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शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

नवगीत संग्रह २०१८

नवगीत संग्रह २०१८
क्रमांक नाम नवगीतकार संस्करण प्रकाशक
१ सहमा हुआ घर मयंक श्रीवास्तव तृतीय संस्करण अयन प्रकाशन दिल्ली २ समय है सम्भावना का जगदीश पंकज प्रथम संस्करण ए. आर. पब्लिशिंग कम्पनी, दिल्ली * ३ नदी जो गीत गाती है शिवानंद सहयोगी प्रथम संस्करण अयन प्रकाशन ४ समय की पगडंडियों पर त्रिलोक सिंह ठकुरेला प्रथम संस्करण राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर * ५ मोरपंखी स्वर हमारे ब्रजकिशोर वर्मा शैदी प्रथम संस्करण अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद ६ आदिम राग सुहाग का कुमार रवीन्द्र प्रथम संस्करण उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ ७ शब्द वर्तमान जयप्रकाश श्रीवास्तव प्रथम संस्करण बोधि प्रकाशन, जयपुर * ८ फिर माड़ी रंगोली महेश अनघ प्रथम संस्करण निखिल पब्लिशर्स/ डिस्टिब्यूटर्स आगरा ९ गीतों के गुरिया महेश अनघ प्रथम संस्करण निखिल पब्लिशर्स/ डिस्टिब्यूटर्स आगरा १० चारों ओर कुहासा है , रघुवीर शर्मा प्रथम संस्करण शिवना प्रकाशन, सीहोर ११ पहने हुए धूप के चेहरे- मधुकर अष्ठाना, प्रथम संस्करण गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद १२ सयानी आहटें हैं बृजनाथ श्रीवास्तव प्रथम संस्करण ज्ञानोदय प्रकाशन, कानपुर १३ सम्बन्धों में चीनी कम है विजय राठौर प्रथम संस्करण बोधि प्रकाशन, जयपुर १४ भौचक शब्द अचंभित भाषा शिवानंद सहयोगी प्रथम संस्करण अयन प्रकाशन, दिल्ली १५ फुसफुसाते वृक्ष कान में हरिहर झा प्रथम संस्करण अयन प्रकाशन, दिल्ली * १६ कुछ फूलों के कुछ मौसम के जयकृष्ण राय तुषार प्रथम संस्करण साहित्य भंडार, इलाहाबाद = १७ संदर्भों से कटकर रविशंकर मिश्र रवि प्रथम संस्करण बोधि प्रकाशन, जयपुर = १८ ओझल रहे उजाले विजय बागरी विजय प्रथम संस्करण उद्भावना प्रकाशन गाजियाबाद *
१९. सड़क पर संजीव वर्मा 'सलिल' प्रथम संस्करण समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर *
२०
निकष पर: २०१८ में प्रकाशित नवगीत संकलन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[शब्द वर्तमान, नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१८, आकार २०.५ से. x १४ से., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १२८, मूल्य १२०/- , बोधि प्रकाशन, सी ७६ सुदर्शनपुरा औद्योगिक क्षेत्र विस्तार, नाला रोड, २२ गोदाम, जयपुर ३०२००६, चलभाष ९८२९०१८०८७, bodhiprakashan@gmail.com, रचनाकार संपर्क आई.सी.५ सैनिक सोसायटी, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९१ ७८६९१९३९२७, ९७१३५४४६४२, समीक्षक संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८ ]
जयप्रकाश श्रीवास्तव मन का साकेत गीत संग्रह (२०१२) तथा परिंदे संवेदना के गीत-नवगीत संग्रह (२०१५) के बाद अब 'शब्द वर्तमान' नवगीत संग्रह के साथ नवगीत संसद में दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। जयप्रकाश जी के नवगीतों में समसामयिक समस्याओं से आँखें चार करते हुए दर्द से जूझने, विसंगतियों ले लड़ने और अभाव रहते हुए भी हार न मानने की प्रवृत्तिमानव मन की जटिलता, संबंधों में उपजता-पलता परायापन, स्मृतियों में जीता गाँव, स्वार्थ के काँटों से घायल होता समरसता का पाँव, गाँव की भौजाई बनने को विवश गरीब की आकांक्षा, विश्वासों को नीलाम कर सत्ता का समीकरण साधती राजनीति, गाँवों को मुग्ध कर उनकी आत्मनिर्भरता को मिटाकर आतंकियों की तरह घुसपैठ करता शहर अर्थक समूचा वर्तमान है। जयप्रकाश जी शब्दों को शब्दकोशीय अर्थों से मिली सीमा की कैद में रखकर प्रयोग नहीं करते, वे शब्दों को वृहत्तर भंगोमाओं का पर्याय बना पाते हैं। उनके गीत आत्मलीनता के दस्तावेज नहीं, सार्वजनीन चेतना की प्रतीति के कथोकथन हैं। भाषा लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता तथा उक्ति वैचित्र्य से समृद्ध है।
जय प्रकाश जी के नवगीतों का मुखड़ा और सम वजनी पंक्तियाँ सार कह देती हैं, अंतरा तो उनका विस्तार जैसा होता है-
"उड़ मत पंछी
कटे परों से
बड़े बेरहम गिद्ध यहाँ के
(अंतरा)
तन से उजले
मन के काले
बन बैठे हैं सिद्ध यहाँ के
(अंतरा) सत्ता के
हाथों बिकते हैं
धर्मभ्रष्ट हो बुद्ध यहाँ के
(अंतरा)
खींच विभाजन
रेखा करते
मार्ग सभी अवरुद्ध यहाँ के।
अब अंतरे देखें तो बात स्पष्ट हो जायेगी।
१. नोंच-नोंच कर
खा जायेंगे
सारी बगिया
पानी तक को
तरस जायेगी
उम्र गुजरिया,
२. हकदारी का
बैठा पहरा
साँस-साँस पर
करुणा रोती
कटता जीवन
बस उसाँस पर,
३. तकदीरों के
अजब-गजब से
खेल निराले
तदबीरों पर
डाल रहे हैं
हक के ताले।
नवगीत लेखन में पदार्पण कर रही कलमों के लिए मुखड़े अंतरे तथा स्थाई पंक्तियों का अंतर्संबंध समझना जरूरी है। विदेश प्रवास के बीच बोस्टन में लिखा गया नवगीत परिवेश के प्रति जयप्रकाश जी की सजगता की बानगी देता है-
तड़क-भक है
खुली सड़क है
मीलों लंबी खामोशी है।

जंगल सारा
ऊँघ रहा है
चिड़िया गाती नहीं सवेरे
नभ के नीचे
मेघ उदासी
पहने बैठे घोर अँधेरे
हवा बाँटती
घूम रही है
ठिठुरन वाली मदहोशी है।

जयप्रकाश जी ने मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग कम किंतु कुशलता से किया है-
"मन का क्या है
रमता जोगी, बहता पानी
कभी हिरण सा भरें कुलाँचें
कभी मचलता निर्मल झरना",
या "मुर्दों की बस्ती में
जाग रहे मरघट हैं",
"सुविधा के खाली
पीट रहे ढोल हैं
मंदी में प्रजातंत्र
बिकता बिन मोल है",
"अंधों के हाथ
लग गई बटेर
देर कहें या इसको

कह दें अंधेर" आदि

गीत नवगीत संग्रह,समय है संभावना का, जगदीश पंकज, प्रथम संस्करण २०१८, आईएसबीएन  978-93-86236-76 -0 पृष्ठ- १२८, मूल्य- रु. २००, प्रकाशक- ए.आर.पब्लिशिंग कं., दिल्ली -110032 , संस्करण, समीक्षा- डॉ. ईश्‍वर सिंह तेवतिया] * 
नवगीतकार श्री जगदीश पंकज प्रशासनिक और सामाजिक दोनों व्यवस्थाओं से लड़कर अपने सच के समर्थन में पूरी शक्ति से खड़े होकर दुर्गम, कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हैं। वे समझौता नहीं संघर्ष को स्वीकारते हैं। पंकज जी के लिए नवगीत लेखन स्थापित को नष्ट कर विस्थापित को स्थापित करने का हथियार है। वे लोक की आवाज अनसुनी होते देखकर आव्हान करते हैं-

देश निरंकुशता का अभिनय देख रहा
देख रहा झूठे जुमलों को वादों को
देख रहा जनतंत्र विवश मतदाता को
और बदलते हुए नित्य संवादों को
केवल निर्वाचन तक सीमित कर डाला
चतुर भेड़ियों के दल ने सिंहासन को
आओ मिल षड्यंत्रों का आकलन करें

आओ अपने लोकतंत्र को नमन करें
लोक को मताधिकार तो है किन्तु प्रतिनिधि चुनने का नहीं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जनहित की चिंता करने के स्थान पर सरकारों के पक्ष या विपक्ष में प्रचार में व्यस्त है। ‘समय है संभावना का’ में यह विद्रूप रेखांकित किया गया है। ‘जल्दी से आलस्य उतारो’ में इस विसंगति को सामने लाने के साथ आलस छोड़कर परिवर्तन करने का भी है-
बिका मीडिया फेंक रहा है, मालिक की मंशा परदे पर
और साथ में बेच रहा है, बाबाओं के भी आडम्‍बर
अगर नहीं सो रहे उठो अब, अपने मुँह पर छींटे मारो
जाग गए हो अगर समय से, जल्दी से आलस्य उतारो
कविवर जगदीश पंकज अपने वैचारिक चिंतन को नवगीतों में पिरोकर प्रस्तुत करने की कला में निपुण हैं। 
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समय की पगडंडियों पर, गीत-नवगीत संग्रह, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ- ११२, मूल्य- रु. २००, प्रकाशक राजस्थानी ग्रंथागार, प्रथम माला, गणेश मंदिर के पास, सोजती गेट, जोधपुर, समीक्षा सुनीता काम्बोज] 
समय की पगडण्डियों पर बाल साहित्य तथा कुण्डलिया छंद में निष्णात श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला का प्राथन गीत-नवगीत संग्रह है। गीति रचनाओं में सामाजिक विसंगतियाँ, राष्ट्रीयता, जीवन दर्शन, श्रृंगार आदि सहज दृष्टव्य हैं। मोलत: बाल साहित्यकार होने के कारण ठकुरेला जी को अपनी बात सहज, सरल भाषा-शैली में कहना पसंद है। दोहा, रोला व कुण्डलिया छंद में उनकी निपुणता ने भाषिक प्रवाह, सम्यक शब्द चयन तथा लय से इन रचनाओं को समृद्ध किया है। प्रबल भाव पक्ष, सधा शिल्प सौष्ठव तथा जमीन से जुड़ाव इन रचनाओं का वैशिष्ट्य है। युगीन विसंतियों को लक्ष्य कर 'करघा व्यर्थ हुआ कबीर' नवगीत में कवि कहता है- 
करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया

काशी में नंगों का बहुमत
अब चादर की किसे जरूरत
सिर धुन रहे कबीर 
रुई का 
धुनना छोड़ दिया
सामाजिक मूल्यों के क्षरण तथा पारस्परिक विश्वास के नष्ट होने से दिशाभ्रमित जनों द्वारा किये जा रहे नारी-अपराधों को संकेत कर 'बिटिया' के माध्यम से कवि करारा प्रहार करता है।
बिटिया।
जरा संभल कर जाना
लोग छिपाए रहते खंज़र
गाँव, शहर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते
कहीं कहीं तेजाब बरसता
दिन-ब-दिन बढ़ते अपराधों के विरुद्ध संघर्ष का आव्हान करते हैं ठकुरेला जी-
आखिर कब तक
चुप बैठेंगे
चलों वर्जनाओं को तोड़ें
जाति, धर्म, भाषा में
उलझे
सबके चेहरे बंटे हुए हैं
व्यर्थ फँसे हुए हैं
चर्चाओं में
मूल बात से कटे हुए हैं
आओ बिखरे संवादों की
कड़ियाँ कड़ियाँ फिर से जोड़ें।
लोकोक्ति है 'आशा पर आसमान टंगा हैँ' को आत्मसात कर कवी निराश न होकर सतत प्रयास करने के लिए तत्पर है- 
आँखें फाड़े
खड़े हुए हैं
राजमहल के आगे
शायद राजा जागे।
अभियंता ठकुरेला जी का यह नवगीत संकलन 'चीकने पात' की तरह पठनीय बन पड़ा है। 
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[ हैं जटायु से अपाहिज हम,नवगीत संग्रह, कृष्ण भारतीय, आईएसबीएन ९७८७९३८४७७२५८१, प्रथम संस्करण २०१७, अनुभव प्रकाशन, ई-२८, लाजपतनगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद- २०१००५,  मूल्य- रु. १५०, पृष्ठ- ९६, समीक्षा- राजेन्द्र वर्मा]

वरिष्ठ नवगीतकार कृष्ण भारतीय के ७४ सशक्त नवगीतों का पठनीय-संग्रहणीय संकलन 'है जटायु से अपाहिज हम' २०१७ में प्रकाशित हुआ है।  समीक्ष्य नवगीतों में अभिव्यक्ति की शैली आकर्षक है। बोलचाल और तत्सम शब्दों से सज्जित भाषा पूर्णरूपेण भावानुरूप है। मिथकीय प्रतीकों के सफल प्रयोग से कथ्य ऐसे खुलकर आता है जैसे वह पाठक का भोगा हुआ हो। नवगीत की शक्ति को पहचानकर रचनाकार ने शिल्प और वस्तु में पूर्ण सामंजस्य बिठाकर यथार्थ की भूमि हमारे आस-पास घटित हो रहे अघट को अधिकांशतः प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है, जिसमें रचनाकार की जन-प्रतिबद्धता प्रवहमान है। 
दम घुटा जाता हमारा 
धुँए के वातावरण में, 
क्या करें ?
है नहीं सामर्थ्य इतनी कि खरीदें
सूर्य से थोडा उजाला
गगनचुम्बी कीमतों के देश में 
है बहुत मुश्किल जुटाना 
एक रोटी का निवाला 
हैं जटायु-से अपाहिज हम 
हरेक सीताहरण में, 
क्या करें ? 
एक ध्रुवतारा हमारी ज़िन्दगी, 
पर बिक रही है भाव रद्दी के 
रोज बन्दर-सा नचाते हैं
हमें उफ़! 
ये मदारी राजगद्दी के
ढेर सारे प्रश्न 
अगवानी किया करते
नये नित जागरण में, 
क्या करें ?
गीतकार कवि होने की व्यथा-कथा को भी अपने एक गीत में दर्ज़ करता है। गीत की रचना तभी होती है जब गीतकार तपस्वी की भूमिका में उतरता है। 
कवि होना भी इक दधीच के तप जैसा है। 
सबका दुख आँखों से गहना, मथना, सहना
शब्द-शब्द गुनना, बुनना
गीतों का कहना 
बहुत कठिन तनहा, संतों के तप जैसा है। 
मन-सागर-मंथन ने उगले हीरे-मोती 
अमृत बाँट, गरल पी जागीं रातें सोती 
सूफी दरगाहों के फक्कड़ जप जैसा है।
विसंगतियों के विश्लेषण और गीत में कहीं-कहीं वर्णित समस्या का समाधान भी दृष्टव्य है। मिथ से उपजे प्रतीक युगीन यथार्थबोध को प्रस्तुत करते हुए संग्रह के नवगीत मार्मिक भाव-भंगिमा दर्शाते हैं और देर तक अपनी अनुगूँज बनाये रखते हैं। 
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