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रविवार, 7 जुलाई 2019

doha shatak: chhagan lal garg

छगनलाल गर्ग "विज्ञ"

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जन्म: १३ अप्रैल १९५४, गांव जीरावल, तहसील रेवदर, जिला सिरोही  (राजस्थान)।                    
आत्मज: -श्री विष्णुराम जी गर्ग
जीवन संगिनी:
शिक्षा: स्नातकोतर (हिंदी साहित्य)।                                                                              
संप्रति: सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य।                                                                              
प्रकाशित: काव्य संग्रह क्षण बोध, मदांध मन, रंजन रस, अंतिम पृष्ठ। तथाता छंद काव्य संग्रह, विज्ञ विनोद कुंडलियाँ संग्रह।                                                                                  
उपलब्धि: हिंदी साहित्य गौरव, तुलसी सम्मान, काव्य श्री, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान,राष्ट्र भाषा गौरव सम्मान, साहित्य सागर सम्मान आदि।
संपर्क: २  डी ७८ राजस्थान  आवासन मंडल,  आकरा भट्टा, आबूरोड, - सिरोही ३०७०२६।
चलभाष: ९४६१४४९६२०। ईमेल: chhaganlaljeerawal@gmail.com 
*
ॐ 
दोहा शतक                                    
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जीवन ऊर्जा शिखर है, परम तपस्या राम।                                                                      
जाना जिसने प्रेम को, जान लिया यह धाम।।
*
गुरु -चरणों में लीन हूँ, तारे चित अनुराग।
बोया अंकुर नेह का, बढ़ तरु बने विराग।।
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गुरू-छाया उद्धार है, हो हर बाधा पार।
माया धारा बह रही, खींचे करो विचार ।।
*
प्रेम समर्पण दान है, प्रेमी समझो शास्त्र।
तीर्थ तुल्य पावन यही, सीमारहित सुपात्र।। 
*
प्रेम वस्तु माया रहे, गहरा धोखा जान।
निन्न्यांबे का फेर ही, जड़ता की पहचान।।
कार शौक धन भवन ही, चाहत की दीवार।
भ्रांति हुई वैभव जिया, आत्मा छूटी पार।। 
*
आत्मा प्रेमी हैं सभी, भिक्षा भेद अजान।
भीगा नेही भीतरी, मोती डूब सुजान।। 
*
देविक गंधी फैलती, भूला प्रेमी आप।
डाले बाँहें संगिनी, भोगा है निष्पाप।। 
*
नार वचन संजीवनी, प्रेमी लेते तोल।
माँ नेही सी संगिनी, होती है अनमोल।। 
*
यौवना काया निखारे, रस डूबे संसार।
चाहे प्राणी प्रेम हो, भूले कंटक-खार।।  
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भीग भाव तारल्य में, डूबे मन संसार।
दो प्राणों में जोश का, प्रेम घुला अंबार।। 
*
डूबे प्रेम विराट में, हो भव-बाधा पार।
देखो धारा बह रही, जानो पावन सार।।   
*
प्रेम ज्ञान भंडार है, काया वाणी जान।
दिव्या देही प्रकट हैं, जोड़ो चेतन भान।।  
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नैना लज्जा घेरती, देखूँ डूबी राग।
लूटा मोती भीतरी, देही माँगे भाग।। 
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ताजी गंधी फैलती, भूला प्रेमी आप।
डाले बाँहें संगिनी, झूले मद निष्पाप।। 
*
संतोषी को सुख सदा, भूखा रहे अमीर।
ज्ञानी भूला नीति को, लूटे माया धीर।। 
*
माया तजो विवेक से, हो लो बाधा पार।
देखो धारा बह रही, जानो पावन सार।। 
*
भाषा का विस्तार हो, केवल नहीं विचार।
काया सी सम्भाल हो, जो चित भरा विकार।। 
*
संसारी लेखा रखे, लिया उधार नवाब।
झूठा भी साँचा भरे, माँगे खरा जवाब।। 
*
छाया माया दास की, मौज-शौक से दूर।
काया अहं अकड़ रही, आन-बान  मद चूर।। 
*
सीधा-सादा काम का, सब माने सच बात।
पर उपकार लगा रहे, सहता है आघात।।   
*
छोड़ो नाम प्रपंच का, नहीं मिले गुण मैल।
दौड़ो वैभव आस में, धन लो साख उड़ेल।। 
*
जब माया मोहित करे, सुन रस में संगीत।
पल आए घर भी जले, नेह न तजना जीत।। 
*
सुन काया रसहीन है, मद-बल सोया नींद।
तन बोझा मँझधार फँस, छोड़ सभी उम्मीद।। 
*
रस प्याला मत तोल तू, जड़ खोदे सच ताज।
पल थोड़ा मति भान रख,जलता तेरा आज।।
*
मत मारो मन मोह में, मित मोड़े मित मान।
चित चाहे सच सार रस, चलना सोहे शान।।
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मद मारी मंजुल मना, मनहर माँगे मीत।
तन कोमल वैराग भर, गूँजे रस संगीत।। 
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विपदा पाई सघन से, वितरण बाँधा नाथ।
नित रोए धनहीन जन, करो मदद दो हाथ।। 
*
मधु थाती तन जोश में, मन दायक मृदु आस।
पल खाता बल नाश सब, अपना टूटा पास।। 
*
सुमुखी सुनैना सुंदरी, मृदु चितवन नादान।
अंतर रस मन में घुला, सजी ललित मुख शान।। 
*
छल मति सी माया घनी, वैभव रस मन देह।
साँझ किरण मद शिथिलता, लगा विराम विदेह।।    
*
सुरसिक भौरा पारखी, मृदु चित फूल पराग।
छोड़ विकल तन विरहिणी, जुड़ा सुधा अनुराग।। 
*
विवश विकल धरती लखे, बरसे लहर अपार।।
मोह मिला मन मोद में, मति माया मन जाल।। 
*
भजन भाव भावुक भगत, भव लख भ्रमित निदान।
नाथ संत सत साधना, सुख छाया अति जान।। 
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नशा नजर रस नयन में, लाज लाल मुख रेख।
झुक सजनी भयभीत मन, झिझक विहग सी लेख।। 
*
करुण चित्त जल तरल सा, काज साथ दुख जान।
दुख मिटता उपकार कर, धर्म कर्म में मान।।   
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भरो सुरस तन भ्रम मिटे, नेह  विरल अविराम।
तज करनी अनुराग भव, भजन पकड़ श्री राम।। 
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भूली सब कुछ विलय हो, नेह सरस मति श्याम।
धन धरती सब छोड़कर, लहर लगन भौ धाम।। 
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चित लय सुजन विराट में, छल पल सृजित विकार।
साँच छोड़ मानव कलुष, निरखे किरण प्रकार।। 
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हो विचार सत समर्पित, तन-मन विनत विशाल।
बाँध जीव पावन जगह, दुःख घन विलय उछाल।। 
*
दुःख में मृदुल विलीन मन, सुपवन बहुत विषाद।                                                              
नेह मधुर मानस मुखर, विचरण विगत विवाद।।   
*
चित रट भज हरि नाम रे, अनुपम जग पहचान।
देह रसिक कारण समझ, हर पल जड़वत जान।। 
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सुमधुर मन मिलने तरस, पवन हुआ चितचोर।
तरस सुखद विपदा समय, नजर दुखद लखि भोर।। 
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चले किरण अति प्रखर गति, चमक भरे चहुँ ओर।
किसलय पवन मधुर हिले, सरस रजत अति जोर।। 
*
विगत विचर मन विवशता, रिमझिम नयनों नीर।
सुधिजन सहित सरल मना, निरखे झिलमिल पीर।। 
*
कलरव चहक-चहक कहे, नवरस महके पास।
सुमन सुरस मधुरिम बहे, भ्रमित भ्रमर मधुमास।। 
*
समय अजय गतिमय अभय, घट नित मन भर आस।                                                      
धर्म-कर्म सुधिजन करें, नित रस का अहसास।।      
*
तारें सभी कर हरि भजन , सुमति सतत धन खान ।
तज पर जन छल मति सदा , भज मन हरि गुण गान।। 
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अविरल अचल अलख विरल, सघन तरल सम विषम।
परम प्रबल प्रिय हरि जपो, कलियुग किसलय कुसुम।।       
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मनहर किसलय भ्रमर मति, लखि नवरस मन चुभन।
सघन विरह तब सरस मुख, तन-मन-धन अवगहन।।   
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सरस निरख शशि मगन मन, देखो नभचर मिलन।
फिर तुम रुचि तन-मन धरो, चटक चाँदनी गमन।।   
*
जीवन होगा दर्द में, जब तक संकट काल।
संगत सच्ची सार है, विपदा गहरी टाल।। 
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बढ़ी होड़ यश-नाम की, मोल मिल रहा ताज।
झूठा भी सच्चा लगे, बहुमत बिकता आज।।  
*
लोग हुए बेजोड़ थे, मीरां सह रैदास।
चिंतन में थी दिव्यता, मन में था विश्वास।।  
*
तेरा-मेरा बीतता, शिथिल तरंग-विचार।
राम नाम मन में भरा, अटका भीतर पार।। 
*
कैसा मानव लोभ है, भरा सदा अंबार।
रात दिवा पहरा लगा, भूला रस संसार।।   
*
भाषा का विस्तार हो, केवल नहीं विचार।
काया सदृश सम्हालिए, जो चित भरा विकार।।   
*
संसारी लेखा रखे, कालिख भरा हिसाब।
झूठा भी साँचा करे, नागर खरा जवाब।। 
*
छाया माया दास की, मौज -शौक से दूर ।
काया अहं-अकड़ रही, आन-बान, मद-चूर।।  
*
मेरा भावी आसरा, आप राम करतार।
माया मोह अहं बढ़ा, चेतनता जगतार।। 
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विवेक विनाश वो मिला, घूला मूल विधान।
विदेही का भाव छुआ,  भूला धूप निशान।। 
*
दयासिंधु खुद ही खड़े, जाओ तो दरबार।
पाओ घने असीम फल, साधौ हैं अवतार।। 
*
यात्री कंटक राह में, देख सके तो देख।
अंधेरा साथी बना, भीतर अनयन लेख।। 
*
सीधा-सादा काम का, सब माने सच बात।
पर उपकार-लगा रहे, सहता चुप आघात।। 
*
कैसा होगा और दो, जिज्ञासा रस विशाल।
पाया अनपाया रहा, चखकर हुआ निढाल।। 
*
छोडो नाम-प्रपंच रे! ,नहीं मिले गुण मैल ।
दौड़ो वैभव आस में, लो धन साख उड़ेल।। 
*
आया वही चला गया, तृष्णा मिटी न चैन।
दुखमय काली रात में, किरन ढूँढती नैन।। 
*
करो वही जो चित कहे, बाकी सब बेकार।
आत्मा लतिका रस बहें ,नवल कुसुम श्रृंगार।।
*
सच खोजे हाँ दिल भरे, धन बल ही सन्यास।
घर बारी नवजात को, देखभाल की आस।। 
*
पल छाया पावन पले, कर चित में उल्लास।
सच चाहा करतार से, तन में भर ले आस।। 
*
जब माया मोहित करे, सुन रस में संगीत।
पल आए घर-बार जल, मन लेना हँस जीत।। 
*
भज लेना अवतार सब, कर मत देना भूल।
छल जाएँ रखवाल जब, नैना भरना शूल।।   
*
सुन काया रसहीन है, मद बल सोया नींद।
तन बोझा मँझधार फँस, छोड़ सभी उम्मीद।। 
*
बुधिजन मत भोगी बनो, समझो सच नादान।
आशा चित धन दे रही, बढ़े चलो मतिमान।। 
*
सुधिजन की सेवा करो, मिटते भ्रम भंडार।
राखें सद मति सारथी, बता रहे पथ सार ।। 
*
रस प्याला मत तोल तू ,जड खोदे सच ताज।
पल थोड़ा मति भान रख,जलता तेरा आज।। 
*
जड़ माया रस छोड़ तू, क्षण डूबा रस जान ।
कल बीता अबआस कर,बचता हाला ध्यान।। 
*
मत मारो मन मोह में, मिट मोड़े मित मान।
चित चाहे सच सार रस, चलना शोभे शान।। 
*
नियति दया भाषा मिली, रसमय मन उल्लास।
मीठी रस धुन छा रही, सुनो सीख उपवास।।
*
लतिका छाई सरस तरु, चितवन लागी डार। 
तन मादक मन हार लख,चाह संग आधार।।  
*
मद मारी मंजुल मना, मनहर माँगे मीत।
कर कोमल अब राग भर, मिले भाव से प्रीत।। 
*
रजनी आई जतन से, विरहण चाहे साथ।
भर आँचल जल नेह रत, गले लगे हैं नाथ।।  
*
विपदा पाई सघन से, वितरण बाँधा नाथ।
नित रोए धनहीन जन, करो मदद दो हाथ।। 
*
मधु थाती तन जोश में, मन दायक मृदु आस।
पल खाए बल नाश सब, अपना टूटा पास।। 
*
छल साथी धन कोश हो, जन चाहत जस नाथ।
जब लूटत सब साथ मिल, डरता जीता साथ।। 
*
कलियों से माली कहे, अचरज तन आभास।
थोड़े पल महकी लता, किया पृथक मत वास।। 
*
अँखयिन से आँसू बहें, तन अकड़े लाचार।
धोयी जल चित की दशा, हिया जलत पिय तार।। 
*
नवरस नैना सुंदरी, मृदु चितवन नादान।
लज्जा रस मन में घुला, सजी ललित मुख शान।।  
*
ज्ञानी! तोलो बोल को, सच पाओगे जान।
जानो पंथी राह को, तज दे माया मान।। 
*
आया-पाया सोच लो, रहता कितना साथ
सुख-दुःख दोनों मान सम, लेना दोनों हाथ।। 
*
छाया मायानाथ की, होती आस्था धाम।
कच्ची काया छल भरी,खोई जोत ललाम। 
*
देखो इस संसार को, दौड़े तृष्णा आस।
ले लो भार खुमार का, तोड़े भीतर साँच।। 
*
चले गये जो चल पड़े, बैठे रहे उदास।
पीर बवंडर चित जगे, कैसे भरे उजास।।
*
चलो वीर नवपथ रचो, कदम रखो अज्ञात।
गणना के संसार में, शून्य सार विख्यात।। 
*
संगी-साथी शौक में, रहते नित दिन पास।
मंजिल मिलती मौन में,चलते रहो उजास।।  
*
साधु रहो या आम जन, छोडों आशा चाह।
पाओ छाया सच-घनी, भूली-बिसरी राह।।  
*
पद बढ़ते गति सहित जब, भरते भीतर जोश।
चेतन तन-मन प्राण में, बढ़ता ऊर्जा कोश।।  
तरे सभी कर हरि भजन, समझें सत धन खान।
तज परजन छल मत करें, भज मन हरि गुणगान।। 
*
यात्री कंटक राह में, जाग-जाग कर देख।
ताम को साथी मत बना, भीतर सतगुरु लेख।।
*
काया माया साथ हो, करे नेह से दूर।
भोगी नाहक अकड़ता, आन-बान-मद चूर।।
*
भाग्यहीन मोती मिले, भ्रमित भ्रमर मधुमास। 
छाया रज तामस मिटे, फैले ज्योति विकास।।
*




नमित नेह नैनन झुके, सतगुरु के दरबार ।
लोभ राग तृष्णा जले ,दृष्टि  पात उपकार ।।१
फूटी गगरी जल गिरा, संग्रह किया बेकार ।
देखा देखी जग छुआ, कांटो भरा विकार ।।२ 
झेलो यही क्रिया भरा , कच्चा माल शरीर ।
गूंज उठी चेतन घड़ी , गुरू चरण तकदीर ।।३ 
आज खोया विवेक मे , भावी ले आकार ।
डूबी काया तल कहे , जानो वैभव सार ।।४  
अंध विश्वास बाढ की , काली छाया छोड ।
पापा चारी मतलबी, भोले सत्य निचोड़ ।।५ 
बनो संसार पारखी , शिक्षा साधो ज्ञान ।
ऊँची उम्मीद उभरे, आस्था जीवन जान ।।६ 
गुरू आनंद साधना, सच्ची आशा नाथ ।
भारी वेदी अजनबी, आत्मा उजली साथ ।।७ 
चकित कहूं कथनी सही, छलता नेह उछाल ।
स्वार्थ विवश रिश्ते टिके ,मतलब नजर विशाल ।।८ 
शरण लगे जो गरज में , प्रेमी जड पहचान।
बिछुडे समर्थ सुत घने ,मात पिता लघु जान  ।।९ 
सघन नेह पावस झरे, चित अचरज कलिकाल।
बोध नही नव ज्ञान का, रिश्ता परिमल हाल   ।।१० 
लेन देन जडता मिले ,तडपे नेह विचार ।।
शान बढे छल जान ले ,रिश्ते धन भंडार  ।।१३  
प्रेम-भाव रिश्ता खिले, कुसुम मधु रस पराग ।
मूल्य जुडा जब साथ मे ,दुर्गंध चित  अनुराग।।१४  
सोचो भावी दुर्दशा  , राम भुला घर बार ।
धोखा अहंकार चढा ,मानव के अवतार ।।१५ 
प्रज्ञा विनाश जड बना , भूला मूल विधान ।
विदेही का भाव छुआ,  झूला शूल निशान ।।१६ 
भूल भुला भाई जुड़े, पाओ तो मनुहार।
चाहो असीम फल घने ,साधौ के अवतार ।।१७
पवन गति आघात किये , रेत हुई अभिजात।
कलि अनछुई के मद सी, खेल रही नवजात।।१८ 
निरख करन, परि जब गति करहि, पर हित कछु कर काम ।
पलहि सुमति तन मन रहति, नित  सबल चली धाम ।।१९ 
करम गति निरख तल पतित, सबल अधम सब करत।
महिन वसन ढक कर चले, सुरभि गति कुयश बढत ।।२० 
किरण भरहि अब रवि निखिल, तम जड मिटु सब जाय।
दलित बसत तम विपद तन , हित अबलन ही पाय ।।२१  
निरख करनि जब गति करहि, पर हित कछु कर काम ।
पलहि सुमति तन मन रहति, नित  सबल चली धाम ।।२२  
समय अजय गतिमय रहहि , घट नित मन भर आस ।
धरम करम सुधिजन सहहि, नित रस का अहसास ।।२३  
अवनि अजहु जन करि अमर , सतगुरु रज मन आस ।
तजि मन तन धन सब सुखहि, विचरण अलख सुवास ।।२४  



बन्धुवर!
वंदे भारत-भारती.
 दोहे मिले धन्यवाद.
 दोहा दुनिया हेतु सहभागिता निधि 3000/- देनाबैंक, राइट टाउन जबलपुर शाखा IFAC: BKDN 0811119 में sanjiv verma  के लेखा क्रमांक 111910002247 में जमा कर, पावती ईमेल कर दें. 



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