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बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

दो यमकदार तेवरियाँ : ------- रमेश राज

दो यमकदार तेवरियाँ : ------- रमेश राज

दो यमकदार तेवरियाँ                                                                          

रमेश राज, संपादक तेवरीपक्ष, अलीगढ
*  
 १.
तन-चीर का उफ़ ये हरण, कपड़े बचे बस नाम को.
हमला हुआ अब लाज पै, अबला जपै बस राम को..

हर रोग अब तौ हीन सा, अति दीन सा, तौहीन सा.
हर मन तरसता आजकल, सुख से भरे पैगाम को.. 

क्या नाम इसका धरम ही?, जो धर मही जन गोद्ता.
इस मुल्क के पागल कहें सत्कर्म कत्ले-आम को..

उद्योग धंधे बंद हैं, मन बन, दहैं शोला सदृश.
हर और हहाका रही, अब जन तलाशें काम को..

अब आचरण बदले सभी, खुश आदतें बद ले सभी.
बीएस घाव ही मिलने सघन आगाज से अंजाम को..

२.

पलटी न बाजी गर यहाँ, दें मात बाजीगर यहाँ.
कल पीर में डूबे हुए होंगे सभी मंज़र यहाँ..

तुम छीन बैठे कौरवों, हम मंगाते हैं कौर वो
फिर वंश होगा आपका, कल को लहू से तर यहाँ..

दुर्भावना की कीच को, हम पै न फेंको, कीचको!.
कुंजर सरीखे भीम ही, अब भी मही पर वर यहाँ.. 


दुर्योधनों के बीच भीषम, आज भी सम मौन है. 
पर द्रौपदी के साथ हैं, बनकर हमीं गिरिधर यहाँ..  

अब पाएंगे हम जी तभी, जब साथ होगी जीत भी
हम चक्रव्यूहों में घिरे, दिन-रात ही अक्सर यहाँ.. 

************************************

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

सम-सामयिक हिन्दी पद्य के सर्वाधिक प्रचलित काव्य रूपों में से एक 'मुक्तिका'

सम-सामयिक हिन्दी पद्य के सर्वाधिक प्रचलित काव्य रूपों में से एक 'मुक्तिका'



मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-

१. हर अंश अन्य अंशों से मुक्त या अपने आपमें स्वतंत्र होता है.

२. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद पदांत तथा तुकांत युक्त होता है. इसका साम्य कुछ-कुछ उर्दू ग़ज़ल के काफिया-रदीफ़ से होने पर भी यह इस मायने में भिन्न है कि इसमें काफिया मिलाने के नियमों का पालन न किया जाकर हिन्दी व्याकरण के नियमों का ध्यान रखा जाता है.

२. हर पद का पदभार हिंदी मात्रा गणना के अनुसार समान होता है. यह मात्रिक छन्द में निबद्ध पद्य रचना है. इसमें लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती.

३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं. इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है.

४.हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा (१३-११), सोरठा मुक्तिका में सोरठा (११-१३), रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है.

५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है. एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता.

६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं.

७. मुक्तिका को अनुगीत, तेवरी, गीतिका, हिन्दी ग़ज़ल आदि भी कहा गया है.

गीतिका हिन्दी का एक छंद विशेष है अतः, गीत के निकट होने पर भी इसे गीतिका कहना उचित नहीं है.

तेवरी शोषण और विद्रूपताओं के विरोध में विद्रोह और परिवर्तन की भाव -भूमि पर रची जाती है. ग़ज़ल का शिल्प होने पर भी तेवरी के अपनी स्वतंत्र पहचान है.

हिन्दी ग़ज़ल के विविध रूपों में से एक मुक्तिका है. मुक्तिका उर्दू गजल की किसी बहर पर भी आधारित हो सकती है किन्तु यह उर्दू ग़ज़ल की तरह चंद लय-खंडों (बहरों) तक सीमित नहीं है.

इसमें मात्रा या शब्द गिराने अथवा लघु को गुरु या गुरु को लघु पढने की छूट नहीं होती.

उदाहरण :

१. बासंती दोहा मुक्तिका


आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’
*

स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.

किंशुक कुसुम विहँस रहे या दहके अंगार..
*
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.

पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..
*
महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.

मधुशाला में बिन पिये सर पर नशा सवार..
*
नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.

पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
*
नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.

देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
*
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.

ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..
*
ढोलक टिमकी मँजीरा, करें ठुमक इसरार.

तकरारों को भूलकर, नाचो-गाओ यार..
*
घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.

अपने मन का मैल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..
*
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.

सूरत-सीरत रख 'सलिल', निर्मल-विमल सँवार..

*******
२. निमाड़ी दोहा मुक्तिका:

धरs माया पs हात तू, होवे बड़ा पार.
हात थाम कदि साथ दे, सरग लगे संसार..
*
सोन्ना को अंबर लगs, काली माटी म्हांर.
नेह नरमदा हिय मंs, रेवा की जयकार..
*
वउ -बेटी गणगौर छे, संझा-भोर तिवार.
हर मइमां भगवान छे, दिल को खुलो किवार..
*
'सलिल' अगाड़ी दुखों मंs, मन मं धीरज धार.
और पिछाड़ी सुखों मंs, मनख रहां मन मार..
*
सिंगा की सरकार छे, ममता को दरबार.
'सलिल' नित्य उच्चार ले, जय-जय-जय ओंकार..
*
लीम-बबुल को छावलो, सिंगा को दरबार.
शरत चाँदनी कपासी, खेतों को सिंगार..
*
मतवाला किरसाण ने, मेहनत मन्त्र उचार.
सरग बनाया धरा को, किस्मत घणी सँवार..
*
नाग जिरोती रंगोली, 'सलिल' निमाड़ी प्यार.
घट्टी ऑटो पीसती, गीत गूंजा भमसार..
*
रयणो खाणों नाचणो, हँसणो वार-तिवार.
गीत निमाड़ी गावणो, चूड़ी री झंकार..
*
कथा-कवाड़ा वाsर्ता, भरसा रस की धार.
हिंदी-निम्माड़ी 'सलिल', बहिनें करें जगार..

******************************

३.  (अभिनव प्रयोग)

दोहा मुक्तिका

'सलिल'
*
तुमको मालूम ही नहीं शोलों की तासीर।
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?

बहरे मिलकर सुन रहे गूँगों की तक़रीर।
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर।

दहशतगर्दों की हुई है जबसे तक्सीर
वतनपरस्ती हो गयी खतरनाक तक्सीर।

फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर।
भीष्म द्रोण कूर कृष्ण संग, घूरें पांडव वीर।

हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर।
प्यार-मुहब्बत ही रहे मजहब की तफसीर।

सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर।
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर।

हिंद और हिंदी करे दुनिया को तन्वीर।
बेहतर से बेहतर बने इन्सां की तस्वीर।

हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर।
खिदमत भूली, कर रही बातों की तब्ज़ीर।

तरस रहा मन 'सलिल' दे वक़्त एक तब्शीर।
शब्दों के आगे झुके, जालिम की शमशीर।

*********************************
तासीर = असर/ प्रभाव, ताबीर = कहना, तक़रीर = बात/भाषण, जम्हूरियत = लोकतंत्र, दहशतगर्दों = आतंकवादियों, तकसीर = बहुतायत, वतनपरस्ती = देशभक्ति, तकसीर = दोष/अपराध, तदबीर = उपाय, तफसीर = व्याख्या, तनवीर = प्रकाशित, तस्वीर = चित्र/छवि, ताज्वीर = कपट, खिदमत = सेवा, कौम = समाज, तब्जीर = अपव्यय, तब्शीर = शुभ-सन्देश, ज़ालिम = अत्याचारी, शमशीर = तलवार..

४. गीतिका

आदमी ही भला मेरा गर करेंगे.
बदी करने से तारे भी डरेंगे.

बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.

कलम थामे, न जो कहते हकीकत
समय से पहले ही बेबस मरेंगे।

नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे।

न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।
*********************************

५. मुक्तिका

तितलियाँ
*

यादों की बारात तितलियाँ.
कुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ..
*********************************

७. जनक छंदी मुक्तिका:
सत-शिव-सुन्दर सृजन कर
*

सत-शिव-सुन्दर सृजन कर,
नयन मूँद कर भजन कर-
आज न कल, मन जनम भर.
               
                   कौन यहाँ अक्षर-अजर?
                   कौन कभी होता अमर?
                   कोई नहीं, तो क्यों समर?

किन्तु परन्तु अगर-मगर,
लेकिन यदि- संकल्प कर
भुला चला चल डगर पर.

                   तुझ पर किसका क्या असर?
                   तेरी किस पर क्यों नज़र?
                   अलग-अलग जब रहगुज़र.

किसकी नहीं यहाँ गुजर?
कौन न कर पाता बसर?
वह! लेता सबकी खबर.

                    अपनी-अपनी है डगर.
                    एक न दूजे सा बशर.
                    छोड़ न कोशिश में कसर.

बात न करना तू लचर.
पाना है मंजिल अगर.
आस न तजना उम्र भर.

                     प्रति पल बन-मिटती लहर.
                     ज्यों का त्यों रहता गव्हर.
                     देख कि किसका क्या असर?

कहे सुने बिन हो सहर.
तनिक न टलता है प्रहर.
फ़िक्र न कर खुद हो कहर.

                       शब्दाक्षर का रच शहर.
                       बहे भाव की नित नहर.
                       ग़ज़ल न कहना बिन बहर.

'सलिल' समय की सुन बजर.
साथ अमन के है ग़दर.
तनिक न हो विचलित शजर.

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मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

लेख : मुक्तिका क्या है? --संजीव 'सलिल'

लेख : मुक्तिका क्या है?


संजीव 'सलिल'
*
- मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-

१. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद पदांत तथा तुकांत युक्त होता है.

२. हर पद का पदभार हिंदी मात्रा गणना के अनुसार समान होता है. यह मात्रिक छन्द में निबद्ध पद्य रचना है.

३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं. इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है.

४.हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा, सोरठा मुक्तिका में सोरठा, रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है.

५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है. एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता.

६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं.

७. मुक्तिका को अनुगीत, तेवरी, गीतिका, हिन्दी ग़ज़ल आदि भी कहा गया है.

गीतिका हिन्दी का एक छंद विशेष है अतः, गीत के निकट होने पर भी इसे गीतिका कहना उचित नहीं है.

तेवरी शोषण और विद्रूपताओं के विरोध में विद्रोह और परिवर्तन की भाव -भूमि पर रची जाती है. ग़ज़ल का शिल्प होने पर भी तेवरी के अपनी स्वतंत्र पहचान है.

हिन्दी ग़ज़ल के विविध रूपों में से एक मुक्तिका है. मुक्तिका उर्दू गजल की किसी बहर पर भी आधारित हो सकती है किन्तु यह उर्दू ग़ज़ल की तरह चंद लय-खंडों (बहरों) तक सीमित नहीं है.

इसमें मात्रा या शब्द गिराने अथवा लघु को गुरु या गुरु को लघु पढने की छूट नहीं होती.

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रविवार, 10 अक्टूबर 2010

तेवरी : किसलिए? नवीन चतुर्वेदी

तेवरी ::

किसलिए?

नवीन चतुर्वेदी
*
*
बेबात ही बन जाते हैं इतने फसाने किसलिए?
दुनिया हमें बुद्धू समझती है न जाने किसलिए?

ख़ुदग़र्ज़ हैं हम सब, सभी अच्छी तरह से जानते!
हर एक मसले पे तो फिर मुद्दे बनाने किसलिए?

सब में कमी और खोट ही दिखता उन्हें क्यूँ हर घड़ी?
पूर्वाग्रहों के जिंदगी में शामियाने किसलिए?

हर बात पे तकरार करना शौक जैसे हो गया!
भाते उन्हें हर वक्त ही शक्की तराने किसलिए?
*

सोमवार, 13 सितंबर 2010

एक तेवरी : रमेश राज, अलीगढ़.

एक तेवरी :

रमेश राज, अलीगढ़.
*
*
नैन को तो अश्रु के आभास ने अपना पता-
और मन को दे दिया संत्रास ने अपना पता..
*
सादगी-मासूमियत इस प्यार को हम क्या कहें?
खुरपियों को दे दिया है घास ने अपना पता..
*
मरूथलों के बीच भी जो आज तक भटके नहीं.
उन मृगों को झट बताया प्यास ने अपना पता..
*
फूल तितली और भँवरे अब न इसके पास हैं-
यूँ कभी बदला न था मधुमास ने अपना पता..
*
बात कुछ थी इस तरह की चौंकना मुझको पड़ा-
चीख के घर का लिखा उल्लास ने अपना पता..
*****************
प्रेषक: http://divyanarmada.blogspot.com

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

मुक्तिका: जब दिल में अँधेरा हो... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

जब दिल में अँधेरा हो...

संजीव  'सलिल'
*













*

जब दिल में अँधेरा हो, क्या होगा मशालों से
मिलते हों गले काँटे, जब पाँव के छालों से?

चाबी की करे चिंता, कोई क्यों बताओ तो?
हों हाथ मिलाये जब, चोरों ने ही तालों से..

कुर्सी पे मैं बैठूँगा, बीबी को बिठाऊँगा.
फिर राज चलाऊँगा, साली से औ' सालों से..
 
इतिहास भी लिक्खेगा, 'मुझसा नहीं दूजा है,
है काबलियत मेरी, घपलों में-घुटालों में..

सडकों पे तुम्हें गड्ढे, दिखते तो दोष किसका?
चिकनी मुझे लगती हैं, हेमा जी के गालों से..

नंगों की तुम्हें चिंता, मुझको है फ़िक्र खुद की.
लज्जा को ढाँक दूँगा, बातों के दुशालों से..

क्यों तुमको खलिश होती, है कल की कहो चिंता.
सौदा है 'सलिल' का जब सूरज से उजालों से..

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शुक्रवार, 18 जून 2010

मुक्तिका मिट्टी मेरी... संजीव 'सलिल'

 मुक्तिका
मिट्टी मेरी...
संजीव 'सलिल'
*

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*
मोम बनकर थी पिघलती रही मिट्टी मेरी.
मौन रहकर भी सुलगती रही मिट्टी मेरी..


बाग़ के फूल से पूछो तो कहेगा वह भी -
कूकती, नाच-चहकती रही मिट्टी मेरी..

पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गयी-
चाक-चढ़कर भी, निखरती रही मिट्टी मेरी..

ढाई आखर न पढ़े, पोथियाँ रट लीं, लिख दीं.
रही अनपढ़ ही, सिसकती रही मिट्टी मेरी..

कभी चंदा, कभी तारों से लड़ायी आखें.
कभी सूरज सी दमकती रही मिट्टी मेरी..

खता लम्हों की, सजा पाती रही सदियों से.
पाक-नापाक चटकती रही मिट्टी मेरी..

खेत-खलिहान में, पनघट में, रसोई में भी.
मैंने देखा है, खनकती रही मिट्टी मेरी..

गोद में खेल, खिलाया है सबको गोदी में.
फिर भी बाज़ार में बिकती रही मिट्टी मेरी..

राह चुप देखती है और समय आने पर-
सूरमाओं को पटकती
रही मिट्टी मेरी..

कभी थमती नहीं, रुकती नहीं, न झुकती है.
नर्मदा नेह की, बहती रही
मिट्टी मेरी..

******************

Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 19 मई 2010

रचना प्रति रचना : ...क्या कीजे? --महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’, संजीव 'सलिल'

रचना प्रति रचना 
 वरिष्ठ और ख्यातिलब्ध शायर श्री महेश चन्द्र गुप्त 'खलिश' रचित यह ग़ज़ल ई-कविता के पृष्ठ पर प्रकाशित हुई. इसे पढ़कर हुई प्रतिक्रिया प्रस्तुत हैं. जो अन्य रचनाकार इस पर लिखेंगे वे रचनाएँ और प्रतिक्रियाएँ भी यहाँ प्रकाशित होंगी. उद्देश्य रचनाधर्मिता और पठनीयता को बढाकर रचनाकारों को निकट लाना मात्र है.
 जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे ईकवितामई २०१० 
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे
जब हार गए हों  मैदाँ में, शमशीरी दम-खम क्या कीजे
दुनिया में अकेले आए थे, दुनिया से अकेले जाना है
दुनिया की राहों में पाया हमराह नहीं ग़म क्या कीजे
बिठला कर के अपने दिल में हम उनकी पूजा करते हैं
वो समझें हमको बेगाना, बतलाए कोई हम क्या कीजे
दिल में तो उनके नफ़रत है पर  मीठी बातें करते हैं
वो प्यार-मुहब्बत के झूठे लहराएं परचम, क्या कीजे
क्या वफ़ा उन्हें मालूम नहीं, बेवफ़ा हमें वो कहते हैं
सुन कर ऐसे इल्ज़ाम ख़लिश जब आँखें हों नम क्या कीजे

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
*
मुक्तिका:
...
क्या कीजे?
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जब घाव लगे हों दिल पर तो बातों की मरहम क्या कीजे?

सब भुला खलिश, आ नेह-नर्मदा से चुल्लू भर जल पीजे.

दे बदी का बदला नेकी से, गम के बदले में खुशी लुटा.
देता है जब ऊपरवाला, नीचेवाले से क्या लीजे?

दुनियादारी की वर्षा में तू खुद को तर मत होने दे.
है मजा तभी जब प्यार-मुहब्बत की बारिश में तू भीजे.

जिसने बाँटा वह ज्यों की त्यों चादर निर्मल रख चला गया.
जिसने जोड़ा वह चिंता कर अंतिम दम तक मुट्ठी मीजे.

सागर, नदिया या कूप न रीता कभी पिलाकर जल अपना.
मत सोच 'सलिल' किसको कितना कब-कब कैसे या क्यों दीजे?
*

मंगलवार, 11 मई 2010

मुक्तिका: कुछ हवा दो.... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'

कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
शोले जो दहके वतन के वास्ते फिर बुझ न जाएँ..

खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो.
लहकी हैं चिंगारियाँ फूँको कि वे फिर बुझ न जाएँ..

प्यार की, मनुहार की, इकरार की, अभिसार की
मशालें ले फूँक दो दहशत, कहीं फिर बुझ न जाएँ..

ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना 'सलिल' फिर बुझ न जाएँ...

सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ..

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

मुक्तिका: ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो --संजीव 'सलिल'

आज की रचना :                                                                                                                                                                   

संजीव 'सलिल'

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ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..

जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..

वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..

रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..

दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी.. 
******************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

गीतिका आदमी ही भला मेरा गर करेंगे

गीतिका
आदमी ही भला मेरा गर करेंगे.

बदी करने से तारे भी डरेंगे.


बिना मतलब मदद कर दे किसी की

दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.


कलम थामे, न जो कहते हकीकत

समय से पहले ही बेबस मरेंगे।


नरमदा नेह की जो नहाते हैं

बिना तारे किसी के खुद तरेंगे।


न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते

सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।


*********************************

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

ग़ज़ल बहुत हैं मन में लेकिन --'सलिल'

ग़ज़ल

'सलिल'

बहुत हैं मन में लेकिन फिर भी कम अरमान हैं प्यारे.
पुरोहित हौसले हैं मंजिलें जजमान हैं प्यारे..

लिये हम आरसी को आरसी में आरसी देखें.
हमें यह लग रहा है खुद से ही अनजान हैं प्यारे..

तुम्हारे नेह का नाते न कोई तोड़ पायेगा.
दिले-नादां को लगते हिटलरी फरमान हैं प्यारे..

छुरों ने पीठ को घायल किया जब भी तभी देखा-
'सलिल' पर दोस्तों के अनगिनत अहसान हैं प्यारे..

जो दाना होने का दावा रहा करता हमेशा से.
'सलिल' से ज्यादा कोई भी नहीं नादान है प्यारे..

********************************

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

तेवरी: हुए प्यास से सब बेहाल. --संजीव 'सलिल'

तेवरी:

संजीव 'सलिल'


हुए प्यास से सब बेहाल.
सूखे कुएँ नदी सर ताल..

गौ माता को दिया निकाल.
श्वान रहे गोदी में पाल..

चमक-दमक ही हुई वरेण्य.
त्याज्य सादगी की है चाल..

शंकाएँ लीलें विश्वास.
नचा रहे नातों के व्याल..

कमियाँ दूर करेगा कौन?
बने बहाने हैं जब ढाल..

सुन न सके मौन कभी आप.
बजा रहे आज व्यर्थ गाल..

उत्तर मिलते नहीं 'सलिल'.
अनसुलझे नित नए सवाल..

********************

रविवार, 3 जनवरी 2010

गीतिका: तितलियाँ --संजीव 'सलिल'

गीतिका





तितलियाँ



संजीव 'सलिल'

*

यादों की बारात तितलियाँ.



कुदरत की सौगात तितलियाँ..



बिरले जिनके कद्रदान हैं.



दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..



नाच रहीं हैं ये बिटियों सी



शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..



बद से बदतर होते जाते.



जो, हैं वे हालात तितलियाँ..



कली-कली का रस लेती पर



करें न धोखा-घात तितलियाँ..



हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं



क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..



'सलिल' भरोसा कर ले इन पर



हुईं न आदम-जात तितलियाँ..



*********************************



Acharya Sanjiv Salil



http://divyanarmada.blogspot.com

शनिवार, 2 जनवरी 2010

गीतिका: तुमने कब चाहा दिल दरके? --संजीव वर्मा 'सलिल'

गीतिका

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तुमने कब चाहा दिल दरके?

हुए दिवाने जब दिल-दर के।

जिन पर हमने किया भरोसा

वे निकले सौदाई जर के..

राज अक्ल का नहीं यहाँ पर

ताज हुए हैं आशिक सर के।

नाम न चाहें काम करें चुप

वे ही जिंदा रहते मर के।

परवाजों को कौन नापता?

मुन्सिफ हैं सौदाई पर के।

चाँद सी सूरत घूँघट बादल

तृप्ति मिले जब आँचल सरके.

'सलिल' दर्द सह लेता हँसकर

सहन न होते अँसुआ ढरके।

**********************

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

गीतिका: वक्त और हालात की बातें --संजीव 'सलिल'

गीतिका

संजीव 'सलिल'

वक्त और हालात की बातें
खालिस शह औ' मात की बातें..

दिलवर सुन ले दिल कहता है .
अनकहनी ज़ज्बात की बातें ..

मिलीं भरोसे को बदले में,
महज दगा-छल-घात की बातें..

दिन वह सुनने से भी डरता
होती हैं जो रात की बातें ..

क़द से बहार जब भी निकलो
मत भूलो औकात की बातें ..

खिदमत ख़ुद की कर लो पहले
तब सोचो खिदमात की बातें ..

'सलिल' मिले दीदार उसी को
जो करता है जात की बातें..
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बुधवार, 23 दिसंबर 2009

गीतिका: बिना नाव पतवार हुए हैं --संजीव 'सलिल'

गीतिका:





संजीव 'सलिल'


बिना नाव पतवार हुए हैं.

क्यों गुलाब के खार हुए हैं.


दर्शन बिन बेज़ार बहुत थे.

कर दर्शन बेज़ार हुए हैं.


तेवर बिन लिख रहे तेवरी.

जल बिन भाटा-ज्वार हुए हैं.


माली लूट रहे बगिया को-

जनप्रतिनिधि बटमार हुए हैं.


कल तक थे मनुहार मृदुल जो,

बिना बात तकरार हुए हैं.


सहकर चोट, मौन मुस्काते,

हम सितार के तार हुए हैं.


महानगर की हवा विषैली.

विघटित घर-परिवार हुए हैं.


सुधर न पाई है पगडण्डी,

अनगिन मगर सुधार हुए हैं.


समय-शिला पर कोशिश बादल,

'सलिल' अमिय की धार हुए हैं.

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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

:गीतिकाएं: साधना हो सफल नर्मदा-नर्मदा/खोटे सिक्के हैं प्रचलन में. --संजीव 'सलिल'

आचार्य संजीव 'सलिल' की २ गीतिकाएं



ई मेल: सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम, ब्लॉग: संजिवसलिल.ब्लागस्पाट.com







साधना हो सफल नर्मदा- नर्मदा.

वंदना हो विमल नर्मदा-नर्मदा.


संकटों से न हारें, लडें,जीत लें.

प्रार्थना हो प्रबल नर्मदा-नर्मदा.



नाद अनहद गुंजाती चपल हर लहर.

नृत्य रत हर भंवर नर्मदा-नर्मदा.



धीर धर पीर हर लें गले से लगा.

रख मनोबल अटल नर्मदा-नर्मदा.



मोहिनी दीप्ति आभा मनोरम नवल.

नाद निर्मल नवल नर्मदा-नर्मदा.



सिर कटाते समर में झुकाते नहीं.

शौर्य-अर्णव अटल नर्मदा-नर्मदा.



सतपुडा विन्ध्य मेकल सनातन शिखर

सोन जुहिला सजल नर्मदा-नर्मदा.



आस्था हो शिला, मित्रता हो 'सलिल'.

प्रीत-बंधन तरल नर्मदा-नर्मदा.



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खोटे सिक्के हैं प्रचलन में.

खरे न बाकी रहे चलन में.


मन से मन का मिलन उपेक्षित.

तन को तन की चाह लगन में.


अनुबंधों के प्रतिबंधों से-

संबंधों का सूर्य गहन में.


होगा कभी, न अब बाकी है.

रिश्ता कथनी औ' करनी में.


नहीं कर्म की चिंता किंचित-

फल की चाहत छिपी जतन में.


मन का मीत बदलता पाया.

जब भी देखा मन दरपन में.


राम कैद ख़ुद शूर्पणखा की,

भरमाती मादक चितवन में.


स्नेह-'सलिल' की निर्मलता को-

मिटा रहे हम अपनेपन में.


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गुरुवार, 26 नवंबर 2009

गीतिका: अपने मन से हार रहे हैं -संजीव 'सलिल'

गीतिका

आचार्य संजीव 'सलिल'

अपने मन से हार रहे हैं.
छुरा पीठ में मार रहे हैं॥

गुलदस्ते हैं मृग मरीचिका।
छिपे नुकीले खार रहे हैं॥

जनसेवक आखेटक निकले।
जन-गण महज शिकार रहे हैं॥

दुःख के सौदे नगद हो रहे।
सुख-शुभ-सत्य उधार रहे हैं॥

शिशु-बच्चों को यौन-प्रशिक्षण?
पाँव कुल्हाडी मार रहे हैं॥

राष्ट्र गौड़, क्यों प्रान्त प्रमुख हो?
कलुषित क्षुद्र विचार रहे हैं॥

हुए अजनबी धन-पद पाकर।
कभी ह्रदय के हार रहे हैं॥

नेह नर्मदा की नीलामी।
'सलिल' हाथ अंगार रहे हैं॥

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गुरुवार, 19 नवंबर 2009

तेवरी -संजीव 'सलिल'

: तेवरी :

संजीव 'सलिल'


दिल ने हरदम चाहे फूल.
पर दिमाग ने बोये शूल..

मेहनतकश को कहें गलत.
अफसर काम न करते भूल..

बहुत दोगली है दुनिया
तनिक न भाते इसे उसूल..

पैर मत पटक नाहक तू
सर जा बैठे उड़कर धूल..

बने तीन के तेरह कब?
डूबा दिया अपना धन मूल..

मँझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते हम जा कूल..

धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवास्वप्न में झूल..

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