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मंगलवार, 15 सितंबर 2020

संस्मरण

पुरोवाक्
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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संस्मरण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, सम् + स्मरण। सम्यक् स्मरण अर्थात् किसी घटना, किसी व्यक्ति अथवा वस्तु का स्मृति के आधार पर कलात्मक वर्णन करना संस्मरण कहलाता है। इसमें स्वयं की अपेक्षा उस वस्तु की घटना का अधिक महत्व होता है जिसके विषय में संस्मरण लिखा जा रहा हो। संस्मरण का कथ्य सत्याधारित आधारित होता है, कल्पना का प्रयोग लगभग नहीं किया जाता।१ लेखक स्मृति पटल पर अंकित किसी विशेष व्यक्ति के जीवन की कुछ ऐसी घटनाओं का रोचक विवरण प्रस्तुत करता है जो उसने स्वयं अनुभव की हों। यह विवरण सर्वथा प्रामाणिक होता है। संस्मरण लेखक जब अपने विषय में लिखता है तो उसकी रचना आत्मकथा के निकट होती है और जब दूसरे के विषय मे लिखता है तो जीवनी के। संस्मरण लेखक अतीत की अनेक स्मृतियों में से कुछ रमणीय अनुभूतियों को अपनी कल्पना भावना या व्यक्तित्व की विशेषताओं से अनुरंजित कर (युक्त कर) प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करता है। उसके वर्णन में उसकी अपनी अनुभूतियों और सम्वेदनाओं का समावेश रहता है। संस्मरण के लेखक के लिए यह नितांत आवश्यक है कि लेखक ने उस व्यक्ति या वस्तु से साक्षात्कार किया हो जिसका वह संस्मरण लिख रहा है। संस्मरण में बीती हुई बातें और विवरणात्मकता अधिक रहती है। इसमें लेखक ‘रेखाचित्रकार‘ की भांति तत्व निर्लिप्त नहीं, कथ्य के साथ संलिप्त रहता है।
स्मृति के आधार पर किसी विषय पर अथवा किसी व्यक्ति पर लिखित आलेख संस्मरण है। यात्रा (जीवन यात्रा) साहित्य इसके अन्तर्गत आता है। संस्मरण साहित्यिक निबन्ध की एक प्रवृत्ति है जिसे 'संस्मरणात्मक निबंध' कहा जा सकता है। व्यापक रूप से संस्मरण आत्मचरित के अन्तर्गत लिया जा सकता है। संस्मरण और आत्मचरित के दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर है। आत्मचरित के लेखक का मुख्य उद्देश्य अपनी जीवनकथा का वर्णन करना होता है। इसमें कथा का प्रमुख पात्र स्वयं लेखक होता है। संस्मरण लेखक का दृष्टिकोण भिन्न रहता है। संस्मरण में लेखक जो कुछ स्वयं देखता है और स्वयं अनुभव करता है उसी का चित्रण करता है। लेखक की स्वयं की अनुभूतियाँ तथा संवेदनायें संस्मरण में अन्तर्निहित रहती हैं। इस दृष्टि से संस्मरण का लेखक निबन्धकार के अधिक निकट है। वह अपने चारों ओर के जीवन का वर्णन करता है। इतिहासकार के समान वह केवल यथातथ्य विवरण प्रस्तुत नहीं करता है। पाश्चात्य साहित्य में साहित्यकारों के अतिरिक्त अनेक राजनेताओं तथा सेनानायकों ने भी अपने संस्मरण लिखे हैं, जिनका साहित्यिक महत्त्व है।

जिस प्रकार उपन्यास समग्र जीवन का चित्र खींचता है जबकि कहानी जीवन के एक छोटे से अंग का उसी प्रकार जीवनी नायक के समस्त जीवन को, उसके छोरों को बाँधती चलती है और संस्मरण उसके जीवन की एक झाँकी को चित्रित करता है। संस्मरण में चरित्र का एक भाग अपनी पूर्ण उज्जवलता और सौंदर्य के साथ प्रगट होता है। इसीलिए संस्मरण लेखक को अपनी कृति अधिक संवेदनात्मक और मनोरजक बनानी होती है। संस्मरणों में सत्य का आग्रह तो रहता ही है परन्तु उसकी शैले अधिक चुटीली और सरल-सहज होनी चाहिए। नायक के चरित्र की जो झाँकी प्रस्तुत की जाए वह नायक के व्यक्तित्व से मेल खाती होनी चाहिए।१
हिंदी में संस्मरण साहित्य अपेक्षाकृत कम लिखा गया है तथापि महत्त्वपूर्ण लिखा गया है। प्रस्तुत कृति एक विदुषी अर्थशास्त्री ने स्वयं अपने बारे में लिखी है। डॉ. जयश्री जोशी मराठी सुसंस्कृत परिवार से हैं। उन्होंने अर्थशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त कर शोधोपाधि अर्ज़ित ने के पश्चात् दीर्घ अवधि तक प्राध्यापक के रूप में अगिन छात्रों को अर्थ शास्त्र हृदयंगम कराया है। वे सामान्य छात्रों या प्राध्यापकों की तरह पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं रही। छात्रा के नाते अर्थशास्त्र के व्यापक व्यावहारिक महत्व का अध्ययन तथा प्राध्यापक के नाते देश की आर्थिक नीतियों का विश्लेषण कर अपना अभिमत व्यक्त करना उन्हें औरों से अलग करता है। बजट प्रस्तावों का विश्लेषण करते समय वे किसी राजनैतिक विचारधारा, नेता या दल के प्रति प्रतिबद्धता या पूर्वाग्रह से मुक्त रहकर तटस्थता से उसका विश्लेषण करती रही हैं। उनकी प्रतिबद्धता सामाजिक कल्याण, जनहित और राष्ट्रोन्नति के प्रति रही है। वे आर्थिक नीतियों और बजट के सकारात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालकर नकारात्मक पहलुओं अदेखी कर जनसामान्य के मन में आशा-दीप जलाती रही हैं।
वैयक्तिक जीवन में भी जयश्री जी स्वावलंबी, स्वाभिमानी (घमंडी नहीं) और स्पष्टवादी (कटु नहीं) हैं। उन्हें ठकुरसुहाती में विश्वास नहीं है। वे सादगी पसंद हैं किन्तु उनकी सादगी वीतरागीतापरक नहीं है, वे जीवन को पूरे अनुराग के साथ जीते हुए भी सादगी के साथ सहजता को भी जीती हैं। किसी बात को तथ्यों के साथ वे इस तरह प्रस्तुत करती रही हैं कि उनसे असहमत होने की संभावना नगण्य हो जाती है। संस्कारों के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए भी अंधविश्वासी और दकियानूसी से दूर अधुनातन चिंतन को साकार करती हैं। मेरी जीवन संगिनी डॉ. साधना वर्मा को उनके साथ कार्य करने का अवसर मिला है। श्री जयंत जोशी और मैं दोनों सिविल अभियंता हैं, वे निजी क्षेत्र में अपना खुद का कार्य करते रहे हैं, मैं सरकारी विभाग में कार्यरत रहा हूँ। जो बात हम दोनों को जोड़ती है, वह है सांस्कृतिक-साहित्यिक रूचि और कार्य की गुणवत्ता से समझौता न करना। जोशी दंपत्ति हमारे पारिवारिक स्वजन जैसे हो गए।
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि संपन्नता और समृद्धि के बावजूद अहमन्यता और दंभ से जितने दूर जोशी दंपत्ति हैं, वैसे कम ही लोग मिलते हैं। आयु के हिसाब से मैं उनसे पर्याप्त छोटा हूँ, ज्ञान और अनुभव भी कम है तथापि जब भी हमारी भेंट हुई, उन्होंने मुझे यह प्रतीति नहीं होने दी। इन संस्मरणों में जीवन के प्रति ठोस सकारात्मक और व्यावहारिकता के दर्शन पृष्ठ-पृष्ठ पर होते हैं। श्रीमती जोशी एक शिक्षक के रूप में अपने छात्रों के हिट-साधन के प्रति कितनी सजग रही हैं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण वह प्रसंग हैं जब उन्होंने शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर के स्थापना काल के छात्र रहे मेरे पूज्य पितृश्री से अपने नेत्रहीन छात्रों के लिए ब्रेल लिपि की पुस्तकें प्राप्त कर महाविद्यालय पुस्तकालय में उपलब्ध कराईं। मैं अन्य महाविद्यालयों में भी पुस्तक दान करना चाहता हूँ किंतु अब वैसी रूचि के प्राध्यापक नहीं हैं।
इन संस्मरणों की भाषा सरल, प्रवाहमयी और सहज बोधगम्य है। विद्वता प्रदर्शन हेतु शुद्धता के नाम पर क्लिष्टता से श्रीमती जोशी दूर रही हैं। इनमें सुसंकृत मराठी परिवार के सहज झलक परिव्याप्त है। बड़ों के प्रति सम्मान रखते हुए अपनी बात स्पष्टता व विनम्रता से कहने का संस्कार, छोटों के प्रति लाड और स्नेह के साथ-साथ अनुशासन और मर्यादा का पालन, शासकीय कर्तव्य निर्वहन के साथ-साथ पारिवारिक परंपराओं का निर्वहन विशेषकर नवविवाहित महिलाओं के लिए तलवार की धार पर चलने से कम नहीं होता। मुझे यह अनुभव अपनी श्रीमती जी के साथ हुआ। श्रीमती जोशी ने ऐसे कुछ प्रसंग उठाये हैं पर यहाँ भी वे अपने अधिकारीयों और बुजुर्गों दोनों की आलोचना न कर संकेत मात्र से बात कह। उनका यह संयम वाणी, लेखन हुए आचरण तीनों में है। इस दृष्टि से यह संस्मरण पारिवारिक जीवन में संतुलन स्थापित न कर पाने के कारण बिखर रहे नव दंपतियों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
इन संस्मरणों में जयश्री जी ने साहित्यिक मानकों के पिजरे में कैद होकर लेखन पर विचार-पंछी को मनाकाश में स्वच्छंद उड़ने दिया है। इसलिए ये पठनीय, रोचक और अन्यों से भिन्न बन पड़े हैं। संयोगवश अभी-अभी मुझे कनल (से.नि.) डॉ. गिरिजेश नारायण सक्सेना की कृति 'सत्य तथा कथ्य' समीक्षार्थ प्राप्त हुई है। सक्सेना जी ने इसे कहानी संग्रह कहा है किन्तु वस्तुत: यह भी संस्मरणात्मक कृति है। हिंदी के अधुनातन साहित्य में कथेतर साहित्य सृजन की प्रवृत्ति दिन-ब-दिन बढ़ रही है। कथेतर गद्य साहित्य पारंपरिक मानकों के ढांचे का अतिक्रमण कर अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को वरीयता देता है। सक्सेना जी ने कहानी से इतर कहने की है, जयश्री जे ने पारंपरिक संस्मरण से परे उसकी सीमा का विस्तार करते हुए आपके चिन्तन-मनन, आत्मावलोकन और आत्म चिन्तन को समेटते हुए अपने परिवेश को याद किया है। इन संस्मरणों की कहन देशज और आभिजात्य के बीच दैनंदिन बोलचाल की होते हुए भी सरल, प्रवाहयुक्त है।
जबलपुर में संस्मरण लेखन की परंपरा बहुत लंबी नहीं है। समसामयिक संस्मरणात्मक कृतियों में साहित्यकारों के संस्मरण - डॉ. आत्मानंद मिश्र १९८४, वार्ता प्रसंग - हरिकृष्ण त्रिपाठी १९९१, चरित चर्चा - हरिकृष्ण त्रिपाठी २००४ डॉ.सुधियों में राजहंस - जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' २००६, आदि महत्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त यात्रावृत्तात्मक संस्मरणों में अमृतलाल वेगड़ लिखित सौंदर्य की नदी नर्मदा १९९२, तीरे-तीरे नर्मदा २०११, नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो २०१५, अमृतस्य नर्मदा तथा नर्मदा की धारा से - शिवकुमार तिवारी तथा गोविन्द प्रसाद मिश्र २००७ अपमी मिसाल।
स्वजनों तथा परिवेश को केंद्र में रखकर लिखी गयी पांडेय ' उग्र' की अपनी खबर १९६०, कृष्णा सोबती कृत हम हशमत १९७७, मेरा जीवन शिवपूजन सहाय १९८५, केसरी कुमार लिखित स्मृतियों में अब भी १९८५, रामनारायण शुक्ल रचित स्वांत: सुखाय १९९६, सुशीला अवस्थी सृजित सुधि की गठरी २००५, कांति अय्यर रचित बाल्य अश्मि २००७ है।
मुझे यह कहने में किंचित संकोच नहीं है कि डॉ. जयश्री जोशी जी ने इस कृति का सृजन करते समय किसी कृति या कृतिकार की शैली, सामग्री, भाषा या कहन को आदर्श मानकर उसका अनुकरण नहीं किया, अपितु आप बनाई है। मुझे इस कृति से समय- समय पर जुड़ने का अवसर मिलता रहा है। लेखिका का औदार्य है उन्होंने विमर्श में दिए गए सुझावों सहृदयता से न केवल विचार किया, उन्हें स्वीकार भी किया। वे मेरी आदरणीया भाभी हैं। उन्हें व भाई जयंत को नमन करते हुए उनकी गृह वाटिका में लगे कलमी आम के स्वाद का स्मरण करते हुए सादर नमन। मुझे विश्वास है कि ज्येष्ठ और युवा दोनों पाठक वर्ग में यह कृति सराही जाएगी और वे डॉ. जयश्री जोशी जी की अगली कृति प्रतीक्षा करेंगे।
संदर्भ -
१. आलोचना शास्त्र, मोहन बल्लभ पंत।
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संपर्क : विश्ववाणी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४

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