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सोमवार, 27 जनवरी 2014

kriti charcha: khamma-ashok jamnani -sanjiv

कृति चर्चा: 
मरुभूमि के लोकजीवन की जीवंत गाथा "खम्मा"
चर्चाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: खम्मा, उपन्यास, अशोक जमनानी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द, पृष्ठ १३७, मूल्य ३०० रु., श्री रंग प्रकाशन होशंगाबाद]  
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                राजस्थान की मरुभूमि से सन्नाटे को चीरकर दिगंत तक लोकजीवन की अनुभूतियों को अपने हृदवेधी स्वरों से पहुँचाते माँगणियारों के संघर्ष, लुप्त होती विरासत को बचाये रखने की जिजीविषा, छले जाने के बाद भी न छलने का जीवट जैसे  जीवनमूल्यों पर केंद्रित "खम्मा" युवा तथा चर्चित उपन्यासकार अशोक जमनानी की पाँचवी कृति है. को अहम्, बूढ़ी डायरी, व्यासगादी तथा छपाक से हिंदी साहत्य जगत में परिचित ही नहीं प्रतिष्ठित भी हो चुके अशोक जमनानी खम्मा में माँगणियार बींझा के आत्म सम्मान, कलाप्रेम, अनगढ़ प्रतिभा, भटकाव, कलाकारों के पारस्परिक लगाव-सहयोग, तथाकथित सभ्य पर्यटकों द्वारा शोषण, पारिवारिक ताने-बाने और जमीन के प्रति समर्पण की सनातनता को शब्दांकित कर सके हैं. 

                "जो कलाकार की बनी लुगाई, उसने पूरी उम्र अकेले बिताई" जैसे संवाद के माध्यम से कथा-प्रवाह को संकेतित करता उपन्यासकार ढोला-मारू की धरती में अन्तर्व्याप्त कमायचे और खड़ताल के मंद्र सप्तकी स्वरों के साथ 'घणी खम्मा हुकुम' की परंपरा के आगे सर झुकाने से इंकार कर सर उठाकर जीने की ललक पालनेवाले कथानायक बींझा की तड़प का साक्षी बनता-बनाता है. 

अकथ कहानी प्रेम की, किणसूं कही न जाय 
गूंगा को सुपना भया, सुमर-सुमर पछताय 

                मोहब्बत की अकथ कहानी को शब्दों में पिरोते अशोक, राहुल सांकृत्यायन और विजय दान देथा के पाठकों गाम्भीर्य और गहनता की दुनिया से गति और विस्तार के आयाम में ले जाते हैं. उपन्यास के कथासूत्र में काव्य पंक्तियाँ गेंदे के हार में गुलाब पुष्पों की तरह गूँथी गयी हैं. 

                बेकलू (विकल रेत) की तरह अपने वज़ूद की वज़ह तलाशता बींझा अपने मित्र सूरज और अपनी  संघर्षरत सुरंगी का सहारा पाकर अपने मधुर गायन से पर्यटकों को रिझाकर आजीविका कमाने की राह पर चल पड़ता है. पर्यटकों के साथ धन के सामानांतर उन्मुक्त अमर्यादित जीवनमूल्यों के तूफ़ान (क्रिस्टीना के मोहपाश में) बींझा का फँसना, क्रिस्टीना का अपने पति-बच्चों के पास लौटना, भींजा की पत्नी सोरठ द्वारा कुछ न कहेजाने पर भी बींझा की भटकन को जान जाना और उसे अनदेखा करते हुए भी क्षमा न कर कहना " आपने इन दिनों मुझे मारा नहीं पर घाव देते रहे… अब मेरी रूह सूख गयी है…  आप कुछ भी कहो लेकिन मैं आपको माफ़ नहीं कर पा रही हूँ… क्यों माफ़ करूँ आपको?' यह स्वर नगरीय स्त्री विमर्श की मरीचिका से दूर ग्रामीण भारत के उस नारी का है जो अपने परिवार की धुरी है. इस सचेत नारी को पति द्वारा पीटेजाने पर भी उसके प्यार की अनुभूति होती है, उसे शिकायत तब होती है जब पति उसकी अनदेखी कर अन्य स्त्री के बाहुपाश में जाता है. तब भी वह अपने कर्तव्य की अनदेखी नहीं करती और गृहस्वामिनी बनी रहकर अंततः पति को अपने निकट आने के लिये विवश कर पाती है. 

                उपन्यास के घटनाक्रम में परिवेशानुसार राजस्थानी शब्दों, मुहावरों, उद्धरणों और काव्यांशों का बखूबी प्रयोग कथावस्तु को रोचकता ही नहीं पूर्णता भी प्रदान करता है किन्तु बींझा-सोरठ संवादों की शैली, लहजा और शब्द देशज न होकर शहरी होना खटकता है. सम्भवतः ऐसा पाठकों की सुविधा हेतु किया गया हो किन्तु इससे प्रसंगों की जीवंतता और स्वाभाविकता प्रभावित हुई है. 

                कथांत में सुखांती चलचित्र की तरह हुकुम का अपनी साली से विवाह, उनके बेटे सुरह का प्रेमिका प्राची की मृत्यु को भुलाकर प्रतीची से जुड़ना और बींझा को विदेश यात्रा  का सुयोग पा जाना 'शो मस्त गो ऑन' या 'जीवन चलने का नाम' की उक्ति अनुसार तो ठीक है किन्तु पारम्परिक भारतीय जीवन मूल्यों के विपरीत है. विवाहयोग्य पुत्र के विवाह के पूर्व हुकुम द्वारा साली से विवाह अस्वाभाविक प्रतीत होता है. 

                सारतः, कथावस्तु, शिल्प, भाषा, शैली, कहन और चरित्र-चित्रण के निकष पर अशोक जमनानी की यह कृति पाठक को बाँधती है. राजस्थानी परिवेश और संस्कृति से अनभिज्ञ पाठक के लिये यह कृति औत्सुक्य का द्वार खोलती है तो जानकार के लिये स्मृतियों का दरीचा.... यह उपन्यास पाठक में अशोक के अगले उपन्यास की प्रतीक्षा करने का भाव भी जगाता है. 
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- salil.sanjiv@gmail.com / divyanarmada.blogspot.in / 94251 83244 -

रविवार, 3 मार्च 2013

कृति चर्चा मुझे जीना है संजीव 'सलिल'


कृति चर्चा:
मानवीय जिजीविषा का जीवंत दस्तावेज ''मुझे जीना है''
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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(कृति विवरण: मुझे जीना है, उपन्यास, आलोक श्रीवास्तव, डिमाई आकार, बहुरंगी सजिल्द आवरण, पृष्ठ १८३, १३० रु., शिवांक प्रकाशन, नई दिल्ली)
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                  विश्व की सभी भाषाओँ में गद्य साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा उपन्यास है। उपन्यास शब्द अपने जिस अर्थ में आज हमारे सामने आता है उस अर्थ में वह प्राचीन साहित्य में उपलब्ध नहीं है। वास्तव में अंगरेजी साहित्य की 'नोवेल' विधा हिंदी में 'उपन्यास' विधा की जन्मदाता है। उपन्यास जीवन की प्रतिकृति होता है। उपन्यास की कथावस्तु का आधार मानवजीवन और उसके क्रिया-कलाप ही होते हैं। आलोचकों ने उपन्यास के ६ तत्व कथावस्तु, पात्र, संवाद, वातावरण, शैली और उद्देश्य माने हैं। एक अंगरेजी समालोचक के अनुसार- 'आर्ट लाइज इन कन्सीलमेंट' अर्थात 'कला दुराव में है'। विवेच्य औपन्यासिक कृति 'मुझे जीना है' इस धारणा का इस अर्थ में खंडन करती है कि कथावस्तु का विकास पूरी तरह सहज-स्वाभाविक है।

                  खंडकाव्य पंचवटी  में मैथिलीशरण गुप्त जी ने लिखा है: 

'जितने कष्ट-कंटकों में है जिसका जीवन सुमन खिला, 
गौरव गंध उन्हें उतना ही यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला'।

                     उपन्यास के चरित नायक विजय पर उक्त पंक्तियाँ पूरी तरह चरितार्थ होती हैं।  छोटे से गाँव के निम्न मध्यम खेतिहर परिवार के बच्चे के माता-पिता का बचपन में देहावसान, दो अनुजों का भार, ताऊ द्वारा छलपूर्वक मकान हथियाकर नौकरों की तरह रखने का प्रयास, उत्तम परीक्षा परिणाम पर प्रोत्साहन और सुविधा देने के स्थान पर अपने बच्चों को पिछड़ते देख ईर्ष्या के वशीभूत हो गाँव भेज पढ़ाई छुड़वाने का प्रयास, शासकीय विद्यालय के शिक्षकों द्वारा प्रोत्साहन, गाँव में दबंगों के षड्यंत्र, खेती की कठिनाइयाँ और कम आय, पुनः शहर लौटकर अंशकालिक व्यवसाय के साथ अध्ययन कर अंतत: प्रशासनिक सेवा में चयन... उपन्यास का यह कथा-क्रम पाठक को चलचित्र की तरह बाँधे रखता है। उपन्यासकार ने इस आत्मकथात्मक औपन्यासिक कृति में आत्म-प्रशंसा से न केवल स्वयं को बचाया है अपितु बचपन में कुछ कुटैवों में पड़ने जैसे अप्रिय सच को निडरता और निस्संगता से स्वीकारा है।

                   शासकीय विद्यालयों की अनियमितताओं के किस्से आम हैं किन्तु ऐसे ही एक विद्यालय में शिक्षकों द्वारा विद्यार्थी के प्रवेश देने के पूर्व उसकी योग्यता की परख किया जाना, अनुपस्थिति पर पड़ताल कर व्यक्तिगत कठिनाई होने पर न केवल मार्ग-दर्शन अपितु सक्रिय सहायता करना, यहाँ तक की आर्थिक कठिनाई दूर करने के लिए अंशकालिक नौकरी दिलवाना... इस सत्य के प्रमाण है कि शिक्षक चाहे तो विद्यार्थी का जीवन बना सकता है। यह कृति हर शिक्षक और शिक्षक बनने के प्रशिक्षणार्थी को पढ़वाई जानी चाहिए ताकि उसे अपनी सामर्थ्य और दायित्व की प्रतीति हो सके। विपरीत परिस्थितियों और अभावों के बावजूद जीवन संघर्षों से जूझने और सफल होने का यह  यह कथा-वृत्त हर हिम्मत न हारनेवाले के लिए अंधे की लकड़ी हो सकता है। कृति में श्रेयत्व के साथ-साथ प्रेयत्व का उपस्थिति इसे आम उपन्यासों से अलग और अधिक प्रासंगिक बनाती है।

                  अपनी प्रथम कृति में जीवन के सत्यों को उद्घाटित करने का साहस विरलों में ही होता है। आलोक जी ने कैशोर्य में प्रेम-प्रकरण में पड़ने, बचपन में धूम्रपान जैसी घटनाओं को न छिपाकर अपनी सत्यप्रियता का परिचय दिया है। वर्तमान काल में यह प्रवृत्ति लुप्त होती जा रही है। मूल कथावस्तु के साथ प्रासंगिक कथावस्तु के रूप में शासकीय माडल हाई स्कूल जबलपुर के शिक्षकों और वातावरण, खलनायिकावत  ताई, अत्यंत सहृदय और निस्वार्थी चिकित्सक डॉ. एस. बी. खरे, प्रेमिका राधिका, दबंग कालीचरण, दलित स्त्री लक्ष्मी द्वारा अपनी बेटी के साथ बलात्कार का मिथ्या आरोप, सहृदय ठाकुर जसवंत सिंह तथा पुलिस थानेदार द्वारा निष्पक्ष कार्यवाही आदि प्रसंग न केवल कथा को आगे बढ़ाते हैं अपितु पाठक को प्रेरणा भी देते हैं। सारतः उपन्यासकार समाज की बुराइयों का चित्रण करने के साथ-साथ घटती-मिटती अच्छाइयों को सामने लाकर बिना कहे यह कह पाता है कि अँधेरे कितने भी घने हों उजालों को परास्त नहीं कर सकते।   

               उपन्यासकार के कला-कौशल का निकष कम से कम शब्दों में उपन्यास के चरित्रों को उभारने में है। इस उपन्यास में कहीं भी किसी भी चरित्र को न तो अनावश्यक महत्त्व मिला है, न ही किसी पात्र की उपेक्षा हुई है। शैल्पिक दृष्टि से उपन्यासकार ने चरित्र चित्रण की विश्लेषणात्मक पद्धति को अपनाया है तथा पात्रों की मानसिक-शारीरिक स्थितियों, परिवेश, वातावरण आदि का विश्लेषण स्वयं किया है। वर्तमान में नाटकीय पद्धति बेहतर मानी जाती है जिसमें उपन्यासकार नहीं घटनाक्रम, पात्रों की भाषा तथा उनका आचरण पाठक को यह सब जानकारी देता है। प्रथम कृति में शैल्पिक सहजता अपनाना स्वाभाविक है। उपन्यास में संवादों को विशेष महत्त्व नहीं मिला है। वातावरण चित्रण का महत्त्व उपन्यासकार ने समझा है और उसे पूरा महत्त्व दिया है।

                  औपन्यासिक कृतियों में लेखक का व्यक्तित्व नदी की अंतर्धारा की तरह घटनाक्रम में प्रवाहित होता है। इस सामाजिक समस्या-प्रधान उपन्यास में प्रेमचंद की तरह बुराई का चित्रण कर सुधारवादी दृष्टि को प्रमुखता दी गयी है। आजकल विसंतियों और विद्रूपताओं का अतिरेकी चित्रण कर स्वयं को पीड़ित और समाज को पतित दिखने का दौर होने पर भी आलोक जी ने नकारात्मता पर सकारात्मकता को वरीयता दी है। यह आत्मकथात्मक परिवृत्त तृतीय पुरुष में होने के कारण उपन्यासकार को चरित-नायक विजय में विलीन होते हुए भी यथावसर उससे पृथक होने की सुविधा मिली।

                   मुद्रण तकनीक सुलभ होने पर भी खर्चीली है। अतः, किसी कृति को सिर्फ मनोरंजन के लिए छपवाना तकनीक और साधनों का दुरूपयोग ही होगा। उपन्यासकार सजगता के साथ इस कृति को रोचक बनाने के साथ-साथ समाजोपयोगी तथा प्रेरक बना सका है। आदर्शवादी होने का दम्भ किये बिना उपन्यास के अधिकांश चरित्र प्रेमिका राधिका, माडल हाई स्कूल के प्राचार्य और शिक्षक, मित्र, ठाकुर जसवंत सिंह, पुलिस निरीक्षक, पुस्तक विक्रय केंद्र की संचालिका श्रीमती मनोरमा चौहान (स्व. सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्रवधु) आदि पात्र दैनंदिन जीवन में बिना कोई दावा या प्रचार किये आदर्शों का निर्वहन अपना कर्तव्य मानकर करते हैं। दूसरी ओर उच्चाधिकारी ताऊजी, उनकी पत्नी और बच्चे सर्व सुविधा संपन्न होने पर भी आदर्श तो दूर अपने नैतिक-पारिवारिक दायित्व का भी निर्वहन नहीं करते और अपने दिवंगत भाई की संतानों को धोखा देकर उनके आवास पर न केवल काबिज हो जाते हैं अपितु उन्हें अध्ययन से विमुख कर नौकर बनाने और गाँव वापिस भेजने का षड्यंत्र करते हैं। यह दोनों प्रवृत्तियाँ समाज में आज भी कमोबेश हैं और हमेशा रहेंगी।

                  यथार्थवादी उपन्यासकार इमर्सन ने कहा है- ''मुझे महान दूरस्थ और काल्पनिक नहीं चाहिए, मैं साधारण का आलिंगन करता हूँ।'' आलोक जी संभवतः इमर्सन के इस विचार से सहमत हों। सारतः मुझे जीना है मानवीय जिजीविषा का जीवंत और सार्थक दस्तावेज है जो लुप्त होते मानव-मूल्यों के प्रति और मानवीय अस्मिता के प्रति आस्था जगाने में समर्थ है। उपन्यासकार आलोक श्रीवास्तव इस सार्थक कृति के सृजन हेतु बधाई के पात्र हैं.
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बुधवार, 2 नवंबर 2011

धारावाहिक  उपन्यास :
 
प्रस्तुत है श्री महेश द्विवेदी का उपन्यास भीगे पंख धारावाहिक के रूप में... पाठकीय प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है...

 भीगे पंख
   
श्री महेश द्विवेदी

                        मोहित-रज़िया-सतिया                      


        यह कहानी विभिन्न मनः-स्थितियों मंे जी रहे तीन ऐसे पात्रों की कहानी है जो असामान्य जीवन जीने को अभिशप्त हैं। 
        थामस ए. हैरिस नामक अमेरिका के प्रसिद्ध मनोचिकित्सक ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक ‘आई. ऐम. ओ. के.ः यू. आर. ओ. के.’ में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि कोई भी शिशु अपने जन्म के समय एवं शैशवास्था में उपलब्ध परिस्थितियों के अनुसार जन्म के पश्चात अधिक से अधिक पांच वर्ष में अपने लिये निम्नलिखित चार जीवन-स्थितियों /मनः-स्थितियों/ मे से कोई एक जीवन-स्थिति निर्धारित कर लेता है, जो जीवनपर्यंत उसक्रे अंतर्मन एवं आचरण को प्रभावित करती रहती हैं।


1. ‘आई ऐम नौट ओ. के.ः यू आर ओ. के.’                                 
             जब एक शिशु माता के गर्भ के वातानुकूलित एवं सुरक्षित वातावरण से निकलकर बाहर आता है तो प्रायः उसे आंख में चुभने वाले प्रकाश, त्वचा मे कटन पैदा करने वाली शीत, जलाने वाली गी्रष्म, अथवा कर्णकटु ध्वनियों का सामना करना पड़ता है, जिससे उसे गम्भीर असुरक्षा का अनुभव होता है। तब मॉ की गोद उसे सुरक्षा प्रदान करती है। स्वनियंत्रण से परे वाह्य वातावरण की कटुता एवं तत्पष्चात प्राप्त मॉ की गोद का सुरक्षात्मक अनुभव उसमें ‘आई. ऐम. नौट ओ. के.ः यू आर ओ. के.’ की मनःस्थिति उत्पन्न करता है। यदि जन्म के पश्चात प्रारम्भिक महीनों में शिशु की अस्वस्थता के कारण, अथवा घर की दुरूह परिस्थितियों के कारण अथवा घर के अन्य सदस्यों के व्यवहार के कारण ऐसी स्थिति बार बार आती रहे कि शिशु को असुरक्षात्मक अनुभव होते रहें और उसे मॉ, नर्स अथवा पिता आदि की गोद की सुरक्षा की उपलब्धता के बिना जीवन कठिन लगने लगे, तो ‘आई. एम नौट ओ. के., यू आर ओ. के.’ की मनःस्थिति स्थायी हो जाती है। प्रायः ऐसा व्यक्ति हीनभावना से ग्रसित रहकर साहसपूर्ण कदम उठाने में दूसरों का आसरा देखने लगता है और अपने प्रत्येक निर्णय को इस कसौटी पर परख कर लेता है कि इसमंे दूसरों का अनुमोदन प्राप्त होगा अथवा नहीं।


2. ‘आई ऐम ओ. के.ः यू आर नौट ओ. के.’
         बचपन में सुरक्षा एवं प्यार की आवश्यकता होती है, परंतु यदि उस समय किसी व्यक्ति को अवहेलना क्रे साथ साथ दुत्कार एवं गम्भीर शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना भी मिलती है तो उसका मन विद्रोहरत होकर ‘आई. एम. ओ. के.ः यू आर. नौट. ओ. के.’ की जीवनस्थिति स्थापित कर लेता है। ऐसा व्यक्ति प्रायः स्वार्थ को सर्वोपरि समझने वाला  बन जाता है एवं स्वार्थ साधन हेतु समाज के नियम एवं कानून का उल्लंघन करने में वह किसी प्रकार की ग्लानि का अनुभव कम ही करता है।


3. ‘आई ऐम नौट ओ. के.ः यू आर नौट ओ. के.’
         यदि शिशु के बढ़ते समय विपरीत परिस्थितियों के कारण उसके जन्म के समय उत्पन्न ‘आई ऐम नौट ओ. के.’ की भावनात्मक स्थिति को सुधारने के अवसर नहीं मिलते है और साथ ही मॉ-बाप व अन्य बडों़ से भी प्यार एवं सुरक्षा की अपेक्षा तिरस्कार एवं अवहेलना मिलते हैं तो वह ‘आई. एम. नौट ओ. के.ः यू. आर. नौट. ओ. के.’ की मनःस्थिति को अपने जीवन मंे स्थापित कर लेता है। ऐसा व्यक्ति प्रायः निराशा में डूबकर उस शैशवकाल की कल्पना में रमा रहना चाहता है जब जन्म के प्रारम्भिक दिनों में उसे प्यार एवं सुरक्षा मिले थे। प्रायः ऐसे लोग अवसादग्रस्त रहकर संसार से विरक्ति की स्थिति में जीने लगते हैं और यदा कदा आत्महत्या द्वारा अथवा सब कुछ नश्टकर मुक्ति की कामना भी करते है।


4.आई एम ओ. के.ः यू आर ओ. के.
      यह एक संतुलित जीवन स्थिति है। यदि शिशु को अपने प्रारम्भिक जीवन में समुचित सुरक्षा, प्यार एवं दिशा निर्देशन मिलता है तो वह ‘आई. एम. ओ. के.ः यू. आर. ओ. के.’ की जीवनस्थिति को स्थायी बना लेता है। ऐसा व्यक्ति प्रायः षांतिमय एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन जीता है।


               मनुश्य विषेश के जीन्स की संरचना भी एक सीमा तक षिषु की जीवन-स्थिति के निर्धारण को प्रभावित करती है परंतु शैशवकाल के अनुभव असामान्य प्रकृति को सामान्य अथवा सामान्य प्रकृति को असामान्य बनाने में अधिक महत्व रखते हैं। सभी नवजात शिशु कुछ न कुछ अवधि के लिये प्रथम जीवनस्थिति से अवश्य गुज़रते हैं। भविष्य की परिस्थितियों के अनुसार किसी किसी में वह स्थायी हो जाती है और कुछ में परिस्थितियों के अनुसार द्वितीय अथवा तृतीय  जीवनस्थिति स्थायी हो जाती है। प्रथम तीनों स्थितियां व्यक्ति को एक असामान्य जीवन जीने को उद्वेलित करतीं रहतीं हैं। चतुर्थ जीवनस्थिति शिशु के प्रति प्रेम-प्रदर्शन एवं लालन-पालन में बरती गई समझदारी से स्थापित होती है; इस जीवनस्थिति का व्यक्ति संतुलित जीवन जीता है।


       मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य के व्यवहार को ‘पेरेंट, ऐडल्ट, ऐंड चाइल्ड’ की कैटेगरीज़ में भी बांटा है। उनके अनुसार प्रथम जीवनस्थिति में जीने वाले  व्यक्ति की किसी समस्या पर प्रतिक्रिया प्रायः चाइल्ड की प्रतिक्रिया के समान होती है- हीनभावनामय एवं परोन्मुखी; द्वितीय जीवनस्थिति में जीने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया प्रायः पेरेंट की प्रतिक्रिया केे समान होती है- अपने उचित अथवा अनुचित निर्णय को बलात ठोकने वाली, तृतीय जीवनस्थिति में जीने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया अवसादमय एवं निराशापूर्ण होती है एवं चतुर्थ जीवनस्थिति में जीने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया वैसी समझदारीपूर्ण होती है जैसी एक ऐडल्ट की होनी चाहिये।


       इस कहानी के तीनों पात्र मोहित, सतिया और रज़िया असामान्य परंतु एक दूसरे से भिन्न जीवनस्थितियेंा में जीने वाले व्यक्ति हैं जो भवसागर मे गोते लगाते हुए एक दूसरे के निकट आ गये हैं- मोहित ‘आई ऐम नौट ओ. के.ः यू आर ओ. के.’ की चाइल्ड की जीवनस्थिति मे है, सतिया ‘आई ऐम ओ. के.ः यू आर नौट ओ. के.’ की पेरेंट की जीवनस्थिति मे है और रज़िया ‘आई ऐम नौट ओ. के.ः यू आर नौट ओ. के.’ की अवसादमय स्थिति में जी रही है। 
 
                                                                    