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बुधवार, 13 अगस्त 2014

doha geet: kya sachmugh? -sanjiv

सामयिक  दोहागीत:
क्या सचमुच?
संजीव
*
क्या सचमुच स्वाधीन हम?

गहन अंधविश्वास सँग
पाखंडों की रीत 
शासन की मनमानियाँ
सहें झुका सर मीत

स्वार्थ भरी नजदीकियाँ
सर्वार्थों की मौत
होते हैं परमार्थ नित
नेता हाथों फ़ौत

संसद में भी कर रहे 
जुर्म विहँस संगीन हम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
तंत्र लाठियाँ घुमाता
जन खाता है मार
उजियारे की हो रही
अन्धकार से हार

सरहद पर बम फट रहे
सैनिक हैं निरुपाय
रण जीतें तो सियासत
हारे, भूल भुलाय

बाँट रहें हैं रेवड़ी
अंधे तनिक न गम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
दूषित पर्यावरण कर 
मना रहे आनंद 
अनुशासन की चिता पर
गिद्ध-भोज सानंद

दहशतगर्दी देखकर
नतमस्तक कानून
बाज अल्पसंख्यक करें
बहुल हंस का खून

सत्ता की ऑंखें 'सलिल' 
स्वार्थों खातिर नम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
salil.sanjiv@gmail.com
9425183244   

बुधवार, 9 मई 2012

गीत: जितनी ऑंखें उतने सपने... --संजीव 'सलिल'

दोहा गीत:
जितनी ऑंखें उतने सपने...
संजीव 'सलिल'
*
*
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*
मैंने पाये कर कमल, तुमने पाये हाथ.
मेरा सिर ऊँचा रहे, झुके तुम्हारा माथ..

प्राणप्रिये जब भी कहा, बना तुम्हारा नाथ.
हरजाई हो चाहता, सात जन्म का साथ..

कितने बेढब मेरे नपने?
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*
घड़ियाली आँसू बहा, करता हूँ संतोष.
अश्रु न तेरे पोछता, अनदेखा कर रोष..

टोटा जिसमें टकों का, ऐसा है धन-कोष.
अपने मुँह से खुद किया, अपना ही जय-घोष..

लगते गैर मगर हैं अपने,
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*
गोड़-लात की जड़ें थीं, भू में गहरी खूब.
चरणकमल आधार बिन, उड़-गिर जाते डूब..

अपने तक सीमित अगर, सांसें जातीं ऊब.
आसें हरियातीं 'सलिल', बन भू-रक्षक दूब..

चल मन-मंदिर हरि को जपने,
जितनी ऑंखें उतने सपने...
*****
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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