शुभ कामना
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
आँसू बहे न एक,
चंचरीक को याद कर।
मिले प्रेरणा नेक,
प्रभु से नित फरियाद कर।।
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जगमोहन को मोह जग,
सका नहीं थक-हार।
नतमस्तक हो देखता,
रहा भक्ति का ज्वार।।
प्रभु की कृपा अहैतुकी,
पाई सतत अनंत।
साक्षी धरती ही नहीं,
रवि-शशि दिशा-दिगंत।।
श्वास-श्वास हरि-नाम जप,
रचा अमर साहित्य।
भाव बिंब रस छंदमय,
बन अक्षर आदित्य।।
दोहा सलिला
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रहे प्रदीपा आत्म जब, तभी मिले आनंद।
सलिल न भव की फिक्र कर, सुन-गा गुरु के छंद।।
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अर्थ न होता अर्थ में, व्यर्थ अर्थ की होड़।
कर संजीव अनर्थ कुछ, घट जाए कुछ जोड़।।
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दुविधा से सुविधा मिले, रखे हाथ पर आत्म।
बैठ रहो सुख-शांति से, साथ रहे परमात्म।।
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पग उत्तर की चाह में, जा दक्षिण की ओर।
प्रत्युत्तर दे रहे हैं, मचा-मचाकर शोर।।
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जो है बाहर समझ के, व्याप्त वहीं पर आप।
समझ रहा जो नासमझ,बिन समझे कर जाप।।
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संजीव
२७-१०-२०१८
७९९९५५९६१८
महाशोक
मराल बिन सूना जबलपुर
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जबलपुर, २०-१०-२०१८। हिंदी साहित्य के बहुआयामी रचनाकार, विख्यात शिक्षाविद, कुशल वक्ता, समर्पित हिंदीसेवी, महाकवि और सबसे बढ़कर सहृदय मानव सरस्वतीपुत्र डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल' आज प्रात: ६ बजे इहलोक छोड़कर सरस्वती-लोक प्रस्थान कर गए।
संस्कारधानी जबलपुर में सारस्वत साधना कर देशव्यापी प्रसिद्धि अर्जित करने के साथ-साथ मराल जी ने बाल शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण, पौधारोपण, साहित्यिक पत्रकारिता और संपादन को भी सफलतापूर्वक साधा। मुझे उनका भरपूर स्नेह मिला। अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण के अंतर्गत उनकी दो कृतियों को सम्मानित किया गया। साहित्य पत्रिका नर्मदा के संपादनकाल में वे प्रधान संपादक के नाते पथ प्रदर्शन कर रहे थे। मेरे तीसरे काव्य संग्रह 'मीत मेरे' की भूमिका मराल जी ने ही लिखी। अपनी महत्वपूर्ण कृतियों पर मेरी लिखी समीक्षा की वे प्रतीक्षा करते थे।
संस्कारधानी जबलपुर के प्रति उनकी संवेदन-शीलता अपनी मिसाल आप थी। अभियान तथा समर्पण संस्थाओं के पौधारोपण कार्यक्रमों से वे निरंतर जुड़े रहते थे। भाई साज जबलपुरी के साथ वर्तिका संस्था की स्थापना करते समय भी मराल जी से सहयोग मिला। वे मतभेदों को मतभेद न बनने देने के पक्षधर थे।
शिक्षा विभाग में उच्च प्रशासनिक पदों की शोभा बढ़ा चुके मराल जी की कार्यपद्धति का परिचय मुझे पहली बार जबलपुर में आए भूकंप के बाद तब मिला जब लोक निर्माण विभाग द्वारा नव निर्मित डाइट महाविद्यालय की क्षतिग्रस्त इमारत की मरम्मत का कार्य मुझे सौंपा गया। मराल जी की कार्यपद्धति पर सुदीर्घ प्रशासनिक अनुभवों का प्रभाव था। वे स्पष्ट तथा शीघ्र निर्णय लेते थे तथा एक बार निर्णय कर लेने पर उसे बदलते नहीं थे।
इंजीनियर्स फोरम के महामंत्री होने के नाते मुझे विविध विभागों में अभियंता बंधुओं से संपर्क रखना होता था। जबलपुर विकास प्राधिकरण में सर्वाधिक सहयोग देते रहे अभियंता डी. एस. मिश्र जो तब कार्यपालन अभियंता थे, अब अधीक्षण यंत्री हैं। वे मिलने पर साहित्य की चर्चा अवश्य करते। मुझे विस्मय होता, एक दिन मैंने कारण पूछा तो निकट बैठे इंजी. बंधु ने बताया कि इनके पिता जी प्रसिद्ध साहित्यकार मराल जी हैं। मैं मराल जी के निवास पर कई बार जा चुका था। अत: विस्मित हुअा कि अब तक यह क्यों न जान सका। पूछने पर विदित हुआ अनुशासन प्रिय पिता के सामने अभियंता और प्रथम श्रेणी अधिकारी होने के बाद भी पुत्र आवश्यकता होने पर ही जाता था। मेरे परिवार में भी पिता जी का ऐसा ही अनुशासन था।
मराल जी भारतीय जीवनपद्धति और जीवनमूल्यों के वाहक थे। उनका देहावसान मेरी व्यक्तिगत क्षति है। उन्होंने एक बार बताया था कि वे छंद विषयक शोध करना चाहते थे किंतु कार्य की विराटता और निदेशक की सलाह पर उन्होंने विषय बदल दिया। इससे मुझे उत्सुकता हुई और मैंने छंद का अध्ययन आरंभ किया। मराल जी, आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी तथा आचार्य भगवत दुबे छंद विषयक कार्य के संबंध में सतत उत्साहवर्धन करते रहे हैं।
मराल जी के महाप्रस्थान ने मुझे एक परामर्शदाता ही नहीं अग्रजवत हाथ के सहारे से वंचित कर दिया है। दुर्भाग्य यह कि मैं अभिव्यक्ति विश्वम् के तत्वावधान में छंद विषयक कार्यशाला के लिए लखनऊ में हूँ। अग्रजवत मराल जी को श्रद्धांजलि अर्पण कर कार्यशाला होगी। परमपिता से प्रार्थना है कि शोकाकुल स्वजनों को यह क्षति सहन करने हेतु साहस प्रदान करें। ओम् शांति: शांति: शांति:।
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