ॐ
-: विश्व वाणी हिंदी संस्थान - समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर :-
ll हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल l 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल ll
ll जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार l 'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ll
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पुरोवाक
: हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा और चंद्र कलश :
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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अक्षर, अनादि, अनंत और असीम शब्द ब्रम्ह में अद्भुत सामर्थ्य होती है। रचनाकार शब्द ब्रम्ह के प्रागट्य का माध्यम मात्र होता है।इसीलिए सनातन प्राच्य परंपरा में प्रतिलिपि के अधिकार (कोपी राइट) की अवधारणा ही नहीं है। श्रुति-स्मृति, वेदादि के रचयिता मंत्र दृष्टा हैं, मंत्र सृष्टा नहीं। दृष्टा उतना ही देख और देखे को बता सकेगा जितना बताने की सामर्थ्य या क्षमता ब्रम्ह से प्राप्त होगी। तदनुसार रचनाकार ब्रह्म का उपकरण मात्र है।
रचना कर्म अपने आपमें जटिल मानसिक प्रक्रिया है।कभी दृश्य, कभी अदृश्य, कभी भाव, कभी कथ्य रचनाकार को प्रेरित करते हैं कि वह 'स्वानुभूति' को 'सर्वानुभूति' बनाने हेतु रचना करे। रचना कभी दिल से होती है, कभी दिमाग से और कभी-कभी अजाने भी। रचना की विधा का चयन कभी रचनाकार अपने मन से करता है, कभी किसी की माँग पर और कभी कभी कथ्य इतनी प्रबलता से प्रगट होता है कि विधा चयन भी अनायास ही हो जाता है। शिल्प व विषय का चुनाव भी परिस्थिति पर निर्भर होता है। किसी चलचित्र के लिए परिस्थिति के अनुरूप संवाद या पद्य रचना ही होगी, लघुकथा, हाइकु या अन्य विधा सामान्यतः उपयुक्त नहीं होगी।
ग़ज़ल : एक विशिष्ट काव्य विधा
संस्कृत काव्य में द्विपदिक श्लोकों की रचना आदि काल से की जाती रही है। संस्कृत की श्लोक रचना में समान तथा असमान पदांत-तुकांत दोनों का प्रयोग किया गया। भारत से ईरान होते हुए पाश्चात्य देशों तक शब्दों, भाषा और काव्य की यात्रा असंदिग्ध है। १० वीं सदी में ईरान के फारस प्रान्त में सम पदांती श्लोकों की लय को आधार बनाकर कुछ छंदों के लय खण्डों का फ़ारसीकरण नेत्रांध कवि रौदकी ने किया। इन लय खण्डों के समतुकांती दुहराव से काव्य रचना सरल हो गयी। इन लयखण्डों को रुक्न (बहुवचन अरकान) तथा उनके संयोजन से बने छंदों को बह्र कहा गया। फारस में सामंती काल में 'तश्बीब' (बादशाहों के मनोरंजन हेतु संक्षिप्त प्रेम गीत) या 'कसीदे' (रूप/रूपसी या बादशाहों की की प्रशंसा) से ग़ज़ल का विकास हुआ। 'गजाला चश्म' (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप के रूप में ग़ज़ल लोकप्रिय होती गई। फारसी में दक़ीक़ी, वाहिदी, कमाल, बेदिल, फ़ैज़ी, शेख सादी, खुसरो, हाफ़िज़, शिराजी आदि ने ग़ज़ल साहित्य को समृद्ध किया। मुहम्मद गोरी ने सन ११९९ में दिल्ली जीत कर कुतुबुद्दीन ऐबक शासन सौंपा। तब फारसी तथा सीमान्त प्रदेशों की भारतीय भाषाओँ पंजाबी, सिरायकी, राजस्थानी, हरयाणवीबृज, बैंसवाड़ी आदि के शब्दों को मिलाकर सैनिक शिविरों में देहलवी या हिंदवी बोली का विकास हुआ। मुग़ल शासन काल तक यह विकसित होकर रेख़्ता कहलाई। रेख़्ता और हिंदवी से खड़ी हिंदी का विकास हुआ। खुसरो जैसे अनेक कवि फ़ारसी और हिंदवी दोनों में काव्य रचना करते थे। कबीर जैसे अशिक्षित लोककवि भी फारसी के शब्दों से परिचित और काव्य रचना में उनका प्रयोग करते थे। हिंदी ग़ज़ल का उद्भव काल यही है। खुसरो और कबीर जैसे कवियों ने हिंदी ग़ज़ल को आध्यात्मिकता (इश्के हकीकी) की जमीन दी। अमीर खुसरो ने गजल को आम आदमी और आम ज़िंदगी से बावस्ता किया।
जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर ।
जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर । -खुसरो (१२५३-१३२५)
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहे आज़ाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते
हमारा यार है हममें, हमन को इंतजारी क्या? - कबीर (१३९८-१५१८)
स्वातंत्र्य संघर्ष कला में हिंदी ग़ज़ल ने क्रांति की पक्षधरता की-
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है -रामप्रसाद बिस्मिल
मुग़ल सत्ता के स्थाई हो जाने पर बाजार और लोक जीवन में रेख़्ता ने जो रूप ग्रहण किया थाउसे उर्दू (फारसी शब्द अर्थ बाजार) कहा गया। स्पष्ट है कि उर्दू रोजमर्रा की बाजारू बोली थी। इसीलिये ग़ालिब जैसे रचनाकार अपनी फारसी रचनाओं को श्रेष्ठ और उर्दू रचनाओं को कमतर मानते थे। मुगल शासन दक्षिण तक फैलने के बाद हैदराबाद में उर्दू का विकास हुआ। दिल्ली, लखनऊ तथा हैदराबाद में उर्दू की भिन्न-भिन्न शैलियाँ विकसित हुईं। उर्दू ग़ज़ल के जनक वली दखनी (१६६७-१७०७) औरंगाबाद में जन्मे तथा अहमदाबाद में जीवन लीला पूरी की। उर्दू में सांसारिक प्रेम (इश्क मिजाजी), नाज़ुक खयाली ही गजल का लक्षण हो गया।
सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।
कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।। -वली दखनी
हिंदी ग़ज़ल - उर्दू ग़ज़ल
गजल का अपना छांदस अनुशासन है। प्रथम द्विपदी में समान पदांत-तुकांत, तत्पश्चात एक-एक पंक्ति छोड़कर पदांत-तुकांत, सभी पंक्तियों में समान पदभार, कथ्य की दृष्टि से स्वतंत्र द्विपदियाँ और १२ लयखंडों के समायोजन से बनी द्विपदियाँ गजल की विशेषता है। गजल के पदों का भार (वज्न) उर्दू में तख्ती के नियमों के अनुसार किया जाता है जो कहीं-कहीं हिन्दी की मात्रा गणना से साम्यता रखता है कहीं-कहीं भिन्नता। गजल को हिन्दी का कवि हिन्दी की काव्य परंपरा और पिंगल-व्याकरण के अनुरूप लिखता है तो उसे उर्दू के दाना खारिज कर देते हैं। गजल को ग़ालिब ने 'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' इसीलिए कहा कि वे इस विधा को बचकाना लेखन समझते थे जिसे सरल होने के कारण सब समझ लेते हैं। विडम्बना यह कि ग़ालिब ने अपनी जिन रचनाओं को सर्वोत्तम मानकर फारसी में लिखा वे आज बहुत कम तथा जिन्हें कमजोर मानकर उर्दू में लिखा वे आज बहुत अधिक चर्चित हैं। हिन्दी में ग़ज़ल को उर्दू से भिन्न भाव भूमि तथा व्याकरण-पिंगल के नियम मिले। यह अपवाद स्वरूप हो सकता है कि कोई ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू दोनों के मानदंडों पर खरी हो किन्तु सामान्यतः ऐसा संभव नहीं। हिन्दी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में अधिकांश शब्द-भण्डार सामान्य होने के बावजूद पदभार-गणना के नियम भिन्न हैं। समान पदांत-तुकांत के नियम दोनों में मान्य हैं। उर्दू ग़ज़ल १२ बहरों के आधार पर कही जाती है जबकि हिन्दी गजल हिन्दी-छंदों के आधार पर रची जाती हैं। दोहा गजल में दोहा तथा ग़ज़ल, हाइकु ग़ज़ल में हाइकु और ग़ज़ल, माहिया ग़ज़ल में माहिया और ग़ज़ल दोनों के नियमों का पालन होना अनिवार्य है। एक बात और अंगरेजी, जापानी, चीनी यहाँ तक कि बांगला, मराठी, या तेलुगु ग़ज़ल पर फ़ारसी-उर्दू के नियम लागू नहीं किए जाते किन्तु हिंदी ग़ज़ल के साथ जबरदस्ती की जाती है। इसका कारण केवल यह है कि उर्दू गज़लकार हिंदी जानता है जबकि अन्य भाषाएँ नहीं जानता। अंग्रेजी की ग़ज़लों में पद के अंत में उच्चारण मात्र मिलते हैं हिज्जे (स्पेलिंग) नहीं मिलते। अंगरेजी ग़ज़ल में pension और attention की तुक पर कोई आपत्ति नहीं होती. डॉ. अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल सन्ग्रह 'ऑफ़ एंड ओन' की रचनाओं में पदांत तो समान है पर लयखंड समान नहीं हैं हैं।
हिंदी वर्णमाला के पंचम वर्ण तथा संयुक्त अक्षर उर्दू में नहीं हैं। प्राण, वाङ्ग्मय, सनाढ्य जैसे शब्द उर्दू में नहीं लिखे जा सकते। 'ब्राम्हण' को 'बिरहमन' लिखना होता है। उर्दू में 'हे' और 'हम्ज़ा' की दो ध्वनियाँ हैं। पदांत के शब्द में किसी एक ध्वनि का ही प्रयोग हो सकता है। हिंदी में दोनों के लिए केवल एक ध्वनि 'ह' है। इसलिए जो ग़ज़ल हिंदी में सही है वह उर्दू के नज़रिये से गलत और जो उर्दू में सही है वह हिंदी की दृष्टि से गलत होगी। दोनों भाषाओँ में मात्रा गणना के नियम भी अलग-अलग हैं। अत: हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से भिन्न मानना चाहिए। उर्दू में 'इस्लाह' की परंपरा ने बचकाना रचनाओं को सीमित कर दिया तथा उस्ताद द्वारा संशोधित करने पर ही प्रकाशित करने के अनुशासन ने सृजन को सही दिशा दी जबकि हिन्दी में कमजोर रचनाओं की बाढ़ आ गयी।
ग़ज़ल का शिल्प और नाम वैविध्य
समान पदांत-तुकांत की हर रचना को गजल नहीं कहा जा सकता। गजल वही रचना है जो गजल के अनुरूप हो। हिन्दी में सम पदांत-तुकांत की रचनाओं को मुक्तक कहा जाता है। ग़ज़ल में हर द्विपदी अन्य द्विपदियों से स्वतंत्र (मुक्त) होती है इसलिए डॉ. मीरज़ापुरी इन्हें प्रच्छन्न हिन्दी गजल कहते हैं। कुछ मुखपोथीय समूह हिंदी ग़ज़ल को गीतिका कह रहे हैं जबकि गीतिका एक मात्रिक छंद है।विडम्बनाओं को उद्घाटित कर परिवर्तन और विद्रोह की भाव भूमि पर रची गयी गजलों को 'तेवरी' नाम दिया गया है। मुक्तक का विस्तार होने के कारण हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका कहा ही जा रहा है। चानन गोरखपुरी के अनुसार 'ग़ज़ल का दायरा अत्यधिक विस्तृत है। इसके अतिरिक्त अलग-अलग शेर अलग-अलग भावभूमि पर हो सकते हैं। जां निसार अख्तर के अनुसार-
हमसे पूछो ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फन क्या?
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए।
डॉ. श्यामानन्द सरस्वती 'रोशन' के लफ़्ज़ों में -
जो ग़ज़ल के तक़ाज़ों पे उतरे खरी
आज हिंदी में ऐसी ग़ज़ल चाहिए
हिंदी ग़ज़ल के सम्बन्ध में मेरा मत है-
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल
मत गज़ाला चश्म कहन यह कसीदा भी नहीं
जनक जननी छंद-गण औलाद है हिंदी ग़ज़ल
जड़ जमी गहरी न खारिज समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल
भर-पद गणना, पदान्तक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल
सत्य-शिव-सुंदर मिले जब, सत-चित-आनंद हो
आत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल
हिंदी ग़ज़ल प्रवाह में दुष्यंत कुमार, शमशेर बहादुर सिंह नीरज आदि के रूप में एक ओर लोकभाषा भावधारा है तो डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, चंद्रसेन विराट, डॉ. अनंत राम मिश्र 'अनंत', शिव ॐ अंबर, डॉ. यायावर आदि के रूप में संस्कारी भाषा परक दूसरी भावधारा स्पष्टत: देखी जा सकती है। ईद दो किनारों के बीच मुझ समेत अनेक रचनाकर हैं जो दोनों भाषा रूपों का प्रयोग करते रहे हैं। सुनीता सिंह की ग़ज़लें इसी मध्य मार्ग पर पहलकदमी करती हैं।
सुनीता सिंह की ग़ज़लें
हिंदी और अंगरेजी में साहित्य सृजन की निरंतरता बनाये रखकर विविध विधाओं में हाथ आजमानेवाली युवा कलमों में से एक सुनीता सिंह गोरखपुर और लखनऊ के भाषिक संस्कार से जुडी हों यह स्वाभाविक है। शैक्षणिक पृष्ठभूमि ने उन्हें अंगरेजी भाषा और साहित्य से जुड़ने में सहायता की है।सुनीता जी उच्च प्रशासनिक पद पर विराजमान हैं। सामान्यत: इस पृष्ठभूमि में अंग्रेजी परस्त मानसिकता का बोलबाला देखा जाता है किन्तु सुनीता जी हिंदी-उर्दू से लगाव रखती हैं और इसे बेझिझक प्रगट करती हैं। हिंदी, उर्दू और अंगरेजी तीनों भाषाएँ उनकी हमजोली हैं। एक और बात जो उन्हें आम अफसरों की भीड़ से जुड़ा करते है वह है उनकी लगातार सीखने की इच्छा। चंद्र कलश सुनीता जी की ग़ज़लनुमा रचनाओं का संग्रह है। ग़ज़लनुमा इसलिए कह रहा हूँ कि उन्होंने अपनी बात कहने के लिए आज़ादी ली है। वे कथ्य को सर्वाधिक महत्व देती हैं। कोई बात कहने के लिए जिस शब्द को उपयुक्त समझती हैं, बिना हिचक प्रयोग करते हैं, भले ही इससे छंद या बह्र का पालन कुछ कम हो। चंद्र कलश की कुछ ग़ज़लों में फ़ारसी अलफ़ाज़ की बहुतायत है तो अन्य कुछ ग़ज़लों में शुद्ध हिंदी का प्रयोग भी हुआ है। मुझे शुद्ध हिंदीपरक ग़ज़लें उर्दू परक ग़ज़लों से अधिक प्रभावी लगीं। सुनीता जी का वैशिष्ट्य यह है की अंगरेजी शब्द लगभग नहीं के बराबर हैं। शिल्प पर कथ्य को प्रमुखता देती हुई ये गज़लें अपने विषय वैविध्य से जीवन के विविध रंगों को समेटती चलती हैं। साहित्य में सरकार और प्रशासनिक विसंगतियों का शब्दांकन बहुत सामान्य है किन्तु सुनीता जी ऐसे विषयों से सर्वथा दूर रहकर साहित्य सृजन करती हैं।
'थोथा चना बाजे घना' की कहावत को सामाजिक जीवन में चरितार्थ होते देख सुनीता कहती हैं-
उसको वाइज़ कहें या कि रहबर कहें।
खुद गुना जो न हमको सिखाता रहा॥
'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और' शायरी में अंदाज़े-बयां ही शायर की पहचान स्थापित करता है। यह जानते हुए सुनीता अपनी बात अपने ही अंदाज़ में इस तरह कहती हैं कि साधारण में असाधारणत्व का दीदार हो-
खाली रहा दिल का मकां वो जब तलक आए न थे।
आबाद उनसे जब हुआ वो खालीपन खोता गया॥
राधा हो या मीरा प्रिय को ह्रदय में बसाकर अभिन्न हे इन्हीं अमर भी हो जाती है। यह थाती सुनीता की शायरी में बदस्तूर मौज़ूद है-
दिल में धड़कन की तरह तुझको बसा रखते हैं।
तेरी तस्वीर क्या देखेंगे जमानेवाले।।
मैं तेरे गम को ही सौगात बना जी लूँगी।
मेरी आँखों को हँसी ख्वाब दिखानेवाले।।
आधुनिक जीवन की जटिलता हम सबके सामने चुनौतियाँ उपस्थित करती है। शायर चुनौतियों से घबराता नहीं उन्हें चुनौती देता है-
हमने जो खुद को थामा, उसका दिखा असर है।
कब हौसलों से सजता, उजड़ा किला नहीं है।।
सचाई की बड़ाई करने के बाद भी आचरण में न अपनाना आदमी की फितरत क्यों है? यह सवाल चिरकाल से पूछा जाता रहा है। बकौल शायर- 'दिल की बात बता देता है, असली नकली चेहरा।' अपनी शक्ल को जैसे का तैसा न रखकर सजावट करने की प्रवृत्ति से सुनीता महिला होने के बाद भी सहमत नहीं हैं-
चेहरे पर चेहरा क्यों लोग रखते हैं लगाकर।
जो दिया रब ने बनावट से छुपा जाते ही क्यों हैं।।
'समय होत बलवान' का सच बयां करती सुनीता कहती हैं कि मिन्नतों से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब जो होना है, समय वही करता है।
मिन्नतें लाख हों चाहे करेगा वक्त अपनी ही।
जिसे चाहे बना तूफ़ान का देता निवाला है।।
मुश्किल समय में अपने को अपने आप तक सीमित कर लेना सही रास्ता नहीं है। सुनीता कहती हैं-
तन्हाइयों में ग़म को दुलारा न कीजिए।
रुसवाइयों को अपनी सँवारा न कीजिए।।
अनिश्चितता की स्थिति में मनुष्य के लिए तिनके का सहारा भी बहुत होता है। सीता जी को अशोक वन में रावण के सामने दते रहने के लिए यह तिनका ही सहारा बनता है। 'तृण धर ओट कहत वैदेही, सुमिर अवधपति परम सनेही।' सुनीता उस स्थिति में ईश्वर से दुआ माँगने के लिए हाथ उठाना उचित समझती हैं जब यह न ज्ञात हो कि उजाला कब मिलेगा-
जब नजर कोई नहीं आये कहीं।
तब दुआ में हाथ उठता है वहीं।।
राह में कोई कहाँ ये जानता?
कब मिलेगी धूप कब छाया नहीं?
दुनिया में विरोधाभास सर्वत्र व्याप्त है। एक और मुश्किल में सहारा देनेवाले नहीं मिलते, दूसरी और किसी को संकट से निकलने के लिए हाथ बढ़ाएँ तो वह भरोसा नहीं करता अपितु हानि पहुँचाता है। साधु और बिच्छू की कहानी हम सब जानते ही हैं। ऐसी स्थिति केन मिस्से कब क्या शिकायत की जाए-
किसे अब कौन समझाये, किधर जाकर जिया जाये?
हर तरफ रीत है ऐसी, शिकायत क्या किया जाये?
मनुष्य की प्रवृत्ति तनिक संकट होते ही सहारा लेने की होती है। तब उसकी पूर्ण क्षमता का विकास नहीं हो पाता किन्तु कोई सहारा न होने पर मनुष्य पूर्ण शक्ति के साथ संघर्ष कर अपनी राह खोज लेता है। रहीम कहते हैं-
रहिमन विपदा सो भली, जो थोड़े दिन होय।
हित-अनहित या जगत में जान पड़त सब कोय।।
सुनीता इस स्थिति को हितकारी की पहचान ही नहीं, अपनी क्षमता के विकास का भी अवसर मानती हैं-
कुछ अजब सा मेल पीड़ा और राहत का रहा।
बन्द आँखों से जहाँ सारा मुझे दिखला दिया।।
राह मिल जाती है पाने के सिवा चारा नहीं जब।
पंख खुल जाते हैं उड़ने के सिवा चारा नहीं जब।।
ख्वाबों को पूरा करने की, राह सदा मिल जाती है।
हम पहले अपनाते खुद को, तब दुनिया अपनाती है।।
कुदरत उजड़ने के बाद अपने आप बस भी जाती है। बहार को आना ही होता है-
अब्र का भीना सौंधापन, बाद-ए-सबां की तरुणाई।।
सिम्त शफ़क़ से रौशन हैं, ली है गुलों ने अंगड़ाई।।
सामान्यत: हम सब सुख, केवल सुख चाहते हैं जबकि सृष्टि में सुख बिना दुःख के नहीं मिलता चूंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। शायरा तीखा-मीठा दोनों रस पीना चाहती है-
देख क्षितिज पर खिलती आशा, मैं भी थोड़ा जी जाऊँ।
तीखा-म़ीठा सब जीवन-रस, धीर-धीरे पी जाऊँ।।
कवयित्री जानती है कि दुनिया में कोई किसी का साथ कठिनाई में नहीं देता। 'मरते दम आँख को देखा है की फिर जाती है' का सत्य उससे अनजाना नहीं है। अँधेरे में परछाईं भी साथ छोड़ देती है, यह जानकर भी कवयित्री निराश नहीं होती। उसका दृष्टिकोण यह है कि ऐसी विषम परिस्थिति में औरों से सहारा पाने की की कामना करने के स्थान पर अपना सहारा आप ही बन जाना चाहिए।
भीगे सूने नयनों में, श्रद्धा के दीप जला लेना।
दर्द बढ़े तो अपने मन को, अपना मीत बना लेना।।
समझौतों की वेदी पर, जीवन की भेंट न चढ़ जाये।
बगिया अपनी स्वयं सजा, सतरंगी पुष्प खिला लेना।।
संकल्पों से भार हटाकर खाली अपना मन कर लो।
सरल सहज उन्मुक्त लहर सा अपना यह जीवन कर लो॥
हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा में चंद्र्कलश न तो मील का पत्थर है, न प्रकाश स्तम्भ किन्तु यह हिंदी गजलोद्यान में चकमनेवाला जुगनू अवश्य है जो ग़ज़ल-पुष्पों के सुरभि के चाहकों को राह दिखा सकता है और जगमगा कर आनंदित कर सकता है। चंद्रकलश की ग़ज़लें सुनीता की यात्रा का समापन नहीं आरम्भ हैं। उनमें प्रतिभा है, सतत अभ्यास करने की ललक है, और मौलिक सोचने-कहने का माद्दा है। वे किसी की नकल नहीं करतीं अपितु अपनी राह आप खोजती हैं। राह खोजने पर ठोकरें लग्न, कंटक चुभना और लोगों का हंसना स्वाभाविक है लेकिन जो इनकी परवाह नहीं करता वही मंज़िल पर पहुँचता है। सुनीता को स्नेहाशीष उनकी कलम का जोर लगातार बढ़ता रहे, वे हिंदी ग़ज़ल के मिज़ाज़ और संस्कारों को समझते हुए अपना मुकाम ही न बनायें अपितु औरों को मुकाम बनाने में मददगार भी हों। वे जिस पद पर हैं वहां से हिंदी के लिए बहुत कुछ कर सकती हैं, करेंगी यह विश्वास है। उनका अधिकारी उनके कवि पर कभी हावी न हो पाए। वे दोनों में समन्वय स्थापित कर हिंदी ग़ज़ल के आसमान में चमककर आसमान को अधिक प्रकाशित करें।