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सोमवार, 1 जनवरी 2018

नवगीत

शिव-शिव कह उठ हर सुबह,
सुमिर शिवा सो रात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
.
समय-शिला पर दे बना,
कोशिश के नव चित्र.
समय-रेत से ले बना,
नया घरौंदा मित्र.
मिला आँख से आँख तू,
समय सुनेगा बात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
.
समय सिया है, सती भी,
तजें राम-शिव जान.
यशोधरा तज बुद्ध बन,
सही समय अनुमान.
बंध रहे सम तो उचित
अनुचित उचित न तात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
.
समय सत्य-सुंदर वरो,
पूज शिवा-शिव संग.
रंग न हों बदरंग अब,
साध्य न बने अनंग.
सतत सजग रह हर समय,
समय न करे दे घात.
हर बिगड़ी को ले बना,
कर न बात बेबात.
...
1.1.2018

रविवार, 31 दिसंबर 2017

navgeet

नवगीत:
एक दिन क्यों?
*
एक दिन क्यों?
हर दिवस को
साल नूतन तुम समझना
*
सुबह जगना
आँख मलना
पैर धरती पर जमाना
गिर पड़ो तो मुस्कुराना
उठ खड़े हो
लक्ष्य पाना।
कोई रोके
कोई टोके, मत उलझना।
*
हो पड़ोसी 
गिद्ध-कौआ
तो न सोना, जगे रहना 
सरहदोँ पर डटे रहना
ध्वजा अपनी
झुक न जाए.
जान लेना 
जाँ न देना, झट सुलझना.
....


haiku

हाइकु
*
हो नया हर्ष
हर नए दिन में
नया उत्कर्ष
.
प्राची के गाल
रवि करता लाल
है नया साल
.
हाइकु लिखो
हर दिवस् एक
इरादा नेक
.

शनिवार, 30 दिसंबर 2017

geet

गीत :
*
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
सपनीली आँखों में आँसू
छेड़ें-रेपें हरदिन धाँसू
बहू कोशिशी झुलस-जल रही
बाधा दियासलाई सासू
कैरोसीन ननदिया की जय
माँग-दाँव पर
लगी हुई सह
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
मालिक फटेहाल बेचारा
नौकर का है वारा-न्यारा
जीना ही दुश्वार हुआ है
विधि ने अपनों को ही मारा
नैतिकता का पल-पल है क्षय
भाँग चाशनी
पगी हुई कह
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
रीत पुरातन ज्यों की त्यों है
मत पूछो कैसी है?, क्यों है?
कहीं बोलता है सन्नाटा
कहीं चुप्प बैठी चिल्ल-पों है
अँधियारे की दीवाली में
ज्योति-कालिमा
सगी हुई ढह
सत्रह साला
सदी हुई यह
*  

navgeet

नवगीत  
*
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो 
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
वही रफ़्तार बेढंगी
जो पहले थी, सो अब भी है
दिशा बदले न गति बदले
निकट हो लक्ष्य फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हरेक चेहरा है दोरंगी
न मेहनत है, न निष्ठा है
कहें कुछ और कर कुछ और
अमिय हो फिर गरल कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हुई सद्भाव की तंगी
छुरी बाजू में मुख में राम
धुआँ-हल्ला दसों दिश है
कहीं हो अमन फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
***

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

navgeet

नव गीत -
*
नए साल में 
हर दिन देना 
बिना टैक्स 
मुस्कान नयी तुम
*
हुई नोट-बंदी तो क्या गम?
बिन नोटों के नैन लड़ा लें.
क्या जानें राहुल-मोदीजी
हम बातों से क्या सुख पालें?
माया, ममता, उमा न जानें
द्वैत मिटाया जाता कैसे?
गहें हाथ में हाथ, साथ रह
हम कुटिया में महल बसा लें.
हर दिन मुझको
पडीं दिखाई
नव सद्गुण की
खान नयी तुम
*
यह मुस्कान न काली होती
यह मुस्कान न जाली होती
अधरों की यह शान सनातन
कठिनाई में खुशियाँ बोती
बेच-खरीद न सकता कोई
नहीं जमाखोरी हो सकती
है निर्धन का धन, जाड़े में
ज्यों चैया की प्याली होती
ऋचा-मन्त्र सी
निर्मल पावन
बम्बुलिया की
तान नयी तुम
*
काम न बैंकों की कतार से
कोई न नाता है उधार से
कम से कम में काम चलाना
जग सीखे तुम समझदार से
खर्च किया कम, बचत करी जो
निर्बल का बल बने समय पर
सुने न कोई कान लगाकर
दूरी रखना तुम दिवार से
कभी न करतीं
बहिष्कार जो
गृह-संसद की
शान नयी तुम
****
२३-१२-२०१६

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोरे करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
***

navgeet

नवगीत:
नए साल 
मत हिचक 
बता दे क्या होगा? 

सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पायेगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटायी
तो क्या
घटनाक्रम होगा?
.
काशी, मथुरा, अवध
विवाद मिटेंगे क्या?
नक्सलवादी
तज विद्रोह
हटेंगे क्या?
पूर्वांचल में
अमन-चैन का
क्या होगा?
.
धर्म भाव
कर्तव्य कभी
बन पायेगा?
मानवता की
मानव जय
गुंजायेगा?
मंगल छू
भू के मंगल
का क्या होगा?
*

navgeet

नवगीत:
संजीव
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
.

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीयर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोर करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
***

रविवार, 1 जनवरी 2017

kavita

नए साल की पहली रचना-
कलह कथा 
*
कुर्सी की जयकार हो गयी, सपा भाड़ में भेजें आज 
बेटे के अनुयायी फाड़ें चित्र बाप के, आये न लाज 

स्वार्थ प्रमुख, निष्ठा न जानते, नारेबाजी शस्त्र हुआ 
भीड़तंत्र ही खोद रहा है, लोकतंत्र के लिए कुआं 

रंग बदलता है गिरगिट सम, हुआ सफेद पूत का खून
झुका टूटने के पहले ही बाप, देख निज ताकत न्यून   

पोल खुली नूरा कुश्ती की, बेटे-बाप हो गए एक 
चित्त हुए बेचारे चाचा, दिए गए कूड़े में फेंक 

'आजम' की जाजम पर बैठे, दाँव आजमाते जो लोग 
नींव बनाई जिनने उनको ठुकराने का पाले रोग 

'अमर' समर में हों शहीद पछताएँ, शत्रु हुए वे ही
गोद खिलाया जिनको, भोंका छुरा पीठ में उनने ही 

जे.पी., लोहिया, नरेन्द्रदेव की, आत्माएँ करतीं चीत्कार 
लालू, शरद, मुलायम ने ही सोशलिज्म पर किया प्रहार 

घर न घाट की कोंग्रेस के पप्पू भाग चले अवकाश 
कहते थे भूकम्प आएगा, हुआ झूठ का पर्दाफाश 

अम्मा की पादुका उठाये हुईं शशिकला फिर आगे 
आर्तनाद ममता का मिथ्या, समझ गए जो हैं जागे  

अब्दुल्ला कर-कर प्रलाप थक-चुप हो गए, बोलती बन्द 
कमल कर रहा आत्मप्रशंसा, चमचे सुना रहे हैं छंद 

सेनापति आ गए नए हैं, नया साल भी आया है 
समय बताएगा दुश्मन कुछ काँपा या थर्राया है?

इनकी गाथा छोड़ चलें हम,घटीं न लेकिन मिटीं कतार 
बैंकों में कुछ बेईमान तो मिले मेहनती कई हजार

श्री प्रकाश से नया साल हो जगमग करिये कृपा महेश 
क्यारी-क्यारी कुसुम खिलें नव, काले धन का रहे न लेश 

गुप्त न रखिये कोई खाता, खुला खेल खेलें निर्भीक 
आजीवन अध्यक्ष न होगा, स्वस्थ्य बने खेलों में लीक 

*** 

शनिवार, 31 दिसंबर 2016

गीत

एक रचना
*
नए साल!
आजा कतार में
आगे मत जा।
*
देश दिनों से खड़ा हुआ है,
जो जैसा है अड़ा हुआ है,
किसे फ़िक्र जनहित का पेड़ा-
बसा रहा है, सड़ा हुआ है।
चचा-भतीजा ताल ठोंकते,
पिता-पुत्र ज्यों श्वान भौंकते,
कोई काट न ले तुझको भी-
इसीलिए
कहता हूँ-
रुक जा।
नए साल!
आजा कतार में
आगे मत जा।
*
वादे जुमले बन जाते हैं,
घपले सारे धुल जाते हैं,
लोकतंत्र के मूल्य स्वार्थ की-
दीमक खाती, घुन जाते हैं।
मौनी बाबा बोल रहे हैं
पप्पू जहँ-तहँ डोल रहे हैं
गाल बजाते जब-तब लालू
मत टकराना
बच जा झुक जा।
नए साल!
आजा कतार में
आगे मत जा।
*
एक आदमी एक न पाता,
दूजा लाख-करोड़ जुटाता,
मार रही मरते को दुनिया-
पिटता रोये, नहीं सुहाता।
हुई देर, अंधेर यहाँ है,
रही अनसुनी टेर यहाँ है,
शुद्ध दलाली, न्याय कहाँ है?
जलने से
पहले मत
बुझ जा।
नए साल!
आजा कतार में
आगे मत जा।
*****

navgeet

नवगीत
समय वृक्ष है
*
समय वृक्ष है
सूखा पत्ता एक झरेगा
आँखें मूँदे.
नव पल्लव तब
एक उगेगा
आँखे खोले.
*
कहो अशुभ या
शुभ बोलो
कुछ फर्क नहीं है.
चिरजीवी होने का
कोई अर्क नहीं है.
कितने हुए?
होएँगे कितने?
कौन बताये?
किसका कितना वजन?
तराजू कोई न तोले.
ठोस दिख रहे
लेकिन हैं
भीतर से पोले.
नव पल्लव
किस तरह उगेगा
आँखें खोले?
*
वाम-अवाम
न एक साथ
मिल रह सकते हैं.
काम-अकाम
न एक साथ
खिल-दह सकते हैं.
पूरब-पश्चिम
उत्तर-दक्षिण
ऊपर-नीचे
कर परिक्रमा
नव संकल्प
अमिय नित घोले.
श्रेष्ठ वही जो
श्रम-सीकर की
जय-जय बोले.
बिन प्रयास
किस तरह कर्मफल
आँखें खोले?
*
जाग,
छेड़ दे, राग नया
चुप से क्या हासिल?
आग
न बुझने देना
तू मत होना गाफिल.
आते-जाते रहें
साल-दर-साल
नए कुछ.
कौन जानता
समय-चक्र
दे हिम या शोले ?
नोट बंद हों या जारी
नव आशा बो ले.
उसे दिखेगी उषा
जाग जो
आँखें खोले
***

navgeet

नवगीत:
संजीव
.
बहुत-बहुत आभार तुम्हारा
ओ जाते मेहमान!
.
पल-पल तुमने
साथ निभाया
कभी रुलाया
कभी हँसाया
फिसल गिरे, आ तुरत उठाया
पीठ ठोंक
उत्साह बढ़ाया
दूर किया हँस कष्ट हमारा
मुरझाते मेहमान
.
भूल न तुमको
पायेंगे हम
गीत तुम्हारे
गायेंगे हम
सच्ची बोलो कभी तुम्हें भी
याद तनिक क्या
आयेंगे हम?
याद मधुर बन, बनो सहारा
मुस्काते मेहमान
.
तुम समिधा हो
काल यज्ञ की
तुम ही थाती
हो भविष्य की
तुमसे लेकर सतत प्रेरणा
मन:स्थिति गढ़
हम हविष्य की
'सलिल' करेंगे नहीं किनारा
मनभाते मेहमान
.

३१.१२.२०१४ 

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोरे करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
***

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

laghukatha

लघुकथा
नया साल 
*
चंद कदमों के फासले पर एक बूढ़े और एक नवजात को सिसकते-कराहते देखकर चौंका, सजग हो धीरज बँधाकर कारण पूछा तो दोनों एक ही तकलीफ के मारे मिले। उनकी व्यथा-कथा ने झकझोर दिया। 
वे दोनों समय के वंशज थे, एक जा रहा था, दूसरा आ रहा था, दोनों को पहले से सत्य पता था, दोनों अपनी-अपनी भूमिकाओं के लिये तैयार थे। फिर उनके दर्द और रुदन का कारण क्या हो सकता था? बहुत सोचने पर भी समझ न आया तो उन्हीं से पूछ लिया। 
हमारे दर्द का कारण हो तुम, तुम मानव जो खुद को दाना समझने वाले नादान हो। कुदरत के कानून के मुताबिक दिन-रात, मौसम, ऋतुएँ आते-जाते रहते हैं।  आदमियों को छोड़कर कोई दूसरी नस्ल कुदरत के काम में दखल नहीं देती। सब अपना-अपना काम करते हैं। तुम लोग बदलावों को खुद से जोड़कर और सबको परेशान करते हो।
कुदरत के लिये सुबह दोपहर शाम रात और पैदा होने-मरने का क्रम का एक सामान्य प्रक्रिया है। तुमने किसी आदमी से जोड़कर समय को साल में गिनना आरंभ कर दिया, इतना ही नहीं अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग आदमियों के नाम पर साल बना लिये। 
अब साल बदलने की आड़ में हर कुछ दिनों में नये साल के नाम पर झाड़ों को काट कर कागज़ बनाकर उन पर एक दूसरे को बधाई कामना देते हो जबकि इसमें तुम्हारा कुछ नहीं होता। कितना शोर मचाते हो?, कितनी खाद्य सामग्री फेंकते हो?, कितना धुआँ फैलाते हो? पशु-पक्षियों का जीना मुश्किल कर देते हो। तुम्हारी वज़ह से दोनों जाते-आते समय भी चैन से नहीं रह सकते। सुधर जाओ वरना भविष्य में कभी नहीं देख पालोगे कोई नया साल। समय के धैर्य की परीक्षा मत लो, काल को महाकाल बनने के लिये मजबूर मत करो।        
इतना कहकर वे दोनों तो ओझल हो गये लेकिन मेरी आँख खुल गयी, उसके बाद सो नहीं सका क्योंकि पड़ोसी जोर-शोर से मना रहे थे नया साल।
***    

muktika

मुक्तिका
निराला हो
*
जैसे हुए, न वैसा ही हो, अब यह साल निराला हो
मेंहनतकश ही हाथों में, अब लिये सफलता प्याला हो
*
उजले वसन और तन जिनके, उनकी अग्निपरीक्षा है
सावधान हों सत्ता-धन-बल, मन न तनिक भी काला हो
*
चित्र गुप्त जिस परम शक्ति का, उसके पुतले खड़े न कर
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में, देव न अल्लाताला हो
*
कल को देख कलम कल का निर्माण आज ही करती है
किलकिल तज कलकल वरता मन-मंदिर शांत शिवाला हो
*
माटी तन माटी का दीपक बनकर तिमिर पिये हर पल
आये-रहे-जाए जब भी तब चारों ओर उजाला हो
*
क्षर हो अक्षर को आराधें, शब्द-ब्रम्ह की जय बोलें
काव्य-कामिनी रसगगरी, कवि-आत्म छंद का प्याला हो
*
हाथ हथौड़ा कन्नी करछुल कलम थाम, आराम तजे
जब जैसा हो जहाँ 'सलिल' कुछ नया रचे, मतवाला हो
***   

muktika

मुक्तिका:
रहें साल भर
*
रहें साल भर हँस बाँहों में
एक-दूसरे की चाहों में
*
कोशिश, कशिश, कदम का किस्सा
कह-सुन, लिख-पढ़-गढ़ राहों में
*
बहा पसीना, चाय बेचकर
कुछ की गिनती हो शाहों में
*
संगदिली या तंगदिली ने
कसर न छोड़ी है दाहों में
*
भूख-निवाला जैसे हम-तुम
संग रहें चोटों-फाहों में
*
अमर हुई है 'सलिल' लगावट
ज़ुल्म-जुदाई में, आहों में
*
परवाज़ों ने नाप लिया है
आसमान सुन लो वाहों में
***

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

navgeet

एक रचना
काम न काज
*
काम न काज
जुबानी खर्चा
नये वर्ष का कोरा पर्चा
*
कल सा सूरज उगे आज भी
झूठा सच को ठगे आज भी
सरहद पर गोलीबारी है
वक्ष रक्त से सने आज भी
किन्तु सियासत कहे करेंगे
अब हम प्रेम
भाव की अर्चा
*
अपना खून खून है भैया
औरों का पानी रे दैया!
दल दलबंदी के मारे हैं
डूबे लोकतंत्र की नैया
लिये ले रहा जान प्रशासन
संसद करती
केवल चर्चा
*
मत रोओ, तस्वीर बदल दो
पैर तले दुःख-पीर मसल दो
कृत्रिम संवेदन नेता के
लौटा, थोड़ी सीख असल दो
सरकारों पर निर्भर मत हो
पायें आम से
खास अनर्चा
***