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सोमवार, 5 नवंबर 2018

दोहा-दोहा धन तेरस
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तेरह दीपक बालिए, ग्यारह बाती युक्त।
हो प्रदीप्त साहित्य-घर, रस-लय हो संयुक्त।।
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लघु से गुरु गुरुता गहे, गुरु से लघु की वृद्धि।
जब दोनों संयुक्त हो, होती तभी समृद्धि।।
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धन चराग प्रज्वलित कर, बाँटें सतत प्रकाश।
ज्योतित वसुधा देखकर, विस्मित हो आकाश।।
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ज्योति तेल-बाती जले, दिया पा रहा श्रेय।
तिमिर पूछता देव से, कहिए क्या अभिप्रेय??
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ज्योति तेल बाती दिया, तनहा करें न काम।
मिल जाएँ तो पी सकें, जग का तिमिर तमाम।।
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चल शारद-दरबार में, बालें रचना-दीप।
निर्धन के धन शब्द हों, हर कवि बने महीप।।
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धन तेरस का हर दिया, धन्वन्तरि के नाम।
बालें तन-मन स्वस्थ हों, काम करें निष्काम।।
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संजीव, धनतेरस
५.११.२०१८

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