जिस काव्य में वर्ण और मात्रा की गणना के अनुसार विराम, तुक आदि के नियम हों, वह छंद है। काव्य के लिए छंद उतना ही अनिवार्य है जितना भवन के निर्माण के लिए गारा पानी। चोली दामन का संबंध है दोनों में। यह अलग बात है कि आजकल अनेक कवियों की ऐसी जमात है जो इसकी अनिवार्यता को गौण समझती है। भले ही कोई छंद को महत्व न दे किन्तु इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि इसके प्रयोग से शब्दों में, पंक्तियों में संगीत का अलौकिक रसयुक्त निर्झर बहने लगता है। सुर-लय छंद ही उत्पन्न करता है, गद्य नहीं। गद्य में पद्य हो तो उसके सौंदर्य में चार चाँद लग जाते हैं किंतु पद्य में गद्य हो तो उसका सौंदर्य कितना फीका लगता है, इस बात को काव्य-प्रेमी भली-भांति जानता है।
छंद के महत्व के बारे में कविवर रामधारीसिंह 'दिनकर' के विचार पठनीय हैं "छंद-स्पंदन समग्र सृष्टि में व्याप्त है। कला ही नहीं जीवन की प्रत्येक शिरा में यह स्पंदन एक नियम से चल रहा है। सूर्य, चंद्र गृहमंडल और विश्व की प्रगति मात्र में एक लय है जो समय की ताल पर यति लेती हुई अपना काम कर रही है। ऐसा लगता है कि सृष्टि के उस छंद-स्पंदनयुक्त आवेग की पहली मानवीय अभिव्यक्ति कविता और संगीत थे।" (हिंदी कविता और छंद)
छंद-स्पंदन समग्र सृष्टि में व्याप्त है। कला ही नहीं जीवन की प्रत्येक शिरा में यह स्पंदन एक नियम से चल रहा है। सूर्य, चंद्र गृहमंडल और विश्व की प्रगति मात्र में एक लय है जो समय की ताल पर यति लेती हुई अपना काम कर रही है। ऐसा लगता है कि सृष्टि के उस छंद-स्पंदनयुक्त आवेग की पहली मानवीय अभिव्यक्ति कविता और संगीत थे। - रामधारी सिंह ’दिनकर’
प्रथम छंदकार पिंगल ऋषि थे। उन्होंने छंद की कल्पना (रचना) कब की थी, इतिहास इस बारे में मौन है। किन्तु छंद उनके नाम से ऐसा जुड़ा कि वह उनके नाम का पर्याय बन गया। खलील-बिन-अहमद जो आठवीं सदी में ओमान में जन्मे थे; के अरूज़ छंद की खोज के बारे में कई जन श्रुतियां है। उनमें से एक है कि उन्होंने मक्का में खुदा से दुआ की कि उनको अद्भुत विद्या प्राप्त हो। क्योंकि उन्होंने दुआ सच्चे दिल से की थी, इसलिए वह कबूल की गई। एक दिन उन्होंने धोबी की दुकान से 'छुआ-छु, छुआ-छु’ की मधुर ध्वनि सुनी। उस मधुर ध्वनि से उन्होंने अरूज़ की विधि को ढूँढ निकाला। अरबी-फ़ारसी में इन्कलाब आ गया। वह पंद्रह बहरें खोजने में कामयाब हुए। उनके नाम हैं- हजज, रजज, रमल, कामिल, मुनसिरह, मुतकारिब, सरीअ, मुजारह, मुक़्तजब, मुदीद, रूफ़ीफ़, मुज़तस, बसीत, बाफ़िर और तबील। चार बहरें- मुतदारिक, करीब, मुशाकिल और ज़दीद कई सालों के बाद अबुल हसीन ने खोजी। हिंदी में असंख्य छंद है। प्रसिद्ध हैं - दोहा, चौपाई, सोरठा, ऊलाल, कुंडिलया, बरवै, कवित्त, रोला, सवैया, मालती, मालिनी, गीतिका, छप्पय, सारंग, राधिका, आर्या, भुजंगप्रयात, मत्तगयंद आदि।
राग-रागनियाँ भी छंद हैं। यहाँ यह बतलाना आवश्यक हो जाता है कि उर्दू अरू़ज में वर्णिक छंद ही होते हैं जबकि हिंदी में वर्णिक छंद के अतिरक्त मात्रिक छंद भी। वर्णिक छंद गणों द्वारा निर्धारित किए जाते हैं और मात्रिक छंद मात्राओं द्वारा।
गणों को उर्दू में अरकान कहते हैं। गण या अरकान लघु और गुरु वर्णों के मेल से बनते हैं। लघु वर्ण का चिह्न है - । (एक मात्रा) और गुरु वर्ण का- २ (दो मात्राएं) जैसे क्रमशः 'कि' और 'की'। गण आठ हैं- मगण (२२२), भगण (२।।), जगण (।२।) सगण(।।२) नगण (।।।) यगण (।२२) रगण (२।२) और तगण (२२।)।
उर्दू में दस अरकान हैं- फऊलन (।२।।), फाइलुन (२।-।।), मु़फाइलुन (12211), फाइलातुन (21211), मुसतफइलुन (1111111), मुतफाइलुन (112111), मफ़ाइलुन (।२।-।।।), फ़ाअलातुन ( २-।।), मफ़ऊलान (11221) और मसतफअलुन (।।।।-।-।।)।
शंकर, निराला, त्रिपाठी, बिस्मिल तथा अन्य कवि शायर छंदों की लय-ताल में जीते थे एवं उनको नित नई गति देते थे, किन्तु अब समस्या यह है कि अपने आप को उत्तम गज़लकार कहने वाले वतर्मान पीढ़ी के कई कवि छंद विधान को समझने में दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं, उससे कतराते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भवन की भव्यता उसके अद्वितीय शिल्प से आँकी जाती है।
"प्रथम दो अरकान - फऊलन क्रमश "सवेरा" या "संवरना" तथा "जागना" या "जागरण" पाँच मात्राओं के शब्दों के वज़नों में आते हैं और शेष आठ अरकान सात मात्राओं के शब्दों के वज़नों में; जैसे-सवेरा है, जागना है। ये गण और अरकान शेर में वज़न कैसे निर्धारित करते हैं इसको समझना आवश्यक है। हिन्दी में एकछंद ’भुजंग प्रयात’ की पंक्ति यूँ होगी- वर्णिक छंद है- भुजंग प्रयात। इसमें चार यगण आते हैं। हर यगण में पहले लघु और फिर दो गुरु होते हैं यानी- (१२२)। लघु की एक मात्रा होती है और गुरु की दो मात्राएँ होती हैं। चार यगणों के
सवेरे सवेरे कहाँ जा रहे हो
इन मात्राओं का जोड़ है =२०
लेकिन वर्णों का जोड़ है =१२
उर्दू में इस छंद को मुतकारिब कहते हैं लेकिन मुतकारिब और भुजंग प्रयात में थोड़ा अन्तर है। भुजंग प्रयात की प्रत्येक पंक्ति में वर्णों की संख्या १२ है और मात्राओं की २० लेकिन उर्दू मुतकारिब में वर्णों की संख्या १८ या २० भी हो सकती है। मसलन-
इधर से उधर तक ,उधर से इधर तक -१८
या
इधर चल उधर चल ,उधर इधर चल - २०
यूँ तो उर्दू के छंद वर्णिक कहलाते हैं लेकिन ठहरते हैं मात्रिक ही। क्योंकि एक गुरु के स्थान पर दो लघु भी आ सकते हैं उसमें।
क्योंकि उर्दू गज़ल फ़ारसी से और हिन्दी गज़ल उर्दू से आई है, इसलिये फ़ारसी और उर्दू अरूज़ का प्रभाव हिन्दी गज़ल पर पड़ना स्वाभाविक था। इसके प्रभाव से भारतेंदु हरिश्चंद्र, नथुराम शर्मा शंकर, राम नरेश त्रिपाठी, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला आदि कवि भी अछूते नहीं रह सके। रामनरेश त्रिपाठी ने तो हिंदी-उर्दू छंदों व उससे संबद्ध विषयों पर 'काव्यकौमुदी' पुस्तक लिखकर अभूतपूर्व कार्य किया। कविवर शंकर और निराला के छंद के क्षेत्र में किए गए कार्यों के बारे में दिनकर जी लिखते हैं- 'हिन्दी कविता में छंदों के संबंध में शंकर की श्रुति-चेतना बड़ी ही सजीव थी। उन्होंने कितने ही हिंदी-उर्दू के छंदों के मिश्रण से नए छंद निकाले। अपनी लय-चेतना के बल पर बढ़ते हुए निराला ने तमाम हिंदी उर्दू-छंदों को ढूँढ डाला है और कितने ही ऐसे छंद रचे जो नवयुग की भावाभिव्यंजना के लिए बहुत समर्थ है। (हिन्दी कविता और छंद)
उस काल में एक ऐसे महान व्यक्ति का अवतरण हुआ जो अपने क्रांतिकारी व्यक्तित्व और प्रेरक कृतित्व से अन्यों के लिए अनुकरणीय बना। हिंदी और उर्दू के असंख्य कालजयी अशआर के रचयिता व छंद अरूज़ के ज्ञाता पं रामप्रसाद बिस्मिल के नाम को कौन विस्मरण कर सकता है? मन की गहराइयों तक उतरते हुए उनके अशआर की बानगी तथा बहरों की बानगी देखिए-
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है।
जैसे कि गालिब के बारे में कहा जाता है कि 'गालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और' ठीक वैसे ही 'बिस्मिल' के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि 'बिस्मिल' का भी अंदाजे-बयाँ शायरी के मामले में बेजोड़ है, उनका कोई सानी नहीं मिलता है। उनकी रचनाओं का प्रभाव अवश्य ही मिलता है; उन तमाम समकालीन शायरों पर जो उस ज़माने में इश्क-विश्क की कविताएं लिखना छोड़कर राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत रचनाएं लिखने लगे थे। कितनी विचित्र बात है कि बिस्मिल के कुछ एक शेर तो ज्यों के त्यों अन्य शायरों ने भी अपना लिए और वे उनके नाम से मशहूर हो गए। - मदनलाल वर्मा 'क्रांत'
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा
वतन की गम शुमारी का कोई सामान पैदा कर
जिगर में जोश, दिल में दर्द, तन में जान पैदा कर
नए पौधे उगें, शाखें फलें-फूलें सभी बिस्मिल
घटा से प्रेम का अमृत अगर बरसे तो यूँ बरसे
मुझे हो प्रेम हिंदी से, पढूँ हिंदी, लिखूँ हिंदी
चलन हिंदी चलूँ, हिंदी पहनना ओढ़ना खाना
मदनलाल वर्मा 'क्रांत' ने 'सरफ़रोशी की तमन्ना' पुस्तक मे ठीक ही लिखा है, "जैसे कि गालिब के बारे में कहा जाता है कि 'गालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और' ठीक वैसे ही 'बिस्मिल' के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि 'बिस्मिल' का भी अंदाजे-बयाँ शायरी के मामले में बेजोड़ है, उनका कोई सानी नहीं मिलता है। उनकी रचनाओं का प्रभाव अवश्य ही मिलता है; उन तमाम समकालीन शायरों पर जो उस ज़माने में इश्क-विश्क की कविताएं लिखना छोड़कर राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत रचनाएं लिखने लगे थे। कितनी विचित्र बात है कि बिस्मिल के कुछ एक शेर तो ज्यों के त्यों अन्य शायरों ने भी अपना लिए और वे उनके नाम से मशहूर हो गए।"
शंकर, निराला, त्रिपाठी, बिस्मिल तथा अन्य कवि शायर छंदों की लय-ताल में जीते थे एवं उनको नित नई गति देते थे, किन्तु अब समस्या यह है कि अपने आप को उत्तम गज़लकार कहने वाले वतर्मान पीढ़ी के कई कवि छंद विधान को समझने में दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं, उससे कतराते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भवन की भव्यता उसके अद्वितीय शिल्प से आँकी जाती है। कुछ साल पहले मुझको दिल्ली में एक कवि मिले जो गज़ल लिखने का नया-नया शौक पाल रहे थे। उनके एक-आध शेर में मैंने छंद-दोष पाया और उनको छंद अभ्यास करने की सलाह दी। वह बोले कि वह जनता के लिए लिखते हैं, जनता की परवाह करते हैं; छंद-वंद की नहीं। मैं मन ही मन हँसा कि यदि वह छंद-वंद की परवाह नहीं करते हैं तो क्या गज़ल लिखना ज़रूरी है उनका? गज़ल का मतलब है छंद की बंदिश को मानना, उसमें निपुण होना। गज़ल की इस बंदिश से नावाकिफ़ को उर्दू में खदेड़ दिया जाता है। मुझको एक वाक्या याद आता हैं। एक मुशायरे में एक शायर के कुछ एक अशआर पर जोश मलीहाबादी ने ऊँचे स्वर में बार-बार दाद दी। कुँवर महेन्द्र सिंह बेदी (जो उनके पास ही बैठे थे) ने उनको अपनी कुहनी मार कर कहा- 'जोश साहिब क्या कर रहे हैं आप? बेवज़्न अशआर पर दाद दे रहे हैं आप? कयामत मत ढाइए।' जोश साहिब जवाब में बोले- 'भाई मेरे दाद का ढंग तो देखिए।'
आधुनिक काव्य के लिए छंद भले ही अनिवार्य न समझा जाए किन्तु गज़ल के लिए है। इसके बिना तो गज़ल की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। लेकिन हिंदी के कुछ ऐसे गज़लकार हैं जो छंदों से अनभिज्ञ हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो उनसे भिज्ञ होते हुए भी अनभिज्ञ लगते हैं।