कुल पेज दृश्य

रविवार, 7 जुलाई 2019

doha shatak: shridhar prasad dwivedi


श्रीधर प्रसाद द्विवेदी




आत्मज: -स्व.कौसल्या देवी-स्व. देवीशरण धर दूबे।
जीवन संगिनी: चिंता देवी।
जन्म: २० मई १९५३, ग्राम शरारी, जिला गोरखपुर।
शिक्षाः एम. ए. (भूगोल), बी. एड.।
लेखन विधा: कविता, कहानी, निबंध।
प्रकाशित: कनेर के फूल (कविता संकलन), पाखी खोले पंख (दोहा सतसई), दोहा संगम (संकलन)।
विशेष: हजयारखण्ड के जनजातियों का लोकसम्मत अध्ययन (गद्य कृति), मदालसा काव्य रचना,
श्रीमद्भगवत गीता दोहनुवाद, मेघदूत (हिन्दी भावानुवाद)।
संप्रति:  संपादक ‘अनुनाद’ साहित्यिक त्रैमासिकी मेदिनीनगर।
संपर्क: अमरावती, गायत्री नगर, गायत्री मंदिर मार्ग, सुदना, डालटनगंज, पलामू, हजयारखण्ड ८२२१०२ / ग्राम पीपरी, प्रखड पाण्डू, जिला पलामू, (-हजयारखण्ड)।
चलभाष: ०७३५२९१८०४४, ई मेल: sp.dwivedi7@gmail.com।
*

दोहा शतक
*

शीश सुधाकर की कला, जटा विलसती गंग।
भष्म अंग तन क्षार का, करके काम अनंग।।
*
जिसने चखी दरिद्रता, विवश सहा अपमान।
बचा कहाँ अवशेष तब, करने को विषपान।।
*
हिय गह्वर में है परा, वागेच्छा पश्यंत।
वायु कण्ठगत मध्यमा, वैखरि शब्द अनंत।।
*
अंत नहीं है शब्द का, अक्षर अव्यय रूप।
शाश्वत अविनाशी सतत, चेतन ब्रह्मस्वरूप।।
*
चीनी में बहु व्याधि है, भली लगे नमकीन
कविताई करिए सुघर, पाठक हो रसलीन।।
*
मन फागुन-फागुन हुआ, बदला मौसम रंग।
फाग सुनाती कोकिला, अनिल बजाता चंग।।
*
बैठा काग मुंडेर पर, अजब करे आवाज।
परदेशी की पत्नियाँ, शकुन मनाती आज।।
*
मंद-मंद पछुआ चली, जैसे मस्त मतंग।
दसों दिशाएँ गूँजतीं, मानो बजे मृदंग।।
*
सुमन-सुमन को चूमते, मधुप पुष्प के सार।
बैठ कमल के कोष में, मना रहे अभिसार।।
*
शब्द न होते अर्थ बिन, अर्थ बिना सब व्यर्थ
जीवन हो या वाक् जग, अर्थ सहेज समर्थ।।
*
धवल वसन युग पट धवल, आसन धवल मराल।
धवल कमल कर वल्लकी, माला धवल मृणाल।।
*
अमित इन्दुद्युति कांति तन, अक्षसूत्र कर एक।
युग कर वीणा धारती, आगम-ंनिगम विवेक।।
*
नट, नर्तक, गंधर्व-ंसुर, चौंसठ कला निधान।
विद्या-बुद्धि प्रसाद दो , नित माँगू वरदान।।
*
गंगा मैली हो रही, रहा यमुन-जल सूख।
दिन दिन बढ़ती जा रही, इंसानों की भूख।।
*
दो आँखें दर्पण हुईं, जगमग रूप निखार।
अपनी छवि उनके नयन, दोनों रहे निहार।।
*
मध्य दुपहरी ग्रीष्म की, सूरज खाता ताव।
गर्मी से व्याकुल पवन , धरती बनी अलाव।।
*
कहीं धूप कहुँ  छाँव है, कुदरत खेले खेल।
होता प्रातः काल में, तम-प्रकाश का मेल।।
*
छोटी सरिता ही हरे, प्यासे जन की पीर।
कहाँ बडा़ई सिंधु की, भरे नीर या क्षीर।।
*
पानी वाणी एक सम, निर्मल ही गुणवान।
मलिन नीर बहुव्याधि दे, कटु वाणी अपमान।।
*
विविध रंग हैं सुमन के, जगती अनुपम बाग।
डाल-डाल लोलुप मधुप, हंस रमा वैराग।।
*
मदन दमन का मद नहीं, मन्मथ मथे महेश।
अतनु ताक तन दहनकर, भए अभीत भवेश।।
*
हलधर ने हल धर दिये, बेच दिये सब बैल।
अर्थ तंत्र उद्योग का, धन का निर्मम शैल।।
*
गए गाँव को त्यागकर, बोकारो धनबाद।
लाभ-लोभ के फेर में, फला पलायन वाद।।
*
दिनकर में जो तेज है, जो केसर में गंध।
ब्रह्म जीव के बीच में, वही अमर संबंध।।
*
बात-बात में बात से, हो जाता मजबूर।
कातर-वाणी बोलता, कहलाता मजदूर।।
*
छानी छाने की फिकर, लगा मास आषाढ़।
फटी दरारें खेत में, जंगल-जगल बाढ़।।
*
कृषक विवश हो खेलता, कर्जा-कर्जा खेल।
घर, इलाज, हल-बैल या, ब्याह करे दुःख झेल।।
*
दाम जान की लग गई, जाए भले ही जान।
सोच-सोच उलझन भरा, बौरा गया किसान।।
*
सेना सीना तान-कर, सीमा पर तैनात।
दुश्मन को हँस तोलता, है कितनी औकात।।
*
रजनी का अवसान है, पवन सुहानी जाग।
वायस बोले आँगना, जाग रहा है भाग।।
*
प्रथम मिलन की यामिनी, स्वेदद चुचाता भाल।
प्रीतम आया सामने, बिन गुलाल है लाल।।
*
कर पंकज कर में लिए, आँख आँख में डाल।
कृष्ण निहारें राधिका, राधे हुई गुलाल।।
*
कर से चिबुक उठा लिया, चूमे उन्नत भाल।
निरख चपलता धृष्ट की, भई लाज से लाल।।
*
मानव-मानव बीच अब, बढ़ने लगा दुराव।
मानवता मरते निरख , दिल को लगता घाव।।
*
जाति धर्म सब दंभ है, बने न मनुज गुलाम।
सत्य अहिंसा न्याय का, जग को दे पैगाम।।
*
तिनका-तिनका जोड़कर, किया भवन तैयार।
रहने की बारी हुई, मिला देहरी-द्वार।।
*
अल्प आयु निज मानकर, रखे चटाई शीश।
लोमश तन का लोम इक, टूटे कल्प बरीsh।।
*
बना विशालागार क्यों, करता गर्व अपार।
अमित काल के खण्ड़ में, रहना है दिन चार।।
*
गो-रक्षा के नाम पर , हत्या निंदित  कर्म।
जान जाए  इंसान की, सबसे बड़ा अधर्म।।
*
गौ माँ पूज्य पवित्र हैं , नर भी परम पवित्र।
दोनों का वध बंद हो, उत्तम यही चरित्र।।
*
प्रथम नमन आदित्य को, जग को दिया प्रकाश।
अनिल अनल अंबर अवनि, लेते सांस उसांस।।
*
खा कर पत्तल में करें, नमक हरामी छेद।
जिनको सपने-सत्य में, तनिक न दिखता भेद।।
*
बढ़-चढ़ कर बातें करो, वादों की बरसात।
देखो गर इतिहास तो, समझोगे औकात।।
*
तन पर चंदन लेप अरु, शीत अंशु अति तात।
विरह ज्वाल दहती विषम, काली नागिन रात।।
*
तन का चंपक वर्ण क्यों, कुम्हला होता पीत ।
छुई-मुई हो राधिका, दिन-दिन जीती प्रीत।।
*
अंबर अंबुद से भरा, झर-झर बरसे मेह।
वसुमति पुलकित हो उठी, दिया अषा-सजय़ सनेह।।
*
जल थल अंबर एक कर, छिपे आज दिनमान।
शयन गमन हरि जान कर, शीतल किए विहान।।
*
कहीं धूप छाया कहीं, यह है प्राकृत न्याय।
जब शासक शोषण करें, कौन कहे अन्याय?।
*
ऋतु रानी का आगमन, सावन के दिन चार।
कजरी के संँग झूलना, बगिया अमवा डार।।
*
छद्म शत्रु संकट खड़ा, करते आ कश्मीर।
उन दुष्टों के दंश से, सारा देश अधीर।।
*
जब आती है आपदा, बाढ़  और भूडोल।
सेना देती है मदद, समझ-सहज भूगोल।।
*
मिटा देश की आन पर, बैरी मार हमीद।
हिंदू-मुस्लिम की जगह, सैनिक हुआ शहीद।।
*
चीनी-चीनी एक सम, क्या विचित्र संयोग।
एक हिमालय लांघता , एक बढ़ाता रोग।।
*
चीनी से बचिए सदा , शक्कर या सामान।
सदा करें नुकसान ही, दोनों दुश्मन जान।।
*
पूजा, पाठ, उपासना, मन को दे संतोष।
घट-घट वासी ईश को, कौन तोष या रोष।।
*
धूल धूसरित नील तन , नन्हा नंदकुमार।
घुटरुन घूमत आँगना, इह-पर लोक सुधार।।
*
देख जगत हर्षित हुआ, गगन ईद का चंद।
आशा आएगा अमन , खून खराबी बंद।।
*
जिस जननी के हो गए, प्यारे लाल शहीद।
उससे अब कैसे कहूँ?, आज मुबारक ईद।।
*
मोर मुकुट, वंशी अधर, कुंचित केश त्रिभंग।
सुघर सलोने श्याम लख, लज्जित कोटि अनंग।।
*
हजरत मुहमद ने दिया, पाक अमन पैगाम।
अनुयायी कुछ कर रहे, मजहब को बदनाम।।
*
दिवस गुजारी गाँव में, यामिन काली रात।
मेंढक टर-टर कर रहे, जुगुनू की बारात।।
*
मस्ती का सुर था अलग, नाग ग्रास का और।
थम जाती थी कब हवा, कभी पवन झकझोर।।
*
सोते जगते हो गया, रजनी का अवसान।
वनफूलों की गंध से, महका नवल विहान।।
*
नीबौरी गन्धिल कटुक, चिड़ियों का कलगान।
ललित लालिमा प्राच्य की, मोहक ग्राम्य विहान।।
*
छल कर जाते शब्द भी, दे विपरीत प्रभाव।
अनचाहे देते कभी, बिना वजह के घाव।।
*
शब्द तेज तलवार से, कठिन झेलना वार।
बाहर तन तो ठीक है, भीतर गहरी मार।।
*
कर जाते कारीगरी, दिल के भीतर बैठ।
पाकर पाठक मग्न हो, मन-मन मुस्का पैठ।।
*
सबसे उत्तम नौकरी, अल्प काम बहु आय।
वणिक बढ़े संघर्ष कर, खेती बहुत बलाय।।
*
जल्दी जाना स्वर्ग तो, बनो कृषक कल आज।
सरकारी हो चाकरी, भवन स्वर्ग का राज।।
*
कंद मूल पर्वत तजे, सरिता मैली नीर।
पोषण दुर्लभ हो गया, बचना कठिन शरीर।।
*
अगहन शिशिर विभावरी, बरसे पवन तुषार।
इधर ब्याह-बारात की, आकर चढ़ा बुखार।।
*
काँप रहे वर-वधु कदम, फेरा करते सात।
मंगल की ध्वनि मंद है, पंड़ित खट्टे दांत।।
*
वाणी भूषण पुरुष की, लज्जा भूषण नार।
सत्य सुभूषण छंद का, अलंकार का सार।।
*
आँगन तुलसी-मंजरी, बाहर पीपल छाँव।
बरबस आता याद नित, अपना प्यारा गाँव।।
*
पीतल गगरा हाथ में, पायल बिछुआ पाँव।
भोर-भोर की बतकही, बिन सूना है गाँव।।
*
अहंकार में फूल कर, किए कई अपकर्म।
मोटी चमड़ी देखिए, तनिक न आती शर्म।।
*
करिए बात जमात की, जात-पांत पथ छोड़।
जागृत जनता हो गई, उत्तर दे मुहतोड़।।
*
सरसों स्नेह मलें बदन, सूर्य सामने पीठ।
सोएँ छत पर पूस भर, मूँद दोपहर दीठ।।
*
सूर्य स्रोत आनंद का, देता मीठी धूप।
खिले सुमनसम पूस में, लोनी वसुधा-रूप।।
*
घोड़ा दौड़ा वैद्य का, छोड़ लीक की लीक।
बिना लीक के चाल पर, कैसे कहूँ अलीक।।
*
श्वास वाष्प के ताप से, पिघले मुक्ता बूँद।
मुख विवर्ण तन कंपवश, बैठी आँखें मूँद।।
*
शिक्षा आयातित हुई , नवाचार आचार।
पाठ्यक्रम से हट गए, सभी शिष्ट संस्कार।।
*
शिक्षा ऐसी चाहिए, जगे श्रेष्ठ संस्कार।
मानवता गर मर गई, पढ़ा-लिखा बेकार।।
*
विकट समय संवेदना, गई मनुज से दूर।
अपनों से संबंध अब, होते चकनाचूर।।
*
सह प्राणान्तक वेदना, जननी देती जन्म।
व्यंग्य-वाण संधान कर, सुवन बेधता मर्म।।
*
सरसों पीली खिल गई, वसुमति का सिंगार।
चूनर सी लहरा उठी, ऐसी बही बयार।।
*
कुसुमाकर सेना सहित, लिए पंच शर मार।
मन की साँकल बज उठी, आया साजन द्वार।।
*
सरका आँचल लोल बन, झुकी लता सुकुमार।
लाल लाज से मालती, छिपा न पाई प्यार।।
*
मन-मंदिर माता बसी, पिता पूज्य हर याम।
वृथा भ्रमण काशी पुरी, घर वृंदावन धाम।।
*
शोक-मग्न मन मलिन हो, लगे बुद्धि को आंँच।
सावधान मन को करो , भगवत गीता बांँच।।
*
मानवता मिटने लगी, सिमट चला व्यवहार।
जागी सुरसा स्वार्थ की, मुरझा गई बहार ।।
*
धर्म-धर्म बस शोर है, घटा जीव में प्यार।
पथ छूटा कल्याण का, बाकी है तकरार।।
*
क्षुद्र वोट के स्वार्थ में, टुकड़े-टुकड़े बाँट।
भय-विभेद पुचकार फिर, रोटी सेकें डाँट।।
*
मंगल घट नित गगन में, दिखलाता दिनमान।
रंजित प्राची प्रात में , लाती उषा विहान।।
*
लिंक हुए आधार से, खाता, पोथी, पैन।
एक किलिक पर सामने, सारे गोपित सैन।।
*
मोबाइल जो हाथ में, लपक लिया आधार।
आजादी पर आपका, रहा नहीं अधिकार।।
*
सी.सी. टी.वी. लग रहे, घर-घर कुछ दिन पार।
गतिविधि सारी तकेगी, बिन पूछे सरकार।।
*
बिगुल विरोधी जो बजा, हो जाएगा सीज।
ऊसर कर देगी धरा, नहीं जमेगा बीज।।
*
विज्ञापन के लोभ में, चौथा खम्भा मौन।
निजी लोक स्वाधीनता, हो जाएगी गौण।।
*
माटी मिल माटी हुआ, जल में नीर विलीन।
तेज अनल में जल गया, गगन शून्य में लीन।। १००
*
पवन प्रवाह समीर कर, भई चेतना मौन।
कर्म एक साक्षी बना, बीज रूप सह गौन।।
*
रसना को रस चाहिए, नासा हेतु सुगंध।
श्रवण प्रशंसा चाहते, चक्षु रूप संबंध।।
*
त्वचा मुलायम खोजती, इंद्रिय अति बलवान।
इनके पीछे भागता, मानव दनुज समान।।
*
पथिक जनों को छाँव दें, फल से हरते भूख।
पूजा हित नित सुमन दे, नहीं रहे वे रूख।।
*
सिर पर छत हित काठ दे, दिया शीश भी दान।
आरा से धड़ चीर नर, बना रहा सामान।।।
*
ले प्रकाश मैं छोड़ता , प्राण वायु निःश्वास।
किस कारण स्वार्थी मनुज, करता काट विनाश।।
*
श्यामल छवि अमृत कलश, मीरा ने कर पान।
राणा का विष पी लिया, कैसे निकले जान?।।
*
नाम रूप दोनों अमिय, निशि वासर कर पान।
प्रेम द्रवण हो हृदय में, यह रस अमृत जान।।
*
मदन दहन कर हर हँसे, सुरपति विकल निराश।
लखकर शिव अब तप निरत, गिरिवर परम हताश।।
*
लप लप धधकत नयन त्रय, वट तर तपें महेश।
सुर भय हर करते अभय, सिर शशधर करुणेश।।
*
पद्मा अंग उरोज तट, केसर उबटन संग।
खेलें मनसिज श्याम उर, भरें नित्य नव रंग।। १११
*
ज्यादा खाए अन्न जो, अपच कब्ज हो खूब।
घास-फूस खाए अधिक, कैसे कौन पचाय।।०
*
बिरवा रोपे प्रेम का, कभी न जो कुम्हलाय।
नव पल्लव नवपात से, नित्य नवल हरियाय।। ०
=========


उद्धव संदेश
प्रथम अध्याय

दोहा

मथुरा में था जब लगा, माधव का दरबार
उद्धव ने आकर दिया, खिलाकमल उपहार।1।
राधा पद्मिनी नायिका, पद्मगन्ध तन जास
लीन्हें कंज सुवास जब, हुआ मिलन आभास।2।

कर सरोज पंकज लिए , माधव भए उदास
अरे कंज! पाया कहाँ?, राधे तन का वास।3।
कमल हाथ का हाथ में, मनदौडा़ व्रजओर
उद्धव देखे हरि नयन , भर आए दो कोर।4।
पूछ रहे वे कृष्ण से , क्यों भर आए नैन?
सखा आ गई याद में, व्रज की बीती रैन।5।
प्रेम-ंउचय सिन्धु लहरा रहा , रही गोपियां डूब
नयन नीर के स्त्राव से, यमुना खारी खूब।6।
उद्धव का कर थामकर , बोल उठे गोपाल
व्रज जाकर तू हेसखे!, स्थितितनिकसम्हाल।7।
वहां गोपियां विरह से , व्याकुल हैं दिन रैन
कभी भ्रमित मुर्छित कभी , रो-ंउचयरो हारे नैन।8।
मु-हजये मान स्वामी सखा , मु-हजयपर अर्पित प्राण
सदा लीन हैं ध्यान में, अपनी आत्मा जान।9।

मेरे लिए ही त्यागकर , सकल लोक परलोक
रमण सदा मु-हजयमें करें, आज उन्हे यह शोक।10।

*
सवैया

उद्धव धूम दिखे व्रज-ंउचयमण्डल,

जा व्रज देख लगी तहँ आगी

सोच रहा व्रज ग्वालिन को,

रहती नित नेम सुप्रेम स पागी

कंज कहीं मुर-हजयाय चले,

कहु कुंजन बीच लगी न दवागी

आग बु-हजया फिर लौट सखा,

जलता व्रज गोपिनके विरहागी।1।

दोहा-ंउचय

सबतज भजता जो मु-हजये, उसका मु-हजयको ध्यान
रक्षा करना धर्म है , व्रत यह मेरा मान।11।
प्रेम लपेटे प्रिय वचन , बोले यदु-ंउचयकुल चन्द
उद्धव व्रज जाकर करो, गोपिन पीर सु मन्द।12।
तन मथुरा के महल में , मन गोपिन पर वार
मैं जड़वत उनमें मगन, जाओ वृष्णि कुमार।13।
केशव का सन्देश ले , उद्धव स्यंदन साज
नन्द गांव को चल दिए, हरि का करने काज।14।

दिन तो मग में गत हुआ, पहुंचे संध्या काल
उड़ते गो रज से घिरा, रवि मंडल भी लाल।15।
गौ धाई धूसर धवल , कृष्णा, कपिला, गोल
रंभाती वात्सल्य वश , उदर पयोधर लोल।16।
गरज रहे थे बहु वृषभ, सहसा टकरा सींग
गोधूली का समय शुभ , गाते -हजयींगुर भृंग।17।
धवल सवत्सा गौ सुघर, दौड़ी वत्स निहार
घण्टी सी थन बालियां, -हजयूल रहीं पय भार।18।
पय दोहन के धार से , गूँज रही थी शाम
मृदु मुरली थी बज रही, ले माधव का नाम।19।
सजधज सुन्दर गोपियाँ, गोपसहित कर ध्यान
मंगलमय हरि चरित का, करती थीं शुभ गान।20।
सवैया
घर द्वार सजे व्रज मण्डल के,

वनफूल सुवंदनवार लगे थे।

बहती मृदु वायु सुगन्ध लिए,

घर आंगन धूप अपार जले थे।

जल दीप हजार सुपांतिन में,

व्रज शोभित रूप सिहात ठगे थे।

लख उद्धव ये व्रज के छवि को,

निज लोचन खोल निहार रहे थे।2।


दोहा-ंउचय
लदी सुमन से डालियां, पंक्षी चह चह डार
गलियों में थी गुँज रही, मधुर भ्रमर गुंजार।21।
व्रज की लख रमणीयता, उद्धव बिसरे ज्ञान
व्रजबासी आतुर मिले ,सखा कृष्ण के जान।22।
सुन उद्धव का आगमन , आए बाबा नन्द
गले लगा हर्षित मनो, मिले नन्द के नन्द।23।
आसन अर्पण अघ्र्य दे, भोजन रुचिर कराय
सुख शैया पर्यंक पर, मान सहित बैठाय।24।
वाणी परम स्नेह मयी, पूछ रहे सब हाल
भाग्य-ंउचयवान उद्धव कहें , कैसे मेरे लाल?।25।
परम मित्र वसुदेव जी , हुए जेल से मुक्त
अपने प्रियजनसहित अब, रहें कुशल संयुक्त।26।
पापी अपने पाप से , मरा अधर्मी कंश
हुआ अकंटक राज्यअब, मुक्त हुआ यदुवंश।27।
उद्धव कहिए कृष्ण क्या , करता हमको याद

मातु सखा गोपी स्वजन, केलि किलोलनिनाद।28।
गाय, गोप, गोपाल, व्रज , गिरि गोवर्धन राज
करता क्या कभी स्मरण , या बिसरां यदुराज?29।
उद्धव यह बतलाइए , क्या मेरा गोविन्द?
आएगा व्रज देखने , सुहृद सुबान्धव वृृन्द।30।

सवैया
उद्धव क्या घनश्याम कभी,

व्रज आवन हेतु कहा करते हैं।

मात पिता सब गोपिन गोप,

यहां हरि आश तका करते हैं।

मेाहक रूप चितौन सु बंक,

सदा इन आंख बसा करते हैं।

केशव के करनाम सदा कर,

याद वियोग सहा करते हैं।3।

दोहा-ंउचय
आ जाते गर कृष्ण तो , होते नयन निहाल
मधुर हास्य चितवनमृदुल, आनन कंज विशाल।31।
उद्धव मेरे कान्ह का , उर है परम उदार
अमित शक्ति विक्रम प्रबल, व्रज का वह आधार।32।
दावानल आंधी सलिल, अघ बक दैत्य महान

अजगर कालिय नाग से, रक्षा कीन्हे आन।33।
बांकी चितवन मृदु हसन, भाषण कला निधान
उद्धव उनके चरित का, निशदिन करते ध्यान।34।
तन्मय रहते इसी में , तजे काज सब आन
उद्धव कब देखें नयन, वह मोहक मुस्कान।35।
विपिन कुंज यमुना वही, वही खडे गिरिराज
चरण कमल जंह जंह पडे, गो चारण के काज।36।

जगह आज भी है वही, खेले जंह गोपाल
निरख सुथल अरु याद कर, मन बेसुध बेहाल।37।
उनकी लीला याद कर, रहता उसमें लीन
नैन नीर निशिदिन -हजयरें, मन अति दीन मलीन।38।
उद्धव मैं यह जानता, कृष्ण और बलराम
निश्चित ही हैं देव सम, पुरुष नहीं वे आम।39।
ऐसा मु-हजयसे कह गए , खुद ही मुनिवर गर्ग
देव कार्य करने निमित, तज आए हरि स्वर्ग।40।
सवैया-ंउचय
मार महा गजराज बली तब

मुष्टिक चाणुर को हन डाले।

भंग किये मख तोड़ शरासन

ज्यों गज पंकज नाल तुड़ा ले।

भाग चले सब मल्ल सुमल्ल

बली जितने मख के रखवाले।

गर्द किए फिर कंस महासुर

जे शत कुंजर के बल वाले।4।

सात दिनों तक छत्र किए गिरि

राज न अंगुल लोच किया है।

गर्व पुरन्दर का हर के हरि

पाहन पूज्य पहार किया है।

खेलत खेल किए सब खेत

प्रलम्ब अघासुर मरत किया है।

माधव ही सब गोपिन गोप

बचाय नया फिर जन्म दिया है।5।

दोहा-ंउचय
केशव का कहते चरित, विह्वल हो कर नन्द
रूद्ध कण्ठ गदगद गिरा, नयन प्रेम वश बंद।41।
यशुमति बैठी सुन रही ं, उद्धव-ंउचयनन्द सुबात
सजल नयन सुत स्नेह से, पयथन दूध चुचात।42।
उद्धव ने देखा इधर , प्रेम-ंउचयमग्न अति नन्द

यशुमति अति अनुराग से, हिय हर्षित आनन्द।43।
कर जोरे कहने लगे , मन में भर अनुराग
धन्य धन्य हैं आप सब, महा-ंउचयभाग बड़ भाग।44।
नारायण जो जगत के, जन्म मरण के हेतु
उनके प्रति वात्सल्य से, पुत्रभाव चित चेतु।45।
परम पुरुष श्री कृष्ण हैं, आदि अनन्त अकाम
परा प्रकृति स्वरुप ही , स्वयं सन्ग बलराम।46।
सृजते वे जग जीव बन , वही फूँकते प्राण
ज्ञान रूप करते सदा, नियमन जगकल्याण।47।
अंत काल में जीव जो, क्षण भर करता ध्यान
मिटती उसकी वासना, बनता ब्रह्म समान।48।

सत्य सनातन ब्रह्म वह, धर मानव अवतार
भक्त मानोरथ पूर्ण हित, हरता भू का भार।49।
सो प्रभु आ प्रकटे यहां, सदन आपके आय
अब क्या पाना शेष है, कर्म सकल शुभ पाय।50।
सवैया-ंउचय
धीरज धारण नन्द करें व्रज

में हरि शीघ्र बिहार करेंगें।

बात कहे जस कंस पछाड़त

सेा सब आ उपकार करेंगें।

मात पिता पग लाग लला फिर

ग्वाल सखा मिल हास करेंगें।

ले मुरली कर में फिर से वह

गोपिन संग सु-ंउचय रास करेंगें।।

दोहा-ंउचय
बात सुनें यह नन्द जी , सुनों यशोदा मात
खेद शोक करना नहीं, कृष्ण निकट हैं तात।51।
जैसे पावक काठ में , सदा गुप्त पर व्याप्त
वैसे हरि सर्वत्र ही , सदा सर्वदा ज्ञाप्त।52।
हरि का कोई प्रिय नहीं, अप्रिय भी ना कोय
सबमें दृष्टि समान है, उत्तम उधम न कोय।53।
तात मात उनके नहीं, सुत वित नहीं कलत्र
अपना पर कोई नहीं , एक रूप सर्वत्र।54।

अगुण अजन्मा देह बिन , निराकार अविकार
सज्जन के परित्राण हित, लीलामय वपु धार।55।
प्राकृत तम रज सत्व गुण, गुणातीत गुणधार
निज ईच्छा से देह धर, लेत विविध अवतार।56।
उद्भव थिति संहार का, कारण ब्रह्म समान
गुणातीत यह नन्द जी, माधव और न आन।57।

बालक जग जस खेलता, घुमरी पटवा खेल
जग चकरी सम घूमता, आभासित हो हेल।58।
वैसे ही इस चित्त में, भ्रम वश अहं प्रवेश
अपना पर सब मानता, सत्य नहीं लवलेश।59।
कृष्ण आपके पुत्र हैं, केवल सत्य न बात
परमात्मा हैं जगत के, सखा बन्धु पितु मात।60।
सवैया-ंउचय
नन्द सुने त्रयकाल त्रिलोक

महान सु अल्प कहाँ हरि नाहीं।

गोचर लोक अगोचर वस्तु,

पहाड़ नदी चहु ओर दिखाहीं।

गोकुल मे व्रज में बनितान,

बसे जस विद्युत हो घन माहीं।

गोपिन गोप सखा सब ग्वाल,

लखात सदा सबमें परिछाहीं।।

दोहा-ंउचय
बात-ंउचय बात में कट गई , आंखें में ही रात
नित्य कर्म करने चले, जान समय परभात।61।
उठी गोपियां शयन तज , रजनी रहते शेष

स्वच्छ सदन करने लगी, चित्रित लेप विशेष।62।
दीप बार धर द्वार पर , वास्तु देव अवराध
दधि मंथन करने लगी, रज्जू मथनी साध।63।
मंथन करते कर सुघर , आगे पीछे ड़ोल
कंगन लगते थे भले, कुवलय कंचन लोल।64।
गुरु नितम्ब कदली जघन, पीन पयोधर गोल
कुंमकुम मंडित भाल से, रंजित लोल कपोल।65।
रत्न जड़ित कटकादि पर, दीपक -हजयलक प्रकाश
जगमग शोभा पा रहा, सुरधनु स्वच्छ अकाश।66।
ंदधि मंथन के साथ ही , माधव चरित पुनीत
मोहक मंगल गान कर , कर तोलति नवनीत।67।
कमल नयन के नाम सह, घुर घुर गुंजित घोष
पहुँच रही थी व्योम तक, सुर लहरी दे तोष।68।
जा पहुँची ध्वनि स्वर्ग तक, दसो दिशा गुंजार
पावन मंगल गान से , जगत अमंगल टार।69।
अंशुमान के उदय पर , नन्द-ंउचयद्वार रथ देख
व्रज वनिता करने लगी, मन अनुमान विशेख।70।

-ंउचय-ंउचय00-ंउचय-ंउचय
द्वितीय अध्याय

देखी स्यंदन रुका हुआ था , नन्द राय के द्वार
एक एक को निरख गोपियांँ, करने लगी विचार।

आया कोई दूत कंस का , अब क्या लेने प्राण?
है वह क्रूर अक्रूर अन्य है, शंकित रही निहार।1।

नित्य कर्म से निवृत होकर, उद्धव वापस आय
भूषणवसन वदनकाठी सब, कृष्णसदृश लखाय।
घुटनेतक प्रलम्ब भुजाएं, लोचन विकसित कंज
पीताम्बर राजित कान्हा सम , पंकजमाला भाय।2।

आनन नव अरविन्द मनोहर, मन्द मन्द मुख हास
कानों में मणि मंडित कुण्डल, नैन सुकंज विकास।
पांति दशन कुन्द कली फीका, नासा कीर सुठोर
कुंतल भ्रमर पुंज घुँघराले, नील जलद तन भास।3।

भूषण वसन कृष्णजस शोभित, कान्ह नहीं
यहऔर
उत्सुक घेर उठी रथ गोपी , सभी दिशा से
दौर।
उहा-ंउचय पोह में पड़ी गोपिया ं, ये तो है अनजान
ज्ञात हुआ उद्धव जी आए, कृष्ण सखा सिरमौर।4।

सखा जान कर रमा-ंउचयरमण का, सुनने को सन्देश
विनत भाव से शीश -हजयुकाए, चितवत मृदुल सुवेश।
मन्द मन्द मृदु हास विखेरे , वाणी मधुर सलज्ज
पाद्य-ंउचय अघ्र्य अर्पण कर पूछीं, कहो कुशल सर्वेश?।5।

उद्धव तुम तो सखा श्याम के, ले आए सन्देश
तुम्हे जनक जननी हित भेजे, मथुरा राज नरेश।
बाकी याद करें वे किसकी, हम हैं निपट अहीर
कभी नहीं सुधि आती होगी, हमको यही अँदेश।6।,



दोहा छन्दः विधान

चार चरण और दो पंक्ति का लघु छंद दोहा, प्राकृत से प्रारम्भ
होकर अपभ्रंश के पथ से गुजरते हुए हिन्दी में आया एक
प्रभावोत्पादक छन्द है। इसके अन्तिम चरण को प-सजय़ते ही भावों के
विस्फोट की ऐसी अनुगँूज उठती है जो देर तक विचारों को स्पंदित
करती रहती है। ऐसा भी नहीं कि संस्कृत में इस छन्द में रचना नहीं
हुई पर 13-ंउचय11 मात्रा पर रचे गए श्लोक अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं। यह
अर्धसम मात्रिक छन्द, प्रथम और तृतीय चरण में 13 तथा द्वितीय और
चतुर्थ चरण में 11 मात्राओं का होता है। इसका आरम्भ जगण से
वर्जित माना जाता है। जगण एक अशुभ गण है तथा एक ही जगणात्मक शब्द
से प्रारम्भ करने पर गति भंग होती है और इस दोहे को चण्डालिनी
दोहा कहा जाता है। दो शब्दों से बने जगण पर अल्प दोष माना जाता
है। सम चरण का अन्त गुरु लघु तथा विषम चरण का अन्त लघु गुरु या
नगण से होता है। हर स्थिति में सम या विषम चरण के 11 वीं मात्रा
लघु ही होती है। इस प्रकार एक दोहे में कुल 48 मात्राएं होती
हंै। शब्दों का प्रयोग इस प्रकार से किया जाता है कि लय (गति) भंग न
हो तथा दोनो पद सम तुकान्त हों। गति के लिए चैकल चैकल त्रिकल
द्विकल या त्रिकल त्रिकल चैकल द्विकल का प्रयोग लय को प्रवाहमय बनाने के लिए
अच्छा माना जाता है।
आरम्भ में 13-ंउचय11 मात्रा के बिना भी दोहे लिखे गए। पद्मावत
में ऐसे बहुत से दोहे हैं हैं जो इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
आदिकाल मे भी पर्याप्त दोहे लिखे गए किन्तु भक्ति काल का यह प्रिय छन्द
रहा है। रीतिकाल आते आते दोहा अपने पूर्ण सौष्ठव के साथ खडा़
दीखता है। बिहारी पद्माकर मतिराम आलम आदि ने कमाल के दोहे रचे
हैं। छाायावाद या उसके उपरान्त दोहे की रचना क्या, छन्दोवद्ध रचना
की ही धारा मन्द पड़ गई थी किन्तु अब कवियों का रू-हजयान मुक्त छन्द

और गजल के युग में भी छन्दों की ओर हुआ है तथा दोहे भी
प्रचुर लिखे जा रहे हैं।
छन्द शास्त्र के आचार्यों ने मात्रिक वर्णों की संख्या के आधार
पर दोहे का 23 प्रकार बताए हैं। दोहे के इन 23 भेदों को दोहे
के रूप में सोदाहरण वर्णन प्रस्तुत करने का प्रयास आगे किया जा रहा हैः-ंउचय
दोहे के 23 भेद-ंउचय
शरभ श्येन भ्रामर भ्रमर , मर्कट मण्डुक हंसं
करभ पयोधर नर उदर ,कच्छप त्रिकल गयंद।।
मच्छ पान विडाल बल , श्वान सर्प शार्दूल
अहिबर व्याल प्रभेद यह , तेइस सुन्दर फूल।।

इन 23 भेदों का क्रमवार विवरण आगे दिया जा रहा है।
1-ंउचय भ्रमरः-ंउचय
बाइस अक्षर गुरु दिए , लघु दीजिए चार।
भ्रमर कोटि दोहा बने, कविगण कहे विचार।।
जैसेः-ंउचय
गौरी भोले नाथ की , उल्टी जोड़ी देख।
मैना माथा पीट ली, धाता का क्या लेख।। ( 22गुरु और 4लघु
कुल 26 अक्षर )
2-ंउचय भ्रामर या सुभ्रमरः-ंउचय
गुरु अक्षर इक्कीस कर, छव अक्षर लघु देय।
भ्रामर दोहा रूप यह , यति गति दीजे गेय।।
जैसेः-ंउचय

बैठी मैना रो रही , देखी दूल्हा खोट।
मैं बेटी दूँगी नहीं, दिल को लागी चोट।। (21 गुरु और 6
लघु 27 अक्षर)
3-ंउचयशरभः-ंउचय
शरभ बीस गुरु आठ लघु, अक्षर यही प्रमाण।
दोहा मंगल मोद कर , सदा करे कल्याण।।
जैसेः-ंउचय
शिव बैठे कैलास पे, मौजी छाने भंग।
बाघम्बर ओ-सजय़े लसें , गौरी बाँए अंग।।ः (20 गुरु और 8
लघु 28 अक्षर)
4-ंउचयश्येन-ंउचय
गुरु मात्रा उन्नीस दें , लघु लघु दें दस वर्ण।
दोहा रुचिकर श्येन यह, ध्वनि हो प्रियकर कर्ण।।
जैसे-ंउचय
महादेव सम देव को, जो देवांे के देव।
ध्याते भोले नाथ ही, काटें दैव कुटेव।। ( 19 गुरू 10
लघु कुल 29 अक्षर )
5-ंउचयमण्डूक-ंउचय
अठ्ठारह गुरु दीजिए, लघु का बारह देय।
तीस वणर््ा मण्डूक का , दोहा बनता गेय।।
जैसे-ंउचय
व्याह गौर को संग ले , शम्भु चले कैलास।

ब्रह्मा गए निजधाम को, क्षीरसिन्धु श्रीवास।। (18 गुरु 12 लघु
कुल 30 अक्षर)
6-ंउचयमर्कट-ंउचय
सतरह अक्षर गुरु लगा, चैदह लघु बैठाय।
दोहा मर्कट मानिए , कविगण गए बताय।।
जैसे-ंउचय
पूजा गौरी नाथ को , किया सुरासुर भीत।
रावण का भी मद मिटा, लिया राम ने जीत।। ( 17 गुरु 12 लघु 29
अक्षर )
7-ंउचयकरभ दोहाः-ंउचय
सोलह-ंउचय सोलह लधु गुरू, जिस दोहा में होय।
उसे करभ कहते कविन ,सम-ंउचयसम सम-हजयें दोय।।
जैसे-ंउचय
भोले भ्ंाडा़री अजब , औ-सजय़र-ंउचय दानी देव।
बिल्वपत्र जल भांग से, मेटंे सकल कुटेव।। ( 16-ंउचय16 गुरु लघु
कुल 32 अक्षर )
8-ंउचयनर दोहा-ंउचय
पन्द्रह गुरू अक्षर धरें, लघु अठ्ठारह देय।
नर दोहा बनता सुग-सजय़ , रचना सुन्दर गेय।।
जैसे-ंउचय
शंकर भोला-ंउचयनाथ हर , महादेव भूतेश
चन्द्रचूड़ अक्षोभ्य जय, प्रमथाधीप भवेश।।

9-ंउचयहंस दोहा-ंउचय
चैदह गुरु अरु बीस लघु, दीजे मात्रिक वर्ण
दोहा हंस प्रभेद यह , धवल मराल सुपर्ण।।
जैसे-ंउचय
शंकर गौरीनाथ भव, भालचन्द्र प्रथमेश
हे ग्ंागाधर भूतपति, लोहितनील महेश।।
10-ंउचयगयंद दोहा-ंउचय
तेरह गुरु बाइस लघुन, मात्रिक अक्षर होय
गति गयंद सम राजता, दोहा जाने कोय।।
जैसे-ंउचय




सवैया

सवैया एक ललित वार्णिक छन्द है जो बाईस से 26 वर्णों में
लिखी जाती है। गणात्मक संरचना के कारण इसमें लय का अद्भुत
प्रवाह होता है और अपनी गेयता के कारण यह कवि और काव्य
रसिकों के बीच काफी लोकप्रिय छन्द रहा है। हिन्दी साहित्य के
भक्ति काल और रीति काल में प्रभूत सवैये की रचना हुई। तब से
आज तक यह अपनी लोक प्रियता को अक्षुण बनाए हुए है।

वर्णों के संख्या के अनुसार सवैया की पांच कोटि
बताई जाती है तथा इन पांच कोटि के सवैयों में गणों के
प्रयोग के अनुसार उनके अनेक उपभेद बताए गए हैं जिन्हें भिन्न
भिन्न नाम से जाना जाता है। इन पांच कोटि के प्रमुख सवैयों
का प्रचलित उपभेदों सहित विवरण आगे वर्णित है। यथा-ंउचय
1. आकृति कोटिः-ंउचय इस कोटि में 22 वर्ण से रचित सवैया आते
हैं, जैसे (क) मदिरा-ंउचय सात भगण (211) और अन्त में एक गुरू
वर्ण के प्रयोग से मदिरा सवैया बनता है। जैसेः-ंउचय 211 211 211
211 211 211 211 2
‘‘ मोहक जाल समान जहान फसी मछली तड़पे जल में
काल कराल बिहार करे नर तू भय भीत रहो जग में।
कंटक जाल बिछा भवये निजचाल सहेज रखो मग में
दुर्लभ जीवन मानव का मत खोय अकारथ तू जग में।।’’ ( स्वरचित
)
इसे मालती सवैया भी कहा जाता है। इसी तरह (ख) ‘मोद’ सवैया
भी 22 वर्ण का ही होता है और आकृति कोटि के अन्तर्गत
माना जाता है। मोद सवैया में पांच भगण एक एक मगण और सगण
तथा अन्त में गुरू वर्ण होता है। लक्षण-ंउचय 211 211 211 211
211 222 112 2 (ग) मन्दार माला-ंउचय मन्दार माला सवैया भी 22
वर्ण का होता है जिसमें सात तगण और अन्त में गुरू वर्ण का
प्रयोग होता है। लक्षण-ंउचय 221 221 221 221 221 221 221 2 कुल
22 वर्ण।

2. विकृति कोटि-ंउचय इस कोटि में 23 वर्णों से रचे सवैया आते
हैं। (क) मत्तगयंद (ख) चकोर (ग) सुमुखि ( घ )
वागीश्वरी आदि सवैया इसी कोटि के अन्र्तगत हैं। (क) मत्तगयंद
सात भगण और अन्त में दो गुरू वर्ण के प्रयोग से यह सवैया बनता
है। जैसेः-ंउचय
(क) मत्तगयन्दः-ंउचय खेलत रंग अबीर हरी सब संग सखा सखियां मिल जोरी
कंचुकि बोर भए लट लोल कपोल मले धर केसर रोरी।
श्याम शरीर बना नव कुंदन केशव संग भई बलजोरी
उधम आज मची यमुनातट लाललली मिल खेलत होरी।।

(स्वरचित)
(ख) चकोरः-ंउचय सात भगण और गुरू लघु से अन्त कर 23 वर्ण का
छन्द चकोर है।


सामान्य फल विचार वर्तमान दशा और उपचार

-ंउचय0-ंउचय

आपका जन्म आद्र्रा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका स्वामी
राहु है जो लग्न में मित्र शनि के घर में है। राहु यदि लग्न में हो
तो मस्तिष्क रोगी दुष्ट और नीच कर्म रत बनाता है। यह मतिभ्रम पैदा
करता है। इसके चलते गले की बीमारी, शुष्क खंांसी, अस्थ्मा या कान के
रोग हो सकते हैं।

आद्र्रा का जातक पुस्तक विक्रेता, संचार अथवा यातायात,
उर्जा-ंउचयशक्ति, अनुसंधन विज्ञान, मदिरा उद्योग, महाजनी आदि से आजीविका
करते है।
बुध की राशि एवं राहु के प्रभाव का जातक मधुर भाषी, सबसे
प्रेम व्यवहार करने वाला, वैद्य अथवा मन्त्र शक्ति का ज्ञाता होता है।
नशीली वस्तु का सेवन भी कर सकता है। साधरण आर्थिक स्थिति,
अदूरदर्शी और घमण्डी आचरण का हो सकता है।

इस समय आपका शनि महादशा में राहु का अन्तर दशा चल रहा है
जो 8-ंउचय5-ंउचय16 से 4-ंउचय3-ंउचय19 तक रहेगा। शनि से राहु दसवें हैं किन्तु
स्फिोटक होने के कारण स्वास्थ व्यापार और धन पर चोट के साथ
साथ पत्नी संतान और भाग्य में रोडे अटका रहे है।
सु-हजयाावः-ंउचय
आप अपने राज योग कारक ग्रह शुक्र को मजबुत रखें। चान्दी में सवा 5
रत्ती का सफेद जिरकन पहनें। सब दिन। शुक्रवार को 10 बजे के अन्दर
कनिष्ठा अंगुली में। यह सब तरह से लाभकारी होगा।

राहु के दोष को शान्त करने के लिए आप दुर्गा मां का
सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ और खुद ही नित्य ‘‘ओम त्रयम्बकम् यजामहे
सुगन्धीं पुष्टी वर्धनम। उर्वारुकमिव वन्धनात मृत्युर्मुक्षीय मामृतात,
ओम’’ का जप 1 माला करें तो उत्तम।। आप शनिवार को हनुमान मंदिर
में दर्शन करे तथा उसदिन किसी लंगडा को-सजय़ी भिखारी को कुछ
दें।

कोई टिप्पणी नहीं: