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शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

दोहा सलिला:
दोहा का रंग यमक के संग
संजीव 'सलिल'
*
ठाकुर जी को सर झुका, ठाकुर करें प्रणाम. 
कारिंदे मुस्का रहे, पड़ा आज फिर काम.. 
*
नम न हुए कर नमन तो, समझो होती भूल.
न मन न तन हों समन्वित, तो चुभता है शूल..
*
बख्शी को बख्शी गयी, जैसे ही जागीर.
थे फ़कीर कहला रहे, खुद को  खुदी अमीर..
*
गये दवाखाना तभी, पाया यह सन्देश.
'भूल दवा खाना गये', झट खा लें आदेश..
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नाहक हक ना त्याग तू, ना हक-पीछे  भाग.
ना ज्यादा अनुराग रख, ना ज्यादा वैराग..
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मंगलवार, 6 जुलाई 2010

कृति चर्चा: चुटकी-चुटकी चाँदनी : दोहा की मन्दाकिनी चर्चाकार : संजीव वर्मा 'सलिल'

कृति चर्चा: 
चुटकी-चुटकी चाँदनी : दोहा की मन्दाकिनी
चर्चाकार : संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
कृति विवरण : चुटकी-चुटकी चाँदनी, दोहा संग्रह, चन्द्रसेन 'विराट', आकार डिमाई, सलिल्ड, बहुरंगी आवरण, पृष्ठ १५६, समान्तर प्रकाशन, तराना, उज्जैन, म.प्र. 
*

हिंदी ही नहीं विश्व वांग्मय के समयजयी छंद दोहा को सिद्ध करना किसी भी कवि के लिये टेढ़ी खीर है. आधुनिक युग के जायसी विराट जी ने १२ गीत संग्रहों, १० गजल संग्रहों, ३ मुक्तक संग्रहों तथा ६ सम्पादित काव्य संग्रहों के प्रकाशन के बाद प्रथम प्रयास में ही दोहा को न केवल सिद्ध करने में सफलता पाई है अपितु अपने यशस्वी कृतित्व को भी एक नया आयाम दिया है. विराट ने प्रत्यहम दोहा संग्रह में पद-पद पर, चरण-चरण पर प्रमाणित किया है कि वे केवल नागरिकी संरचनाओं को मूर्त रूप देने में दक्ष नहीं हैं अपितु अपनी मानस-सृष्टि में अक्षर-शब्द, भाव-रस, बिम्ब-प्रतीक, अलंकार-शैली तथा प्रांजलता-मौलिकता के पञ्च तत्वों से द्विपदी रचने की तकनीक में भी प्रवीण हैं. 

हिंदी की चिरपुरातन-नित नवीन छांदस काव्य परंपरा के ध्वजवाहक विराट ने इस छोटे छंद को बड़ी उम्र में रचकर यह अनकहा सन्देश दिया है कि न्यूनतम में अधिकतम या गागर में सागर को समाहित करने की कला तथा तकनीक परिपक्व चिंतन, उन्मुक्त मनन, लयबद्ध सृजन, सानुपातिक गठन तथा अभिनव कहन के समन्वित-संतुलित समन्वय-समायोजन से ही सिद्ध होती है. अपेक्षाकृत लम्बे गीतों-ग़ज़लों, मुक्तकों के बाद दोहों पर हाथ आजमाकर विराट ने 'प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर. चीटी ले शक्कर चली, हाथी के सिर दूर.' के चिरंतन सत्य को आत्मार्पित किया है. दोहांचार्य होते हुए भी स्वयं को मात्र छात्र माननेवाले विराट का कवि पानी और प्यास दोनों में जीवन की पूर्णता देखते हैं-

तृषा-तृप्ति का संतुलित, बना रहे अहसास.
जीवन में दोनों मिलें, कुछ पानी कुछ प्यास..

श्रेष्ठ-ज्येष्ठ दोहाकार-समीक्षक डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत' ने इस दोहा संग्रह की भूमिका में गीति काव्य की अमरता का गुह्य सूत्र उद्घाटित किया है जिसे हर रचनाकार को आत्मसात कर लेना चाहिए- 'रचना में अर्थ की हर पर्त नहीं खोलना चाहिए, पाठक बहुत समर्थ होता है इसलिए कुछ अर्थ ग्रहण उस पर भी छोड़ देना चाहिए. कविता केवल वैचारिक वक्तव्य नहीं होती, उसमें रसोद्रेक के साथ मार्मिक मंतव्य भी होना चाहिए. यदि भाषा, बिम्ब, एवं प्रतीक अद्यतन हों तो यंत्र-व्यस्त जटिल जीवन भी गेय हो जाता है.' 

यह सनातन सत्य नवोदित कवियों विशेषकर छंद को न समझ-लिख पाने के कारण कथ्य-प्रगटीकरण में बाधक मानने का भ्रम पाले छंद-हीन रचनाएँ रचकर अपना और पाठकों का समय नष्ट कर रहे रचनाकारों को आत्मसात कर लेनी चाहिए.

विराट के विराट चिंतन को वामनावातारी दोहों ने गीतों और ग़ज़लों की तुलना में समान दक्षता से अभिव्यक्त किया है. सम सामयिक विसंगतियों पर विराट का शब्द-प्रहार द्रष्टव्य है-

असहज, अकरुण, अतिशयी, आत्यंतिकता ग्रस्त 
अधुनातन नर हो गया, अतियांत्रिक अतिव्यस्त..

भाती सीधी बात कब?, करते लोग विरोध.
वक्र-उक्ति ही मान्य है, व्यंग्य बना युग-बोध..
विराट की संवेदना हरियाली की नृशंस हत्या होते देखकर सिसक उठती है-

चले कुल्हाडी पेड़ पर, कटे मनुज की देह.
रक्त लाल से हो हरा, ऐसा उमड़े स्नेह..

विराट आरोप नहीं लगाते, आक्षेप नहीं करते, उनकी शालीनता और शिष्टता प्रकारांतर से वह सब कह देती है जिसके लये अन्य कवि आक्रामक भाषा और द्वेषवर्धक शब्दों का प्रयोग करते हैं. 

पेड़ काटने का हुआ, साबित यों आरोप.
वर्षा भी बैरन बनी, सूरज का भी कोप..

यहाँ वे किसी व्यक्ति, जीवन शैली या व्यवस्था को कटघरे में खड़े किए बिना ही विडम्बना का शब्द-चित्र उपस्थित कर देते हैं. मनुष्य के दोहरे चहरे और दुरंगा आचरण विराट को व्यथित कर देते हैं-

दिखते कितने सौम्य हैं, कितने सज्जन-नेक.
मगर कुटिल, कपटी, छली, यहाँ एक से एक..

दोहे की दो पंक्तियों में जीवन के दो पक्षों को अभिव्यक्त करने में विराट का सानी नहीं-

अधिक काम पर प्राप्ति कम, क्यों न आ रहा रोष?
इतना भी मिलता किसे, हमको तो संतोष..

विराट का उदात्त जीवन दर्शन असंतोष से संतोष  सृजन करना जानता है. 'अति सर्वत्र वर्जयेत' की उक्ति विराट के दोहे में ढलकर आम आदमी के अधिक निकट आ पाती है, अत्यधिक मीठे में कीड़े पड़ने का सत्य हम जानते ही हैं. विराट कहते हैं -

ज्यादा अच्छाई नहीं, ज्यादा अच्छी बात.
अच्छाई की अधिकता, अच्छाई की मात..

इस संकलन के प्रेमपरक दोहों में विराट की कलम की निखरा-मुखरा छवि पटक के मन को बांधने में समर्थ है. प्रेम के संयोग-वियोग दोनों ही रूपों के प्रवीण पक्षधर विराट पता को असमंजस में डाल देते हैं कि कि वह किसे अधिक प्रभावी माने-

मिलन-क्षणों का दिव्य सुख, मुंदी जा रही आँख.
उड़े जा रहे व्योम में, हम जैसे बिन पाँख..

लगे न, गम था, जब लगे, नहीं लग रहे नैन.
ये तब भी बेचैन थे, ये अब भी बेचैन.. 

यहाँ 'नैन लगने' के मुहावरे का दुहरे अर्थ में प्रयोग और दोनों स्थितियों में समान प्रभाव को दोहे में कह सकना विराट के दोहाकार के कौशल की बानगी है. 

'चुटकी-चुटकी चाँदनी' के हर दोहे की हर पंक्ति मुट्ठी-मुट्ठी धूप लेकर आपके मन-आँगन को उषा की सुनहरी आभा से आलोकित करने में समर्थ है. यह संग्रह विराट के आगामी दोहा-संग्रह की प्रतीक्षा करने के लिये विवश करने में समर्थ है. सारतः 'अल्लाह करे जोरे करम और जियादा' ..
                                                                                                      -दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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शुक्रवार, 19 मार्च 2010

सुधियों के दोहे: --- आचार्य संजीव 'सलिल'

सुधियों के दोहे:

आचार्य संजीव 'सलिल'

'सलिल' स्नेह को स्नेह का, मात्र स्नेह उपहार.
स्नेह करे संसार में, सदा स्नेह-व्यापार..

स्नेह तजा सिक्के चुने, बने स्वयं टकसाल.
खनक न हँसती-बोलती, अब क्यों करें मलाल?.

जहाँ राम तहँ अवध है, जहाँ आप तहँ ग्राम.
गैर न मानें किसी को, रिश्ते पाल अनाम..

अपने बनते गैर हैं, अगर न पायें ठौर.
आम न टिकते पेड़ पर, पेड़ न तजती बौर..

वसुधा माँ की गोद है, कहो शहर या गाँव.
सभी जगह पर धूप है, सभी जगह पर छाँव..

निकट-दूर हों जहाँ भी, अपने हों सानंद.
यही मनाएँ दैव से, झूमें गायें छंद..

जीवन का संबल बने, सुधियों का पाथेय.
जैसे राधा-नेह था, कान्हा भाग्य-विधेय..

तन हों दूर भले प्रभो!, मन हों कभी न दूर.
याद-गीत नित गा सके, साँसों का सन्तूर..

निकट रहे बेचैन थे, दूर हुए बेचैन.
तरस रहे तरसा रहे, बोल अबोले नैन..

सुधियों की सुधि लीजिये, बिसर जायेगी पीर.
धूप छाँव बरखा सहें, हँस- बिन हुए अधीर..

सुधियों के दोहे 'सलिल', स्मृति-दीर्घा जान.
कभी लगें अपने सगे, कभी लगें मेहमान..

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divyanarmada.blogspot.com
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