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बुधवार, 21 जुलाई 2010

दोहा दर्पण: संजीव 'सलिल' *


दोहा दर्पण:

संजीव 'सलिल'

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*
कविता की बारिश करें, कवि बादल हों दूर.
कौन किसे रोके 'सलिल', आँखें रहते सूर..

है विवेक ही सुप्त तो, क्यों आये बरसात.
काट वनों को, खोद दे पर्वत खो सौगात..

तालाबों को पाट दे, मरुथल से कर प्यार.
अपना दुश्मन मनुज खुद, जीवन से बेज़ार..

पशु-पक्षी सब मारकर खा- मंगल पर घूम.
दंगल कर, मंगल भुला, 'सलिल' मचा चल धूम..

जर-ज़मीन-जोरू-हुआ, सिर पर नशा सवार.
अपना दुश्मन आप बन, मिटने हम बेज़ार..

गलती पर गलती करें, दें औरों को दोष.
किन्तु निरंतर बढ़ रहा, है पापों का कोष..

ले विकास का नाम हम, करने तुले विनाश.
खुद को खुद ही हो रहे, 'सलिल' मौत का पाश..
******
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 7 जुलाई 2010

कविता: -- संजीव 'सलिल'

कविता

संजीव 'सलिल'
*




















*
जिसने कविता को स्वीकारा, कविता ने उसको उपकारा.
शब्द्ब्रम्ह को नमन करे जो, उसका है हरदम पौ बारा..

हो राकेश दिनेश सलिल वह, प्रतिभा उसकी परखी जाती-
 होम करे पल-पल प्राणों का, तब जलती कविता की बाती..

भाव बिम्ब रस शिल्प और लय, पञ्च तत्व से जो समरस हो.
उस कविता में, उसके कवि में, पावस शिशिर बसंत सरस हो..

कविता भाषा की आत्मा है, कविता है मानव की प्रेरक.
राजमार्ग की हेरक भी है, पगडंडी की है उत्प्रेरक..

कविता सविता बन उजास दे, दे विश्राम तिमिर को लाकर.
कविता कभी न स्वामी होती, स्वामी हों कविता के चाकर..

कविता चरखा, कविता चमडा, कविता है करताल-मंजीरा.
लेकिन कभी न कविता चाहे, होना तिजोरियों का हीरा..

कविता पनघट, अमराई है, घर-आँगन, चौपाल, तलैया.
कविता साली-भौजाई है, बेटा-बेटी, बाबुल-मैया..

कविता सरगम, ताल, नाद, लय, कविता स्वर, सुर वाद्य समर्पण.
कविता अपने अहम्-वहम का, शरद-पग में विनत विसर्जन..

शब्द-साधना, सताराधना, शिवानुभूति 'सलिल' सुन्दर है.
कह-सुन-गुन कवितामय होना, करना निज मन को मंदिर है..

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जब भी 'मैं' की छूटती, 'हम' की हो अनुभूति.
तब ही 'उस' से मिलन हो, सबकी यही प्रतीति..
*

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

गीत: प्रेम कविता... संजीव 'सलिल'

गीत:
प्रेम कविता...
संजीव 'सलिल'
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प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम कविता को लिखा जाता नहीं है.
प्रेम होता है किया जाता नहीं है..
जन्मते ही सुत जननि से प्रेम करता-
कहो क्या यह प्रेम का नाता नहीं है?.
कृष्ण ने जो यशोदा के साथ पाला
प्रेम की पोथी का उद्गाता वही है.
सिर्फ दैहिक मिलन को जो प्रेम कहते
प्रेममय गोपाल भी
क्या दिख सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम से हो क्षेम?, आवश्यक नहीं है.
प्रेम में हो त्याग, अंतिम सच यही है..
भगत ने, आजाद ने जो प्रेम पाला.
ज़िंदगी कुर्बान की, देकर उजाला.
कहो मीरां की करोगे याद क्या तुम
प्रेम में हो मस्त पीती गरल-प्याला.
और वह राधा सुमिरती श्याम को जो
प्रेम क्या उसका कभी
कुछ चुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
अपर्णा के प्रेम को तुम जान पाये?
सिया के प्रिय-क्षेम को अनुमान पाये?
नर्मदा ने प्रेम-वश मेकल तजा था-
प्रेम कैकेयी का कुछ पहचान पाये?.
पद्मिनी ने प्रेम-हित जौहर वरा था.
शत्रुओं ने भी वहाँ थे सिर झुकाए.
प्रेम टूटी कलम का मोहताज क्यों हो?
प्रेम कब रोके किसी के
रुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 16 मई 2010

कविता: रखे वैशाख ने पैर -पूर्णिमा वर्मन

कविता :
रखे वैशाख ने पैर
पूर्णिमा वर्मन 
*

रखे वैशाख ने पैर
बिगुल बजाती,
लगी दौड़ने
तेज़-तेज़
फगुनाहट
खिले गुलमुहर दमक उठी फिर
हरी चुनर पर छींट सिंदूरी!
सिहर उठी फिर छाँह
टपकती पकी निबौरी
झरती मद्धम-मद्धम
जैसे
पंखुरी स्वागत
साथ हवा के लगे डोलने
अमलतास के सोन हिंडोले!
धूप ओढनी चटक
दुपहरी कैसे ओढ़े
धूल उड़ाती गली
गली
मौसम की आहट!

पद्य: प्रकृति की गोद में ही है सब सुख भरा ----प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव "विदग्ध"

गहरे सागर वन उपवन धरा औ' गगन

प्रकृति नियमों का सब कर रहे हैं अनुसरण

आदमी को भी जीना है जो संसार में

पर्यावरण से करना ही होगा संतुलन 


                                                            विश्व विकसा ये, पा माँ प्रकृति की कृपा

गहन दोहन उसी का पर कर रहा

भूल अपनी मनुज न सुधारेगा तो

सुख के युग का असंभव फिर आगमन


हो रहा मृदा जल वन पवन का क्षरण

है प्रदूषित हुआ सारा वातावरण

साँस लेना भी मुश्किल सा अब हो चला

जो न संभले तो दिखता निकट है मरण


                                                            प्रकृति माँ है जो देती है सब कुछ हमें

हमें चाहिये कि हम लालचों से थमें

विश्व हित में प्रकृति साथ व्यवहार में

उसकी गति और मति का करें अनुसरण


मिलें उपहार हैं भूमि जल वन पवन

सूर्य की ऊर्जा , स्वस्थ जीवन गगन

इनका लें लाभ पर बिना आहत किये

वन औ' वनप्राणियों का विवर्धीकरण


                                                              अपनी पर्यावरण से ही पहचान है

इससे गहरा जुडा हरेक उत्थान है

हो गया है जरूरी बहुत आज अब

कल के जीवन के बारे में चिंतन मनन


                                                              आओ! संकल्प लें कोई काटे न वन

मिटाने गलतियाँ वन बढ़ायें सगन

प्रदूषण हटें जल स्त्रोत के , वायु के

प्रकृति पूजा की हर मन में उपजे लगन


                                                          प्रकृति की गोद में ही है सब सुख भरा

प्रकृति के ही प्यार से ही है हरी यह धरा

अगर पर्यावरण नष्ट हमने किया

हमको भगवान भी कल न देंगे शरण .


                                                      *****************************

सोमवार, 3 मई 2010

POEM: ---Farhan Khan


POEM

FARHAN KHAN

Oh! God,
Why the earth had created.
For exploitation, knavery, thievery?
Man is exploited by man.
Man is deceived by man.
Why the earth had created?

Oh! God,
Why the winsome nature had created.

For wreckage, ruination, dilapidation?
Why man has become wrecker for nature?
Why the winsome nature had created?

Oh, God,
I pray for man,
To come in daylight,
From the gloom of night
.
*******************

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

POEM: ---Farhan Khan

POEM:

Farhan Khan

When I feel forlorn,
I feel along with you.
When I feel unknown to the world,
I know you.

You are a constituent of my camouflaged soul?
Who I m and You?
There is no hazy answer,
For being appeased.

This soul is lost in the world,
And wanders with the corporeal body.
Have You forgotten me?
I too strive to learn by heart."

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