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बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

सॉनेट, नवगीत, दोहा, लघुकथा, मुक्तिका, छंद प्रदोष,उपेन्द्रवज्रा, हरिगीतिका

सॉनेट
धीर धरकर
पीर सहिए, धीर धरिए।
आह को भी वाह कहिए।
बात मन में छिपा रहिए।।
हवा के सँग मौन बहिए।।
मधुर सुधियों सँग महकिए।
स्नेहियों को चुप सुमिरिए।
कहाँ क्या शुभ लेख तहिए।।
दर्द हो बेदर्द सहिए।।
श्वास इंजिन, आस पहिए।
देह वाहन ठीक रखिए।
बनें दिनकर, नहीं रुकिए।।
असत् के आगे न झुकिए।।
शिला पर सिर मत पटकिए।
मान सुख-दुख सम विहँसिए।।
१६-२-२०२२
•••
लघु कथा
वैलेंटाइन
*
'तुझे कितना समझाती हूँ, सुनता ही नहीं. उस छोरी को किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ देता ही रहता है. इतने दिनों में तो बात आगे बढ़ी नहीं. अब तो उसका पीछा छोड़ दे'
"क्यों छोड़ दूँ? तेरे कहने से रोज सूर्य को जल देता हूँ न? फिर कैसे छोड़ दूँ?"
'सूर्य को जल देने से इसका क्या संबंध?'
"हैं न, देख सूर्य धरती को धूप की गिफ्ट देकर प्रोपोज करता हैं न?धरती माने या न माने सूरज धूप देना बंद तो नहीं करता. मैं सूरज की रोज पूजा करूं और उससे इतनी सी सीख भी न लूँ कि किसी को चाहो तो बदले में कुछ न चाहो, तो रोज जल चढ़ाना व्यर्थ हो जायेगा न? सूरज और धरती की तरह मुझे भी मनाते रहना है वैलेंटाइन."
***
दोहा
*
कौर त्रिलोचन के हुए, गत अब आगत मीत.
उमा मौन हो देखतीं, जगत्पिता की प्रीत.
*
यह अनुपम वह निरुपमा, गौरा-बौरा साथ.
'सलिल' धन्य दर्शन मिले, जुड़े हाथ नत माथ.
*
क्या दूँ कैसे मैं इन्हें, सोच रहे मिथलेश?
त्रिपग नापते पग खड़े, बन दामाद रमेश.
*
रमा दे रहे शेष क्या, रहा कहीं भी तात?
राम जोड़ कर नत हुए, वंदन करे प्रभात
*
श्यामल विश्वंभर प्रभा, गौर उमा की कांति
इन्हें लुभाती उग्रता, उन्हें सुहाती शांति
*
थामे लता यशोधरा, तनिक नहीं भयभीत
सिंह अखंड पीड़ा लखे, अश्रु बहाए प्रीत
१६.२.२०१८
***
मुक्तिका
वार्णिक छंद उपेन्द्रवज्रा –
मापनी- १२१ २२१ १२१ २२
सूत्र- जगण तगण जगण दो गुरु
तुकांत गुरु, पदांत गुरु गुरु
*
पलाश आकाश तले खड़ा है
उदास-खो हास, नहीं झुका है
हजार वादे कर आप भूले
नहीं निभाए, जुमला कहा है
सियासती है मनुआ हमारा
चचा न भाए, कर में छुरा है
पड़ोस में ही पलते रहे हो
मिलो न साँपों, अब मारना है
तुम्हें दई सौं, अब तो बताओ
बसंत में कंत कहाँ छिपा है
*
एक दोहा
*
लाड़ शब्द से कीजिए, शब्द जताते प्यार
जान लुटाई शब्द पर, शब्द हुए बलिहार
***
सुभ्रामर दोहा
[२७ वर्ण, ६ लघु, २१ गुरु]
*
छोटी मात्रा छै रहें, दोहा ले जी जीत
सुभ्रामर बोलें इसे, जैसे मन का मीत
*
मैया राधा द्रौपदी, हेरें-टेरें खूब
आता जाता सताता, बजा बाँसुरी खूब
*
दादा दादी से कहें, पोते हैं नादान
दादी बोलीं- 'पोतियाँ, शील-गुणों की खान
*
कृष्णा सी मानी नहीं, दानी कर्ण समान
मीरा सी साध्वी कहाँ, कान्हा सी संतान
*
क्या लाया?, ले जाय क्या?, क्यों जोड़ा है व्यर्थ?
ज्यों का त्यों है छोड़ना, तो क्यों किया अनर्थ??
*
पाना खोना दें भुला, देख रहा अज्ञेय
हा-हा ही-ही ही नहीं, है साँसों का ध्येय
*
टोटा है क्यों टकों का, टकसालों में आज?
छोटा-खोटा मूँड़ पे, बैठा पाए राज
*
भोला-भाला देव है, भोला-भाला भक्त
दोनों दोनों से कहें, मैं तुझसे संयुक्त
*
देवी देवी पूजती, 'माँगो' माँगे माँग
क्या माँगे कोई कहे?, भरी हुई है माँग
*
माँ की माँ से माँ मिली, माँ से पाया लाड़
लाड़ो की लाड़ो लड़ी, कौन लड़ाए लाड़?
***
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
फागुन फगुनाई फगुनाहट
फगुनौटी त्यौहार.
रश्मिरथी हो विनत कर रहा
वसुधा की मनुहार.....
*
किरण-करों से कर आलिंगित
पोर-पोर ले चूम.
बौर खिलें तब आम्र-कुञ्ज में
विहँसे भू मासूम.
चंचल बरसाती सलिला भी
हुई सलज्जा नार.
कुलाचार तट-बंधन में बंध
चली पिया के द्वार.
वर्षा-मेघ न संग दीखते
मौन राग मल्हार.....
*
प्रकृति-सुंदरी का सिंगार लख
मोहित है ऋतुराज.
सदा लुभाता है बनिए को
अधिक मूल से ब्याज.
संध्या-रजनी-उषा त्रयी के
बीच फँसा है चंद.
मंद हुआ पर नहीं रच सका
अचल प्रणय का छंद.
पूनम-'मावस मिलन-विरह का
करा रहीं दीदार.....
*
अमराई, पनघट, पगडंडी,
रहीं लगाये आस.
पर तरुणाई की अरुणाई
तनिक न फटकी पास.
वैलेंटाइन वाइन शाइन
डेट गिफ्ट प्रेजेंट.
नवाचार में कदाचार का
मिश्रण है डीसेंट.
विस्मित तके बसंत नज़ारा
'सलिल' भटकता प्यार.....
16 फ़रवरी 2010 को 03:31 पूर्वाह्न बजे
***
छंद सलिला:
प्रदोष छंद
संजीव
*
दो पदी, चार चरणीय, १२ मात्राओं के मात्रिक प्रदोष छंद में दो चतुष्कल एक पंचकल होते हैं तथा चरणान्त में गुरु-लघु (तगण, जगण) वर्जित हैं.
उदाहरण:
१. प्रदोष व्रत दे शांति सुख, उमेश हर लें भ्रान्ति-दुःख
त्रिदोष मेंटें गजानन, वर दें दुर्गे-षडानन
२. भारत भू है पुरातन, धरती है यह सनातन
जां से प्यारा है वतन, चिन्तन-दर्शन चिरंतन
३. झण्डा ऊंचा तिरंगा, नभ को छूता तिरंगा
अपना सपना तिरंगा, जनगण वरना तिरंगा
*
१. लक्षण संकेत: उमेश = १२ ज्योतिर्लिंग = १२ मात्रायें
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
१६-२-२०१४
***
चर्चा:
प्रेम गीत
*
स्थापना और प्रतिस्थापना के मध्य संघात, संघर्ष, स्वीकार्यता, सहकार और सृजन सृष्टि विकास का मूल है। विज्ञान बिग बैंग थ्योरी से उत्पन्न ध्वनि तरंग जनित ऊर्जा और पदार्थ की सापेक्षिक विविधता का अध्ययन करता है तो दर्शन और साहित्य अनाहद नाद की तरंगों से उपजे अग्नि और सोम के चांचल्य को जीवन-मृत्यु का कारक कहता है। प्राणमय सृष्टि की गतिशीलता ही जीवन का लक्षण है। यह गतिशीलता वेदना, करुणा, सौन्दर्यानुभूति, हर्ष और श्रृंगार के पञ्चतात्विक वृत्तीय सोपानों पर जीवनयात्रा को मूर्तित करती है।
'जीवन अनुभूतियों की संसृति है। मानव का अपने परिवेश से संपर्क किसी न किसी सुखात्मक या दुखात्मक अनुभूति को जन्म देता है और इन संवेदनों पर बुद्धि की क्रिया-प्रतिक्रिया मूल्यात्मक चिंतन के संस्कार बनती चलती है। विकास की दृष्टि से संवेदन चिंतन के अग्रज रहे हैं क्योंकि बुद्धि की क्रियाशीलता से पहले ही मनुष्य की रागात्मक वृत्ति सक्रिय हो जाती है।'-महादेवी वर्मा, संधिनी, पृष्ठ ११
इस रागात्मक वृत्ति की प्रतीति, अनुभूति और अभिव्यक्ति की प्रेम गीतों का उत्स है। गीत में भावना, कल्पना और सांगीतिकता की त्रिवेणी का प्रवाह स्वयमेव होता है। गीतात्मकता जल प्रवाह, समीरण और चहचहाहट में भी विद्यमान है। मानव समाज की सार्वजनीन और सरकालिक अनुभूतियों को कारलायल ने 'म्यूजिकल थॉट' कहा है. अनुभूतियों के अभिव्यमति कि मौखिक परंपरा से नि:सृत लोक गीत और वैदिक छान्दस पाठ कहने-सुनने की प्रक्रिया से कंठ से कंठ तक गतिमान और प्राणवंत होता रहा। आदिम मनुष्य के कंठ से नि:सृत नाद ब्रम्ह व्यष्टि और समष्टि के मध्य प्रवाहमान होकर लोकगीत और गीत परंपरा का जनक बना। इस जीवन संगीत के बिना संसार असार, लयहीन और बेतुक प्रतीत होने लगता है। अतः जीवन में तुक, लय और सार का संधान ही गीत रचना है। काव्य और गद्य में क्रमशः क्यों, कब, कैसे की चिंतनप्रधानता है जबकि गीत में अनुभूति और भावना की रागात्मकता मुख्य है। गीत को अगीत, प्रगीत, नवगीत कुछ भी क्यों न कहें या गीत की मृत्यु की घोषणा ही क्यों न कर दें गीत राग के कारण मरता नहीं, विरह और शोक में भी जी जाता है। इस राग के बिना तो विराग भी सम्भव नहीं होता।
आम भाषा में राग को प्रेम कहा जाता है और राग-प्रधान गीतों को प्रेम गीत।
***
अभिनव प्रयोग:
हरिगीतिका मुक्तक:
पथ कर वरण, धर कर चरण, थक मत चला, चल सफल हो.
श्रम-स्वेद अपना नित बहा कर, नव सृजन की फसल बो..
संचय न तेरा साध्य, कर संचय न मन की शांति खो-
निर्मल रहे चादर, मलिन हो तो 'सलिल' चुपचाप धो..
*
करता नहीं, यदि देश-भाषा-धर्म का, सम्मान तू.
धन-सम्पदा, पर कर रहा, नाहक अगर, अभिमान तू..
अभिशाप जीवन बने तेरा, खो रहा वरदान तू-
मन से असुर, है तू भले, ही जन्म से इंसान तू..
*
करनी रही, जैसी मिले, परिणाम वैसा ही सदा.
कर लोभ तूने ही बुलाई शीश अपने आपदा..
संयम-नियम, सुविचार से ही शांति मिलती है 'सलिल'-
निस्वार्थ करते प्रेम जो, पाते वही श्री-संपदा..
*
धन तो नहीं, आराध्य साधन मात्र है, सुख-शांति का.
अति भोग सत्ता लोभ से, हो नाश पथ तज भ्रान्ति का..
संयम-नियम, श्रम-त्याग वर, संतोष कर, चलते रहो-
तन तो नहीं, है परम सत्ता उपकरण, शुचि क्रांति का..
*
करवट बदल ऋतुराज जागा विहँस अगवानी करो.
मत वृक्ष काटो, खोद पर्वत, नहीं मनमानी करो..
ओजोन है क्षतिग्रस्त पौधे लगा हरियाली करो.
पर्यावरण दूषित सुधारो अब न नादानी करो..
१६-२-२०१३
***
मुक्तिका:
अनसुलझे मसले हैं हम..
*
सम्हल-सम्हल फिसले हैं हम.
फिसल-फिसल सम्हले हैं हम..
खिले, सूख, मुरझाये भी-
नहीं निठुर गमले हैं हम..
सब मनमाना पीट रहे.
पिट-बजते तबले हैं हम..
अख़बारों में रोज छपे
घोटाले-घपले हैं हम..
'सलिल' सुलझ कर उलझ रहे.
अनसुलझे मसले हैं हम..
***
याद
याद बन पाथेय
जीवन को नये
नित अर्थ देती.
यदि नहीं तो
भाव की
होती
सब व्यर्थ खेती.
***
मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
*
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..

चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..

गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..

जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..

धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..

कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..

दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..

नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
***
मुक्तिका
खुद से ही
*
खुद से ही हारे हैं हम.
क्यों केवल नारे हैं हम..

जंग लगी है, धार नहीं
व्यर्थ मौन धारे हैं हम..

श्रम हमको प्यारा न हुआ.
पर श्रम को प्यारे हैं हम..

ऐक्य नहीं हम वर पाये.
भेद बहुत सारे हैं हम..

अधरों की स्मित न हुए.
विपुल अश्रु खारे हैं हम..

मार न सकता कोई हमें.
निज मन के मारे हैं हम..

बाँहों में नभ को भर लें.
बादल बंजारे हैं हम..

चिबुक सजे नन्हे तिल हैं.
नयना रतनारे हैं हम..

धवल हंस सा जनगण-मन.
पर नेता करे हैं हम..

कंकर-कंकर जोड़ रहे.
शंकर सम, गारे हैं हम..

पाषाणों को मोम करें.
स्नेह-'सलिल'-धारे हैं हम..
***
नवगीत:
फागुन फगुनाई फगुनाहट
फगुनौटी त्यौहार.
रश्मिरथी हो विनत कर रहा
वसुधा की मनुहार.....
*
किरण-करों से कर आलिंगित
पोर-पोर ले चूम.
बौर खिलें तब आम्र-कुञ्ज में
विहँसे भू मासूम.
चंचल बरसाती सलिला भी
हुई सलज्जा नार.
कुलाचार तट-बंधन में बंध
चली पिया के द्वार.
वर्षा-मेघ न संग दीखते
मौन राग मल्हार.....
*
प्रकृति-सुंदरी का सिंगार लख
मोहित है ऋतुराज.
सदा लुभाता है बनिए को
अधिक मूल से ब्याज.
संध्या-रजनी-उषा त्रयी के
बीच फँसा है चंद.
मंद हुआ पर नहीं रच सका
अचल प्रणय का छंद.
पूनम-'मावस मिलन-विरह का
करा रहीं दीदार.....
*
अमराई, पनघट, पगडंडी,
रहीं लगाये आस.
पर तरुणाई की अरुणाई
तनिक न फटकी पास.
वैलेंटाइन वाइन शाइन
डेट गिफ्ट प्रेजेंट.
नवाचार में कदाचार का
मिश्रण है डीसेंट.
विस्मित तके बसंत नज़ारा
'सलिल' भटकता प्यार.....
***
नवगीत:
फागुन फगुनाई फगुनाहट
फगुनौटी त्यौहार.
रश्मिरथी हो विनत कर रहा
वसुधा की मनुहार.....
*
किरण-करों से कर आलिंगित
पोर-पोर ले चूम.
बौर खिलें तब आम्र-कुञ्ज में
विहँसे भू मासूम.
चंचल बरसाती सलिला भी
हुई सलज्जा नार.
कुलाचार तट-बंधन में बंध
चली पिया के द्वार.
वर्षा-मेघ न संग दीखते
मौन राग मल्हार.....
*
प्रकृति-सुंदरी का सिंगार लख
मोहित है ऋतुराज.
सदा लुभाता है बनिए को
अधिक मूल से ब्याज.
संध्या-रजनी-उषा त्रयी के
बीच फँसा है चंद.
मंद हुआ पर नहीं रच सका
अचल प्रणय का छंद.
पूनम-'मावस मिलन-विरह का
करा रहीं दीदार.....
*
अमराई, पनघट, पगडंडी,
रहीं लगाये आस.
पर तरुणाई की अरुणाई
तनिक न फटकी पास.
वैलेंटाइन वाइन शाइन
डेट गिफ्ट प्रेजेंट.
नवाचार में कदाचार का
मिश्रण है डीसेंट.
विस्मित तके बसंत नज़ारा
'सलिल' भटकता प्यार.....
***
दोहा गीत:
धरती ने हरियाली ओढ़ी...
*
धरती ने हरियाली ओढ़ी,
मनहर किया सिंगार.,
दिल पर लोटा सांप
हो गया सूरज तप्त अंगार...
*
नेह नर्मदा तीर हुलसकर
बतला रहा पलाश.
आया है ऋतुराज काटने
शीत काल के पाश.
गौरा बौराकर बौरा की
करती है मनुहार.
धरती ने हरियाली ओढ़ी,
मनहर किया सिंगार.
*
निज स्वार्थों के वशीभूत हो
छले न मानव काश.
रूठे नहीं बसंत, न फागुन
छिपता फिरे हताश.
ऊसर-बंजर धरा न हो
न दूषित मलय-बयार.
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
*
अपनों-सपनों का त्रिभुवन
हम खुद ना सके तराश.
प्रकृति का शोषण कर अपना
खुद ही करते नाश.
जन्म दिवस को बना रहे क्यों
'सलिल' मरण-त्यौहार?
धरती ने हरियाली ओढी,
मनहर किया सिंगार....
१६-२-२०११
***

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