले पूर्णिमा में शशि-किरणों के संग खीर
स्वर्गोपम सुख पा 'सलिल', तज दे- धर मत धीर
*
आँखों में सपने हसीं, अधरों पर मुस्कान
सुख-दुःख की सीमा नहीं, श्रम कर हों गुणवान
*

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

चित्र मूलक अलंकार

​​
: अलंकार चर्चा १३ :
चित्रमूलक अलंकार 

काव्य रचना में समर्थ कवि ऐसे शब्द-व्यवस्था कर पाते हैं जिनसे निर्मित छंदों को विविध आकृतियों  चक्र, चक्र-कृपाण, स्वस्तिक, कामधेनु, पताका, मंदिर, नदी, वृक्ष आदि चित्रों के रूप में अंकित किया सकता है.

कुछ छंदों को किसी भी स्थान से पढ़ा जा सकता है औए उनसे विविध अन्य छंद बनते चले जाते हैं. इस वर्ग के अंतर्गत प्रश्नोत्तर, अंतर्लिपिका, बहिर्लिपिका, मुकरी आदि शब्द चमत्कारतयुक्त काव्य रचनाएँ समाहित की जा सकती हैं. 

चित्र काव्य का मुख्योद्देश्य मनोरंजन है. इसका रसात्मक पराभव नगण्य है. इस अलंकार में शब्द वैचित्र्य और बुद्धिविलास के तत्व प्रधान होते हैं. 

 शोध लेख:

चित्र मूलक अलंकार और चित्र काव्य 

हिंदी साहित्य में २० वीं सदी तक चित्र काव्य का विस्तार हुआ. चित्र काव्य के अनेक भेद-विभेद इस कालखण्ड में विकसित हुए. प्राचीन काव्य ग्रंथों में इनका व्यवस्थित उल्लेख प्राप्त है. सामंतवादी व्यवस्था में राज्याश्रय में चित्र अलंकार के शब्द-विलास और चमत्कार को विशेष महत्व प्राप्त हुआ. फलत: उत्तरमध्ये काल और वर्तमान काल के प्रथम चरण में समस्यापूर्ति का काव्य विधा के रूप में प्रचलन और लोकप्रियता बढ़ी. इस तरह के काव्य प्रकार ऐसे समाज में हो रचे, समझे और सराहे जाना संभव है जहाँ पाठक/श्रोता/काव्य मर्मज्ञ को प्रचुर समयवकाश सुलभ हो. 

चित्र अलंकार सज्जित काव्य एक प्रकट का कलात्मक विनोद और कीड़ा है. शब्द=वर्ण क्रीड़ा के रूप में ही इसे देखा-समझा-सराहा जाता रहा. संगीत के क्षेत्र में गलेबाजी को लेकर अनेक भाव-संबद्ध अनेक चमत्कारिक पद्धतियाँ और प्रस्तुतियाँ विकसित हुईं और सराही गयीं.  इसी प्रकार काव्य शास्त्र में चित्रात्मक अलंकार का विकास हुआ. 

चित्र काव्य को १. भाव व्यंजना,  २. वास्तु - विचार निरूपण तथा ३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा के दृष्टिकोण से  परखा जा सकता है.  

१. भाव व्यंजना: 
भाव व्यंजना की दृष्टि से चित्र काव्य / चित्र अलंकार का महत्त्व न्यून है. भावभिव्यंजना चित्र रहित शब्द-अर्थ  माध्यम से सहज तथा अधिक सारगर्भित होती है. शब्द-चित्र, चैत्र काव्य तथा चित्र अलंकार जटिल तथा गूढ़ विधाएँ हैं. रस अथवा भाव संचार के निकष पर शब्द पढ़-सुन कर उसका मर्म सरलता से ग्रहण किया जा सकता है. यहाँ तक की चक्षुहीन श्रोता भी मर्म तक पहुँच सकता है किन्तु चित्र काव्य को ब्रेल लिपि में अंकित किये बिना चक्षुहीन उसे पढ़-समझ नहीं सकता। बघिर पाठक के लिए शब्द या चित्र देखकर मर्म समान रूप से ग्रहण किया जा सकता है. 

२. वास्तु - विचार निरूपण: 
निराकार तथा जटिल-विशाल  आकारों का चित्रण संभव नहीं है जबकि शब्द प्रतीति करने में समर्थ होते हैं.  विपरीत संश्लिष्ट आकारों को शब्द वर्णन कठिन पर चित्र अधिक स्पष्टता  से प्रतीति करा सकता है. बाल पाठकों के लिए अदेखे आकारों तथा वस्तुओं का ज्ञान चित्र काव्य बेहतर तरीके से करा सकता है. ज्यामितीय आकारों, कलाकृतियों, शिल्प, शक्य क्रिया आदि की बारीकियाँ  एक ही दृश्य में संचारित कर सकता है जबकि शब्द काव्य को वर्णन करने में अनेक काव्य पंक्तियाँ लग सकती हैं. 

३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा:

चित्र अलंकारों तथा चित्र काव्य का मूल अधिक रहा है. स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ प्रतिपादित करने के  असाधारण शक्ति प्रदर्शन की तरह असाधारण बौद्धिक क्षमता दिखने की वृति चित्रात्मकता के मूल में रही है. चित्र अलंकार तथा चित्र काव्य का प्रयोग करने में समर्थ जन इतने कम हुए हैं कि स्वतंत्र रूप से इसकी चर्चा प्रायः नहीं होती है. 

मम्मट आदि संस्कृत काव्याचार्यों ने तथा उन्हीं के स्वर में स्वर मिलते हुई हिंदी के विद्वानों ने चित्र काव्य को अवर या अधम कोटि का कहा है. जीवन तथा काव्य की समग्रता को ध्यान में रखते हुए ऐसा मत उचित नहीं प्रतीत होता. संभव है कि स्वयं प्रयोग न कर पाने की अक्षमता इस मत के रूप में व्यक्त हुई हो. चित्र काव्य में बौद्धिक विलास ही नहीं बौद्धिक विकास की भी  संभावना है. चित्र काव्य का एक विशिष्ट स्थान तथा महत्व स्वीकार किये जाने पर रचनाकार इसका अभ्यास कर दक्षता पाकर रचनाकर्म से वर्ग विशेष के ही नहीं सामान्य श्रोताओं-पाठकों को आनंदित कर सकते हैं. 

४. नव प्रयोग: 

जीवन में बहुविध क्रीड़ाओं का अपना महत्व होता है उसी तरह चित्र काव्य का भी महत्त्व है जिसे पहचाने जाने की आवश्यकता है. पारम्परिक चित्र काव्यलंकारों और उपादानों के साथ बदलते परिवेश तथा वैज्ञानिक उपकरणों  ने चित्र काव्य को नये आयाम  कराकर समृद्ध किया है. काव्य पोस्टर,  चित्रांकन, काव्य-चलचित्र आदि का प्रयोग कर चित्र काव्य के माध्यम से काव्य विधा का रसानंद श्रवण तथा पठन के साथ दर्शन कर भी लिया जा सकेगा. नवकाव्य तथा शैक्षिक काव्य में चित्र काव्य की उपादेयता असंदिग्ध है. शिशु काव्य ( नर्सरी राइम)   का प्रभाव तथा ग्रहण-सामर्थ्य में चित्र काव्य से अभूतपूर्व वृद्धि होती है. चित्र काव्य को मूर्तित कर उसे अभिनय विधा के साथ संयोजित किया जा सकता है. इससे काव्य का दृश्य प्रभाव श्रोता-पाठक को दर्शक की भूमिका में ले आता है जहाँ वह एक साथ श्रवणेंद्रिय  दृश्येन्द्रित का  प्रयोग कर कथ्य से अधिक नैकट्य अनुभव कर सकता है. 

चित्र काव्य को रोचक, अधिक ग्राह्य तथा स्मरणीय बनाने में चित्र अलंकार की महती भूमिका है.  अत: इसे हे, न्यून या गौड़ मानने के स्थान पर विशेष मानकर इस क्षेत्र के समर्थ रचनाकारों को प्रत्साहित किया जाना आवश्यक है.  चित्र काव्य कविता और बच्चों, कम पढ़े या कम समझदार वर्ग के साथ विशेषज्ञता के क्षेत्रों में उपयोगी और प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकता है. 

इस दृष्टि से अभिव्यक्ति विश्वम ने २०१४ में लखनऊ में संपन्न वार्षिकोत्सव में उल्लेखनीय प्रयोग किये हैं.  श्रीमती पूर्णिमा बर्मन, अमित कल्ला, रोहित रूसिया आदि ने नवगीतों पर चित्र पोस्टर, गायन, अभिनय तथा चलचित्रण आदि विधाओं का समावेश किया. आवश्यक है कि पुरातन चित्र काव्य परंपरा को आयामों में विकसित किया जाए और चित्र अलंकारों  रचा, समझ, सराहा जाए. 

यहाँ  हमारा उद्देश्य  काव्य का विश्लेषण नहीं, चित्र अलंकारों से परिचय मात्र है.  कुछ उदाहरण देकर इस प्रसंक का पटाक्षेप करते हैं: 

उदाहरण:   
१. धनुर्बन्ध चित्र: देखें संलग्न चित्र  १.

    मन मोहन सों मान तजि, लै सब सुख ए बाम 
    ना तरु हनिहैं बान अब, हिये कुसुम सर बाम 
     













२. गतागति चित्र: देखें संलग्न चित्र  २. 
(उल्टा-सीधा एक समान). प्रत्येक पंक्ति का प्रथमार्ध बाएं से दायें तथा उत्तरार्ध दायें से बाएं सामान होता है तथापि  पूरी पंक्ति बाएं से दायें पढ़ने पर अर्थमय होती है. 

    की नी रा न न रा नी की.
    सो है स दा दास है सो.
    मो हैं को न न को हैं मो.
    ती खे न चै चै न खे ती.  

   ______________ 
   I की I  नी I  रा I  न  I 
   ______________ 
   I सो  I  है  I  स I  दा  I
   ______________ 
   I मो I  हैं I  को I  न  I
   ______________ 
   I ती I  खे I  न I  चै  I
   ______________ 

३. ध्वज चित्र: देखें संलग्न चित्र  ३.

    भोर हुई किरण, झाँक थपकति द्वार
    पुलकित सरगम गा रही, कलरव संग बयार
    चलो हम ध्वज फहरा दें.
    संग जय हिन्द गुँजा  दें.  

    भोर हुई 
    सूरज किरण 
    झाँक थपकती द्वार। 
    पुलकित सरगम गा रही     कलरव संग बयार।।    चलो     हम     ध्वज     फहरा     दें।     संग     जय     हिन्द     गुँजा     दें।

४. चित्र: देखें संलग्न चित्र  ४.

     हिंदी जन-मन में बसी,  जन प्रतिनिधि हैं दूर.
     परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
     जनवाणी पर छा रहा कैसा अद्भुत नूर
     जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित  संतूर
     अंग्रेजी-प्रेमी कुढ़ें, देख रहे हैं  घूर
     हिंदी जग-भाषा बने, विधि को है मंजूर
     हिंदी-प्रेमी हो रहे, 'सलिल' हर्ष से चूर 

                                                       ॐ 
                                                      हिंदी 
                                             जन-मन में बसी 
                                           जन प्रतिनिधि हैं दूर.
                                परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
                             जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित  संतूर
                                 ज                                               कै 
                                 ग                                              सा  
                                 वा                                              अ                                      
                                णी                                           द    
                                 प                                               भु  
                                 र                                                त 
                                छा                                               नू 
                                रहा                                              र।  
                        अंग्रेजी   -   प्रेमी   कुढ़ें ,    देख    रहे    हैं    घूर 
                    हिंदी    जग   -   भाषा   बने ,   विधि   को   है   मंजूर 
                हिंदी     -     प्रेमी      हो      रहे ,      'सलिल'      हर्ष      से      चूर
५-६ . पताका अलंकार - देखें निम्न २ चित्र


नर
वानर
सिखाते हैं,
न सद्गुण ही
लुभाते है, पुजा
है रूप-रूपया ही।
*
रश्मि
तम को
मिटाने में
मदद कर।
हम नयी प्रात
उगा सकें उजली।
*

७. लगभग ५००० सम सामयिक काव्य कृतियों में से केवल एक में मुझे चित्र मूलक लंकार का  प्रभावी प्रयोग देखें मिल. यह महाकाव्य  है महाकवि डॉ. किशोर काबरा रचित 'उत्तर भागवत'. बालक कृष्ण तथा सुदामा आदि शिक्षा ग्रहण करने के लिये महाकाल की नगरी उज्जयिनी स्थित संदीपनी ऋषि के आश्रम में भेजे जाते हैं. मालव भूमि के दिव्य सौंदर्य तथा महाकाल मंदिर  से अभिभूत कृष्ण द्वारा स्तुति-जयकार  प्रसंग चित्र मूलक लंकार द्वारा वर्णित है. 
देखें संलग्न चित्र ५.   

मालव पठार!
मालव पठार!!
सतपुड़ा, देवगिरि, विंध्य, अरवली-
नगराजों से झिलमिल ज्योतित
           मुखरित अभिनन्दित पठार, 
           मालव का अभिनन्दित पठार, 
                        मालव पठार!
                        मालव पठार!!

चंबल, क्षिप्रा, नर्मदा और 
शिवना की जलधाराओं से 
           प्रतिक्षण अभिसिंचित पठार, 
           मालव का अभिनन्दित पठार, 
                        मालव पठार!
                        मालव पठार!!

दशपुर, उज्जयिनी, विदिशा, धारा- 
आदि नगरियों के जन-जन से 
           प्रतिपल अभिवन्दित पठार, 
           मालव का अभिनन्दित पठार, 
                        मालव पठार!
                        मालव पठार!!
                                *
जय 
शंकर,
प्रलयंकर,
महादेव, अभ्यंकर, 
                          गंगाधर शिव,
तुम्हारी जय हो!
जय 
हो,
तुम्हरी 
जय 
हो!
*
                                  गले 
                                 व्याल 
                             मुण्डमाल,  
                  बाघम्बर     है     कराल,
              गाते                                जय 
              सब                                 जय 
              दे                                     जय  
              त्रिता                           महाका 
                                   ल. 
          चंद्रचूड़, नीलकंठ, मदनशत्रु, वृषारूढ़ 
              डमरूधर शिव, तुम्हारी जय हो!
                   जय हो! तुम्हारी जय हो !

                                  सिर  
                                 पर है  
                              जटा भार,  
                  जटा   बीच   गंग  -  धार ,
              चंद्र                                 बिल्व  
             मौलि                                  पत्र  
             का                                      अर्क 
            श्रृंगा                                       हा 
                                   र . 
          आशुतोष, चंद्रभाल, भूतेश्वर, मृत्युंजय  
              पन्नगधर शिव, तुम्हारी जय हो!
                   जय हो! तुम्हारी जय हो !


                                  शैल  
                                 सुता 
                             वाम अंग,  
                  अंग  -  अंग   में   अनंग ,
              बाजे                               नाचे  
              डफ                                 सब 
              ढोल                                भूत   
              चं                                      सं 
                                   ग. 
     उमाकांत, काशीपति, विश्वेश्वर, व्योमकेश 
          हिमकरधर, शिव तुम्हारी जय हो!
                   जय हो! तुम्हारी जय हो !
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रविवार, 27 सितंबर 2015

vakrokti alankar

: अलंकार चर्चा १२ :
अर्थ द्वैत वक्रोक्ति है 


किसी एक के कथन को, दूजा समझे भिन्न 
वक्र उक्ति भिन्नार्थ में, कल्पित लगे अभिन्न 

स्वराघात मूलक अलंकारों में वक्रोक्ति का स्थान महत्वपूर्ण है. किसी काव्य अंश में किसी व्यक्ति द्वारा कही गयी बात में कोई दूसरा व्यक्ति जब मूल से भिन्न अर्थ की कल्पना करता है तब वक्रोक्ति अलंकार होता है. वक्र उक्ति का अर्थ 'मूल से भिन्न' होता है. एक अर्थ में कही गयी बात को जान-बूझकर दूसरे अर्थ में लेने पर वक्रोक्ति अलंकार होता है. 
उदाहरण:

१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
    पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२.

मूल से भिन्न अर्थ की कल्पना श्लेष या काकु द्वारा होती है. इस आधार पर वक्रोक्ति अलंकार के २ प्रकार श्लेष वक्रोक्ति तथा काकु वक्रोक्ति हैं.

श्लेष वक्रोक्ति: 

श्रोता अर्थ विशेष पर, देता है जब जोर 
वक्ता ले अन्यार्थ को, ग्रहण करे गह डोर 
एक शब्द से अर्थ दो, चिपक न छोड़ें हाथ  
वहीं श्लेष वक्रोक्ति हो, दो अर्थों के साथ  

रचें श्लेष वक्रोक्ति कवि, जिनकी कलम समर्थ 
वक्ता-श्रोता हँस करें, भिन्न शब्द के अर्थ 
एक शब्द के अर्थ दो, करे श्लेष वक्रोक्ति 
श्रोता-वक्ता सजग हों, मत समझें अन्योक्ति 
  

जिस काव्यांश में एक से अधिक अर्थवाले शब्द का प्रयोग कर वक्ता का अर्थ एक अर्थ विशेष पर होता है किन्तु श्रोता या पाठक का किसी दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. जहाँ पर एक से अधिक अर्थवाले शब्द का प्रयोग होने पर वक्ता का एक अर्थ पर बल रहता है किन्तु श्रोता का दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. इसका प्रयोग केवल समर्थ कवि कर पाता है चूँकि विपुल शब्द भंडार, उर्वर कल्पना शक्ति तथा छंद नैपुण्य अपरिहार्य होता है.

उदाहरण: 

१. हैं री लाल तेरे?, सखी! ऐसी निधि पाई कहाँ?
               हैं री खगयान? कह्यौं हौं तो नहीं पाले हैं?
   हैं री गिरिधारी? व्है हैं रामदल माँहिं कहुँ?
                  हैं री घनश्याम? कहूँ सीत सरसाले हैं?
   हैं री सखी कृष्णचंद्र? चंद्र कहूँ कृष्ण होत?
                   तब हँसि राधे कही मोर पच्छवारे हैं?
   श्याम को दुराय चन्द्रावलि बहराय बोली 
                   मोरे कैसे आइहैं जो तेरे पच्छवारे हैं? 

२. पौंरि में आपु खरे हरी हैं, बस है न कछू हरि हैं तो हरैवे 
    वे सुनौ कीबे को है विनती, सुनो हैं बिनती तीय कोऊ बरैबे 
    दीबे को ल्याये हैं माल तुम्हें, रगुनाथ ले आये हैं माल लरैबे 
    छोड़िए मान वे पा पकरैं, कहैं, पाप करैं कहैं अबस करैबे 

   इस उदाहरण में 'हरि' के दो अर्थ 'कृष्ण' और 'हारेंगे', विनती के दो अर्थ 'प्रार्थना'  और 'बिना स्त्री के', 'माल' के दो अर्थ 'माला' तथा 'सामान' तथा 'पाप करै' के दो अर्थ 'पैर पकड़ें' तथा 'कुकर्म करें हैं.   

३. कैकेयी सी कोप भवन में, जाने कब से पड़ी हुई है 
   दशरथ आये नहीं मनाने, फाँस ह्रदय में गड़ी हुई है   -चंद्रसेन विराट, ओ गीत के गरुड़, ३२ 

   यहाँ कैकेयी के दो अर्थ 'रानी' तथा 'जनता' और दशरथ के दो अर्थ 'राजा' तथा 'शासक' हैं. 

काकु वक्रोक्ति:

जब विशेष ध्वनि कंठ की, ध्वनित करे अन्यार्थ 
तभी काकु वक्रोक्ति हो, लिखते समझ समर्थ 

'सलिल' काकु वक्रोक्ति में, ध्वनित अर्थ कुछ अन्य 
व्यक्त कंठ की खास ध्वनि, करती- समझें धन्य  

किसी काव्य पंक्ति में कंठ से उच्चरित विशेष ध्वनि के कारण शब्द का मूल से भिन्न दूसरा अर्थ ध्वनित हो तो वहाँ काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है. 

उदाहरण:

 १. भरत भूप सियराम लषन बन, सुनि सानंद सहौंगौ 
    पर-परिजन अवलोकि मातु, सब सुख संतोष लहौंगौ 

    इस उदाहरण में भरतभूप, सानंद तथा संतोष शब्दों का उच्चारण काकु युक्त होने से विपरीत अर्थ ध्वनित होता है. 

२. बातन लगाइ सखान सों न्यारो कै, आजु गह्यौ बृषभान किशोरी 
    केसरि सों तन मंजन कै दियो अंजन आँखिन में बरजोरी 
    हे रघुनाथ कहा कहौं कौतुक, प्यारे गोपालै बनाइ  कै गोरी 
    छोड़ि दियो इतनो कहि कै, बहुरो फिरि आइयो  खेलेन होरी 

    यहाँ 'बहुरो फिरि आइयो' में काकु ध्वनि होने से व्यंग्यार्थ है कि 'अब कभी नहीं आओगे'. 

३. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं?, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
    अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं 

    दुष्यंत कुमार की इस ग़ज़ल में 'मंज़र', 'गाते', ''चिल्लाने', 'तालाब', 'पानी', 'फूल', तथा 'कुम्हलाने' शब्दों में काकु ध्वनि से उत्पन्न व्यंग्यार्थ ने आपातकाल में सेंसरशिप के बावजूद कवि का शासन परिवर्तन का सन्देश लोगों को दिया.  

     

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shlesh alankar ke sartaj senapati

विशेष आलेख: 

श्लेष अलंकार के सरताज सेनापति 

*
भारत में पश्चिम की तरह व्यक्ति को महत्त्व देकर उसके जीवन के पल-पल का विवरण एकत्र करने की परंपरा नहीं है. मूल्यों को सनातन और व्यक्ति की काया को नश्वर मानकर उसकी कार्य-परंपरा को आगे बढ़ाना ही भारत में साध्य रहा है. इसीलिए अप्रतिम ज्ञान के भण्डार वेदों के रचयिता अज्ञात हैं. प्रतिलिप्याधिकार (कॉपीराइट) की मान्यता तो दूर कल्पना भी भारत में नहीं की गयी. 

हिंदी-साहित्य के जिन महत्वपूर्ण कवियों के कृतित्त्व प्राप्त हैं, परंतु व्यक्तित्त्व अज्ञात  है उनमें से एक भक्तिकाल-रीतिकाल के संधिकाल में हुए कवि 'सेनापति' के विषय में  मात्र एक कवित्त प्राप्त है:


"दीक्षित परसराम, दादौ है विदित नाम, जिन कीने यज्ञ, जाकी जग में बड़ाई है।
गंगाधर पिता, गंगाधार ही समान जाकौ, गंगातीर बसति अनूप जिन पाई है।
महाजानि मनि, विद्यादान हूँ कौ चिंतामनि, हीरामनि दीक्षित पै तैं पाई पंडिताई है।
सेनापति सोई, सीतापति के प्रसाद जाकी, सब कवि कान दै सुनत कविताई हैं॥"


सेनापति पर शोध कर चुके डॉ. चंद्रपाल शर्मा के अनुसार : "अनूपशहर-निवासी ९० वर्षीय वयोवृद्ध पंडित मंगलसेनजी ने हमें सन १९७० में बताया था कि उन्होंने अपने पिता से बचपन में सुना था कि सेनापति के पिता अनूपशहर में लकड़ी के मुनीम बनकर आये थे। …….. अनूपशहर की 'हिंदी साहित्य परिषद' ने जिस स्थान पर 'सेनापति-स्मारक बनवाया है वह स्थान भी मंगलसेनजी ने अपने पिता से सेनापति के मकान के रूप  में ही सुना था।"

सेनापति के विषय में कोई पुष्ट प्रमाण नहीं हैं फिर भी अनूपशहर में सम्मानस्वरुप सेनापति-स्मारक बनाया हुआ है और श्रद्धांजलि स्वरूप हर साल शरद-पूर्णिमा को कवि-सम्मेलन का आयोजन किया जाता रहा है। उस मंच से राष्ट्र-कवि सोहनलाल द्विवेदी जैसी महान विभूतियाँ कविता पाठ करके महाकवि सेनापति को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर चुकी हैं।

सेनापति ने 'काव्य-कल्पद्रुम' (अप्राप्त) और 'कवित्त-रत्नाकर' (एक मात्र प्राप्त)  ग्रंथों कर प्रणयन किया था। डॉ. चंद्रपाल शर्मा ने लिखा है-"सन १९२४ में जब प्रयाग विश्वविद्यालय में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन प्रारंभ हुआ, तब कविवर सेनापति के एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ 'कवित्त-रत्नाकर' को एम.ए. के पाठ्यक्रम में स्थान मिला था। उस समय इस ग्रंथ की कोई प्रकाशित प्रति उपलब्ध नहीं थी। कुछ हस्तलिखित पोथियाँ एकत्रित करके पढ़ाई प्रारंभ की गई थी। सन १९३५ में प्रयाग विश्वविद्यालय के रिसर्चस्कॉलर पं. उमाशंकर शुक्ल ने एक वर्ष के कठोर परिश्रम के बाद इस ग्रंथ की विविध हस्तलिखित प्रतियों को सामने रखकर एक मान्य प्रति तैयार की थी, जो प्रयाग-विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग ने प्रकाशित करायी थी। '

कवि की निम्नलिखित पंक्तियों के आधार पर 'कवित्त-रत्नाकर' के विषय में माना जाता रहा है कि उन्होंने इसे सत्रहवीं शताब्दी के उतरार्ध में रचा होगा-

"संवत सत्रह सै मैं सेई सियापति पांय, सेनापति कविता सजी, सज्जन सजौ सहाई।"

अपनी कविताई के विषय में कवि ने लिखा है-
"राखति न दोषै पोषे पिंगल के लच्छन कौं, बुध कवि के जो उपकंठ ही बसति है।
जोय पद मन कौं हरष उपजावति, है, तजै को कनरसै जो छंद सरस्ति हैं।
अच्छर हैं बिसद करति उषै आप सम, जातएं जगत की जड़ताऊ बिनसति है।
मानौं छबि ताकी उदबत सबिता की सेना- पति कबि ताकि कबिताई बिलसति हैं॥"
*
"तुकन सहित भले फल कौं धरत सूधे, दूरि कौं चलत जे हैं धीर जिय ज्यारी के।
लागत बिबिध पच्छ सोहत है गुन संग, स्रवन मिलत मूल कीरति उज्यारी के।
सोई सीस धुनै जाके उर मैं चुभत नीके' बेग बिधि जात मन मोहैं नरनारी के।
सेनापति कबि के कबित्त बिलसत अति, मेरे जान बान हैं अचूक चापधारी के।"

सेनापति अपनी रचनाओं की श्रेष्ठता तथा उनकी चोरी के प्रति सचेष्ट थे-

"बानी सौ सहित, सुबरन मुँह रहैं जहाँ, धरति बहु भांति अरथ समाज कौ।
संख्या कर लिजै, अलंकार हैं अधिक यामैं, रखौ मति ऊपर सरस ऐसे साज कौं।
सुनै महाराज चोरि होत चार चरन की , तातैं सेनापति कहैं तजि करि ब्याज कौं।
लीजियौं बचाइ ज्यौं चुराबै नाहिं कोई सौपी, बित्त की सी थाति है, कबित्तन की राज कौं।"

 'कवित्त-रत्नाकर' पाँच तरंगों (अध्यायों) में विभक्त तथा कवित्त, छ्प्पय और कुंडली छंदों में रचित ग्रन्थ है

प्रथम तरंग- इसके ९६ पदों में श्रेष्ठ श्लेष-योजना दर्शनीय है। कवि के शब्दों में -

"मूढ़न कौ अगम, सुगम एक ताकौ, जाकी, तीछन अमल बिधि बुद्धि है अथाह की।
कोई है अभंग, कोई पद है सभंग, सोधि, देखे सब अंग, सम सुधा के प्रवाह की।
ज्ञान के निधान , छंद-कोष सावधान जाकी, रसिक सुजान सब करत हैं गाहकी।
सेवक सियापति कौ, सेनापति कवि सोई, जाकी द्वै अरथ कबिताई निरवाह की॥"

दूसरी तरंग के ७४ कवित्त परम्परानुसार श्रंगार से सराबोर हैं-

(१) "लीने सुघराई संग सोहत ललित अंग, सुरत के काम के सुघर ही बसति है।
गोरी नव रस रामकरी है सरस सोहै, सूहे के परस कलियान सरसति है।
सेनापति जाके बाँके रूप उरझत मन, बीना मैं मधुर नाद सुधा बरसति है।
गूजरी झनक-झनक माँझ सुभग तनक हम, देखी एक बाला राग माला सी लसति है॥"
(२) "कौल की है पूरी जाकी दिन-दिन बाढ़ै छवि, रंचक सरस नथ झलकति लोल है।
रहैं परि यारी करि संगर मैं दामिनी सी, धीरज निदान जाहि बिछुरत को लहै।
यह नव नारि सांचि काम की सी तलबारि है, अचरज एक मन आवत अतोल है।
सेनापति बाहैं जब धारे तब बार-बार, ज्यौं-ज्यौं मुरिजात स्यौं, त्यौं अमोल हैं॥"

तृतीय तरंग में ६२ कवित्तों में षडऋतु-वर्णन है-

(१)"तीर तैं अधिक बारिधार निरधार महा, दारुन मकर चैन होत है नदीन कौ।
होति है करक अति बदि न सिराति राति, तिल-तिल बाढ़ै पीर पूरी बिरहिन कौं।
सीरक अधिक चारों ओर अबनई रहै ना, पाऊँरीन बिना क्यौं हूँ बनत धनीन कौं। 
सेनापति बरनी है बरषा सिसिरा रितु, मूढ़न कौ अगम-सुगम परबीन कौं।

(२) "धरयौ है रसाल मोर सरस सिरच रुचि, उँचे सब कुल मिले गलत न अंत है।
सुचि है अवनि बारि भयौ लाज होम तहाँ, भौंरे देखि होत अलि आनंद अनंत है। 
नीकी अगवानी होत सुख जन वासों सब, सजी तेल ताई चैंन मैंन भयंत है।
सेनापति धुनि द्विज साखा उच्चतर देखौ, बनौ दुलहिन बनी दुलह बसंत है।"

चतुर्थ तरंग में ७६ कवित्त हैं जिनमें रामकथा मुक्त रुप में लिखी है।-

"कुस लव रस करि गाई सुर धुनि कहि, भाई मन संतन के त्रिभुवन जानि है।
देबन उपाइ कीनौ यहै भौ उतारन कौं, बिसद बरन जाकी सुधार सम बानी है।
भुवपति रुप देह धारी पुत्र सील हरि आई सुरपुर तैं धरनि सियारानि है।
तीरथ सरब सिरोमनि सेनापति जानि,राम की कहनी गंगाधार सी बखानी है।"

पाँचवी तरंग के ८६ कवित्त में राम-रसायन वर्णन है। इनमें राम, कृष्ण, शिव और गंगा की महिमा का गान है। 'गंगा-महिमा' दृष्टव्य है-

"पावन अधिक सब तीरथ तैं जाकी धार, जहाँ मरि पापी होत सुरपुरपति है।
देखत ही जाकौ भलौ घाट पहिचानियत, एक रुप बानी जाके पानी की रहति है।
बड़ी रज राखै जाकौ महा धीर तरसत, सेनापति ठौर-ठौर नीकी यैं बहति है।
पाप पतवारि के कतल करिबै कौं गंगा, पुन्य की असील तरवारि सी लसति है।"


सेनापति ने अपने काव्य में सभी रसों को अपनाया है। ब्रज भाषा में लिखे पदों में फारसी और संस्कृत के शब्दों का भी प्रयोग किया है। अलंकारों की बात करें तो सेनापति को श्लेष से तो मोह था। अपने काव्य पर भी कवि को गर्व था-

"दोष सौ मलीन, गुन-हीन कविता है, तो पै, कीने अरबीन परबीन कोई सुनि है।
बिन ही सिखाए, सब सीखि है सुमति जौ पै, सरस अनूप रस रुप यामैं हुनि है।
दूसन कौ करिकै कवित्त बिन बःऊषन कौ, जो करै प्रसिद्ध ऐसो कौन सुर-मुनि है।
रामै अरचत सेनापति चरचत दोऊ, कवित्त रचत यातैं पद चुनि-चुनि हैं।"


सेनापति ने तीनों गुणों प्रसाद, ओज और माधुर्य का निर्वाह किया है। माधुर्य का उदाहरण पठनीय है-

"तोरयो है पिनाक, नाक-पल बरसत फूल, सेनापति किरति बखानै रामचंद्र की,
लैकै जयमाल सियबाल है बिलोकी छवि, दशरथ लाल के बदन अरविंद की।
परी प्रेमफंद, उर बाढ़्यो है अनंद अति, आछी मंद-मंद चाल,चलति गयंद की।
बरन कनक बनी बानक बनक आई, झनक मनक बेटी जनक नरिंद्र की।"

शब्द-शक्ति के संदर्भ में देखा जाए तो कवि ने अमिधा को अच्छे से अपनाया है। सेनापति विद्वान तथा काव्य-शिल्प में निष्णात थे,  'मिश्र-बंधुओं' ने उन्हें नवरत्न के बाद  सर्वश्रेष्ठ कवि कहा है।  

रीतिकाल के महान कवि सेनापति ऋतु वर्णन के लिये प्रसिद्ध हैं.  इन छंदों में श्लेष  नहीं है। वे श्लेष का प्रयोग भाषिक चमत्कार की सृष्टि भले ही करते रहे हों, लेकिन उनका कृत्रिम प्रयोग सृजनात्मक अभिव्यक्ति के सहज प्रवाह को भंग भी करता है।

श्लेष से अधिक सेनापति अपने कवित्तों की बंदिश में कमाल करते हैं और उसके सहारे ही वह पूरे वातावरण की सृष्टि कर डालते हैं। जैसे कि ग्रीष्म ऋतु वर्णन का यह छंद देखिए-

वृष कौं तरनि सहसौ किरन करि, ज्वालन के जाल बिकराल बरसत है।
तचत धरनि, जग जरत झरनि, सीरी छाँह कौं पकरि पंथी-पंछी बिरमत है।

उक्त छंद में लघु और दीर्घ ध्वनियों का ऐसा क्रम बन पड़ा है कि ग्रीष्म ऋतु का वातावरण साक्षात व्यक्त होने लगता है। लघु स्वरों में दुपहरी का सन्नाटा सुनाई देता है है तो दीर्घ ध्वनियों में उसकी विकरालता दिखाई देती है।

सेनापति का एक और पद देखें:


 "नाहीं नाहीं करैं थोरी मांगे सब दैन कहें, मंगन कौ देखि पट देत बार-बार हैं।
जिनकौं मिलत भली प्रापति की घटी होति, सदा सब जन मन भाए निराधार हैं।
भोगी ह्वै रहत बिलसत अवनी के मध्य, कन कन जारैं दान पाठ परिवार है।
सेनापति बचन की रचना बिचारौ जामैं, दाता अरु सूम दोऊ कीने इकसार है।"
*
(साभार : http://man-ki-baat.blogspot.com/2006/10/blog-post_09.html, सृजन शिल्पी)