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शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

doha

दोहा सलिला :

नेह-नर्मदा नहाकर, मन-मयूर के नाम 
तन्मय तन ने लिख दिया, चिन्मय चित बेदाम

***

बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

lokgeet

एक लोकरंगी प्रयास-
देवी को अर्पण.
*
मैया पधारी दुआरे
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
घर-घर बिराजी मतारी हैं मैंया!
माँ, भू, गौ, भाषा हमारी है मैया!
अब लौं न पैयाँ पखारे रे हमने
काहे रहा मन भुलाना
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
आसा है, श्वासा भतारी है मैया!
अँगना-रसोई, किवारी है मैया!
बिरथा पड़ोसन खों ताकत रहत ते,
भटका हुआ लौट आवा

रे भैया! झूम-झूम गावा
*
राखी है, बहिना दुलारी रे मैया!
ममता बिखरे गुहारी रे भैया!
कूटे ला-ला भटकटाई -
सवनवा बहुतै सुहावा

रे भैया! झूम-झूम गावा
*
बहुतै लड़ैती पिआरी रे मैया!
बिटिया हो दुनिया उजारी रे मैया!
'बज्जी चलो' बैठ काँधे कहत रे!
चिज्जी ले ठेंगा दिखावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
तोहरे लिये भए भिखारी रे मैया!
सूनी थी बखरी, उजारी रे मैया!
तार दये दो-दो कुल तैंने 
घर भर खों सुरग बनावा  
रे भैया! झूम-झूम गावा
*

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

ananvaya alankar

अलंकार सलिला 

: २१  : अनन्वय अलंकार

















बने आप उपमेय ही, जब खुद का उपमान 
'सलिल' अनन्वय है वहाँ, पल भर में ले जान 
*
किसी काव्य प्रसंग में उपमेय स्वयं ही उपमान हो तथा पृथक उपमान का अभाव हो तो अनन्वय अलंकार होता है.  

उदाहरण:

१. लही न कतहुँ हार हिय मानी।  इन सम ये उपमा उर जानी।।

२. हियौ हरति औ' करति अति, चिंतामनि चित चैन 
    वा सुंदरी के मैं लखे, वाही के से नैन  

३. अपनी मिसाल आप हो, तुम सी तुम्हीं प्रिये! 
    उपमान कैसे दे 'सलिल', जूठे सभी हुए

४. ये नेता हैं नेता जैसे, चोर-उचक्के इनसे बेहतर

५. नदी नदी सम कहाँ रह गयी?, शेष ढूह है रेत के 
    जहाँ-तहाँ डबरों में पानी, नदी हो गयी खेत रे!

६. भारत माता 
    समान है, केवल 
    भारत माता।    -हाइकु 

७. नहीं लता सी दूसरी  
    कहीं गायिका हुई है 
    लता आप हैं लता सी -जनक छंद    


**********

रविवार, 11 अक्टूबर 2015

upmeyopma alankar

अलंकार सलिला 

: १९  : उपमेयोपमा अलंकार

बने परस्पर चाह से, जीवन स्वर्ग समान  
दोनों ही उपमेय हों, दोनों ही उपमान 
*
किसी काव्य प्रसंग में बाह्य उपमान के स्थान पर दो वस्तुएँ अथवा व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे के उपमेय और उपमान हों तो वहाँ उपमेयोपमा अलंकार होता है.  

उदाहरण: 

१.  सब मन रंजन हैं, खंजन से नैन आली, नैनन से खंजन हू, लागत चपल है.
    मीनन से महा मनमोहन है मोहिबे को, मीन इन ही से नीके, सोहत अमल है
    मृगन के लोचन से, लोचन हैं रोचन ये, मृग दृग इन ही से, सोहे पलापल है 
    सूरति निहार देखी, नीके ऐसी प्यारी जू के, कमल से नैन और, नैन से कमल हैं 

२. नेता जैसे अपराधी हैं, अपराधी हैं जैसे नेता 
    देता प्रभु पल में ले लेता, ले लेता पल में प्रभु देता 
    ममता-माया, माया-ममता, काया-छाया, छाया-काया 
    भिन्न अभिन्न कौन है किससे, सोच-सोच कवि-मन चकराया 
    -लाक्षणिक जातीय ३२ मात्रिक, दण्डकला छंद यति १६-१६, पंक्त्यांत लघु-गुरु, द्विपदिक मुक्तक  

३. उषा लगती 
    सुंदरी सी, सुंदरी 
    लगती उषा.       - हाइकु वर्णिक छंद, ५-७-५   

४. कविता-पत्र 
    कौन लिखता अब 
    पत्र-कविता?    - - हाइकु वर्णिक छंद, ५-७-५ 

५. गैर अपने हो गए हैं, हुए अपने गैर 
     कौन जाने कौन किसकी, चाहता है खैर? 
    - अवतारी जातीय २४ मात्रिक रूपमाला छंद, यति १४-१०, पंक्त्यांत गुरु लघु  
*


 

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2015

kavita

एक रचना: * ओ मेरी नेपाली सखी! एक सच जान लो समय के साथ आती-जाती है धूप और छाँव लेकिन हम नहीं छोड़ते हैं अपना गाँव। परिस्थितियाँ बदलती हैं, दूरियाँ घटती-बढ़ती हैं लेकिन दोस्त नहीं बदलते दिलों के रिश्ते नहीं टूटते। मुँह फुलाकर रूठ जाने से सदियों की सभ्यताएँ समेत नहीं होतीं। हम-तुम एक थे, एक हैं, एक रहेंगे। अपना सुख-दुःख अपना चलना-गिरना संग-संग उठना-बढ़ना कल भी था, कल भी रहेगा। आज की तल्खी मन की कड़वाहट बिन पानी के बदल की तरह न कल थी, न कल रहेगी। नेपाल भारत के ह्रदय में भारत नेपाल के मन में था, है और रहेगा। इतिहास हमारी मित्रता की कहानियाँ कहता रहा है, कहता रहेगा। आओ, हाथ में लेकर हाथ कदम बढ़ाएँ एक साथ न झुकाया है, न झुकाएँ हमेशा ऊँचा रखें अपना माथ। नेता आयेंगे-जायेंगे संविधान बनेंगे-बदलेंगे लेकिन हम-तुम कोटि-कोटि जनगण न बिछुड़ेंगे, न लड़ेंगे दूध और पानी की तरह शिव और भवानी की तरह जन्म-जन्म साथ थे, हैं और रहेंगे ओ मेरी नेपाली सखी! ***

रविवार, 4 अक्टूबर 2015

doha

आज का दोहा:
*
दुखी हुआ ताजिंदगी, सुनी न कांता-राय
सुखी हुआ जब स्नेह का, खोल लिया अध्याय
*

doha-muktak

आज का दोहा-मुक्तक :

पूजा कृष्णा को तनिक, कृष्ण हो गये रुष्ट

कोई कहे कैसे करें, हम सब को संतुष्ट?

माखन-मिसरी भूलकर, पिज्जा-बर्गर ठूँस

चाहें जसुदा कन्हैया, हों पहले से पुष्ट। 

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

नवगीत: संजीव

navgeet:  sanjiv

नवगीत:
विश्वासों का
सूर्य न दिखता
.
बहुमत छल-दल बादल का
घाय है स्वर मादल का
जनमत हुआ अवैधानिक
सही फैसला शासक का
जनगण-मन में
क्रोध सुलगता
.
आन्दोलन का दावानल
जन-धरने का बड़वानल
जन-नायक लाचार हुआ
चेले कुर्सी हित पागल
घातक लावा
उबल-उफनता
.
चाहें खेत, नहीं दाना
उद्योगों हित दीवाना
है दलाल हर जन-नेता
सेठों से धन है पाना
जमा विदेशों में
है रखता
२९.१.२०१५
.

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

आइये कविता करें १०

आइये कविता करें:  १०
आभा जी का यह नवगीत पढ़िए. यह एक सामान्य घटना क्रम है जिसमें रोचकता की कमी है. यह वर्णनात्मक हो गया है. दोहे या नव्गीय के कथ्य में कुछ चमत्कार या असाधारणता होना चाहिए, साथ ही कहन में भी कुछ खास बात हो.
कुछ तो मुझसे बातें करते.....
सुबह को जाकर 
सांझ ढले
घर को आते हो
ना जाने 
कितने हालातों से
टकराते हो
प्रियतम मेरे
सारे दिन मैं
करूं प्रतीक्षा
थकी थकी सी
मुद्रा में तुम जब
आते हो
कितनी बातें
करनी होतीं
साथ चाय भी
पीनी होती
कैसे मैं मन टटोलूं
कैसे अपना मुंह खोलूं
जब निढाल हो
बिस्तर में
तुम गिर जाते हो
चाहूं मन ही मन तुम मुझसे
हाले दिल थोड़ा
सा कहते
कुछ तो मुझसे बातें करते...
.......

हम इसमें कम से कम बदलाव कर इसे नव गीत का रूप देने का प्रयास करते हैं:
कुछ तो 
मुझसे बातें कर लो  
(यह मुखड़ा हुआ. मुखड़ा हर अंतरे के बाद दोहराया जाता है ताकि पूरे नवगीत या दोहे को एक सूत्र में बाँध सके)  
अलस्सुबह जा     ८  
सांझ ढले            ६ 
घर को आते हो    १०  
(अंतरे के प्रथम चरण में ८+६+१० = २४ मात्राएँ हुईं, सामान्यतः दूसरे चरण में भी २४ मात्राएँ चाहिए, पंक्ति संख्या या पंक्ति का पदभार भिन्न भी हो सकता है.)     
क्या जाने 
किन हालातों से
टकराते हो?
प्रियतम मेरे!
सारे दिन मैं
करूँ प्रतीक्षा- 

(यह ३रा चरण हुआ, इसमें भी २४ मात्राएँ हैं. यदि और अधिक चरण जोड़ने हैं तो इसी तरह जोड़े जा सकते हैं पर जितने चारण यहाँ होंगे उतने ही चरण बाकी के अंतरों में भी रखना होंगे. अब मुखड़े के समान पदभार की पंक्ति चाहिए ताकि उसके बाद मुखड़ा उसी प्रवाह में पढ़ा जा सके.) 
मुझ को 
निज बाँहों में भर लो    

थका-चुका सा
तुम्हें देख  

कैसे मुँह खोलूँ?
बैठ तुम्हारे निकट
पीर क्या?
हिचक टटोलूँ
श्लथ बाँहों में
गिर सोते 

शिशु से भाते हो  
मन इनकी 
सब पीड़ा हर लो  

नवगीत का अंत सामान्य से कुछ भिन्न हुआ क्या? अब आभा जी विचार करें और चाहें तो कथ्य में और भी प्रयोग कर सकती हैं.  


बुधवार, 28 जनवरी 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.


नज़र फेरकर जा रहे
हो कहाँ तुम?
.
यकायक ह्रदय की हुई मौन सरगम
गिरा दिल कहीं कह रही हो गिरा नम
सुनाई न देती पायल की छमछम
मुझे पर सुनो तुम धड़कन है गुमसुम
पाओगे जाओगे जब
भी जहाँ तुम
.
लटें श्याम कहतीं कहानी कहे बिन
रहना है संग में मुझे संग रहे बिन
उठतीं न पलकें, धडकनें रहीं गिन
युगों से हुए हैं हमें क्यों ये पल-छिन?
दिखते नहीं हो, मगर
हो  यहाँ तुम
... 

navgeet: sanjiv

नवगीत:
नाम बड़े हैं
संजीव
.
नाम बड़े हैं
दर्शन छोटे
.
दिल्ली आया उड़न खटोला
देख पड़ोसी का दिल डोला
पडी डांट मत गड़बड़ करना
वरना दंड पड़ेगा भरना
हो शरीफ तो
हो शरीफ भी
मत हो
बेपेंदी के लोटे
 .
क्या देंगे?, क्या ले जायेंगे?
अपनी नैया खे जायेंगे
फूँक-फूँककर कदम उठाना
नहीं देश का मान घटाना
नाता रखना बराबरी का
सम्हल न कोई
बहला-पोटे
.
देख रही है सारी दुनिया
अद्भुत है भारत का गुनिया
बदल रहा बिगड़ी हालत को
दूर कर रहा हर शामत को
कमल खिलाये दसों दिशा में
चल न पा रहे
सिक्के खोटे
..
२५.१.२०१५     

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
भाग्य कुंडली
संजीव
.
भाग्य कुंडली
बाँच रहे हो
कर्म-कुंडली को ठुकराकर
.
पंडित जी शनि साढ़े साती
और अढ़ैया ही मत देखो
श्रम भाग्येश कहाँ बैठा है?
कोशिश-दृष्टि कहाँ है लेखो?
संयम का गुरु
बता रहा है
.
डरो न मंगल से अकुलाकर
बुध से बुद्धि मिली है हर को
सूर्य-चन्द्र सम चमको नभ में
शुक्र चमकता कभी न डूबे
ध्रुवतारा हों हम उत्तर के
राहू-केतु को
धता बतायें
चुप बैठे हैं क्यों संकुचाकर?

navgeet: sanjiv

नवगीत:
भाग्य बांचते हैं
संजीव
.
भाग्य बाँचते हो औरों का
खुद की किस्मत
बाँच न पाते
.
तोता लेकर सड़क किनारे
बैठा स्याना कागा पंडित
मूल्य नये गढ़ नहीं सके पर
मूल्य पुराने करते खंडित
सुख-समृद्धि कब किसे मिलेगी
बतला दें, हों आप अचंभित
बिन ध्वज-दंड पताका कल की
नील गगन पर
छिप फहराते
.
संसद में सेवा हित बैठे
दूर-दूर से जाकर सांसद
सेवापथ को भुला राजपथ
का चढ़ गया सभी पर क्यों मद?
सूना जनपथ राह हेरता
बिछड़े पग फिर आयें शायद
नेताजी, जेपी, अन्ना संग  
कल के सपने
आज सजाते
.


रविवार, 25 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

नवगीत;
तुम कहीं भी हो
संजीव

.
तुम कहीं भी हो
तुम्हारे नाम का सजदा करूँगा
.
मिले मंदिर में लगाते भोग मुझको जब कभी तुम
पा प्रसादी यूँ लगा बतियाओगे मुझसे अभी तुम
पर पुजारी ने दिया तुमको सुला पट बंद करके
सोचते तुम रह गये
अब भक्त की विपदा हरूँगा
.
गया गुरुद्वारा मिला आदेश सर को ढांक ले रे!
सर झुका कर मूँद आँखें आत्म अपना आँक ले रे!
सबद ग्रंथी ने सुनाया पूर्णता को खंड करके
मिला हलुआ सोचता मैं
रह गया अमृत चखूँगा
.
सुन अजानें मस्जिदों के माइकों में जा तलाशा
छवि कहीं पाई न तेरी भरी दिल में तब हताशा
सुना फतवा 'कुफ्र है, यूँ खोजना काफिर न आ तू'
जा रहा हूँ सोचते यह
राह अपनी क्यों तजूँगा?
.
बजा घंटा बुलाया गिरजा ने  पहुंचा मैं लपक कर
माँग माफ़ी लूँ कहाँ गलती करी? सोचा अटककर
शमा बुझती देख तम को साथ ले आया निकलकर  
चाँदनी को साथ ले,
बन चाँद, जग रौशन करूँगा
.
कोई उपवासी, प्रवासी कोई जप-तप कर रहा था
मारता था कोई खुद को बिना मारे मर रहा था
उठा गिरते को सम्हाला, पोंछ आँसू बढ़ चला जब
तब लगा है सार जग में
गीत गाकर मैं तरूँगा
*    

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
भारत आ रै
संजीव

.
भारत आ रै ओबामा प्यारे,
माथे तिलक लगा रे!
संग मिशेल साँवरी आ रईं,
उन खों  हार पिन्हा रे!!
.
अपने मोदी जी नर इन्दर
बाँकी झलक दिखा रए
नाम देस को ऊँचो करने
कैसे हमें सिखा रए
'झंडा ऊँचा रहे हमारा'
संगे गान सुना रे!
.
देश साफ़ हो, हरा-भरा हो
पनपे भाई-चारा
'वन्दे मातरम' बोलो सब मिल
लिये तिरंगा प्यारा
प्रगति करी जो मूंड उठा खें
दुनिया को दिखला रए
.

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

अभिनव प्रयोग
नवगीत:
संजीव
.
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २

चोला बदल के किरन बेदी आई
सुषमा के संगे करें पहुनाई
ओबामा आये देश में
करो पहुनाई २

दिल्ली में होता घमासान भाई
केजरी परेशां न होवे रुसवाई
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २

कृष्णा ने जबसे है पीठ फिराई
पंजे को आती है जमके रुलाई  
ओबामा आये देश में करो पहुनाई २

वाह रे नरिंदर! अमित लीला गाई
लालू-नितिन को पटकनी लगाई
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २

मुल्ला मुलायम को माया न भाई  
ममता ने दिल्ली की किल्ली भुलाई
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २

मिशल खेलें होली अबीर लिए धाई
चली पिचकारी तो भीगी लजाई
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २

तिरंगा ने सुन्दर छटा जब दिखाई
जनगण ने जोरों से ताली बजाई
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २

(सोहर लोकगीत की धुन पर)

muktika: -sanjiv

मुक्तिका:
रात
संजीव
.
चुपके-चुपके आयी रात
शाम-सुबह को भायी रात

झरना नदिया लहरें धार
घाट किनारे काई रात

शरतचंद्र की पूनम है
'मावस की परछाईं रात

आसमान की कंठ लंगोट
चाहे कह लो टाई रात
पर्वत जंगल धरती तंग
कोहरा-पाला लाई रात

वर चंदा तारे बरात
हँस करती कुडमाई रात

दिन है हल्ला-गुल्ला-शोर
गुमसुम चुप तनहाई रात
… 

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
उपयंत्री की यंत्रणा
संजीव
.
'अगले जनम
उपयंत्री न कीजो'

करे प्रार्थना उपअभियंता
पिघले-प्रगटे भाग्यनियंता
'वत्स! बताओ, मुश्किल क्या है?
क्यों है इस माथे पर चिंता?'
'देव! प्रमोशन एक दिला दो
फिर चाहे जो काम करा लो'
'वत्स न यह संभव हो सकता
कलियुग में सच कभी न फलता'
तेरा हर अफसर स्नातक
तुझ पर डिप्लोमा का पातक
वह डिग्री के साथ रहेगा
तुझ पर हरदम वार करेगा
तुझे भेज साईट पर सोये
तू उन्नति के अवसर खोये
तू है नींव कलश है अफसर
इसीलिये वह पाता अवसर
जे ई से ई इन सी होता
तू अपनी किस्मत को रोता
तू नियुक्त होता उपयंत्री
और रिटायर हो उपयंत्री
तेरी मेहनत उसका परचम
उसको खुशियाँ, तुझको मातम
सर्वे कर प्राक्कलन बनाता
वह स्वीकृत कर नाम कमाता
तू साईट पर बहा पसीना
वह कहलाता रहा नगीना
काम करा तू देयक लाता
वह पारित कर दाम कमाता
ठेकेदार सगे हैं उसके
पत्रकार फल पाते मिलके
मंत्री-सचिव उसी के संग हैं
पग-पग पर तू होता तंग है
पार न तू इनसे पायेगा
रोग पाल, घुट मर जाएगा
अफसर से मत, कभी होड़ ले
भूल पदोन्नति, हाथ जोड़ ले
तेरा होना नहीं प्रमोशन
तेरा होगा नहीं डिमोशन
तू मृत्युंजय, नहीं झोल दे
उठकर इनकी पोल खोल दे
खुश रह जैसा और जहाँ है
तुझसे बेहतर कौन-कहाँ है?
पाप कट रहे तेरे सारे
अफसर को ठेंगा दिखला रे!
बच्चे पढ़ें-बढ़ेंगे तेरे
तब संवरेंगे सांझ-सवेरे
अफसर सचिवालय जाएगा
बाबू बनकर पछतायेगा
कर्म योग तेरी किस्मत में
भोग-रोग उनकी किस्मत में
कह न किसी से कभी पसीजो
श्रम-सीकर में खुश रह भीजो


muktika: -sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा, उस सा नहीं हूँ

मुझे भी मालुम नहीं है, क्या बता सकता है कोई
पूछता हूँ आजिजी से, कहें मैं किस सा नहीं हूँ

साफगोई ने अदावत का दिया है दंड हरदम
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ

हाथ थामो या न थामो, फैसला-मर्जी तुम्हारी
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ

अधर पर तिल समझ मुझको, दूर अपने से न करना  
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ

निकट हो या दूर हो तुम, नूर हो तुम हूर हो तुम
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा गुस्सा नहीं हूँ

खामियाँ कम, खूबियाँ ज्यादा, तुम्हें तब तक दिखेंगी
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
.

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
संजीव
.

चित्र: श्रीकांत
.
उग रहे या ढल रहे तुम
कान्त प्रतिपल रहे सूरज
.
हम मनुज हैं अंश तेरे
तिमिर रहता सदा घेरे
आस दीपक जला कर हम
पूजते हैं उठ सवेरे
पालते या पल रहे तुम
भ्रांत होते नहीं सूरज
.
अनवरत विस्फोट होता
गगन-सागर चरण धोता
कैंसर झेलो ग्रहण का
कीमियो नव आस बोता
रश्मियों की कलम ले
नवगीत रचते मिले सूरज
.
कै मरे कब गिने तुमने?
बिम्ब के प्रतिबिम्ब गढ़ने
कैमरे में कैद होते
हास का मधुमास वरने
हौसले तुमने दिये शत
ऊगने  फिर ढले सूरज
.