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शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

नवंबर ७, ग़ज़ल, अवधी, गीत, दोहा, यमकीय दोहे,

सलिल सृजन नवंबर ७
*
ग़ज़ल
० 
चंपई शबाब का दीदार है ग़ज़ल
गुलाबी उद्गार का इज़हार है ग़ज़ल

नफरतों के दौर को देती चुनौतियाँ
प्यार प्यार प्यार सिर्फ प्यार है ग़ज़ल

आदाब कह रही है, आ दाब मत समझ
नेकियों के वास्ते आभार है ग़ज़ल

छुईमुई नहीं रही, लड़ जंग जीतती
राहें न रोक तीर है, तलवार है ग़ज़ल

हाले-दिल, हकीकतें भी कर रही बयां
इंतिजार है, विसाले-यार है गजल

पलक पाँवड़े बिछा सब राह देखते
हैं चाह हर बशर की, इतवार है ग़ज़ल

पूर्णिका या मुक्तिका, सजल या तेवरी
गीतिका साहित्य का सिंगार है ग़ज़ल
•••
अवधी गीत 
सुनो कथा यह चंदावाली  
भारत सुखी भवा। 
उतरो दक्खिन ध्रुव पै इसरो
जग में प्रथम हुआ। 

राम-बान सम राकिट छोड़िन 
नील गगन चीरन। 
कक्षा पे कक्षाएँ बदलिन
सब दुनिया हेरन।
कूद-फाँद के चंदा की 
कक्षा में पैठि गवा। 
सुनो कथा यह चंदावाली  
भारत सुखी भवा।

छटा देखि चंदा की पप्पू 
हुलस-पुलक नाचब।
सुमिर रह्यो बजरंगबली के 
जिन सागर लाँघव। 
लैंडर बिकरम झट चंदा के 
झुककर नमन किया। 
सुनो कथा यह चंदावाली  
भारत सुखी भवा। 
 
दर्वज्जे से निकरब बहिरे 
रोवर घूमि रहा। 
पद-चिन्हन के फोटू भेजब 
सब जग जाँचि रहा। 
गड्ढा लाँघिब, पानी खोजब 
अघटित घटित हुआ।     
सुनो कथा यह चंदावाली  
भारत सुखी भवा।
७.११.२०२४
•••
मुक्तिका
क्यों चाहते हो खुशी, यश, सुख, प्यार?
क्या पता कितनी हैं श्वास उधार?

तुम कह रहे हो जिसे अपना यार
वह सिर्फ सपना सच करो स्वीकार

अनुबंध हैं; संबंध सचमुच मीत
हैं सत्य पर प्रतिबंध नित्य हजार

बावरी है आस, प्यास अनंत है
संत्रास; जग-उपहास कह उपहार

जग पूजता है मौन रह दिन-रात
प्रभु को; पुजारी कर रहा व्यापार

है श्रेष्ठ कृति; खुद को समझ मत दीन
पुरुषार्थ ही परमार्थ का आगार

नपना न कोई है सनातन सत्य
तपना नियति कर सूर्य अंगीकार
***
मुक्तक
परिंदों ने किया कलरव सुन तुम्हारी हँसी निर्मल
निर्झरों की तरंगों ने की नकल तो हुई कलकल
ज़िन्दगी हँसती रहे कर बंदगी चाहा खुदा से
मिटेगा दुःख का प्रदूषण रहो हँसते 'सलिल' पल-पल
७.११.२०१९
मुक्तक
'समझ लेंगे' मिली धमकी बताओ क्या करें हम?
समर्पण में कुशल है, रहेंगे संबंध कायम
कहो सबला या कि अबला, बला टलती नहीं है
'सलिल' चाहत बिना राहत कभी मिलती नहीं है
७.११.`०१६
***
रसानंद दे छंद नर्मदा :५
दोहा की छवियाँ अमित
- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
दोहा की छवियाँ अमित, सभी एक से एक ।
निरख-परख रचिए इन्हें, दोहद सहित विवेक ।।
रम जा दोहे में तनिक, मत कर चित्त उचाट ।
ध्यान अधूरा यदि रहा, भटक जायेगा बाट ।।
दोहा की गति-लय पकड़, कर किंचित अभ्यास ।
या मात्रा गिनकर 'सलिल', कर लेखन-अभ्यास ।।
दोहा छंद है शब्दों की मात्राओं के अनुसार रचा जाता है। इसमें दो पद (पंक्ति) तथा प्रत्येक पद में दो चरण (विषम १३ मात्रा तथा सम) होते हैं. चरणों के अंत में यति (विराम) होती है। दोहा के विषम चरण के आरम्भ में एक शब्द में जगण निषिद्ध है। विषम चरणों में कल-क्रम (मात्रा-बाँट) ३ ३ २ ३ २ या ४ ४ ३ २ तथा सम चरणों में ३ ३ २ ३ या ४ ४ ३ हो तो लय सहज होती है, किन्तु अन्य निषिद्ध नहीं हैं।संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, सार्थकता, मर्मबेधकता तथा सरसता उत्तम दोहे के गुण हैं।
कथ्य, भाव, रस, बिम्ब, लय, अलंकार, लालित्य ।
गति-यति नौ गुण नौलखा, दोहा हो आदित्य ।।
डॉ. श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन', खडी हिंदी
दोहे में अनिवार्य हैं, कथ्य-शिल्प-लय-छंद।
ज्यों गुलाब में रूप-रस. गंध और मकरंद ।।
रामनारायण 'बौखल', बुंदेली
गुरु ने दीन्ही चीनगी, शिष्य लेहु सुलगाय ।
चित चकमक लागे नहीं, याते बुझ-बुझ जाय ।।
मृदुल कीर्ति, अवधी
कामधेनु दोहावली, दुहवत ज्ञानी वृन्द ।
सरल, सरस, रुचिकर,गहन, कविवर को वर छंद ।।
सावित्री शर्मा, बृज भाषा
शब्द ब्रम्ह जाना जबहिं, कियो उच्चरित ॐ ।
होने लगे विकार सब, ज्ञान यज्ञ में होम ।।
शास्त्री नित्य गोपाल कटारे, संस्कृत
वृक्ष-कर्तनं करिष्यति, भूत्वांधस्तु भवान् ।
पदे स्वकीये कुठारं, रक्षकस्तु भगवान् ।।
ब्रम्हदेव शास्त्री, मैथिली
की हो रहल समाज में?, की करैत समुदाय?
किछु न करैत समाज अछि, अपनहिं सैं भरिपाय ।।
डॉ. हरनेक सिंह 'कोमल', पंजाबी
पहलां बरगा ना रिहा, लोकां दा किरदार।
मतलब दी है दोस्ती, मतलब दे ने यार।।
बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५)
कागा करंग ढढोलिया, सगल खाइया मासु ।
ए दुई नैना मत छुहऊ, पिऊ देखन कि आसु ।।
दोहा के २३ प्रकार लघु-गुरु मात्राओं के संयोजन पर निर्भर हैं।
गजाधर कवि, दोहा मंजरी
भ्रमर सुभ्रामर शरभ श्येन मंडूक बखानहु ।
मरकत करभ सु और नरहि हंसहि परिमानहु ।।
गनहु गयंद सु और पयोधर बल अवरेखहु ।
वानर त्रिकल प्रतच्छ, कच्छपहु मच्छ विसेखहु ।।
शार्दूल अहिबरहु व्यालयुत वर विडाल अरु.अश्व्गनि ।
उद्दाम उदर अरु सर्प शुभ तेइस विधि दोहा करनि ।।
*
दोहा के तेईस हैं, ललित-ललाम प्रकार ।
व्यक्त कर सकें भाव हर, कवि विधि के अनुसार ।।
भ्रमर-सुभ्रामर में रहें, गुरु बाइस-इक्कीस ।
शरभ-श्येन में गुरु रहें, बीस और उन्नीस ।।
रखें चार-छ: लघु सदा, भ्रमर सुभ्रामर छाँट ।
आठ और दस लघु सहित, शरभ-श्येन के ठाठ ।।
भ्रमर- २२ गुरु, ४ लघु=४८
बाइस गुरु, लघु चार ले, रचिए दोहा मीत ।
भ्रमर सद्रश गुनगुन करे, बना प्रीत की रीत ।।
सांसें सांसों में समा, दो हो पूरा काज ।
मेरी ही तो हो सखे, क्यों आती है लाज ?
सुभ्रामर - २१ गुरु, ६ लघु=४८
इक्किस गुरु छ: लघु सहित, दोहा ले मन मोह ।
कहें सुभ्रामर कवि इसे, सह ना सकें विछोह ।।
पाना-खोना दें भुला, देख रहा अज्ञेय ।
हा-हा,ही-ही ही नहीं, है सांसों का ध्येय ।।
शरभ- २० गुरु, ८ लघु=४८
रहे बीस गुरु आठ लघु का उत्तम संयोग ।
कहलाता दोहा शरभ, हरता है भव-रोग ।।
हँसे अंगिका-बज्जिका, बुन्देली के साथ ।
मिले मराठी-मालवी, उर्दू दोहा-हाथ ।।
श्येन- १९ गुरु, १० लघु=४८
उन्निस गुरु दस लघु रहें, श्येन मिले शुभ नाम ।
कभी भोर का गीत हो, कभी भजन की शाम ।।
ठोंका-पीटा-बजाया, साधा सधा न वाद्य ।
बिना चबाये खा लिया, नहीं पचेगा खाद्य ।।
मंडूक- १८ गुरु, १२ लघु=४८
अट्ठारह-बारह रहें, गुरु-लघु हो मंडूक।
अड़तालीस आखर गिनें, कहे कोकोल कूक।।
दोहा में होता सदा, युग का सच ही व्यक्त ।
देखे दोहाकार हर, सच्चे स्वप्न सशक्त ।।
मरकत- १७ गुरु, १४ लघु=४८
सत्रह-चौदह से बने, मरकत करें न चूक ।।
निराकार-निर्गुण भजै, जी में खोजे राम ।
गुप्त चित्र ओंकार का, चित में रख निष्काम ।।
दोहा के शेष प्रकारों पर फिर कभी विचार करेंगे।
===
***
नवगीत:
*
एक हाथ मा
छुरा छिपा
दूजे से मिले गले
ताहू पे शिकवा
ऊगे से पैले
भोर ढले.
*
केर-बेर खों संग
बिधाता हेरें
मुंडी थाम.
दोउन खों
प्यारी है कुर्सी
भली करेंगे राम.
उंगठा छाप
लुगाई-मोंड़ा
सी एम - दावेदार।
पिछड़ों के
हम भये मसीहा
अगड़े मरें तमाम।
बात नें मानें जो
उनखों जुटे के तले मलें
ताहू पे शिकवा
ऊगे से पैले
भोर ढले.
एक हाथ मा
छुरा छिपा
दूजे से मिले गले
*
सहें न तिल भर
कोसें दिन भर
पीड़ित तबहूँ हम.
अपनी लाठी
अपन ई भैंसा
लैन न देंहें दम.
सहनशीलता
पाठ पढ़ायें
खुद न पढ़ें, लो जान-
लुच्चे-लोफर
फूंके पुतला
रोको तो मातम।
देस-हितों से
का लेना है
कैसउ ताज मिले.
ताहू पे शिकवा
ऊगे से पैले
भोर ढले.
एक हाथ मा
छुरा छिपा
दूजे से मिले गले
*
***
नवगीत:
नौटंकियाँ
*
नित नयी नौटंकियाँ
हो रहीं मंचित
*
पटखनी खाई
हुए चित
दाँव चूके
दिन दहाड़े।
छिन गयी कुर्सी
बहुत गम
पढ़ें उलटे
मिल पहाड़े।
अब कहो कैसे
जियें हम?
बीफ तजकर
खायें चारा?
बना तो सकते
नहीं कुछ
बन सके जो
वह बिगाडें।
न्याय-संटी पड़ी
पर सुधरे न दंभित
*
'सहनशीली
हो नहीं
तुम' दागते
आरोप भारी।
भगतसिंह, आज़ाद को
कब सहा तुमने?
स्वार्थ साधे
चला आरी।
बाँट-रौंदों
नीति अपना
सवर्णों को
कर उपेक्षित-
लगाया आपात
बापू को
भुलाया
ढोंगधारी।
वाममार्गी नाग से
थे रहे दंशित
*
सह सके
सुभाष को क्या?
क्यों छिपाया
सच बताओ?
शास्त्री जी के
निधन को
जाँच बिन
तत्क्षण जलाओ।
कामराजी योजना
जो असहमत
उनको हटाओ।
सिक्ख-हत्या,
पंडितों के पलायन
को भी पचाओ।
सह रहे क्यों नहीं जनगण ने
किया जब तुम्हें दंडित?
७.११.२०१५
***
प्रयोगात्मक यमकीय दोहे:
*
रखें नोटबुक निज नहीं, कलम माँगते रोज
नोट कर रहे नोट पर, क्यों करिये कुछ खोज
*
प्लेट-फॉर्म बिन आ रहे, प्लेटफॉर्म पर लोग
है चुनाव बन जायेगा, इस पर भी आयोग
*
हुई गर्ल्स हड़ताल क्यों?, पूरी कर दो माँग
'माँग भरो' है माँग तो, कौन अड़ाये टाँग?
*
एग्रीगेट कर लीजिये, एग्रीगेट का आप
देयक तब ही बनेगा, जब हो पूरी माप
एग्रीगेट = योग, गिट्टी
*
फेस न करते फेस को, छिपते फिरते नित्य
बुक न करे बुक फुकटिया, पाठक सलिल अनित्य
*
सर! प्राइज़ किसको मिला, अब तो खोलें राज
सरप्राइज़ हो खत्म तो, करें शेष जो काज
*
नवगीत:
*
जो जी चाहे करें
हमारा राज है
.
मंत्री से संत्री तक जो है, अपना है
मनमाफिक कानून-व्यवस्था सपना है
जनता का क्या? वह रौंदी ही जानी है
फाँसी पर लटकाना और लटकना है
बने मियाँ मिट्ठू
सर धारा ताज है
जो जी चाहे करें
हमारा राज है
.
बस से धक्का दें या रौंद-कुचल मारें
अनुग्रहित हो, हम जैसे चाहें-तारें
जान गयी तो रुपये ले मुँह बंद रखो
मुँह खोलें जो वे अपना जीवन हारें
कहीं न कहना
हुआ कोढ़ में खाज है
जो जी चाहे करें
हमारा राज है
.
बादल बरपा करे कहर तो मत बोलो
आप शाप हो तो अपने लब मत खोलो
कमल सदा कीचड़ में खिलते, मौन रहो
पंजा रिश्वत गिने, न लेकिन तुम डोलो
सत्ताधारी सदा
गिराता गाज है
जो जी चाहे करें
हमारा राज है
५.५.२०१५ 
००० 

गुरुवार, 19 सितंबर 2024

सितंबर १९, बधाई, गणेश, बघेली, मुक्तिका, अवधी, प्रभाती,

सलिल सृजन सितंबर १९
*
मुक्तिका
अंकों की थामकर अँगुली हम जी रहे
एक अहं पाल-पोस, माया घी पी रहे।

मैं-तू तूतू-मैंमैं, दो न एक हो सके
तीन-पाँच करते पर होंठ नहीं सी रहे।

चार धाम जाते, पुरुषार्थ चार भूलकर
पंच के प्रपंच को बोल जिंदगी रहे।

षड् रागी खटरागी होकर अंग्रेजी पढ़
हिंग्लिश में गिटपिट कर भूल भारती रहे।

सात स्वर न जानते, तानसेन नाम धर
आठ प्रहर चादर को करते मैली रहे।

नौ के निन्यान्नबे चाह रहे, रात-दिन
हाथ लगे शून्य हम ढपोरशंख ही रहे।
१९.९.२०२४
••••
बधावा-
भोले घर बाजे बधाई
स्व. शांति देवी वर्मा
*
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौरा मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
***
श्री गणेश - आमंत्रण
*
श्री गणेश! ऋद्धि-सिद्धिदाता!! घर आओ सुनाथ!
शीश झुका,माथ हूँ नवाता, मत छोड़ो अनाथ.
देव! घिरा देश संकटों से, रिपुओं का विनाश
नाथ! करो, प्रजा मुक्ति पाए, शुभ का हो प्रकाश.
(कामरूप छंद:)
***
प्रभाती
जागिए गणराज होती भोर
कर रहे पंछी निरंतर शोर
धोइए मुख, कीजिए झट स्नान
जोड़कर कर कर शिवा-शिव ध्यान
योग करिए दूर होंगे रोग
पाइए मोदक लगाएँ भोग
प्रभु! सिखाएँ कोई नूतन छंद
भर सके जग में नवल मकरंद
मातु शारद से कृपा-आशीष
पा सलिल सा मूर्ख बने मनीष
***
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शिव-नंदन वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) -संजीव 'सलिल'
II ॐ श्री गणधिपतये नमः II
*
प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
*
प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..
*
प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
*
ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..
*
प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
*
जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..
*
जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..
*
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..
*
नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..
***
छंद: महापौराणिक जातीय पीयूषवर्ष
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
बह्र: फ़ायलातुन् फ़ायलातुन् फायलुन्
***
卐 ॐ 卐
हे गणपति विघ्नेश्वर जय जय
मंगल काज करें हम निर्भय
अक्षय-सुरभि सुयश दस दिश में
गुंजित हो प्रभु! यही है विनय
हों अशोक हम करें वंदना
सफल साधना करें दें विजय
संगीता हो श्वास श्वास हर
सविता तम हर, दे सुख जय जय
श्याम रामरति कभी न बिसरे
संजीवित आशा सुषमामय
रांगोली-अल्पना द्वार पर
मंगल गीत बजे शिव शुभमय
१२-११-२०२१
***
बघेली मुक्तिका
गणपति बब्बा
*
रात-रात भर भजन सुनाएन गणपति बब्बा
मंदिर जाएन, दरसन पाएन गणपति बब्बा
कोरोना राच्छस के मारे, बंदी घर मा
खम्हा-दुअरा लड़ दुबराएन गणपति बब्बा
भूख-गरीबी बेकारी बरखा के मारे
देहरी-चौखट छत बिदराएन गणपति बब्बा
छुटकी पोथी अउर पहाड़ा घोट्टा मारिन
फीस बिना रो नाम कटाएन गणपति बब्बा
एक-दूसरे का मुँह देखि, चुरा रए अँखियाँ
कुठला-कुठली गाल फुलाएन गणपति बब्बा
माटी रांध बनाएन मूरत फूल न बाती
आँसू मोदक भोग लगाएन गणपति बब्बा
चुटकी भर परसाद मिलिस बबुआ मुसकाएन
केतना मीठ सपन दिखराएन गणपति बब्बा
*
लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश : संजीव 'सलिल'
लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :
संजीव 'सलिल'
*
पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित
पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
*
बुन्देली पारंपरिक तर्ज:
मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.
बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
*
अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
*
भजन:
सुन लो विनय गजानन
जय गणेश विघ्नेश उमासुत, ऋद्धि-सिद्धि के नाथ.
हर बाधा हर हर शुभ करें, विनत नवाऊँ माथ..
*
सुन लो विनय गजानन मोरी
सुन लो विनय गजानन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
करो कृपा आया हूँ देवा, स्वीकारो शत वंदन.
भावों की अंजलि अर्पित है, श्रृद्धा-निष्ठा चंदन..
जनवाणी-हिंदी जगवाणी
हो, वर दो मनभावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
नेह नर्मदा में अवगाहन, कर हम भारतवासी.
सफल साधन कर पायें,वर दो हे घट-घटवासी.
भारत माता का हर घर हो,
शिवसुत! तीरथ पावन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन....
*
प्रकृति-पुत्र बनकर हम मानव, सबकी खुशी मनायें.
पर्यावरण प्रदूषण हरकर, भू पर स्वर्ग बसायें.
रहे 'सलिल' के मन में प्रभुवर
श्री गणेश तव आसन.
करो कृपा हो देश हमारा
सुरभित नंदन कानन...
***
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
विमर्श - गणेश चतुर्थी और शिव परिवार
क्या एक पति विवाह पश्चात अपनी पत्नी के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगा?
क्या एक पत्नी अपने पति के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगी?
सामान्यत: उत्तर होगा नहीं।
अगर कर लें तो क्या चारों साथ-साथ सहज और प्रसन्न रह सकेंगे, एक दूसरे पर विश्वास कर सकेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर है शिव परिवार। शिव-पार्वती विवाह पश्चात उनके जीवन में आए कार्तिकेय शिवपुत्र हैं, पार्वती पुत्र नहीं हैं। गणेश पार्वती पुत्र हैं, शिव पुत्र नहीं। क्या इससे शिव-पार्वती का दांपत्य प्रभावित हुआ? नहीं।
वे एक दूसरे की संतानों को अपना मानकर जगत्कर्ता और जगज्जननी हो गए। अद्वैत में द्वैत के लिए स्थान नहीं होता। पति-पत्नी एक हो गए तो दूरी, निजता या गैरियत क्यों?
कौन किसका पोषण या शोषण कर सकता है?
किसका त्याग कम, किसका अधिक? ऐसे प्रश्न ही बेमानी हैं।
छोटी-छोटी बातों के अहं को चश्मे से बड़ा बनाकर विलग हो रहे दंपति देखें कि क्या उनके जीवन की समस्या शिव-पार्वती के जीवन की समस्याओं से अधिक बड़ी हैं?
विषमताओं का हलाहल कंठ में धारण करनेवाला ही, शंकाओं को जयकर शंकर बनता है।
पर्वत की तरह बड़ी समस्याओं से अहं की लड़ाई न लड़कर, पुत्री की तरह स्नेहभाव से सुलझानेवाली ही पार्वती हो सकती है।
प्रकृति प्रदत्त विषमता को समभाव से ग्रहण कर, एक दूसरे पर बदलने का दबाव बनाए बिना सहयोग करने पर अरिहंता कार्तिकेय ही नहीं, विघ्नहर्ता गणेश भी पुत्र बनकर पूर्णता तक ले जाते हैं, यही नहीं ऋद्धि-सिद्धि भी पुत्रवधुओं के रूप में सुख-समृद्धि की वर्षा करती हैं।
गणेश चतुर्थी का पर्व सहिष्णुता, समन्वय और सद्भाव का महापर्व है।
आइए! हम सब ऐक्य-सूत्र में बँधकर, जमीन में जड़ जमानेवाली दूर्वा से प्रेरणा ग्रहणकर गणपति गणनायक को प्रणाम करने की पात्रता अर्जित करें।
हम शिव परिवार की तरह भिन्न होकर अभिन्न हों, अनेकता को पचाकर एक हो सकें।
***
विमर्श :
गणेशोत्सव, गणपति और गणतंत्र
*
भाद्रपद मास पर्वों का मास है। आजकल जनगण गणपति, गणेश या गणनायक की पूजाराधना करने में निमग्न है।
शिव पुराण में वर्णित आख्यान के अनुसार गृहस्वामिनी पार्वती ने स्नान करने जाते समय, अपनी और गृह की सुरक्षा तथा किसी अवांछित का प्रवेश रोकने के लिए अपने उबटन (अंश) से पुतला बनाकर उसमें प्राण डाले और उसे रक्षक के रूप में नियुक्त किया। पार्वती स्नान कर पातीं इसके पूर्व ही गृहपति शिव वापिस लौटे। रक्षक ने उन्हें प्रवेश करने से रोका। शिव ने बलात प्रवेश का प्रयास किया, द्व्न्द हुआ, अंतत: क्रुद्ध शिव ने रक्षक का मस्तक काट कर गृह में प्रवेश किया। पार्वती स्नान कर बाहर आईं तो शिव के क्रोध कारण जानना चाहा और सकल वृत्तांत जानकार अपनी संरचना के अकाल काल के गाल में सामने पर शोक संतप्त हो गईं। शिव ने गणों (सेवकों) को आदेश दिया की जो माता अपनी नवजात शिशु से मुँह फेरकर शयन कर रही हो उसके शिशु का मस्तक काट कर ले आएँ। गण एक गजशिशु का मस्तक ले आए जिसे शिव ने पार्वती-पुत्र के धड़ से संयुक्त कर उसे पुनर्जीवित कर दिया। दोनों ने इसे अनेक शक्तियों से संपन्न होने का वर दिया।
शिव-पार्वती कौन हैं? वे पुतले और निर्जीव में प्राण कैसे डाल देते हैं? इन कथाओं का मर्म क्या है? क्या मात्र वही जो इस कथाओं को रूढ़ रूप में लेने पर ज्ञात होता है या इनमें कुछ और कथ्य प्रतीक रूप में कहा गया है, जिसे सामान्यत: हम ग्रहण नहीं कर पाते।
शिव-पार्वती जगतपिता और जगतजननी हैं। तुलसी अधिक स्पष्ट करते हैं- 'भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा-विश्वास रुपिणौ'। श्रद्धा और विश्वास साथ-साथ हों तो ही शुभ होता है। जब-जब विश्वास पर विश्वास न कर श्रद्धा भिन्न पथ अपनाती है तब अनिष्ट होता है। सती द्वारा राम की परीक्षा लेने और शिव-वर्जना की अनदेखी कर दक्ष यज्ञ में भाग लेने के दुष्परिणाम इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। जब विश्वास श्रद्धा को छोड़कर अलग जाता है तब भी अनिष्ट ही होता है, यह गजानन-कथा से विदित होता है। यह निर्विवाद है कि श्रद्धा और विश्वास अभिन्न हों तभी कल्याण है। पति-पत्नी दैनंदिन जीवन में श्रद्धा-विश्वास हों तो कुछ अशुभ घट ही नहीं सकता। नागरिक और सरकार (शासन-प्रशासन) के मध्य श्रद्धा-विश्वास का संबंध हो तो इससे अधिक मंगलमय कुछ और नहीं हो सकता। ऐसा क्यों नहीं होता?, कैसे हो सकता है?, यह चिंतन करने का अवसर ही गणेश जन्मोत्सव है।
यह प्रसंग जीवन के कई रहस्य उद्घाटित करता है। श्रद्धा की संतान पर विश्वास को विश्वास करना ही चाहिए अन्यथा विश्वास 'विष-वास' हो जाएगा, जीवन से सुख-समृद्धि दूर हो जाएगी। इसके विपरीत यदि विश्वास की आत्मा (आत्मज) पर श्रद्धा न कर, श्रद्धा स्वयं अश्रद्धा जाएगी। सांसारिक जीवन में श्रद्धा पर श्रद्धा होने और विश्वास विश्वास खोने के कारण कितनी ही गृहस्थियाँ नष्ट होने के समाचार छपते हैं। तिनका आँख के अति निकट हो तो उसके पीछे सूर्य भी छिप जाता है। शंका का डंका बजते ही श्रद्धा-विश्वास दोनों मौन हो जाते हैं, संवाद बंद हो जाता है और शेष रह जाता है केवल विवाद। संसद और विधान सभाओं में पक्ष-विपक्ष, श्रद्धा-विश्वास कर एक-दूसरे के पूरक हों तो ही सार्थक विमर्श सहमतिकारक नीतियाँ बनाकर जन-हित और देश हित साधा जा सकता है। श्रद्धा-विश्वास के अभाव में संसद, विधान सभा ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ भी परस्पर दाँव-पेंच का अखाड़ा मात्र होकर रह गया है।
एक अन्य आख्यान के अनुसार शिव-संतान कार्तिकेय और पार्वती-तनय तनय गजानन के मध्य श्रेष्ठता संबंधी विवाद होने पर सृष्टि परिक्रमा करने की कसौटी पर सकल ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने गए कार्तिकेय पराजित होते हैं जबकि अपने जनक-जननी शिव-पार्वती की परिक्रमा का गजानन विजयी होकर प्रथम पूज्य होने का वरदान पाकर गणेश, गजानन या गणनायक हो जाते हैं।
यहाँ भी बात श्रद्धा-विश्वास की ही है। गजानन के लिए जन्मदात्री और प्राणदाता समूचा संसार हैं, उनके बिना सकल सृष्टि का कुछ अर्थ नहीं है। इसीलिए वे श्रद्धा और विश्वास परिक्रमा कर समझते हैं कि सृष्टि परिक्रमा हो गई। उनका जन्म ही श्रद्धा है इसलिए श्रद्धा (पार्वती) पर श्रद्धा हो यह स्वाभाविक है किन्तु वे अपने प्राणहर्ता विश्वास (शिव) में विष का वास (नीलकंठ, सर्प) होने पर भी उन पर अखंड विश्वास कर पाते हैं, यही उनका वैशिष्ट्य है। दूसरी ओर कार्तिकेय मूलत: विश्वास (शिव) की संतान हैं वे विश्वास पर विश्वास न कर, श्रद्धा पर श्रद्धा खो देते हैं और अपना बल आजमाने निकल पड़ते हैं। यही नहीं वे जीवन की सबसे अधिक कठिन परीक्षा को सबसे अधिक सरल परीक्षा मानकर जाते समय श्रद्धा और विश्वास का शुभाशीष भी नहीं प्राप्त करते जबकि गजानन आरंभ और अंत दोनों समय यह करते हैं।
गजानन और कार्तिकेय की वृत्ति का यह अंतर उनके द्वारा वाहन चयन में भी दृष्टव्य है। गजानन मंदगामी मूषक को वाहन चुनते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का भोज्य है, उन्हें विश्वास है कि शिव सदय हैं तो कुछ अनिष्ट नहीं सकता। दूसरी ओर कार्तिकेय क्षिप्रगति मयूर का चयन करते हैं जो शिव के कंठहार सर्प का शिकार करता है। कार्तिकेय शंका करते हैं, गजानन विश्वास। 'विश्वासं फलदायकं' इसलिए गजानन प्राप्ति होती है। 'श्रद्धावान लभते ज्ञानं' इसीलिए गजानन को ज्ञान और ज्ञान से रिद्धि-सिद्धि प्राप्त होती हैं। लोकोक्ति है 'जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवार'। कार्तिकेय बल (तरवार) पर भरोसा करते हैं, गजानन बुद्धि (सुई पर)। जीवन में बुद्धि और बल दोनों आवश्यक हैं। 'जो जस करहिं सो तस फल चाखा', बल के बल पर कार्तिकेय देवताओं के बलाध्यक्ष (सेनापति) बन पाते हैं जबकि बुद्धि पर श्रद्धा-विश्वास करनेवाले गजानन देवों में प्रथम पूज्य बन जाते हैं। बुद्धि की श्रेष्ठता बल से अधिक है यह जानने के बाद भी दैनिक लोक व्यवहार में सर्वत्र बल प्रयोग की चाह और राह ही सकल क्लेश का कारण है। प्रथम पूज्य होने पर गजानन गणेश, गणपति, गणनायक आदि विरुदों से विभूषित किए जाते हैं। रिद्धि-सिद्धि उन्हें विघ्नेश्वर बनाती हैं।
गण द्वारा संचालित गणतंत्र को गणनायक पूजक भारत अपनाए यह सहज-स्वाभाविक है। विसंगति यह हो गई है कि गण पर तंत्र हावी हो गया है। गण प्रतिनिधि ही गण से दूर हैं।चयन का कार्य गण नहीं दल कर रहे हैं। फलत:, मतभेदों के दलदल, दल बदल के कंटक और सदल बल जनआकांक्षों पर दलीय हितों को वरीयता देने के कारण प्रतिनिधि जनगण पर श्रद्धा और जनगण प्रतिनिधयों पर विश्वास खो चुके हैं। इस दुष्चक्र का लाभ उठाकर जनसेवक गणस्वामी बनकर पद के मद में मस्त है। गण स्वामी कहा जाता है पर वास्तव में सेवक मात्र है। तंत्र गण के काम न आकर गण से काम ले रहा है। विधि-विधान बनानेवाले ही विधि-विधान की हत्या कर रहे हैं। पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों के साथ बुद्धि-विवेक कर न्याय दिए जाने के स्थान पर, आँखों पर पट्टी बाँधकर न्याय को तौला जा रहा है। इस संक्रमणकाल लोक को आराध्य माननेवाले कृष्ण के जन्मोत्सव के तुरंत बाद गणदेवता जन्मोत्सव मनाया जाना पूरी तरह सामयिक और समीचीन है। जनगण परंपरा-पालन के साथ-साथ उनका वास्तविक मर्म भी ग्रहण कर सके तो लोक, जन, गण और प्रजा पर तंत्र हावी न होकर उसका सेवक होगा, तभी वास्तविक लोकतंत्र, जनतंत्र, गणतंत्र और प्रजातंत्र मूर्त हो सकेगा।
**
श्री गणेश
श्री गणेश गिनती गणित, गणना में हैं लीन
जो समझे मतिमान वह, बिन समझे नर दीन. बिंदु शिव
___ रेखा पार्वती
o वृत्त गणेश, लड्डू
१. ॐ
२. मति, गति, यति, बल, सुख, जय, यश।
३. अमित, कपिल, गुणिन, भीम, कीर्ति, बुद्धि।
४. गणपति, गणेश, भूपति, कवीश, गजाक्ष, हरिद्र, दूर्जा, शिवसुत, हरसुत, हरात्मज।
५. गजवदन, गजवक्र, गजकर्ण, गजदंत, गजानन, प्रथमेश, भुवनपति, शिवतनय, उमासुत, निदीश्वर, हेरंब, शिवासुत, विनायक, अखूरथ, गणाधिप, विघ्नेश, रूद्रप्रिय।
६. गण-अधिपति, गणाध्यक्ष, एकदंत, उमातनय, विघ्नेश्वर, गजवक्त्र, गौरीसुत, लंबोदर, प्रथमेश्वर, शूपकर्ण, वक्रतुंड, गिरिजात्मज, शिवात्मज, सिद्धिसदन, गणाधिपति, स्कन्दपूर्व, विघ्नेंद्र, द्वैमातुर, धूम्रकेतु, शंकरप्रिय।
७. गिरिजासुवन, पार्वतीसुत, विघ्नहर्ता, मंगलमूर्ति, मूषकनाथ, गणदेवता, शंकर-सुवन, करिवर वदन, ज्ञान निधान, विघ्ननाशक, विघ्नहर्ता, गिरिजातनय।
८. गौरीनंदन, ऋद्धि-सिद्धिपति, विद्यावारिधि, विघ्नविनाशक, पार्वती तनय, बुद्धिविधाता, मूषक सवार, शुभ-लाभ जनक, मोदकदाता. मंगलदाता, मंगलकर्ता, सिद्धिविनायक, देवाधिदेव, कृष्णपिंगाक्ष।
९. ऋद्धि-सिद्धिनाथ, शुभ-लाभदाता, गजासुरहंता, पार्वतीनंदन, गजासुरदंडक।
१०. ऋद्धि-सिद्धि दाता, विघ्नहरणकर्ता।
११. गिरितनयातनय। ९३
*
गजवदन = गति, जय, वर, दम, नमी।
गजानन = गरिमामय, जानकार, नवीनता प्रेमी, निरंतरता।
विनायक = विवेक, नायकत्व, यमेश, कर्मप्रिय।
*
Ganesha = gentle, active, noble, energetic, systematic, highness, alert.
Gajanana = generous, advance, judge, accuracy, novelty, actuality, non ego, ambitious.
Vinayaka = victorious, ideal, neutrality, attentive, youthful, administrator, kind hearted, attentive.
*
Nuerological auspect
[a 1, b 2, c 3, d 4, e 5, f 6, g 7, h 8, i 9, j 10, k 11, l 12, m 13, n 14, o 15, p 16, q 17, r 18, s 19, t 20, u 21, v 22, w 23, x 24, y 25, z 16]
1. Ganesha = 7 +1 + 14 + 5 + 19 + 8 + 1 = 55 = 10 = 1.
Gati = 7 + 1 + 20 + 9 = 37 = 10 = 1.
Ganadhyaksha = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 25 + 1 + 11 + 19 + 8 + 1 = 100 = 1.
Jaya = 10 + 1 + 25 + 1 = 37 = 10 = 1.
2. Ekdanta = 5 + 11 + 4 + 1 + 14 + 20 + 1 = 56 = 11 = 2.
3. Vinayaka = 22 + 9 + 14 + 1 + 25 + 1 + 11 + 1 = 84 = 12 = 3.
Heramba = 8 + 5 + 18 + 1 + 13 + 2 + 1 = 48 = 12= 3.
Buddhi = 2 + 21 + 4 + 4 + 8 + 9 = 48 = 12 = 3.
4. Ganadevata = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 5 + 22 + 1 + 20 + 1 = 76 = 13 = 4.
Gajanana = 7 + 1 + 10 + 1 + 14 + 1 + 14 + 1 = 49 = 13 = 4.
5. Vakratunda = 22 + 1 + 11 + 18 + 1 + 20 + 21 + 14 + 4 + 1 = 113 = 5.
Bhoopati = 2 + 8 + 15 + 15 + 16 + 1 + 20 + 9 = 86 = 14 = 5.
Kapila = 11 + 1 + 16 + 9 + 12 + 1 = 50 = 5.
6. Ganapati = 7 + 1 + 14 + 1 + 16 + 1 + 20 + 9 = 69 = 15 = 6.
7. Mahakaya = 13 + 1 + 8 + 1 + 11 + 1 + 25 + 1 = 61 = 7.
8. Gajavadana = 7 + 1 + 10 + 1+ 22 + 1 + 4 + 1 + 14 + 1 = 62 = 8.
Vighneshvara = 22 + 9 + 7 + 8 + 14 + 5 + 19 + 8 + 22 + 1 + 18 + 1 = 134 = 8.
Amita = 1 + 13 + 9 + 20 + 1 = 44 = 8.
9. Ganadhipati = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 9 + 16 + 1 + 20 + 9 = 90 = 9.
===

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

गणेश भजनावली

शिशुगीत
.श्री गणेश



श्री गणेश की बोलो जय,
पाठ पढ़ो होकर निर्भय।
अगर सफलता पाना है-
काम करो होकर तन्मय।।
***

प्रभाती
जागिए गणराज
*
जागिए गणराज होती भोर
कर रहे पंछी निरंतर शोर
धोइए मुख, कीजिए झट स्नान
जोड़कर कर कर शिवा-शिव ध्यान
योग करिए दूर होंगे रोग
पाइए मोदक लगाएँ भोग
प्रभु! सिखाएँ कोई नूतन छंद
भर सके जग में नवल मकरंद
मातु शारद से कृपा-आशीष
पा सलिल सा मूर्ख बने मनीष
***

श्री गणेश १
*
श्री गणेश! ऋद्धि-सिद्धिदाता!! घर आओ सुनाथ!
शीश झुका,माथ हूँ नवाता, मत छोड़ो अनाथ.
देव! घिरा देश संकटों से, रिपुओं का विनाश
नाथ! करो, प्रजा मुक्ति पाए, शुभ का हो प्रकाश.
(कामरूप छंद:)
***

 श्री गणेश २
*
गणपति 'निजता' भेंट ले, आए हैं इस साल.
अधिकारों की वृद्धि पा, हो कर्तव्य निहाल.
*
जनगण बढ़ते भाव से, नाथ हुआ बेहाल.
मिटे हलाला शेष हैं, अब भी कई सवाल.
*
जय गणेश! पशुपति! जगो, चीन रहा हुंकार.
नगपति लाल न हो प्रभु!, दो रिपुओं को मार.
*
गणाध्यक्ष आतंक का, अब तो कर दो अंत.
भारत देश अखंड हो, विनती सुन लो कंत.
*
जाग गजानन आ बसों, मन-मंदिर में नित्य.
ऋद्धि-सिद्धि हो संग में, दर्शन मिले अनित्य.
छंद - दोहा बघेली
***
 
मुक्तिका
गणपति बब्बा
*
रात-रात भर भजन सुनाएन गणपति बब्बा
मंदिर जाएन, दरसन पाएन गणपति बब्बा
कोरोना राच्छस के मारे, बंदी घर मा
खम्हा-दुअरा लड़ दुबराएन गणपति बब्बा
भूख-गरीबी बेकारी बरखा के मारे
देहरी-चौखट छत बिदराएन गणपति बब्बा
छुटकी पोथी अउर पहाड़ा घोट्टा मारिन
फीस बिना रो नाम कटाएन गणपति बब्बा
एक-दूसरे का मुँह देखि, चुरा रए अँखियाँ
कुठला-कुठली गाल फुलाएन गणपति बब्बा
माटी रांध बनाएन मूरत फूल न बाती
आँसू मोदक भोग लगाएन गणपति बब्बा
चुटकी भर परसाद मिलिस बबुआ मुसकाएन
केतना मीठ सपन दिखराएन गणपति बब्बा
***

गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
***

श्री गणेश पूजन मंत्र
हिंदी पद्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
गजानना पद्मर्गम गजानना महिर्षम
अनेकदंतम भक्तानाम एकदंतम उपास्महे

कमलनाभ गज-आननी, हे ऋषिवर्य महान.
करें भक्त बहुदंतमय, एकदन्त का ध्यान..

गजानना = हाथी जैसे मुँहवाले, पद्मर्गम = कमल को नाभि में धारण करनेवाले जिनका नाभिचक्र शतदल कमल की तरह पूर्णता प्राप्त है, महिर्षम = महान ऋषि के समतुल्य, अनेकदंतम = जिनके दाँत दान हैं, भक्तानाम भक्तगण, एकदंतम = जिनका एक दाँत है, उपास्महे = उपासना करता हूँ.
***

II ॐ श्री गणधिपतये नमः II
== प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) ==
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
*
प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..

प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
*
ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..


प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
*
जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..

जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..

श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..

नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..
***


लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :


पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित

पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
*
बुन्देली पारंपरिक तर्ज:

मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.
बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
***

अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
***

भजन: 

भोले घर बाजे बधाई

स्मृतिशेष मातुश्री शांति देवी वर्मा
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौरा मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर 
इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
******************

श्री गणेश गिनती गणित, गणना में हैं लीन
जो समझे मतिमान वह, बिन समझे नर दीन. बिंदु शिव
___ रेखा पार्वती
o वृत्त गणेश
१. ॐ
२. मति, गति, यति, बल, सुख, जय, यश।
३. अमित, कपिल, गुणिन, भीम, कीर्ति, बुद्धि।
४. गणपति, गणेश, भूपति, कवीश, गजाक्ष, हरिद्र, दूर्जा, शिवसुत, हरसुत, हरात्मज।
५. गजवदन, गजवक्र, गजकर्ण, गजदंत, गजानन, प्रथमेश, भुवनपति, शिवतनय, उमासुत, निदीश्वर, हेरंब, शिवासुत, विनायक, अखूरथ, गणाधिप, विघ्नेश, रूद्रप्रिय।
६. गण-अधिपति, गणाध्यक्ष, एकदंत, उमातनय, विघ्नेश्वर, गजवक्त्र, गौरीसुत, लंबोदर, प्रथमेश्वर, शूपकर्ण, वक्रतुंड, गिरिजात्मज, शिवात्मज, सिद्धिसदन, गणाधिपति, स्कन्दपूर्व, विघ्नेंद्र, द्वैमातुर, धूम्रकेतु, शंकरप्रिय।
७. गिरिजासुवन, पार्वतीसुत, विघ्नहर्ता, मंगलमूर्ति, मूषकनाथ, गणदेवता, शंकर-सुवन, करिवर वदन, ज्ञान निधान, विघ्ननाशक, विघ्नहर्ता, गिरिजातनय।
८. गौरीनंदन, ऋद्धि-सिद्धिपति, विद्यावारिधि, विघ्नविनाशक, पार्वती तनय, बुद्धिविधाता, मूषक सवार, शुभ-लाभ जनक, मोदकदाता. मंगलदाता, मंगलकर्ता, सिद्धिविनायक, देवाधिदेव, कृष्णपिंगाक्ष।
९. ऋद्धि-सिद्धिनाथ, शुभ-लाभप्रदाता, गजासुरहंता, पार्वतीनंदन, गजासुरदंडक।
१०. ऋद्धि-सिद्धि दाता, विघ्नहरणकर्ता।
११. गिरितनयातनय। ९३
*
गजवदन = गति, जय, वर, दम, नमी।
गजानन = गरिमामय, जानकार, नवीनता प्रेमी, निरंतरता।
विनायक = विवेक, नायकत्व, यमेश, कर्मप्रिय।
*
Ganesha = gentle, active, noble, energetic, systematic, highness, alert.
Gajanana = generous, advance, judge, accuracy, novelty, actuality, non ego, ambitious.
Vinayaka = victorious, ideal, neutrality, attentive, youthful, administrator, kind hearted, attentive.
*
Nuerological auspect
[a 1, b 2, c 3, d 4, e 5, f 6, g 7, h 8, i 9, j 10, k 11, l 12, m 13, n 14, o 15, p 16, q 17, r 18, s 19, t 20, u 21, v 22, w 23, x 24, y 25, z 16]

1. Ganesha = 7 +1 + 14 + 5 + 19 + 8 + 1 = 55 = 10 = 1.
Gati = 7 + 1 + 20 + 9 = 37 = 10 = 1.
Ganadhyaksha = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 25 + 1 + 11 + 19 + 8 + 1 = 100 = 1.

Jaya = 10 + 1 + 25 + 1 = 37 = 10 = 1.
2. Ekdanta = 5 + 11 + 4 + 1 + 14 + 20 + 1 = 56 = 11 = 2.
3. Vinayaka = 22 + 9 + 14 + 1 + 25 + 1 + 11 + 1 = 84 = 12 = 3.
Heramba = 8 + 5 + 18 + 1 + 13 + 2 + 1 = 48 = 12= 3.
Buddhi = 2 + 21 + 4 + 4 + 8 + 9 = 48 = 12 = 3.
4. Ganadevata = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 5 + 22 + 1 + 20 + 1 = 76 = 13 = 4.
Gajanana = 7 + 1 + 10 + 1 + 14 + 1 + 14 + 1 = 49 = 13 = 4.
5. Vakratunda = 22 + 1 + 11 + 18 + 1 + 20 + 21 + 14 + 4 + 1 = 113 = 5.
Bhoopati = 2 + 8 + 15 + 15 + 16 + 1 + 20 + 9 = 86 = 14 = 5.
Kapila = 11 + 1 + 16 + 9 + 12 + 1 = 50 = 5.
6. Ganapati = 7 + 1 + 14 + 1 + 16 + 1 + 20 + 9 = 69 = 15 = 6.
7. Mahakaya = 13 + 1 + 8 + 1 + 11 + 1 + 25 + 1 = 61 = 7.
8. Gajavadana = 7 + 1 + 10 + 1+ 22 + 1 + 4 + 1 + 14 + 1 = 62 = 8.
Vighneshvara = 22 + 9 + 7 + 8 + 14 + 5 + 19 + 8 + 22 + 1 + 18 + 1 = 134 = 8.
Amita = 1 + 13 + 9 + 20 + 1 = 44 = 8.
9. Ganadhipati = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 9 + 16 + 1 + 20 + 9 = 90 = 9.

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मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

अवधी

अवधी 
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छूटत नहीं सुभाव, ननदी भउजी बन गइल 
दिखत नहीं बदलाव, दोस बिधाता के दइल 
*
बिसरल लाज-शऊर, मैनर के चाहत बहुत 
आँखिन राखत सूर, मम्मी बेपल्ला भइल 
*
फफकि परे मजदूर, आँसू बहाल किसान के
कोरोना के मार, सहि न सकित मरि-मरि जिअत
*
सहज नहीं बदलाव, भितरेन भितरें भुकुरिगें 
अँगना पीपल छाँव, मलकिन सुमिरें सिसकि कें 
*
फोनै अकलि बताय, मश्किल पाई आएँ नहीं 
किरिया करम भुलाय, मटकें लड़िका लाज तज 
*  












अवधी हिंदी क्षेत्र की एक उपभाषा है। यह उत्तर प्रदेश के "अवध क्षेत्र" (लखनऊ, रायबरेली, सुल्तानपुर, बाराबंकी, उन्नाव, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर, अयोध्या, जौनपुर, प्रतापगढ़, प्रयागराज, कौशाम्बी, अम्बेडकर नगर, गोंडा,बस्ती, बहराइच,बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, श्रावस्ती तथा फतेहपुर में बोली जाती है। इसके अतिरिक्त इसकी एक शाखा बघेलखंड में बघेली नाम से प्रचलित है। 'अवध' शब्द की व्युत्पत्ति "अयोध्या" से है। इस नाम का एक सूबा के राज्यकाल में था। तुलसीदास ने अपने "मानस" में अयोध्या को 'अवधपुरी' कहा है। इसी क्षेत्र का पुराना नाम 'कोसल' भी था जिसकी महत्ता प्राचीन काल से चली आ रही है।

भाषा शास्त्री डॉ॰ सर "जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन" के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार अवधी बोलने वालों की कुल आबादी 1615458 थी जो सन् 1971 की जनगणना में 28399552 हो गई। मौजूदा समय में शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 6 करोड़ से ज्यादा लोग अवधी बोलते हैं। भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त के 19 जिलों- सुल्तानपुर, अमेठी, बाराबंकी, प्रतापगढ़, प्रयागराज, कौशांबी, फतेहपुर, रायबरेली, उन्नाव, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, अयोध्या व अंबेडकर नगर में पूरी तरह से यह बोली जाती है। जबकि 7 जिलों- जौनपुर, मिर्जापुर, कानपुर, शाहजहांपुर, आजमगढ़,सिद्धार्थनगर, बस्ती और बांदा के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रयोग होता है। बिहार प्रांत के 2 जिलों के साथ पड़ोसी देश नेपाल के कई जिलों - बांके जिला, बर्दिया जिला, दांग जिला, कपिलवस्तु जिला, पश्चिमी नवलपरासी जिला, रुपन्देही जिला, कंचनपुर जिला आदि में यह काफी प्रचलित है। इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व हॉलैंड (नीदरलैंड) में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं। 

अवधी प्रमुख रूप से भारत, नेपाल और फिजी में बोली जाती है। भारत में अवधी मुख्यतः उत्तर प्रदेश राज्य में बोली जाती है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार के कुछ जिलों में बोली जाती है। उत्तर प्रदेश के अवधी भाषी जिले: अमेठी, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, रायबरेली, प्रयागराज, कौशांबी, अम्बेडकर नगर, सिद्धार्थ नगर, गोंडा, बलरामपुर, बाराबंकी, अयोध्या, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, बस्ती एवं फतेहपुर।

नेपाल के अवधी भाषी जिले कपिलवस्तु, बर्दिया, डांग, रूपनदेही, नवलपरासी, कंचनपुर, बांके आदि तराई नेपाल के जिले।

इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व हॉलैंड (नीदरलैंड) में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं।

हिंदी खड़ीबोली से अवधी की विभिन्नता मुख्य रूप से व्याकरणात्मक है। इसमें कर्ता कारक के परसर्ग (विभक्ति) "ने" का नितांत अभाव है। अन्य परसर्गों के प्राय: दो रूप मिलते हैं- ह्रस्व और दीर्घ। (कर्म-संप्रदान-संबंध : क, का; करण-अपादान : स-त, से-ते; अधिकरण : म, मा)।

संज्ञाओं की खड़ीबोली की तरह दो विभक्तियाँ होती हैं- विकारी और अविकारी। अविकारी विभक्ति में संज्ञा का मूल रूप (राम, लरिका, बिटिया, मेहरारू) रहता है और विकारी में बहुवचन के लिए "न" प्रत्यय जोड़ दिया जाता है (यथा रामन, लरिकन, बिटियन, मेहरारुन)। कर्ता और कर्म के अविकारी रूप में व्यंजनान्त संज्ञाओं के अंत में कुछ बोलियों में एक ह्रस्व "उ" की श्रुति होती है (यथा रामु, पूतु, चोरु)। किंतु निश्चय ही यह पूर्ण स्वर नहीं है और भाषाविज्ञानी इसे फुसफुसाहट के स्वर-ह्रस्व "इ" और ह्रस्व "ए" (यथा सांझि, खानि, ठेलुआ, पेहंटा) मिलते हैं।

संज्ञाओं के बहुधा दो रूप, ह्रस्व और दीर्घ (यथा नद्दी नदिया, घोड़ा घोड़वा, नाऊ नउआ, कुत्ता कुतवा) मिलते हैं। इनके अतिरिक्त अवधी क्षेत्र के पूर्वी भाग में एक और रूप-दीर्घतर मिलता है (यथा कुतउना)। अवधी में कहीं-कहीं खड़ीबोली का ह्रस्व रूप बिलकुल लुप्त हो गया है; यथा बिल्ली, डिब्बी आदि रूप नहीं मिलते बेलइया, डेबिया आदि ही प्रचलित हैं।

सर्वनाम में खड़ीबोली और ब्रज के "मेरा तेरा" और "मेरो तेरो" रूप के लिए अवधी में "मोर तोर" रूप हैं। इनके अतिरिक्त पूर्वी अवधी में पश्चिमी अवधी के "सो" "जो" "को" के समानांतर "से" "जे" "के" रूप प्राप्त हैं।

क्रिया में भविष्यकाल रूपों की प्रक्रिया खड़ीबोली से बिलकुल भिन्न है। खड़ीबोली में प्राय: प्राचीन वर्तमान (लट्) के तद्भव रूपों में- गा-गी-गे जोड़कर (यथा होगा, होगी, होंगे आदि) रूप बनाए जाते हैं। ब्रज में भविष्यत् के रूप प्राचीन भविष्यत्काल (लट्) के रूपों पर आधारित हैं। (यथा होइहैंउ भविष्यति, होइहोंउ भविष्यामि)। अवधी में प्राय: भविष्यत् के रूप तव्यत् प्रत्ययांत प्राचीन रूपों पर आश्रित हैं (होइबाउ भवितव्यम्)। अवधी की पश्चिमी बोलियों में केवल उत्तमपुरुष बहुवचन के रूप तव्यतांत रूपों पर निर्भर हैं। शेष ब्रज की तरह प्राचीन भविष्यत् पर। किंतु मध्यवर्ती और पूर्वी बोलियों में क्रमश: तव्यतांत रूपों की प्रचुरता बढ़ती गई है। क्रियार्थक संज्ञा के लिए खड़ीबोली में "ना" प्रत्यय है (यथा होना, करना, चलना) और ब्रज में "नो" (यथा होनो, करनो, चलनो)। परंतु अवधी में इसके लिए "ब" प्रत्यय है (यथा होब, करब, चलब)। अवधी में निष्ठा एकवचन के रूप का "वा" में अंत होता है (यथा भवा, गवा, खावा)। भोजपुरी में इसके स्थान पर "ल" में अंत होनेवाले रूप मिलते हैं (यथा भइल, गइल)। अवधी का एक मुख्य भेदक लक्षण है अन्यपुरुष एकवचन की सकर्मक क्रिया के भूतकाल का रूप (यथा करिसि, खाइसि, मारिसि)। य-"सि" में अंत होनेवाले रूप अवधी को छोड़कर अन्यत्र नहीं मिलते। अवधी की सहायक क्रिया में रूप "ह" (यथा हइ, हइं), "अह" (अहइ, अइई) और "बाटइ" (यथा बाटइ, बाटइं) पर आधारित हैं।

ऊपर लिखे लक्षणों के अनुसार अवधी की बोलियों के तीन वर्ग माने गए हैं : पश्चिमी, मध्यवर्ती और पूर्वी। पश्चिमी बोली पर निकटता के कारण ब्रज का और पूर्वी पर भोजपुरी का प्रभाव है। इनके अतिरिक्त बघेली बोली का अपना अलग अस्तित्व है।

विकास की दृष्टि से अवधी का स्थान ब्रज, कन्नौजी और भोजपुरी के बीच में पड़ता है। ब्रज की व्युत्पत्ति निश्चय ही शौरसेनी से तथा भोजपुरी की मागधी प्राकृत से हुई है। अवधी की स्थिति इन दोनों के बीच में होने के कारण इसका अर्धमागधी से निकलना मानना उचित होगा। खेद है कि अर्धमागधी का हमें जो प्राचीनतम रूप मिलता है वह पाँचवीं शताब्दी ईसवी का है और उससे अवधी के रूप निकालने में कठिनाई होती है। पालि भाषा में बहुधा ऐसे रूप मिलते हैं जिनसे अवधी के रूपों का विकास सिद्ध किया जा सकता है। संभवत: ये रूप प्राचीन अर्धमागधी के रहे होंगे।

प्राचीन अवधी साहित्य की दो शाखाएँ हैं : एक भक्तिकाव्य और दूसरी प्रेमाख्यान काव्य। भक्तिकाव्य में गोस्वामी तुलसीदास का "रामचरितमानस" (सं. 1631) अवधी साहित्य की प्रमुख कृति है। इसकी भाषा संस्कृत शब्दावली से भरी है। "रामचरितमानस" के अतिरिक्त तुलसीदास ने अन्य कई ग्रंथ अवधी में लिखे हैं। इसी भक्ति साहित्य के अंतर्गत लालदास का "अवधबिलास" आता है। इसकी रचना संवत् 1700 में हुई। इनके अतिरिक्त कई और भक्त कवियों ने रामभक्ति विषयक ग्रंथ लिखे।

संत कवियों में बाबा मलूकदास भी अवधी क्षेत्र के थे। इनकी बानी का अधिकांश अवधी में है। इनके शिष्य बाबा मथुरादास की बानी भी अधिकतर अवधी में है। बाबा धरनीदास यद्यपि छपरा जिले के थे तथापि उनकी बानी अवधी में प्रकाशित हुई। कई अन्य संत कवियों ने भी अपने उपदेश के लिए अवधी को अपनाया है।

प्रेमाख्यान काव्य में सर्वप्रसिद्ध ग्रंथ मलिक मुहम्मद जायसी रचित "पद्मावत" है जिसकी रचना "रामचरितमानस" से 34 वर्ष पूर्व हुई। दोहे चौपाई का जो क्रम "पद्मावत" में है प्राय: वही "मानस" में मिलता है। प्रेमाख्यान काव्य में मुसलमान लेखकों ने सूफी मत का रहस्य प्रकट किया है। इस काव्य की परंपरा कई सौ वर्षों तक चलती रही। मंझन की "मधुमालती", उसमान की "चित्रावली", आलम की "माधवानल कामकंदला", नूरमुहम्मद की "इंद्रावती" और शेख निसार की "यूसुफ जुलेखा" इसी परंपरा की रचनाएँ हैं। शब्दावली की दृष्टि से ये रचनाएँ हिंदू कवियों के ग्रंथों से इस बात में भिन्न हैं कि इसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की उतनी प्रचुरता नहीं है।

प्राचीन अवधी साहित्य में अधिकतर रचनाएँ देशप्रेम, समाजसुधार आदि विषयों पर और मुख्य रूप से व्यंग्यात्मक हैं। कवियों में प्रतापनारायण मिश्र, बलभद्र दीक्षित "पढ़ीस", वंशीधर शुक्ल, चंद्रभूषण द्विवेदी "रमई काका", गुरु प्रसाद सिंह "मृगेश" और शारदाप्रसाद "भुशुंडि" विशेष उल्लेखनीय हैं।

प्रबंध की परंपरा में "रामचरितमानस" के ढंग का एक महत्वपूर्ण आधुनिक ग्रंथ द्वारिकाप्रसाद मिश्र का "कृष्णायन" है। इसकी भाषा और शैली "मानस" के ही समान है और ग्रंथकार ने कृष्णचरित प्राय: उसी तन्मयता और विस्तार से लिखा है जिस तन्मयता और विस्तार से तुलसीदास ने रामचरित अंकित किया है। मिश्र जी ने इस ग्रंथ की रचना द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि प्रबंध के लिए अवधी की प्रकृति आज भी वैसी ही उपादेय है जैसी तुलसीदास के समय में थी।

अवधी लोक साहित्य की एक समृद्ध परम्परा है। अवधी लोक साहित्य पर कई शोध हुए हैं। इनमें कुछ प्रमुख हैं- अवधी लोक साहित्य -डा॰ सरोजनी रोहतगी (१९७१)

प्राचीन काल में अवधी साहित्य केवल पद्द के रूप में फला फूला है। अतः अवधी लोक गायकी भी प्राचीन काल से ही चली आ रही है। अवधी कलाकारों को बिरहा, नौटंकी नाच, अहिरवा नृत्य, कंहरवा नृत्य, चमरवा नृत्य, कजरी आदि नाट्य विधाओं का आविष्कारक माना जाता है तथा इसमें इन्हे अभी भी महारत हासिल है। अवधी की गारी तो पूरे अवध मे प्रसिद्ध है, इसे शादी-ब्याह में महिलाओं द्वारा गाया जाता है।अवधी के सुप्रसिद्ध गायक दिवाकर द्विवेदी है।

विश्व भर में 6 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा अवधी को अभी तक भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल सकी है। इसी प्रकार फिजी में अवधी भाषा को फिजी हिंदी के रूप में प्रस्तुत करके भारत सरकार ने फिजी में भी अवधी के अस्तित्व को मानने से इंकार कर दिया है। किन्तु इन्हीं सब के बीच नेपाल ने प्रांत संख्या ५ में अवधी को आधिकारिक भाषा का दर्जा प्रदान करके अवधी साहित्यकारों की कलम में जान फूंकने का कार्य किया है। इससे भारत के अवधी भाषी भी काफी उत्साहित हैं।

*

रविवार, 20 सितंबर 2020

सरस्वती वन्दना : अवधी - डॉ. कैलाश नाथ मिश्र

 डॉ.कैलाशनाथ मिश्र

माता - स्व. तुलसी देवी

पिता - स्व.यज्ञनारायण मिश्र
पत्नी - स्व.गीता देवी
स्थान - फतनपुर
जन्ततिथि - 30 अक्टूबर 1954
शिक्षा - चिकित्सा स्नातक
छन्दकार - विभिन्न छन्दों में रचनाएँ
कई साझा सङ्कलनों ( *विहग प्रीति के* , *अधूरा मुक्तक* ) व *पत्रिकाओं* में रचनाएँ प्रकाशित हैं ।
विभिन्न ई समूहों से अनेकों सम्मान प्राप्त यथा *अधूरा मुक्तक से* *मुक्तक सम्राट* , *काव्य गौरव , दोहा सम्राट* आदि । *नवोदित साहित्य कार मञ्च से साहित्य सृजक*, *कविता लोक से कविता लोक भारती* , *काव्य गंगोत्री सारस्वत सम्मान* , *काव्य रत्न* , *काव्य श्री*, *छन्द शिल्पी*, *कवितालोक आदित्य*, *गीतिकादित्य* । *मुक्तक लोक से गीतिका श्री* , *मुक्तक लोक भूषण* , *मुक्तकलोक श्रेयस*, *चित्र मंथन सृजन सम्मान* व *युवा उत्कर्ष साहित्यिक मञ्च ( न्यास ) द्वारा श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान व और भी कई सम्मानों से सम्मानित* ।
पता - निवास फतनपुर, पोस्ट आफिस - गौरा (आर.एस.) जनपद. प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल नं. 9452702797
मेल dr.knnishra1789@gmail.com
*सरस्वती वन्दना* *अवधी हिंदी*
सूरसती मैया मोरी सुनिल्या पुकार तू ।
तो'हरी शरण में आये कइल्या स्वी'कार तू ।
चित में विकार भरा जिउ घबरात बा ,
दिन अरु रात मन दुख उधिरात बा ,
चैन नाहीं छिन भर हो'इजा मददगार तू।
तो'हरी शरण में आये कइल्या स्वी'कार तू ।
जन-जन में रोष बढ़ा झगड़ा लड़ाई,
प्रेम क बिसार दै द्या फसल उगाई ,
आगे बढ़े देश आपन कै द्या उपचार तू ।
तोहरी शरण में आये कइल्या स्वीकार तू ।
दुनिया में ताप बढ़ा ग्ले'शियर गलावै ,
बहुतै प्रयोग परदूषणइ बढ़ावै ।
जुगुत नयी खोजि लेतियु कइके दिदार तू ।
तोहरी शरण में आये कइल्या स्वीकार तू ।
लेखनी में जोश भरा रचना बनाई ,
ज्ञान क प्रचार चहुँ दिशा में कराई,
भारत के शीश देतियु मुकट सँवार तू।
तोहरी शरण में आये कइल्या स्वीकार तू ।।
डॉ.कैलाशनाथ मिश्र

रविवार, 18 मार्च 2012

अवधी हाइकु सलिला: --संजीव 'सलिल'

अवधी हाइकु सलिला:  

संजीव 'सलिल'

*
*
सुखा औ दुखा
रहत है भइया
घर मइहाँ.
*
घाम-छांहिक
फूला फुलवारिम
जानी-अंजानी.
*
कवि मनवा
कविता किरनिया
झरझरात.
*
प्रेम फुलवा
ई दुनियां मइहां
महकत है.
*
रंग-बिरंगे
सपनक भित्तर
फुलवा हन.
*
नेह नर्मदा
हे हमार बहिनी
छलछलात.
*
अवधी बोली
गजब के मिठास
मिसरी नाई.
*
अवधी केर
अलग पहचान
हृदयस्पर्शी.
*
बेरोजगारी
बिखरा घर-बार
बिदेस प्रवास.
*
बोली चिरैया
झरत झरनवा
संगीत धारा.
*

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

सामयिक अवधी कविता: अबकी चुनाव हम लड़ि जाबै --ॐ प्रकाश तिवारी

सामयिक अवधी कविता

अबकी चुनाव हम लड़ि जाबै

ॐ प्रकाश तिवारी 
*
तुम्हरै सपोर्ट चाही ददुआ
अबकी चुनाव हम लड़ि जाबै । 

कीन्हेंन बहुतेरे कै प्रचार,
जय बोलेन सबकी धुआँधार,
दुइ पूड़ी के अहसान तले
सगरौ दिन कीन्हेंन हम बेगार । 
जब तलक नाँहिं परि गवा वोट
नेकुना से घिसि डारिन दुआर,
अब जीति गए तो ई ससुरै
चीन्हत नाँहीं चेहरा हमार । 

अबकी इनहिन सबके खिलाफ
हम टिकस की खातिर अड़ि जाबै । 
तुम्हरै सपोर्ट चाही ------------

छपुवाउब बड़े-बड़े पर्चा,
करबै पुरहर खर्चा-बर्चा,
ददुआ तनिकौ कमजोर परब
तौ माँगब तुमहूँ से कर्जा । 
चहुँ दिशि होई हमरी चर्चा,
पउबै हम नेता कै दर्जा,
लोगै हमका द्याखै खातिर
करिहैं दस काम्यौं कै हर्जा ।

अबकी दिल्ली दरबार मा हम
अपनिउ एक चौकी धरि द्याबै । 
तुम्हरै सपोर्ट चाही ----------

मूंठा राखब आपन निसान,
पटकब बिपक्ष कै पकरि कान,
करवाय लेब कप्चरिंग बूथ,
बँटवाय देब सतुआ-पिसान । 
अबहीं तक छोलेन घाँस बहुत,
अब राजनीति में भै रुझान,
तौ जीति के ददुआ दम लेबै,
मन ही मन मा हम लिहन ठान । 

धोबी का वोट मिलै खातिर
गदहौ के पाँयन परि जाबै । 
तुम्हरै सपोर्ट चाही ---------

जब पहिर के निकरब संसद मां
हम उज्जर कुर्ता खादी कै,
चेहरा जाए झुराय ददुआ,
नेतन की कुल आबादी कै । 
अबकिन चुनाव मा नापि लिअब
जलवा इन सब की आँधी कै,
एक दिन मा लै लेबै हिसाब 
हम भारत की बरबादी कै । 

संसद मां प्रश्न उठावै कै
हम एक्कौ पैसा न ल्याबै । 
तुम्हरै सपोर्ट चाही ---------

है याक अर्ज तुम सब जन से,
अबकी बिजयी करिहौ मूठा,
जैसन जीतब ददुआ तुमका
दिलवैबै शक्कर कै कोटा । 
आलू-पियाज अफरात रहे,
ना परै देब तनिकौ टोटा,
तुम सबका सैंक्सन करवइबै
जहता कै थरिया औ लोटा । 

विश्वास करौ हम संसद में
एक टका दलाली न खाबै ।
तुम्हरै सपोर्ट चाही ------

- ओमप्रकाश तिवारी